तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

रविवार, जनवरी 22, 2017

सुमेधानंद क्या, वसुंधरा तक लाचार हैं संघ के आगे?

सीकर से भाजपा के सांसद सुमेधानन्द सरस्वती का एक कथित ऑडियो सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर वायरल हुआ है, जिसमें सांसद सुमेधानन्द सरस्वती संघ के आगे लाचार होते सुनाई दे रहे हैं। इतना ही नहीं, ऑडियो में सांसद ने यहां तक कह डाला कि संघ के आगे तो राज्य की मुख्यमंत्री तक भी नतमस्तक है। यह ऑडियो में एक कॉलेज लेक्चरर श्रीधर शर्मा और सांसद सुमेधानन्द सरस्वती के बीच हुई बातचीत का बताया जा रहा है, जिसमें श्रीधर शर्मा अपने स्थानांतरण को लेकर सांसद से बात करते हुए सुनाई दे रहे हैं।
ऑडियो की सच्चाई क्या है अथवा क्या वह सुमेधानंद की ही आवाज है, इस पर न जाते हुए विषय वस्तु को देखें तो वह ठीक ही प्रतीत होती है। सुमेधानंद क्या, वसुंधरा राजे तक संघ के आगे नतमस्तक हैं। दिलचस्प बात ये है कि सुमेधानंद न केवल अपनी लाचारी बताई, अपितु वसुंधरा की स्थिति का भी बयान कर दिया। संयोग से चंद दिन पहले ही यह सुस्थापित हो गया था कि वसुंधरा का रिमोट कंट्रोल भी संघ के ही हाथ है। किसी समय राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से संबंधों को सिरे से नकारने वाली भाजपा को संघ ही संचालित करता है, इसका ताजा उदाहरण अजमेर में देखने को मिला। भले ही आधिकारिक तौर पर न तो भाजपा ने कुछ कहा, न ही संघ की ओर से कोई बयान आया, मगर सारे अखबार इसी बात से अटे पड़े थे कि संघ के यहां हुए कैंप में मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और गृहमंत्री गुलाबचंद कटारिया ने हाजिरी दी। यहां आ कर उन्हें सरकार के तीन साल के कामकाज का ब्यौरा दिया। इतना ही नहीं उन्हें यहां सरकार की खामियों को भी गिनाया गया। यानि की यह पूरी तौर से साफ हो गया कि संघ इतनी बड़ी ताकत है, जिसके आगे एक राज्य के मुख्यमंत्री को भी पेश होना पड़ता है। निश्चित रूप से इससे मुख्यमंत्री पद की गरिमा गिरी है, भाजपा व संघ चाहे इसे स्वीकार करें या नहीं।
चलो, ये संघ और भाजपा के आपसी संबंधों और समझ का मामला है, उनका आतंरिक मामला है, मगर क्या इस घटना से मुख्यमंत्री जैसे गरिमा वाले पद की संघ के आगे कितनी बिसात है, यह उजागर नहीं हुआ है? संघ चाहता तो जयपुर में ही किसी गुप्त स्थान पर वसुंधरा राजे को बुला कर उनसे सरकार की परफोरमेंस पूछ सकता था। गोपनीय स्थान पर दिशा-निर्देश दे सकता था। क्या उसके लिए अजमेर में आयोजित हुए कैंप में बुलाना जरूरी था।? संघ और भाजपा के पास सफाई देने को हालांकि कुछ है नहीं, मगर ये कह सकते हैं कि कौन कहता है कि मुख्यमंत्री की हाजिरी लगवाई गई। मगर जब पूरा मीडिया एक स्वर से यह कह रहा था कि मुख्यमंत्री को जवाब तलब किया गया, तो क्या उनकी ओर से उसका खंडन नहीं किया जाना चाहिए था। कहीं ऐसा तो नहीं कि ऐसा जानबूझकर किया गया, ताकि भाजपा नेताओं व कार्यकर्ताओं में यह संदेश जाए कि संघ ही उनका आला कमान है। हालांकि भाजपा नेता व कार्यकर्ता तो अच्छी तरह से जानते हैं कि किस प्रकार संघ का पार्टी में दखल है, मगर यही तथ्य जब सार्वजनिक होता है तो यह सवाल उठना लाजिमी है कि संघ को भाजपा का रिमोट कंट्रोल कहे जाने पर दोनों को क्यों ऐतराज होता है?
अजमेर में हुई इस घटना का एक पहलू ये भी है कि जब से केन्द्र में भाजपा की स्पष्ट बहुमत वाली सरकार आई है, संघ पर शिंकजा और कस गया है। किसी जमाने में सीधे हाई कमान से टक्कर लेने वाली वसुंधरा राजे अब कितनी कमजोर हैं, यह साफ परिलक्षित होता है। और यही वजह है कि जैसा कार्यकाल पिछला रहा, उसकी तुलना में मौजूदा कार्यकाल कमतर माना जा रहा है। सच तो ये है कि सरकार में राजनीतिक नियुक्तियों को लेकर संघ का इतना दखल है कि तीन साल बीत जाने के बाद भी कई महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्यिां अटकी हुई हैं। ऐसे में भला सरकार का परफोरमेंस कैसे बेहतर रह सकता है, यह अपने आप स्पष्ट हो जाता है।
बात अगर सुमेधानंद के वायलर हुए ऑडियो की करें तो उससे यह तक उजागर हो रहा है कि राजनीतिक नियुक्तियां क्या, पोस्टिंग तक में संघ की चलती है। ऑडियो की बातचीत में श्रीधर शर्मा ने सांसद को अपनी पीड़ा सुनाई तो सांसद ने कहा कि संघ जिसको चाहता है, वहीं मनमाफिक पोस्टिंग मिलती है, बिना संघ के इस जमाने में स्थानांतरण और मनमाफिक पोस्टिंग नहीं ली जा सकती।
-तेजवानी गिरधर
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शुक्रवार, जनवरी 20, 2017

बिहार चुनाव से सबक नहीं लिया संघ ने?

घोड़ी चढऩे के दिन तेज जुलाब नहीं लेना चाहिये, क्या इतनी सी बात वैद्य जी को नहीं पता? 
ऐसा प्रतीत होता है कि बिहार चुनाव के परिणाम से संघ ने सबक नहीं लिया है। तब संघ प्रमुख मोहन भागवत ने ऐन चुनाव प्रचार के दौरान अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति के आरक्षण को खत्म करने का सुझाव दे कर भाजपा के लिए एक मुसीबत पैदा कर दी थी। हालांकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भरपूर कोशिश की कि इस बयान से होने वाले नुकसान को रोका जाए और आरक्षण की जबरदस्त पैरवी की, मगर संघ का बयान आम जनता में इतना गहरे पैठ गया कि उसे विरोधियों ने भी जम कर भुनाया और भाजपा चारों खाने चित हो गई।
अब एक बार फिर वही स्थिति संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य ने पैदा कर दी है। उत्तर प्रदेश जैसे सर्वाधिक राजनीतिक महत्वाकांक्षी राज्य सहित पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों की घोषणा के बाद गरम हुए राजनीतिक माहौल के बीच उन्होंने जयपुर में लिटरेचर फेस्टिवल में भाषण देते हुए कहा कि आरक्षण को खत्म करना चाहिए और इसकी जगह ऐसी व्यवस्था लाने की जरूरत है, जिसमें सबको समान अवसर और शिक्षा मिले। वैद्य ने कहा कि अगर लंबे समय तक आरक्षण जारी रहा तो यह अलगाववाद की तरफ ले जाएगा। उन्होंने कहा कि किसी भी राष्ट्र में हमेशा के लिए ऐसे आरक्षण की व्यवस्था का होना अच्छी बात नहीं है। सबको समान अवसर और शिक्षा मिले।
जैसे ही उनका बयान आया तो आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव ने पहले की तरह ही इसे तुरंत लपक लिया और वैद्य की टिप्पणी पर कड़ी प्रतिक्रिया दी। उन्होंने कहा कि आरक्षण का अधिकार छीनना किसी के बस का नहीं है। लालू ने कहा कि लगता है बीजेपी ने बिहार चुनाव से कोई सबक नहीं लिया है। लालू प्रसाद यादव ने एक के बाद एक कई ट्वीट कर संघ और पीएम मोदी पर हमला बोला। आरजेडी सुप्रीमो ने कहा कि आरक्षण संविधान प्रदत्त अधिकार है।इसे छीनने की बात करने वालों को औकात में लाना मेरे वर्गों को आता है।
सवाल उठता है कि संघ की ओर से ऐन चुनाव के वक्त ऐसी हरकत क्यों कर की गई? क्या वैद्य के मुंह से ऐसा बयान प्रसंगवश निकल गया या फिर यह सोची समझी रणनीति का हिस्सा है? क्या उन्हें इस बात अंदाजा नहीं कि इस प्रकार का बयान पांच राज्यों, विशेष रूप से उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव में भाजपा को कितना नुकसान पहुंचा सकता है? यहां उल्लेखनीय है कि दिल्ली और बिहार में बुरी तरह से हारने के बाद भाजपा के लिए उत्तरप्रदेश का चुनाव भाजपा के लिए अत्यंत ही महत्वपूर्ण है, जो न केवल मोदी ब्रांड को बरकरार रखने के लिए जरूरी है, अपितु आगे चल कर राज्यसभा में पार्टी की स्थिति मजबूत करने के लिए भी अहम है। बावजूद इसके संघ ने ठीक चुनाव से पहले यह बयान जारी कर दिया। उनके इस बयान के बाद भाजपा के कर्ताधर्ताओं ने जहां अपना सिर धुन लिया होगा, वहीं सोशल मीडिया पर इसका जम कर उपहास किया जा रहा है। एक सज्जन ने लिखा है कि घोड़ी चढऩे के दिन तेज जुलाब नहीं लेना चाहिये, क्या इतनी सी बात वैद्य जी को नहीं पता? बड़े आए राजवैद्य। एक और टिप्पणी में उन्होंने लिखा कि ये जमाल घोटा चुनाव के ठीक पहले लेना किस वेद में लिखा है? समझा जा सकता है कि ये संघ के प्रचार प्रमुख पर कितना बड़ा तंज है। आम आदमी भी समझ सकता है कि संघ ने चलते रस्ते भाजपा के लिए कितनी बड़ी मुसीबत पैदा कर दी है। ऐसे में सवाल उठता है कि बौद्धिक देने में सिद्धहस्त संघ के जिम्मेदार पदाधिकारी ने ये हरकत क्यों की? राजनीतिक पंडित भी माथापच्ची कर रहे होंगे कि आखिर यह संघ के किस एजेंडे का हिस्सा है?
-तेजवानी गिरधर
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बुधवार, जनवरी 18, 2017

तिवारी जैसे भी स्वीकार हैं भाजपा को?

राजनीति इतनी मर्यादाहीन है कि राजनीतिक दल वोट की खातिर कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। यहां तक कि पार्टी विथ द डिफ्रेंस का तमगा लगाए भाजपा को भी परहेज नहीं। यूं आया राम गया राम का दौर शुरू हुए अरसा हो गया, मगर चारित्रिक दोष की वजह से बदनाम उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री एन डी तिवारी जैसों तक को वोट के लिए स्वीकार किया जा रहा है तो समझा जा सकता है कि राजनीति का स्तर कितना गिर गया है। ये कहना ज्यादा उचित रहेगा कि कोई स्तर ही नहीं रह गया है।
चुनावी सरगरमी के दौरान जैसे ही यह खबर आई कि नारायण दत्त तिवारी, पत्नी उज्जवला और बेटे रोहित शेखर संग अमित शाह के घर पहुंचे, जहां रोहित शेखर ने भाजपा की सदस्यता ली और कहा कि वे भाजपा के लिए प्रचार करेंगे, तो सोशल मीडिया भद्र-अभद्र टिप्पणियों से अट गया। हालांकि पूर्व तिवारी के भी भाजपा में शामिल होने की चर्चा हो रही थी, लेकिन उन्होंने अभी भाजपा ज्वाइन नहीं की है। कहने भर को भले ही तिवारी भाजपा में शामिल नहीं हुए हैं, मगर इस सवाल का क्या जवाब है कि उनके बेटे को भाजपा ज्वाइन करनी थी तो वे साथ क्यों गए? जाहिर सी बात है, रोहित शेखर को जानता कौन है? उसे तो दुनिया ने तब जाना, जब उसकी मां उज्जवला ने यह उजागर किया कि रोहित तिवारी जी का बेटा है। न केवल कहा, बल्कि बाकायदा डीएनए टेस्ट से यह साबित किया कि तिवारी ही उनके बेटे के पिता हैं। यानि कि रोहित की पहचान तिवारी की ही वजह से है, कि वह एक पूर्व मुख्यमंत्री का बेटा है। स्पष्ट है कि भाजपा तिवारी को चाहने वालों के वोट बटोरना चाहती है। चलो ऊंचे आदर्शों वाली भाजपा ने तो ऐसा वोट की खातिर किया, मगर सवाल ये उठता है कि हमारी सोसायटी को आखिर हो क्या गया है? तिवारी जैसे भी समाज में प्रतिष्ठित हैं, तभी तो उनकी राजनीतिक वैल्यू कायम है। अफसोस।
-तेजवानी गिरधर
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मंगलवार, जनवरी 10, 2017

यानि कि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने पल्लू झाड़ लिया

नोटबंदी को लेकर सवालों का सामना कर रहे रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के यह कहने के साथ ही कि उसके बोर्ड ने सरकार की सलाह पर नोटबंदी की सिफारिश की थी, यह साफ हो गया है कि वह सीधे तौर पर इसके लिए जिम्मेदार होते हुए भी अपना पल्लू झाड़ रहा है। इतना ही नहीं, इसके साथ यह स्वीकारोक्ति भी है कि उसने सरकार के दबाव में काम किया, अपने विवेक का इस्तेमाल नहीं किया। विवेक का इस्तेमाल होता भी कैसे, नोटबंदी 8 नवंबर को लागू की गई और सरकार ने सिर्फ एक दिन पहले 7 नवंबर को इसकी सलाह दी थी। मात्र एक दिन में इस सलाह को मानने पर होने वाले प्रभाव पर विचार नितांत असंभव था।
फाइनेंस मैटर मॉनीटर करने वाली पार्लियामेंट्री कमेटी को 7 पेज का जो नोट भेजा है, उसमें बताया गया है कि 7 नवंबर 2016 को सरकार ने बैंक से कहा कि जाली नोट, टेरेरिज्म फाइनेंस और ब्लैक मनी जैसी तीन परेशानियों के लिए नोटबंदी जरूरी है। सरकार ने ये भी कहा कि एक हजार और पांच सौ के नोट बंद करने के प्रपोजल पर विचार करना चाहिए। 8 नवंबर को बैंक के सेंट्रल बोर्ड ने प्रपोजल पर विचार करने के बाद नोटबंदी की सिफारिश कर दी थी। ऐसे में समझा जा सकता है कि बोर्ड में बैठे अर्थशास्त्रियों को सरकार की सलाह पर ठीक से विचार का समय ही नहीं मिल पाया। मात्र एक दिन में सलाह को मान कर सिफारिश करने से यह स्पष्ट है कि उस पर तुरंत सिफारिश करने का दबाव था। अगर बोर्ड चाहता तो उस पर तफसील से विचार कर अपनी सिफारिश देता, जो कि होना भी चाहिए था, मगर हाथों हाथ सलाह मान लेने का परिणाम ये रहा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पचास दिन की मोहलत मांगने के दस दिन बाद भी लोग अपने पैसे के लिए बैंक व एटीएम के चक्कर लगा रहे हैं।
जहां तक सलाह का सवाल है, सरकार ने नोटबंदी के लिए जो जरूरी कारण बताए, उनमें दम है, मगर सवाल ये उठता है कि क्या रिजर्व बैंक ने  सलाह पर मुहर लगाने के साथ यह विचार नहीं किया कि वह जमा हो रही करंसी की तुलना में नई करंसी देने की स्थिति में नहीं है? जिस वजह से नोटबंदी का कदम उठाया गया, उसकी पूर्ति हुई या नहीं, ये अलग विषय है, मगर आज जो यह नोटबंदी पूरी अर्थव्यवस्था को झकझोड़ देने वाली साबित हो गई है, उसकी एक मात्र वजह ये है कि लोगों की जमा पूंजी बैंकों में तो है, मगर खर्च करने के लिए हाथ में नहीं आ पा रही।
नोटबंदी का फैसला केवल और केवल मोदी ने बिना किसी अर्थशास्त्री की सलाह के लागू करवा दिया, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि बोर्ड की मंजूरी के बाद कुछ ही घंटे के भीतर मोदी ने कैबिनेट से मुलाकात की। कुछ मिनिस्टर्स का मानना था कि सरकार ने बैंक के कहने पर ये फैसला लिया है, इस कारण उन्होंने कुछ किंतु परंतु किया ही नहीं। यानि कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में नोटबंदी का निर्णय पूरी तरह से तानाशाही स्टाइल में लागू हो गया, जो कि बेहद शर्मनाक और विचारणीय है।
-तेजवानी गिरधर
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रविवार, जनवरी 08, 2017

50 दिन बाद मोदी का लटका मुंह ताकते ही रह गए लोग

नोटबंदी से हो रही परेशानी से कोई राहत नहीं दे पाए
ध्यान बंटाने के लिए की गई नई घोषणाएं अप्रासंगिक 

-तेजवानी गिरधर-
हर आम आदमी, ठेठ मजदूर तक को उम्मीद थी कि पचास दिन की मोहलत पूरी होने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी नोटबंदी के संत्रास से मुक्ति का कोई ऐलान करेंगे, मगर निराशा ही हाथ लगी। न वो पहले जैसी दहाड़, न फड़कती भुजाएं, न वो गर्मजोशी, न विपक्ष की कमजोरी पर होता अट्टहास, बस एक बुझा हुआ, लटका हुआ चेहरा सामने आया। कहने को कुछ था ही नहीं।  कहने लायक रहा भी नहीं था। मजबूरी थी पचास दिन बाद रूबरू होने की, सो हो गए। जिसकी उम्मीद थी, उस पर कुछ नहीं बोले। मात्र ध्यान बंटाने के लिए होम लोन के ब्याज में छूट के साथ किसानों, वरिष्ठ नागरिकों व गर्भवति महिलाओं को लुभावने वाली कुछ घोषणाएं कीं, जो पूरी तरह से अप्रासंगिक थीं। अप्रांसगिक इसलिए चूंकि इनका ऐलान तो आने वाले बजट भाषण में वित्त मंत्री अरुण जेटली भी कर सकते थे। बेशक इन घोषणाओं का लाभ पाने वाले कुछ खुश होंगे, मगर जिस आर्थिक संताप से राहत की उम्मीद पाले उनके मन की बात सुनने को लोग आतुर थे, उन्होंने सिर पीट लिया।
कैसी विडंबना है कि नोटबंदी लागू करने के बाद आम आदमी को हुई भारी तकलीफ, जिसका कि उन्हें अंदाजा भी नहीं था, का पता लगने पर पचास दिन की मोहलत मांगने वाले प्रधानमंत्री को चौराहे पर सजा दिए जाने का मर्यादाहीन जुमला फैंकने का जरा भी अफसोस नहीं था। पचास दिन बाद भी मुंह चिढ़ाते कैश लेस एटीएम को देख कर परेशान आम जनता को राहत देने का एक आश्वासन तक उनके पास नहीं था। बैंकों के बाहर लगी लंबी लाइनों में आर्थिक आपातकाल का शिकार हुए एक सौ से ज्यादा निर्दोष नागरिकों के प्रति भी संवेदना का एक शब्द तक मुंह से नहीं फूटा। एक तानाशाह के बिना किसी तैयारी के लागू किए गए फैसले से परेशान जनता के लिए अगर राहत की बात थी तो इतनी कि उसे उस तानाशाह ने महान जनता करार दिया, जो कि बैंकों के बाहर पुलिस डंडे खा कर भी चुपचाप सहन कर गई। अब तक कर रही है।
नोटबंदी की विफलता तो इसी से साबित हो गई कि इसे लागू करते वक्त महान ऐतिहासिक कदम करार देने वाले के पास उससे हुए लाभ का कोई आंकड़ा नहीं था। जिस काले धन का हल्ला मचाया था, वह कितना आया, उसका भी कोई ठोस सबूत पेश नहीं कर पाए। हालत ये थी कि जिन बैंक वालों की काली करतूत के कारण किल्लत ज्यादा हुई, उन्हीं की उन्हें तारीफ करनी पड़ी। बेशक ज्यादा लूट मचाने वाले चंद बैंक कर्मियों को सजा देने की बात कही, मगर वह मात्र औपचारिक थी, जबकि उनकी ही वजह से जनता त्राहि त्राहि कर उठी है। वे जानते थे कि बैंक वाले बड़े यूनाइटेड हैं। एक भी कड़ी टिप्पणी की तो लेने के देने पड़ जाएंगे। आखिर कैश का लेने देन उन्हीं के जरिए तो करना है। उन्हें भला नाराज कैसे करें?
तेजवानी गिरधर
असल में कैश कि किल्लत मूलत: बिना तैयारी के कदम उठाने के कारण ही हुई है, मगर बैंक वालों ने उसमें करेला और नीम चढ़ा वाली कहावत चरितार्थ कर दी।  देश के इतिहास में पहली बार बेईमानी की तमगा हासिल करने वाले बैंक वाले अब भी अपनों को ऑब्लाइज करने और आम आदमी को ठेंगा दिखाने से बाज नहीं आ रहे। नमक में आटा डालने वाले जरूर आइडेंटिफाई हो गए, मगर चौबीस हजार रुपए तक की लिमिट के अंतर्गत बैंक वालों को मिली लिबर्टी का जिस तरह आज भी हर बैंक में दुरुपयोग किया जा रहा है, उसका उपाय अब भी नहीं तलाशा गया है। कदाचित सरल व सीधा उपाय है भी नहीं। बैंकों में इतना बारीक चैक सिस्टम लागू करना बेहद मुश्किल है। फिर, जब पचास दिन में जितनी गालियां मिलनी थी, मिल चुकीं, थोड़ी और सही। जनता भी परेशानी सहन करते करते उसकी आदी हो चुकी है। उसे भी समझ में आ गया है कि और भोगना पड़ेगा तो पड़ेगा, मोदी के पास भी कोई उपाय नहीं। मांग की तुलना में जिस गति से नए नोट छप रहे हैं, उसके अनुसार तो अभी और कष्ट झेलना ही है। वैसे भी मोदी की मारक मुद्राएं विरोधियों को डराने, बेईमानों को धमकाने और भ्रष्ट लोगों को बच कर निकल जाने के भ्रम से निकालने के लिए ही हैं।
कुल मिला कर ताजा हालात ये हैं कि दिहाड़ी मजदूर का भी सारा पैसा बैंकों में जमा है और वह खाली जेब भटक रहा है। भिवंड़ी का 50 फीसदी मजदूर खाली बैठा है। मुंबई के हजारों बंगाली ज्वेलरी कारीगर अपने गांव लौट गए हैं। आगरा में तिलपट्टी बनाने वाले भी हाथ पर हाथ धरे हैं। मुंबई का कंस्टरक्शन मजदूर भी बेकार बैठा है और फिल्मों के लिए अलग-अलग काम में दिहाड़ी काम करने वाले करीब दो लाख लोग भी गांव लौट गए हैं। नोटबंदी की मार मनरेगा के मजदूर पर इस कदर पड़ेगी, यह सरकार ने भी पता नहीं सोचा था या नहीं।
बहरहाल, आज सवाल यह नहीं है कि अब अचानक कोई जादू की छड़ी अपना काम शुरू कर देगी, सवाल ये है कि नोटबंदी के बाद देश, तकदीर के जिस तिराहे पर आ खड़ा हुआ है, वहां से जाना किधर है, यह समझ से परे होता जा रहा है। ऐसे में सरकार देश की नोटों की मांग पूरी न कर पाने के लाचारी की हालत से उबरने के लिए कैशलेस हो जाने का राग आलाप रही है। लेकिन जिस देश की करीब 30 फीसदी प्रजा को गिनती तक ठीक से लिखनी नहीं आती हो, जहां के 70 फीसदी गांवों में इंटरनेट तो छोड़ दीजिए, बिजली भी हर वक्त परेशान करती हो। उस हिंदुस्तान में कैशलेस के लिए मोबाइल बटुए, ईपेमेंट, पेटीएम और क्रेडिट कार्ड की कोशिश कितनी सार्थक होगी, यह भी एक सवाल है।

गुरुवार, दिसंबर 22, 2016

नोटबंदी की नाकामी का ठीकरा बैंकों पर फूटेगा?

क्या चंद भ्रष्ट बैंक वाले ही दोषी हैं, सरकार की कोई जिम्मेदारी नहीं? 
हालांकि नोटबंदी का फैसला जिस प्रकार जल्दबाजी में उठाया गया और उससे आम जनता को हो रही परेशानी से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पहले ही घिरते दिखाई दे रहे थे, मगर जिस प्रकार लगातार बैंकों से मिलीभगत करके करोड़ों रुपए के नोट बैंकों से बाहर निकले और पकड़े गए, उसे देख कर लगता है कि इस ऐतिहासिक कदम की नाकामी का पूरा ठीकरा बैंकों पर ही फूटने वाला है।
ज्ञातव्य है कि आजकल रोजाना ही इलैक्ट्रॉनिक मीडिया व अखबारों मे नये करेंसी नोट बड़ी तादाद में पकड़ में आने के समाचार आ रहे हैं। सवाल ये उठता है कि एक ओर जहां एटीएम मशीनों के बाहर लाइन लगा कर भी एक आदमी को मात्र दो हजार रुपए ही हासिल हो पा रहे हैं या बैंकों से दस हजार और अधिकतम 24 हजार रुपए मिल रहे हैं, वहीं दूसरी ओर लाखों और करोड़ों रुपए के दो हजार रुपए के नोट कैसे पकड़े जा रहे हैं? सीधे आरबीआई या नोट प्रिटिंग प्रेस से तो बाहर आ नहीं सकते। स्वाभाविक सी बात है कि इतने नोट किसी बैंक की करेंसी चेस्ट या फिर बैंक के मैनेजर अथवा किसी कर्मचारी से मिलीभगत करके हासिल किए गए हैं। चर्चा तो यह तक है कि जितनी बरामदगी दिखाई जा रही है, वास्तव में उससे कहीं अधिक बरामद हो रहे हैं, मगर उस स्तर पर भी पुलिस से मिलीभगत हो रही है, जैसी कि पुलिस की छवि बनी हुई है।
कैसी विडंबना है कि बिना तैयारी या कुछ खामियों के साथ ही सही, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इतना बड़ा कदम उठाया, मगर वह न केवल नकारा साबित हो रहा है, अपितु बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार का कारोबार चालू और हो गया। जो बैंक कर्मचारी आम तौर पर भ्रष्टाचार नहीं किया करते थे, जैसे ही उन्हें मौका मिला, उन्होंने जम कर लूट मचा दी। बेशक इसके लिए ऐसा करने वाले बैंक कर्मचारी ही जिम्मेदार हैं, मगर सवाल ये उठता है कि क्या सरकार को इतना भी ख्याल नहीं रहा कि इतना बड़ा लीकेज बैंकों के जरिए हो जाएगा, जिसके भरोसे ही उसने यह कदम क्रियान्वित किया। आपको याद होगा कि नोटबंदी के बाद कुछ दिन तक जब देखा गया कि बैंक के कर्मचारियों को बहुत अधिक अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ रही है तो खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने शाबाशी दी थी, मगर उन्हीं में चंद भ्रष्ट बैंक कर्मचारियों ने इस मुहिम की पूरी हवा ही निकाल दी। स्पष्ट है कि बैंकों के जरिए नए नोट बाजार में लाने की जो प्रक्रिया थी, उसमें बहुत अधिक लचीलापन था। कोई पुख्ता नीति नहीं बनाई गई। बैंक के मैनेजर और केशियर को ही यह लिबर्टी थी कि वह चाहे तो निर्धारित पूरे चौबीस हजार दे और चाहे तो केवल दो हजार की पकड़ाए या फिर बैंक में राशि न होने का बहाना बना कर लौटा दे। क्या सरकार को यह पता नहीं था कि जहां भी राशनिंग होगी, वहीं पर ब्लैक होने लगेगी? और उसी का परिणाम निकला कि जहां-जहां बैंक वालों को मौका लगा, वहीं पर उन्होंने कमीशन लेकर नए नोट दे दिए। ऐसा नहीं कि यह केवल कुछ ही स्थानों पर हुआ, अधिकतर बैंकों में छोटे स्तर पर नोटों की अदला बदली हुई है। स्थानीय स्तर पर प्रभावशाली लोग पूरे चौबीस हजार रुपए निकलवा कर ला रहे हैं, जबकि आम आदमी धक्के खा रहा है। बैंकों में हुए इस भ्रष्टाचार की खबरें तो तब सामने आईं, जब नए नोट बड़ी तादाद में पकड़े जाने लगे, मगर उससे भी पहले बाजार में यह खुली चर्चा थी कि कुछ लोग बीस से तीस प्रतिशन कमीशन ले कर नोट बदलने का काम कर रहे हैं। खुफिया तंत्र या तो विफल हो गया, या फिर उसकी सूचना को सरकार ने गंभीरता से नहीं लिया। अन्यथा तुरंत ऐसे भ्रष्टाचार पर रोक के कदम उठाए जाते। आज जब कि बड़े पैमाने पर नए नोट पकड़े जा रहे हैं और आरबीआई व सीबीआई हरकत में आए हैं और दोषियों की धरपकड़ हो रही है, उसके बाद भी कमीशन का धंधा जारी होने की चर्चाएं हैं। ये ठीक है कि पुराने नोटों के बदले ही नए नोट ही लिए गए हैं, जिससे सीधे तौर पर सरकार को कोई नुकसान नहीं माना जा सकता, मगर एक ओर जहां आम जन त्राहि त्राहि कर रहा है, रोजी रोटी की विकट समस्या उत्पन्न हो गई, बाजार बुरी तरह अस्त व्यस्त हो रहा है, वहीं चंद लोग इस प्रकार पीछे के रास्ते से करोड़ों रुपए हासिल कर रहे हैं, तो असंतोष बढऩा ही है। अर्थात यदि ये लूट नहीं मची होती तो जनता को उतनी तकलीफ नहीं होती, जितनी कि हो रही है। एक तो वैसे ही नए नोटों की सप्लाई की सीमा के कारण आम जन कष्ट पा रहा था, ऊपर से इस प्रकार मची लूट से उसकी तकलीफ और बढ़ गई है।
कुल मिला कर मोदी का यह ऐतिहासिक कदम बुरी तरह विवादित और विफल होने जा रहा है। इसके लिए जहां सरकार की तैयारी का अभाव एक प्रमुख कारक है, उससे कहीं अधिक बैंकों की बदमाशी जिम्मेदार है। ऐसे में मोदी समर्थक इस नाकामी का पूरा ठीकरा बैंकों पर फोड़ते दिखाई दे रहे हैं। मगर सवाल ये उठता है कि सरकार ने इतनी लापरवाही कैसे बरती कि बैंक वालों को लूट मचाने का मौका मिल गया। इसका एक परिणाम ये रहा कि आज हर बैंक वाला चोर नजर आता है, जबकि कुकृत्य लाखों बैंक कर्मचारियों में से गिनती के भ्रष्ट बैंक वालों ने किया या कर रहे हैं।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, दिसंबर 08, 2016

जनता त्रस्त, सरकार मस्त

इसमें कोई दोराय नहीं कि नोटबंदी के कदम से आम जनता बेहद, बेहद परेशान है, जिसे कि स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी मानते हैं, तभी तो हालात सुधारने के लिए पचास दिन की मोहलत मांगते हैं, बावजूद इसके विपक्ष सरकार को घेरने में कामयाब नहीं हो पाया। बेशक संसद में विपक्ष ने हंगामा कर कार्यवाही को बाधित किया, मगर धरातल पर सरकार के कदम के खिलाफ वह रोष नजर नहीं आया, जो कि उसकी विकट परेशानी की एवज में नजर आना चाहिए था। इसके कई कारण हो सकते हैं, मगर फिलहाल हालत ये है कि जनता को कोई राहत मिलती नजर नहीं आ रही, सरकार इतनी बेखौफ है कि व्यवस्था सुधारने के नाम पर रोज नए नियम लागू कर रही है और विपक्ष समझ ही नहीं पा रहा कि आखिर माजरा क्या है? इससे कहीं न कहीं यह प्रतीत होता है कि लाख परेशानी के बावजूद मोदी जनता में यह संदेश देने में कामयाब हो गए हैं कि उन्होंने देशहित में एक क्रांतिकारी कदम उठाया है, जिसके लिए थोड़ी बहुत तकलीफ तो उठानी ही होगी।
असल में काले धन के नाम पर जिस प्रकार हल्ला बोलते हुए मोदी ने यह कदम उठाया, वह इस अर्थ में लिया जा रहा है कि वे देश हित में कड़वी दवा पिला रहे हैं। जिस प्रकार हड़बड़ी में ये कदम उठाया गया और उसके बाद अस्त व्यस्त हुए बाजार व जनता में मची अफरा तफरी से यह तो स्थापित हो ही गया है कि सरकार ने पूर्व तैयारी के नाम पर कुछ नहीं किया था। सारे नए नियम बाद में हालात को सुधारने के लिए लागू किए जा रहे हैं, हालांकि उनसे राहत पहुंची हो, ऐसा कहीं नजर नहीं आ रहा। धरातल पर हालात बेहद खराब हैं, फिर भी जनता का आक्रोष फूटा नहीं तो जरूर इसके कुछ कारण हैं।
ऐसा प्रतीत होता है कि प्रयोजित तरीके से जिस प्रकार मोदी एक अवतार के रूप में उभर कर आए और जादूई तरीके से सत्ता पर काबिज हुए, जनता में वह नशा कहीं न कहीं अब भी बरकरार है। बेशक लोग परेशान जरूर हैं, मगर शायद वे यही सोच रहे हैं इस कदम से आगे चल कर हालात बेहतर होंगे। कदाचित काला धन रखने वालों की हालत देख कर जो खुशी मिल रही है, वह कहीं उनकी तकलीफ से ज्यादा भारी है। इसमें स्थाई समाधान की उम्मीद में अस्थाई परेशानी को झेलने का भाव भी नजर आ रहा है।
एक वजह और नजर आती है। वो यह कि जनता प्रतिदिन बैंकों व एटीएम के बाहर लाइन लगा कर रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने में इतनी व्यस्त है, जो कि उसकी प्राथमिकता भी है, कि आक्रोष जाहिर करना गैरजरूरी और व्यर्थ हो गया है। स्वाभाविक सी बात है, आम आदमी रोजी रोटी का जुगाड़ करे कि रोष जाहिर करने में अपना वक्त जाया करे। उसके रोष को मुखर करने में विपक्ष भी नाकामयाब रहा। इसमें विपक्ष की एकजुटता का अभाव तो एक बड़ा कारण है ही, पहले से परेशान जनता को बंद अथवा कोई और आंदोलन करके परेशानी में डालने पर दाव उलटा पडऩे का भी अंदेशा रहा।
भारत बंद के आह्वान का ही मसला लीजिए, जिसकी कि कहीं स्पष्ट घोषणा नहीं हुई थी, फिर भी मोदी की आईटी सेना और भाजपा इस रूप में भुना ले गई कि भारत बंद विफल हो गया है। उसने इसे रूप में भुनाया कि जनता मोदी के कदम से खुश है, इस कारण बंद में विपक्ष का साथ नहीं दिया। सोशल मीडिया पर तो हालत ये थी कि कथित से आहूत बंद के पक्ष में एक पोस्ट आती तो उससे दस गुना ज्यादा बंद के खिलाफ अपीलें पसर जातीं। इसे भाजपा की चतुराई ही कहा जाएगा कि जो बंद आहूत ही नहीं किया गया, वह उसके विफल हो जाने को साबित करने में कामयाब हो गई। इस उदाहरण से यह पता चलता है कि देश को किस खतरनाक झूठ का शिकार बनाया गया। भारत बंद का सोशल मीडिया में कुप्रचार एक दिलचस्प शोध का विषय है। एक काल्पनिक दैत्य पैदा करके उससे छद्म युद्ध करना कितना रोमांचक है? वाम दलों ने बिहार, बंगाल और केरल में राज्यस्तरीय बंद बुलाया था, लेकिन उसे भारत बंद की संज्ञा नहीं दी जा सकती। राजस्थान में भी प्रमुख विपक्षी दल ने बंद का आह्वान नहीं किया था, क्योंकि वह पहले ही जिला स्तर पर विरोध प्रदर्शन कर चुकी थी।
हालांकि मीडिया में इस प्रकार की खबरें छायी रहीं कि नोटबंदी की जानकारी भाजपा खेमे को पहले से थी, मगर उस पर यह संदेश ज्यादा प्रभावी हो गया कि विपक्ष इसलिए चिल्ला रहा है कि मोदी ने उनकी कमर तोड़ दी है। यह मोदी की चतुराई ही कही जाएगी कि जब विपक्ष ने कहा कि सरकार ने बिना तैयारी के कदम उठाया, जो कि सही भी है, मगर इसका जवाब विपक्ष का मुंह बंद करने वाला रहा कि हां, उन्हें अपना काला धन ठिकाने लगाने की तैयारी का वक्त नहीं मिला।
नोटबंदी की वजह से जो परेशानी हुई है और हो रही है, वह अपनी जगह है, मगर सोशल मीडिया पर आलम ये है कि तकलीफ से जुड़ी वीडियो क्लिपिंग से कई गुना अधिक मोदी के कदम की तारीफ वाली वीडियो क्लिपिंग रोज जारी हो रही हैं। दिलचस्प बात ये है कि परेशानी वाले संदेश व लंबी लाइनों में हो रही परेशानी के वीडियो जहां वास्तविक हैं, वहीं तारीफ वाले संदेष स्पष्ट रूप से प्रायोजित हैं, फिर भी वे भारी पड़ रहे हैं। यानि कि मोदी का आईटी सेल जबदस्त है। उसकी तुलना में विपक्ष बिखरा बिखरा सा है। हालत ये है कि राजनीतिक पंडित यह दावे के साथ कहने की स्थिति में नहीं हैं कि मोदी के इस कष्टदायक कदम का लाभ आगामी विधानसभा चुनावों में विपक्ष को मिलेगा या नहीं।
तेजवानी गिरधर