तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

शुक्रवार, अक्टूबर 19, 2012

खुद अंजलि का घर शीशे का, पत्थर मारने चली


एक कहावत है कि जिनके खुद के घर शीशे के होते हैं, वे दूसरों के शीशे के घरों पर पत्थर नहीं मारा करते। लगता है ये कहावत बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकरी पर किसानों की जमीन हड़पने का आरोप लगाने वाली अंजलि दमानिया ने नहीं सुनी है। तभी तो केजरीवाल को बेवकूफ बना कर किए गए हवन उनके हाथों पर भी आंच आने लगी है। ये बात दीगर है कि अंजलि ये कह कर अपना पिंड छुड़वा रही हैं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद करने की वजह से उन्हें निशाना बनाया जा रहा है।
आपको याद होगा कि जब केजरवाली व दमानिया प्रेस कांफ्रेंस कर रहे थे तो टीम अन्ना की एक महिला कार्यकर्ता ने दमानिया पर सवाल उठाया था, मगर शोरगुल में वह खो गया। उस वक्त भले ही मामला दब गया हो, मगर बात चली तो दूर तक जाएगी। केजरीवाल भी सोच रहे होंगे कि बिना मामले की जांच किए दमानिया के चक्कर में अपनी क्रेडिट खराब करवा ली।
बताते हैं कि दमानिया ने खेती की जमीन खरीदने के लिए खुद को गलत तरीके से किसान साबित किया और बाद में जमीन का लैंड यूज बदलवा कर उसे प्लॉट में तब्दील कर बेच दिया। रायगढ़ प्रशासन ने जांच में पाया कि अंजलि दमानिया का किसान होने का दाव गलत है। बताते हैं कि दमानिया एसवीवी डेवलपर्स की डायरेक्टर भी हैं। जिस जगह उन्होंने गडकरी पर जमीन हड़पने का आरोप लगाया है, उसी के आसपास दमानिया की भी 30 एकड़ जमीन है। दमानिया ने 2007 में करजत तालुका के कोंडिवाडे गांव में आदिवासी किसानों से उल्हास नदी के पास जमीनें खरीदीं। आदिवासियों से जमीन खरीदने की शर्त पूरी करने के लिए उन्होंने नजदीक के कलसे गांव में पहले से किसानी करने का सर्टिफिकेट जमा किया। अपनी 30 एकड़ की जमीन के पास ही दमानिया ने 2007 में खेती की 7 एकड़ जमीन और खरीदी थी, जिसका लैंड यूज बदल कर उन्होंने बेच दिया। करजत के दो किसानों से उन्होंने जमीन लेते वक्त खेती करने का वादा किया था, लेकिन बाद में उस जमीन पर प्लॉट काटकर बेच दिए। बताते हैं कि पहले दमानिया और गडकरी के बीच अच्छे ताल्लुकात थे, लेकिन प्रस्तावित कोंधवाने डैम में पड़ रही 30 एकड़ जमीन बचाने में गडकरी से भरपूर मदद न मिलने की वजह से वह बीजेपी अध्यक्ष के खिलाफ मोर्चा खोल बैठीं। सवाल ये है कि जो दमानिया गडकरी के विकिट उड़ाने तक तो उतारू हो गई, लेकिन उनकी नैतिकता उस समय कहां थी जब उन्होंने अपनी जमीन बचाने के लिए आदिवासियों की जमीनें अधिग्रहित करने की मांग की।

गुरुवार, अक्टूबर 18, 2012

जेठमलानी पहले भी दिखा चुके के बगावती तेवर


एक ओर जहां अरविंद केजरीवाल की ओर से भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी पर सीधा हमला किए जाने पर पूरी भाजपा उनके बचाव में आ खड़ी हुई है, वहीं भाजपा कोटे से राज्यसभा सांसद बने वरिष्ठ वकील राम जेठमलानी ने अलग ही सुर अलापना शुरू कर दिया। लंदन में एक चैनल से उन्होंने कहा कि यदि केजरीवाल के आरोप सही हैं तो गडकरी को पद छोड़ देना चाहिए। वे इतने पर भी नहीं रुके और बोले कि भाजपा अध्यक्ष रहते हुए गडकरी द्वारा लिए गए गलत फैसलों के सबूत मैं भी पेश करूंगा। जेठमलानी की यह हरकत पहली नहीं है। इससे पहले भी वे कई बार पार्टी के खिलाफ मोर्चा खोल चुके हैं। ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि आखिर ऐसी क्या वजह रही कि उन्हें उनके बगावती तेवर के बाद भी राजस्थान के किसी और नेता का हक मार पर पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा के दबाव में राज्यसभा बनवाया गया? ऐसा प्रतीत होता है कि सुप्रीम कोर्ट के नामी वकील राम जेठमलानी भारतीय जनता पार्टी के गले की फांस साबित हो गए हैं, तभी तो उनकी पार्टी अध्यक्ष विरोधी टिप्पणी के बाद भी सारे नेताओं को सांप सूंघे रहा।
आपको याद होगा कि जब वसुंधरा जेठमलानी को राज्यसभा चुनाव के दौरान पार्टी प्रत्याशी बनवा कर आईं तो भारी अंतर्विरोध हुआ, मगर वसुंधरा ने किसी की न चलने दी। इतना ही नहीं विधायकों पर अपनी पकड़ के दम पर वे उन्हें जितवाने में भी कामयाब हो गईं। तभी इस बात की पुष्टि हो गई थी कि जेठमलानी के हाथ में जरूर भाजपा के बड़े नेताओं की कमजोर नस है। भाजपा के कुछ नेता उनके हाथ की कठपुतली हैं। उनके पास पार्टी का कोई ऐसा राज है, जिसे यदि उन्होंने उजागर कर दिया तो भारी उथल-पुथल हो सकती है। स्पष्ट है कि वे भाजपा नेताओं को ब्लैकमेल कर पार्टी में बने हुए हैं। तब यह तथ्य भी उभरा था कि उन्हें टिकट दिलवाने में कहीं ने कहीं गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का हाथ था। कदाचित इसी वजह से जेठमलानी ने हाल ही मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करने तक की सलाह दी है।
यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि जेठमलानी के प्रति आम भाजपा कार्यकर्ता की कोई संवेदना नहीं है। वजह साफ है। उनके विचार भाजपा की विचारधारा से कत्तई मेल नहीं खाते। उन्होंने बेबाक हो कर भाजपाइयों के आदर्श वीर सावरकर की तुलना पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना से की थी। इतना ही नहीं उन्होंने जिन्ना को इंच-इंच धर्मनिरपेक्ष तक करार दे दिया था। पार्टी के अनुशासन में वे कभी नहीं बंधे। पार्टी की मनाही के बाद भी उन्होंने इंदिरा गांधी के हत्यारों का केस लड़ा। इतना ही नहीं उन्होंने संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी नहीं देने की वकालत की, जबकि भाजपा अफजल को फांसी देने के लिए आंदोलन चला रही है। वे भाजपा के खिलाफ किस सीमा तक चले गए, इसका सबसे बड़ा उदाहरण ये रहा कि वे पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतर गए।
आपको बता दें कि जब वे पार्टी के बैनर पर राज्यसभा सदस्य बने तो मीडिया में ये सवाल उठे थे कि क्या बाद में पार्टी के सगे बने रहेंगे? क्या वे पहले की तरह मनमर्जी की नहीं करेंगे? आज वे आशंकाएं सच साबित हो गई हैं। इतना ही नहीं उनकी टिप्पणी का प्रतिकार तक किसी ने नहीं किया। ऐसे में लगता ये है कि पार्टी विथ द डिफ्रेंस और अपने आप को बड़ी आदर्शवादी, साफ-सुथरी और अनुशासन में सिरमौर मानने वाली भाजपा भी अंदर ही अंदर किसी न किसी चक्रव्यूह में फंसी हुई है।
-तेजवानी गिरधर

इतनी जल्दी हवा कैसे निकल गई खेमका की?


कांग्रेस सुप्रीमो श्रीमती सोनिया गांधी के दामाद राबर्ट वाड्रा के मामले में मीडिया के केमरों की चकाचौंध से चुंधियाए वरिष्ठ आईएएस डॉ. अशोक खेमका अपने एक दुस्साहस और बेबाक बयान की वजह से रातों-रात हीरो तो बन गए, मगर जैसे ही उन्होंने धरातल को देखा तो उनकी हवा निकल गई। मुख्यमंत्री की घुड़की और अपने खिलाफ तीन सीनियर अफसरों की जांच कमेटी बैठने के बाद वे घबरा गए और मुख्य सचिव पी.के.चौधरी से मिलने के बाद उन्होंने कहा है कि उन्हें बीस साल की नौकरी में हुए चालीसवें तबादले पर अब कोई ऐतराज नहीं है। सवाल ये उठता है कि जिन खेमका पर अरविंद केजरीवाल की छाया आ जाने का आभार हुआ था, वे यकायक पलटी कैसे खा गए?
कानाफूसी है कि तबादला आदेश मिलने के बाद जोश में आ कर उन्होंने वाड्रा-डीएलएफ डील को रद्द तो कर दिया, मगर बाद में उन्हें ख्याल आया कि वे ऐसा नहीं कर सकते थे। तबादला आदेश मिलने के बाद व रिलीव होने से ठीक पहले इतना महत्वपूर्ण आदेश जारी करना जाहिर करता है कि उन्होंने ऐसा दुर्भावना से किया, जिसकी जांच पर वे फंस जाते, सो बेकफुट पर आना ही मुनासिब समझा।
लोग समझ रहे थे कि खेमका बड़े दिलेर अफसर हैं, पर वे असल में थे डरपोक। इस बारे जर्नलिस्ट कम्युनिटी डॉट कॉम में पत्रकार सतीश त्यागी के हवाले से छपा है कि कई साल पहले वे विश्वविद्यालय में रजिस्ट्रार पद पर तैनात थे और तब कुलपति ओ पी कौशिक थे, जिन्होंने खेमका के सारे खम निकल कर सीधा कर दिया था। घायल खेमका ने किसी मित्र के माध्यम से मुझसे संपर्क साधा। उन दिनों मैं अमर उजाला अखबार में था और विश्वविद्यालय मेरी बीट में था। खेमका ने दो घंटे मुझसे कौशिक के खिलाफ जहर उगला लेकिन जब अगले दिन खबर पढ़ी तो शेर से गीदड़ हो गए। कहने लगे कि आखिरकार वीसी मेरे बॉस हैं। उन्होंने मेरे खिलाफ संपादक को पत्र भी लिखा था। इस बार मुझे लगा था कि शायद खेमका शेर हो गए होंगे लेकिन मैं गलत निकला।
मान के चलिए कि खेमका के खिलाफ अब सरकार की जांच कमेटी कुछ नहीं करेगी और वाड्रा के जमीन की जमाबंदी खारिज करने वाला उनका आर्डर पलटता है तो वे भी खामोश रहेंगे। कोर्ट वोर्ट कतई नहीं जाएंगे। उन्हें उनके ताबड़तोड़ तबादलों से सहानुभूति रखने वाली इंडिया अगेंस्ट करप्शन से जुड़ी एक्टिविस्ट डा. नूतन ठाकुर की हाईकोर्ट में उस याचिका या उस के निर्णय से भी कोई लेना देना नहीं है, जिस में प्रशासनिक अधिकारियों के तबादलों बारे कोई नियमावली व मर्यादाएं तय करने का अनुरोध किया गया है। ये तो वही बात हुई न कि मुद्दई सुस्त, गवाह चुस्त।

सोमवार, अक्टूबर 15, 2012

संघ ने बना रखा है वसुंधरा पर दबाव


पिछले दिनों जिस तरह पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे लॉबी व संघ लॉबी के बीच घमासान हुआ और फिर लंबी चुप्पी छा गई तो चाहे वसुंधरा लॉबी ने चाहे मीडिया ने, यह बात फैला कर रखी कि आगामी विधानसभा चुनाव तो वसुंधरा के नेतृत्व में ही होगा, मगर भीतर सुलग रही आग पर किसी की नजर नहीं गई। हाल ही जब विधानसभा चुनाव की तैयारियों को लेकर भाजपा ने कमर कसना शुरू कर दिया है, एक बार फिर यह मसला उठ खड़ा हुआ है। संघ लॉबी के पूर्व मंत्री ललित किशोर चतुर्वेदी व गुलाब चंद कटारिया ने फिर से यह सुर अलापना शुरू कर दिया है कि अभी यह तय नहीं है कि किसके नेतृत्व में चुनाव लड़ा जाएगा। नेतृत्व का मसला पार्टी का संसदीय बोर्ड तय करेगा। इसके विपरीत भाजपा की राष्ट्रीय महासचिव किरण माहेश्वरी का साफ कहना है कि चुनाव तो वसुंंधरा के नेतृत्व में ही होंगे। इस पर कटारिया की प्रतिक्रिया ये है कि कोई नेता अपनी व्यक्तिगत राय दे तो बात अलग है।
ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों पक्ष वस्तुस्थिति जानते हैं, मगर जानबूझ कर नूरा कुश्ती लड़ रहे हैं। चतुर्वेदी व कटारिया भी जानते हैं कि आखिरकार वसुंधरा के नाम पर सहमति देनी ही होगी, मगर अपनी लॉबी के कार्यकर्ताओं का मनोबल न गिरे, इस कारण जानबूझ कर ठहरे पानी में कंकड़ फैंक रहे हैं ताकि विवाद की लहरें उठती रहें। समझा जाता है कि संघ लॉबी आखिर तक वसुंधरा पर दबाव बनाए रखना चाहती है, ताकि टिकटों के बंटवारे में ज्यादा से ज्यादा टिकटें झटकी जा सकें। उधर किरण का बयान इस बात का द्योतक है कि वह बार-बार संघ लॉबी को आइना दिखाना चाहती हैं, ताकि वे ज्यादा न उछलें। जहां तक वसुंधरा का सवाल है, वे भी जानती हैं कि चुनाव तो संघ को साथ ले कर लडऩा होगा, वरना पिछली बार जैसा हाल हो जाएगा। बस उनकी कोशिश ये है कि अपना दबदबा बनाए रख कर अपनी लॉबी के अधिक से अधिक नेताओं को टिकट दिलवाएं जाएं, ताकि चुनाव के बाद संख्या बल के आधार पर वे आसानी से सरकार चला सकें।
अगर हाल ही किरण व कटारिया के परस्पर विरोधी बयानों पर नजर डालें तो लगता है कि इसमें कहीं न कहीं उदयपुर संभाग की राजनीति का भी असर है। दोनों नेताओं की आपसी खींचतान जगजाहिर है। इनमें मनमुटाव का नतीजा पिछले दिनों उस समय देखने को मिला था, जब कटारिया ने मेवाड़ में पार्टी को मजबूत करने के लिए यात्रा निकालने की घोषणा की थी। माहेश्वरी ने पार्टी प्रदेश कार्यालय में कार्यकर्ताओं के माध्यम से यात्रा का विरोध जताया था। इसी यात्रा को लेकर वसुंधरा राजे ने इस्तीफा देने तक की घोषणा कर दी थी। हालांकि दोनों नेता इस मसले पर आपसी विवाद से इंकार कर रहे हैं, मगर धरातल का सच ये है कि दोनों खेमों के कार्यकर्ताओं के बीच तलवारें खिंची हुई हैं। यदि इस ओर हाईकमान ने ध्यान नहीं दिया तो यह भाजपा के लिए घातक साबित हो सकता है।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, अक्टूबर 07, 2012

गुजरात में हिंदूवाद और देश में राष्ट्रवाद, भई वाह


चुनावी सरगरमी की शुरुआत में भारतीय जनता पार्टी एक बार फिर दो राहे पर खड़ी है। पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी के बयान से तो यही साबित होता है। उन्होंने दिल्ली में पार्टी के महिला मोर्चो के एक कार्यक्रम में बोलते हुए कहा है कि उनका दल न तो मुस्लिम विरोधी है और न ही दलितों के खिलाफ, लेकिन उसके विरुद्ध इस मामले पर बहुत दुष्प्रचार हुआ है। उनके इस बयान से साफ जाहिर है कि एक ओर जहां वह गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी जैसे चेहरों के नाम पर हिंदुओं के वोट बटोरना चाहती है, वहीं अपने धर्म और जाति निरपेक्ष स्वरूप की दुहाई देकर मुसलमानों व दलितों के वोटों की अपेक्षा भी रखती है। अपना हिंदूवादी एजेंडा भी साथ रखना चाहती है और मुसलमानों को रिझाना भी। ये दोनों परस्पर विरोधी अपेक्षाएं ही उसे दो राहे पर खड़ा करती हैं।
गडकरी ने जिस प्रकार पार्टी की छवि खराब किए जाने को पार्टी का दुर्भाग्य करार दिया है, उससे जाहिर होता कि उन्हें मुसलमानों व दलितों के वोट न मिलने की बड़ी भारी पीड़ा है। ऐसे में सवाल ये उठता है कि अगर उसे मुसलमानों के वोटों की इतनी ही चिंता है तो क्यों कर मोदी जैसों को फ्रंट फुट पर खड़ा करती है। क्यों कट्टरवादी चेहरे के नाम पर गुजरात में हैट्रिक  बनाना चाहती है। यानि कि गुजरात जीतना है तो पार्टी का चेहरा हिंदूवादी रहेगा और देश जीतना है तो चेहरा धर्म व जाति निरपेक्ष रहेगा। पार्टी जानती है कि अगर प्रधानमंत्री पर काबिज होना है तो उसे अपना हिंदूवादी एजेंडा साइड में रखना होगा। भारतीयता की संकीर्ण परिभाषा वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से अपने जुड़ाव और हिंदुत्व की विचारधारा की वजह से बीजेपी के समर्थकों की संख्या एक वर्ग विशेष से आगे नहीं जा पा रही है और पार्टी को मालूम है कि सिर्फ उनके बल वो सत्ता में नहीं पहुंच सकती है। अकेले अपने दम पर सरकार बना नहीं सकती और सहयोगी दलों का पूरा साथ चाहिए तो कट्टरवाद छोडऩे की जरूरत है। बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने तो साफ तौर पर ही कह दिया कि उन्हें उदार चेहरा की स्वीकार्य है। समझा जाता है कि सहयोगी दलों के दबाव की वजह से ही भाजपा को अपनी छवि सुधारने की चिंता लगी है। लेकिन जानकारों का मानना है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी जैसे लोगों के प्रधानमंत्री की रेस में शामिल होने और पार्टी द्वारा बार-बार उनका बचाव करने जैसे मुद्दों की वजह से बीजेपी के लिए अपनी छवि में बदलाव लाने की कोशिश किसी कारगर मोड़ पर नहीं पहुंचेगी।
जहां तक उसके दलित विरोधी होने का सवाल है, असल में ऐसा इस वजह से हुआ है क्योंकि भाजपा को ब्राह्मण-बनियों की पार्टी माना जाता है। संघ व भाजपा में ऊंची जातियों का वर्चस्व रहा है। इन ऊंची जातियों ने सैकड़ों साल तक दलितों का दमन किया है। इसी कारण दलित कांग्रेस के साथ जुड़े रहे। बाद में वे जातिवाद व अंबेकरवाद के नाम पर बसपा, सपा जैसी पार्टियों की ओर चले गए। अगर संघ व जनसंघ शुरू से दलितों पर ध्यान देते तो भाजपा का हिंदूवादी नारा कामयाब हो जाता, मगर ऐसा हो न सका। दलित हिंदूवाद की ओर आकर्षित नहीं किए जा सके। और यही वजह है कि अस्सी फीसदी हिंदूवादी आबादी वाले देश में भाजपा का हिंदूवादी कार्ड आज तक कामयाब नहीं हो पाया है। ऐसे में भाजपा को धर्मनिरपेक्षता की याद आ रही है। मगर जानकार मानते हैं कि इससे कुछ खास फायदा होने वाला नहीं है, क्योंकि अधिसंख्य भाजपा कार्यकर्ताओं को मोदी जैसा नेतृत्व पसंद है और इसका इजहार खुल कर हो रहा है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स मोदी के फोटो व नाम से अटी पड़ी हैं। ऐसे में भला मुसलमान कैसे आकर्षित किए जा सकेंगे। जो मुसलमान भाजपा से जुड़ रहे हैं, वे सच्चे मन से भाजपा के साथ नहीं होते, ऐसा खुद हिंदूवादी भाजपा कार्यकर्ता मानते हैं। कुछ मुसलमान शॉर्टकट से नेतागिरी चमकाने के लिए भाजपा के साथ आ रहे हैं, मगर धरातल पर मुसलमान उनके साथ नहीं हैं। वे मुसलमान नेता हाथी के दिखाने वाले दांतों के रूप में दिखाने के काम आते हैं।
कुल मिला कर भाजपा दो राहे पर खड़ी है और समाधान निकलता दिखाई नहीं देता।
-तेजवानी गिरधर

मारवाड़ में तो शौचालय की बड़ी महिमा है


शौचालय को मंदिर से भी ज्यादा पवित्र बताने पर भले ही केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश विवादों में आ गए हों, मगर मारवाड़ में तो शौचालय की उतनी ही अहमियत है, जितनी रमेश ने बखान ही है। इस बात पर आप चौंक गए होंगे कि ऐसा कैसे हो सकता है। मगर ये सच है।
आपको बता दें कि मारवाड़ में एक कहावत है कि सौ ने खुवाया अर एक ने हंगाया को पुन बराबर है। अर्थात सौ भूखे लोगों को खिलाने से जो पुण्य हासिल होता है, उतना ही पुण्य एक आदमी को दीर्घ शंका की सुविधा उपलब्ध करवाने पर मिलता है। ऐसा इसलिए कि आदमी एक वक्त, दो वक्त बिना खाये तो रह सकता है, मगर दीर्घ शंका आने पर आधा घंटा भी नहीं रुक सकता। दीर्घ शंका के बाद मिलने वाली संतुष्टि खाने खाने के बाद की संतुष्टि से भी ज्यादा होती है। भूखे को तो फिर भी कहीं पर भी बैठा कर खिलाया जा सकता है, मगर जिसे दीर्घ शंका करनी हो, उसे तो उपयुक्त स्थान ही उपलब्ध करवाना ही होगा।
इस संदर्भ में अगर रमेश को बयान को लिया जाए तो वह ठीक ही प्रतीत होता है। मंदिर भी तो तभी स्वच्छ रहेंगे न कि जब उपयुक्त व पर्याप्त शौचालय होंगे, जो कि गंदगी को अपने में समेट लेंगे। कदाचित रमेश इसी तरह की बात कहना चाहते हों, मगर मुंह से ऐसा बयान निकल गया, जिसकी मजम्मत होनी ही थी। उनसे गलती ये हो गई कि उन्होंने सीधे सीधे मंदिर की तुलना शौचालय से कर दी, इस पर आपत्ति होना स्वाभाविक ही है। मंदिर के तथाकथित रक्षकों को ये बयान नागवार गुजरना ही था। भला आप मंदिर का अपमान कैसे कर सकते हैं, उसे कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है, यूं भले ही सैकड़ों मंदिर सूने पड़े हों, उनमें पुजारी न हों, तब थोड़े ही मंदिर का अपमान होता है।
-तेजवानी गिरधर

शनिवार, सितंबर 29, 2012

केजरीवाल के हाथों ठगे गए अन्ना हजारे

टीम अन्ना के भंग होने के बाद जिस प्रकार अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल ने अलग-अलग राह पकड़ी है और दोनों के बीच बढ़ते मतभेद खुल कर सामने आ रहे हैं, उससे साफ है कि केजरीवाल ने अन्ना को अपनी ओर से तो उल्लू बनाया ही था। अपने ठगे जाने के बाद धीरे-धीरे अन्ना की पीड़ा बाहर आने लगी है। उन्हें लगता है कि पहले तो केजरीवाल ने उनके कंधों पर सवार हो कर खुद को राष्ट्रीय क्षितिज पर उभारा और अब टीम भग होने के बाद भी वे उनके नाम को भुनाने वाले हैं।
अपने ब्लॉग पर लिखे अन्ना के इस कथन में गहरी व्यथा साफ महसूस की जा सकती है कि सरकार के कई लोग सोचते थे कि टीम अन्ना को कैसे तोड़ें? सरकार के लगातार दो साल प्रयास करने के बावजूद भी टीम नहीं टूटी थी, लेकिन इस वक्त सरकार की कोशिश के बिना ही सिर्फ राजनीति का रास्ता अपनाने से टीम टूट गयी। यह इस देश की जनता के लिए दुर्भाग्य की बात है। शायद टीम टूटने के कारण सरकार के कई लोगों ने खुशी मनाई होगी।
अन्ना को लगता है कि केजरीवाल जो पार्टी बनाने जा रहे हैं, उसमें वे उनके नाम और चेहरे को भुना लेंगे, सो अभी से आगाह कर रहे हैं कि ऐसा न किया जाए। उधर केजरीवाल बड़ी चतुराई से अन्ना को अपने पिता तुल्य बता कर, दिल में बसे होने की बातें करके परोक्ष रूप से उनके नाम का लोगों की भावनाएं भुनाने की कोशिश लगातार जारी रखे हुए हैं। असल में अगर केजरीवाल की पार्टी के प्रत्याशी अन्ना के नाम व फोटो का इस्तेमाल न भी करें तब भी अन्ना की अगुवाई में जुटी कार्यकर्ताओं और समर्थकों की जमात को इस्तेमाल तो करेंगे ही। तस्वीर का एक पहलु ये भी है कि आज अन्ना को लगता है कि उनका चेहरा एक ब्रांड बन गया है तो इसे ब्रांड बनाने का काम टीम अन्ना ने ही किया है। अन्ना हों भले ही कितने ही भले और महान, मगर राष्ट्रीय स्तर पर पुजवाने का काम टीम ने ही किया था। अन्ना में खुद इतनी अक्ल कहां थी।
राजनीतिक दिशा के लिए जिम्मेदार कौन?
देश के उद्धार के लिए दूसरे गांधी के रूप में उभरे अन्ना के आंदोलन को राजनीतिक दिशा किसने दी, इस पर भी दोनों के बीच मतभेद हैं। केजरीवाल का कहना है कि पार्टी बनाने का निर्णय उनका नहीं बल्कि अन्ना हजारे का था। केजरीवाल का कहना है कि पुण्य प्रसून वाजपेयी से बैठक के बाद अन्ना ने राजनीतिक दल बनाने का निर्णय ले लिया था। उन्होंने उसका नाम भी तय कर लिया था-भ्रष्टाचार मुक्त भारत। केजरीवाल का ये कहना है कि अन्ना ने राजनीतिक दल बनाने का मन बनाने के बाद मुझसे पूछा था कि मैं क्या सोचता हूं इस बारे में। यह मेरे लिए चौंकाने वाली बात थी इसलिए मैंने अन्ना से सोचने के लिए थोड़ा समय मांगा था। बाद में मैं भी उनके विचार से सहमत हो गया। पार्टी बनाने पर राय लेने के लिए सर्वेक्षण करवाने का विचार अन्ना हजारे ने स्वयं ही दिया था। दूसरी ओर अन्ना कह रहे हैं कि राजनीति के रास्ते जाने वाला ग्रुप बार बार ये कहता था कि अन्ना कहें तो हम पक्ष और पार्टी नहीं बनायेंगे, लेकिन मेरे पार्टी नहीं बनाने के निर्णय के बावजूद उन्होंने पार्टी बनाने का फैसला लिया। उन्होंने इस बात का भी खंडन किया कि उन्होंने पार्टी बनाने को कहा था।
वस्तुत: अन्ना की मुहिम के राजनीति की ओर अग्रसर होने की वजह मुहिम के आखिरी अनशन के असफला रही। चूंकि टीम अन्ना के कई प्रमुख सदस्यों के आमरण अनशन पर बैठने के बावजूद सरकार ने कोई खैर खबर नहीं ली तो आंदोलन दोराहे पर आ कर खड़ा हो गया। या तो आंदोलन को और लंबा खींच कर केजरीवाल सहित अन्य जानों को खतरे में डाला जाता या आंदोलन को अधर में छोड़ दिया जाता। ये दोनों की संभव नहीं थे, इस कारण स्वयं अन्ना को भी न चाहते हुए तीसरा विकल्प चुनना पड़ा और खुद को ही घोषणा भी करनी पड़ी। इसकी जहां बुद्धिजीवियों ने आलोचना की तो राजनीति की बारीकियों से अनभिज्ञ अंध अन्ना भक्तों ने सराहना। ऐसे में धरातल की सच्चाई समझते हुए अन्ना बिदक गए और केजरीवाल अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते सर्वे के अनुकूल परिणाम का बहाना बना कर राजनीतिक पार्टी बनाने पर अड़ गए।
यहां दिलचस्प बात ये है कि आंदोलन से सच्चे मन से जुड़े कार्यकर्ता अपने आपको ठगा सा महसूस करते हुए भी मन को समझाने के लिए यह कह रहे हैं कि राजनीतिक पार्टी के मुद्दे को लेकर रास्ते भले ही अलग-अलग क्यों न चुन लिए हों परंतु इन दोनों का मकसद तो एक ही है। मगर सच्चाई ये है कि केवल आंदोलन के पक्षधर कार्यकर्ता भी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते केजरीवाल की ओर खिंचे चले जा रहे हैं। उधर अन्ना भी अपना अस्तित्व बरकरार रखने के लिए नए सिरे से कवायद कर रहे हैं।
दोनों धाराओं की सफलता संदिग्ध
जहां तक इन दोनों धाराओं के सफल होने का सवाल है, यह साफ नजर आता है कि अलग अलग होना दोनों के लिए ही घातक रहेगा। अन्ना हजारे केलिए अपना आंदोलन फिर से उरोज पर लाना बेहद मुश्किल काम होगा। कम से कम पहले जैसा ज्वार तो उठने की संभावना कम ही है। रहा सवाल केजरीवाल का तो उनका मार्ग भी बेहद कठिन है। जिस प्रकार की आदर्शवादी बातें कर रहे हैं, उनके चलते उनकी मुहिम धूल में ल_ चलाने जैसी ही होती प्रतीत होती है। वे तब तक कुछ सफलता हासिल नहीं कर पाएंगे, जबकि राजनीतिक हथकंडे नहीं अपनाते, जिनका कि वे शुरू से विरोध करते रहे हैं।
कुल मिला कर कल तक देश की राजनीतिक दशा-दिशा बदलने का दावा करने वाले आज खुद दिशाहीन नजर आ रहे हैं। भोले भाले अन्ना केजरीवल के हाथों ठगे जा चुके हैं। अन्ना को अगर थोड़ा चतुर मान भी लिया जाए तो इस अर्थ में कि जैसे ही उन्हें अपने ठगे जाने का अहसास हुआ, अपने आप को अलग कर लिया। मगर वे उस गन्ने की तरह हो गए हैं, जो कि चूसा जा चुका है।
-तेजवानी गिरधर