तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

सोमवार, जून 16, 2014

वन मैन शो की तरह काम करेंगे मोदी?

जैसी कि आशंका थी, वही होने जा रहा प्रतीत होता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी मंत्रियों को काम करने की सीमित छूट देंगे और सारे फैसलों पर खुद ही नजर रखेंगे, इसका आभास तब हुआ था, जब उन्होंने प्रधानमंत्री बनने के कुछ दिन बाद ही सारे मंत्रालयों के सचिवों की संयुक्त बैठक बुला ली। बेशक उनके इस कदम को इस अर्थ में लिया गया कि वे स्वयं बहुत मेहनत कर रहे हैं, ताकि कहीं कोई गड़बड़ न हो, मगर दूसरी ओर इसे इस अर्थ में लिया गया कि क्या वे मंत्रियों को ठीक से काम करने भी देंगे या नहीं। उनका अब तक का ट्रेक रिकार्ड भी यही बताया जाता है कि गुजरात में भी उन्होंने सरकार को अपने में ही अंतर्निहित कर रखा था। सारे मंत्री को नाम मात्र के थे, बाकी सरकार तो वे खुद ही चला रहे थे। इस कारण उनके व्यक्तित्व में मौजूद डिक्टेटरशिप के तत्व को जानने वाले यही मान रहे थे कि वे केन्द्र में कुछ ऐसा ही करने वाले हैं।
मोदी की इस प्रवृत्ति की पुष्टि हाल ही तब हो गई, जब उन्होंने केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह सहित आठ मंत्रियों के निजी सचिवों की नियुक्ति पर कार्मिक मंत्रालय के एक सर्कूलर के माध्यम से अड़ंगा लगा दिया। इस सर्कूलर में कहा गया है कि मंत्रियों के निजी स्टाफ में नियुक्ति के लिए कैबिनेट की नियुक्ति समिति से मंजूरी जरूरी है। इसमें नियुक्ति में तय प्रक्रिया का सख्ती से पालन करने को कहा गया। ज्ञातव्य है कि राजनाथ सिंह के निजी सचिव के लिए 1995 बैच के आईपीएस अफसर आलोक सिंह का नाम भेजा गया है। इसी प्रकार गृह राज्यमंत्री किरेन रिजीजू के निजी सचिव अभिनव कुमार की नियुक्ति को भी हरी झंडी नहीं मिली। विदेश राज्य मंत्री वी के सिंह के निजी सचिव राजेश कुमार की नियुक्ति भी अटकी है। कुछ अन्य मंत्रियों के निजी स्टाफ की नियुक्ति भी रुकी हुई है। यानि कि उन्होंने अपने मंत्रियों के फैसलों पर भी लगाम लगा कर रखने की ठान रखी है। उनकी तानाशाही प्रवृत्ति की सीमा इस हद तक है कि खुद उनकी पार्टी के अध्यक्ष और केंद्र में नंबर दो की हैसियत रखने वाले राजनाथ सिंह को भी राहत नहीं दी गई।
गुड गवर्नेंस के लिहाज से मोदी की यह कार्यशैली बेहतर जरूर मानी जा सकती है, मगर समझा जाता है कि इससे कुछ दिन बाद मंत्रियों में असंतोष पनपेगा। जब वे कोई भी निर्णय करने के लिए स्वतंत्र नहीं होंगे और हर फैसले पर अंतिम मुहर के लिए पीएमओ का मुंह ताकेंगे तो उनके मंत्री होने - न होने के कोई मायने ही नहीं रह जाएंगे। असल में यह स्थिति इस कारण उत्पन्न हुई है क्योंकि इस बार भाजपा ने मोदी को बाकायदा प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किया और उसमें सफलता भी हाथ लगी। यानि कि भाजपा को मिले बहुमत का सारा श्रेय मोदी के खाते में दर्ज है। ऐसे में अगर वे तानाशाह की तरह काम करते हैं तो उसमें कोई अचरज नहीं होना चाहिए।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

रविवार, जून 08, 2014

मोदी के ही कब्जे में ही रहेगा भाजपा संगठन भी

हालांकि जल्द ही भाजपा को नया राष्ट्रीय अध्यक्ष मिल जाएगा, मगर पार्टी के अंदर चर्चा ही है कि उस पर भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हावी रहेंगे। इस बात की सुगबुगाहट पहले से ही है कि नए अध्यक्ष की नियुक्ति मोदी की सहमति से ही होगी। यानि अध्यक्ष कहने मात्र का होगा, जबकि सारे निर्णयों पर मोदी ही मुहर लगवानी होगी। इस मुद्दे पर राष्ट्रीय न्यूज चैनलों पर भी बहस छिड़ी हुई है।
असल में यह मुद्दा इस कारण उठा क्योंकि मोदी ने प्रधानमंत्री आवास में पार्टी महासचिवों की बैठक बुला ली। उन्होंने महासचिवों से विमर्श किया और उन्हें भी सांगठनिक निर्देश दिए। इसमें भी पेच ये रहा कि इसके बारे में अध्यक्ष राजनाथ सिंह को कोई सूचना नहीं थी। राजनाथ सिंह ने तो बाद में बैठक में मौजूद महासचिवों से फोन करके जानकारी ली। जाहिर तौर पर वे सकते में आ गए होंगे। हालांकि वे अब मंत्री बन चुके हैं, मगर जब तक नया अध्यक्ष मनोनीत नहीं हो जाता, तब तक वे ही अध्यक्ष हैं। इस घटना को इस रूप में लिया गया कि मोदी यह साफ कर देना चाहते थे कि उनके नाम से मिले जनसमर्थन को वे कमजोर नहीं होने देंगे। मोदी ने एक और हरकत भी की। वो यह कि पार्टी आफिस जाकर वहां काम करने वाले कर्मचारियों से मिले और उन्हें बोनस दिया।
ऐसे में सवाल उठने लगे कि क्या पार्टी का पृथक अध्यक्ष होने के बावजूद उनका इस प्रकार संगठन में दखल देना उचित है। इस बारे में कुछ का कहना रहा कि चूंकि संगठन को दिशा देने की जिम्मा अध्यक्ष का है, तो प्रधानमंत्री को संगठन के मामले में सीधे हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। कोई बात करनी भी तो पार्टी अध्यक्ष की जानकारी में ला कर संयुक्त बैठक करनी चाहिए। अगर इस प्रकार अध्यक्ष को जानकारी में लाए बिना पार्टी पदाधिकारियों की बैठक लेंगे तो अध्यक्ष का औचित्य ही समाप्त हो जाएगा। उसकी सुनेगा भी कौन? या फिर असमंजस में पड़ेगा कि मोदी को राजी करे या अध्यक्ष को? किसकी मानें? यदि अध्यक्ष किसी मुद्दे पर पृथक राय रखता होगा तो टकराव होगा, जो कि संगठन के लिए ठीक नहीं होगा। इससे तो बेहतर है कि पार्टी और संघ बैठ कर तय कर लें कि पार्टी के एजेंडे को ठीक से लागू करने के लिए प्रधानमंत्री व अध्यक्ष दोनों ही पद मोदी के पास रहेंगे।
दूसरी ओर एक तबका ऐसा भी है जो कि यह मानता है कि मोदी को पार्टी पदाधिकारियों को दिशा निर्देश देने का पूरा अधिकार है क्योंकि उन्हीं के बलबूते पर ही पार्टी सरकार में आई है। अगर मोदी का चेहरा न होता तो भाजपा को कभी इतना प्रचंड बहुमत नहीं मिलता। पार्टी मोदी के नेतृत्व में ही तो इस मुकाम पर पहुंची है, इस कारण उन्हें पूरा अधिकार है कि वे सरकार चलाने के साथ-साथ संगठन को भी मजबूत करें। उनका तर्क ये है कि चूंकि देश में अच्छे दिन लाने के लिए मोदी के नाम पर भाजपा को सत्ता में आने का मौका मिला है, इस कारण जनता की अपेक्षाएं सीधे तौर पर मोदी से हैं। वे तभी अच्छी सरकार चला पाएंगे जबकि संगठन भी उनके कहे अनुसार चले। वैसे भी सरकार को बेहतर चलाने के लिए बेहतर ये है कि सत्ता के दो केन्द्र न हों।
वस्तुत: देश के राजनीतिक इतिहास में पहली बार पूर्ण बहुमत से सत्ता में पहुंची भारतीय जनता पार्टी के हौसले सातवें आसमान पर हैं। मोदी के करिश्माई नाम पर भाजपा ने वह हासिल कर लिया है, जो इसके संस्थापक अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भी हासिल न हो सका था। पार्टी के दूसर शीर्ष पुरुष लाल कृष्ण आडवाणी को भी रथयात्रा के जरिए सफलता मिली, मगर वे भाजपा को सत्ता के नजदीक भी नहीं ला सके। यहां तक कि आडवाणी को ही प्रधानमंत्री पद के लिए प्रोजेक्ट करने पर भी सफलता हाथ नहीं आई। ऐसे में पूर्ण बहुमत दिलाने वाले मोदी की हैसियत पार्टी अध्यक्ष से भी ऊंची हो गई है।
हालांकि मोदी समर्थकों का कहना है कि मोदी का संगठन में सीधे दखल देना गलत अर्थों में नहीं लिया जाना चाहिए क्योंकि वे प्रधानमंत्री बनने के बाद भी पार्टी को मां के समान मानते हैं। उसे मजबूत बनाए रखना चाहते हैं। दूसरे पक्ष को इस पर संदेह है। वो यह कि कहीं मां की सेवा के बहाने कहीं ये पूरी पार्टी पर कब्जा करने की नियत तो नहीं है।
कुल मिला कर मोदी की वर्किंग स्टाइल और ताजा हालत से तो यही लगता है कि पार्टी अध्यक्ष नाम मात्र का होगा और वह मोदी के कहे अनुसार ही चलेगा। वजह साफ है। मोदी का कद इतना बड़ा हो गया है कि अब उनक सामने खड़ा बराबर के दर्जे से कोई भी बात नहीं कर पाएगा। मोदी की हैसियत कितनी बड़ी हो गई है, इसका अनुमान इसी बात से लग जाता है कि जिन नेताओं पर अध्यक्ष का भार था, वे ही अब मोदी के मंत्रीमंडल में शामिल हैं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

बुधवार, जून 04, 2014

मोदी व वसुंधरा के बीच सब कुछ ठीकठाक नहीं

इसमें कोई दोराय नहीं कि लोकसभा चुनाव में मिशन 25 को पूरा करने के लिए राजस्थान की मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे ने पार्टी की ओर से नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित किए जाने के निर्णय को पूरा सम्मान दिया, अपितु अपनी ओर से भी एडी-चोटी का जोर लगा दिया। भाजपा की इस ऐतिहासिक जीत में जितनी भूमिका मोदी लहर की रही, उतनी ही वसुंधरा की रणनीति भी रही। चतुराई से टिकट वितरण के साथ ही कुछ कमजोर सीटों पर जिस प्रकार उन्होंने कांग्रेस की घेराबंदी की,  उसके अपेक्षित परिणाम भी आए। यानि कि मोदी-वसुंधरा के तालमेल ने चमत्कार कर दिखाया, मगर जैसे ही मोदी ने अपने मंत्रीमंडल का गठन किया तो इस बात का अनुमान साफ-साफ लगने लगा कि दोनों के बीच सबकुछ ठीकठाक नहीं है।
जानकार सूत्रों के अनुसार मंत्रीमंडल की सूची फाइनल होने के आखिरी क्षण तक राजस्थान के एक भी सांसद का नाम मंत्री के रूप में नहीं था। कुछ न्यूज चैनलों पर तो यह खबर ब्रेकिंग न्यूज की तरह चल भी गई। और ये भी कि वसुंधरा ने सभी सांसदों की बैठक में तसल्ली रखने को कहा। दूसरी ओर उन्होंने मोदी पर दबाव भी बनाया और उसी के बाद श्रीगंगानगर के सांसद निहाल चंद का नाम सूची में जोड़ा गया। बताया जाता है कि निहाल चंद का नाम वसुंधरा की पहली पसंद के रूप में नहीं था, यानि कि इसमें भी मोदी ने वसुंधरा को कोई खास भाव नहीं दिया। मतलब साफ है। मोदी व वसुंधरा के बीच ट्यूनिंग में कहीं न कहीं गड़बड़ है। इस बात की पुष्टि कुछ चर्चाओं से हो रही है।
आपको याद होगा कि वसुंधरा ने अपनी पंसद से कर्नल सोनाराम को कांग्रेस से ला कर भाजपा का टिकट दिलवाया और पूर्व केन्द्रीय विदेश मंत्री जसवंत नाराज हो बागी हो गए, तो उन्हें हराने के लिए पूरी ताकत झोंक दी, उन्हीं का आशीर्वाद लेने के लिए मोदी ने पत्र लिख दिया। मीडिया में चर्चा यहां तक है कि उन्हें तमिलनाडू का राज्यपाल बनाया जा सकता है। इसी प्रकार चर्चा है कि वसुंधरा राजे के धुर विरोधी घनश्याम तिवाड़ी को मोदी अहम जिम्मेदारी दिलवाना चाहते हैं। इसी प्रकार राजे दरबार से निकाले गए ओम प्रकाश माथुर की चर्चा तो भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए जाने वाली सूची में है। अध्यक्ष वे बनवा पाएं, अथवा नहीं, मगर यह तय है कि उन्हें भी खास जिम्मेदारी दी जा सकती है। कुल मिला कर यह साफ है कि मोदी सोची समझी रणनीति के तहत वसुंधरा विरोधियों पर हाथ रखना चाहते हैं। ताकि... ताकि वसुंधरा अपने सूबे में स्वतंत्र क्षत्रप की तरह व्यवहार न करने लगें। रहा सवाल वसुंधरा के मिजाज का तो सब जानते हैं कि जब वे विपक्ष में थीं, तब भी भाजपा हाईकमान के नियंत्रण में नहीं आ रही थीं। अधिसंख्य विधायक उनके कब्जे में थे। हाईकमान का दबाव था कि वे विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष पद छोड़े, मगर उन्होंने साफ इंकार कर दिया। काफी जद्दोजहद के बाद तब जा कर पद छोड़ा, जब उन्हें राष्ट्रीय महासचिव बनाया गया। उस पर भी तुर्रा ये कि तकरीबन एक साल तक किसी और को नेता प्रतिपक्ष नहीं बनने दिया। अपने पक्ष में विधायकों के इस्तीफे का नाटक सबने देखा। आखिरकार हाईकमान को मजबूर हो कर उन्हें फिर से नेता प्रतिपक्ष बनाना पड़ा। इससे समझा जा सकता है कि उन्होंने हाईकमान व संघ को कितना गांठा। हाईकमान उनके सामने इतना बौना हो गया था कि उन्हें ही विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री प्रत्याशी के रूप में प्रोजेक्ट करना पड़ा। उन्होंने पूरे प्रदेश में सुराज संकल्प यात्रा निकाल कर भाजपा के पक्ष में अलख जगाई। हालांकि तब तक नरेन्द्र मोदी भी प्रधानमंत्री पद के दावेदार घोषित हो चुके थे, इस कारण उनकी भी हवा चली और भाजपा को प्रचंड बहुमत हासिल हो गया। लोकसभा चुनाव में भी उन्होंने मिशन पच्चीस पूरा कर दिया। भला ऐसे में वे कैसे हाईकमान से दबने वाली हैं। उनका मिजाज भी इसकी इजाजत नहीं देता। स्वाभाविक है कि वे राजस्थान में स्वतंत्र रूप से काम करना चाहती हैं, मगर कुछ घटनाओं से ऐसा प्रतीत होता है कि मोदी की राजस्थान में टांग फंसा कर रखने की मंशा है। मोदी आज भाजपा की सुपर पावर हैं। यदि ये कहें कि वे पूरी भाजपा पर हावी हो गए हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। वे वसुंधरा को पहले की तरह छुट्टा छोडऩे वाले नहीं हैं। ठीक उसी तरह जैसे पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्रियों को कब्जे में रखती थीं। एक वरिष्ठ लेखक डॉ. जुगल किशोर गर्ग ने तो व्यक्तिगत चर्चा में उन्हें इंदिरा गांधी का भाजपाई संस्करण करार दिया है। उधर महारानी वसुंधरा भी कम नहीं हैं। ऐसे में टकराव अवश्यम्भावी नजर आता है।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, मई 08, 2014

यकायक कहां खो गए दूसरे गांधी अन्ना हजारे?

देश की राजनीति व तंत्र के प्रति व्याप्त नैराशय के बीच नि:स्वार्थ जनआंदोलन के प्रणेता और प्रकाश पुंज अन्ना हजारे एक दूसरे गांधी के रूप में उभर कर आए थे और यही लग रहा था कि देश को दूसरी आजादी के सूत्रधार वे ही होंगे, मगर आज जब कि देश में परिवर्तन की चाह के बीच आम चुनाव हो रहे हैं तो वे यकायक राष्ट्रीय क्षितिज से गायब हो गए हैं। हर किसी को आश्चर्य है कि एक साल पहले तक जो शख्स सर्वाधिक प्रासंगिक था, वह आज अचानक अप्रासंगिक कैसे हो गया? इसमें दो ही कारण समझ में आते हैं। या तो आंदोलन को सिरे तक पहुंचाने की सूझबूझ के अभाव या अपनी टीम को जोड़ कर रख पाने की अक्षमता ने उनका यह हश्र किया है  या फिर चुनावी धूमधड़ाके में चाहे-अनचाहे सांप्रदायिकता व जातिवाद ने मौलिक यक्ष प्रश्रों को पीछे छोड़ दिया है। हालांकि चाह तो अब भी परिवर्तन की ही है, मगर ये परिवर्तन सत्ता परिवर्तन के साथ व्यवस्था परिवर्तन का आगाज भी करेगा, इसमें तनिक संदेह है। वजह साफ है कि व्यवस्था परिवर्तन की चाह जगाने वाले अन्ना हजारे राष्ट्रीय पटल से गायब हैं। आज जबकि उनकी सर्वाधिक जरूरत है तो वे कहीं नजर नहीं आ रहे।
आपको याद होगा कि अन्ना के आंदोलन ने देश में निराशा के वातावरण में उम्मीद की किरण पैदा की थी। आजादी के बाद पहली बार किसी जनआंदोलन के चलते संसद और सरकार को घुटने टेकने पड़े थे। ऐसा इसलिए संभव हो पाया कि क्योंकि इसके साथ वह युवा वर्ग शिद्दत के साथ शामिल हो गया था, जिसे खुद के साथ अपने देश की चिंता थी। उस युवा जोश ने साबित कर दिया था कि अगर सच्चा और विश्वास के योग्य नेतृत्व हो तो वह देश की कायापलट करने के लिए सबकुछ करने को तैयार है। मगर दुर्भाग्य से ऐसा हो नहीं पाया। इसके दो प्रमुख कारण रहे। एक तो स्वयं अन्ना   का भोलापन, जिसे राजनीतिक चालों की अनुभवहीनता कहा जा सकता है, और दूसरा बार-बार यू टर्न लेने की मजबूरी।
शुरू में यह नजर आया कि एक दूसरे के पर्याय भ्रष्टाचार व काला धन के खिलाफ बाबा रामदेव और अन्ना हजारे का जोड़ कामयाब होगा, मगर पर्दे के पीछे के भिन्न उद्देश्यों ने जल्द ही दोनों को अलग कर दिया। बाबा रामदेव अन्ना हजारे को आगे रख कर भी पूरे आंदोलन को हथिया लेना चाहते थे, मगर अन्ना आंदोलन के वास्तविक सूत्रधार अरविंद केजरीवाल को ये बर्दाश्त नहीं हुआ। सरकार भी बड़े ही युक्तिपूर्ण तरीके से दोनों के आंदोलनों को कुचलने में कामयाब हो गई। जैसे ही केजरीवाल को ये लगा कि सारी मेहनत पर पानी फिरने जा रहा है या फिर उनका सुनियोजित प्लान चौपट होने को है, उन्होंने आखिरी विकल्प के रूप में खुद ही राजनीति में प्रवेश करने का ऐलान कर दिया। ऐसे में अन्ना हजारे ठगे से रह गए। वे समझ ही नहीं पा रहे  थे कि उन्हीं के आंदोलन के गर्भ से पैदा हुई आम आदमी पार्टी को समर्थन दें या अलग-थलग हो कर बैठ जाएं। इस अनिश्चय की स्थिति में वे अपने मानस पुत्र को न खोने की चाह में कभी अरविंद को अशीर्वाद देते तो कभी उनसे कोई वास्ता न होने की बात कह कर अपने व्यक्तित्व को बचाए रखने की जुगत करते। अंतत: उन्हें यही लगा कि चतुराई की कमी के कारण उनका उपयोग कर लिया गया है और आगे भी होता रहेगा, तो उन्होंने हाशिये पर ही जाना उचित समझा। समझौतावादी मानसिकता में उन्होंने सरकार लोकपाल समर्थन कर दिया। जब केजरीवाल ने उनको उलाहना दिया कि इस सरकारी लोकपाल से चूहा भी नहीं पकड़ा जा सकेगा तो अन्ना ने दावा किया कि इससे शेर को भी पकड़ा जा सकता है। अन्ना के इस यूटर्न ने उनकी बनी बनाई छवि को खराब कर दिया। उन पर साफ तौर पर आरोप लगा कि वे यूपीए सरकार से मिल गये हैं। बदले हालत यहां तक पहुंच गए कि वे दिल्ली में अरविंद केजरीवाल के मुख्यमंत्री पद के शपथ ग्रहण समारोह में भी नहीं गए। वे किरण बेदी व पूर्व सेनाध्यक्ष वी के सिंह के शिकंजे में आ चुके थे, मगर अन्ना के साथ अपना भविष्य न देख वे भी उनका साथ छोड़कर भाजपा में चले गये। आज हालत ये है कि करोड़ों दिलों में अपनी जगह बना चुके अन्ना मैदान में मैदान में अकेले ही खड़े हैं। इससे यह साफ तौर साबित होता है कि उनको जो भी मिला उनका उपयोग करने के लिए। यहां तक कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ भी उनका यही अनुभव रहा। यह स्पष्ट है कि ममता का आभा मंडल केवल पश्चिम बंगाल तक सीमित है और अन्ना का साथ लेकर वे राष्ट्रीय पटल पर आना चाहती थीं। दूसरी ओर अन्ना कदाचित केजरीवाल को नीचा दिखाने की गरज से ममता के प्रस्ताव पर दिल्ली में साझा रैली करने को तैयार हो गए। मगर बाद में उन्हें अक्ल आई कि ममता का दिल्ली में कोई प्रभाव नहीं है और वे तो उपयोग मात्र करना चाहती हैं तो ऐन वक्त पर यू टर्न ले लिया। इससे उनकी रही सही साख भी चौपट हो गई। कहां तो अन्ना को ये गुमान था कि वे जिस भी प्रत्याशी के साथ खड़े होंगे, उसकी चुनावी वैतरणी पर हो जाएगी, कहां हालत ये है कि आज अन्ना का कोई नामलेवा नहीं है। इस पूरे घटनाक्रम से यह निष्कर्ष निकलता है कि अनशन करके आंदोलन खड़ा करने और राजनीतिक सूझबूझ का इस्तेमाल करना अलग-अलग बातें हैं। निष्पत्ति ये है कि अन्ना ने भविष्य में किसी आंदोलन के लिए अपने आपको बचा रखा है, मगर लगता नहीं कि उनका जादू दुबारा चल पाएगा।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

मंगलवार, मई 06, 2014

खुद को नीची जाति का बता कर नीच हरकत की मोदी ने

मोदी लहर के सूत्रधार को ही जरूरत पड़ गई खुद को नीच बता कर वोट मांगने की जरूरत
योजनाबद्ध रूप से देशभर में अपनी लहर चला कर तीन सौ से ज्यादा सीटें हासिल करने का दावा करने वाले भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को लोकसभा चुनाव के आखिरी चरण में खुद को नीच जाति का बता कर वोट मांगने की जरूरत पड़ गई। उन्होंने कांग्रेस की स्टार प्रचारक प्रियंका वाड्रा की ओर से किए गए पलटवार को ही हथियार बना कर जिस प्रकार नीची जाति की हमदर्दी हासिल करने कोशिश की, उससे साफ झलक रहा था कि वे भले ही ऊंची राजनीति के प्रणेता कहलाने लगे हैं, मगर वोट की खातिर नीची हरकत कर बैठे।
ज्ञातव्य है कि मोदी ने अमेठी में अपने एक भाषण में गांधी परिवार पर हमला करते हुए पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी पर कटाक्ष किया था कि उन्होंने आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री टी अंजैया को एयरपोर्ट पर सबके सामने अपमानित किया था। इस पर प्रियंका तिलमिला उठीं। उन्होंने पलटवार करते हुए कहा था कि मोदी ने अमेठी की धरती पर मेरे शहीद पिता का अपमान किया है, अमेठी की जनता इस हरकत को कभी माफ नहीं करेगी। इनकी नीच राजनीति का जवाब मेरे बूथ के कार्यकर्ता देंगे। अमेठी के एक-एक बूथ से जवाब आएगा। मोदी को जैसे ही लगा कि प्रियंका ने उनके एक बयान के प्रतिफल में लोगों की संवेदना हासिल करने की कोशिश की है, उन्होंने उससे भी बड़े पैमाने की संवेदना जुटाने का घटिया वार चल दिया। प्रियंका को बेटी जैसी होने का बता कर सदाशयता का परिचय देने वाले मोदी ने यह स्वीकार भी किया कि एक पुत्री को पिता के बारे में सुन का बुरा लगा होगा, तो सवाल ये उठता है कि अमेठी की धरती पर क्या ऐसा बयान देना जरूरी था?
नीची जाति का यह मुद्दा इलैक्ट्रॉनिक मीडिया पर पूरे दिन छाया रहा और सारे भाषाविद, चुनाव विश्लेषक और पत्रकारों ने साफ तौर पर कहा कि प्रियंका ने तो केवल नीची अर्थात घटिया राजनीति का आरोप लगाया था, मगर मोदी ने जानबूझ कर इसे अपनी नीची जाति से जोड़ कर हमदर्दी हासिल करने की कोशिश की है। यह सर्वविदित तथ्य है कि उन्हें आज तक किसी ने नीची जाति का कह कर संबोधित नहीं किया, बावजूद इसके उन्होंने खुद को नीची जाति का बता कर उसे भुनाने की कोशिश की है। पूर्वांचल के सिद्धार्थनगर, महराजगंज, बांसगांव और सलेमपुर में कथित नीची जातियों के वोट बटोरने के लिए उन्होंने यहां तक कहा कि मेरा चाहे जितना चाहे अपमान करो, लेकिन मेरे नीची जाति के भाइयों का अपमान मत करो। खुद को ही पत्थर मार के घायल करने के बाद लोगों की संवेदना हासिल करने की तर्ज पर उन्होंने यह तक कहा कि क्या नीची जाति में पैदा होना गुनाह है। ये जो महलों में रहते हैं, वे नीची जाति का मखौल उड़ाते हैं। उन्हें सुख-शांति इसीलिए मिल रही है क्योंकि सदियों से हम नीच जाति के लोगों ने, हमारे बाप-दादाओं ने अपना पसीना बहाया है ताकि उनकी चमक बरकरार रहे।
मोदी की इस हरकत पर सभी भौंचक्क थे कि चुनाव के आखिरी चरण में मोदी को ये क्या हो गया है? क्या उन्हें अपनी लहर, जिसे कि वे खुद सुनामी कहने लगे हैं, उस पर भरोसा नहीं रहा, जो इतने निचले स्तर पर उतर आए हैं? कहीं जरूरत से ज्यादा जाहिर किए गए आत्मविश्वास पर उन्हें संदेह तो नहीं हो रहा? जीत जाने के दंभ से भरे इस शख्स को यकायक अपनी नीची जाति कैसे याद आ गई? कहीं उन्हें खुद के नीची जाति में पैदा होने का मलाल तो नहीं साल रहा? कहीं वे इस बात से आत्मविमुग्ध तो नहीं कि वे नीची जाति का होने के बावजूद देश के सर्वाधिक ताकतवर पद पर पहुंचने जा रहे हैं? सवाल ये भी कि नीची जाति के प्रति उनकी इतनी ही हमदर्दी है तो जब बाबा रामदेव ने यह कह कर दलित महिलाओं का अपमान किया था कि राहुल गांधी उनके घरों में जा कर रातें बिताते हैं, तब वे चुप क्यों रह गए थे? अव्वल तो प्रियंका ने मोदी को नीची जाति का बताया ही नहीं, मगर यदि मोदी ने यह अर्थ निकाल भी लिया तो भी बाबा रामदेव का कृत्य तो उससे भी कई गुना अधिक घटिया था, तब क्यों नहीं उन्हें फटकारा कि इस प्रकार मेरी नीची जाति की महिलाओं को जलील न करें?
आश्चर्य तो तब हुआ, जब अरुण जेटली जैसे जाने-माने बुद्धिजीवी नेता ने खुदबखुद व्यथित हुए मोदी के सुर में सुर मिला कर कांग्रेस से माफी मांगने तक को कह डाला।
आपको याद होगा कि एक बार कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर की ओर से उन्हें बचपन में चाय बेचने वाला बताने को पकड़ कर जो रट चालू की है, वह अब तक जारी है। चाय बेचने वाले, ठेले व रेहड़ी लगाने वालों की संवेदना हासिल करने के लिए पूरी भाजपा ने देशभर में नमो चाय की नौटंकी की थी। अमेठी में भी इसी रट को जारी रखते हुए उन्होंने कहा कि हमें बार-बार चाय वाला कह कर गालियां दी गईं, जबकि सच्चाई ये है कि अय्यर के बाद कभी किसी ने इसका जिक्र नहीं किया, मगर मोदी सहित सभी भाजपा नेता बार-बार यह कह कर कि एक चाय बेचने वाला प्रधानमंत्री बनने जा रहा है तो यह कांग्रेस को बर्दाश्त नहीं है, चाय बेचने को भी महिमा मंडित कर रहे हैं।
-तेजवानी गिरधर

सोमवार, मई 05, 2014

गैर भाजपाइयों ने बनाया माहौल को मोदीमय

भले ही गैर भाजपाई दल ये कहें कि भाजपा ने चुनाव जीतने के लिए पार्टी की नीतियों से कहीं अधिक व्यक्तिवाद का रुख अख्तियार कर लिया है, मगर सच ये है कि भाजपा ने तो एक आदर्श के रूप में नरेन्द्र मोदी का चेहरा आगे रखा, जिसे मीडिया ने सुनियोजित तरीके से प्रोजेक्ट किया, मगर उसे मोदीमय बनाने का श्रेय गैर भाजपाइयों को ही जाता है। इसमें कोई दोराय नहीं कि भाजपा ने मोदी को प्रोजेक्ट करने के लिए योजनाबद्ध तरीके से काम किया, मगर विरोधियों ने मोदी पर लगातार ताबड़तोड़ हमले कर उन्हें शीर्ष पर ला दिया है। चहुं ओर मोदी ही मोदी सुनाई दे रहा है। संभवत: यह पहला मौका है जबकि देश में राष्ट्रपति शासन प्रणाली की तरह आम चुनाव हो रहा है, जिसमें जनता को व्यक्ति के नाम पर वोट डालना है। पूरा चुनाव व्यक्ति केन्द्रित हो चुका है। देश में हर जगह राजनीतिक रूप से मोदी की ही चर्चा है। मोदी के समर्थक यही कहते हैं की मोदी सत्ता मे आयेंगे और विरोधी दलों का सारा जोर इस बात पर है कि मोदी को कैसे रोका जाए। वे स्वयं सत्ता में आने के प्रयास तो कर नहीं रहे, कर भी नहीं सकते क्योंकि विखंडित हैं, इससे उलट उनकी मंशा भर है कि किसी भी सूरत में मोदी नहीं आने चाहिए। हालत ये हो गई कि अपनी नीतियों व योजनाओं की पर जोर देने की बजाय केवल मोदी की बुराई में जुट गए हैं। और ये एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि आप जिसका जितना विरोध करेंगे, उतना ही वह और उभर कर आएगा।
असल में भाजपा ने लोकसभा चुनाव की शुरुआत मोदी के गुजरात विकास मॉडल के साथ की थी। इसे किसी ने अन्य दल ने गंभीरता से नहीं लिया। इसका परिणाम ये रहा कि मोदी गुजरात मॉडल को स्थापित करने में कामयाब हो गए। यह बात दीगर है कि बहुत देर से ये तथ्य सामने आए कि धरातल पर गुजरात मॉडल कुछ भी नहीं है, मगर तब तक धारणा बनाई जा चुकी थी। कांग्रेस के पास विकास के नाम पर कहने को बहुत कुछ था, मगर महंगाई और भ्रष्टाचार के मुद्दे इतने हावी हो गए कि उसके सामने सारा विकास गौण हो गया। राहुल गांधी ने तो इसे स्वीकार भी किया कि उनका सारा ध्यान काम पर ही रहा, मोदी की तरह चुनाव मैनेजमेंट व प्रोजेक्शन नहीं कर पाए। कुल मिला कर भाजपा आक्रामक मुद्रा में है तो कांग्रेस रक्षात्मक मुद्रा में।
हालांकि यह सच है कि चार साल पहले तक जहां कांग्रेस की सरकार को विफल माना जा रहा था, वहीं भाजपा पर सशक्त विपक्ष की भूमिका न निभा पाने का आरोप था। कांग्रेस के प्रति नाराजगी तक को भुना पाने में वह सफल नहीं हो पा रही थी। इसका लाभ समाजसेवी अन्ना हजारे ने उठाया। उनके आंदोलन को पूरे देश का समर्थन हासिल हुआ। उन्होंने जो जलवा पैदा किया, उसको भुनाने के लिए उन्हीं कि शिष्य अरविंद केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी बना ली। उन्हें दिल्ली विधानसभा चुनाव में फायदा मिला भी, मगर वे कठिनाइयों का सामना करने की बजाय भाग लिए। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि दिल्ली की सरकार को छोड़ कर उनकी नजर देश की सरकार पर जा टिकी। पूरे देश के हिसाब से उनके पास सांगठनिक ढ़ांचा था नहीं, इस कारण दिल्ली जैसा जलजला बन ही नहीं पाया। बस इसी कारण कांग्रेस विरोधी माहौल का पूरा फायदा भाजपा की ओर शिफ्ट होता नजर आ रहा है। उसका गुजरात विकास मॉडल कितना कारगर है, इस पर जरूर बहस की जा सकती है, मगर फिलवक्त वही आखिरी विकल्प नजर आ रहा है। लोग भी सोच रहे हैं कि जो सामने है, उसे आजमाने में हर्ज ही क्या है, कांग्रेस को तो वे परख ही चुके। जैसे ही कांग्रेस व अन्य गैर भाजपा दलों को आभास हुआ कि मोदीमय हुई भाजपा सरकार पर काबिज होने के करीब पहुंचती जा रही है, उन्होंने सीधे मोदी पर ही हमले शुरू कर दिए। कोई उन्हें मौत का सौदागर तो कोई कसाई बता रहा है। कोई हिटलर जैसा तानाशाह  करार दे रहा है तो कोई राक्षस की उपमा दे रहा है। इसका नतीजा ये है कि पूरा चुनाव मोदी बनाम गैर मोदी के बीच बंट गया है। एक ओर प्रचंड मोदी लहर है तो दूसरी ओर उसे रोकने के जतन। तभी तो मोदी ने यह कहने का मौका मिल गया कि पहली बार सारे दल सत्तारूढ़ कांग्रेस के खिलाफ एकजुट होने की बजाय विपक्ष में रही भाजपा को रोकने की कोशिश कर रहे हैं। इसका उल्लेख स्वयं मोदी भी करने लगे हैं। यानि कि अपने आप में यह चुनाव अनूठा है। प्रधानमंत्री की कुर्सी नजदीक देख मोदी के भाषणों में भी दंभ आ गया है। वे बाकायदा स्वयं को प्रधानमंत्री मान कर ललकार रहे हैं। इसका उल्लेख सोनिया ने भी किया है कि मोदी अभी से अपने आपको प्रधानमंत्री मान बैठे हैं। इसके जवाब में मोदी यह कह कर मजे ले रहे हैं कि सोनिया गांधी के मुंह में घी-शक्कर।
खैर, चुनाव के आखिरी दिनों में सभी गैर भाजपा दलों का मकसद मोदी को रोकना नजर आ रहा है, मगर दुर्भाग्य से वे एक नहीं हैं। उनके अपने-अपने हित हैं। उनके अपने-अपने वोट बैंक और अपने अपने राज्य हैं। ऐसा विखंडित विपक्ष अगर यह सोचता है कि वह मोदी को रोक पाएगा, तो यह सपना मात्र नजर आता है।
रहा सवाल दूसरी सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस का तो वह जानती थी कि अभी माहौल प्रतिकूल है, इस कारण वह रक्षात्मक मुद्रा में रही। अन्य गैर भाजपाई दल कांग्रेस के साथ अभी इस कारण नहीं आए क्योंकि वे अपने अपने क्षेत्रों में वोट लेते ही गैर कांग्रेस गैर भाजपा के नाम पर हैं। चुनाव बाद जरूर वे मोदी को रोकने के लिए कांग्रेस के साथ आ सकते हैं या फिर कांग्रेस की मदद ले सकते हैं। यदि मोदी को रोकने के लिये सभी गैर भाजपा दल एकजुटता दिखाते तो कदाचित तनिक कामयाबी मिलने की उम्मीद की जा सकती थी, मगर ऐसा हुआ नहीं। इस सिलसिले में आपको याद होगा कि 1977 के लोकसभा चुनाव के लिये जब अनेक दलों ने अपना अस्तित्व मिटा कर, अपने सभी राजनीतिक आग्रह मिटा कर, एक जुट होकर इंदिरा गांधी का मुकाबला किया तो कांग्रेस परास्त हो गई थी। यहां तक कि इंदिरा गांधी खुद भी हार गईं। सत्ता पर काबिज होने के बाद वे यदि इंदिरा गांधी का नाम नहीं रटते तो वे कभी दुबारा सत्ता में नहीं आतीं। आज भी ठीक वैसी ही स्थिति है। गैर भाजपाई मोदी का जितना विरोध कर रहे हैं, उतना ही वे मजबूत होते जा  रहे हैं। हालांकि चुनाव परिणाम किसके पक्ष में जाएगा, इस बारे में 16 मई से पहले भविष्यवाणी करना ठीक नहीं, मगर मोटे तौर पर यही माना जा रहा है कि मोदी ही अगले प्रधानमंत्री होंगे। यदि भाजपा अकेले दम पर अच्छी खासी सीटें नहीं ला पाई तो संभव है मोदी की जगह किसी और भाजपा नेता की किस्मत चेत जाए।
चुनाव के आखिरी दिनों में कांग्रेस ने अपनी स्टार प्रचारक प्रियंका गांधी को उतार कर कुछ हद तक अपने आपको संभाला है, मगर अब देर हो चुकी है। हार सामने देख कर कांग्रेसी नेता यह कहने को मजबूर हैं कि मोदी को रोकने के लिए वह गैर भाजपाई दलों के तीसरे मोर्चे की सरकार बनवाने की कोशिश करेगी। हालांकि इस सिलसिले में राहुल गांधी का बयान फिलवक्त काफी महत्वपूर्ण है कि कांग्रेस गठबंधन नहीं करेगी और हारने पर विपक्ष में बैठना पसंद करेगी, मगर समझा जाता है कि यह बयान चुनाव के वक्त कांग्रेसियों का इकबाल बुलंद रखने मात्र के लिए दिया गया है। चुनाव के बाद इस बयान के कोई मायने नहीं रह जाएंगे और उस वक्त कांग्रेस वह सब कुछ करेगी, जिसकी मांग राजनीति करेगी। उसकी यह कोशिश कामयाब होगी या नहीं, इस बारे में अभी कुछ नहीं कहा सकता।
-तेजवानी गिरधर

सोमवार, अप्रैल 21, 2014

मोदी को कट्टर ही बनाए रखना चाहते हैं मदनी

जमीयत उलेमा-ए-हिंद के प्रमुख मौलाना मदनी के इस कथन ने एक नई बहस को जन्म दिया है कि मैं तिलक नहीं लगा सकता तो मोदी भी टोपी क्यों पहनें। उनकी बात बहुत ही तार्किक, सीधी-सीधी गले उतरने वाली और वाजिब लगती है। इसी से जुड़ी हुई ये बात भी सटीक महसूस होती है कि जब मुस्लिम इस्लाम के मुताबिक अपनी रवायत पर कायम रखता है और उसे बुरा नहीं माना जाता तो किसी हिंदू के अपने धर्म के मुताबिक चलते हुए मुस्लिम टोपी पहनने को मजबूर नहीं किया जाना चाहिए। कुछ ऐसा ही मसला दोनों धर्मों के धर्म स्थलों को लेकर है। मुस्लिम मंदिर नहीं जाता तो  इसे सहज में लिया जाता है, मगर कोई हिंदू मस्जिद अथवा दरगाह से परहेज रखता है तो उसे कट्टर क्यों माना जाना चाहिए। मगर सच ये है चंद हिंदुओं को छोड़ कर अधिसंख्य हिंदुओं को दरगाह, गिरिजाघर अथवा गुरुद्वारे में माथा टेकने में कोई ऐतराज नहीं होता।
अजमेर के संदर्भ में बात करें तो यह एक सच्चाई है कि देशभर से यहां आने वाले मुस्लिम जायरीन का एक प्रतिशत भी तीर्थराज पुष्कर नहीं जाता। जाता भी है तो महज तफरीह के लिए। दूसरी ओर देशभर से आने वाला अधिसंख्य हिंदू तीर्थयात्री दरगाह जरूर जाता है। अनेक स्थानीय हिंदू भी दरगाह में माथा टेकते देखे जा सकते हैं। तो आखिर इसकी वजह क्या है?
इसी सिलसिले में दरगाह में बम विस्फोट के आरोप में गिरफ्तार असीमानंद के उस इकबालिया बयान पर गौर कीजिए कि बम विस्फोट किया ही इस मकसद से गया था कि दरगाह में हिंदुओं को जाने से रोका जाए। दरगाह बम विस्फोट की बात छोड़ भी दें तो आज तक किसी भी हिंदू संगठन ने ऐसे कोई निर्देश जारी करने की हिमाकत नहीं की है कि हिंदू दरगाह में नहीं जाएं। वे जानते हैं कि उनके कहने को कोई हिंदू मानने वाला नहीं है। वजह साफ है। चाहे हिंदू भी ये कहें कि ईश्वर एक ही है, मगर उनकी आस्था छत्तीस करोड़ देवी-देवताओं में भी है। बहुईश्वरवाद के कारण ही हिंदू धर्म लचीला है। हिंदू संस्कृति स्वभावगत भी उदार प्रकृति की है। और इसी वजह से हिंदू धर्मावलम्बी कट्टरवादी नहीं हैं। उन्हें शिवजी, हनुमानजी और देवी माता के आगे सिर झुकाने के साथ पीर-फकीरों की मजरों पर भी मत्था टेकने में कुछ गलत नजर नहीं आता। रहा सवाल मुस्लिमों का तो वह खड़ा ही बुत परस्ती के खिलाफ है। ऐसे में भला हिंदू कट्टरपंथियों का यह तर्क कहां ठहरता है कि अगर हिंदू मजारों पर हाजिरी देता है तो मुस्लिमों को भी मंदिर में दर्शन करने को जाना चाहिए। सीधी-सीधी बात है मुस्लिम अपने धर्म का पालन करते हुए हिंदू धर्मस्थलों पर नहीं जाता, जब कि हिंदू इसी कारण मुस्लिम धर्म स्थलों पर चला जाता है, क्यों कि उसके धर्म विधान में देवी-देवता अथवा पीर-फकीर को नहीं मानने की कोई हिदायत नहीं है।
बहरहाल, ताजा मामले में मौलाना मदनी ने नरेन्द्र मोदी को सुझाया है कि वे भी मुस्लिमों की तरह अपने धर्म के प्रति कट्टर बने रहें। उन्हें शायद इसका इल्म नहीं है कि मुसलमान भले ही बुत परस्ती के विरुद्ध होने के कारण तिलक नहीं लगाएगा, मगर सभी धर्मों को साथ ले कर चलने वाला हिंदू खुद के धर्म का पालन करते हुए अन्य धर्मों का भी आदर करता है। कदाचित इसी कारण हिंदूवादी संघ की विचारधारा से पोषित भाजपा के नेता भी दरगाह जियारत कर लेते हैं। पिछले दिनों भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने तो धर्मनिरपेक्षता के नाते बाकायदा मुस्लिम टोपी पहन कर दिखाई थी। इसे वोटों के गणित से भी जोड़ कर देखा जा सकता है। अलबत्ता संघ से सीधे जुड़े लोग परहेज करते हैं। मोदी भी उनमें से एक हैं, जिन्होंने एक बार टोपी पहनने से इंकार कर देश में एक बड़ी बहस को जन्म दिया है। स्वाभाविक बात है कि वोटों के ध्रुवीकरण की खातिर उन्होंने ऐसा किया। हालांकि बाद में जब बहुत आलोचना हुई तो यह कह कर आरोप से किनारा किया कि वे सभी धर्मों का सम्मान करते हैं, मगर पालन अपने धर्म का करते हैं, टोपी पहन कर नौटंकी नहीं कर सकते।
और ऐसा भी नहीं है कि पूरा मुसलमान कट्टर है। अजमेर के संदर्भ में बात करें तो पुष्कर की विधायक रहीं श्रीमती नसीम अख्तर इंसाफ तीर्थराज पुष्कर सरोवर को पूजा करती रही हैं, ब्रह्मा मंदिर के दर्शन करती रही हैं। भले ही इसे हिंदू वोटों की चाहत माना जाए, मगर धर्मनिरपेक्ष राजनीति ने मुस्लिम को भी कुछ लचीला तो किया ही है। इसके अतिरिक्त भारत में रहने वाले बहुसंख्यक मुसलमान पर हिंदू संस्कृति का असर सूफी मत के रूप में साफ देखा जा सकता है। कट्टर मुस्लिम दरगाह में हाजिरी नहीं देते, जबकि अधिसंख्य मुस्लिम दरगाहों की जियारत करते हैं। इस्लामिक राष्ट्र पाकिस्तान तक के कई मुस्लिम दरगाह जियारत करने आते हैं। सवाल ये उठता है कि मोदी के टोपी न पहनने का समर्थन करने वाले मौलाना मदनी मुस्लिमों को दरगाह जाने से रोक सकते हैं?
-तेजवानी गिरधर