आम आदमी पार्टी की दिल्ली में प्रचंड बहुमत से हुई जीत से भाजपा कदाचित चिंतित मात्र हो और समय से पहले खतरे की चेतावनी मिलने के कारण संभलने की विश्वास रखती हो, मगर दूसरी ओर हताश-निराश विपक्ष का हौसला बढ़ा ही है। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में जिस प्रकार भाजपा ने जीत हासिल की, वह ऐसे लगने लगी थी कि अब भाजपा अपराजेय हो गई है, उसे हराना अब शायद कभी संभव न हो। मगर आम आदमी पार्टी के ताजा चमत्कार ने यह पुष्ट कर दिया है कि राजनीति में कुछ भी स्थाई नहीं होता। जब भाजपा को दिल्ली में पूरी तरह से निपटाया जा सका है तो उसे अन्य राज्यों में भी चुनौती दी जा सकती है। कांग्रेस भी भले ही पूरी तरह निपट गई, मगर अब वह इस पर चिंतन करने की स्थिति में है कि जिन राज्यों में उसका सीधा मुकाबला भाजपा से है, वहां पार्टी को मजबूत किया जा सकता है। एक वाक्य में कहा जाए तो यह कहना उपयुक्त रहेगा कि आप की जीत ने देश की राजनीति के समीकरणों को बदलने का अवसर दे दिया है।
ज्ञातव्य है कि पिछले दशक की कांग्रेस बनाम विपक्षी राजनीति को समाप्त कर भाजपा बनाम विपक्ष के परिदृश्य का मार्ग प्रशस्त हुआ था। नतीजतन बिहार में पूर्व दुश्मन नीतीश कुमार और लालू प्रसाद ने महागठबंधन बना लिया। भगवा ताकत के खिलाफ विपरीत धु्रव ममता बनर्जी और वाम दल एक ही भाषा बोलते दिख रहे हैं। जनता परिवार के बाकी घटकों को एक साथ लाने की कोशिशें हो रही हैं, हालांकि अभी तक प्रक्रिया धीमी थी, लेकिन आप की कामयाबी के बाद इस मुहिम के फिर से परवान चढऩे की उम्मीद है। पिछले नवंबर-दिसंबर में गैर भाजपा दलों के बीच जो समन्वय दिखाई दिया, वह आगामी बजट सत्र के दौरान पहले की तुलना में अधिक अड़चनें खड़ी कर सकता है।
आप की जीत ने भाजपा के सहयोगी दलों का भी हौसला बढ़ाया है और वे अपने लिए अधिक की मांग कर सकते हैं। महाराष्ट्र का ही उदाहरण देखिए। वहां सरकार में शिव सेना खुद को उपेक्षित महसूस कर रही है। उसी के चलते आप की जीत के बाद उद्धव ठाकरे ने दिल्ली में भाजपा की हार के लिए मोदी की आलोचना की।
सहयोगी दलों की छोडिय़े, भाजपा के अंदर भी वे नेता, जो मोदी की चमक के कारण सहमे हुए थे, अब थोड़ी राहत की सांस ले रहे हैं। यह बात तो मीडिया में खुल कर आई है कि दिल्ली के चुनाव परिणाम का असर राजस्थान में भी माना जाता है। राजनीतिक जानकार मान कर चल रहे थे कि अगर मोदी दिल्ली में भी कामयाब हो गए तो वे वसुंधरा को हटा कर किसी अन्य यानि ओम प्रकाश माथुर को मुख्यमंत्री बना सकते हैं, मगर अब वसुंधरा को कुछ राहत मिली है। चूंकि मोदी पहले दिल्ली में हुई हार के सदमे से उबरना चाहेंगे। इतना ही नहीं उन्हें इस बात पर विचार करना होगा कि जिस जीत को वे शाश्वत मान कर चल रहे थे, उसे कोई भेद भी सकता है।
आम आदमी पार्टी की बात करें तो यह एक अहम सवाल है कि अब आगे उसकी रणनीति क्या होगी? क्या वह उसी तरह गैर भाजपा दलों को एक साथ ला पाएगी, जिस तरह 1989 में वीपी सिंह ने किया था। वी पी सिंह ने गैर कांग्रेस प्लेटफॉर्म बनाया। उन्होंने मिस्टर क्लीन राजीव गांधी को गद्दी से बेदखल किया और प्रचंड बहुमत के साथ 415 लोकसभा सीट जीतने वाली कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिया। हालांकि ऐसा नहीं लगता कि आप आने वाले दिनों में इस तरह का कोई जोखिम लेना चाहेगी। इसने दिल्ली में अपने पक्ष में नीतीश कुमार के चुनाव प्रचार के प्रस्ताव को स्वीकार करने से परहेज किया क्योंकि भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम इसका केंद्रीय मुद्दा है और भ्रष्टाचार के मामले में दोषी लालू, नीतीश के अब साथ हैं। यह ऐसी समस्या है जिसके चलते आप कई क्षेत्रीय दलों से गठबंधन करने से बचना चाहेगी। क्षेत्रीय दलों से हाथ मिलाने के बजाय इस बात की संभावना है कि भाजपा को हराने के लिए आप अपनी ताकत को बढ़ाना चाहेगी। दिल्ली में ऐतिहासिक जीत के साथ निश्चित रूप से देश के अन्य हिस्सों में आप को अपना विस्तार करने में सहायता मिलेगी।
कुल मिला कर केजरीवाल जानते थे कि राष्ट्रीय फलक पर उभरने के लिए उनको दिल्ली में तत्काल नतीजे दिखाने होंगे, लेकिन अन्य दलों के साथ मिलकर एक प्लेटफॉर्म बनाने का मामला अभी संभव प्रतीत नहीं होता। हालांकि मोदी के विजय रथ को रोक कर हताश क्षेत्रीय क्षत्रपों को उन्होंने नया उत्साह तो दिया ही है।
ज्ञातव्य है कि पिछले दशक की कांग्रेस बनाम विपक्षी राजनीति को समाप्त कर भाजपा बनाम विपक्ष के परिदृश्य का मार्ग प्रशस्त हुआ था। नतीजतन बिहार में पूर्व दुश्मन नीतीश कुमार और लालू प्रसाद ने महागठबंधन बना लिया। भगवा ताकत के खिलाफ विपरीत धु्रव ममता बनर्जी और वाम दल एक ही भाषा बोलते दिख रहे हैं। जनता परिवार के बाकी घटकों को एक साथ लाने की कोशिशें हो रही हैं, हालांकि अभी तक प्रक्रिया धीमी थी, लेकिन आप की कामयाबी के बाद इस मुहिम के फिर से परवान चढऩे की उम्मीद है। पिछले नवंबर-दिसंबर में गैर भाजपा दलों के बीच जो समन्वय दिखाई दिया, वह आगामी बजट सत्र के दौरान पहले की तुलना में अधिक अड़चनें खड़ी कर सकता है।
आप की जीत ने भाजपा के सहयोगी दलों का भी हौसला बढ़ाया है और वे अपने लिए अधिक की मांग कर सकते हैं। महाराष्ट्र का ही उदाहरण देखिए। वहां सरकार में शिव सेना खुद को उपेक्षित महसूस कर रही है। उसी के चलते आप की जीत के बाद उद्धव ठाकरे ने दिल्ली में भाजपा की हार के लिए मोदी की आलोचना की।
सहयोगी दलों की छोडिय़े, भाजपा के अंदर भी वे नेता, जो मोदी की चमक के कारण सहमे हुए थे, अब थोड़ी राहत की सांस ले रहे हैं। यह बात तो मीडिया में खुल कर आई है कि दिल्ली के चुनाव परिणाम का असर राजस्थान में भी माना जाता है। राजनीतिक जानकार मान कर चल रहे थे कि अगर मोदी दिल्ली में भी कामयाब हो गए तो वे वसुंधरा को हटा कर किसी अन्य यानि ओम प्रकाश माथुर को मुख्यमंत्री बना सकते हैं, मगर अब वसुंधरा को कुछ राहत मिली है। चूंकि मोदी पहले दिल्ली में हुई हार के सदमे से उबरना चाहेंगे। इतना ही नहीं उन्हें इस बात पर विचार करना होगा कि जिस जीत को वे शाश्वत मान कर चल रहे थे, उसे कोई भेद भी सकता है।
आम आदमी पार्टी की बात करें तो यह एक अहम सवाल है कि अब आगे उसकी रणनीति क्या होगी? क्या वह उसी तरह गैर भाजपा दलों को एक साथ ला पाएगी, जिस तरह 1989 में वीपी सिंह ने किया था। वी पी सिंह ने गैर कांग्रेस प्लेटफॉर्म बनाया। उन्होंने मिस्टर क्लीन राजीव गांधी को गद्दी से बेदखल किया और प्रचंड बहुमत के साथ 415 लोकसभा सीट जीतने वाली कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिया। हालांकि ऐसा नहीं लगता कि आप आने वाले दिनों में इस तरह का कोई जोखिम लेना चाहेगी। इसने दिल्ली में अपने पक्ष में नीतीश कुमार के चुनाव प्रचार के प्रस्ताव को स्वीकार करने से परहेज किया क्योंकि भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम इसका केंद्रीय मुद्दा है और भ्रष्टाचार के मामले में दोषी लालू, नीतीश के अब साथ हैं। यह ऐसी समस्या है जिसके चलते आप कई क्षेत्रीय दलों से गठबंधन करने से बचना चाहेगी। क्षेत्रीय दलों से हाथ मिलाने के बजाय इस बात की संभावना है कि भाजपा को हराने के लिए आप अपनी ताकत को बढ़ाना चाहेगी। दिल्ली में ऐतिहासिक जीत के साथ निश्चित रूप से देश के अन्य हिस्सों में आप को अपना विस्तार करने में सहायता मिलेगी।
कुल मिला कर केजरीवाल जानते थे कि राष्ट्रीय फलक पर उभरने के लिए उनको दिल्ली में तत्काल नतीजे दिखाने होंगे, लेकिन अन्य दलों के साथ मिलकर एक प्लेटफॉर्म बनाने का मामला अभी संभव प्रतीत नहीं होता। हालांकि मोदी के विजय रथ को रोक कर हताश क्षेत्रीय क्षत्रपों को उन्होंने नया उत्साह तो दिया ही है।
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