तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

बुधवार, फ़रवरी 06, 2013

मोदी के नाम पर भाजपा में उहापोह क्यों?


जब से गुजरात चुनाव का प्रचार अभियान शुरू हुआ और उसमें नरेन्द्र मोदी ने हैट्रिक लगाई, एक जुमला सबकी जुबान पर है कि आगामी चुनावी राहुल बनाम मोदी होगा। यहां तक कि विदेशी पत्रिकाओं का भी यही आकलन है कि टक्कर तो इन दोनों के बीच ही होगी। यह आकलन एक अर्थ में तो ठीक था कि मोदी ही अकेले ऐसे नेता के रूप में उभरे हैं, जो कि भाजपा में सबसे ज्यादा चमकदार व आकर्षक हैं, बाकी सारे नेता उनके आगे फीके हैं। यहां तक कि सुषमा स्वराज व अरुण जेटली भी उनके आगे कहीं नहीं ठहरते। वे हैं भले ही दमदार वक्ता और बेदाग, मगर उनके पास मोदी जैसा जनाधार नहीं है। मगर सवाल ये उठता है कि गुजरात के शेर मोदी राष्ट्रीय स्तर पर भी वैसी ही भूमिका अदा कर पाएंगे, जैसी कि उन्होंने गुजरात में बना कर दिखाई है? कहने को भले ही वे विकास के नाम पर जीते हैं, मगर उनकी जीत में हिंदूवाद की भूमिका ही अहम मानी जाती है, ऐसे में क्या राष्ट्रीय स्तर पर धर्म निरपेक्ष दल उन्हें स्वीकार कर पाएंगे? क्या भाजपा मोदी के कारण बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार सहित अन्य के एनडीए का साथ छोडऩे से होने वाले नुकसान को बर्दाश्त करने को तैयार होगी? क्या मोदी के नाम पर हिंदूवादी शिव सेना की इतर राय को नजरअंदाज कर दिया जाए? अव्वल तो क्या भाजपा के और नेता भी उन्हें आगे आने देने को तैयार होंगे? ये ऐसे सवाल हैं जो यह तय करेंगे कि आने वाले लोकसभा चुनाव की तस्वीर कैसी होगी।
दरअसल अधिसंख्य भाजपा कार्यकर्ताओं के लिए मोदी एक सर्वाधिक चमकदार आईकन हैं। हिंदूवादी ताकतों की भी इच्छा है कि मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए प्रोजेक्ट करने का इससे बेहतर मौका फिर नहीं मिलेगा। पूर्व में इंडिया शाइनिंग का सर्वाधिक महत्वाकांक्षी नारा धूल चाट चुका है। इसके बाद मजबूत प्रधानमंत्री के रूप में लाल कृष्ण आडवाणी को प्रोजेक्ट किया गया, मगर उनकी भी कलई खुल गई। यह सवाल तब भी उठा था कि भाजपा क्या करे? खुल कर हिंदूवाद पर कायम रहे या धर्मनिपेक्षता के आवरण में हिंदूवाद का पोषण करे? तकरीबन तीन साल बाद आज फिर यह सवाल उठ खड़ा हुआ है। संयोग से इस बार मोदी जैसा नेता उभर कर आया है, जिसकी पूंछ पकड़ कर वैतरणी पार करने का दबाव संघ व विहिप बना रहे हैं। उनका मानना है कि अब आखिरी विकल्प के रूप में प्रखर हिंदूवाद के चेहरे मोदी सर्वाधिक कारगर साबित होंगे, जिनका सितारा इन दिनों बुलंद है। उनके चेहरे के दम पर भाजपा कार्यकर्ता में जोश आएगा और कम से कम हिंदीभाषी राज्यों में अकेले भाजपा की सीटों में इजाफा होगा। अगर आंकड़ा दो सौ सीटों को भी पार कर गया तो बाद में समान व अर्ध समान विचारधारा के अन्य दल कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने के लिए मजबूरन उनका साथ देंगे। एक तर्क ये भी है कि मोदी की वजह से भले ही एनडीए में टूटन आए अथवा गैर हिंदीभाषी राज्यों में सीटें कम हो, मगर इस नुकसान की भरपाई मोदी के नाम पर हिंदीभाषी राज्यों में मिली बढ़त से कर ली जाएगी। भाजपा हाईकमान भी इसी दिशा में सोच रहा है, मगर वह यह सुनिश्चित नहीं कर पा रहा है, क्या यह प्रयोग कारगर होगा ही? कहीं ऐसा न हो कि भाजपा की सीटें तो कुछ बढ़ जाएं, मगर एनडीए कमजोर हो जाए और सत्ता हासिल करने का सपना फिर धूमिल हो जाए। दूर की सोच रखने वाले कुछ कट्टरवादी हिंदुओं की सोच है कि सत्ता भले ही हासिल न हो, मगर कम से कम भाजपा की अपनी सीटें भी बढ़ीं तो हिंदूवादी विचार पुष्ट होगा, जिसे बाद में और आगे बढ़ाने का प्रयास किया जा सकता है। कई तरह के किंतु-परंतु के चलते भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ को यह फरमान जारी करना पड़ा के प्रधानमंत्री के दावेदार के मामले में बयानबाजी न करें। वे जानते हैं कि इस मुद्दे पर ज्यादा बहस हुई तो पार्टी की दिशा भटक जाएगी। आज जब कि कांग्रेस भ्रष्टाचार व महंगाई के कारण नकारे जाने की स्थिति में आ गई है तो इन्हीं मुद्दों व विकास के नाम पर वोट हासिल किए जा सकते हैं। अगर मोदी के चक्कर में हिंदूवाद बनाम धर्मनिरपेक्षवाद का मुद्दा हावी हो गया तो उसमें कांग्रेस की नाकामी गौण हो जाएगी। कदाचित राजनाथ को भी ये समझ में आता हो कि मोदी को ही आगे करना बेहतर होगा, मगर अभी से इस पर ज्यादा आरोप-प्रत्यारोप हुए तो कहीं मोदी का कचरा ही न हो जाए। उनकी उहापोह इसी से झलकती है कि एक ओर वे कुंभ में हाजिरी भर कर हिंदूवाद का सहारा लेते हैं तो दूसरी ओर हिंदूवाद के नाम पर स्वाभाविक रूप से उभर कर आए मोदी पर बयानबाजी से बचना चाहते हैं।
उधर अगर कांग्रेस की बात करें, तो वह चाहती ही ये है कि मोदी का मुद्दा गरमाया रहे, ताकि उनका भ्रष्टाचार व महंगाई का मुद्दा गायब हो जाए और देश में एक बार फिर हिंदूवाद व धर्मनिरपेक्षता के बीच धु्रवीकरण हो। दिलचस्प बात है कि हिंदूवादी ताकतें अपनी ओर से ही मोदी को सिर पर बैठा कर कांग्रेस का काम आसान कर रही हैं। कांग्रेस भी अपनी ओर से इस मुद्दे को हवा दे रही है। चंद दिग्गज कांग्रेसियों ने आरएसएस व भाजपा पर भगवा आतंकवाद के आरोप इसी कारण लगाए, ताकि वे इसी में उलझी रहें। इसका यह अर्थ भी निकाला जा सकता है कि कांग्रेस को इस बात की कोई चिंता नहीं है कि आगामी चुनाव राहुल बनाम मोदी हो जाएगा।
कुल मिला कर मोदी को लेकर दो तरह की राय सामने आ रही है। एक तो ये कि नरेंद्र मोदी ने गुजरात में हैट्रिक लगा कर राष्ट्रीय राजनीति में मजबूती के साथ कदम रख दिया है। दूसरी से कि मोदी की स्वीकार्यता भाजपा तक ही हो सकती है, सहयोगी दलों की पसंद वे कत्तई न हो सकते। ऐसे में मोदी को भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रायोजित करना भाजपा की एक बड़ी भूल साबित हो सकती है। अगर भाजपा ने अपने कार्यकर्ताओं की जिद मान ली तो उसे मुंह की खानी पड़ सकती है। भाजपा इन दो तरह की मान्यताओं के बीच झूल रही हैं। आगे आगे देखें होता है क्या?
-तेजवानी गिरधर7742067000
tejwanig@gmail.com

रविवार, फ़रवरी 03, 2013

क्या राजनाथ दिलवा पाएंगे भाजपा को राज?

हालांकि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ नितिन गडकरी को ही भाजपा अध्यक्ष बनाए रखना चाहता था। भाजपा ने भी लगातार दूसरा कार्यकाल देने के लिए संशोधन किया, मगर ऐन वक्त पर हालात बदले और गडकरी को इस्तीफा देना पड़ गया। ऐसे में पार्टी को मिशन 2014 में फतह की दिलाने की जिम्मेदारी राजनाथ सिंह पर आ गई। हालांकि अनेक कारणों से कई लोग ये मानते हैं कि नितिन गडकरी के रहते पार्टी के अंदर उथल-पुथल जारी रहती, इस कारण राजनाथ उनसे बेहतर अध्यक्ष साबित हो सकते हैं, मगर सच ये है कि जिन हालात में उन पर पार्टी का भार डाला गया है, उसे देखते हुए तो यही कहा जा सकता है कि उन्होंने कांटों भरा ताज पहन लिया है।
जैसे ही राजनाथ ने पदभार संभाला है, उनके नेतृत्व कौशल, उनके इतिहास और भविष्य के बारे में अपनाई जाने वाली रणनीतियों को लेकर चर्चा शुरू हो चुकी है कि उन्हें बीजेपी अध्यक्ष बनाया जाना किस हद तक एक सही फैसला साबित हो सकता है? जहां तक उनके नेतृत्व कौशल का सवाल है, माना ये जाता है कि वे सब को साथ ले कर चलने में बेहतर साबित होंगे। संघ के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के झंडाबरदार होने के कारण उन्हें संघ का समर्थन हासिल है और पार्टी के अंदर उन्हें ज्यादा तंग नहीं होना पड़ेगा, इस कारण बाहरी मामलों पर बेहतर ध्यान दे पाएंगे, मगर सच ये है कि पार्टी के भीतर भी उनकी कई से नाइत्तफाकी रही है। बाहर की चुनौतियां तो और भी अधिक हैं, जिनसे निपटना आसान काम नहीं है।
राजनाथ के पक्ष में एक दलील ये भी दी जाती है कि उन्हें पूर्व में अध्यक्ष रह चुकने के कारण बेहतर अनुभव है, वे पिछले कार्यकाल को एक सबक के रूप में लेते हुए गलतियां नहीं दोहराएंगे, मगर धरातल का सच ये है कि पिछले कार्यकाल के दौरान उनके जिनसे भी मतभेद हुए, उन्हें विश्वास में लेना आसान नहीं होगा। उन्होंने अपने पिछले कार्यकाल में एनडीए गठबंधन के सहयोगियों सहित पार्टी के कुछ महत्वपूर्ण लोगों को नाराज किया। लालकृष्ण आडवाणी और अरुण जेटली से मतभेद की खबरें तो उन दिनों आम हुआ करती थीं। अरुण शौरी का हम्टी डम्टी वाला बयान आज भी लोग नहीं भूले हैं। राजस्थान की क्षत्रप पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे से भी उनका टकराव हुआ। उनकी जिद के चलते वसुंधरा को नेता प्रतिपक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा। टकराव किस हद तक गया, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि एकबारगी वसुंधरा के दूसरी पार्टी बनाने की सुगबुगाहट तक होने लगी थी। आखिरकार एक साल बाद वसुंधरा को फिर से पद संभालने का अनुनय-विनय करना पड़ा। हालांकि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ हुई उनकी ताजा बैठक को इस रूप में लिया जा रहा है कि उनके बीच सुलह हो गई है, मगर दोनों के रिश्तों की उस खटास को कैसे भूला जा सकता है, जब राजनाथ ने मोदी को संसदीय बोर्ड से हटा दिया था।
जहां तक चुनौतियों का सवाल है, गडकरी के कार्यकाल के दौरान पार्टी की जो हालत हुई है, उसे सुधरना कोई छोटी-मोटी जिम्मेदारी नहीं है। आइये जरा नजर डाल लें कि राजनाथ को विरासत में कैसे हालत मिले हैं। महाराष्ट्र से होने के बाद भी गडकरी वहां के विधानसभा चुनावों में पार्टी को हार से नहीं बचा सके। बेशक बिहार में पार्टी का अच्छी सफलता मिली, मगर उसका श्रेय नीतीश कुमार और सुशील मोदी को जाता है। वहीं नीतीश आज भाजपा के लिए सिरदर्द बने हुए हैं। गोवा और पंजाब को छोड़ दें तो उसके बाद हुए कई विधानसभा चुनावों में पार्टी की दुर्गति हुई। असम में पार्टी की सरकार बनने का दावा था, लेकिन उसकी सीटें मात्र छह रह गईं। उत्तर प्रदेश में भी पिछली बार की अपेक्षा सीटें कम आईं। उत्तराखंड व हिमाचल प्रदेश में तो तख्ता ही पलट गया। हिमाचल के चुनावों के दौरान गडकरी के उद्योग समूह की गड़बडिय़ां उजागर होने पर वहां प्रांतीय इकाई को गडकरी को प्रचार के लिए न आने का आग्रह करना पड़ा। झारखंड में भी भाजपानीत सरकार चली गयी। कर्नाटक में भाजपा सरकार की कैसी हालत है, ये किसी से छिपी हुई नहीं है। वहां दुबारा सत्ता में आना बेहद मुश्किल नजर आता है। विभिन्न राज्यों में संगठन की स्थिति भी अच्छी नहीं है। हां, जसवंत सिंह, कल्याण सिंह व उमा भारती की वापसी सुखद कही जा सकती है, मगर उसका पार्टी को कितना लाभ मिलेगा, यह वक्त ही बताएगा।
पार्टी से इतर बात करें तो राजग के सदस्य दलों को साथ लेकर चलना भी बेहद कठिन है। खुद उनके कार्यकाल में ही सहयोगी दलों से तालमेल बिगडऩे लगा था। ताजा हालात में उनके लिए यह चुनौती कितनी बड़ी है कि एक ओर पार्टी का आम कार्यकर्ता मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित होने का दबाव बना रहा है तो नीतीश कुमार मोदी नाम आते ही गठबंधन से अलग होने की बात करते हैं। शिव सेना ने भी अपनी पहली पसंद सुषमा स्वराज को बता दिया है।
इन सब हालातों को देखते कहा जा सकता है राजनाथ के लिए अध्यक्ष पद कांटों भरा ताज है। इस वर्ष पार्टी को नौ राज्यों में विधानसभा चुनावों से निपटने के बाद अगले साल लोकसभा की महती जिम्मेदारी है। 
-तेजवानी गिरधर

शनिवार, फ़रवरी 02, 2013

वसुंधरा राजे का कोई विकल्प था भी नहीं


अपने आपको सर्वाधिक अनुशासित बता कर पार्टी विद द डिफ्रेंस का नारा बुलंद करने और व्यक्ति से बड़ी पार्टी होने का दावा करने वाली भाजपा का शीर्ष नेतृत्व आखिरकार पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे के आगे नतमस्तक हो गया। उन्हें न केवल राजस्थान में पार्टी की कमान सौंपी गई है, अपितु आगामी विधानसभा चुनाव उन्हीं के नेतृत्व में लड़ा जाएगा। आगामी विधानसभा चुनाव में जीतने के लिए पार्टी के पास इसके अलावा कोई विकल्प था भी नहीं। भले ही समझौते तहत संघ लॉबी के गुलाब चंद कटारिया को विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बनाया गया है, मगर जीतने के लिए पार्टी को वसुंधरा के चेहरे का ही इस्तेमाल करना पड़ रहा है। उनकी नियुक्ति के साथ पिछले कई दिन से उहापोह में जी रहे पार्टी कार्यकर्ता, नेता व विधानसभा चुनाव में टिकट के दावेदारों ने राहत की सांस ली है और उनके चेहरे पर खुशी छलक आई है। पार्टी की अंदरूनी कलह की वजह से मायूस हो चुके कार्यकर्ता में उत्साह का संचार हुआ है। समझा जाता है कि अब पार्टी पूरी ताकत से चुनाव मैदान में ताल ठोकेगी और उसका प्रदर्शन बेहतर होगा।
ज्ञातव्य है कि राजस्थान में पार्टी दो धड़ों में बंटी हुई है। एक बड़ा धड़ा वसुंधरा के साथ है, जिनमें कि अधिसंख्य विधायक हैं तो दूसरा धड़ा संघ पृष्ठभूमि का है, जिसमें प्रमुख रूप से प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी, पूर्व मंत्री ललित किशोर चतुर्वेदी, गुलाब चंद कटारिया आदि शामिल हैं। आपको याद होगा कि जब पूर्व प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने घोषणा की कि राजस्थान में अगला चुनाव वसुंधरा के नेतृत्व में लड़ा जाएगा तो ललित किशोर चतुर्वेदी व गुलाब चंद कटारिया ने उसे सिरे से नकार दिया। प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी भी इस बात से नाइत्तफाकी जाहिर करते रहे। इसके बाद जब कटारिया ने मेवाड़ में रथ यात्रा निकालने ऐलान किया तो वसुंधरा ने इसे चुनौती समझते हुए विधायक किरण माहेश्वरी के जरिए रोड़ा अटकाया। नतीजे में विवाद इतना बढ़ा कि वसुंधरा ने विधायकों के इस्तीफे एकत्रित कर हाईकमान पर भारी दबाव बनाया। हालांकि नई घोषणा से पहले तक संघ लॉबी ने पूरा दबाव बना रखा था, मगर आखिरकार कटारिया को नेता प्रतिपक्ष बनाने की एवज में वसुंधरा का नेतृत्व स्वीकार करना ही पड़ा। हालांकि यह तय है कि टिकट वितरण में वसुंधरा को पूरा फ्रीहैंड तो नहीं मिलेगा और संघ लॉबी तय समझौते के तहत अपने कोटे के टिकट हासिल कर लेगी, मगर पार्टी के जीतने पर मुख्यमंत्री तो वसुंधरा ही बनेंगी।
असल में नितिन गडकरी के अध्यक्षीय काल में ही तय था कि राजस्थान में वसुंधरा के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ा जाएगा, मगर राजनाथ सिंह के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने से समीकरणों में कुछ बदलाव आया। बदलाव सिर्फ इतना कि संघ लॉबी कुछ हावी हो गई। और यही वजह रही कि आखिरी वक्त तक खींचतान मची रही। संघ लॉबी अपने गुट के कटारिया को नेता प्रतिपक्ष  बनाने पर ही राजी हुई। वजह ये कि राजनाथ सिंह व वसुंधरा राजे के संबंध कुछ खास अच्छे नहीं रहे। पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी की पराजय होने की जिम्मेदारी लेते हुए तत्कालीन प्रदेश भाजपा अध्यक्ष ओम प्रकाश माथुर ने तो इस्तीफा दे दिया, लेकिन नेता प्रतिपक्ष पद से इस्तीफे की बात आई तो वसुंधरा ने इससे इंकार कर दिया था। तब राजनाथ सिंह राष्ट्रीय अध्यक्ष थे और उन्होंने कड़ा रुख अख्तियार कर लिया था। आखिरकार वसुंधरा को पद छोडऩा पड़ा था। यह बात दीगर है कि उसके बाद तकरीबन एक साल तक यह पद खाली पड़ा रहा और उसे फिर से वसुंधरा को ही सौंपना पड़ा। आखिर तक भी वसुंधरा का अपर हैंड ही रहा और जीतने के लिए सिंह के लिए यह मजबूरी हो गई कि उन्हें वसुंधरा को ही कमान सौंपनी पड़ी।
राजस्थान में वसुंधरा राजे पार्टी से कितनी बड़ी हैं और उनका कोई विकल्प ही नहीं है, इसका अंदाजा इसी बात से हो जाता है कि हाईकमान को पूर्व में भी उन्हें विधानसभा में विपक्ष के नेता पद से हटाने में एडी चोटी का जोर लगाना पड़ गया था। सच तो ये है कि उन्होंने पद छोडऩे से यह कह कर साफ इंकार कर था दिया कि जब सारे विधायक उनके साथ हैं तो उन्हें कैसे हटाया जा सकता है। हालात यहां तक आ गए थे कि उनके नई पार्टी का गठन तक की चर्चाएं होने लगीं थीं। बाद में बमुश्किल पद छोड़ा भी तो ऐसा कि उस पर करीब साल भर तक किसी को नहीं बैठाने दिया। आखिर पार्टी को मजबूर हो कर दुबारा उन्हें पद संभालने को कहना पड़ा, पर वे साफ मुकर गईं। हालांकि बाद में वे मान गईं, मगर आखिर तक यही कहती रहीं कि यदि विपक्ष का नेता बनाना ही था तो फिर हटाया क्यों? असल में उन्हें फिर बनाने की नौबत इसलिए आई कि अंकुश लगाने के जिन अरुण चतुर्वेदी को प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बनाया गया, वे ही फिसड्डी साबित हो गए। पार्टी का एक बड़ा धड़ा अनुशासन की परवाह किए बिना वसुंधरा खेमे में ही बना रहा। वस्तुत: राजस्थान में वसु मैडम की पार्टी विधायकों पर इतनी गहरी पकड़ है कि वे न केवल संगठन के समानांतर खड़ी हैं, अपितु संगठन पर पूरी तरह से हावी हो गई हैं। उसी के दम पर राज्यसभा चुनाव में दौरान वे पार्टी की राह से अलग चलने वाले राम जेठमलानी को न केवल पार्टी का अधिकृत प्रत्याशी बनवा लाईं, अपितु अपनी कूटनीतिक चालों से उन्हें जितवा भी दिया। जेठमलानी को जितवा कर लाने से ही साफ हो गया था कि प्रदेश में दिखाने भर को अरुण चतुर्वेदी के पास पार्टी की फं्रैचाइजी है, मगर असली मालिक श्रीमती वसुंधरा ही हैं। कुल मिला कर ताजा घटनाक्रम से तो यह पूरी तरह से स्थापित हो गया है के वे प्रदेश भाजपा में ऐसी क्षत्रप बन कर स्थापित हो चुकी हैं, जिसका पार्टी हाईकमान के पास कोई तोड़ नहीं है। उनकी टक्कर का एक भी ग्लेमरस नेता पार्टी में नहीं है, जो जननेता कहलाने योग्य हो। अब यह भी स्पष्ट हो गया है कि आगामी विधानसभा चुनाव में केवल वे ही पार्टी की नैया पार कर सकती हैं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

गुरुवार, जनवरी 24, 2013

मोदी की राष्ट्रीय छवि बनना कत्तई नामुमकिन


यद्यपि नरेंद्र मोदी ने अपने बलबूते पर गुजरात में भाजपा की हैट्रिक बनाने का कीर्तिमान स्थापित कर अपना कद बढ़ा लिया है, मगर इसे उनकी राष्ट्रीय छवि कायम हो जाने का अर्थ निकालना एक अर्धसत्य है। भले ही गुजरात में मुस्लिम बहुल इलाकों में भाजपा की जीत होने को इस अर्थ में भुनाने की कोशिश की जा रही हो कि मुस्लिमों में भी उनकी स्वीकार्यता बढ़ी है, मगर धरातल का सच ये है कि गुजरात में उनके मुख्यमंत्रित्व काल में हुआ नरसंहार उनका कभी पीछा नहीं छोड़ेगा।
असल में भाजपा इन दिनों नेतृत्व के संकट से गुजर रही है। उसमें प्रधानमंत्री पद के एकाधिक दावेदार हैं। भाजपा कार्यकर्ताओं को उनमें से सर्वाधिक दमदार चेहरा मोदी का ही नजर आता है, जो कि है भी। एक तो वे तगड़े जनाधार वाले नेता हैं, दूसरा अपनी बात को दमदार तरीके से कहने का उनमें माद्दा है। उनमें झलकती अटल बिहारी वाजपेयी जैसी भाषा शैली श्रोताओं को सहज ही आकर्षित करती है। इसके अतिरिक्त विकास पुरुष के रूप में उनका सफल प्रोजेक्शन यह संकेत देता है कि वे देश के लिए भी रोल मॉडल हो सकते हैं। इन सभी कारणों के चलते पूरे हिंदीभाषी राज्यों के कार्यकर्ताओं में वे एक सर्वाधिक सशक्त रूप में उभर कर आए हैं। आज भाजपा का छोटा से छोटा कार्यकर्ता भी उनमें प्रधानमंत्री होने का सपना साकार होते हुए देख रहा है। इसी कड़ी में मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में मौजूद विभिन्न पार्टियों के दिग्गज नेताओं को देख कर मीडिया को भी लगा कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जेडीयू को छोड का पूरा एनडीए मोदी के साथ है और उसे मोदी के भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद की दावेदारी किए जाने पर ऐतराज नहीं करेगा। मगर धरातल का सच कुछ और है। एक तो प्रधानमंत्री पद के अन्य दावेदार उन्हें आगे नहीं आने देंगे। दूसरा बात जब एनडीए तक आएगी, तब नीतीश कुमार तो अलग होंगे ही अन्य दलों को भी असहजता हो सकती है। शपथ ग्रहण समारोह में औपचरिक रूप से उपस्थित होने और खुल कर समर्थन करने में काफी अंतर है। उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की बात करें तो वे कहने भर को मोदी के विरोध में नहीं हैं, मगर मोदी के साथ खड़े होने से पहले नफा-नुकसान आकलन कर लेना चाहेंगे। इसी प्रकार यूपीए अलग हुई बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी मुस्लिम वोटों के जनाधार को खोने का जोखिम  नहीं उठा सकतीं। ऐसे में यह कल्पना एक आधा सच ही है कि मोदी गुजरात की तरह राष्ट्रीय स्तर पर भी स्वीकार्य होंगे।
इस बीच चर्चा ये है कि गुजरात में जिस मंत्र की बदोलत वे जीते हैं, उसे आजमाने के लिए मोदी को इलेक्शन कैंपेन कमेटी का प्रभारी नियुक्त किया जा सकता है, मगर इसे प्रधानमंत्री पद का दावेदार होने के रूप में लेना एक भ्रम मात्र है।
बेशक मोदी का पक्ष लेने वाले लोगों का कहना है कि गुजरात की सत्ता में हैट्रिक लगाना अपने आप में ही किसी करिश्मे से कम नहीं है, मोदी ने ऐसा करके राष्ट्रीय राजनीति में मजबूती के साथ कदम रख दिया है और भाजपा की द्वितीय पीढ़ी में मोदी ही ऐसे एकमात्र नेता हैं जिनमें अपनी पार्टी के अलावा गठबंधन के सहयोगी दलों को भी नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता है, मगर इस सच को भी इंकार नहीं किया जा सकता कि मोदी की स्वीकार्यता अलबत्ता भाजपा तक ही हो सकती है लेकिन सहयोगी दलों में उनके खिलाफ काफी रोष का माहौल है। गुजरात दंगों के दाग से मोदी का मुक्त होना नितांत असंभव है और उन पर सांप्रदायिकता के आरोप पुख्ता तौर पर लगाए जा सकते हैं।
लब्बोलुआब मोदी भाजपा में भले ही दमदार ढंग़ से उभर आए हों, मगर भावी प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के नाम को स्वीकार किया जाना बेहद मुश्किल होगा।
राहुल बनाम मोदी में कितना सच?
मोदी की गुजरात में जीत से पहले ही यह जुमला आम हो गया था कि आगामी लोकसभा चुनाव इन दोनों के बीच होगा। यहां तक कि विदेशी पत्रिकाओं का भी यही आकलन है कि टक्कर तो इन दोनों के बीच ही होगी। इस सिलसिले में दोनों की विभिन्न पहलुओं से तुलना करन से कदाचित कुछ निष्कर्ष निकल कर आए।
जहां तक राहुल का सवाल है उपाध्यक्ष घोषित किए जाने के बाद वे जो चाहेंगे कांग्रेस में वही होगा। उन्हें पार्टी में कोई चुनौती देने वाला नहीं है। इसके विपरीत मोदी से यह उम्मीद करना कि जो वे चाहेंगे वहीं होगा, बेमानी होगा। पार्टी के कई नेता ही उनके पक्ष में नहीं हैं। इसके अतिरिक्त राहुल अपनी युवा टीम के सहयोग से जहां युवा मतदाताओं को आकर्षित कर सकते हैं, वहीं मोदी का कट्टरवादी चेहरा हिंदूवादी वोटों को आसानी से अपनी ओर खींच सकता है। एक ओर जहां यूपीए में राहुल की स्वीकार्यता को लेकर कोई दिक्कत नहीं नजर आती, वहीं मोदी के मामले में एनडीए के घटक आपत्ति कर सकते हैं। इसी प्रकार धरातल पर जहां राहुल के साथ गांधी-नेहरू खानदान का वर्षों पुराना जनाधार है, वहीं चाहे विकास के नाम से चाहे हिंदुत्व के नाम से, एक बड़ा वर्ग उनके साथ है। व्यक्तित्व की बात करे तो राहुल मोदी के सामने काफी फीके पड़ते हैं। राहुल न तो राष्ट्रीय मुद्दों पर खुल कर बोलते हैं और न ही कुशल वक्ता, जबकि मोदी आक्रामक तेवर वाले नेता हैं। शब्दों के चयन से लेकर वेशभूषा और बोलने के स्टाइल से ही वह खुद को दबंग नेता के रूप में साबित कर चुके हैं। ऐसे में देखने वाली बात ये होगी कि क्या भाजपा कांग्रेस की ओर घोषित प्रधानमंत्री पद के दावेदार राहुल के सामने मोदी को दंगल में उतारती है या नहीं?
-तेजवानी गिरधर

बुधवार, जनवरी 23, 2013

राजनाथ की ताजपोशी से वसुंधरा की मुश्किल बढ़ी


हालांकि यह लगभग तय है कि राजस्थान में भाजपा पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे को आगे रख कर ही चुनाव लडऩे को मजबूर है, मगर पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर राजनाथ सिंह के काबिज होने के बाद समीकरणों में कुछ बदलाव आया है। लगता यही है कि वसुंधरा को संघ के साथ समझौते में जिनती आसानी नितिन गडकरी के रहते होती, उतनी राजनाथ सिंह के रहते नहीं होगी। यानि कि संघ लॉबी अब बंटवारे में पहले से कहीं अधिक सीटें हासिल कर सकती है।
वस्तुत: राजनाथ सिंह व वसुंधरा राजे के संबंध कुछ खास अच्छे नहीं रहे हैं। आपको याद होगा कि पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी की पराजय होने की जिम्मेदारी लेते हुए तत्कालीन प्रदेश भाजपा अध्यक्ष ओम प्रकाश माथुर ने तो इस्तीफा दे दिया, लेकिन नेता प्रतिपक्ष पद से इस्तीफे की बात आई तो वसुंधरा ने इससे इंकार कर दिया था। तब राजनाथ सिंह राष्ट्रीय अध्यक्ष थे और उन्होंने कड़ा रुख अख्तियार कर लिया था। आखिरकार वसुंधरा को पद छोडऩा पड़ा था। यह बात दीगर है कि उसके बाद तकरीबन एक साल तक यह पद खाली पड़ा रहा और उसे फिर से वसुंधरा को ही सौंपना पड़ा। लब्बोलुआब वसुंधरा के प्रति जितना सॉफ्टकोर्नर गडकरी का रहा, उतना राजनाथ सिंह का नहीं रहेगा। राजनाथ सिंह व वसुंधरा के संबंधों पर रामदास अग्रवाल का यह बयान काफी मायने रखता है कि सिंह में पार्टी हित में कठोर निर्णय लेने की क्षमता है। उन्होंने नेता प्रतिपक्ष से वसुंधरा राजे का इस्तीफा ले लिया था। गलती पर जसवंत सिंह तक को बाहर का रास्ता दिखाने से नहीं हिचके।
राजनाथ सिंह के दरबार में वसुंधरा की कितनी अहमियत है, इसका अंदाजा इस बात से भी होता है कि एक ओर जहां वे औपचारिक रूप से उनसे मिलने और पदग्रहण समारोह में शामिल होने के बाद जल्द ही जयपुर लौट आईं, जबकि संघ लॉबी के रामदास अग्रवाल, घनश्याम तिवाड़ी और अरुण चतुर्वेदी दिल्ली में ही डटे रहे।
इसके अतिरिक्त राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि राजनाथ सिंह के अध्यक्ष बनने से प्रदेश में भाजपा संगठन और संघ से जुड़े नेता और मजबूत होंगे। राजनाथ सिंह के प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी से कैसे संबंध हैं, इसका अंदाजा उनके इस बयान से लगाया जा सकता है कि उन्होंने ही उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बनाया। वे युवा मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे, तब कार्यकारिणी में उन्हें लिया था। ऐसे में प्रदेश अध्यक्ष संघनिष्ठ खेमे का बनना तय माना जा रहा है। हां, इतना जरूर संभव है कि सिंह के लिए यह मजबूरी हो कि सत्ता में आने के लिए वसुंधरा राजे को मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने पर मजबूर होना पड़े।
भाजपा का सत्ता में आना कुछ आसान
राजनाथ सिंह के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने एक असर ये भी होता दिखाई दे रहा है कि यहां भाजपा के लिए सत्ता की सीढ़ी चढऩा कुछ आसान हो सकता है। इसकी वजह ये है कि किरोड़ी लाल मीणा से सिंह के अच्छे संबंध रहे हैं। और इसी कारण माना ये जा रहा है कि वसुंधरा की गलती से भाजपा से दूर हुए मीणा विधानसभा चुनाव होने से पार्टी में वापस लाए जा सकते हैं। अगर ऐसा होता है तो यह भाजपा के लिए काफी सुखद होगा। यहां यह कहने की जरूरत नहीं है कि वसुंधरा की हार की वजूआत में एक प्रमुख वजह मीणा की नाराजगी भी थी।
-तेजवानी गिरधर

कल्याण सिंह को थूक कर फिर चाट लिया भाजपा ने


भाजपा ने उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को एक बार फिर थूक कर चाट लिया है। उनकी वापसी बड़े जोर-शोर से हुई है, तभी तो लखनऊ में आयोजित रैली में बीजेपी के अध्यक्ष नितिन गडकरी और राजनाथ सिंह भी शामिल हुए।
ज्ञातव्य है कि कल्याण सिंह की भाजपा में वापसी तीसरी बार हुई है। बेशक 1990 के दशक में कल्याण सिंह का खासा दबदबा था। भाजपा भी काफी मजबूती से उभरी, मगर नेताओं की आपसी खींचतान के चक्कर में कल्याण बाहर हो गए और उसका फायदा समाजवादी पार्टी व बहुजन समाज पार्टी ने उठाया, क्योंकि पिछड़े वर्ग के लोधी वोटों में उन्होंने सेंध मार ली। अब हालत ये है कि लोधी वोट पार्टी से काफी दूर जा चुके हैं। हालत ये है कि कल्याण सिंह की जगह लोधी वोटों को खींचने के लिए पिछले विधानसभा चुनाव में फायर ब्रांड नेता उमा भारती को कमान सौंपी गई, मगर वे भी कुछ नहीं कर पाईं। कहने की जरूरत नहीं है कि ये उमा भारती भी थूक कर चाटी हुई नेता हैं। अब जब कि कल्याण सिंह को फिर से गले लगाया गया है, यह सोचने का विषय है कि क्या अब भी वे कारगर हो सकते हैं? क्या अब भी उनकी लोधी वोटों पर उतनी ही पकड़ है, जितनी पहले हुआ करती थी? यह सवाल इसलिए वाजिब है क्योंकि कल्याण सिंह अपनी अलग पार्टी बनाने के बाद खारिज किए जा चुके हैं।
आइये, जरा समझें कि कल्याण सिंह का सियासी सफर कैसा रहा है।  कल्याण सिंह दो बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। उन्होंने साल 1962 में राजनीतिक चिंतक पंडित दीनदयाल उपाध्याय के विचारों से प्रेरित होकर राजनीति में प्रवेश किया। वे 1967, 1969, 1974, 1977, 1985, 1989, 1991, 1993, 1996 और 2002 में यानी दस बार विधायक चुने गए। बीजेपी में रहते हुए वो दो बार 1991 और 1997 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। बीजेपी से नाराज होकर कल्याण सिंह ने 1999 में अपने 77वें जन्मदिन पर राष्ट्रीय क्रांति पार्टी नाम से एक नई पार्टी बनाई। साल 2002 का विधानसभा चुनाव बीजेपी और कल्याण ने अलग-अलग लड़ा था। यही वह चुनाव था जहां से उत्तर प्रदेश में बीजेपी का ग्राफ गिरना शुरू हुआ। बीजेपी की सीटों की संख्या 177 से गिरकर 88 हो गई। प्रदेश की 403 सीटों में से 72 सीटों पर कल्याण सिंह की राष्ट्रीय क्रांति पार्टी ने दावेदारी ठोकी थी और इन्हीं सीटों पर बीजेपी को सबसे अधिक नुकसान पहुंचा। नतीजा कल्याण की घर वापसी की कोशिशें शुरू हुईं और 2004 में कल्याण बीजेपी में शामिल हो गए। इसके बाद 2007 में विधानसभा चुनाव में कल्याण की मौजूदगी के बावजूद बीजेपी की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ। कल्याण के नेतृत्व में बीजेपी को सिर्फ 51 सीटें हासिल हुईं। 2009 में कल्याण का बीजेपी से फिर मोहभंग हुआ और उन्होंने मुलायम सिंह से दोस्ती कर ली। अपने बेटे राजवीर सिंह को उन्होंने सपा का राष्ट्रीय पदाधिकारी भी बनवा दिया, लेकिन ये दोस्ती भी ज्यादा नहीं टिकी। 2012 में कल्याण ने अपनी एक और पार्टी जन क्रांति पार्टी बना ली। लेकिन यूपी विधानसभा चुनाव 2012 में उनकी पार्टी के हाथ कुछ नहीं लगा। उधर, बीजेपी भी महज 47 सीटों पर सिमट गई।
राजनीतिक जानकारों के मुताबिक कल्याण और बीजेपी की इसी मजबूरी ने इन्हें दोबारा दोस्त बनाया है। कल्याण सियासत की दुनिया में गुमनाम हो चले थे। बीजेपी भी लाख कोशिशों के बावजूद यूपी में तीसरे नंबर पर सरक गई है। ऐसे में उसे यूपी में एक ऐसे चेहरे की जरूरत थी जो लोकसभा चुनाव में पार्टी का नेतृत्व कर सके। उधर कल्याण सिंह के पास भी विकल्प नहीं था। उनकी पार्टी यूपी में अपना आधार नहीं बना सकी। ऐसे में कल्याण सिंह और बीजेपी दोनों को एक-दूसरे की जरूरत है। खास बात ये है कि कल्याण की बीजेपी में वापसी को लेकर फायर ब्रांड नेता उमा भारती काफी सक्रिय रहीं। दोनों नेताओं की जुगलबंदी बीजेपी को यूपी में पुरानी स्थिति में ना सही, एक सम्मानजनक स्थिति में भी ला सकी तो पार्टी का मकसद हल हो जाएगा।
असल में भाजपा जानती है कि उसे अगर लोकसभा चुनाव में सशक्त रूप से उभरना है तो उत्तर प्रदेश पर ध्यान देना ही होगा। हाल ही हुए विधानसभा चुनाव में जरूर कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी कुछ कर नहीं पाए, क्योंकि वोटों का धु्रवीकरण बसपा से सपा की ओर हो गया, मगर अब जब राहुल ने ही कांग्रेस की कमान संभाल ली है तो जाहिर सी बात वे उत्तरप्रदेश पर जरूर ध्यान देंगे और वह कारगर भी हो सकता है। उन्हीं का मुकाबला करने के लिए भाजपा ने खारिज किए जा चुके कल्याण सिंह को गले लगाया है। समझा जाता है कि कांग्रेस व भाजपा की इस नई गतिविधि का कुछ तो असर होगा ही क्योंकि विधानसभा चुनाव के फैक्टर अलग होते हैं, जबकि लोकसभा चुनाव के अलग। लोकसभा चुनाव में मतदाता की सोच राष्ट्रीय हो जाती है। ऐसे में यह देखने वाली बात होगी कि दोनों दल मतदाताओं के अपनी-अपनी ओर कितना खींच पाते हैं।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, जनवरी 20, 2013

कांग्रेस से ज्यादा भाजपा को नुकसान पहुंचाएगी सपा

हालांकि समाजवादी पार्टी का अभी तक राजस्थान में कोई जनाधार नहीं रहा है, मगर पदोन्नति में आरक्षण समाप्त करने का नया पैंतरा चलने वाली समाजवादी पार्टी अब यहां भी अपनी जमीन तलाशने लगी है। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव खुद ही अपने राज्य के बाद राजस्थान का रुख करना चाहते थे कि पदोन्नति में आरक्षण का विरोध करने वाल समता आंदोलन समिति ने उन्हें अकेले इसी मुद्दे पर जयपुर में सम्मानित करने का न्यौता दे दिया। अंधा क्या चाहे, दो आखें, वे तुरंत राजी हो गए। जयपुर आए तो उनका भव्य स्वागत किया गया।
अखिलेश की इस नई चाल से जहां राजस्थान का चुनावी समीकरण बदलने के आसार दिखाई दे रहे हैं, वहीं अखिलेश की भी कोशिश है कि इस बहाने अपने जातीय वोटों के अतिरिक्त समता आंदोलन का साथ दे रहे कांग्रेस व भाजपा के कार्यकर्ता उनके साथ जुड़ जाएं। जहां तक मुद्दे का सवाल है एक अनुमान के अनुसार पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था से प्रदेश के 72 फीसदी सवर्ण कर्मचारी यानी 5 लाख से अधिक परिवार प्रभावित होते हैं। वे अगर कांग्रेस व भाजपा से रूठ कर सपा के साथ जुड़ते हैं तो जाहिर तौर पर यहां का राजनीतिक समीकरण बदल जाएगा। इसमें भी बड़ा पेच यह है अधिसंख्य सवर्ण भाजपा मानसिकता के माने जाते हैं। यानि अगर वे सपा की ओर आकर्षित होते हैं तो ज्यादा नुकसान भाजपा का ही होगा। सच तो ये है आंदोलन के मुख्य कर्ताधर्ताओं में भाजपा मानसिकता के लोग ही ज्यादा है। इस लिहाज से सपा की राजस्थान में एंट्री भाजपा के लिए परेशानी का सबब बन सकती है। नुकसान कांग्रेस को भी होगा, मगर कुछ कम। पदोन्नति में आरक्षण की वह भी पक्षधर है, मगर चूंकि इससे उसका पहले से कायम अनुसूचित जाति का वोट बैंक मजबूत होता है तो उसक एवज में सवर्ण वोटों में सेंध पड़ती है तो वह उसे बर्दाश्त करने की स्थिति में है। रहा सवाल भाजपा का तो उसकी भी अनुसूचित जाति पर पकड़ मजबूत होगी, मगर एकाएक कांग्रेस का गढ़ वह तोड़ पाएगी, इसकी संभावना कम ही है।
नए समीकरण के बारे में भाजपा के थिंक टैंकरों का मानना है कि इससे भाजपा को कोई नुकसा नहीं होगा। उनका तर्क ये है कि सपा का जातिगत आधार अलग रूप में है। कांग्रेस और सपा के वोट बैंक में एक समानता है-अल्पसंख्यक, एससी-एसटी और ओबीसी। अगर सपा चुनाव में उतरती है तो कहा जा सकता है कि कांग्रेस के इस वोट बैंक में सेंध लग सकती है। उनकी सोच भी सही है, मगर वे यह नहीं समझ पा रहे कि पदोन्नति में आरक्षण का समर्थन करने के कारण अनुसूचित जाति सपा के साथ कैसे जाएगी।
अब जरा ये भी देख लें कि सपा की राजस्थान में एंट्री कहां कहां पर होगी। यूं तो पूरे राजस्थान में ही वह अपने वोट पकाएगी, मगर ज्यादा असर मुंडावर, बहरोड़, बानसूर, तिजारा, अलवर शहर, अलवर ग्रामीण, किशनगढ़ बास, डीग, कुम्हेर, कामां, कोटपूतली, आमेर, विराटनगर, शाहपुरा, धौलपुर यादव बहुल इलाकों पर पड़ेगा। वहां का यादव सीधे तौर पर उसके साथ हो जाएगा। अर्थात केवल यादव बहुल इलाके में ही ज्यादा असर का माना जाए तो सपा कम से कम दस सीटों को सीधे तौर पर प्रभावित करेगी। कांग्रेस व भाजपा को स्पष्ट बहुमत न मिलने की स्थिति में वह ब्लैकमेलिंग की स्थिति में आ सकती है। इसका अर्थ होता है सीधे-सीधे सत्ता में भागीदारी।
यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि प्रदेश में सरकारी भर्ती के साथ पदोन्नति में भी एससी को 16' और एसटी को 12' आरक्षण का प्रावधान है। इससे वरिष्ठता और अनारक्षित वर्ग की सीटों के भी प्रभावित होने पर राज्य कर्मियों ने इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट तक 17 साल तक कानूनी लड़ाई लड़ी। फिर भी पदोन्नति में 16 और 12' आरक्षण जारी रहा, क्योंकि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत सहित अन्य नेता आरक्षित वर्ग के पक्ष में खड़े हो गए थे।
जहां तक अखिलेश के अभिनंदन का सवाल है, इससे समता आंदोलन समिति को एक तरह से सरकार पर यह दबाव बढ़ाने का मौका मिल गया है। इस बहाने उसे एक रहनुमा भी हासिल हुआ है, जो उनकी हर तरह से मदद कर सकता है। अर्थात अब समता आंदोलन और मजबूत हो कर उभर सकता है।
-तेजवानी गिरधर