तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

गुरुवार, अक्टूबर 31, 2024

मनो संवाद विधि से गीता पर लिखी अनूठी पुस्तक

आपको यह जान कर अचरज हो सकता है कि क्या मनोसंवाद विधि से, पश्यंति वाणी से कोई पुस्तक लिखी जा सकती है। जी हां, अजमेर  के विद्वान श्री शिव शर्मा ने यह उपलब्धि हासिल की है। इस पुस्तक में सूफी संत हजरत हरप्रसाद मिश्रा उवैसी ने गीता के एक श्लोक की 110 पेज में व्याख्या कराई है। प्राचीन ऋषि-मुनियों वाली मनोसंवाद विधि से कराए गए इस कार्य के लिए आपने अपने मुरीद अजमेर के जाने-माने इतिहासविद व पत्रकार श्री शिव शर्मा को माध्यम बनाया।

गीता शास्त्र में दूसरे अध्याय के सर्वाधित चर्चित श्लोक है-

कर्मण्येवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफल हेतुर्भूमा, ते संगोस्तव कर्मणि।

इस एक ही श्लोक में गीता के कर्मयोग का सार निहित है। इसका अर्थ समझने के लिए कर्म के उनतीस रूपों की विवेचना की गई है-स्वकर्म, स्वधर्म, नियतकर्म, अकर्म, विकर्म, निषिद्ध कर्म आदि। आपने स्पष्ट किया है कि कर्म के शास्त्रीय, प्रासंगिक, मनोवैज्ञानिक और परिस्थितिगत व्यावहारिक पक्षों को ज्ञात लेने के बाद ही इस श्लोक के वास्तविक अर्थ को समझा जा सकता है। गुरुदेव ने 22 नवंबर 2008 को महासमाधि ले ली थी और यह कार्य आपने 2011 में करवाया। आपकी रूहानी चेतना के माध्यम बने आपके शिष्य श्री शिव शर्मा ने बताया कि शक्तिपात के द्वारा आपने नाम दीक्षा के वक्त ही मेरी कुंडलिनी शक्ति को आज्ञाचक्र पर स्थित कर दिया था। फिर मेरी आंतरिक चेतना को देह से समेट कर आप इसी जगह चौतन्य कर देते थे। उसी अवस्था में आप इस श्लोक की व्याख्या समझाते थे। यह कार्य पश्यन्ती वाणी के सहारे होता था। वाणी के चार रूप होते हैं-परा यानि जिसे आकाश व्यापी ब्रह्म वाणी जो केवल सिद्ध संत महात्मा सुनते हैं, पश्यन्ति यानि नाभी चक्र में धड़कने वाला शब्द जो आज्ञा चक्र पर आत्मा की शक्ति से सुना जाता है और देखा भी जाता है, मध्यमा यानि हृदय क्षेत्र में स्पंदित शब्द और बैखरी यानि कंड से निकलने वाली वाणी जिसके सहारे में हम सब बोलते हैं। कामिल पूर्ण गुरू हमारे अंतर्मन में पश्यन्ती के रूप में बोलते हैं। गुरुदेव ने मुझ पर इतनी बड़ी कृपा क्यों की, मैं नहीं जानता, किंतु जिन दिनों आप मुझसे यह कार्य करवा रहे थे, उन दिनों ध्यान की खुमारी चढ़ी रहती थी। ध्यान में गीता, मौन में गीता, इबादत में गीता, सत्संग में गीता, अध्ययन में गीता और चिंतन में भी गीता ही व्याप्त रहती थी। बाहरी स्तर पर जीवन सामान्य रूप से चलता रहता था, लेकिन अंतर्मन में गुरु चेतना, गीता शास्त्र और भगवान वासुदेव श्री कृष्ण की परा चेतना धड़कती रहती थी।

हजरत मिश्रा जी ने भगवान श्री कृष्ण के दो बार दर्शन किए थे। उनके दीक्षा गुरू सूफी कलंदर बाबा बादामशाह की भी श्रीकृष्ण में अटूट निष्ठा थी। संभवतः इसीलिए पर्दा फरमाने के बाद भी आपने गीता के इस एक ही श्लोक की विराट व्याख्या वाला लोक कल्याणकारी कार्य कराया है। इस पुस्तक में गुरुदेव ने कहा है कि मनुष्य मन का गुलाम है और गीता इस गुलामी से छूटने की बात करती है। आप कामनाओं के वश में हैं और गीमा इनसे मुक्त होने की राह दिखाती है। आप पर अहंकार हावी है, जबकि गीता इस अहंकार को जड़मूल से उखाड़ फैंकने की बात समझाती है। आप भोग की तरफ भागते हैं, गीता कर्मपथ पर दौड़ाती है। आप स्वर्ग के लिए ललचाते हैं और गीता आपको जन्म-मरण से छुटकारा दिलाने वाले परमधाम तक पहुंचाना चाहती है। इसलिए गीता से भागो मत, उसे अपनाओ, कर्मयोग से घबराओ मत, उसे स्वीकार करो। तुम मोक्षदायी कर्मयोग के पथ पर कदम तो रखो, भगवान स्वयं तुम्हें चलाना सिखा देंगे।

पुस्तक में गुरू महाराज ने कहा है कि मनुष्य को केवल कर्तव्य कर्म करने का अधिकार है। स्वैच्छाचारी कर्म उसका पतन करते हैं। यह पुस्तक अजमेर के अभिनव प्रकाशन ने प्रकाशित की है। इसके बाद नारी मुक्ति से संबंधित अगली पुस्तक में गुरूदेव गीता के ही आधे श्लोक की व्याख्या करा रहे हैं।

लेखक शिव शर्मा स्वभाव से दार्शनिक हैं और अजमेर के इतिहास के अच्छे जानकार हैं। इससे पहले वे अनेक पुस्तकें लिख चुके हैं। उनमें प्रमुख हैं-भाषा विज्ञान, हिंदी साहित्य का इतिहास, ऊषा हिंदी निबंध, केशव कृत रामचन्द्रिका, कनुप्रिया, चंद्रगुप्त, रस प्रक्रिया, भारतीय दर्शन, राजस्थान सामान्य ज्ञान, हमारे पूज्य गुरुदेव, पुष्कर, अध्यात्म और इतिहास, अपना अजमेर, अजमेर - इतिहास व पर्यटन, दशानन चरित, सदगुरू शरणम, मोक्ष का सत्य, गुरू भक्ति की कहानियां।


सोमवार, अक्टूबर 28, 2024

ज्ञानी की छाया नहीं बना करती?

विद्वान कहते हैं कि ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति की छाया नहीं बनती। इस पर सहसा यकीन नहीं होता। भला किसी व्यक्ति की छाया कैसे नहीं बन सकती। धूप के सामने खडे होंगे तो छाया बनेगी ही। अतः कुछ विवेचकों ने इसका अर्थ यह निकाला है कि यह कथन भौतिक नहीं, बल्कि गहन और आध्यात्मिक है, जिसका संबंध आत्मबोध, आत्मज्ञान या आध्यात्मिक जागरूकता से है। अर्थत जब व्यक्ति वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर लेता है, तो वह कर्म बंध व भौतिकता से परे हो जाता है। यह विचार खासकर अद्वैत वेदांत व बौद्ध धर्म से आया हुआ प्रतीत होता है। छाया भौतिक संसार की सीमाओं, माया या अज्ञानता का प्रतीक हो सकती है। जब व्यक्ति ज्ञान के उच्चतम स्तर पर पहुंचता है, तो वह माया या भौतिक बंधनों से मुक्त हो जाता है, और इस कारण उसकी छाया नहीं बनती। छाया का न बनना यह दर्शाता है कि वह व्यक्ति अब आत्मा के शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर चुका है, जो असीम और अप्रभावित है।

छाया का अभाव यह भी इंगित करता है कि उस व्यक्ति में कोई भ्रम या अज्ञानता शेष नहीं रहती, क्योंकि वह अब पूर्ण ज्ञान में है। छाया के मायने हैं संचित कर्म। जो मृत्यु के बाद अगले जन्म में साथ चलते हैं। ज्ञानी चूंकि अनासक्त भाव से कृत्य करता है, इस कारण छाया के रूप में कर्मबंधन बनता ही नहीं। सारे कर्म पानी पर खींची गई रेखा के समान होते हैं। कदाचित कथन भौतिक रूप से सही भी हो। ज्ञातव्य है कि सामुद्रिक षास्त्र में यह मान्यता है कि जब व्यक्ति की मृत्यु निकट होती है तो कर्मों के रूप में संचित छाया आगे की या़त्रा के लिए षरीर से विलग हो जाती है। छाया बनना बंद हो जाती है। इस विचार की रोषनी में यह ठीक प्रतीत होता है कि ज्ञानी की छाया वाकई नहीं बनती हो, क्योंकि उसने कर्मों का संचय किया ही नहीं है।


रविवार, अक्टूबर 27, 2024

उम्र बढानी हो तो रो लीजिए

आपने देखा होगा कि इस जगत में विधवाओं की संख्या अधिक है, जबकि विधुरों की कम। वजह क्या है? वजह ये कि आदमी की उम्र औरत की तुलना में कम होती है। उसकी मूल वजह आदमी का अपेक्षाकृत अधिक तनाव ग्रस्त होना। यह भी कि औरत की सहन षक्ति अधिक होती है, इसलिए वह तनाव को झेल जाती है। इसी कारण यह अवधारणा बनी है कि चूंकि आदमी अमूमन नहीं रोता, इस कारण उसकी उम्र कम होती है, जबकि औरत रोती है, इस कारण उसकी उम्र अधिक होती है। इसके अतिरिक्त पति की मृत्यु के बाद विधवा फिर भी लंबा जी लेती है, जबकि पत्नी की मृत्यु के बाद पति की जीवन कठिन हो जाता है। उसे परिवार का अपेक्षित सहयोग नहीं मिल पाता।

यह एक आम धारणा है कि आदमी को रोना नहीं चाहिए। रोने से उसकी मर्दानगी पर सवाल उठता है। जब कोई लडका रोता है तो यही कहते हैं कि लडकी है क्या, जो रो रहा है। रोती तो लडकियां हैं, लडके नहीं। हालांकि, मौलिक रूप से यह गलत है। रोना एक स्वाभाविक मानवीय भावना है, और इसे व्यक्त करना मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए जरूरी होता है। जानकार तो रोने के भी फायदे गिनाते हैं। रोने से हमारे शरीर से स्ट्रेस हार्मोन (जैसे कि कॉर्टिसोल) कम होते हैं, जिससे तनाव कम होता है और व्यक्ति को मानसिक राहत मिलती है। तभी तो कहते हैं कि रोने से मन हल्का हो जाता है। किसी महिला के पति की मौत हो जाने पर उसे जानबूझ कर रूलाया जाता है, ताकि उसका मन हल्का हो जाए, वह तनाव से मुक्त हो जाए। इसके अतिरिक्त जब हम अपने दुख या भावनाएं व्यक्त करते हैं, तो दूसरों से समर्थन पाने की संभावना बढ़ जाती है, जो कि मानसिक स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद है।

चूंकि आदमी के रोने को मर्दानगी से जोडा जाता है, इस कारण वह सामान्यतः नहीं रोता या अपने आप को रोने से रोक लेता है। रोने को दबाने या भावनाओं को व्यक्त न करने से लंबे समय तक मानसिक तनाव और शारीरिक स्वास्थ्य समस्याओं का कारण बन सकता है, जिससे व्यक्ति की उम्र कम हो जाती है। इसलिए विद्वान सलाह देते हैं कि किसी परेषानी के कारण रोने का मन करे तो रो लेना चाहिए, चाहे अपने किसी अंतरग के सामने, चाहे कमरा बंद कर अकेले में।


शुक्रवार, अक्टूबर 25, 2024

अंतिम यात्रा में शव की दिशा क्यों बदल दी जाती है?

आपको जानकारी होगी कि षव यात्रा के दौरान आरंभ में मृतक का सिर आगे रखा जाता है, फिर आधे रास्ते में दिषा बदल दी जाती है और पैर आगे कर दिए जाते हैं। क्या आपको ख्याल है कि ऐसा क्यों किया जाता है?

षव यात्रा के दौरान मृतक के सिर की दिशा में बदलाव एक प्राचीन परंपरा और धार्मिक मान्यता का हिस्सा है, जो विभिन्न सांस्कृतिक और धार्मिक संदर्भों में महत्वपूर्ण है।

ऐसी मान्यता है कि मृतक की आत्मा को उसकी अंतिम यात्रा में सम्मानजनक तरीके से विदा किया जाना चाहिए। शव को आरंभ में सिर आगे करके ले जाना इस बात का प्रतीक है कि मृतक अभी भी परिवार और समाज के बीच है। आधे रास्ते में पैर आगे करके शव को ले जाने का अर्थ यह है कि अब वह दुनिया से विदा हो रहा है, संसार के कर्तव्यों से मुक्ति पा ली है और उसे अंतिम विश्राम स्थल की ओर ले जाया जा रहा है। रास्ते के बीच में चबूतरा होता है, जहां षव की दिषा बदल जाती है। दिषा बदलने से मृतात्मा का जगत से संबंध टूटता है। तब उसे अहसास होता है कि अब जगत से नाता टूट रहा है और उसकी यात्रा परलोक की ओर है।


गुरुवार, अक्टूबर 24, 2024

क्या आदमी का क्लोन बनाया जा सकता है?

वैज्ञानिकों का मानना है कि आदमी का क्लोन बनाया तो जा सकता है, वर्तमान में तकनीकी रूप से इंसान का पूर्ण क्लोन बनाना संभव नहीं है। एक तो एक तो नैतिक व कानूनी बाधाओं के कारण मानव का क्लोन बनाने पर वैष्विक प्रतिबंध है। दूसरा क्लोनिंग अब तक इंसानों के लिए सफल या सुरक्षित साबित नहीं हुई है।

हालांकि, वैज्ञानिकों ने कुछ हद तक क्लोनिंग की तकनीकों का विकास किया है, जैसे कि जानवरों की क्लोनिंग। 1996 में भेड़ डॉली को सफलतापूर्वक क्लोन किया गया था, जो कि एक बडी उपलब्धि थी।

क्लोनिंग के दो प्रमुख प्रकार होते हैं- एक थेराप्यूटिक क्लोनिंग, इसमें स्टेम सेल्स का उपयोग किया जाता है ताकि किसी व्यक्ति के अंग या ऊतक की मरम्मत या प्रतिस्थापन किया जा सके। दूसरा रीप्रोडक्टिव क्लोनिंग, यह उस प्रक्रिया को संदर्भित करता है, जिसमें एक संपूर्ण जीव का क्लोन बनाया जाता है। लेकिन 

यह एक बहुत ही जटिल और जोखिम भरी प्रक्रिया है, जिसमें स्वास्थ्य से जुड़ी गंभीर चिंताएं हैं।

रविवार, अक्टूबर 20, 2024

गंगा नदी में नहाने से पाप धुल जाते हैं?

 मान्यता है कि गंगा नदी में नहाने से पाप धुल जाते हैं। जो भी बुरे कर्म किए हैं, उनसे मुक्ति मिल जाती है। बेषक गंगा में नहाने से पुण्य तो मिल सकता है, नई उर्जा का संचार तो हो सकता है, मगर किए हुए कर्मों से मुक्ति कैसे मिल सकती है, जबकि सिद्धांत यह है कि आदमी को कर्मों का फल भोगना ही होता है, तत्काल या देर से। आप देखिए न, अपने कर्मों के फल से तो गंगा के पुत्र भीष्म भी नहीं बच पाए थे। उन्हें भी षर षैया पर लेटना पडा था। गंगा स्वयं अपने पुत्र तक को कर्म के बंधन से मुक्त नहीं कर पाई थी। असल में होना यह चाहिए कि हम बुरे कर्म करें ही नहीं कि पाप धोने के लिए गंगा में स्नान करना पडे। मगर हम बहुत चालाक हैं, पहले बुरे कर्म धडल्ले से करते हैं और फिर पाप धोने के लिए गंगा नहाने चले जाते हैं।

शुक्रवार, अक्टूबर 18, 2024

भगवान के दाढ़ी-मूंछ क्यों नहीं होती है?


आपने देखा होगा कि देवी-देवताओं से इतर जितने भी महामानव हुए हैं, जिन्हें कि हम भगवान मानते हैं, उनके चित्रों व मूर्तियों में चेहरों पर दाढ़ी-मूंछ नहीं होती। इसमें भी किंचित अपवाद हो सकता है, मगर क्या आपने कभी सोचा है कि ऐसा क्यों है? भगवान कहे जाने वाले राम, कृश्ण, महावीर व बुद्ध के दाढी मूंछ क्यों नहीं होती? आइये, समझने की कोषिष करते हैं कि आखिर ऐसा क्यों है-

भगवान के दाढी मूंछ क्यों नहीं होती, इस गुत्थी को समझने से पहले भगवान शब्द पर आते हैं। इसकी अलग-अलग तरह से व्याख्या हुई है। जैसे जिसके पास धन है, उसे धनवान कहते हैं, उसी प्रकार जिसके पास भग है, वह भगवान है। भग अर्थात योनि। अर्थात प्रकृति। जो आदि शक्ति भगवति से युक्त है, वह भगवान है। वह पूर्ण है। हमारी संस्कृति में अर्धनारीश्वर का जिक्र आता है। उसका मतलब है, जो पुरुष व नारी के समान भाग से मिल कर बना है।

एक व्याख्या ये है कि साकार भगवान, निराकार ईश्वर का ही अवतार है, जैसे श्रीराम व श्रीकृष्ण। इसी प्रकार महावीर व बुद्ध को भी भगवान की श्रेणी में गिना जाता है। वो इसलिए कि महावीर ने केवल्य ज्ञान अर्जित किया और बुद्ध ने बुद्धत्व। इन दोनों के बारे में मान्यता है कि वे मोक्ष को प्राप्त हो गए। वे पूर्णता को प्राप्त हो गए। जन्म-मरण के चक्र से मुक्त।

अब तथ्य की बात, जिसे कि विज्ञान भी मानता है। वो यह कि हर मनुष्य, चाहे वह नर हो या नारी, वह पुरुष व स्त्री, दोनों के ही गुणों से युक्त होता है, क्योंकि उसकी संरचना ही स्त्री व पुरुष के संयोग से हुई है। अंतर सिर्फ गुणसूत्रों का है। अगर पुरुष के गुणसूत्र अधिक हैं तो वह पुरुष के रूप में पैदा होता है और अगर स्त्री के गुणसूत्र अधिक हैं तो उसका जन्म नारी रूप में होता है। हर पुरुष में नारी के भी गुण होते हैं और हर स्त्री में पुरुषों के भी गुण होते हैं। आपने देखा होगा कि कुछ स्त्रियों में जन्म के बाद किन्हीं करणों से पुरुषों के गुण ज्यादा हो जाते हैं तो वह पुरुषों की तरह व्यवहार करती हैं। इसी प्रकार जिन पुरुषों में स्त्रियोचित गुण विकसित हो जाते हैं तो वे स्त्रैण कहलाते हैं। स्त्रैणता का सबसे अनूठा उदाहरण स्वामी रामकृष्ण परमहंस को माना जाता है। वे देवी के उपासक थे। वे देवी में इतने लीन हो गए कि उनका शरीर भी स्त्रैण हाने लगा। बताते हैं कि जीवन के आखिरी वर्षों में उनके स्तन उभरने लगे थे। जहां तक प्राकृतिक विकृति का सवाल है गुण सूत्रों के असंतुलन के परिणाम स्वरूप मनुष्य किन्नर रूप में जन्म लेता है। हालांकि किन्नरों में भी नर-मादा का विभेद है, लेकिन आम तौर पर आपने देखा होगा कि किन्नर की आवाज पुरुषों की तरह मोटी होती है, मगर चेहरे पर दाढ़ी-मूंछ नहीं आती। व्यवहार पुरुषों की तरह, मगर चाल-ढ़ाल स्त्रियों की तरह।

यह भी एक तथ्य है कि पुरुषों के चेहरे पर दाढ़ी व मूंछ के रूप में बाल होते हैं, जबकि स्त्रियों में ऐसा नहीं होता। कई बार ऐसा पाया गया है कि जो भी स्त्री पुरुषोचित व्यवहार करती है तो उसके भी पुरुषों की तरह चेहरे पर बाल आने लगते हैं। ऐसे भी प्रमाण हैं कि बहुत अधिक उम्र होने पर महिलाओं में गुण सूत्रों का, हारमोन्स का असंतुलन होता है और उनके दाढ़ी-मूंछ आने लगती है।

अब बात मुद्दे की। कोई भी पुरुष पूर्णता को उपलब्ध होता है, अर्थात भगवान की श्रेणी में आता है, तब उसमें पुरुष व स्त्री के गुण समान होते हैं। इसी कारण उसके चेहरे पर बाल नहीं होते। आपने भगवान राम, भगवान कृष्ण, भगवान महावीर, भगवान बुद्ध के जितने भी चित्र या मूर्तियां देखी होंगी, उनमें उनके दाढ़ी-मूंछ नजर नहीं आई होगी। वजह क्या है? क्या वे रोजाना शेव करते थे? इसका जिक्र शास्त्रों में तो कहीं पर भी नहीं है। अर्थात उनके चेहरे पर बाल आते ही नहीं थे? और वजह थी पूर्ण अवस्था। जितना पुरुष, उतनी ही स्त्री। हालांकि यह भी पक्का नहीं है कि वस्तुस्थिति क्या रही होगी, मगर कुछ तथ्यों के आधार पर ऋषि-मुनियों ने जैसा वर्णन किया, उसी के अनुरूप चित्र व मूर्तियां बना दी गईं। 

ऐसी भी मान्यता है कि भगवान सदा किशोर और अमूर्त है। किशोरावस्था दाढ़ी पैदा होने से पहले की अवस्था है। भरपूर यौवन, प्रखर ओज। इसी आधार पर हमने भगवान की परिकल्पना किशोर के रूप में की। किशोरावस्था को ध्यान में रख कर ही मन्दिरों में मूर्तियां रची गईं। यही वजह है कि उनके चेहरे पर दाढ़ी-मूंछ नहीं दर्शाई गई है।

प्रसंगवश आखिर में भगवान की भिन्न-भिन्न व्याख्याओं पर आते हैं। भगवान शब्द में युक्त भग का अर्थ कामना व भाग्य भी होता है। भग से तात्पर्य प्रकृति या भौतिक संसार से है, अर्थात जो सभी भौतिक आनंदों, कामनाओं और भाग्य को धारणा करने वाला गर्भ है, वह भगवान है। राम व कृष्ण को हम अवतार की श्रेणी में मानते हैं, मगर चूंकि उन्होंने शरीर धारण किया है, इस कारण इस भौतिक संसार से बंधे हुए हैं। उनके जीवन में भी वैसे ही सुख-दुख आए, जैसे कि सामान्य मानव के आते हैं। भगवान का अर्थ जितेंद्रिय भी माना जाता है। इंद्रियों को जीतने वाला। जिसने पांचों इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है तथा जिसकी पंच तत्वों पर पकड़ है, उसे भगवान कहते हैं। जैसे महावीर व बुद्ध। जितेन्द्रिय यानि वह जो पूर्णता को, मोक्ष को प्राप्त हो चुका है और जो जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो गया हो, वही भगवान है। एक और व्याख्या में बताया गया है कि भग यानि ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य, ये छह गुण अपनी समग्रता में जिसमें हों, उसे भगवान कहते हैं। 

गुरुवार, अक्टूबर 03, 2024

जेनेरिक दवाओं की गुणवत्ता पर अब भी संशय क्यों?

राजस्थान में निःशुल्क जेनेरिक दवा योजना के प्रणेता डॉ समित शर्मा ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधीजी की जयंती पर 13 वर्ष पूर्व राजस्थान राज्य के समस्त राजकीय चिकित्सा संस्थानो में आने वाले प्रत्येक रोगी के लिए जेनेरिक मेडिसिन के ड्रीम प्रोजेक्ट के तहत ’निशुल्क दवा योजना’ आरंभ करने के बारे में अपने फेसबुक अकाउंट पर उद्गार व्यक्त किए हैं। उन्होंने लिखा है कि राजस्थान मेडिकल सर्विसेज कॉरपोरेशन एवं चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग की कर्तव्यनिष्ठ और समर्पित टीम ने अनेक बाधाओं और चुनौतियां से लड़ते हुए इसे धरातल पर उतारा, उस विजयी टीम का भी बहुत-बहुत आभार। इतने वर्षों से हमारे सेवाभावी चिकित्सक बंधु, फार्मासिस्ट, नर्सिंग कर्मी आदि अनवरत अनेक रोगियों के दुख, दर्द और कष्टों को दूर करने व उनकी जान बचाने का पुण्य कार्य इसके माध्यम से कर है। उन सब की मेहनत और कर्तव्य निष्ठा को कोटि-कोटि प्रणाम।

बेशक डॉ शर्मा के प्रयासों से मेडिसिन के क्षेत्र में युगांतरकारी परिवर्तन किया जा सका है। वे कोटि कोटि साधुवाद के पात्र हैं। लाभान्वितों की संख्या भी निरंतर बढ रही है, मगर आज भी जेनेरिक दवाओं पर पूर्ण विश्वास कायम नहीं किया जा सका है। आज भी यह धारणा समाप्त नहीं की जा सकी है कि जेनेरिक दवाएं गुणवत्ता की दृश्टि से कमतर हैं। अतः इस महत्वाकांक्षी व बहुउपयोगी योजना की पूर्ण सफलता के लिए गुणवत्ता कायम रखने के कडे उपाय किए जाने चाहिए। 


जेनेरिक दवाओं की गुणवत्ता पर अब भी संशय क्यों?

राजस्थान में निःशुल्क जेनेरिक दवा योजना के प्रणेता डॉ समित शर्मा ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधीजी की जयंती पर 13 वर्ष पूर्व राजस्थान राज्य के समस्त राजकीय चिकित्सा संस्थानो में आने वाले प्रत्येक रोगी के लिए जेनेरिक मेडिसिन के ड्रीम प्रोजेक्ट के तहत ’निशुल्क दवा योजना’ आरंभ करने के बारे में अपने फेसबुक अकाउंट पर उद्गार व्यक्त किए हैं। उन्होंने लिखा है कि राजस्थान मेडिकल सर्विसेज कॉरपोरेशन एवं चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग की कर्तव्यनिष्ठ और समर्पित टीम ने अनेक बाधाओं और चुनौतियां से लड़ते हुए इसे धरातल पर उतारा, उस विजयी टीम का भी बहुत-बहुत आभार। इतने वर्षों से हमारे सेवाभावी चिकित्सक बंधु, फार्मासिस्ट, नर्सिंग कर्मी आदि अनवरत अनेक रोगियों के दुख, दर्द और कष्टों को दूर करने व उनकी जान बचाने का पुण्य कार्य इसके माध्यम से कर है। उन सब की मेहनत और कर्तव्य निष्ठा को कोटि-कोटि प्रणाम।

बेशक डॉ शर्मा के प्रयासों से मेडिसिन के क्षेत्र में युगांतरकारी परिवर्तन किया जा सका है। वे कोटि कोटि साधुवाद के पात्र हैं। लाभान्वितों की संख्या भी निरंतर बढ रही है, मगर आज भी जेनेरिक दवाओं पर पूर्ण विश्वास कायम नहीं किया जा सका है। आज भी यह धारणा समाप्त नहीं की जा सकी है कि जेनेरिक दवाएं गुणवत्ता की दृश्टि से कमतर हैं। अतः इस महत्वाकांक्षी व बहुउपयोगी योजना की पूर्ण सफलता के लिए गुणवत्ता कायम रखने के कडे उपाय किए जाने चाहिए। 


रिटायर्ड कर्मचारी की उम्र कम हो जाती है?

एक सर्वे के मुताबिक जो कर्मचारी अस्सी साल जी सकता था, रिटायर होने के कारण सत्तर साल में ही मर जाता है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार कर्मचारी रिटायरमेंट के बाद काम के अभाव में धीरे धीरे अकर्मण्य होने लगता है, जिससे उसका मानसिक स्वास्थ्य बिगडने लगता है। उसका प्रभाव शारीरिक स्वास्थ्य पर भी पडता है और उसे बीमारियां घेरने लगती हैं। वस्तुतः सरकार की ओर से रिटायरमेंट की तय आयु के बाद भी अनेक कर्मचारी काम करने में सक्षम होते हैं। हठात उनसे काम छीन लिया जाता है। जैसा जिसका ओहदा व वर्चस्व होता है, वह खो जाता है, इस कारण उसकी आत्मशक्ति क्षीण होने लगती है। बेशक बेरोजगारी के दौर में नई पीढी को रोजगार देने के लिए कर्मचारियों को रिटायर करना भी जरूरी है, मगर उसकी वजह से जो कर्मचारी अभी सक्षम हैं, उनकी शक्ति को यूं ही व्यर्थ गंवाना भी उचित प्रतीत नहीं होता। ऐसे में होना यह चाहिए कि जिन कर्मचारियों की उत्पादकता व उपयोगिता शेष है, उसका उपयोग करने के उपाय किए जाने चाहिए। कदाचित उनकी उत्पादकता कम हो सकती है, मगर उनके अनुभव का लाभ लिया जाना चाहिए। नई पीढी की कर्मशीलता का उपयोग भी जरूरी है, इसके लिए रोजगार के नए उपाय तलाशे जाने चाहिए।


बुधवार, अक्टूबर 02, 2024

आदमी के स्तन क्यों होते हैं?

क्या आपके दिमाग में कभी यह सवाल आया है कि आदमी के स्तन क्यों होते हैं? उनका क्या उपयोग है? चलो, औरतों को तो इसलिए होते हैं कि क्योंकि जब वह बच्चे को जन्म देती है तो उसके पोषण के लिए प्रकृति उनमें दूध उत्पन्न करती है, मगर आदमी के स्तन तो किसी भी काम के नहीं। आदमी का एक यही अंग ऐसा है, जिसका ताजिंदगी कोई उपयोग नहीं होता। आम तौर पर आदमी में ये अविकसित व सुप्त अवस्था में ही होते हैं। किसी-किसी के बड़े भी हो जाते हैं, मगर उनका कोई उपयोग नहीं। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि प्रकृति ने आदमी को स्तन क्यों दिए? आइये, इस सवाल का जवाब तलाषने की कोषिष करते हैंः-

आदमी को स्तन क्यों होते हैं, इस सवाल का जवाब पाने के लिए बहुत प्रयास किए, मगर फिलवक्त तक सटीक उत्तर नहीं मिल पाया है। हां, इतना जरूर समझ आया है कि यह इस बात का प्रतीक हैं कि आदमी में कुछ मात्रा में स्त्रैण हार्माेन भी होते हैं। होंगे ही, क्योंकि मनुष्य की उत्पत्ति स्त्री व पुरुष के मिलन से होती है और हर एक में दोनों के गुणसूत्र विद्यमान होते हैं। बस प्रतिशत का ही फर्क होता है, जिसकी वजह से कोई मेल तो कोई फीमेल पैदा होता है।

खैर, स्तन भले ही दूध की ग्रंथी है, मगर कहीं न कहीं इसका नस-नाडिय़ों के संतुलन से भी संबंध है। जब धरण टल जाती है तो नाड़ी वैद्य एक डोरी लेकर नाभि से पहले एक स्तन की दूरी नापता है और फिर दूसरे की। यदि दोनों की दूरी समान हो तो वह यही बताता है कि धरण नहीं टली है, पेट में दर्द किसी और वजह से है। यदि दूरी में फर्क आता है तो वह कहता है कि धरण टल गई है और झटके दे कर नाडिय़ों को संतुलित करता है। इसका मतलब ये हुआ कि जैसे नाभि पूरे शरीर की नस-नाडिय़ों का केन्द्र स्थान है, वैसे ही स्तन के बिंदु भी कहीं न कहीं नाडिय़ों के संतुलन का हिस्सा हैं।

दूसरी बात ये कि भले ही आदमी के स्तनों में दूध उत्पन्न नहीं होता, मगर हैं तो वे स्तन ही। भले ही सुप्त अवस्था में हों। यह नजरिया तब बना, जब ओशो के एक प्रवचन में यह सुना कि स्वामी रामकृष्ण परमहंस काली माता की भक्ति में इतने लीन हो गए कि जीवन के आखिरी दौर में उनका शरीर स्त्रैण हो गया। उनके स्तन अप्रत्याशित रूप से बढ़ गए व उनमें से दूध टपकने लगा। इसके यही मायने हैं कि पुरुष के शरीर में जो स्तन हैं, वे वाकई स्तन ही हैं, तभी तो स्वामी रामकृष्ण के स्तनों में से दूध आने लगा। 

चूंकि आदमी के स्तन प्रतीकात्मक हैं, इस कारण यदि किसी के स्तन बढ़ जाते हैं तो उसके लिए शर्मिंदगी का कारण बन जाते हैं। विज्ञान की भाषा में बात करें तो असल में यह एक बीमारी है, इसको गाइनेकॉमस्टिया कहते हैं। टेस्टोस्टेरोन या एस्ट्रोजन हार्माेन के असंतुलन के कारण पुरुषों के स्तन बढ़ते हैं।। वैज्ञानिक शोध में यह भी सामने आया है कि लैवेंडर और चाय के पौधों के तेल के कारण युवकों के स्तन असामान्य रूप से बढ़ जाते हैं। इन तेलों में आठ ऐसे केमिकल होते हैं, जो हमारे हार्माेन्स पर प्रभाव डालते हैं। ज्ञाातव्य है कि लैवेंडर और टी ट्री पौधों से जुड़े तेल कई उत्पादों में पाए जाते हैं। साबुन, लोशन, शैम्पू और बाल संवारने वाले उत्पादों में इन तेलों का इस्तेमाल किया जाता है। ऐसा भी पाया गया है कि जिन लोगों ने इन तेलों का इस्तेमाल बंद किया तो उन्हें बढ़ते स्तन को काबू में करने में मदद मिली है।

जानकारी के अनुसार पुरुषों के स्तन बढऩे के मामले बढऩे लगे हैं। उसकी वजह हार्माेनल चैंजेज के साथ जिम जाने वालों में स्टेरॉयड का प्रयोग करने व लाइफ स्टाइल से जुड़े मामले इसके लिए जिम्मेदार हैं।

आखिर में एक रोचक बात। हालांकि ये अपवाद मात्र है, मगर है दिलचस्प। यह एक सामान्य सी बात है कि जो युवती गर्भ धारण करती है तो उसका जी मिचलाने लगता है। यदि यही समस्या पिता बनने वाले युवक के साथ भी हो तो चौंकना स्वाभाविक है। एक खबर के मुताबिक 29 साल के हैरिस ऐशबे की मंगेतर को उनका पहला बच्चा होने वाला था। हैरिस का भी जी मिचलाने लगा। उसके स्तन बढऩे लगे। डॉक्टरों ने बताया कि वह एक तरह के मेडिकल कंडिशन का शिकार हो गया है, जिसे कौवेड सिंड्रोम कहते हैं।