तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

सोमवार, फ़रवरी 23, 2015

आप की जीत ने बढ़ाया विपक्ष का हौसला

आम आदमी पार्टी की दिल्ली में प्रचंड बहुमत से हुई जीत से भाजपा कदाचित चिंतित मात्र हो और समय से पहले खतरे की चेतावनी मिलने के कारण संभलने की विश्वास रखती हो, मगर दूसरी ओर हताश-निराश विपक्ष का हौसला बढ़ा ही है। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में जिस प्रकार भाजपा ने जीत हासिल की, वह ऐसे लगने लगी थी कि अब भाजपा अपराजेय हो गई है, उसे हराना अब शायद कभी संभव न हो। मगर आम आदमी पार्टी के ताजा चमत्कार ने यह पुष्ट कर दिया है कि राजनीति में कुछ भी स्थाई नहीं होता। जब भाजपा को दिल्ली में पूरी तरह से निपटाया जा सका है तो उसे अन्य राज्यों में भी चुनौती दी जा सकती है। कांग्रेस भी भले ही पूरी तरह निपट गई, मगर  अब वह इस पर चिंतन करने की स्थिति में है कि जिन राज्यों में उसका सीधा मुकाबला भाजपा से है, वहां पार्टी को मजबूत किया जा सकता है। एक वाक्य में कहा जाए तो यह कहना उपयुक्त रहेगा कि आप की जीत ने देश की राजनीति के समीकरणों को बदलने का अवसर दे दिया है।
ज्ञातव्य है कि पिछले दशक की कांग्रेस बनाम विपक्षी राजनीति को समाप्त कर भाजपा बनाम विपक्ष के परिदृश्य का मार्ग प्रशस्त हुआ था। नतीजतन बिहार में पूर्व दुश्मन नीतीश कुमार और लालू प्रसाद ने महागठबंधन बना लिया। भगवा ताकत के खिलाफ विपरीत धु्रव ममता बनर्जी और वाम दल एक ही भाषा बोलते दिख रहे हैं। जनता परिवार के बाकी घटकों को एक साथ लाने की कोशिशें हो रही हैं, हालांकि अभी तक प्रक्रिया धीमी थी, लेकिन आप की कामयाबी के बाद इस मुहिम के फिर से परवान चढऩे की उम्मीद है। पिछले नवंबर-दिसंबर में गैर भाजपा दलों के बीच जो समन्वय दिखाई दिया, वह आगामी बजट सत्र के दौरान पहले की तुलना में अधिक अड़चनें खड़ी कर सकता है।
आप की जीत ने भाजपा के सहयोगी दलों का भी हौसला बढ़ाया है और वे अपने लिए अधिक की मांग कर सकते हैं। महाराष्ट्र का ही उदाहरण देखिए। वहां सरकार में शिव सेना खुद को उपेक्षित महसूस कर रही है। उसी के चलते आप की जीत के बाद उद्धव ठाकरे ने दिल्ली में भाजपा की हार के लिए मोदी की आलोचना की।
सहयोगी दलों की छोडिय़े, भाजपा के अंदर भी वे नेता, जो मोदी की चमक के कारण सहमे हुए थे, अब थोड़ी राहत की सांस ले रहे हैं। यह बात तो मीडिया में खुल कर आई है कि दिल्ली के चुनाव परिणाम का असर राजस्थान में भी माना जाता है। राजनीतिक जानकार मान कर चल रहे थे कि अगर मोदी दिल्ली में भी कामयाब हो गए तो वे वसुंधरा को हटा कर किसी अन्य यानि ओम प्रकाश माथुर को मुख्यमंत्री बना सकते हैं, मगर अब वसुंधरा को कुछ राहत मिली है। चूंकि मोदी पहले दिल्ली में हुई हार के सदमे से उबरना चाहेंगे। इतना ही नहीं उन्हें इस बात पर विचार करना होगा कि जिस जीत को वे शाश्वत मान कर चल रहे थे, उसे कोई भेद भी सकता है।
आम आदमी पार्टी की बात करें तो यह एक अहम सवाल है कि अब आगे उसकी रणनीति क्या होगी? क्या वह उसी तरह गैर भाजपा दलों को एक साथ ला पाएगी, जिस तरह 1989 में वीपी सिंह ने किया था। वी पी सिंह ने गैर कांग्रेस प्लेटफॉर्म बनाया। उन्होंने मिस्टर क्लीन राजीव गांधी को गद्दी से बेदखल किया और प्रचंड बहुमत के साथ 415 लोकसभा सीट जीतने वाली कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिया। हालांकि ऐसा नहीं लगता कि आप आने वाले दिनों में इस तरह का कोई जोखिम लेना चाहेगी। इसने दिल्ली में अपने पक्ष में नीतीश कुमार के चुनाव प्रचार के प्रस्ताव को स्वीकार करने से परहेज किया क्योंकि भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम इसका केंद्रीय मुद्दा है और भ्रष्टाचार के मामले में दोषी लालू, नीतीश के अब साथ हैं। यह ऐसी समस्या है जिसके चलते आप कई क्षेत्रीय दलों से गठबंधन करने से बचना चाहेगी। क्षेत्रीय दलों से हाथ मिलाने के बजाय इस बात की संभावना है कि भाजपा को हराने के लिए आप अपनी ताकत को बढ़ाना चाहेगी। दिल्ली में ऐतिहासिक जीत के साथ निश्चित रूप से देश के अन्य हिस्सों में आप को अपना विस्तार करने में सहायता मिलेगी।
कुल मिला कर केजरीवाल जानते थे कि राष्ट्रीय फलक पर उभरने के लिए उनको दिल्ली में तत्काल नतीजे दिखाने होंगे, लेकिन अन्य दलों के साथ मिलकर एक प्लेटफॉर्म बनाने का मामला अभी संभव प्रतीत नहीं होता। हालांकि मोदी के विजय रथ को रोक कर हताश क्षेत्रीय क्षत्रपों को उन्होंने नया उत्साह तो दिया ही है।

सोमवार, जनवरी 26, 2015

सोशल मीडिया पर हुई हामिद अंसारी की जम कर मजम्मत

गणतंत्र दिवस पर राजधानी दिल्ली में आयोजित मुख्य समारोह में गार्ड ऑफ ऑनर के दौरान सैल्यूट नहीं करने को लेकर उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी की सोशल मीडिया पर जम कर मजम्मत हुई। कई हिंदूवादियों ने तो बाकायदा निशाना बना कर उनकी राष्ट्र भक्ति पर सवाल उठाए। कुछ लोगों ने गंदे अल्फाज का प्रयोग किया, जिनमें सांप्रदायिकता की बू आ रही थी। इससे पूर्व एक समारोह में आरती की थाली न लेने का मसला भी फिर से प्रकाश में ला गया। मामले ने राजनीतिक रंग भी लिया। जहां भाजपाई अंसारी की निंदा कर रहे थे, वहीं कांग्रेसी उनका बचाव करते नजर आए। दिन भर फेसबुक व वाट्स ऐप पर बहस होती रही। एक मुस्लिम होने के नाते कीजा रही मजम्मत से कुछ मुस्लिम आहत हुए और प्रतिक्रिया दी तो उन्हें हिंदूवादियों ने घेर लिया। वायरल हुए एक फोटो में तो बाकायदा सेना के कुत्तों को सलामी की मुद्रा में दिखाते हुए मूल फोटो जोड़ा गया, ताकि यह जाहिर हो कि सैल्यूट न करने वालों से तो कुत्ते ही बेहतर, जिनमें कि देशभक्ति मौजूद है। हालांकि सैल्यूट न करने वाले अमरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा की भी आलोचना की गई, पर अंसारी की छीछालेदर बहुत ज्यादा हुई। जाहिर तौर पर बात सरकार तक भी गई। इस पर उपराष्ट्रपति की ओर से सफाई पेश की गई कि उन्होंने सैल्यूट न दे कर कुछ गलत नहीं किया है।
असल में अंसारी के खिलाफ जो कुछ लिखा गया, वह इतना गंदा है कि उसे यहां उल्लेखित करना संभव नहीं है। सोशल मीडिया पर चूंकि किसी का नियंत्रण नहीं है, इस कारण वहां घटिया से घटिया तरीके से भड़ास निकाली गई, मगर यहां उसका हूबहू उल्लेख किया जाना संभव नहीं है। बस इतना ही कहा जा सकता है कि सैल्यूट न करने के कृत्य को उनके मुसलमान होने से जोड़ा गया, जो स्वाभाविक रूप से यह जाहिर करता है कि अब हिंदूवाद पूरी उफान पर है। अहम सवाल सिर्फ ये कि अगर संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति को भी हम हिंदू या मुसलमान की नजर से देखते हैं तो इससे घटिया सांप्रदायिकता कोई हो नहीं सकती।
बहरहाल, अब अंसारी को निर्दोष बताने वाला एक बयान यहां पेश है, जो कितना सही है, वह तो फैसला आप ही कर सकते हैं:-
सोशल मीडिया पर गणतंत्र दिवस के अवसर पर एक फोटो काफी चर्चा में है, उस फोटो में यह दिखाया गया है कि परेड के दौरान गार्ड आफ ऑनर के दौरान उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने सैल्यूट क्यों नहीं किया? आरएसएस ने यह फोटो ट्वीट किया है और उपराष्ट्रपति ने राष्ट्रध्वज को सलाम क्यों नहीं किया? इस बात को यहां साफ करना बहुत जरूरी है कि सच्चाई क्या है और सलामी के नियम क्या कहते हैं। क्योंकि जिन्हें सलामी के नियम नहीं मालूम हैं, वे सोशल मीडिया में उपराष्ट्रपति की बेईज्जती करने से नहीं हिचकेंगे।
सैल्यूट के नियम के अनुसार झंडा फहराने, झंडा झुकाने या परेड के दौरान सलामी लेने के दौरान, वहां मौजूद सभी लोग झंडे की तरफ मुंह किए रहेंगे और सावधान की मुद्रा में खड़े होंगे तथा राष्ट्रपति (तीनों सेना के प्रमुख) और वर्दी में मौजूद लोग सलामी देंगे। जब परेड के दौरान आपके सामने से झंडा गुजर रहा हो तो वहां मौजूद सभी लोग सावधान की मुद्रा में खड़े रह सकते हैं या सलामी भी दे सकते हैं। यानि ये अनिवार्य नहीं है। कोई भी गणमान्य व्यक्ति सलामी दे सकता है, भले ही उसके सिर ढका न हो..। तो ये है सलामी का नियम।
मगर, सोशल मीडिया पर एक फोटो को लेकर किसी की भी धज्जियां उड़ा सकते हैं, लेकिन एक बात नहीं भूलनी चाहिए कि उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी कोई नए नहीं है। उपराष्ट्रपति के तौर पर यह उनका दूसरा कार्यकाल है और वे इन नियमों को अच्छी तरह जानते हैं। इसके पहले भी वो डिप्लोमेट रहे हैं, कई देशों में राजदूत रह चुके हैं और यह उनका गणतंत्र दिवस की परेड में उपराष्ट्रपति के तौर पर आठवां साल है। यानि किसी पर भी इल्जाम लगाने के पहले यह तय कर लेना चाहिए कि नियम क्या कहता है।
उधर विवाद के बाद उनके कार्यालय ने बयान जारी कर स्पष्ट किया कि प्रोटोकॉल के मुताबिक इसकी आवश्यकता नहीं है। संयुक्त सचिव और उपराष्ट्रपति के ओएसडी गुरदीप सप्पल ने बयान जारी कर कहा कि गणतंत्र दिवस परेड के दौरान भारत के राष्ट्रपति सर्वोच्च कमांडर के नाते सलामी लेते हैं। प्रोटोकॉल के मुताबिक उपराष्ट्रपति को सावधान की मुद्रा में खड़ा होने की जरूरत होती है। सप्पल ने कहा कि जब उपराष्ट्रपति प्रधान हस्ती होते हैं तो वे राष्ट्रगान के दौरान पगड़ी पहन कर सैल्यूट देते हैं जैसा कि इस वर्ष एनसीसी शिविर में हुआ।
एक दिलचस्प वाकया ये भी हुआ कि जब कांग्रेसियों से न रहा गया तो उन्होंने भी एक फोटो वायरल किया, जिसमें दिखाया गया था कि एक समारोह में अन्य सभी तो ताली बजा रहे हैं, जबकि मोदी नहीं। हालांकि ये खिसयाना सा ही लगा।

-तेजवानी गिरधर

मंगलवार, जनवरी 20, 2015

मोदी व केजरीवाल, दोनों की अग्नि परीक्षा है दिल्ली विधानसभा का चुनाव

हालांकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल एक-एक बार अपनी-अपनी चमक दिखा चुके हैं, मगर दिल्ली विधानसभा के दुबारा होने जा रहे चुनाव में दोनों को ही एक अग्रि परीक्षा से गुजरना है। एक ओर जहां मोदी को यह साबित करना है कि जो लहर उन्होंने पूरे देश में चला कर सत्ता हासिल की और उसके बाद हुए चुनावों में भी लहर की मौजूदगी का अहसास कराया, क्या वह देश की राजधानी दिल्ली में भी मौजूद है, वहीं केजरीवाल को एक बार फिर उस कसौटी से गुजरना है, जिसमें उन्होंने साबित किया था कि देश को सत्ता परिवर्तन ही नहीं बल्कि व्यवस्था परिवर्तन की जरूरत है।
हालांकि सीधे तौर पर दिल्ली में होने जा रहे चुनाव से मोदी का लेना-देना नहीं है, क्योंकि वहां उन्हें या तो अपनी पार्टी व उसकी नीतियों के आधार पर या फिर किसी व्यक्ति को मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करके चुनावी रणनीति बनानी है, बावजूद इसके इस चुनाव के परिणाम उनकी छवि व लहर का आकलन करने वाले हैं। यूं भी दिल्ली का चुनाव कोई मात्र विधानसभा का ही चुनाव नहीं है, बल्कि वह एक तरह से राष्ट्रीय मुद्दों से प्रभावित रहने वाला है। इसी चुनाव से पता लगेगा कि आम जनता मोदी व उनकी नीतियों का समर्थन करती है या फिर केजरीवाल की कल्पित नई व साफ सुथरी व्यवस्था में अपनी आस्था जताती है।
जैसा नजर आता है, उसके अनुसार भाजपा को मोदी की छवि, उनकी लहर और देश में उसकी सत्ता का लाभ मिलने ही वाला है। दिल्ली विधानसभा के पिछले चुनाव में भाजपा इतनी मजबूत स्थिति में नहीं थी। दूसरा ये कि जो लहर पूरे देश में अन्य विधानसभा चुनावों में दिखाई दी थी, उसका असर दिल्ली में नजर नहीं आया था। वहां चूंकि जनता सीधे तौर पर अन्ना हजारे के आंदोलन व केजरीवाल की मुहिम से सीधे जुड़ी हुई थी, इस कारण मोदी के नाम का कोई खास चमत्कार नहीं हो पाया था। मगर अब स्थितियां भिन्न हैं। मोदी एक बड़ा पावर सेंटर बन चुके हैं, जबकि केजरीवाल मुख्यमंत्री पद से स्तीफा देकर लोकसभा चुनाव में खराब परफोरमेंस की वजह से पहले जितने लोकप्रिय नहीं रह गए हैं। उनकी दिल्ली की राजनीतिक गणित पर पकड़ तो है, मगर सवाल ये उठता है क्या दिल्ली की जनता केन्द्र में भाजपा की सरकार के रहते केजरीवाल को दुबारा मुख्यमंत्री बनने का मौका देगी? क्या जिन मुद्दों से आकर्षित हो कर जनता ने केजरीवाल का साथ दिया था, वे अब बदली परिस्थितियों में भी उसे जरूरी नजर आते हैं?
कुल मिला कर मोदी व केजरीवाल के लिए ये चुनाव बेहद प्रतिष्ठापूर्ण हैं। अगर भाजपा यह चुनाव हारती है तो इसी के साथ मोदी लहर के अवसान की शुरुआत हो जाएगी। और अगर जीतती है तो मोदी और अधिक ताकतवर हो जाएंगे। उधर केजरीवाल के लिए बड़ी परेशानी है। अगर वे जीतते हैं तो फिर से अपनी पार्टी को संवारने और उसे राष्ट्रीय स्तर पर ले जाने का मौका पाएंगे और अगर हारते हैं तो इसी के साथ उनके राजनीतिक अवसान का खतरा उत्पन्न हो जाएगा।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, दिसंबर 25, 2014

मोदी के विकास को पटरी से नहीं उतार दें ये भाजपा नेता

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विकास के जिस वादे के साथ आंधी की तरह देश भर में छा गए, उसे देश की अब तक की राजनीति में आशावाद का अनूठा उदाहरण माना जा सकता है। और उससे भी बड़ी बात ये कि उनका सबका साथ सबका विकास नारा इतना लोकप्रिय हुआ है कि तटस्थ मुस्लिमों को भी मोदी भाने लगे हैं। मगर ऐसा प्रतीत होता है कि भाजपा के कुछ बयानवीर मोदी के विकास को पटरी से उतारने को उतारु हैं। हालत ये है कि खुद मोदी को संसद में अपनी मंत्री साध्वी निरंजन ज्योति के रामजादे बनाम हरामजादे वाले बयान पर खेद तक व्यक्त करके विपक्ष से अपील करनी पड़ी कि साध्वी के माफी मांग लेने के बाद मामला समाप्त मान लिया जाना चाहिए। मोदी जैसे प्रखर नेता के लिए ऐसी अपील करते हुए कितना कष्टप्रद रहा होगा, जब उन्हें यह दलील देनी पड़ी होगी कि साध्वी पहली बार मंत्री बनी हैं और उनकी पृष्ठभूमि को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। यह अकेला एक उदाहरण नहीं कि जिसमें मोदी को खुद के विकास के नारे से जागी आशा में खलल पड़ता दिखाई दिया होगा।
इसमें कोई दोराय नहीं कि भाजपा या यूं कहना ज्यादा उचित होगा कि देश में मोदी का राज लाने में हिंदूवादी संगठन आरएसएस की अहम भूमिका रही है, मगर आम जनता की ओर से जिस प्रकार झोलियां भर कर वोट डाले गए, उसमें मोदी के प्रति विकास की आशा भरी निगाहें टिकी हुई हैं। आम जन लगता है कि मोदी निश्चित ही देश की कायापलट कर देंगे। मगर दूसरी ओर कट्टर हिंदूवादी नेता इसे हिंदुत्व को स्थापित करने का स्वर्णिम मौका मान कर ऐसी ऐसी हरकतें कर रहे हैं, जो मोदी के लिए परेशानी का सबब बने हुए हैं। एक ओर मोदी दुनिया भर में घूम कर अपनी छवि को मांजने में लगे हुए हैं तो दूसरी उन्हीं के साथी उनकी टांगे खींच कर सांप्रदायिकता के दलदल में घसीटने से बाज नहीं आ रहे।
देश के ताजा हालात पर जानीमानी पत्रकार तवलीन सिंह की एक टिप्पणी ही यह बताने के लिए पर्याप्त है कि खुद मोदी के ही साथी उनकी जमीन को खोखला कर रहे हैं। आपको बता दे कि यह तवलीन सिंह वही हैं, जिन्होंने लोकसभा चुनावों में नरेन्द्र मोदी के पक्ष में लगभग एकपक्षीय पत्रकारिता की थी, लेकिन अब वे भी मानती हैं कि मोदी सरकार ने जब से सत्ता संभाली है, एक भूमिगत कट्टरपंथी हिन्दुत्व की लहर चल पड़ी है। ज्ञातव्य है कि उनकी यह टिप्पणी साध्वी निरंजन ज्योति के रामजादे बनाम हरामजादे वाले बयान पर आई है। लेकिन अफसोस कि इससे कोई सबक लेने के बजाय यह भूमिगत हिन्दू एजेण्डा अब गीता के बहाने और भी खतरनाक साम्प्रदायिक लहर पैदा करने जा रहा है।
मोदी सरकार की विदेश मन्त्री सुषमा स्वराज ने जैसे ही हिन्दू धर्म ग्रन्थ गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित करने की मांग की, देश धर्मनिरपेक्ष तबका यह सोचने को मजबूर हो गया है कि आखिर भाजपा राजनीति की कौन सी दिशा तय करने की कोशिश कर रही है। इससे भी खतरनाक बयान हरियाणा के मुख्यमन्त्री मनोहरलाल खट्टर का आया है, जिन्होंने यह मांग की है कि गीता को संविधान से ऊपर माना जाना चाहिए। इसका साफ मतलब है कि खट्टर भारतीय संविधान की जगह गीता को भारत का संविधान बनाना चाहते हैं।
असल में ऐस प्रतीते होता है कि मोदी के प्रधानमन्त्री बनते ही संघ परिवार का हिन्दुत्व ऐसी कुलांचे मार रहा है, मानो इससे बेहतर मौका अपना एजेंडा लागू करने को नहीं मिलने वाला है। एक अर्थ में यह बात सही भी है। पिछली बार जब भाजपा को अन्य दलों के साथ सरकार बनाने का मौका मिला था तो उसे धारा 370, कॉमन सिविल कोड व राम मंदिर के अपने मौलिक एजेंडे को साइड में रखना पड़ा था, मगर अब जबकि भाजपा प्रचंड बहुमत से सत्ता पर काबिज हुई है, संघनिष्ठों को लगने लगा है कि यदि अब भी वे अपने एजेंडे को लागू न करवा पाए तो फिर जाने ऐसा मौका मिलेगा या नहीं। उन्हें ये खयाल ही नहीं कि मोदी ने हिंदूवादी एजेंडे को गौण कर विकास का नारा देने पर ही उन्हें सफलता हाथ लगी है। ऐसे में यह खतरा उत्पन्न होता नजर आ रहा है कि कहीं संघ खेमे के कुछ नेता कहीं मोदी के विकास को पटरी न उतार दें। आज जब देश महंगाई, भ्रष्टाचार से मुक्ति पा कर विकास के नए आयाम छूने के सपने देख रहा है, इस प्रकार के हिंदूवादी वादी मुद्दे उसकी आशाओं पर पानी न फेर दें, इसकी आशंका उत्पन्न होने लगी है। देखना ये है कि मोदी किस प्रकार संतुलन बना कर देश को विकास की दिशा में ले जाने में कामयाब हो पाते हैं।

सोमवार, दिसंबर 08, 2014

पायलट की जंबो कार्यकारिणी से भी संतुष्ट नहीं हुए कांग्रेसी

प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट ने सभी को खुश करने के लिए जंबो कार्यकारिणी बनाई, बावजूद इसके प्रदेश के कांग्रेसी कार्यकर्ता इससे संतुष्ट नहीं हैं। कार्यकारिणी की घोषणा के तुरंत बाद विरोध के स्वर उठने लगे हैं। जहां जातिगत उपेक्षा के आरोप लग रहे हैं, वहीं काम करने वालों को जगह नहीं दिए जाने पर नाराजगी जाहिर की जा रही है। श्रीमती सोनिया गांधी के नेतृत्व में चल रही पाटी भले ही महिलाओं को राजनीति में आगे लाने की पैरवी करती हो, मगर उनको भी उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाने का अफसोस है।
कुछ अति उत्साही कार्यकर्ता अपने विरोध को मुखर करने के लिए सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक व वाट्स ऐप का उपयोग कर रहे हैं। देखिए एक बानगी-
कांग्रेस ने अपने सच्चे और सक्रिय कार्यकर्ता की अनदेखी कर सोशल मीडिया पर कांग्रेस से जुड़े तमाम युवाओं के जबे को ठेस पहुंचाई है। सोशल मीडिया पर पिछले पांच वर्ष से भी ज्यादा समय से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को प्रदेश में नई पहचान देने वाले और प्रदेश के युवाओं की टीम बनाने वाले लोकेश शर्मा को हाशिये पर रखना अपनी ही पार्टी के लिए काम कर रही पूरी टीम के साथ अन्याय किया गया है। जब प्रदेश में कांग्रेस की सोशल मीडिया पर कोई पहचान नहीं थी, तब लोकेश भैया ने इस काम को एक मुहिम के रूप में शुरू किया और धीरे-धीरे हम जैसे अनेक युवा उनके काम से प्रभावित होकर होकर उनसे जुड़ते चले गए। सरकार की योजनाएं हो, जनकल्याणकारी कार्य हो, कोई भी उपलब्धि हो या विपक्ष को मुंहतोड़ जवाब देना हो, इस सबकी शानदार शुरुआत करके एक आंदोलन सोशल मीडिया पर उनके नेतृत्व में उनकी पूरी टीम चला रही है। विधानसभा और लोकसभा चुनावों के कैम्पेन में पार्टी का पक्ष रखने में कोई कमी नहीं छोड़ी और उसके बाद भी लगातार उसी ऊर्जा के साथ हरेक सदस्य को जोश से लबरेज होकर काम करने को प्रेरित करते रहे। आज प्रदेश स्तर के उसी नेतृत्व की अनदेखी होते देख कर किसी भी सदस्य को समझ नहीं आ रहा कि पार्टी को क्या चाहिए, क्या काम करने वाले लोगों को मौके नहीं देने से पार्टी को सफलता हाथ लगेगी, क्या प्रदेश में मौजूद मजबूत टीम को दरकिनार कर राजस्थान कांग्रेस नए जुडऩे वाले लोगों को कोई सन्देश देने में सफल रहेगी?
वैसे बताया जाता है कि वे पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत लॉबी के हैं।
इसी प्रकार अखिल भारतीय रैगर महासभा (प्रगतिशील) के राष्ट्रीय अध्यक्ष पी.एम. जलुथरिया ने रैगर समाज की उपेक्षा का आरोप लगाया है। उन्होंने कहा है कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक भी पद पर रैगर समाज को जगह नहीं दी गई है। महासभा ने कांग्रेस के खिलाफ निंदा प्रस्ताव पारित कर कहा है कि समाज की प्रदेश में 35 लाख जनसंख्या है और करीब 25 लाख वोटर, लेकिन कांग्रेस को समाज के वोटरों को बंधुआ मान रखा है। पहले लोकसभा, विधानसभा और स्थानीय निकाय के चुनावों में रैगरों को टिकट नहीं दिए, अब संगठन में भी उपेक्षा की गई हैैैै।
राजस्थान राज्य विमुक्त, घुमंतू, अर्द्ध घुमंतु कल्याण बोर्ड के अध्यक्ष, गोपाल केसावत, जो कि कांगे्रस नेता ने भी कहा है कि परंपरागत वोट बैंक घुमंतू समाज की उपेक्षा की गई है। उनका सवाल है कि पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने घुमंतू बोर्ड का गठन किया व पूर्व प्रदेशाध्यक्ष डॉ. चंद्रभान ने संगठन में प्रकोष्ठ बनाया, मगर सचिन पायलट इस परंपरा को तोड़ रहे हैं।
कार्यकारिणी के प्रति महिलाओं में असंतोष देखा जा रहा है। इसकी वजह ये कि प्रदेश उपाध्यक्ष की 15 और महासचिव की 26 की सूची में केवल एक-एक महिला को शामिल किया गया है। सचिव की 43 नामों की सूची में 8 नाम हैं, मगर 14 कार्यकारिणी सदस्यों में केवल 2 को जगह मिल पाई है। इसी प्रकार स्थाई और विशेष आमंत्रित सदस्यों में 5 पदाधिकारी महिलाएं हैं। अर्थात कुल 131 की लंबी सूची में केवल 17 महिलाएं हैं।
यहां उल्लेखनीय है कि तनिक असंतोष की खबरों के बाद स्वयं पायलट ने यह कहा कि वे जरूरत होने पर कुछ और पात्र नेताओं को स्थान दिया जा सकता है।
-तेजवानी गिरधर

मंगलवार, नवंबर 18, 2014

वसुंधरा का तख्ता पलट टला, मगर खतरा बरकरार

हालांकि लंबे इंतजार व जद्दोजहद के बाद राज्य की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे अपने मंत्रीमंडल का विस्तार तो कर पाईं और इसके साथ ही उनके तख्तापटल की आशंकाएं टल गईं, मगर राजनीतिक हलकों में अब भी यही राय है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उन्हें ज्यादा समय तक मुख्यमंत्री बने नहीं रहने देंगे। पिं्रट व इलैक्ट्रॉनिक मीडिया पर हालांकि बहुत कुछ खुल कर सामने नहीं आ पाया, मगर इन दिनों सर्वाधिक सक्रिय सोशल मीडिया पर तो साफ तौर पर ये खबरें चल रही थीं कि जल्द ही पूर्व प्रदेश भाजपा अध्यक्ष ओम प्रकाश माथुर राज्य के मुख्यमंत्री बना दिए जाएंगे।
असल में जिस प्रकार राज्य मंत्रीमंडल के विस्तार में बाधाएं आईं, जिसकी वजह से भाजपा को उपचुनाव में झटका भी झेलना पड़ा, उसी से लग गया था कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व वसुंधरा राजे के बीच सब कुछ ठीकठाक नहीं है। मंत्रीमंडल विस्तार के लिए वसुंधरा राजे को कई बार दिल्ली जाना पड़ा, मगर तकरीबन दस माह बाद जा कर उन्हें सफलता हासिल हो पाई। हालांकि मंत्रीमंडल को संतुलित किया गया है, मगर अब भी माना जाता है कि संघ लॉबी के घनश्याम तिवाड़ी व नरपत सिंह राजवी सरीखे कुछ प्रमुख नेता समायोजित नहीं हो पाए हैं, इस कारण मनमुटाव की फांस बरकरार है। यह तब और अधिक दुखदायी हो गई, जब पिछले दिनों वसुंधरा ने यह कह दिया कि इतना प्रचंड बहुमत किसी एक व्यक्ति का कमाल नहीं, बल्कि कार्यकर्ताओं की मेहनत व जनता का आशीर्वाद है। इसको लेकर खूब खबरबाजी हुई। बताया जाता है कि इसको लेकर मोदी की नाराजगी और बढ़ गई है। वसुंधरा के इस बयान को सीधे तौर पर मोदी पर निशाना करने के रूप में देखा गया। जाहिर तौर पर वसुंधरा विरोधी लॉबी ने इसका फायदा उठाने की कोशिश की होगी। ऐसे में माना यही जा रहा है कि वसुंधरा राजे सुरक्षित तो कत्तई नहीं है। आम धारणा यही बनती जा रही है कि मोदी को जैसे ही मौका मिलेगा, वे वसुंधरा को निपटा देंगे। कुछ लोग मानते हैं कि ऐसा वे दो-तीन माह में कर लेंगे, जबकि कुछ का मानना है कि स्थानीय निकाय चुनाव में उनको परफोरमेंस दिखाने के लिए कम से कम एक साल और मौका दिया जाएगा। बताया जाता है कि ओम प्रकाश माथुर को उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाए जाने के बाद वसुंधरा को कुछ राहत मिली है। वैसे भी ये माना जा रहा था कि माथुर को भले ही ऊपर से थोपने की कोशिश की जाए, मगर विधायकों की आमराय उनके पक्ष में बनाना कठिन होगा। माना जाता है कि वे एक अच्छे रणनीतिकार व संगठनकर्ता तो हैं, प्रशासनिक तौर पर उतने कुशल नहीं, जितना एक मुख्यमंत्री को होना चाहिए। इसी वजह से बीच में गृहमंत्री गुलाब चंद कटारिया का भी नाम सामने आया था।
कुल मिला कर माना यही जा रहा है कि वसुंधरा विरोधी लॉबी अभी तक सक्रिय है और वह घात लगा कर बैठी है कि कब उन्हें कमजोर साबित किया जाए। हाईकमान की भी उन पर पैनी नजर है। ऐसे में वसुंधरा को बहुत सुरक्षित नहीं माना जा सकता।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, नवंबर 13, 2014

क्या प्रो. जाट को मंत्री बनने के लिए पाला बदलना पड़ा?

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के बीच के जगजाहिर संबंधों की ही वजह रही कि राजनीतिक विश्लेषक यह मान कर चल रहे थे कि अजमेर के सांसद प्रो. सांवरलाल जाट को केन्द्रीय मंत्रीमंडल में स्थान नहीं मिल पाएगा और यह उनके साथ सबसे बड़ा धोखा होगा। राज्य में किसी केबीनेट मंत्री को लोकसभा चुनाव लड़ाया जाए तो इसका मतलब यही माना जाना चाहिए कि अगर वह जीता और पार्टी की सरकार बनी तो केन्द्रीय मंत्रीमंडल में उसका स्थान पक्का होगा, मगर प्रो. जाट के साथ ऐसा होता नजर नहीं आ रहा था। बेशक उनकी पैरवी मुख्यमंत्री वसुंधरा कर रही थीं, मगर चूंकि मोदी व उनके बीच ट्यूनिंग को ठीक माना जा रहा, इस कारण कम से कम राजनीति के जानकार तो यही मान कर चल रहे थे कि प्रो. जाट शायद ही मंत्री बन पाएं। कदाचित इसका अहसास खुद प्रो. जाट को भी रहा होगा। उनके लिए अफसोसनाक बात ये भी थी जो नसीराबाद सीट उन्होंने छोड़ी उसके लिए उनके पुत्र को पार्टी ने टिकट नहीं दिया। ऐसे में अगर उन्हें मंत्री नहीं बनाया जाता तो समझा जा सकता है कि जाती तौर पर उनके साथ क्या बीतती। सो बताते हैं कि उन्होंने अकेले वसुंधरा के भरोसे रहना उचित नहीं समझा। मोदी के करीबी भाजपा नेता ओम प्रकाश माथुर के लगातार संपर्क में रहे। यह बात राजनीति के जानकारों की जानकारी में भी थी। मगर इसका जिक्र मीडिया में कहीं नहीं आया। जैसे ही प्रो. जाट को मंत्री बनाया गया तो पत्रकारों ने खुलासा किया कि वे माथुर के संपर्क में भी थे।
बात अगर राजनीतिक समीकरणों की करें तो यह सब को पता है कि माथुर व वसुंधरा के बीच कैसे संबंध हैं। एक बारगी तो यह अफवाह तक फैल गई थी कि वसुंधरा को हटा कर माथुर को मुख्यमंत्री बनाया जा रहा है। अब समझा सकता है कि प्रो. जाट ने वसुंधरा के खासमखास होने के बाद भी माथुर से करीबी क्यों बढ़ाई। संभव है उन्हें लग रहा हो कि अकेले वसुंधरा उन्हें मंत्री नहीं बनवा पाएंगी। ऐसे में केवल वसुंधरा के भरोसे रह कर भला अपना राजनीतिक कैरियर काहे को खराब करते। जो भी हो माथुर से नजदीकी और मंत्री बनने में माथुर का हाथ होने की कानाफूसी का कुछ लोग ये भी अर्थ लगा रहे हैं कि प्रो. जाट ने ऐन वक्त पर पाला बदल लिया। कुछ लोग इसका ये भी अर्थ लगा रहे हैं कि वसुंधरा ने यह जानते हुए कि अकेले उनके दम पर वे मंत्री नहीं बन पाएंगे, खुद ही जाट से कहा होगा कि वे दूसरे चैनल पर भी काम करें। हालांकि अभी ये पक्का नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने पाला बदल लिया है, मगर यदि उनको मंत्री बनवाने में माथुर का हाथ रहा है, तो समझा जा सकता है कि अब मोदी व वसुंधरा में से कौन उनके लिए अहम रहेगा। वैसे भी केन्द्र में काम करना है तो मोदी के प्रति स्वामी भक्ति उन्हें दिखानी ही होगी।
-तेजवानी गिरधर