तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

गुरुवार, जनवरी 03, 2013

हमारी संतुष्टि मात्र है बलात्कारी को नामर्द बनाना

बताया जा रहा है कि कांग्रेस बलात्कारी को नपुंसक बनाने की सजा देने पर विचार कर रही है। आंदोलनकारियों का एक वर्ग भी यही मांग कर रहा है क्योंकि उसे लगता है कि फांसी की सजा से बेहतर है कि बलात्कारी को तिल-तिल कर मारा जाए। बात ठीक भी लगती है। मगर सवाल ये है कि क्या अधिकतम वर्ष तक की सजा के साथ कैदी को नपुंसक बनाने से अन्य कामुक लोग बलात्कार करने से बाज आएंगे?
असल में जो भी कामांध व्यक्ति बलात्कार करता है, उसे यह तो ख्याल होता ही है कि अगर वह पकड़ा गया तो उसे सजा होगी, मगर वह काम में अंधा होता है तो उसे यह ख्याल में नहीं रहता। जैसे हत्या का आतुर को पता होता है कि उस पर धारा 302 लगेगी, फिर भी हत्या कर डालता है, क्योंकि उस पर हत्या करने का जुनून सवार हो जाता है। तो यदि अगर हम यह सोचते हैं कि बलात्कारी को नपुंसक बनाए जाने की सजा के कारण बलात्कार कम हो जाएंगे, तो यह हमारी भूल ही होगी। रहा सवाल हमारी तरफ से बलात्कारी को कड़ी से कड़ी सजा देने की भावना तो उसकी जरूर पूर्ति हो जाएगी। हमें जरूर इस बात की संतुष्टि हो जाएगी कि हमने बलात्कारी से बदला ले लिया। रहा सवाल उसे नपुंसक बनाने की बात तो जेल में बंद कैदी नपुंसक या उसका पौरुष कायम रहे, उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। वैसे भी वह कैद में रह कर कुछ नहीं कर सकता। ऐसे में कड़ी से कड़ी सजा या तो फांसी हो सकती है या फिर मृत्युपर्यंत कैद में रखना।
वैसे इस बारे में विधि विशेषज्ञों का कहना है कि रासायनिक बधियाकरण का उद्देश्य बलात्कार के दोषी के मन में जीवनभर के लिए यह विचार बैठाना होता है कि उसने जो किया वह गलत किया। जीव विज्ञानी मानते हैं कि रासायनिक बधियाकरण फांसी की सजा या आजीवन कारावास से भी खतरनाक सजा है, क्योंकि यह दोषी को मानसिक रूप से परेशान कर देता है। रासायनिक रूप से बधिया किए गए लोग हर पल अपने अपराध के अहसास के साथ जीते हैं। मगर जानकारी ये है कि यह सजा वहां तो कारगर है, जहां अपराध के दोबारा होने की संभावना अधिक होती है, वहीं इस तरीके का इस्तेमाल किया जाता है। जिन लोगों का रासायनिक बधियाकरण किया गया उन्होंने अपने जीवन में दोबारा कभी ऐसा अपराध नहीं किया या यों कह लें कि कर ही नहीं पाए। इसमें भी एक पेच बताया जा रहा है। वो यह कि नामर्द बनाने के लिए पुरुषों को एंटी-एंड्रोजन या फिर गर्भ निरोधक दिया जाता है। इसके लिए साइप्रोटेरोन या डेपा प्रोवेरा नाम की दवा दी जाती है। इस दवा से पुरुष नपुंसक तो नहीं होता, मगर उसकी सैक्स क्षमता और इच्छा कम हो जाती है। इन दवाइयों का असर तीन माह में ही खत्म भी हो जाता है। अर्थात नामर्द बनाए रखने के लिए हर तीन माह में यह दवा देना जरूरी होगा। इस दवा को हर तीन महीने बाद देना राज्य सरकारों की जिम्मेदारी हो जाएगी। जैसा कि जेलों में आलम है, राज्य सरकारें इस मामले में कितनी मुस्तैद रहेंगी, कुछ कहा नहीं जा सकता। और अगर नियमित रूप से दवा दी भी गई तो माना कि कैदी की सैक्स क्षमता कम हो जाएगी, मगर इससे फर्क क्या पड़ता है, क्योंकि कैद में रहते हुए उसकी सैक्स की इच्छा पूर्ति का साधन उपलब्ध होता ही नहीं है। हां, हम मांग करने वालों के दिलों को जरूर ठंडक मिलेगी कि हमने बलात्कारी से बदला ले लिया। बाकी ऐसा होने की उम्मीद कम ही है कि बलात्कार को आतुर वहशी इस प्रकार की सजा के भय से बलात्कार करने का विचार त्याग देगा। वैसे, सच तो ये है कि आंदोलनकारियों का एक वर्ग यह चाहता है कि बलात्कारी का लिंग ही काट दिया जाए, मगर ऐसी सजा का प्रावधान करने से पहले सरकार को हजार बार सोचना होगा।
-तेजवानी गिरधर

संघ पहले ही विरोध कर चुका है वसुंधरा की बहू का


एक ओर जहां यह चर्चा गरम है कि आगामी लोकसभा चुनाव में अजमेर संसदीय क्षेत्र से पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे अपनी पुत्रवधू श्रीमती निहारिका राजे को चुनाव लड़ाने पर विचार कर रही हैं, वहीं एक पुरानी जानकारी उभर कर आई है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पूर्व में ही परिवारवाद के नाते निहारिका को राजनीति में लाने पर अपनी नाराजगी जाहिर कर चुका है। अजमेरनामा के चौपाल कॉलम में जब यह न्यूज आइटम प्रकाशित हुआ कि निहारिका को अजमेर से चुनाव लड़ाने के लिए सर्वे करवाया जा रहा है कि तो एक जागरूक पाठक ने बताया कि निहारिका पूर्व में भी चर्चा में रही हैं। उनके बारे में एक समाचार 7 जून 2007 को ही फाइनेंशियल एक्सपे्रस में प्रकाशित हो चुका है। उन्होंने बाकायदा उसका लिंक भी दिया। इस लिंक के जरिए उस समाचार की तलाश गूगल पर की तो वह मिल गया, जिसे आपकी जानकारी में लाने के लिए यहां दिया जा रहा है।
RSS displeased with Raje for projecting daughter-in lawNew Delhi, Jun 7: A couple of days after tackling the week-long Gujjar stir, Rajasthan chief minister Vasundhara Raje is in for new trouble, with the RSS flaying her for projecting Niharika (Raje’s daughter-in-law) as the key in diffusing the caste crisis in the state.
The RSS top brass is reported to be displeased with the state of affairs and the way things were handled during the crisis, as well as Raje’s attempt to project her daughter-in-law.
“It’s simply ‘parivarwad'. By projecting Niharika as key to successful resolution of the crisis, the chief minister has tried to use the occasion to introduce her daughter-in-law to politics, which we, as an organisation, do not approve," a RSS functionary said.
Senior party leaders in the state who played crucial roles in bringing the crisis to an end, are also miffed with the chief minister for usurping the credit solely to herself and her family members.
“It was a collective effort and to give credit to any single person, including even the chief minister was squarely wrong," a senior party leader said.
Having got feelers from the central leadership on the issue, Vasundhara had sent her trusted lieutenant and state BJP president Mahesh Chandra Sharma toNew Delhion Wednesday to meet senior party leaders and explain them the actual position.
Intrestingly, apart from party’s top three including former Prime Minter Atal Bihari Vajpayee, senior leader LK Advani and the party chief Rajnath Singh, Sharma also met Vice-President Bhairon Singh Shekhawat and explained the chief minister’s position. Meeting with Shekhawat is seen
गूगल पर वह समाचार पढऩे के लिए वह लिंक भी यहां दिया जा रहा है:-
http://www.financialexpress.com/news/rss-displeased-with-raje-for-projecting-daughterinlaw/199920

-तेजवानी गिरधर 

शुक्रवार, दिसंबर 28, 2012

कटारिया फिर कैसे आ गए फ्रंट फुट पर?

राजस्थान में भाजपा के जिन दिग्गज गुलाब चंद कटारिया की मेवाड़ यात्रा को लेकर पार्टी में बड़ा भूचाल आ चुका है, जिसकी प्रतिध्वनि आज तक गूंज रही है, वे ही अपनी स्थगित यात्रा को फिर से आरंभ कर चुके हैं तो सभी का चौंकना स्वाभाविक ही है। जो भाजपा कार्यकर्ता यह मान कर चल चुके हैं कि भारी विरोध के बाद भी चुनाव की कमान वसुंधरा के हाथों में होगी, इस नए पैंतरे को देख कर समझ ही नहीं पा रहे हैं कि पार्टी में आखिर ये हो क्या रहा है?
ज्ञातव्य है कि पिछली बार जब उन्होंने यात्रा निकालने का ऐलान किया था तो राजसमंद की विधायक श्रीमती किरण माहेश्वरी ने क्षेत्रीय वर्चस्व को लेकर उसका कड़ा विरोध किया और मामला इतना गरमाया कि उसे पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे ने अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ लिया। अपने बहुसंख्यक विधायकों के इस्तीफे एकत्रित कर उन्होंने हाईकमान को सकते में ला दिया था। इस पर पार्टी हित की दुहाई देते हुए कटारिया ने यात्रा स्थगित करने की घोषणा कर दी, तब जा कर मामला कुछ ठंडा पड़ा। अब जब कि वे फिर से पार्टी हित के नाम पर निजी स्तर पर यात्रा पर निकल चुके हैं तो इसका अर्थ यही लगाया जा रहा है कि पार्टी का एक धड़ा वसुंधरा के एकछत्र प्रभुत्व को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। यह वही धड़ा है, जो बार-बार यह कह कर वसुंधरा खेमे के साथ छेडख़ानी करता है कि अगला चुनाव किसी एक व्यक्ति के नेतृत्व में नहीं लड़ा जाएगा। दूसरी ओर वसुंधरा खेमे का पूरा जोर इसी बात पर है कि वसुंधरा को ही भावी मुख्यमंत्री घोषित करके चुनाव लड़ा जाएगा। वसुंधरा के खासमखास सिपहसालार राजेन्द्र सिंह राठौड़ ने तो यहां तक कह दिया कि राजस्थान में वसुंधरा ही भाजपा हैं और भाजपा ही वसुंधरा है। इसको लेकर बड़ी बहस छिड़ गई थी। इसी टकराव के बीच कटारिया की यात्रा सीधे-सीधे वसुंधरा को मुंह चिढ़ाने जैसा है। अजमेर के भाजपा विधायक व पूर्व शिक्षा राज्य मंत्री प्रो.वासुदेव देवनानी ने भी उनकी यात्रा को सही ठहरा कर संकेत दे दिया कि वसुंधरा खेमा आगामी चुनाव के मद्देनजर लामबंद होने लगा है। उसी का परिणाम है कि पिछले दिनों इस बात पर बड़ा विवाद हुआ था कि वसुंधरा अपने महल में टिकट के दावेदारों का फीड बैक कैसे ले रही हैं। यह काम तो पार्टी के स्तर पर होना चाहिए। कटारिया ने तो चलो सीधी टक्कर सी ली है, मगर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी व ललित किशोर चतुर्वेदी तक भी कई बार दुहरा चुके हैं कि आगामी चुनाव सामूहिक नेतृत्व में लड़ा जाएगा। उन्हीं के सुर में सुर मिलाते हुए हाल ही वरिष्ठ नेता रामदास अग्रवाल ने भी वी से वी तक का जुमला इस्तेमाल कर साफ किया था कि कोई भी व्यक्ति पार्टी से ऊपर नहीं है। इन सारी गतिविधियों से यह जाहिर होता कि कि संघपृष्ठभूमि के नेता वसुंधरा को फ्री हैंड नहीं लेने देंगे। वे पूरा दबाव बना कर अपने धड़े के लिए अधिक से अधिक टिकटें झटकना चाहते हैं। कदाचित वे अपने खेमे के एक नेता को उपमुख्यमंत्री बनाने की शर्त रख दें।
-तेजवानी गिरधर

बुधवार, दिसंबर 26, 2012

अराजकता फैलाना चाहता है इलैक्ट्रॉनिक मीडिया?

दिल्ली गैंग रेप की जघन्य घटना के बाद दिल्ली सहित पूरे देश में जगह-जगह जो आक्रोश फूटा, वह स्वाभाविक और वाजिब है। इतना तो हमें संवेदनशील होना ही चाहिए। संयोग से यह मामला देश की राजधानी का था, इस कारण हाई प्रोफाइल हो गया, वरना ऐसे सामूहिक बलात्कार तो न जाने कितने हो चुके हैं। इलैक्ट्रॉनिक मीडिया ने इसे मुद्दा बनाया, वहां तक तो ठीक था, मगर जब यह अराजकता की ओर बढऩे लगा और बेकाबू हो गया, तब भी मात्र और मात्र सनसनी फैलाने की खातिर उसे हवा देने का जो काम किया गया, वह पूरा देश देख रहा था। सबके जेहन में एक ही सवाल था कि क्या इलैक्ट्रॉनिक मीडिया देश में अराजकता फैलाना चाहता है? मगर... मगर चूंकि इस आंदोलन में युवा वर्ग का गुस्सा फूट रहा था, इस कारण किसी की भी हिम्मत नहीं हुई कि वह इस पर प्रतिक्रिया दे सके। सब जानते थे कि कुछ बोले नहीं कि मीडिया तो उसके पीछे हाथ धो कर पड़ ही ही जाएगा, युवा वर्ग का गुस्सा भी उसकी ओर डाइवर्ट हो जाएगा।
अव्वल तो इस मामले में पुलिस ने अधिसंख्य आरोपियों को पकड़ लिया और पीडि़त युवती को भी बेहतरीन चिकित्सा मिलने लगी। इसके बाद आरोपियों को जो सजा होनी है, वह तो कानून के मुताबिक न्यायालय को ही देनी है। चाहे सरकारी तंत्र कहे या विपक्ष या फिर आंदोलनकारी, कि कड़ी से कड़ी सजा दी जानी चाहिए, मगर सजा देने का काम तो केवल कोर्ट का ही है। उसकी मांग के लिए इतना बवाल करना और कड़ी से कड़ी सजा देने का आश्वासन देना ही बेमानी है। अलबत्ता, बलात्कार के मामले में फांसी की सजा का प्रावधान करने का मांग अपनी जगह ठीक है, मगर उसकी एक प्रक्रिया है। यह बात मीडिया भी अच्छी तरह से जानता है, मगर बावजूद इसके उसने आंदोलन को और हवा दे कर उसने खूब मजा लिया।
जैसा कि मीडिया इस बात पर बार-बार जोर दे रहा था कि आंदोलन स्वत:स्फूर्त है, वह कुछ कम ही समझ में आया। साफ दिख रहा था कि इसके लिए पूरा मीडिया उकसा रहा था। मीडिया लगातार पूरे-पूरे दिन एक ही घटना दिखा-दिखा कर, पुलिस को दोषी व निकम्मा ठहरा-ठहरा कर, सरकार को पूरी तरह से नकारा बता-बता कर उकसा रहा था। भले ही इसके लिए यह तर्क दिया जाए कि हमारी सरकार आंदोलन के उग्र होने की हद पर जा कर सुनती है, इस कारण मुद्दे को इतना जोर-शोर से उठाना जरूरी था, मगर एक सीमा के बाद यह साफ लगने लगा कि मीडिया की वजह से ही हिंसा की नौबत आई। सब जानते हैं कि केमरा सामने होता है तो कोई भी आंदोलनकारी कैसा बर्ताव करने लग जाता है?
एक सामान्य बुद्धि भी समझ सकता है कि कोई भी आंदोलन बिना किसी सूत्रधार के नहीं हो सकता। ऐसा कत्तई संभव नहीं है कि गैंगरेप से छात्रों में इतना गुस्सा था कि वे खुद ब खुद घरों से निकल कर सड़क पर आ गए। एक दिन नहीं, पूरे पांच दिन तक। जानकारी तो ये है कि शुरू में कैमरा टीमों द्वारा प्रदर्शन की जगह और समय छात्रों एवं अन्य संगठनों से तय करके जमावड़ा किया गया। हर वक्त सनसनी की तलाश में रहने वाले इलैक्ट्रॉनिक मीडिया ने अपनी टीआरपी बढ़ाने की खातिर का जो ये खेल खेला, उसमें वाकई समस्याओं से तनाव में आये बुद्धिजीवी वर्ग और छात्रों को समाधान नजर आया। आंदोलन को कितना भी पवित्र और सच्चा मानें, मगर जिस तरह से मीडिया पुलिस व सरकार को कोसते हुए आंदोलनकारियों को हवा दे रहा था, उससे यकायक लगने लगा कि क्या हमारा मीडिया अराजकता को बढ़ाने की ओर बढ़ रहा है? यह सवाल इसलिए भी उठता है कि एक-दो चैनलों ने तो इंडिया गेट को तहरीर चौक तक की संज्ञा दे दी। यानि कि यह आंदोलन ठीक वैसा ही था, जैसा कि मिश्र में हुआ और तख्ता पलट दिया गया।
मीडिया की बदमाशी तब साफ नजर आई, जब एक वरिष्ठतम पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने एक ओछी हरकत की। उन्होंने आंदोलनकारियों में अपनी ओर से जबरन शब्द ठूंसे। रेप कांड के विरोध में प्रदर्शन के दौरान आंदोलनकारियों से मिलने को कोई भी जिम्मेदार मंत्री मिलने को नहीं आ रहा था तो उन्होंने खुद चला कर एक आंदोलनकारी से सवाल किया कि आपको नहीं लगता कि युवा सम्राट कहलाने वाले राहुल गांधी को आपसे मिलने को आना चाहिए। स्वाभाविक सी बात है कि इसका उत्तर हां में आना था। इसके बाद उसने पलट कर एंकर की ओर मुखातिब हो कर दर्शकों से कहा कि लोगों में बहुत गुस्सा है और वे कह रहे हैं कि राहुल गांधी को उनसे मिलने को आना चाहिए। उनकी इस हरकत ने यह प्रमाणित कर दिया कि मीडिया आंदोलन को जायज, जो कि जायज ही था, मानते हुए एकपक्षीय रिपोर्टिंग करना शुरू कर दिया। एक और उदाहरण देखिए। एक चैनल की एंकर ने आंदोलन के पांचवें दिन आंदोलन स्थल को दिखाते हुए कहा कि बड़ी तादात में आंदोलनकारी इकत्रित हो रहे हैं और उनकी संख्या लगातार बढ़ती जा रही है और फिर जैसे ही उसने रिपोर्टर से बात की तो उसने कहा कि फिलहाल बीस-पच्चीस लोग जमा हुए हैं और यह संख्या बढऩे की संभावना है। कैसा विरोधाभास है। स्पष्ट है कि एंकरिंग पर ऐसे अनुभवहीन युवक-युवतियां लगी हुई हैं, जिन्हें न तो पत्रकारिता का पूरा ज्ञान है और न ही उसकी गरिमा-गंभीरता-जिम्मेदारी व नैतिकता का ख्याल है। उन्हें बस बेहतर से बेहतर डायलॉग बनाना और बोलना आता है, फिर चाहे उससे अर्थ का अनर्थ होता रहे।
सवाल ये उठता है कि जायज मांग की खातिर आंदोलन का साथ देने वाला ये वही मीडिया वही नहीं है, जो कि धंधे की खातिर जापानी तेल और लिंगवर्धक यंत्र का विज्ञापन दिखाता है? क्या ये वही नहीं है जो कमाई की खातिर विज्ञापनों में महिलाओं के फूहड़ चित्र दिखाता है? क्या ये वही नहीं है जो कतिपय लड़कियों के अश्लील पहनावे पर रोक लगाने वाली संस्थाओं को तालीबानी करार देता है? तब उसे इस संस्कारित देश में आ रही पाश्चात्य संस्कृति पर जरा भी ऐतराज नहीं होता। स्पष्ट है कि जितना यह महान बनने का ढ़ोंग करता है, उसके विपरीत इसका एक मात्र मकसद है कि सनसनी फैलाओ, टीआपी बढ़ाओ, फिर चाहे भारत के मिश्र जैसी क्रांति की नौबत आ जाए।
-तेजवानी गिरधर

नीतीश के छोड़ पूरा एनडीए मोदी के साथ?


गुजरात के मुख्यमंत्री पद की शपथ ग्रहण समारोह में मौजूद विभिन्न पार्टियों के दिग्गज नेताओं को देख कर मीडिया को लग रहा है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जेडीयू को छोड का पूरा एनडीए मोदी के साथ है और उसे मोदी के भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद की दावेदारी किए जाने पर ऐतराज नहीं करेगा। हालांकि इस प्रकार के कार्यक्रमों में आने को औपचारिकता ही माना जाता है, मगर समारोह में मौजूद नेताओं की लिस्ट पर नजर डालने के बाद मीडिया को उसमें 2014 के एनडीए की तस्वीर नजर आ रही है। नीतीश कुमार की गैर मौजूदगी का यह अर्थ निकाला गया है कि एनडीए की ओर से मोदी को प्रधानमंत्री के संभावित उम्मीदवार के रूप में प्रॉजेक्ट करने को लेकर उनके रुख में कोई बदलाव नहीं आया है।
उल्लेखनीय है कि समारोह में लालकृष्ण आडवाणी समेत बीजेपी के सभी दिग्गज नेता नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज, राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली, बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकरी, राजनाथ सिंह और वैंकेया नायडू, पार्टी शासित सभी राज्यों के मुख्यमंत्री मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमण सिंह, गोवा के सीएम मनोहर पार्रिकर, कर्नाटक के मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टार और झारखंड के मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा के अलावा पंजाब के सीएम प्रकाश सिंह बादल तो मौजूद थे ही, आईएनएलडी के सुप्रीमो ओमप्रकाश चौटाल, तमिलनाडु की मुख्यमंत्री और एआईएडीएमके की नेता जे. जयललिता और एमएनएस नेता राज ठाकरे ने भी पहुंचकर भविष्य की राजनीति के संकेत दे दिए। सबसे चौंकाने वाली रही शिवसेना के कार्यकारी अध्यक्ष उद्धव ठाकरे, आरपीआई नेता रामदास अठावले और एमएनएस के मुखिया राज ठाकरे की एक साथ मौजूदगी। बुलाए गए लोगों में उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटानयक नहीं पहुंचे, पर जानकारी ये है कि वे मोदी के विरोध में नहीं हैं क्योंकि उन्होंने गुजरात की जीत के बाद मोदी को सबसे पहले बधाई दी थी। अलबत्ता मोदी के साथ खड़े होने से पहले नफा-नुकसान आकलन कर लेना चाहते हैं।
जहां पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का सवाल है, माना ये जा रहा है कि अपने मुस्लिम वोटों के जनाधार को ध्यान में रखते हुए उन्होंने आना मुनासिब नहीं समझा। वैसे अभी ये भी पता नहीं लग पाया है कि मोदी ने उन्हें निमंत्रण दिया भी था कि नहीं। हां, नीतीश के बारे में यही कहा जा रहा है कि उनके पूर्व के रवैये और जीत पर बधाई न देने के रुख को देखते हुए उन्हें शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने का आमंत्रण ही नहीं भेजा था।
कुल मिला कर मीडिया का आकलन है कि मोदी के इस शपथग्रहण समारोह ने उन्हें प्रधानमंत्री पद की दावेदारी करने की दिशा में कदम रखने का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। अब भाजपा पर निर्भर है कि वह मोदी पर एकमत होती या नहीं।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, दिसंबर 23, 2012

मोदी को डर व लालच में दिया मुसलमानों ने वोट


गुजरात विधानसभा चुनाव में मुसलमानों को रिझाने का प्रहसन करने के बावजूद एक भी मुसलमान को टिकट नहीं दिए पर सभी राजनीति जानकार चक्कर में पड़ गए। और मजे की बात ये रही कि मोदी को मुस्लिम बहुल सीटों पर वोट भी भरपूर मिले। इससे विश्लेषकों की माथापच्ची और बढ़ गई। वे यह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि आखिर इसकी वजह क्या है। इस बीच खुद भाजपा के ही राष्ट्रीय उपाध्यक्ष कलराज मिश्र ने यह कह कर सभी को चौंका दिया है कि गुजरात में मुसलमानों ने भी नरेंद्र मोदी को वोट दिया, क्योंकि इसके पीछे उनका डर व लालच था। डर इस बात का कि वे मोदी के खिलाफ जाकर उनकी आंखों की किरकिरी नहीं बनना चाहते थे और लालच था विकास का।
इंडो-एशियन न्यूज सर्विस को दिए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि मुसलमानों ने मोदी को ही वोट दिया, क्योंकि उन्हें लगा कि मोदी की ही सरकार बननी है तो फिर काहे को उनसे दुश्मनी मोल ली जाए। उनकी इस बात में काफ दम नजर आता है। इसके पीछे एक तर्क भी समझ में आता है। वो यह कि मोदी के राज में गिनती के कट्टरपंथी मुसलमानों को उन्होंने कुचल दिया, इस कारण टकराव मोल लेने वाला कोई रहा ही नहीं। रहा सवाल शांतिप्रिय व व्यापार करने वाले अधिकतर मुसलमान का तो उसे तो अमन की जिंदगी चाहिए, फिर भले ही सरकार मोदी ही क्यों न हो। वह यह भी जानता है कि मोदी रहे तो कट्टरपंथी कभी उठ ही नहीं पाएगा, ऐसे में टकराव कौन मोल लेगा। यही सोच कर उन्होंने मोदी को वोट दिया। कदाचित वे यह समझते थे कि अगर कांग्रेस आई तो एक बार फिर तुष्टिकरण के चलते कट्टरपंथी ताकतवर होगा कि उनकी शांतिप्रिय जिंदगी के लिए परेशानी का सबब ही बनेगा। ऐसे में बेहतर यही है कि मोद को वोट दे दिया जाए, ताकि मोदी खुश भी हो जाएं ओर तंग नहीं करें।
मुसलमानों के दमन का आरोप झेल रहे मोदी के लिए यह राहत की बात रही कि एक भी मुसलमान को टिकट नहीं देने के बाद भी मुसलमानों ने उनका समर्थन किया। शायद इसी वजह से उन्होंने अपनी जीत के बाद आयोजित सबसे पहली सभा में इशारों ही इशारों में मुसलमानों से उन्हें हुई किसी भी प्रकार की तकलीफ के लिए माफी मांग ली।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, दिसंबर 20, 2012

बसपा फिर कर रही है राजस्थान में चुनाव की तैयारी

हालांकि पिछले विधानसभा चुनाव के बाद राजस्थान के सभी बसपा विधायकों के कांग्रेस में शामिल होने से बसपा को बड़ा भारी झटका लगा था, मगर अपने वोट बैंक के दम पर बसपा ने फिर से चुनाव मैदान में आने की तैयारियां शुरू कर दी हैं। बसपा सुप्रीमो मायावती को उम्मीद है कि पदोन्नति में आरक्षण के लिए सतत प्रयत्नशील रहने के कारण बसपा के वोट बैंक में और इजाफा होगा, जिसे वे किसी भी सूरत में गंवाना नहीं चाहेंगी।
असल में बसपा ने अपना जनाधार तो बसपा के संस्थापक कांशीराम के जमाने में ही बना लिया था और कांगे्रेस से नाराज अनुसूचित जाति अनेक मतदाता बसपा के साथ जुड़ गए थे। स्वयं कांशीराम ने भी भरपूर कोशिश की, मगर अच्छे व प्रभावशाली प्रत्याशी नहीं मिल पाने के कारण उन्हें कुछ खास सफलता हासिल नहीं हो पाई। इसके बाद भी बसपा सक्रिय बनी रही और उसे पिछले चुनाव में छह विधायक चुने जाने पर उल्लेखनीय सफलता हासिल हुई। मगर मायावती के उत्तरप्रदेश में व्यस्त होने के कारण वे राजस्थान में ध्यान नहीं दे पाईं। नतीजतन पार्टी के सभी छहों विधायक कांग्रेस में शामिल हो गए और पार्टी को एक बड़ा झटका लग गया। असल में बसपा का मतदाता आज भी मौजूद है, मगर पार्टी को कोई दमदार राज्यस्तरीय चेहरा नहीं मिल पाने के कारण संगठनात्मक ढ़ांचा बन नहीं पा रहा। समझा जाता है कि उत्तरप्रदेश में सत्ता गंवाने के बाद मायावती ने राजस्थान पर भी ध्यान देना शुरू कर दिया है। इस बार उन्हें कोई दमदार चेहरा यहां मिल पाता है या नहीं, ये तो वक्त ही बताएगा, मगर इतना जरूर तय है कि पार्टी पूरे जोश-खरोश से एक बार फिर चुनाव मैदान में जरूर उतरेगी। लक्ष्य यही है कि किसी भी प्रकार दस-बीस सीटें हासिल कर ली जाएं, ताकि बाद में सरकार के गठन के वक्त नेगासिएशन किया जा सके।
हालांकि अभी राजस्थान में बसपा की कोई गतिविधियां नहीं हैं, मगर उसका जनाधार तो है ही। वस्तुत: बसपा अपनी वोट बैंक की फसल को ठीक से काट नहीं पा रही है। बसपा का राजस्थान में कितना जनाधार है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले चुनाव में बसपा ने 199 प्रत्याशी मैदान में उतारे थे, जिनमें से 53 सीटें ऐसी थीं, जिनमें बसपा ने 10 हजार से अधिक वोट हासिल किए थे। छह पर तो बाकायदा जीत दर्ज की और बाकी 47 सीटों पर परिणामों में काफी उलट-फेर कर दिया।
बेशक बसपा राजस्थान में अभी तीसरा विकल्प नहीं बन पाई है, मगर उसका ग्राफ धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है। आपको ख्याल होगा कि बसपा ने राजस्थान में 1998 में खाता खोला था। तब पार्टी के 110 में से 2 प्रत्याशी बानसूर से जगत सिंह दायमा और नगर से मोहम्मद माहिर आजाद जीते थे। इसके बाद 2003 में 124 प्रत्याशी मैदान में उतरे थे, उनमें से बांदीकुई से मुरारीलाल मीणा और करौली से सुरेश मीणा विधानसभा पहुंचे। इसी प्राकर 2008 में 199 प्रत्याशियों में से 6 ने जीत दर्ज कर जता दिया कि बसपा धीरे-धीरे ही सही, तीसरे विकल्प की ओर बढ़ रही है। हालांकि उसके सभी विधायक कांग्रेस में चले गए, मगर इससे उसके वोट बैंक पर कोई असर पड़ा होगा, ऐसा समझा जाता है। प्रसंगवश बता दें कि 2008 में नवलगढ़ से राजकुमार शर्मा, उदयपुरवाटी से राजेन्द्र सिंह गुढ़ा, बाडी से गिर्राज सिंह मलिंगा, सपोटरा से रमेश, दौसा से मुरारीलाल मीणा और गंगापुर से रामकेश ने जीत दर्ज की थी। इसके अतिरिक्त दस सीटों सादुलपुर, तिजारा, भरतपुर, नदबई, वैर, बयाना, करौली, महवा, खींवसर और सिवाना पर कड़ा संघर्ष करते हुए दूसरा स्थान हासिल किया था। वोटों के लिहाज से देखें तो पार्टी को सादुलपुर व करौली में चालीस हजार से ज्यादा वोट मिले। इसी प्रकार नदबई, खींवसर, हनुमानगढ़ व लूणी में तीस हजार से ज्यादा वोट मिले। तिजारा, भरतपुर, वैर, बयाना, महवा, सिवाना, करनपुर, रतनगढ़, सूरजगढ़, मंडावा, अलवर ग्रामीण, धौलपुर, मकराना, पीपलदा सूरतगढ़, संगरिया व हिंडौन में बीस हजार से ज्यादा वोट हासिल किए। कुल मिला आंकड़े यह साफ जाहिर करते हैं कि यहां बसपा का उल्लेखनीय जनाधार तो है, बस उसे ठीक मैनेज कर सीटों में तब्दील करने के लिए रणनीति बनाई जाए। जानकारी के अनुसार इस बार खुद मायावती इस ओर ध्यान दे रही हैं। उनकी रणनीति क्या होगी, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा।
-तेजवानी गिरधर