भले ही गैर भाजपाई दल ये कहें कि भाजपा ने चुनाव जीतने के लिए पार्टी की नीतियों से कहीं अधिक व्यक्तिवाद का रुख अख्तियार कर लिया है, मगर सच ये है कि भाजपा ने तो एक आदर्श के रूप में नरेन्द्र मोदी का चेहरा आगे रखा, जिसे मीडिया ने सुनियोजित तरीके से प्रोजेक्ट किया, मगर उसे मोदीमय बनाने का श्रेय गैर भाजपाइयों को ही जाता है। इसमें कोई दोराय नहीं कि भाजपा ने मोदी को प्रोजेक्ट करने के लिए योजनाबद्ध तरीके से काम किया, मगर विरोधियों ने मोदी पर लगातार ताबड़तोड़ हमले कर उन्हें शीर्ष पर ला दिया है। चहुं ओर मोदी ही मोदी सुनाई दे रहा है। संभवत: यह पहला मौका है जबकि देश में राष्ट्रपति शासन प्रणाली की तरह आम चुनाव हो रहा है, जिसमें जनता को व्यक्ति के नाम पर वोट डालना है। पूरा चुनाव व्यक्ति केन्द्रित हो चुका है। देश में हर जगह राजनीतिक रूप से मोदी की ही चर्चा है। मोदी के समर्थक यही कहते हैं की मोदी सत्ता मे आयेंगे और विरोधी दलों का सारा जोर इस बात पर है कि मोदी को कैसे रोका जाए। वे स्वयं सत्ता में आने के प्रयास तो कर नहीं रहे, कर भी नहीं सकते क्योंकि विखंडित हैं, इससे उलट उनकी मंशा भर है कि किसी भी सूरत में मोदी नहीं आने चाहिए। हालत ये हो गई कि अपनी नीतियों व योजनाओं की पर जोर देने की बजाय केवल मोदी की बुराई में जुट गए हैं। और ये एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि आप जिसका जितना विरोध करेंगे, उतना ही वह और उभर कर आएगा।
असल में भाजपा ने लोकसभा चुनाव की शुरुआत मोदी के गुजरात विकास मॉडल के साथ की थी। इसे किसी ने अन्य दल ने गंभीरता से नहीं लिया। इसका परिणाम ये रहा कि मोदी गुजरात मॉडल को स्थापित करने में कामयाब हो गए। यह बात दीगर है कि बहुत देर से ये तथ्य सामने आए कि धरातल पर गुजरात मॉडल कुछ भी नहीं है, मगर तब तक धारणा बनाई जा चुकी थी। कांग्रेस के पास विकास के नाम पर कहने को बहुत कुछ था, मगर महंगाई और भ्रष्टाचार के मुद्दे इतने हावी हो गए कि उसके सामने सारा विकास गौण हो गया। राहुल गांधी ने तो इसे स्वीकार भी किया कि उनका सारा ध्यान काम पर ही रहा, मोदी की तरह चुनाव मैनेजमेंट व प्रोजेक्शन नहीं कर पाए। कुल मिला कर भाजपा आक्रामक मुद्रा में है तो कांग्रेस रक्षात्मक मुद्रा में।
हालांकि यह सच है कि चार साल पहले तक जहां कांग्रेस की सरकार को विफल माना जा रहा था, वहीं भाजपा पर सशक्त विपक्ष की भूमिका न निभा पाने का आरोप था। कांग्रेस के प्रति नाराजगी तक को भुना पाने में वह सफल नहीं हो पा रही थी। इसका लाभ समाजसेवी अन्ना हजारे ने उठाया। उनके आंदोलन को पूरे देश का समर्थन हासिल हुआ। उन्होंने जो जलवा पैदा किया, उसको भुनाने के लिए उन्हीं कि शिष्य अरविंद केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी बना ली। उन्हें दिल्ली विधानसभा चुनाव में फायदा मिला भी, मगर वे कठिनाइयों का सामना करने की बजाय भाग लिए। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि दिल्ली की सरकार को छोड़ कर उनकी नजर देश की सरकार पर जा टिकी। पूरे देश के हिसाब से उनके पास सांगठनिक ढ़ांचा था नहीं, इस कारण दिल्ली जैसा जलजला बन ही नहीं पाया। बस इसी कारण कांग्रेस विरोधी माहौल का पूरा फायदा भाजपा की ओर शिफ्ट होता नजर आ रहा है। उसका गुजरात विकास मॉडल कितना कारगर है, इस पर जरूर बहस की जा सकती है, मगर फिलवक्त वही आखिरी विकल्प नजर आ रहा है। लोग भी सोच रहे हैं कि जो सामने है, उसे आजमाने में हर्ज ही क्या है, कांग्रेस को तो वे परख ही चुके। जैसे ही कांग्रेस व अन्य गैर भाजपा दलों को आभास हुआ कि मोदीमय हुई भाजपा सरकार पर काबिज होने के करीब पहुंचती जा रही है, उन्होंने सीधे मोदी पर ही हमले शुरू कर दिए। कोई उन्हें मौत का सौदागर तो कोई कसाई बता रहा है। कोई हिटलर जैसा तानाशाह करार दे रहा है तो कोई राक्षस की उपमा दे रहा है। इसका नतीजा ये है कि पूरा चुनाव मोदी बनाम गैर मोदी के बीच बंट गया है। एक ओर प्रचंड मोदी लहर है तो दूसरी ओर उसे रोकने के जतन। तभी तो मोदी ने यह कहने का मौका मिल गया कि पहली बार सारे दल सत्तारूढ़ कांग्रेस के खिलाफ एकजुट होने की बजाय विपक्ष में रही भाजपा को रोकने की कोशिश कर रहे हैं। इसका उल्लेख स्वयं मोदी भी करने लगे हैं। यानि कि अपने आप में यह चुनाव अनूठा है। प्रधानमंत्री की कुर्सी नजदीक देख मोदी के भाषणों में भी दंभ आ गया है। वे बाकायदा स्वयं को प्रधानमंत्री मान कर ललकार रहे हैं। इसका उल्लेख सोनिया ने भी किया है कि मोदी अभी से अपने आपको प्रधानमंत्री मान बैठे हैं। इसके जवाब में मोदी यह कह कर मजे ले रहे हैं कि सोनिया गांधी के मुंह में घी-शक्कर।
खैर, चुनाव के आखिरी दिनों में सभी गैर भाजपा दलों का मकसद मोदी को रोकना नजर आ रहा है, मगर दुर्भाग्य से वे एक नहीं हैं। उनके अपने-अपने हित हैं। उनके अपने-अपने वोट बैंक और अपने अपने राज्य हैं। ऐसा विखंडित विपक्ष अगर यह सोचता है कि वह मोदी को रोक पाएगा, तो यह सपना मात्र नजर आता है।
रहा सवाल दूसरी सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस का तो वह जानती थी कि अभी माहौल प्रतिकूल है, इस कारण वह रक्षात्मक मुद्रा में रही। अन्य गैर भाजपाई दल कांग्रेस के साथ अभी इस कारण नहीं आए क्योंकि वे अपने अपने क्षेत्रों में वोट लेते ही गैर कांग्रेस गैर भाजपा के नाम पर हैं। चुनाव बाद जरूर वे मोदी को रोकने के लिए कांग्रेस के साथ आ सकते हैं या फिर कांग्रेस की मदद ले सकते हैं। यदि मोदी को रोकने के लिये सभी गैर भाजपा दल एकजुटता दिखाते तो कदाचित तनिक कामयाबी मिलने की उम्मीद की जा सकती थी, मगर ऐसा हुआ नहीं। इस सिलसिले में आपको याद होगा कि 1977 के लोकसभा चुनाव के लिये जब अनेक दलों ने अपना अस्तित्व मिटा कर, अपने सभी राजनीतिक आग्रह मिटा कर, एक जुट होकर इंदिरा गांधी का मुकाबला किया तो कांग्रेस परास्त हो गई थी। यहां तक कि इंदिरा गांधी खुद भी हार गईं। सत्ता पर काबिज होने के बाद वे यदि इंदिरा गांधी का नाम नहीं रटते तो वे कभी दुबारा सत्ता में नहीं आतीं। आज भी ठीक वैसी ही स्थिति है। गैर भाजपाई मोदी का जितना विरोध कर रहे हैं, उतना ही वे मजबूत होते जा रहे हैं। हालांकि चुनाव परिणाम किसके पक्ष में जाएगा, इस बारे में 16 मई से पहले भविष्यवाणी करना ठीक नहीं, मगर मोटे तौर पर यही माना जा रहा है कि मोदी ही अगले प्रधानमंत्री होंगे। यदि भाजपा अकेले दम पर अच्छी खासी सीटें नहीं ला पाई तो संभव है मोदी की जगह किसी और भाजपा नेता की किस्मत चेत जाए।
चुनाव के आखिरी दिनों में कांग्रेस ने अपनी स्टार प्रचारक प्रियंका गांधी को उतार कर कुछ हद तक अपने आपको संभाला है, मगर अब देर हो चुकी है। हार सामने देख कर कांग्रेसी नेता यह कहने को मजबूर हैं कि मोदी को रोकने के लिए वह गैर भाजपाई दलों के तीसरे मोर्चे की सरकार बनवाने की कोशिश करेगी। हालांकि इस सिलसिले में राहुल गांधी का बयान फिलवक्त काफी महत्वपूर्ण है कि कांग्रेस गठबंधन नहीं करेगी और हारने पर विपक्ष में बैठना पसंद करेगी, मगर समझा जाता है कि यह बयान चुनाव के वक्त कांग्रेसियों का इकबाल बुलंद रखने मात्र के लिए दिया गया है। चुनाव के बाद इस बयान के कोई मायने नहीं रह जाएंगे और उस वक्त कांग्रेस वह सब कुछ करेगी, जिसकी मांग राजनीति करेगी। उसकी यह कोशिश कामयाब होगी या नहीं, इस बारे में अभी कुछ नहीं कहा सकता।
-तेजवानी गिरधर
असल में भाजपा ने लोकसभा चुनाव की शुरुआत मोदी के गुजरात विकास मॉडल के साथ की थी। इसे किसी ने अन्य दल ने गंभीरता से नहीं लिया। इसका परिणाम ये रहा कि मोदी गुजरात मॉडल को स्थापित करने में कामयाब हो गए। यह बात दीगर है कि बहुत देर से ये तथ्य सामने आए कि धरातल पर गुजरात मॉडल कुछ भी नहीं है, मगर तब तक धारणा बनाई जा चुकी थी। कांग्रेस के पास विकास के नाम पर कहने को बहुत कुछ था, मगर महंगाई और भ्रष्टाचार के मुद्दे इतने हावी हो गए कि उसके सामने सारा विकास गौण हो गया। राहुल गांधी ने तो इसे स्वीकार भी किया कि उनका सारा ध्यान काम पर ही रहा, मोदी की तरह चुनाव मैनेजमेंट व प्रोजेक्शन नहीं कर पाए। कुल मिला कर भाजपा आक्रामक मुद्रा में है तो कांग्रेस रक्षात्मक मुद्रा में।
हालांकि यह सच है कि चार साल पहले तक जहां कांग्रेस की सरकार को विफल माना जा रहा था, वहीं भाजपा पर सशक्त विपक्ष की भूमिका न निभा पाने का आरोप था। कांग्रेस के प्रति नाराजगी तक को भुना पाने में वह सफल नहीं हो पा रही थी। इसका लाभ समाजसेवी अन्ना हजारे ने उठाया। उनके आंदोलन को पूरे देश का समर्थन हासिल हुआ। उन्होंने जो जलवा पैदा किया, उसको भुनाने के लिए उन्हीं कि शिष्य अरविंद केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी बना ली। उन्हें दिल्ली विधानसभा चुनाव में फायदा मिला भी, मगर वे कठिनाइयों का सामना करने की बजाय भाग लिए। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि दिल्ली की सरकार को छोड़ कर उनकी नजर देश की सरकार पर जा टिकी। पूरे देश के हिसाब से उनके पास सांगठनिक ढ़ांचा था नहीं, इस कारण दिल्ली जैसा जलजला बन ही नहीं पाया। बस इसी कारण कांग्रेस विरोधी माहौल का पूरा फायदा भाजपा की ओर शिफ्ट होता नजर आ रहा है। उसका गुजरात विकास मॉडल कितना कारगर है, इस पर जरूर बहस की जा सकती है, मगर फिलवक्त वही आखिरी विकल्प नजर आ रहा है। लोग भी सोच रहे हैं कि जो सामने है, उसे आजमाने में हर्ज ही क्या है, कांग्रेस को तो वे परख ही चुके। जैसे ही कांग्रेस व अन्य गैर भाजपा दलों को आभास हुआ कि मोदीमय हुई भाजपा सरकार पर काबिज होने के करीब पहुंचती जा रही है, उन्होंने सीधे मोदी पर ही हमले शुरू कर दिए। कोई उन्हें मौत का सौदागर तो कोई कसाई बता रहा है। कोई हिटलर जैसा तानाशाह करार दे रहा है तो कोई राक्षस की उपमा दे रहा है। इसका नतीजा ये है कि पूरा चुनाव मोदी बनाम गैर मोदी के बीच बंट गया है। एक ओर प्रचंड मोदी लहर है तो दूसरी ओर उसे रोकने के जतन। तभी तो मोदी ने यह कहने का मौका मिल गया कि पहली बार सारे दल सत्तारूढ़ कांग्रेस के खिलाफ एकजुट होने की बजाय विपक्ष में रही भाजपा को रोकने की कोशिश कर रहे हैं। इसका उल्लेख स्वयं मोदी भी करने लगे हैं। यानि कि अपने आप में यह चुनाव अनूठा है। प्रधानमंत्री की कुर्सी नजदीक देख मोदी के भाषणों में भी दंभ आ गया है। वे बाकायदा स्वयं को प्रधानमंत्री मान कर ललकार रहे हैं। इसका उल्लेख सोनिया ने भी किया है कि मोदी अभी से अपने आपको प्रधानमंत्री मान बैठे हैं। इसके जवाब में मोदी यह कह कर मजे ले रहे हैं कि सोनिया गांधी के मुंह में घी-शक्कर।
खैर, चुनाव के आखिरी दिनों में सभी गैर भाजपा दलों का मकसद मोदी को रोकना नजर आ रहा है, मगर दुर्भाग्य से वे एक नहीं हैं। उनके अपने-अपने हित हैं। उनके अपने-अपने वोट बैंक और अपने अपने राज्य हैं। ऐसा विखंडित विपक्ष अगर यह सोचता है कि वह मोदी को रोक पाएगा, तो यह सपना मात्र नजर आता है।
रहा सवाल दूसरी सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस का तो वह जानती थी कि अभी माहौल प्रतिकूल है, इस कारण वह रक्षात्मक मुद्रा में रही। अन्य गैर भाजपाई दल कांग्रेस के साथ अभी इस कारण नहीं आए क्योंकि वे अपने अपने क्षेत्रों में वोट लेते ही गैर कांग्रेस गैर भाजपा के नाम पर हैं। चुनाव बाद जरूर वे मोदी को रोकने के लिए कांग्रेस के साथ आ सकते हैं या फिर कांग्रेस की मदद ले सकते हैं। यदि मोदी को रोकने के लिये सभी गैर भाजपा दल एकजुटता दिखाते तो कदाचित तनिक कामयाबी मिलने की उम्मीद की जा सकती थी, मगर ऐसा हुआ नहीं। इस सिलसिले में आपको याद होगा कि 1977 के लोकसभा चुनाव के लिये जब अनेक दलों ने अपना अस्तित्व मिटा कर, अपने सभी राजनीतिक आग्रह मिटा कर, एक जुट होकर इंदिरा गांधी का मुकाबला किया तो कांग्रेस परास्त हो गई थी। यहां तक कि इंदिरा गांधी खुद भी हार गईं। सत्ता पर काबिज होने के बाद वे यदि इंदिरा गांधी का नाम नहीं रटते तो वे कभी दुबारा सत्ता में नहीं आतीं। आज भी ठीक वैसी ही स्थिति है। गैर भाजपाई मोदी का जितना विरोध कर रहे हैं, उतना ही वे मजबूत होते जा रहे हैं। हालांकि चुनाव परिणाम किसके पक्ष में जाएगा, इस बारे में 16 मई से पहले भविष्यवाणी करना ठीक नहीं, मगर मोटे तौर पर यही माना जा रहा है कि मोदी ही अगले प्रधानमंत्री होंगे। यदि भाजपा अकेले दम पर अच्छी खासी सीटें नहीं ला पाई तो संभव है मोदी की जगह किसी और भाजपा नेता की किस्मत चेत जाए।
चुनाव के आखिरी दिनों में कांग्रेस ने अपनी स्टार प्रचारक प्रियंका गांधी को उतार कर कुछ हद तक अपने आपको संभाला है, मगर अब देर हो चुकी है। हार सामने देख कर कांग्रेसी नेता यह कहने को मजबूर हैं कि मोदी को रोकने के लिए वह गैर भाजपाई दलों के तीसरे मोर्चे की सरकार बनवाने की कोशिश करेगी। हालांकि इस सिलसिले में राहुल गांधी का बयान फिलवक्त काफी महत्वपूर्ण है कि कांग्रेस गठबंधन नहीं करेगी और हारने पर विपक्ष में बैठना पसंद करेगी, मगर समझा जाता है कि यह बयान चुनाव के वक्त कांग्रेसियों का इकबाल बुलंद रखने मात्र के लिए दिया गया है। चुनाव के बाद इस बयान के कोई मायने नहीं रह जाएंगे और उस वक्त कांग्रेस वह सब कुछ करेगी, जिसकी मांग राजनीति करेगी। उसकी यह कोशिश कामयाब होगी या नहीं, इस बारे में अभी कुछ नहीं कहा सकता।
-तेजवानी गिरधर
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