हालांकि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ नितिन गडकरी को ही भाजपा अध्यक्ष बनाए रखना चाहता था। भाजपा ने भी लगातार दूसरा कार्यकाल देने के लिए संशोधन किया, मगर ऐन वक्त पर हालात बदले और गडकरी को इस्तीफा देना पड़ गया। ऐसे में पार्टी को मिशन 2014 में फतह की दिलाने की जिम्मेदारी राजनाथ सिंह पर आ गई। हालांकि अनेक कारणों से कई लोग ये मानते हैं कि नितिन गडकरी के रहते पार्टी के अंदर उथल-पुथल जारी रहती, इस कारण राजनाथ उनसे बेहतर अध्यक्ष साबित हो सकते हैं, मगर सच ये है कि जिन हालात में उन पर पार्टी का भार डाला गया है, उसे देखते हुए तो यही कहा जा सकता है कि उन्होंने कांटों भरा ताज पहन लिया है।
जैसे ही राजनाथ ने पदभार संभाला है, उनके नेतृत्व कौशल, उनके इतिहास और भविष्य के बारे में अपनाई जाने वाली रणनीतियों को लेकर चर्चा शुरू हो चुकी है कि उन्हें बीजेपी अध्यक्ष बनाया जाना किस हद तक एक सही फैसला साबित हो सकता है? जहां तक उनके नेतृत्व कौशल का सवाल है, माना ये जाता है कि वे सब को साथ ले कर चलने में बेहतर साबित होंगे। संघ के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के झंडाबरदार होने के कारण उन्हें संघ का समर्थन हासिल है और पार्टी के अंदर उन्हें ज्यादा तंग नहीं होना पड़ेगा, इस कारण बाहरी मामलों पर बेहतर ध्यान दे पाएंगे, मगर सच ये है कि पार्टी के भीतर भी उनकी कई से नाइत्तफाकी रही है। बाहर की चुनौतियां तो और भी अधिक हैं, जिनसे निपटना आसान काम नहीं है।
राजनाथ के पक्ष में एक दलील ये भी दी जाती है कि उन्हें पूर्व में अध्यक्ष रह चुकने के कारण बेहतर अनुभव है, वे पिछले कार्यकाल को एक सबक के रूप में लेते हुए गलतियां नहीं दोहराएंगे, मगर धरातल का सच ये है कि पिछले कार्यकाल के दौरान उनके जिनसे भी मतभेद हुए, उन्हें विश्वास में लेना आसान नहीं होगा। उन्होंने अपने पिछले कार्यकाल में एनडीए गठबंधन के सहयोगियों सहित पार्टी के कुछ महत्वपूर्ण लोगों को नाराज किया। लालकृष्ण आडवाणी और अरुण जेटली से मतभेद की खबरें तो उन दिनों आम हुआ करती थीं। अरुण शौरी का हम्टी डम्टी वाला बयान आज भी लोग नहीं भूले हैं। राजस्थान की क्षत्रप पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे से भी उनका टकराव हुआ। उनकी जिद के चलते वसुंधरा को नेता प्रतिपक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा। टकराव किस हद तक गया, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि एकबारगी वसुंधरा के दूसरी पार्टी बनाने की सुगबुगाहट तक होने लगी थी। आखिरकार एक साल बाद वसुंधरा को फिर से पद संभालने का अनुनय-विनय करना पड़ा। हालांकि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ हुई उनकी ताजा बैठक को इस रूप में लिया जा रहा है कि उनके बीच सुलह हो गई है, मगर दोनों के रिश्तों की उस खटास को कैसे भूला जा सकता है, जब राजनाथ ने मोदी को संसदीय बोर्ड से हटा दिया था।
जहां तक चुनौतियों का सवाल है, गडकरी के कार्यकाल के दौरान पार्टी की जो हालत हुई है, उसे सुधरना कोई छोटी-मोटी जिम्मेदारी नहीं है। आइये जरा नजर डाल लें कि राजनाथ को विरासत में कैसे हालत मिले हैं। महाराष्ट्र से होने के बाद भी गडकरी वहां के विधानसभा चुनावों में पार्टी को हार से नहीं बचा सके। बेशक बिहार में पार्टी का अच्छी सफलता मिली, मगर उसका श्रेय नीतीश कुमार और सुशील मोदी को जाता है। वहीं नीतीश आज भाजपा के लिए सिरदर्द बने हुए हैं। गोवा और पंजाब को छोड़ दें तो उसके बाद हुए कई विधानसभा चुनावों में पार्टी की दुर्गति हुई। असम में पार्टी की सरकार बनने का दावा था, लेकिन उसकी सीटें मात्र छह रह गईं। उत्तर प्रदेश में भी पिछली बार की अपेक्षा सीटें कम आईं। उत्तराखंड व हिमाचल प्रदेश में तो तख्ता ही पलट गया। हिमाचल के चुनावों के दौरान गडकरी के उद्योग समूह की गड़बडिय़ां उजागर होने पर वहां प्रांतीय इकाई को गडकरी को प्रचार के लिए न आने का आग्रह करना पड़ा। झारखंड में भी भाजपानीत सरकार चली गयी। कर्नाटक में भाजपा सरकार की कैसी हालत है, ये किसी से छिपी हुई नहीं है। वहां दुबारा सत्ता में आना बेहद मुश्किल नजर आता है। विभिन्न राज्यों में संगठन की स्थिति भी अच्छी नहीं है। हां, जसवंत सिंह, कल्याण सिंह व उमा भारती की वापसी सुखद कही जा सकती है, मगर उसका पार्टी को कितना लाभ मिलेगा, यह वक्त ही बताएगा।
पार्टी से इतर बात करें तो राजग के सदस्य दलों को साथ लेकर चलना भी बेहद कठिन है। खुद उनके कार्यकाल में ही सहयोगी दलों से तालमेल बिगडऩे लगा था। ताजा हालात में उनके लिए यह चुनौती कितनी बड़ी है कि एक ओर पार्टी का आम कार्यकर्ता मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित होने का दबाव बना रहा है तो नीतीश कुमार मोदी नाम आते ही गठबंधन से अलग होने की बात करते हैं। शिव सेना ने भी अपनी पहली पसंद सुषमा स्वराज को बता दिया है।
इन सब हालातों को देखते कहा जा सकता है राजनाथ के लिए अध्यक्ष पद कांटों भरा ताज है। इस वर्ष पार्टी को नौ राज्यों में विधानसभा चुनावों से निपटने के बाद अगले साल लोकसभा की महती जिम्मेदारी है।
-तेजवानी गिरधर
जैसे ही राजनाथ ने पदभार संभाला है, उनके नेतृत्व कौशल, उनके इतिहास और भविष्य के बारे में अपनाई जाने वाली रणनीतियों को लेकर चर्चा शुरू हो चुकी है कि उन्हें बीजेपी अध्यक्ष बनाया जाना किस हद तक एक सही फैसला साबित हो सकता है? जहां तक उनके नेतृत्व कौशल का सवाल है, माना ये जाता है कि वे सब को साथ ले कर चलने में बेहतर साबित होंगे। संघ के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के झंडाबरदार होने के कारण उन्हें संघ का समर्थन हासिल है और पार्टी के अंदर उन्हें ज्यादा तंग नहीं होना पड़ेगा, इस कारण बाहरी मामलों पर बेहतर ध्यान दे पाएंगे, मगर सच ये है कि पार्टी के भीतर भी उनकी कई से नाइत्तफाकी रही है। बाहर की चुनौतियां तो और भी अधिक हैं, जिनसे निपटना आसान काम नहीं है।
राजनाथ के पक्ष में एक दलील ये भी दी जाती है कि उन्हें पूर्व में अध्यक्ष रह चुकने के कारण बेहतर अनुभव है, वे पिछले कार्यकाल को एक सबक के रूप में लेते हुए गलतियां नहीं दोहराएंगे, मगर धरातल का सच ये है कि पिछले कार्यकाल के दौरान उनके जिनसे भी मतभेद हुए, उन्हें विश्वास में लेना आसान नहीं होगा। उन्होंने अपने पिछले कार्यकाल में एनडीए गठबंधन के सहयोगियों सहित पार्टी के कुछ महत्वपूर्ण लोगों को नाराज किया। लालकृष्ण आडवाणी और अरुण जेटली से मतभेद की खबरें तो उन दिनों आम हुआ करती थीं। अरुण शौरी का हम्टी डम्टी वाला बयान आज भी लोग नहीं भूले हैं। राजस्थान की क्षत्रप पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे से भी उनका टकराव हुआ। उनकी जिद के चलते वसुंधरा को नेता प्रतिपक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा। टकराव किस हद तक गया, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि एकबारगी वसुंधरा के दूसरी पार्टी बनाने की सुगबुगाहट तक होने लगी थी। आखिरकार एक साल बाद वसुंधरा को फिर से पद संभालने का अनुनय-विनय करना पड़ा। हालांकि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ हुई उनकी ताजा बैठक को इस रूप में लिया जा रहा है कि उनके बीच सुलह हो गई है, मगर दोनों के रिश्तों की उस खटास को कैसे भूला जा सकता है, जब राजनाथ ने मोदी को संसदीय बोर्ड से हटा दिया था।
जहां तक चुनौतियों का सवाल है, गडकरी के कार्यकाल के दौरान पार्टी की जो हालत हुई है, उसे सुधरना कोई छोटी-मोटी जिम्मेदारी नहीं है। आइये जरा नजर डाल लें कि राजनाथ को विरासत में कैसे हालत मिले हैं। महाराष्ट्र से होने के बाद भी गडकरी वहां के विधानसभा चुनावों में पार्टी को हार से नहीं बचा सके। बेशक बिहार में पार्टी का अच्छी सफलता मिली, मगर उसका श्रेय नीतीश कुमार और सुशील मोदी को जाता है। वहीं नीतीश आज भाजपा के लिए सिरदर्द बने हुए हैं। गोवा और पंजाब को छोड़ दें तो उसके बाद हुए कई विधानसभा चुनावों में पार्टी की दुर्गति हुई। असम में पार्टी की सरकार बनने का दावा था, लेकिन उसकी सीटें मात्र छह रह गईं। उत्तर प्रदेश में भी पिछली बार की अपेक्षा सीटें कम आईं। उत्तराखंड व हिमाचल प्रदेश में तो तख्ता ही पलट गया। हिमाचल के चुनावों के दौरान गडकरी के उद्योग समूह की गड़बडिय़ां उजागर होने पर वहां प्रांतीय इकाई को गडकरी को प्रचार के लिए न आने का आग्रह करना पड़ा। झारखंड में भी भाजपानीत सरकार चली गयी। कर्नाटक में भाजपा सरकार की कैसी हालत है, ये किसी से छिपी हुई नहीं है। वहां दुबारा सत्ता में आना बेहद मुश्किल नजर आता है। विभिन्न राज्यों में संगठन की स्थिति भी अच्छी नहीं है। हां, जसवंत सिंह, कल्याण सिंह व उमा भारती की वापसी सुखद कही जा सकती है, मगर उसका पार्टी को कितना लाभ मिलेगा, यह वक्त ही बताएगा।
पार्टी से इतर बात करें तो राजग के सदस्य दलों को साथ लेकर चलना भी बेहद कठिन है। खुद उनके कार्यकाल में ही सहयोगी दलों से तालमेल बिगडऩे लगा था। ताजा हालात में उनके लिए यह चुनौती कितनी बड़ी है कि एक ओर पार्टी का आम कार्यकर्ता मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित होने का दबाव बना रहा है तो नीतीश कुमार मोदी नाम आते ही गठबंधन से अलग होने की बात करते हैं। शिव सेना ने भी अपनी पहली पसंद सुषमा स्वराज को बता दिया है।
इन सब हालातों को देखते कहा जा सकता है राजनाथ के लिए अध्यक्ष पद कांटों भरा ताज है। इस वर्ष पार्टी को नौ राज्यों में विधानसभा चुनावों से निपटने के बाद अगले साल लोकसभा की महती जिम्मेदारी है।
-तेजवानी गिरधर
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