तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

गुरुवार, दिसंबर 19, 2024

अदृश्य शक्तियां किसी के सपने में आ सकती हैं?

बात तकरीबन 1978 की है। उन दिनों मैंने अनेक तांत्रिक प्रयोग किए थे। एक प्रयोग का जिक्र कर रहा हूं। मैं तब लाडनूं में था और निकटवर्ती जसवंतगढ़ में विज्ञान कॉलेज में प्रथम वर्ष मैथ्स का छात्र था। मेरे एक मित्र सी. एल. तिवाड़ी तृतीय वर्ष बायलॉजी में थे। मुझे एक तांत्रिक प्रयोग के लिए श्मशान से ताजा चिता की राख लानी थी। इसका जिक्र मैंने श्री तिवाड़ी से किया तो वे बोले कि वे भी साथ चलना चाहते हैं। मैं उन्हें साथ ले गया। श्मशान में जल कर पूर्ण हुई एक चिता मिल गई, जिसके अंगारे अभी सुलग रहे थे। मैंने उससे तांत्रिक विधि से थोड़ी सी राख ली। श्री तिवाड़ी ने हड्डी का एक टुकड़ा उठाया और बताया कि वह रीड़ की हड्डी का एक गुटखा है, जिसका उन्होंने बायलॉजिकल नाम भी बताया। हम वहां से रवाना हो गए। 

हमें किसी मीटिंग में जाना था, इस कारण हड्डी का टुकड़ा रास्ते में एक मकान की खिड़की पर रख दिया। मीटिंग से लौटने पर हड्डी का वह टुकड़ा मैने ले लिया और घर आ गया। घर में मैने उसे अपनी किताबों के पीछे छुपा कर रख दिया। कुछ दिन बात श्री तिवाड़ी बदहवास से मेरे पास आए और एक अजीब सी बात बताई। उन्होंने बताया कि उनके एक मित्र जनाब अजीज खान, जो कि उनके क्लास फैलो हैं, को एक सपना आया है। सपने में उन्होंने चिता से राख लाने की घटना को क्रमवार देखा है। उन्होंने बताया कि वह चिता किसी साध्वी की थी। 

                             उन्होंने चौंकाने वाली बात ये भी बताई कि साध्वी की आत्मा ने मेरे किताबों पीछे छुपी हड्डी गायब कर दी है। मैं हतप्रभ रह गया कि उस घटना का सपना किसी थर्ड पर्सन को कैसे आया? दूसरा ये कि हड्डी का टुकड़ा कैसे गायब हो सकता है, जिसे कि मैने एक दिन पहले ही सुरक्षित देखा है? मैने तुरंत जा कर देखा। वाकई हड्डी का टुकड़ा गायब था। श्री तिवाड़ी ने बताया कि जब उन्होंने चिता से हड्डी का टुकड़ा उठाया था, तब उनको किसी अज्ञात शक्ति ने झन्नाटेदार थप्पड़ मारा था, मगर मारे डर के उन्होंने इसका जिक्र नहीं किया था। उन्होंने ये भी बताया कि जिस दिन की यह घटना है, उसी दिन से हर शाम के वक्त उनके हाथों से मांस जलने की बदबू आती है और वे खाना नहीं खा पाते। 

इस पूरी घटना में मैं इस बात से चकित नहीं हुआ कि उस शक्ति ने हड्डी का टुकड़ा गायब कर दिया, लेकिन इस बात से अचंभित था कि एक थर्ड पर्सन को घटना का हूबहू सपना कैसे आया? श्री तिवाड़ी ने सवाल किया कि जनाब अजीज से न तो उन्होंने हमारी मित्रता और न ही घटना का कभी जिक्र कभी किया, फिर भी उनको पूरा सपना कैसे आयाड्ढ? मैं निरुत्तर था। इससे यह तो प्रमाणित होता ही है कि अदृश्य शक्तियां किसी घटना का सपना किसी को दिखा सकती हैं।

https://www.youtube.com/watch?v=-3QSW6V3eT4

मंगलवार, दिसंबर 17, 2024

क्या फ्रिज में आटे का लोया रखने पर उसे भूत खाने को आते हैं?

आजकल की व्यस्त जिंदगी में आमतौर पर गृहणियां आटे को गूंथ कर उसका लोया फ्रिज में रख देती हैं, ताकि जब खाने का वक्त हो तो उसे तुरंत निकाल कर गरम रोटी बनाई जा सके। यह आम बात है। इसको लेकर संस्कृति की दुहाई देते हुए सोशल मीडिया में यह जानकारी फैलाई रही है कि यह उचित नहीं है। वो इसलिए कि आटे का लोया पिंड का रूप ले लेता है, जिसे ग्रहण करने के लिए भूत-प्रेत आ जाते हैं और अनेक प्रकार के अनिष्ट कर देते हैं। 

शास्त्रों का हवाला देते हुए कहा जाता है कि आटे के ये पिंड भूतों-प्रेतों को निमंत्रण देते हैं। ये उन अतृप्त आत्माओं को आकर्षित करते हैं, जिनके पिंड दान नहीं किए गए हैं । इस आटे पर उनकी नकारात्मक ऊर्जा का वास हो जाता है। इस आटे को खाने से पूरे परिवार पर इसका असर पड़ता है। प्रसंगवश बता दें कि इस तथ्य को इस बात से जोड़ा जाता है कि हिंदुओं में पूर्वजों एवं मृत आत्माओं को संतुष्ट करने के लिए पिंड दान की विधि बताई गई है। पिंडदान के लिए आटे का लोया, जिसे पिंड कहते हैं, बनाया जाता है। 

इसी संदर्भ में कहा जाता है कि आटे का लोया गोल होता है, वही मृतात्माओं को आमंत्रित करता है। यदि उस पर कुछ अंकित कर दिया जाए तो प्रेतात्माएं उस ओर आकर्षित नहीं होतीं। इस कारण कई महिलाएं आटे का लोया बनाने के बाद उस पर अंगुलियों के निशान अंकित कर देती हैं। यह निशान इस बात का प्रतीक होता है कि रखा हुआ पिंड पूर्वजों के लिए नहीं, बल्कि आम इंसानों के लिए है। जानकारी में ऐसा भी है कि महिलाएं आटा गूंथने के बाद उस पर अगुलियों के निशान बना कर उसमें पानी भर देती हैं। कुछ देर ऐसा करके रख देने से रोटियां मुलायम बनती हैं।

सवाल ये है कि सच क्या है? क्या वाकई भूत-प्रेत की धारणा के पीछे कोई वैज्ञानिक आधार है? या यूं ही प्रचलित मान्यता? 

जहां तक वैज्ञानिक तथ्य का सवाल है, ऐसा बताया जाता है कि आटा पानी के संपर्क में आने के बाद उसमें कई रासायनिक बदलाव आते हैं। ज्यादा समय तक रखने पर वे नुकसानदायक हो जाते हैं। अगर उसे फ्रिज में रख दिया जाए तो हानिकारक किरणों पर भी प्रभाव पड़ता है। उस आटे से बनी रोटी खाने से कई तरह की बीमारियां होने का खतरा रहता है।

दूसरी ओर जो लोग भूत-प्रेत का अस्तित्व ही नहीं मानते, वे उनके आकर्षित होने को सिरे से नकार देते हैं। जो भूत-प्रेत का अस्तित्व मानते भी हैं, तो उनका मानना है कि आटा गूंथ कर फ्रिज में रखने से भले ही बीमारी का खतरा हो, मगर उसका भूत-प्रेत के आकर्षण से कोई भी सम्बन्ध नहीं है। किसी भी भौतिक वस्तु का सेवन करने के लिए इन्द्रियों की आवश्यकता होती है। बिना इन्द्रियों के भौतिक वस्तुओं का सेवन नहीं किया जाता सकता। मृत्यु के बाद मनुष्य का सूक्ष्म शरीर, जिसे अक्सर भूत-प्रेत समझ लिया जाता है, केवल महसूस कर सकता है, भोग करने के लिए उसे इन्द्रियों की आवश्यकता होती है, जो कि उसके पास नहीं होतीं।

असल में दिक्कत ये है कि आटे के लोये को खाने के लिए भूत-प्रेतों के आने जैसे सवालों का सवाल है, उसका प्रचार करने वाले उसे शास्त्रोक्त तो बता देते हैं, मगर कभी जिक्र नहीं करते कि किस शास्त्र में ऐसा लिखा हुआ है। वे इस बात का भी जिक्र नहीं करते कि अमुक ऋषि ने इतने हजार लोगों पर प्रयोग करके यह तथ्य सिद्ध किया है। इसी कारण ऐसी बातें अंध विश्वास की श्रेणी में गिनी जाती हैं। बावजूद इसके भय के कारण कई उसे मान भी लेते हैं कि मानने में हर्ज ही क्या है? दिलचस्प बात ये है कि पिंड को खाने के लिए मृतात्माओं के आने वाली बात को जानते हुए भी अधिसंख्य महिलाएं व्यस्त जिंदगी में समय को बचाने के लिए अथवा आलस्य के कारण आटे का लोया बना कर फ्रिज में रखती हैं। 

हो सकता है कि भूत-प्रेत वाली बातें सच हों, मगर ऐसी बातें करने वालों को बाकायदा उस शास्त्र का हवाला देना चाहिए, अन्यथा लोग उसे अंध विश्वास ही करार देंगे। उनका मकसद भले ही संस्कृति को बचाना हो, मगर उनके बिना आधार के, केवल शास्त्र शब्द का हवाला देते हुए ऐसी बातें करने से उलटा संस्कृति का नुकसान ही होने वाला है। वे संस्कृति का बचाव नहीं, बल्कि उसका नुकसान कर रहे हैं।

https://www.youtube.com/watch?v=oISPhoRYOL0&t=2s

सोमवार, दिसंबर 16, 2024

क्या है नजर लगने का वैज्ञानिक आधार?

आपने देखा होगा कि हम लोग नजर न लगने के लिए कई तरह के टोटके करते हैं। जैसे बच्चे को नजर न लगेे इसके लिए उसके कान के पीछे काला टीका लगाते हैं। यानि कि काला टीका किसी की नजर को जज्ब कर लेता है। नये मकान में ऊपर रेलिंग पर काली हांडी लगाते हैं। ताकि देख कर मन ही मन तारीफ करने वाले की नजर हांडी पर अटक जाए और मकान का बचाव हो जाए। इसी प्रकार गाडियों में पीछे जूता बांधते हैं। बुरी नजर वाले, तेरा मुंह काला स्लोगन भी आपने अमूमन देखा होगा। कई लोग बाजार में दुकानों पर शोकेस में रखी मिठाइयां, नमकीन इत्यादि इसलिए नहीं खाते, क्योंकि उन पर अनेक ललचाई नजरें पड़ती हैं। यदि हम कुछ खा रहे हैं और उसे कोई और मनुष्य या कुत्ता देख रहा होता है तो उसे भी उसमें कुछ अंश खाने को देते हैं, ताकि उसकी नजर न लगे। हालांकि आजकल तो मकानों में बाकायदा डाइनिंग हॉल बनाए जाते हैं, जिस पर बैठ कर सभी परिजन या मेहमान साथ में खा सकें। वैसे पुरानी मान्यता है कि भोग सदैव गुप्त स्थान पर ही करना चाहिए। कई लोग भोजन अकेले में छिप कर किया करते हैं, ताकि उस पर किसी की नजर न पड़े। कुछ जानकारों का मानना है कि किसी दूसरे व्यक्ति की नकारात्मकता जब हमारी सकारात्मकता पर हावी होती है तो उसे नजर लगना कहते हैं। छठवीं इंद्रिय युक्त साधिका प्रियांका लोटलीकर के अनुसार किसी अन्य व्यक्ति द्वारा संक्रमित रज-तम तरंगों से पीडित होने की प्रक्रिया को कुदृष्टि (बुरी नजर लगना) शब्द से जाना जाता है। कोई अन्य व्यक्ति जानबूझ कर अथवा अनजाने में हमें कुदृष्टि (बुरी नजर) से पीडित कर सकता है।

बुरी नजर व नकारात्मक शक्तियां असर न करें, इसके लिए मकान व दुकान के बाहर शनिवार को नीबू-मिर्ची टांगने की भी परंपरा हैं। इसका वैज्ञानिक आधार क्या है, पता नहीं, मगर वास्तुविद बताते हैं कि नीबू-मिर्ची नकारात्मक ऊर्जा को मकान व दुकान में प्रवेश करने से रोकते हैं और खुद जज्ब कर लेते हैं। इसके लिए शनिवार को उपयुक्त वार माना जाता है। दूसरे शनिवार को पहले से बंधे नीबू-मिर्ची को हटा कर सड़क पर फैंक दिया जाता है। टोटकों के जानकार बताते हैं कि शनिवार को उनके ऊपर से नहीं गुजरना चाहिए, अन्यथा उनमें  मौजूद नकारात्मक शक्तियां हमें प्रभावित कर सकती हैं। 

नजर लगने पर उतारने के लिए कई तरह के उपाय भी प्रचलन में हैं।  बताते हैं कि अगर आपको ऐसा प्रतीत हो कि अमुक व्यक्ति की आपको नजर लग सकती है तो उसका झूठा पानी पी लो, उसका असर खत्म हो जाएगा। खैर, किसी और की क्या, मान्यता तो ये भी है कि खुद हम पर ही हमारी नजर लग जाती है। यही वजह है कि आम तौर हमारे साथ कुछ अच्छा होने के बारे में बताते वक्त हम कहते हैं कि भगवान की कृपा है। हालांकि ऐसा कहने से यही प्रतीत होता है कि हम भगवान का शुक्र अदा कर रहे होते हैं, मगर साथ ही इसका निहितार्थ ये भी है कि नजर न लग जाए। किसी की तारीफ करते वक्त थुथकार करने की भी परंपरा है। इसी कड़ी में कई पढ़े-लिखे लोग टच वुड शब्द का इस्तेमाल करते हुए आस-पास रखी लकड़ी की वस्तु को छूते हैं। टच वुड अर्थात लकड़ी को छूना। यह शब्द पाश्चात्य संस्कृति से आया है। अर्थात पाश्चात्य संस्कृति के लोग भले ही नजर लगने की हमारी मान्यता को दकियानूसी करार दें, मगर वे भी मानते तो हैं ही।

टच वुड शब्द का प्रयोग कब से हो रहा है, इस विषय में कोई तथ्यात्मक जानकारी नहीं है। बताया जाता है कि इसका प्रयोग ईसा पूर्व से चला आ रहा है। टच वुड कहते हुए लकड़ी को छूने से होता क्या है, इस बारे में भी कोई पुख्ता वैज्ञानिक प्रमाण मौजूद नहीं है, लेकिन आम धारणा है कि वृक्षों पर आत्माओं का निवास होता है। उनकी नजर आपकी खुशियों को नहीं लगे, इसलिए कोई अच्छी बात कहते वक्त लकड़ी छूते हैं, ताकि आत्माएं खुशियों में रुकावट न डालें। एक जानकारी ये भी है कि टच वुड बोलने के वक्त पवित्र माने जाने वाले चंदन, रुद्राक्ष, तुलसी आदि का स्पर्श करना अधिक शुभ फलदायी है। मुझे लगता है कि कुछ अच्छा बोलते वक्त सकारात्मक शक्तियों के साथ नकारात्मक शक्तियां भी प्रवाहित होती हैं और पेड को छूने से वह नकारात्मक एनर्जी को हजम कर जमीन को भेज देता है। चूंकि हर जगह पेड संभव नहीं है, इस कारण उसकी अनुपस्थिति में लकडी को छूने का चलन हो गया होगा।

https://www.youtube.com/watch?v=xlB2LpNo2NI


रविवार, दिसंबर 15, 2024

क्या उम्र बढ़ाई जा सकती है?

मौत अंतिम सत्य है, यह हर आदमी जानता है, मगर मरना कोई नहीं चाहता। मौत से बचना चाहता है। रोज लोगों को मरते देखता है, मगर खुद के मरने की कल्पना तक नहीं करता। इसी से जुड़ा एक सत्य ये भी है कि हर व्यक्ति लंबी उम्र चाहता है। यही जिजीविषा उसे ऊर्जावान बनाए रखती है। दिलचस्प बात ये है कि जन्मदिन पर हमें पता होता है कि हमारी निर्धारित उम्र, यदि है तो, में एक और साल की कमी हो गई है, मगर फिर भी खुशी मनाते हैं। समझ ही नहीं आता कि किस बात की खुशी मनाई जाती है? क्या इस बात की कि इसी दिन हम इस जमीन पर पैदा हुए थे? पैदा तो लाखों-करोड़ों लोग हो रहे हैं, मर भी रहे हैं, उसमें नया या उल्लेखनीय क्या है? मेरा नजरिया ये है कि अगर वाकई हमने इस संसार में आ कर कुछ उल्लेखनीय किया है तो समझ भी आता है कि लोग हमारा जन्मदिन मनाएं, वरना सामान्य जिंदगी में जन्मदिन मनाने जैसा क्या है? या फिर ये भी हो सकता है कि तनाव भरी जिंदगी में जन्मदिन के बहाने हम खुशी का आयोजन करते हैं। इस मौके पर सभी लोग हमारी लंबी उम्र की दुआ करते हैं। सवाल ये उठता है कि क्या वाकई ऐसी दुआओं से उम्र लंबी होती है? यदि हम मानते हैं कि हर आदमी एक निर्धारित उम्र लेकर पैदा हुआ है तो फिर हमारी अधिक जीने की इच्छा या दुआ से क्या हो जाएगा? मन बहलाने से अधिक इसका क्या महत्व है? 

किसी व्यक्ति विशेष की उम्र बढ़ाई जा सकती है या नहीं, यह अलग विषय है, मगर यह सच है कि आयुर्वेद सहित जितने भी विज्ञान हैं, वे सार्वजनिक रूप से इस प्रयास में जुटे हैं कि निरोगी रहते हुए उम्र को बढ़ाया जाए। औसत आयु बढ़ी भी है। शिशु मृत्यु दर घटाई जा सकी है। विज्ञान मानता है कि आदमी 14 मैच्योरिटी पीरियड्स तक जी सकता है। एक मैच्योरिटी पीरियड में तकरीबन 20 से 25 साल माने जाते हैं। अर्थात आदमी अधिकतम 350 साल जी सकता है। यह एक बेहद आदर्श स्थिति है। हालांकि हमारी वैदिक परंपरा के अनुसार आदमी की उम्र एक सौ साल मानी जाती है, बावजूद इसके ऐसे अनेक लोग हैं जो एक सौ साल से भी तीस-पैंतीस साल अधिक जीये। आज भी हम सुनते हैं कि अमुख शहर में अमुक व्यक्ति एक सौ पच्चीस साल में उम्र में मरा। यानि शतायु की अवधारणा औसत आयु के रूप में की गई है। यही वजह है कि शतायु होने की दुआ की जाती है।

अब बात करते हैं इस पर कि क्या हम अपनी आयु को बढ़ा सकते हैं? यह एक मौलिक तथ्य है कि अमूमन आदमी की मौत किसी बीमारी की वजह से होती है। या फिर बूढ़े होने के कारण शरीर के विभिन्न अंगों के शिथिल होने पर आदमी अंततरू मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। यदि स्वास्थ्य बरकरार रखा जा सके या बुढ़ापे को रोका जा सके तो और अधिक जीया जा सकता है। 

विज्ञान मानता है कि उम्र बढऩे के साथ सेंससेंट सेल बढ़ते हैं। यदि इनको शरीर से हटाया जा सके तो आयु को बढ़ाया जा सकता है। केवल इतना ही काफी नहीं है। उसके लिए यह भी जरूरी है कि विशेष प्रकार का प्रोटीन, जो स्वस्थ सेल में होता है. वह शरीर में बढ़ाया जाए।

धरातल कर सच ये है कि लगभग पचास साल के बाद अमूमन ब्लड प्रेशर, डायबिटीज, कैंसर जैसी बीमारियां घेरने लगती हैं। हार्ट अटैक व ब्रेन हैमरेज के कारण अचानक मौत हो जाती है। इन बीमारियां से बचने के लिए आदर्श जीवन पद्धति अपनाने की सीख दी जाती है। शुद्ध जलवायु पर जोर दिया जाता है। शुद्ध जल का पान करने की सलाह दी जाती है, क्योंकि लगभग 70 प्रतिशत रोग जल की अशुद्धता से ही होते हैं। इसी शुद्ध वायु की भी महिमा है। वायु प्रदूषण से बचने को कहा जाता है। प्राणायाम करने को कहा जाता है। अच्छी नींद भी स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक मानी जाती है। अच्छे स्वास्थ्य के लिए ध्यान की भी महिमा बताई गई है। 

ध्यान की बात आई तो एक बहुत महत्वपूर्ण बात याद आ गई। आपने सुना होगा कि अमुक ऋषि डेढ़ सौ साल जीये। तीन सौ साल तक जीने की भी किंवदंतियां है। वह कैसे संभव हो सका? जानकारों का मानना है कि भले ही हमारी तथाकथित निर्धारित उम्र वर्षों में गिनी जाती हो, मगर सच ये है कि जन्म के समय ही यह तय हो जाता है कि अमुक व्यक्ति का शरीर कितनी सांसें लेकर मृत्यु को प्राप्त होगा। अर्थात सांस लेने व छोडऩे की अवधि को बढ़ा कर भी उम्र बढ़ाई जा सकती है। जैसे मान लो हम एक मिनट में दस बार सांस लेते हैं, लेकिन यदि एक मिनट में एक ही बार सांस लें तो हमने नौ सांसें बचा लीं। यानि हमारी उम्र नौ सांस बढ़ गई। प्राणायाम में सांस को बाहर या भीतर रोका जाता है। इन दोनों प्रक्रियाओं के पृथक-पृथक लाभ हैं, मगर दोनों में ही एक लाभ ये भी होता है कि सांसों का बचाव हो जाता है व उतनी ही उम्र बढ़ जाती है। हमारे ऋषि-मुनियों-योगियों ने प्राणायाम से ही अपनी उम्र बढ़ाई है। आपको पता होगा कि कछुए व व्हेल मछली की उम्र बहुत अधिक होती है, उसका कारण ये है कि उनकी श्वांस लेने और छोडऩे की गति आदमी से बहुत कम है। वृक्षों में पीपल व बड़ के साथ भी ऐसा ही है। उनकी सांस की गति काफी धीमी है, इसी कारण उनकी उम्र अधिक होती है।

कुल जमा निष्कर्ष ये निकलता है कि प्रकृति हमारी उम्र की गणना दिनों या वर्षों में नहीं करती, बल्कि वह उसका निर्धारण सांसों की गिनती से करती है। योगी बताते हैं कि जब भी हम सांस को रोकते हैं तो उस अवधि में समय स्थिर हो जाता है। रुक जाता है। अर्थात भौतिक उपायों के अतिरिक्त यदि हम नियमित प्राणायाम करें तो अपनी उम्र को बढ़ा सकते हैं।

https://www.youtube.com/watch?v=5E3f8BFnNN0&t=1s

शुक्रवार, दिसंबर 13, 2024

पिज्जा खाने से रुकी किरपा आ जाती है

आपको याद होगा कि जीवन की परेशानियों के निराकरण के लिए अजीबो-गरीब उपाय बताने वाले निर्मल बाबा खुद परेशानी में पड़ गए थे। न केवल उनकी तीव्र आलोचना हुई, अपितु उनका मखौल भी खूब उड़ा। यहां तक कि पुलिस में शिकायत भी हुई। स्वाभाविक सी बात है कि समोसा या पिज्जा खाने, गाय को केला खिलाने या अमुक देवी-देवता को अमुक मात्रा में प्रसाद चढ़ाने जैसे उपायों मात्र से समस्याओं का अंत हो जाने की कोई बात करेगा तो तार्किक लोग उसका मजाक उड़ाएंगे ही। बावजूद इसके उनके भक्तों की संख्या अनगिनत है। वस्तुतः जिनको फायदा हुआ होगा, वे तो उनके गुण गाएंगे ही, चाहे ऊलजलूल उपाय करने से ही हुआ हो। वैसे भी दुनिया इतनी दुखी है कि कोई भी उपाय करने को राजी हो जाती है। चारों ओर से निराशा हाथ लगने से धूनी की भभूत में भी उसे चमत्कार नजर आता है। मगर दूसरी ओर वैज्ञानिक सोच वाले लोग ऐसे उपायों को अतार्किक, अंध विश्वास और वाहियात करार देते हैं। 

इस मुद्दे का गहराई से अध्ययन करने से मैने पाया कि निर्मल बाबा जिस प्राकृतिक सिद्धांत के आधार पर उपाय बताते हैं, वह पद्यति कारगर होनी चाहिए। उन्हें कैसे पता लगता है कि अमुक सवाली के मन में क्या है और कौन सी वस्तु उसने कितने दिन से नहीं खाई है, अथवा उसका कौन सा संकल्प या इच्छा पूरी नहीं हुई है, उसके पीछे जरूर कोई गड़बड़झाला होने की संभावना मानी जा सकती है। वे अंतर्यामी हैं या नहीं, इस पर भी सवाल उठाए जा सकते हैं, मगर वे जिस प्राकृतिक सिद्धांत के आधार पर उपाय करते हैं, वह मुझे तो तार्किक लगती है।

ऐसा प्रतीत होता है कि जब भी हमारे मन में कोई इच्छा जागृत होती है अथवा कोई संकल्प निर्मित होता है, वह हमारे भीतर एक प्रकार की ग्रंथी का निर्माण करता है। जैसे ही वह इच्छा अथवा संकल्प पूरा होता है, ग्रंथी का विसर्जन हो जाता है। पूरा न होने पर वह ग्रंथी विकृतियां उत्पन्न करती है। अतृप्त इच्छा का कितना महत्व है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कई बार आत्मा इसी कारण भटकती रहती है, क्योंकि उसकी कोई इच्छा विशेष पूरी नहीं हो पाती। यही वजह है कि हमारे यहां मृत्यु होने से ठीक पहले प्राणी की अंतिम इच्छा पूछी जाती है। उसकी वजह भी यही है कि उसकी आखिरी ख्वाहिश पूरी कर दी जाए, ताकि मृत्योपरांत उसकी आत्मा भटके नहीं। 

अतृप्त इच्छाएं पूरी न होने पर उसका प्रभाव वस्तुओं पर भी पड़ता है, ऐसी हमारे यहां मान्यता है। आपको ऐसे कई लोग मिल जाएंगे, जो कि बाजार में सजा कर रखी गई मिठाई अथवा अन्य खाद्य पदार्थ का सेवन करने से बचते हैं। उसके पीछे धारणा ये है कि सजा कर रखी गई वस्तु पर अनेक लोगों की दृष्टि पड़ती है। ऐसे लोगों की नजर भी पड़ती है, जो कि उसे खाना तो चाहते हैं, मगर उनकी खरीदने की हैसियत नहीं होती अथवा किसी और कारण से खरीद नहीं पाते। ऐसे में वस्तु में अतृप्त इच्छा का दृष्टि दोष उत्पन्न हो जाता है। उस वस्तु को खाने पर हमको दोष लगता है। 

हमारी संस्कृति में तो यह तक मान्यता है कि भोजन सदैव एकांत में करना चाहिए। ऐसा इसलिए कि भोजन करते समय अन्य की दृष्टि उस पर पडऩे से दोष उत्पन्न हो जाता है। आपने देखा होगा कि अनेक दुकानदार पीठ करके भोजन करते हैं, ताकि उस पर किसी ग्राहक की नजर नहीं पड़े। आपने देखा होगा कि यदि हमारे भोजन पर किसी अन्य की नजर पड जाए तो हम उसका कुछ अंष उसे खिला देते हैं, ताकि दोष न लगे।

अपूर्ण संकल्प जीवन में कठिनाइयां उत्पन्न करते हैं, ऐसी भी मान्यता है। एक प्रकरण आपसे साझा करता हूं। एक बार मेरी माताजी मामाजी के घर घूमने गई। वहां उनकी परिचित महिला से मुलाकात हो गई। वह स्नान करके शुद्ध हो कर उनके पास आ कर बैठी थी। जैसे ही उनके वस्त्र का मेरी माताजी के वस्त्र से स्पर्श हुआ, यकायक वह एक भाव अवस्था में आ गई और गुस्से में बोलने लगी कि याद कर, कोई पच्चीस साल पहले तूने अमुक मंदिर में अपनी मनोकामना पूरी होने के लिए एक धर्मग्रंथ से फूल चुना था। तेरी वह इच्छा पूरी हो गई, मगर तूने संकल्प के साथ प्रसाद चढ़ाने का जो निश्चय किया था, वह आज तक अधूरा है। इसी कारण संकट में है। उस महिला को मेरी माताजी की पच्चीस साल पहले की घटना कैसे ख्याल में आ गई, यह विचार का अन्य विषय है, मगर अधूरा संकल्प परेशानी पैदा करता है, वह तो इससे प्रमाणित होता ही है।

आपके ख्याल में होगा कि कई धर्म स्थलों के दरवाजों पर श्रद्धालु मन्नत का धागा अथवा कोई वस्तु बांधते हैं और मन्नत पूरी होने पर प्रसाद चढ़ा कर धागा खोलते हैं। अर्थात संकल्प या इच्छा पूरी होने पर उसकी पूर्णाहुति जरूर करते हैं। ऐसी मान्यता है कि ऐसा नहीं करने पर दोष लगता है। संकल्प लेकर कोई व्रत रखने पर भी उसका उद्यापन करने की प्रथा हमारे यहां प्रचलित है। मन्नत का धागा बांधने की बात पर मुझे याद आया कि मेरी माताजी हमारा कोई कार्य होने की इच्छा रख कर अपनी चुन्नी के कोने पर गांठ बांधती है और काम पूरा होने पर गांठ खोल कर मन में तय किया हुआ प्रसाद चढ़ाती है। गांठ का प्रयोजन यही होता है कि संकल्प की याद विस्मृत न हो। ऐसे ही अनेक प्रकरण मेरी जानकारी में हैं।

मुझे लगता है कि गांठ न बांधने पर भी इच्छा की गांठ मन के भीतर पड़ जाती है, जिसे कि मैने ग्रंथी की संज्ञा दी है। इच्छा के पूरा होने पर वह ग्रंथी विसर्जित हो जाती है, अथवा कोई न कोई विकृति पैदा करती है। 

कुल जमा निष्कर्ष ये है कि निर्मल बाबा जिस पद्यति का उपयोग करते हैं, वह कारगर होनी चाहिए। हमें भी सामान्य जीवन में यह ख्याल रखना चाहिए कि हमारे मन में जो भी इच्छा जागृत हो, उसे यथासंभव पूर्ण कर लेना चाहिए। चंद उदाहरण पेष हैं, जिनका हमें ख्याल रखना चाहिए। जैसे अगर हमारे मन में किसी भिखारी को कुछ देने का भाव आया है तो उसे पूरा कर लेना चाहिए। इसी प्रकार यदि कभी किसी मंदिर के दर्षन या किसी दरगाह में हाजिरी का मन में विचार आए तो यथासंभव उसे पूरा कर लेना चाहिए। इसमें ख्याल रखने योग्य बात ये है कि हमें अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण रखना चाहिए। इसके अतिरिक्त अनीतिपूर्ण इच्छाओं को पैदा ही नहीं होने देना चाहिए। चूंकि अगर वे पूरी कर भी ली गई तो भले ही ग्रंथी से होने वाली कठिनाई से हम मुक्त हो जाएंगे, मगर अनीति से किए गए कार्य का परिणाम तो हमें भुगतना ही होगा।

आलेख यूट्यूब पर देखने के लिए इस लिंक पर क्लिक कीजिए-

https://www.youtube.com/watch?v=fwjuxo3Tggs&t=23s 

बुधवार, दिसंबर 11, 2024

मंदिर में दर्शन के बाद बाहर सीढ़ी पर क्यों बैठते हैं?

मंदिर में दर्शन के बाद बाहर सीढ़ी पर थोड़ी देर क्यों बैठा जाता है? यह सवाल मेरे जेहन में अरसे से है। इसका जवाब जानने की बहुत कोशिश की, मगर अब तक उसका ठीक ठीक कारण नहीं जान पाया हूं। भले ही आज वास्तविक कारण का हमें पता न हो, मगर यह परंपरा जरूर कोई न कोई राज लिए हुए है।

मुझे मोटे तौर यह समझ में आता है कि मंदिर के आध्यात्मिक माहौल को आत्मसात करने के बाद बाहर आने पर एक झटके में भौतिक जगत से जो सामना होता है, वह कहीं एक झटके में ही आध्यात्मिक भाव को नष्ट न कर दे। मंदिर के भीतर हमने जो ऊर्जा हासिल की है, वह बाहर आते ही भौतिक वातावरण में तिरोहित न हो जाए, इसलिए कुछ क्षण बैठ कर उसे भीतर गहरे बैठाने की कोशिश की जाती है।

हाल ही मेरे वरिष्ठ मित्र हाल दिल्ली निवासी श्री शिव शंकर गोयल, जो कि जाने-माने व्यंग्य लेखक हैं, ने इससे संबंधित पोस्ट वाट्स ऐप पर भेजी।  उसे हूबहू आपके सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हूं, उसे पढऩे के बाद हम विचार करेंगे कि क्या वाकई हमें अपने सवाल का जवाब मिला या नहीं-

परम्परा है कि किसी भी मंदिर में दर्शन के बाद बाहर आकर मंदिर की पैड़ी या अटले पर थोड़ी देर बैठना। क्या आप जानते हैं इस परंपरा का क्या कारण है? आजकल तो लोग मंदिर की पैड़ी पर बैठ कर अपने घर / व्यापार / राजनीति इत्यादि की चर्चा करते हैं, परंतु यह प्राचीन परंपरा एक विशेष उद्देश्य के लिए बनाई गई है। वास्तव में मंदिर की पैड़ी पर बैठ कर एक श्लोक बोलना चाहिए। यह श्लोक आजकल के लोग भूल गए हैं। इस श्लोक को मनन करें और आने वाली पीढ़ी को भी बताएं। श्लोक इस प्रकार है-

अनायासेन मरण

बिना देन्येन जीवन

देहान्त तव सान्निध्य

देहि मे परमेश्वर

इस श्लोक का अर्थ है

अनायासेन मरणम् अर्थात् बिना तकलीफ के हमारी मृत्यु हो और कभी भी बीमार होकर बिस्तर पर न पड़ें, कष्ट उठा कर मृत्यु को प्राप्त न हो। चलते फिरते ही हमारे प्राण निकल जाएं।

बिना देन्येन जीवनम् अर्थात् परवशता का जीवन न हो। कभी किसी के सहारे न रहना पड़े। जैसे कि लकवा हो जाने पर व्यक्ति दूसरे पर आश्रित हो जाता है, वैसे परवश या बेबस न हों। ठाकुर जी की कृपा से बिना भीख के ही जीवन बसर हो सकें।

देहांते तव सान्निध्यम् अर्थात् जब भी मृत्यु हो तब भगवान के सम्मुख हो। जैसे भीष्म पितामह की मृत्यु के समय स्वयं ठाकुर (कृष्ण जी) उनके सम्मुख जाकर खड़े हो गए। उनके दर्शन करते हुए प्राण निकले।

देहि में परमेशवरम् अर्थात् हे परमेश्वर ऐसा वरदान हमें देना।

भगवान से प्रार्थना करते हुए उपरोक्त श्लोक का पाठ करें। 

गाडी, लाडी, लड़का, लड़की, पति, पत्नी, घर, धन इत्यादि (अर्थात् संसार) नहीं मांगना है, यह तो भगवान आप की पात्रता के हिसाब से खुद आपको देते हैं। इसीलिए दर्शन करने के बाद बैठ कर यह प्रार्थना अवश्य करनी चाहिए। यह प्रार्थना है, याचना नहीं है। याचना सांसारिक पदार्थों के लिए होती है। जैसे कि घर, व्यापार,नौकरी, पुत्र, पुत्री, सांसारिक सुख, धन या अन्य बातों के लिए जो मांग की जाती है, वह याचना है, वह भीख है।

प्रार्थना शब्द के प्र का अर्थ होता है विशेष अर्थात् विशिष्ट, श्रेष्ठ और अर्थना अर्थात् निवेदन। प्रार्थना का अर्थ हुआ विशेष निवेदन।

मंदिर में भगवान का दर्शन सदैव खुली आंखों से करना चाहिए, निहारना चाहिए। कुछ लोग वहां आंखें बंद करके खड़े रहते हैं। आंखें बंद क्यों करना, हम तो दर्शन करने आए हैं। भगवान के स्वरूप का, श्री चरणों का, मुखारविंद का, शृंगार का, संपूर्ण आनंद लें, आंखों में भर ले निज-स्वरूप को।

दर्शन के बाद जब बाहर आकर बैठें, तब नेत्र बंद करके जो दर्शन किया है, उस स्वरूप का ध्यान करें। मंदिर से बाहर आने के बाद, पैड़ी पर बैठ कर स्वयं की आत्मा का ध्यान करें, तब नेत्र बंद करें और अगर निज आत्मस्वरूप ध्यान में भगवान नहीं आए तो दोबारा मंदिर में जाएं और पुनः दर्शन करें।

इस पोस्ट में मंदिर के बाहर सीढ़ी पर बैठने के बाद क्या करना है, ये तो बहुत अच्छे तरीके से बताया गया है। साथ ही ऐसा करने का प्रयोजन भी आखिर में बताया गया है। वो यह कि भीतर जो दर्शन किया है, उसे सीढ़ी पर बैठ कर एक बार आत्मसात कर लें, ताकि वह चिरस्थाई हो जाए। जैसे पढ़ाई करते वक्त पढ़े हुए पाठ को याद रखने के लिए रिवीजन किया जाता है। 

बेशक एक कारण ये हो सकता है, हालांकि लोग तो इस कारण को जाने बिना ही केवल औपचारिक रूप से ऐसा करते हैं। एक वजह सम्मान की भी हो सकती है। मंदिर से बाहर निकलते वक्त हमारी पीठ मूर्ति की ओर होती है, जो कि उचित नहीं। अतः मूर्ति के देवता के प्रति आदर व आभार प्रकट करने के लिए सीढ़ी पर कुछ क्षण बैठा जाता होगा। मेरी खोज जारी है, यदि कोई और कारण भी जानकारी में आया तो आपसे शेयर जरूर करूंगा।


गधे के बायीं ओर से गुजरना शुभ क्यों?

दोस्तो, नमस्कार। हमारे यहां अनेक अनोखी मान्यताएं हैं, जिनके वैज्ञानिक आधार की हमें जानकारी नहीं है। कदाचित किसी समय में जानकारी रही हो, मगर अभी वह मौजूद नहीं है। वह परंपरा मात्र है। क्या आपको जानकारी है कि एक मान्यता के अनुसार हम कहीं जा रहे हों और सामने से गधा आ जाए तो उसके बायीं ओर से गुजरा जाए तो जिस काम केलिए हम जा रहे होते हैं, वह पूर्ण होता है। यानि गधा हमारे बायीं ओर हो तो वह शुभ होता है। इसका ताल्लुक शुभ-अशुभ सगुन ज्ञान से है। गूगल के जेमिनी प्लेटफार्म के अनुसार प्राचीन समय में, जानवरों को अक्सर देवताओं या प्राकृतिक शक्तियों का प्रतीक माना जाता था। हो सकता है कि गधे को किसी विशेष देवता या शक्ति से जोड़ा जाता हो और उसकी बायीं ओर से जाना किसी तरह का अभिनंदन या सम्मान माना जाता हो। कई संस्कृतियों में दिशाओं को शुभ और अशुभ माना जाता है। हो सकता है कि गधे के बायीं ओर जाने से कोई विशेष दिशा की ओर संकेत मिलता हो, जो शुभ मानी जाती हो। कई लोक कथाओं और किवदंतियों में जानवरों के साथ जुड़े शुभ-अशुभ संकेतों का उल्लेख मिलता है। हो सकता है कि यह मान्यता भी किसी ऐसी ही कहानी से जुड़ी हो।

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उबासी आने पर चुटकी क्यों ली जाती है?

उबासी व जम्हाई एक सामान्य शारीरिक क्रिया है। हर किसी को आती है उबासी। उसके अपने कारण हैं, लेकिन कई लोग उबासी आने पर होंठों के आगे चुटकी बजाते हैं। संभव है, इसकी आपको भी जानकारी हो। आप भी चुटकी बजाते हों। मगर ये चुटकी क्यों ली जाती है, उसका ठीक-ठीक क्या कारण है, यह ठीक से नहीं पता। जाहिर तौर पर उबासी ऊब, थकावट या नीरसता अनुभव होने का संकेत है। हो सकता है ऊब मिटाने के लिए चुटकी ली जाती हो। यह भी हो सकता है कि ऐसा इसलिए भी किया जाता हो कि उबासी के दौरान मुंह खुला रहने के दौरान कोई मक्खी-मच्छर श्वास के साथ भीतर न प्रवेश कर जाए।

बहरहाल उबासी के दौरान चुटकी लेने का एक प्रसंग रामायण में आता है। जरा इस पर बात कर लेते हैं।

वस्तुतः भक्त हनुमान द्वारा भगवान राम की निरंतर सेवा से सीता जी, भरत, लक्ष्मण आदि ईर्ष्या करने लगे थे। भगवान राम के राज्याभिषेक के बाद सब कुछ आनंद से चल रहा था। हनुमान जी भी अयोध्या में ही रह कर भगवान राम की सेवा करते थे। हर वक्त, यहां तक कि शयन कक्ष में भी हनुमान सेवा में उपस्थित रहते थे। ईर्ष्यावश सीता जी, भरत व लक्ष्मण ने एक योजना बनाई, ताकि हनुमान को सेवा से दूर रखा जा सके। राम दरबार में भरत ने राम की ओर से एक आदेश सुनाया। इसके तहत उन्होंने शयन कक्ष में सिर्फ सीता जी के, दरबार में भरत जी के और भोजन और भ्रमण के दौरान लक्ष्मण जी ने सेवा के अधिकार ले लिए। हालांकि भगवान राम ने हनुमान के लिए सेवा के लिए कुछ न छोडऩे पर संशय किया था, मगर सब टाल गए। अपने लिए सेवा का अवसर न बचने पर हनुमान हनुमान गढ़ी में दुखी हो कर रोने लगे। अपनी सेवा में हनुमान जी को न पाकर श्रीराम का भी मन नहीं लगा, तब उन्होंने हनुमान का पता करवाया और उनको बुलावा भेजा। हनुमान के दुख का कारण जान कर भगवान राम ने उनसे सेवा को कोई मौका मांगने को कहा। चतुर हनुमान ने भगवान राम को उबासी आने पर चुटकी बजाने की सेवा मांगी। भगवान राम ने स्वीकृति दे दी। हनुमान से ईर्ष्या करने वाली मंडली को यह बहुत ही सामान्य सी सेवा लगी, सो उन्होंने कोई ऐतराज नहीं किया। लेकिन इस सेवा के बहाने हनुमान हर पल भगवान राम के साथ ही रहने लगे। पता नहीं कब उबासी आ जाए और उन्हें चुटकी बजानी पड़े। एक दिन रात में सीता जी ने हनुमान को शयन कक्ष से बाहर भेज दिया। भगवान राम ने उबासी ली, और उनका मुंह खुला का खुला रह गया। यह स्थिति देख कर सभी घबरा गए। किसी को कुछ नहीं समझ आया कि क्या किया जाए। इस पर हनुमान को बुलवाया गया। उनके चुटकी बजाते ही भगवान राम सामान्य हो गए। है न दिलचस्प प्रसंग।

खैर, उबासी आती क्यों है, इस पर विदुषी निशी खंडेलवाल ने एक विस्तृत आलेख लिखा है। आइये, उसके कुछ अंश जान लेते हैं। 

जानकारी ये है कि हम ही नहीं, बल्कि गर्भस्थ शिशु भी उबासी लेता है। अल्ट्रा साउंड निरीक्षण के दौरान 20 सप्ताह के शिशुओं की गर्भ में उबासिया रिकार्ड की गई हैं। इससे तो ऐसा लगता है कि उबासी का आना हमारे लिए काफी महत्वपूर्ण है और इस पर नियंत्रण कर पाना सम्भव नहीं। रात को सोने से पहले, सुबह उठने के बाद, किसी काम को लगातार करते रहने से, बहुत ज्यादा थकान महसूस होने जाने आदि-आदि परिस्थितियों में सभी के उबासी लेने के अनुभव हैं।

उबासी क्यों आती है, इसका पता लगाने और किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए बहुत-से अध्ययन किए गए हैं। सन् 1986 में महाविद्यालय के कुछ छात्रों पर किए गए प्रयोगों में पाया कि उस समय उबासी ज्यादा आती है, जब छात्रों को बोरियत महसूस होती है। 

ऐसा माना जाता है कि थके होने पर उबासी ज्यादा आती है। यह देखा जाता है कि अक्सर उबासी नींद आने की स्थिति में आती है। सबसे ज्यादा उबासी सोने से पहले और सो कर उठने के समय आती है, क्योंकि इस समय सक्रियता का स्तर बहुत कम होता है। परन्तुु बाद में हुए कुछ प्रयोगों से यह पता चला कि सतर्कता का स्तर अक्सर उबासी के बाद नहीं, उससे पहले बढ़ जाता है और सतर्कता के अन्य सम्भावित कारण भी पाए गए। तो यह परिकल्पना भी बहुत सटीक साबित नहीं हुई।

दिलचस्प बात है कि कई जानवर उबासी लेते हैं - शेर-बिल्ली, कुत्ते-भेड़िए, बन्दर-वानर, सांप, मछली, चूहे, घोड़े, तोते, पेंग्विन, उल्लू आदि। मनुष्यों की तरह सामाजिक समूहों में रहने वाले जानवरों में किसी को उबासी लेते हुए देख कर अन्य को भी उबासी आ जाती है। इनमें चिम्पैन्ज़ी और तोते शामिल हैं। शोध से यही पता चला है कि कुत्ते अपने मालिक को उबासी लेते देख खुद उबासी लेने लगते हैं। अर्थात उबासी एक प्रजाति से दूसरी प्रजाति में भी फैल सकती है।

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https://www.youtube.com/watch?v=saCr4Z6-lEw


सोमवार, दिसंबर 09, 2024

सत्यनारायण भगवान की मूल कथा कौन सी है?

हम जो कथा कर रहे हैं, वह उन पांच अध्यायों में कथा करने वालों ने नहीं की थी। वह कथा कोई और ही है। वह कहां खो गई?

हमारे यहां पूर्णिमा के दिन भगवान सत्यनारायण की कथा करने का प्रचलन है। किसी शुभारंभ के मौके पर भी यह कथा करवाई जाती है। इस कथा में पांच अध्याय होते हैं, जिनमें यह वर्णन होता है कि अमुक व्यक्ति ने कथा की तो उसे बहुुत फायदा हुआ और अमुक ने भूल से कथा नहीं की या कथा का अनादर किया तो उसका अनिष्ट हो गया। आज हम जो कथा कर रहे हैं, वह वाकई सत्यनाराण भगवान की कथा ही है, चूंकि उसमें भगवान की महिमा है, मगर सवाल ये उठता है कि पांचों अध्यायों में जिन लोगों ने कथा की वह आखिर कौन सी कथा थी? यह बिलकुल साफ है कि हम जो कथा कर रहे हैं, वह उन पांच अध्यायों में कथा करने वालों ने नहीं की थी। वह कथा कोई और ही है। वह कहां खो गई? यदि पांच अध्याय वाली कथा से हमें सुख-संपत्ति मिलती है तो मौलिक कथा का न जाने कितना लाभ होगा।

इस बारे में मैने अनेक विद्वानों व पंडितों से जानकारी चाही तो वे ये नहीं बता पाए कि वह कथा कौन सी थी।

जहां तक मुझे समझ में आता है, पांच अध्यायों में जिस कथा का उल्लेख है, वह मूलतरू कोई कथा नहीं थी। वह व्रत करते हुए धार्मिक विधि विधान पूर्वक सत्यनारायण भगवान की पूजा-अर्चना व आरती थी। गलती से उसे कथा कह दिया गया है। वर्तमान में हम जिस कथा की पुस्तक का पूजा-अर्चना  के दौरान पाठ करते हैं, वह तो भिन्न-भिन्न प्रकरणों के पांच अध्यायों का संगलन मात्र है।


शुक्रवार, दिसंबर 06, 2024

भगवान आदमी है या औरत?

हालांकि ईश्वर को त्रिगुणातीत और निराकार माना जाता है। उसका कोई लिंग नहीं, अर्थात न तो वह पुरुष है और न ही स्त्री। बावजूद इसके प्रचलन में यही है कि जब भी हम उसके बारे चर्चा करते हैं, जिक्र करते हैं तो उसे पुरुषवाचक के रूप में ही संबोधित करते हैं। कहते हैं न कि ईश्वर भला करेगा, वह सब पर कृपा करता है? जिससे प्रतीत होता है कि वह पुरुष है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर वास्तविकता क्या है? सवाल इसलिए भी स्वाभाविक है क्यों कि हमारी सोच के अनुसार वह पुरुष या स्त्री, कोई एक तो होगा। इन दोनों से इतर जो भी तत्त्व है, उससे हम अनभिज्ञ हैं। सिर्फ कल्पना ही कर सकते हैं।

इस विषय को लेकर विशेष रूप से ईसाई समुदाय में काफी बहस छिड़ी हुई है। चर्च ऑफ इंग्लैंड का एक समूह दैनिक प्रार्थना के दौरान ईश्वर को पुरुषवाचक के साथ ही स्त्रीवाचक के रूप में भी संबोधित करने की मांग कर रहा है। उसकी मांग में दम भी है। लेकिन दिक्कत ये है कि जब भी हम ईश्वर का जिक्र करते हैं तो स्वाभाविक रूप से बिना सर्वनाम के उसके बारे में चर्चा करना कठिन है। यह भाषा की भी समस्या है। या तो हमें उसे पुरुष या स्त्री वाचक शब्द से पुकारना होगा। पुरुषवादी समाज में उसे स्त्री के रूप में संबोधित करना हमें स्वीकार्य नहीं, इसलिए हम उसे पुरुष मान कर ही संबोधित करते हैं।

वस्तुतरू ईश्वर एक सत्ता है, एक शक्ति केन्द्र है। वह स्वयंभू है। उसी सत्ता के अधीन संपूर्ण चराचर जगत संचालित हो रहा है। वह कोई व्यक्ति नहीं है। लेकिन चूंकि हम स्वयं व्यक्ति हैं, हमारी सीमित शक्ति है, इस कारण सर्वशक्तिमान की परिकल्पना करते समय हम उसे अपार क्षमताओं से युक्त एक महानतम व्यक्ति के रूप में देखते हैं। और चूंकि पूरी प्रकृति व समाज की व्यवस्था पुरुषवादी है, इस कारण उसके प्रति संबोधन में स्वाभाविक रूप से पुरुषवाचक शब्दों का चलन है। 

आइये, जरा हमारी पुरुष प्रधान व्यवस्था पर जरा चर्चा कर लें। असल में प्रकृति की गति नर व नारी की संयुक्त भूमिका से है। न तो आदमी अपेक्षाकृत बेहतर है और न ही औरत तुलनात्मक रूप से कमतर। बावजूद इसके समाज की संरचना में आरंभ से पुरुष की प्रधानता रही। यही वजह है कि धार्मिक, सामाजिक व पारिवारिक रूप से पुरुष अग्रणी रहा। आप देखिए, बेशक, नाम स्मरण करते हुए राधे-श्याम, सीता-राम, लक्ष्मी-नारायण कहा जाता है, अर्थात पहले स्त्री का नाम लिया जाता है, स्त्री तत्त्व को विशेष सम्मान दर्शाया जाता है, मगर सच्चाई ये है कि प्रधानता पुरुष की ही रही है। सारे भगवान पुरुष हैं। चित्रों में भगवान विष्णु शेष नाग पर लेटे होते हैं और माता लक्ष्मी उनके चरणों में बैठी दिखाई जाती है। अन्य भगवानों व देवी-देवताओं में भी पुरुष की ही प्रधानता है। धर्म की पुरर्स्थापना के लिए अवतार लेने वाले सभी भगवान पुरुष हैं। सारे आश्रमों के प्रमुख ऋषि रहे हैं। लगभग सारे मठाधीश पुरुष ही रहे हैं। सभी शंकराचार्य पुरुष हैं। अधिसंख्य मंदिरों में पुजारी पुरुष हैं। तीर्थराज पुष्कर में पवित्र सरोवर की पूजा-अर्चना पुरुष पुरोहित ही करवाते हैं। 

जैन धर्म की बात करें। जैन समाज के सभी तीर्थंकर पुरुष हैं। जैन मुनियों के नाम के आगे 108 व जैन साध्वियों के नाम के आगे 105 लिखा जाता है। बाकायदा तर्क दिया जाता है जैन साध्वियों में जैन मुनियों की तुलना में तीन गुण कम हैं।

इस्लाम की बात करें तो पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब पुरुष है। सारे मौलवी पुरुष हैं। मस्जिदों में नमाज की इमामत पुरुष करते हैं। यहां तक कि सार्वजिनक नमाज के दौरान महिलाओं की सफें पुरुषों से अलग लगती हैं। अजमेर की विश्व प्रसिद्ध दरगाह ख्वाजा साहब की दरगाह में खिदमत का काम पुरुष खादिम करते हैं। दरगाह स्थित महफिलखाने में महिलाएं पुरुषों के साथ नहीं बैठ सकतीं। उनके लिए अलग से व्यवस्था है। जानकारी तो ये भी है कि दरगाह परिसर में महिला कव्वालों को कव्वाली करने की इजाजत नहीं है। इसी प्रकार इसाई धर्म में भी ईश्वर के दूत ईसा मसीह पुरुष हैं। गिरिजाघरों में प्रार्थना फादर करवाते हैं।

सामाजिक व्यवस्था में भी पुरुषों की प्रधानता है। अधिसंख्य समाज प्रमुख पुरुष ही होते हैं। पारिवारिक इकाई का प्रमुख पुरुष है। वंश परंपरा पुरुष से ही रेखांकित होती है। स्त्रियां ब्याह कर पुरुष के घर जाती हैं, न कि पुरुष स्त्री के घर। हमारे यहां तो पत्नी से अपेक्षा की जाती है कि वह पति को भगवान माने। पति की लंबी आयु के लिए पत्नियां करवा चौथ का व्रत करती हैं। इस तरह की धारणा चलन में हैं कि महिला यदि कोई पुण्य करे तो उसका आधा फल पुरुष को मिलता है, जबकि पुरुष को उसके पुण्य का पूरा फल मिलता है।

कुल मिला कर अनादि काल से पुरुष तत्व की प्रधानता रही है। सामाजिक व धार्मिक परंपराओं का ढ़ांचा बनाने वाले पुरुष हैं। यही वजह है कि लिंगातीत, निर्गुण, निराकार ईश्वर का जिक्र पुरुष वाचक शब्दों से करते हैं।

आखिर में एक बात पर गौर कीजिए। ईश्वर के बारे हम चाहे जितनी टीका-टिप्पणियां कर लें, लेकिन वह हमारी कल्पनाओं व अवधारणों से कहीं बहुत आगे है। उसका पार पाना कठिन ही नहीं, नामुमकिन है। वेद भी व्याख्या करते वक्त आखिर में नेति-नेति कह कर हाथ खड़े कर देते हैं।

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गुरुवार, दिसंबर 05, 2024

आदमी को स्तन क्यों होते हैं?

क्या आपके दिमाग में कभी यह सवाल आया है कि आदमी के स्तन क्यों होते हैं? उनका क्या उपयोग? औरतों को तो इसलिए होते हैं कि क्योंकि जब वह बच्चे को जन्म देती है तो उसके पोषण के लिए प्रकृति उनमें दूध उत्पन्न करती है, मगर आदमी के स्तन तो किसी भी काम के नहीं। आदमी का एक यही अंग ऐसा है, जिसका ताजिंदगी कोई उपयोग नहीं होता। आम तौर पर आदमी में ये अविकसित व सुप्त अवस्था में ही होते हैं। किसी-किसी के बड़े भी हो जाते हैं, मगर उनका कोई उपयोग नहीं। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि प्रकृति ने आदमी को स्तन क्यों दिए?

मेरे जेहन में भी ये सवाल उभरा है। इसका जवाब तलाशने की बहुत कोशिश की, मगर फिलवक्त तक सटीक उत्तर नहीं मिल पाया है। हां, इतना जरूर समझ आया है कि यह इस बात का प्रतीक हैं कि आदमी में कुछ मात्रा में स्त्रैण हार्माेन भी होते हैं। होंगे ही, क्योंकि मनुष्य की उत्पत्ति स्त्री व पुरुष के मिलन से होती है और हर एक में दोनों के गुणसूत्र विद्यमान होते हैं। बस प्रतिशत का ही फर्क होता है, जिसकी वजह से कोई मेल तो कोई फीमेल पैदा होता है।

खैर, स्तन भले ही दूध की ग्रंथी है, मगर कहीं न कहीं इसका नस-नाडिय़ों के संतुलन से भी संबंध है। जब धरण टल जाती है तो नाड़ी वैद्य एक डोरी लेकर नाभि से पहले एक स्तन की दूरी नापता है और फिर दूसरे की। यदि दोनों की दूरी समान हो तो वह यही बताता है कि धरण नहीं टली है, पेट में दर्द किसी और वजह से है। यदि दूरी में फर्क आता है तो वह कहता है कि धरण टल गई है और झटके दे कर नाडिय़ों को संतुलित करता है। इसका मतलब ये हुआ कि जैसे नाभि पूरे शरीर की नस-नाडिय़ों का केन्द्र स्थान है, वैसे ही स्तन के बिंदु भी कहीं न कहीं नाडिय़ों के संतुलन का हिस्सा हैं।

दूसरी बात ये कि भले ही आदमी के स्तनों में दूध उत्पन्न नहीं होता, मगर हैं तो वे स्तन ही। भले ही सुप्त अवस्था में हों। यह नजरिया तब बना, जब ओशो के एक प्रवचन में यह सुना कि स्वामी रामकृष्ण परमहंस काली माता की भक्ति में इतने लीन हो गए कि जीवन के आखिरी दौर में उनका शरीर स्त्रैण हो गया। उनके स्तन अप्रत्याशित रूप से बढ़ गए व उनमें से दूध टपकने लगा। इसके यही मायने हैं कि पुरुष के शरीर में जो स्तन हैं, वे वाकई स्तन ही हैं, तभी तो स्वामी रामकृष्ण के स्तनों में से दूध आने लगा। 

चूंकि आदमी के स्तन प्रतीकात्मक हैं, इस कारण यदि किसी के स्तन बढ़ जाते हैं तो उसके लिए शर्मिंदगी का कारण बन जाते हैं। विज्ञान की भाषा में बात करें तो असल में यह एक बीमारी है, इसको गाइनेकॉमस्टिया कहते हैं। टेस्टोस्टेरोन या एस्ट्रोजन हार्माेन के असंतुलन के कारण पुरुषों के स्तन बढ़ते हैं।। वैज्ञानिक शोध में यह भी सामने आया है कि लैवेंडर और चाय के पौधों के तेल के कारण युवकों के स्तन असामान्य रूप से बढ़ जाते हैं। इन तेलों में आठ ऐसे केमिकल होते हैं, जो हमारे हार्माेन्स पर प्रभाव डालते हैं। ज्ञाातव्य है कि लैवेंडर और टी ट्री पौधों से जुड़े तेल कई उत्पादों में पाए जाते हैं। साबुन, लोशन, शैम्पू और बाल संवारने वाले उत्पादों में इन तेलों का इस्तेमाल किया जाता है। ऐसा भी पाया गया है कि जिन लोगों ने इन तेलों का इस्तेमाल बंद किया तो उन्हें बढ़ते स्तन को काबू में करने में मदद मिली है।

जानकारी के अनुसार पुरुषों के स्तन बढऩे के मामले बढऩे लगे हैं। उसकी वजह हार्माेनल चौंजेज के साथ जिम जाने वालों में स्टेरॉयड का प्रयोग करने व लाइफ स्टाइल से जुड़े मामले इसके लिए जिम्मेदार हैं।

आखिर में एक रोचक बात। हालांकि ये अपवाद मात्र है, मगर है दिलचस्प। यह एक सामान्य सी बात है कि जो युवती गर्भ धारण करती है तो उसका जी मिचलाने लगता है। यदि यही समस्या पिता बनने वाले युवक के साथ भी हो तो चौंकना स्वाभाविक है। एक खबर के मुताबिक 29 साल के हैरिस ऐशबे की मंगेतर को उनका पहला बच्चा होने वाला था। हैरिस का भी जी मिचलाने लगा। उसके स्तन बढऩे लगे। डॉक्टरों ने बताया कि वह एक तरह के मेडिकल कंडिशन का शिकार हो गया है, जिसे कौवेड सिंड्रोम कहते हैं।


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बुधवार, दिसंबर 04, 2024

जाते हुए को पीछे से आवाज क्यों नहीं देते?

हम सब जानते हैं कि जब भी कोई किसी काम से रवाना होता है तो जाते समय उसको पीछे से आवाज नहीं दिया करते। इसे अपशकुन माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि पीछे से आवाज देने पर उस कार्य के संपन्न होने में संशय उत्पन्न हो जाता है, जिसके लिए वह निकला है। इसके अतिरिक्त इसे किसी अनिष्ट की आशंका का संकेत भी माना जाता है। सलाह यही दी जाती है कि रवाना होने की बजाय कुछ पल ठहर लिया जाए। उस वक्त को टाल दिया जाए। यानि कि घर आ कर कुछ पल वापस पलंग या कुर्सी पर बैठा जाए या फिर पानी का एक गिलास पी लिया जाए। उसके बार रवाना हुआ जाए।

जरा गहराई में जाएं तो पाएंगे कि यकायक पीछे से आवाज देने का भाव हमारे मन में प्रकृति ही पैदा करती है। अर्थात जिस पल में वह भाव उत्पन्न होता है, वह किसी काम के निकलने के लिए उचित नहीं होता। प्रकृति उसे टाले जाने की सलाह दे रही होती है। अगर हम उसे अनसुना करते हैं तो उसका परिणाम विपरीत आ जाता है।

अगर इसको अंध विश्वास भी मान लें तो भी काम की सफलता इस कारण संदिग्ध हो जाती है, क्यों कि हमारे मन में यह धारणा पहले से बैठी हुई है कि पीछे से आवाज आई है, यानि कि कुछ गड़बड़ होगी ही, हमारी आत्मशक्ति में कुछ कमजोरी आ जाती है। हम वह कार्य उतने मनोयोग से नहीं कर पाते, जितने से किये जाने की जरूरत होती है। और वाकई काम ठीक से पूरा नहीं होता।

कई बार ऐसा भी होता है कि जैसे ही कोई रवाना होता है, और यकायक हमारे मन में उसे किसी बात की याद दिलाने का ख्याल आता है, मगर चूंकि हम मानते हैं कि पीछे से आवाज देना ठीक नहीं है, हम अपने आपको रोक लेते हैं और व्यक्ति को जाने देते हैं और पाते हैं कि वह स्वतः ही कुछ पल बाद वापस चला आता है, चूंकि तब तक टेलीपैथी से उसके मस्तिष्क में हमारा मस्तिष्क लौटने का संकेत भेज चुका होता है। ऐसा भी होता है कि भले ही हमने अपने आप को टोकने से रोक लिया हो फिर भी काम बिगड़ जाता है। इसका सीधा अर्थ है कि प्रकृति ने तो हमें संकेत दिया था, मगर हमने ही या तो अनसुना कर दिया या फिर बलात खुद को रोक दिया।

ऐसा नहीं कि केवल अन्य व्यक्ति के मन में ही पीछे से आवाज देने का भाव आता है, कई बार हम खुद काम के लिए निकलते हुए महसूस करते हैं कि पीछे से आवाज आ रही है, कुछ अधूरा-अधूरा सा है, या फिर हम कुछ भूल रहे हैं। कई बात तो दिमाग पर जोर डालने पर पकड़ लेते हैं कि हम क्या भूल रहे हैं, मगर कई बार ऐसा नहीं हो पाता। मजे की बात ये है कि क्या भूल रहे हैं, यह घर के भीतर जा कर उसी स्थान पर खड़े होने पर ही याद आता है, जहां से हमारे विचार या दृश्य की शृंखला टूटी है। ऐसा भी होता है कि लाख याद करने पर भी हमें याद नहीं आता तो हम काम के लिए रवाना हो जाते हैं और गन्तव्य स्थान पर पहुंचने के बाद ही पता लगता है कि अमुक चीज भूल गए।

सच में प्रकृति ने हमें मस्तिष्क नामक गजब का सुपर कंप्यूटर दिया है, जो अपने आस-पास से संकेत ग्रहण करता है और संकेत प्रेषित भी करता है। वैज्ञानिक भी इसे स्वीकार करने लगे हैं। हालांकि वे इसका वैज्ञानिक विवेचन नहीं कर पाते, मगर इसे टेली रेस्पोंस पॉवर के नाम से संबोधित करते हैं। टेली रेस्पोंस पॉवर के अनेक सफल प्रयोग हो चुके हैं। यह पूर्ण प्रमाणिक विज्ञान नहीं है, चूंकि यह हमारी मानसिक शक्ति पर निर्भर करता है। यह हमारे संदेश प्रसारण की क्षमता व संदेश ग्रहण करने की पात्रता पर निर्भर करता है। टेली रेस्पोंस पॉवर पर फिर कभी विस्तार से चर्चा करेंगे। 

आखिर में एक बात कहना जरूर कहना चाहूंगा। वो ये कि प्रकृति में सदा दो और दो चार नहीं होता, कभी तीन तो कभी पांच हो जाता है। उसकी गणित अपनी अलग है, जो हमारी गणित से मेल नही खाती। बस यहीं से रहस्यवाद का आरंभ होता है।

https://www.youtube.com/watch?v=OHIOSst2bcA

सोमवार, दिसंबर 02, 2024

काम सिद्ध करना हो तो अधिकारी के बायीं ओर खड़े होइये

हम लोग अपना किसी भी प्रकार का काम सिद्ध करने के लिए कई प्रकार के टोटके करते हैं। इनमें से कुछ तो हम विज्ञान अथवा तर्क के आधार पर कसौटी पर कस सकते हैं, मगर कुछ ऐसे भी हैं, जिनका रहस्य उजागर नहीं है। उन पर केवल यही सोच कर हम भरोसा करते हैं कि जिसने भी टोटका ईजाद किया होगा, तो जरूर उसके पीछे कोई साइंस होगा। हमारा उन पर यकीन हो तब तो ठीक, लेकिन अगर उन पर भरोसा न भी हो तो भी उन्हें आजमाने से परहेज नहीं करते। सोचते हैं कि क्या पता काम सिद्ध हो जाए।

आइये, एक ऐसे टोटके पर चर्चा करते हैं, जिसका उपयोग हमारे दैनिक जीवन में कई बार हो सकता है। ऐसी मान्यता है कि अगर आपको किसी अधिकारी या किसी ओर से कोई काम हो तो उसके बायीं ओर खड़े हो कर अपनी बात कहिये, वह आसानी से आपकी बात मान जाएगा। इसके पीछे तर्क ये दिया जाता है कि हर व्यक्ति के बायीं ओर हृदय होता है। हृदय अर्थात दिल, जो कि संवेदना का केन्द्र है। वाम अंग पर चंद्रमा का प्रभाव होता है। जब हम बायीं ओर खड़े हो कर उससे कोई मांग रखते हैं तो वह संवेदनापूर्वक हमारी बात मान जाता है। अर्थात दायीं ओर की तुलना में बायीं ओर खड़े होने पर काम सिद्ध होने की संभावना अधिक रहती है। इसलिए जब भी किसी अधिकारी के पास जाएं तो कोशिश करके उसके बायीं ओर खड़े होइये। 

एक बात और। कदाचित ऐसा भी हो सकता है कि टोटका इस्तेमाल करने के दौरान हमारा आत्मविश्वास मजबूत होता है। कि हम टोटके का उपयोग कर रहे हैं। और इसी वजह से अपनी बात पूरी ऊर्जा के साथ कहते हैं, जो सामने वाले पर असर कर जाती हो।

मैने स्वयं इसे आजमाया है। मुझे तो यह तथ्य सही लगा। मैं गलत भी हो सकता हूं, अतः आप स्वयं आजमाइये। संभव है, हम इस तथ्य की बारीकी को न समझ पाएं, मगर बायीं ओर खडे होने में हर्ज ही क्या है? क्या पता तथ्य सही हो। अगर विद्वानों ने बताया है तो कोई तो राज होगा।


रविवार, दिसंबर 01, 2024

रात के बारह बजे क्यों तोड़ते हैं व्रत?

एक सृष्टि वह है, जो हमारे चारों ओर विद्यमान है, उसके हम अंग हैं, हम उसी के अनुरूप उठते-बैठते, खाते-पीते हैं, हम उससे बंधे हुए हैं, मगर एक सृष्टि वह भी है, जो हम निर्मित करते हैं। हमारे आस-पास। जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि का कथन उसी संदर्भ में है। ऐसा नहीं है कि जैसी हमारी दृष्टि होगी, पूरी की पूरी सृष्टि भी वैसी ही हो जाएगी। वजह ये कि सृष्टि नियंता की तरह हम उतने शक्तिमान नहीं हैं, हमारी शक्ति की सीमाएं हैं। जैसे पूरी सृष्टि के शाश्वत व सार्वभौमिक नियम हम पर लागू होते हैं, वैसे ही हमारी बनाई हुई सृष्टि के नियम भी हम को प्रभावित करते हैं। एक सीमा तक।

आपने देखा होगा कि कई बार मंगलवार या शनिवार अथवा किसी और वार का व्रत रखने वाले किसी पार्टी में होते हैं तो कहते हैं कि आज अमुक वार है, मेरा व्रत है, अतः रात के बारह बजे दूसरा वार शुरू होने पर ही अन्न अथवा मदिरा का सेवन कर पाऊंगा। सवाल ये उठता है कि हम अपनी हिंदू संस्कृति के तहत व्रत रखते हैं तो उसमें वार का नियम भी हिंदू संस्कृति का लागू होगा, रात बारह बजे वार बदलने का नियम तो आंग्ल नियम है। हमारे यहां तो सूर्याेदय के समय नया वार शुरू होता है, जो कि दूसरे दिन सूर्याेदय तक रहता है। अर्थात कोई भी वार दिन से शुरू होता है और उसके बाद उस वार की रात आती है। इसी प्रकार इस्लामिक परंपरा में पहले रात व बाद में दिन शुरू होता है। तभी तो जुम्मे अर्थात शुक्रवार से पहले आने वाले गुरुवार को जुम्मेरात कहते हैं।

मुद्दा ये है कि आपने यदि मंगलवार को व्रत रखा हुआ है तो वह अगले दिन सुबह सूर्याेदय तक चलना चाहिए, जबकि अमूमन लोग रात बारह बजे ही वार बदलने वाले नियम को मानते हुए बारह बजते ही व्रत तोड़ देते हैं। आपने ये भी देखा होगा कि जो व्यक्ति मंगलवार का व्रत रखता है तो वह सोमवार की रात बारह बजे से पहले खा-पी लेता है, वह मानता है कि बारह बजे मंगलवार शुरू हो जाएगा, जबकि वह गलत है। इस बात को लेकर आपने कई बार मित्र मंडली में बहस होती हुई देखी होगी।

मेरा ऐसा अनुभव है कि कोई भी व्यक्ति जो भी नियम अपने लिए बनाता है, वह उस पर लागू होता है, उसमें संस्कृति के अनुसार बने हुए नियम का कोई अर्थ नहीं होता। यदि हमने मंगलवार की रात बारह बजे वार बदलने की धारणा अपने मन में कायम कर रखी है तो वही हमें प्रभावित करेगी। यदि हम उस धारणा को भंग करेंगे तो कदाचित वह प्रतिकूलता दे सकती है। और एक बार प्रतिकूलता मिली तो हमारा यकीन मजबूत हो जाता है कि मैंने अपना बनाया हुआ नियम तोड़ा, इस कारण प्रतिकूल स्थिति उत्पन्न हुई। वस्तुतः यह हमारी आस्था का सवाल है। एक गीत आपने सुना होगा- मानो तो गंगा मां हूं, ना मानो तो बहता पानी। ताजा मुद्दे पर यह पंक्ति सटीक बैठती है। मेरी नजर में इसका मानसिक खेल ये है कि जैसे ही किसी कारणवश हम अपनी निर्मित धारणा, जिसे कि हम लघु सृष्टि भी कह सकते हैं, के विपरीत कोई काम करेंगे, तो हमारे भीतर अपराधबोध उत्पन्न होगा, जो कि हमारी मानसिक शक्ति को कमजोर करेगा व मन में आशंका उत्पन्न होगी। कदाचित प्रतिकूल परिणाम भी हो सकता है। दूसरी ओर जिसने इस प्रकार वार का नियम नहीं बना रखा है तो उस को कोई फर्क नहीं पड़ता।

एक और उदाहरण देखिए। परंपरागत रूप से कुछ लोग मंगलवार व वृहस्पतिवार को बाल-नाखून आदि नहीं काटते, जबकि अनेक लोग बाल काटते समय वार को कोई अहमियत नहीं देते। दोनों प्रकार के लोगों पर अपने-अपने हिसाब से बनाई गई धारणा काम करती है। यह ठीक है कि जब भी मंगलवार व वृहस्पतिवार को बाल नहीं कटवाने की परंपरा शुरू हुई, उस वक्त उसके कोई तार्किक कारण रहे होंगे। हमारे दैनंदिन जीवन में प्रतिदिन में हम अनेकानेक परंपरागत नियमों का पालन करते हैं, मगर आपने देखा होगा कि समय बदलने के साथ वे नियम टूटे भी हैं और उनमें शिथिलता आई है। अब किसी ने नियम तोड़ा है तो उसे नुकसान हुआ ही है या होगा और किसी ने नियम पाला है तो उसे बहुत फायदा हुआ ही है या होगा, इस बारे में पक्के तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता।

यूं नियम की बड़ी महत्ता है, इस पर विस्तार से कभी और बात करेंगे।

आखिर में एक बात जरूर कहना चाहता हूं। प्रकृति के मामले में हमारा बोला हुआ तथ्य पूर्ण सत्य होगा, इसकी संभावना कम है, क्योंकि प्रकृति में दो और दो चार नहीं होता। कभी पांच तो कभी तीन हो जाता है। यही वजह है कि प्रकृति समझ में नहीं आती। वस्तुतरू यह प्रकृति चूंकि विरोधी तत्त्वों से मिल कर बनी है, इस कारण इसमें विरोधाभास भी खूब हैं। यह इतनी रहस्यपूर्ण है कि हम इसकी थाह नहीं पा सकते। यहां कुछ भी अंतिम सत्य नहीं है। जिसे हम सत्य मानते हैं, वही देश, काल, परिस्थिति बदलने पर असत्य हो जाता है।


गुरुवार, नवंबर 21, 2024

क्या शुभ मुहूर्त निकालना बेमानी है?

भारतीय संस्कृति में सभी कार्य शुभ मुहूर्त में ही करने की परंपरा है। ऐसा कार्य की सफलता के लिए किया जाता है। इसके प्रति लोगों में गहरी आस्था है। विवाह, भवन निर्माण, दुकान के उद्घाटन इत्यादि बड़े कार्यों में तो शुभ मुहूर्त का विशेष ध्यान रखा ही जाता है, कई लोग छोटे-छोटे कार्य भी चोघडिय़ा देख कर करते हैं। यह तो हुआ तस्वीर का एक रुख। दूसरा रुख ये है कि शुभ मुहूर्त में काम आरंभ करने पर भी कई बार असफलता हाथ लगती है। यह सर्वविदित है कि लगभग हर विवाह शुभ मुहूर्त में ही होता है, कुंडलियों का मिलान किया जाता है, बावजूद इसके गृह क्लेश और संबंध विच्छेद की घटनाएं होती हैं। शुभ मुहूर्त में दुकान का आरंभ करने पर भी कई बार दुकान नहीं चलती या फिर घाटा होने पर बंद करनी पड़ती है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या शुभ मुहूर्त बेमानी है?

किसी सज्जन ने हाल ही एक पोस्ट सोशल मीडिया पर डाली, जिसका सारांश आपकी नजर पेश है-

सीता विवाह और राम का राज्याभिषेक दोनों शुभ मुहूर्त में किए गए, फिर भी न वैवाहिक जीवन सफल हुआ, न ही राज्याभिषेक। जब मुनि वशिष्ठ से इसका जवाब मांगा गया तो उन्होंने साफ कह दिया-

सुनहु भरत भावी प्रबल, बिलखि कहेहूं मुनिनाथ। 

लाभ हानि, जीवन मरण, यश-अपयश विधि हाथ।

इसका तात्पर्य ये है कि विधि ने जो निर्धारित कर रखा है, वही होता है, चाहे आप कोई भी कार्य शुभ मुहूर्त में आरंभ करें। 

विशेष रूप से मरण के मामले में हमारा कोई दखल नहीं। वह अवश्यंभावी है। उसे टाला नहीं जा सकता। बेशक चिरंजीवी होने का वरदान तो होता है, मगर कभी न मरने का वरदान कभी किसी को नहीं मिला। यदि कोई मृत्यु से बचने के अनेक प्रकार के वरदान किसी के पास थे तो भी विधि ने उसकी मृत्यु का युक्तिसंगत रास्ता निकाल दिया। पितामह भीष्म को भले ही इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था, मगर उन्हें भी एक दिन मरना था। बस फर्क इतना था कि वे अपनी मृत्यु को टाल सकते है। 

उस पोस्ट में यह भी लिखा है कि भगवान राम व भगवान कृष्ण को विधि अनुसार ही फल भोगने पड़े। इसी प्रकार शिव जी सती की मृत्यु को नहीं टाल सके, जबकि महामृत्युंजय मंत्र उन्हीं का आह्वान करता है। इसी प्रकार रामकृष्ण परमहंस भी अपने कैंसर को न टाल सके। न साईं बाबा अपनी मृत्यु को और न ईसा मसीह अपनी पीड़ादायक मृत्यु को। रावण व कंस बहुत शक्तिसंपन्न थे, मगर उनका अंत भी विधि ने तय कर रखा था।

प्रश्न ये उठता है कि जब सब कुछ विधि के ही हाथ है तो मुहूर्त निकलवाने की जरूरत क्या है?

ऐसा प्रतीत होता है कि विधि का विधान तो काम करता ही है, मगर किसी भी कार्य की सफलता में कई फैक्टर काम करते हैं। वस्तुतः विधि अपनी ओर से कुछ भी निर्धारित नहीं करती। वह हमारे कर्मों, काम के प्रति समर्पण, लगन, मेहनत आदि से ही गणना कर निर्धारण करती है। कदाचित पूर्व जन्म के कर्म व संस्कार भी भूमिका अदा करते हैं। शुभ समय में काम आरंभ करना भी एक फैक्टर है, मगर अकेले इससे काम नहीं चलता, अन्य फैक्टर भी काम करते हैं। इसी कारण शुभ मुहूर्त में कार्यारंभ करने पर भी कई बार असफलता हाथ लगती है। 

एक और बात ये भी लगती है कि जीवन के सोलह संस्कार व अन्य बड़े काम पूर्व कर्मों के आधार पर पहले से निर्धारित होते हैं, मगर दैनिक दिनचर्या से जुड़े छोटे-मोटे कार्य में शुभ मुहूर्त अपनी भूमिका निभाता है। इसका आप स्पष्ट अनुभव भी कर सकते हैं। चूंकि शुभ मुहूर्त का अस्तित्व माना गया है, इस कारण यह जानते हुए भी कि होगा वही जो मंजूरे खुदा होगा, हम शुभ मुहूर्त निकलवाते हैं। और सफलता नहीं मिलने पर हम यह मान कर अपने आप को संतुष्ट करते हैं कि हमारी किस्मत में नहीं था, या फिर हमसे कोई त्रुटि हो गई होगी।

बुधवार, नवंबर 13, 2024

क्या अंतिम समय में भगवान का नाम लेने से कल्याण संभव है?

क्या अंतिम समय में भगवान का नाम लेने से कल्याण संभव है? मान्यता तो यही है, इसी कारण अंत समय में भगवान का नाम लेने व स्मरण करने की सलाह दी जाती है। मरणासन्न व्यक्ति के सामने भगवान का नाम दोहराया जाता है, ताकि उसका ध्यान भगवान में लगे। मगर सवाल यह उठता है कि जिसने जीवन भर धर्माचरण नहीं किया, केवल आखिरी वक्त में भगवान का नाम लेने से उसका कल्याण कैसे हो सकता है? अव्वल तो मरते समय भगवान पर ध्यान स्थिर होना ही मुष्किल है। इस बारे में विद्वानों की मान्यता है कि अंतिम समय में भगवान का नाम लेने से कल्याण की संभावना है, लेकिन यह व्यक्ति की आंतरिक स्थिति, उनके कर्म, और पूरे जीवन में किए गए प्रयासों पर भी निर्भर करता है। असंभव भले न हो, मगर कठिन जरूर है। आध्यात्मिक दृष्टि से इसका तात्पर्य यह है कि अंतिम समय में भगवान का नाम लेने से व्यक्ति की चेतना का स्तर ऊंचा होता है और वह भौतिक बंधनों से मुक्त हो जाता है। इस प्रकार, भले ही व्यक्ति ने जीवन में गलतियां की हों, अंत में भगवान का स्मरण करने से उसे एक विशेष कृपा मिल सकती है।

दूसरा मत ये है कि सिर्फ अंतिम समय में भगवान का नाम लेना ही पर्याप्त नहीं होता। यदि व्यक्ति अपने पूरे जीवन में धर्म का पालन करता है, सत्कर्म करता है और भगवान का स्मरण करता है, तो अंत में उसका भगवान से जुड़ना सहज और स्वाभाविक हो जाता है।

 अंतिम समय में भगवान का स्मरण केवल तभी फलदायी होता है जब व्यक्ति ने पूर्व में आध्यात्मिक साधना की हो या संपूर्ण विश्वास से उसे किया हो।


शनिवार, नवंबर 09, 2024

नंदी के कान में क्यों बताते हैं मनोकामना?

आपने देखा होगा कि कई श्रद्धालु षिवजी के मंदिर में दर्षन को जाते हैं तो मंदिर के गर्भगृह के ठीक बाहर सामने स्थित नंदी की प्रतिमा के कान में कुछ फुसफुसाते हैं। असल वे नंदी को अपनी मनोकामना बताते हैं। विष्वास यह कि नंदी उनकी मनोकामना की जानकारी षिवजी को देंगे और षिवजी उसे पूरा करेंगे। असल में मान्यता है कि नंदी षिवजी के परमभक्त व उनके वाहन हैं। उसके सबसे करीब। अतः अर्जी ठीक मुकाम पर पहुंचेगी। यह ठीक वैसे ही है, जैसे श्रद्धालु दरगाह ख्वाजा साहब में हाजिरी के वक्त ख्वाजा साहब से दुआ मांगते हैं, मगर हाजिरी अर्थात जियारत की रस्म खुद्दाम साहेबान अदा करते हैं। इसी प्रकार तीर्थराज पुश्कर में स्नान के दौरान पूजा अर्चना किसी पुरोहित के माध्यम से करवाते है। बेषक अपने ईश्ट से सीधे भी संपर्क साधा जा सकता है, मगर माध्यम की जरूरत होती ही है। जैसे मुवक्किल को वकील की जरूरत होती है। किसी सज्जन ने इंटरनेट पर लिखा है कि नंदी के कान में मनोकामना बताने का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। यह आस्था मात्र है। बिलकुल यह प्रथा विज्ञान द्वारा प्रमाणित नहीं है। मगर वैज्ञानिक आधार तलाषना भी तो अर्थहीन है। क्या खादिम व पुरोहित की भूमिका का कोई वैज्ञानिक आधार है। नहीं। तो नंदी की अहमियत पर सवाल करना उचित कैसे हो सकता है?

पौराणिक कथा के अनुसार, शिलाद नाम के मुनि ने संतान प्राप्ति की कामना के साथ भगवान इंद्रदेव को रिझाने के लिए तपस्या की। परंतु, इंद्रदेव ने संतान का वरदान देने में असर्मथता जताते हुए भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए अनुरोध किया। इसके बाद शिलाद मुनि ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए तपस्या की। जिसके बाद शिवजी प्रकट हुए और उन्होंने शिलाद को स्वयं के रूप में प्रकट होने का वरदान दिया। महादेव के वरदान के बाद शिलाद मुनि को नंदी के रूप में संतान प्राप्त हुई। शिवजी के आशीर्वाद के कारण नंदी अजर अमर हो गए। उन्होंने संपूर्ण गणों, गणेश व वेदों के समक्ष गणों के अधिपति के रूप में नंदी का अभिषेक कराया। जिसके बाद नंदी नंदीश्वर कहलाए। भगवान शिव ने नंदी को वरदान दिया कि जहां उनका निवास होगा, वहां स्वयं भी निवास करेंगे। मान्यता है कि तब से ही शिव मंदिर में भगवान शिव के सामने नंदी विराजमान रहते हैं।


बुधवार, नवंबर 06, 2024

ज्योतिषी के लिए आस्तिक होना जरूरी नहीं?

क्या आपको इस बात पर यकीन होगा कि कोई नास्तिक भी ज्योतिश का प्रकांड पंडित हो सकता है। जाहिर है, आप यही कहेंगे कि ऐसा कैसे संभव हो सकता है। जो आस्तिक नहीं, उसे ज्योतिश आ ही कैसे सकता है। मगर सच ये है कि ऐसा संभव होते देखा है मैने। मेरे एक अभिन्न मित्र नास्तिक हैं, बचपन से। कभी कोई पूजा-पाठ नहीं करते। न दीया जलाते हैं और न ही अगरबत्ती। बावजूद इसके वे हस्तरेखा व कुंडली के प्रकांड विद्वान हैं। सटीक भविश्यवाणी किया करते हैं। दिलचस्प बात ये है कि खुद टोने-टोटके में यकीन नहीं करते, मगर जिज्ञासु को उसका उपाय बताते हैं। मैं तब अचंभित रह गया, जब उन्होंने एक सुपरिचित ज्योतिशी को उनकी हथेली देख कर बता दिया था अमुक दिन आपका एक बडा ऑपरेषन होगा, जबकि स्वयं ज्योतिशी को इसकी जानकारी नहीं थी। ऐसा प्रतीत होता है कि ज्योतिश विषुद्ध रूप से एक विज्ञान है, जैसे एमबीबीएस। एमबीबीएस करने के लिए धार्मिक होने की कोई जरूरत नहीं, ठीक इसी प्रकार ज्योतिर्विद्या सीखने के लिए आस्तिक होना जरूरी नहीं। हां, इतना जरूर हो सकता है कि आस्तिक ज्योतिशी भविश्य वाणी करते वक्त अंतर्दृश्टि का उपयोग भी किया करते होंगे। इन्ट्यूषन का उपयोग करते होंगे। मैं निजता की रक्षा करते हुए नास्तिक ज्योतिशी का नाम उजागर नहीं करूंगा। मेरा मकसद सिर्फ ज्योतिश को विषुद्ध विज्ञाान होने को आपसे साझा करना है।


गुरुवार, अक्टूबर 31, 2024

मनो संवाद विधि से गीता पर लिखी अनूठी पुस्तक

आपको यह जान कर अचरज हो सकता है कि क्या मनोसंवाद विधि से, पश्यंति वाणी से कोई पुस्तक लिखी जा सकती है। जी हां, अजमेर  के विद्वान श्री शिव शर्मा ने यह उपलब्धि हासिल की है। इस पुस्तक में सूफी संत हजरत हरप्रसाद मिश्रा उवैसी ने गीता के एक श्लोक की 110 पेज में व्याख्या कराई है। प्राचीन ऋषि-मुनियों वाली मनोसंवाद विधि से कराए गए इस कार्य के लिए आपने अपने मुरीद अजमेर के जाने-माने इतिहासविद व पत्रकार श्री शिव शर्मा को माध्यम बनाया।

गीता शास्त्र में दूसरे अध्याय के सर्वाधित चर्चित श्लोक है-

कर्मण्येवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफल हेतुर्भूमा, ते संगोस्तव कर्मणि।

इस एक ही श्लोक में गीता के कर्मयोग का सार निहित है। इसका अर्थ समझने के लिए कर्म के उनतीस रूपों की विवेचना की गई है-स्वकर्म, स्वधर्म, नियतकर्म, अकर्म, विकर्म, निषिद्ध कर्म आदि। आपने स्पष्ट किया है कि कर्म के शास्त्रीय, प्रासंगिक, मनोवैज्ञानिक और परिस्थितिगत व्यावहारिक पक्षों को ज्ञात लेने के बाद ही इस श्लोक के वास्तविक अर्थ को समझा जा सकता है। गुरुदेव ने 22 नवंबर 2008 को महासमाधि ले ली थी और यह कार्य आपने 2011 में करवाया। आपकी रूहानी चेतना के माध्यम बने आपके शिष्य श्री शिव शर्मा ने बताया कि शक्तिपात के द्वारा आपने नाम दीक्षा के वक्त ही मेरी कुंडलिनी शक्ति को आज्ञाचक्र पर स्थित कर दिया था। फिर मेरी आंतरिक चेतना को देह से समेट कर आप इसी जगह चौतन्य कर देते थे। उसी अवस्था में आप इस श्लोक की व्याख्या समझाते थे। यह कार्य पश्यन्ती वाणी के सहारे होता था। वाणी के चार रूप होते हैं-परा यानि जिसे आकाश व्यापी ब्रह्म वाणी जो केवल सिद्ध संत महात्मा सुनते हैं, पश्यन्ति यानि नाभी चक्र में धड़कने वाला शब्द जो आज्ञा चक्र पर आत्मा की शक्ति से सुना जाता है और देखा भी जाता है, मध्यमा यानि हृदय क्षेत्र में स्पंदित शब्द और बैखरी यानि कंड से निकलने वाली वाणी जिसके सहारे में हम सब बोलते हैं। कामिल पूर्ण गुरू हमारे अंतर्मन में पश्यन्ती के रूप में बोलते हैं। गुरुदेव ने मुझ पर इतनी बड़ी कृपा क्यों की, मैं नहीं जानता, किंतु जिन दिनों आप मुझसे यह कार्य करवा रहे थे, उन दिनों ध्यान की खुमारी चढ़ी रहती थी। ध्यान में गीता, मौन में गीता, इबादत में गीता, सत्संग में गीता, अध्ययन में गीता और चिंतन में भी गीता ही व्याप्त रहती थी। बाहरी स्तर पर जीवन सामान्य रूप से चलता रहता था, लेकिन अंतर्मन में गुरु चेतना, गीता शास्त्र और भगवान वासुदेव श्री कृष्ण की परा चेतना धड़कती रहती थी।

हजरत मिश्रा जी ने भगवान श्री कृष्ण के दो बार दर्शन किए थे। उनके दीक्षा गुरू सूफी कलंदर बाबा बादामशाह की भी श्रीकृष्ण में अटूट निष्ठा थी। संभवतः इसीलिए पर्दा फरमाने के बाद भी आपने गीता के इस एक ही श्लोक की विराट व्याख्या वाला लोक कल्याणकारी कार्य कराया है। इस पुस्तक में गुरुदेव ने कहा है कि मनुष्य मन का गुलाम है और गीता इस गुलामी से छूटने की बात करती है। आप कामनाओं के वश में हैं और गीमा इनसे मुक्त होने की राह दिखाती है। आप पर अहंकार हावी है, जबकि गीता इस अहंकार को जड़मूल से उखाड़ फैंकने की बात समझाती है। आप भोग की तरफ भागते हैं, गीता कर्मपथ पर दौड़ाती है। आप स्वर्ग के लिए ललचाते हैं और गीता आपको जन्म-मरण से छुटकारा दिलाने वाले परमधाम तक पहुंचाना चाहती है। इसलिए गीता से भागो मत, उसे अपनाओ, कर्मयोग से घबराओ मत, उसे स्वीकार करो। तुम मोक्षदायी कर्मयोग के पथ पर कदम तो रखो, भगवान स्वयं तुम्हें चलाना सिखा देंगे।

पुस्तक में गुरू महाराज ने कहा है कि मनुष्य को केवल कर्तव्य कर्म करने का अधिकार है। स्वैच्छाचारी कर्म उसका पतन करते हैं। यह पुस्तक अजमेर के अभिनव प्रकाशन ने प्रकाशित की है। इसके बाद नारी मुक्ति से संबंधित अगली पुस्तक में गुरूदेव गीता के ही आधे श्लोक की व्याख्या करा रहे हैं।

लेखक शिव शर्मा स्वभाव से दार्शनिक हैं और अजमेर के इतिहास के अच्छे जानकार हैं। इससे पहले वे अनेक पुस्तकें लिख चुके हैं। उनमें प्रमुख हैं-भाषा विज्ञान, हिंदी साहित्य का इतिहास, ऊषा हिंदी निबंध, केशव कृत रामचन्द्रिका, कनुप्रिया, चंद्रगुप्त, रस प्रक्रिया, भारतीय दर्शन, राजस्थान सामान्य ज्ञान, हमारे पूज्य गुरुदेव, पुष्कर, अध्यात्म और इतिहास, अपना अजमेर, अजमेर - इतिहास व पर्यटन, दशानन चरित, सदगुरू शरणम, मोक्ष का सत्य, गुरू भक्ति की कहानियां।


सोमवार, अक्टूबर 28, 2024

ज्ञानी की छाया नहीं बना करती?

विद्वान कहते हैं कि ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति की छाया नहीं बनती। इस पर सहसा यकीन नहीं होता। भला किसी व्यक्ति की छाया कैसे नहीं बन सकती। धूप के सामने खडे होंगे तो छाया बनेगी ही। अतः कुछ विवेचकों ने इसका अर्थ यह निकाला है कि यह कथन भौतिक नहीं, बल्कि गहन और आध्यात्मिक है, जिसका संबंध आत्मबोध, आत्मज्ञान या आध्यात्मिक जागरूकता से है। अर्थत जब व्यक्ति वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर लेता है, तो वह कर्म बंध व भौतिकता से परे हो जाता है। यह विचार खासकर अद्वैत वेदांत व बौद्ध धर्म से आया हुआ प्रतीत होता है। छाया भौतिक संसार की सीमाओं, माया या अज्ञानता का प्रतीक हो सकती है। जब व्यक्ति ज्ञान के उच्चतम स्तर पर पहुंचता है, तो वह माया या भौतिक बंधनों से मुक्त हो जाता है, और इस कारण उसकी छाया नहीं बनती। छाया का न बनना यह दर्शाता है कि वह व्यक्ति अब आत्मा के शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर चुका है, जो असीम और अप्रभावित है।

छाया का अभाव यह भी इंगित करता है कि उस व्यक्ति में कोई भ्रम या अज्ञानता शेष नहीं रहती, क्योंकि वह अब पूर्ण ज्ञान में है। छाया के मायने हैं संचित कर्म। जो मृत्यु के बाद अगले जन्म में साथ चलते हैं। ज्ञानी चूंकि अनासक्त भाव से कृत्य करता है, इस कारण छाया के रूप में कर्मबंधन बनता ही नहीं। सारे कर्म पानी पर खींची गई रेखा के समान होते हैं। कदाचित कथन भौतिक रूप से सही भी हो। ज्ञातव्य है कि सामुद्रिक षास्त्र में यह मान्यता है कि जब व्यक्ति की मृत्यु निकट होती है तो कर्मों के रूप में संचित छाया आगे की या़त्रा के लिए षरीर से विलग हो जाती है। छाया बनना बंद हो जाती है। इस विचार की रोषनी में यह ठीक प्रतीत होता है कि ज्ञानी की छाया वाकई नहीं बनती हो, क्योंकि उसने कर्मों का संचय किया ही नहीं है।


रविवार, अक्टूबर 27, 2024

उम्र बढानी हो तो रो लीजिए

आपने देखा होगा कि इस जगत में विधवाओं की संख्या अधिक है, जबकि विधुरों की कम। वजह क्या है? वजह ये कि आदमी की उम्र औरत की तुलना में कम होती है। उसकी मूल वजह आदमी का अपेक्षाकृत अधिक तनाव ग्रस्त होना। यह भी कि औरत की सहन षक्ति अधिक होती है, इसलिए वह तनाव को झेल जाती है। इसी कारण यह अवधारणा बनी है कि चूंकि आदमी अमूमन नहीं रोता, इस कारण उसकी उम्र कम होती है, जबकि औरत रोती है, इस कारण उसकी उम्र अधिक होती है। इसके अतिरिक्त पति की मृत्यु के बाद विधवा फिर भी लंबा जी लेती है, जबकि पत्नी की मृत्यु के बाद पति की जीवन कठिन हो जाता है। उसे परिवार का अपेक्षित सहयोग नहीं मिल पाता।

यह एक आम धारणा है कि आदमी को रोना नहीं चाहिए। रोने से उसकी मर्दानगी पर सवाल उठता है। जब कोई लडका रोता है तो यही कहते हैं कि लडकी है क्या, जो रो रहा है। रोती तो लडकियां हैं, लडके नहीं। हालांकि, मौलिक रूप से यह गलत है। रोना एक स्वाभाविक मानवीय भावना है, और इसे व्यक्त करना मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए जरूरी होता है। जानकार तो रोने के भी फायदे गिनाते हैं। रोने से हमारे शरीर से स्ट्रेस हार्मोन (जैसे कि कॉर्टिसोल) कम होते हैं, जिससे तनाव कम होता है और व्यक्ति को मानसिक राहत मिलती है। तभी तो कहते हैं कि रोने से मन हल्का हो जाता है। किसी महिला के पति की मौत हो जाने पर उसे जानबूझ कर रूलाया जाता है, ताकि उसका मन हल्का हो जाए, वह तनाव से मुक्त हो जाए। इसके अतिरिक्त जब हम अपने दुख या भावनाएं व्यक्त करते हैं, तो दूसरों से समर्थन पाने की संभावना बढ़ जाती है, जो कि मानसिक स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद है।

चूंकि आदमी के रोने को मर्दानगी से जोडा जाता है, इस कारण वह सामान्यतः नहीं रोता या अपने आप को रोने से रोक लेता है। रोने को दबाने या भावनाओं को व्यक्त न करने से लंबे समय तक मानसिक तनाव और शारीरिक स्वास्थ्य समस्याओं का कारण बन सकता है, जिससे व्यक्ति की उम्र कम हो जाती है। इसलिए विद्वान सलाह देते हैं कि किसी परेषानी के कारण रोने का मन करे तो रो लेना चाहिए, चाहे अपने किसी अंतरग के सामने, चाहे कमरा बंद कर अकेले में।


शुक्रवार, अक्टूबर 25, 2024

अंतिम यात्रा में शव की दिशा क्यों बदल दी जाती है?

आपको जानकारी होगी कि षव यात्रा के दौरान आरंभ में मृतक का सिर आगे रखा जाता है, फिर आधे रास्ते में दिषा बदल दी जाती है और पैर आगे कर दिए जाते हैं। क्या आपको ख्याल है कि ऐसा क्यों किया जाता है?

षव यात्रा के दौरान मृतक के सिर की दिशा में बदलाव एक प्राचीन परंपरा और धार्मिक मान्यता का हिस्सा है, जो विभिन्न सांस्कृतिक और धार्मिक संदर्भों में महत्वपूर्ण है।

ऐसी मान्यता है कि मृतक की आत्मा को उसकी अंतिम यात्रा में सम्मानजनक तरीके से विदा किया जाना चाहिए। शव को आरंभ में सिर आगे करके ले जाना इस बात का प्रतीक है कि मृतक अभी भी परिवार और समाज के बीच है। आधे रास्ते में पैर आगे करके शव को ले जाने का अर्थ यह है कि अब वह दुनिया से विदा हो रहा है, संसार के कर्तव्यों से मुक्ति पा ली है और उसे अंतिम विश्राम स्थल की ओर ले जाया जा रहा है। रास्ते के बीच में चबूतरा होता है, जहां षव की दिषा बदल जाती है। दिषा बदलने से मृतात्मा का जगत से संबंध टूटता है। तब उसे अहसास होता है कि अब जगत से नाता टूट रहा है और उसकी यात्रा परलोक की ओर है।


गुरुवार, अक्टूबर 24, 2024

क्या आदमी का क्लोन बनाया जा सकता है?

वैज्ञानिकों का मानना है कि आदमी का क्लोन बनाया तो जा सकता है, वर्तमान में तकनीकी रूप से इंसान का पूर्ण क्लोन बनाना संभव नहीं है। एक तो एक तो नैतिक व कानूनी बाधाओं के कारण मानव का क्लोन बनाने पर वैष्विक प्रतिबंध है। दूसरा क्लोनिंग अब तक इंसानों के लिए सफल या सुरक्षित साबित नहीं हुई है।

हालांकि, वैज्ञानिकों ने कुछ हद तक क्लोनिंग की तकनीकों का विकास किया है, जैसे कि जानवरों की क्लोनिंग। 1996 में भेड़ डॉली को सफलतापूर्वक क्लोन किया गया था, जो कि एक बडी उपलब्धि थी।

क्लोनिंग के दो प्रमुख प्रकार होते हैं- एक थेराप्यूटिक क्लोनिंग, इसमें स्टेम सेल्स का उपयोग किया जाता है ताकि किसी व्यक्ति के अंग या ऊतक की मरम्मत या प्रतिस्थापन किया जा सके। दूसरा रीप्रोडक्टिव क्लोनिंग, यह उस प्रक्रिया को संदर्भित करता है, जिसमें एक संपूर्ण जीव का क्लोन बनाया जाता है। लेकिन 

यह एक बहुत ही जटिल और जोखिम भरी प्रक्रिया है, जिसमें स्वास्थ्य से जुड़ी गंभीर चिंताएं हैं।

रविवार, अक्टूबर 20, 2024

गंगा नदी में नहाने से पाप धुल जाते हैं?

 मान्यता है कि गंगा नदी में नहाने से पाप धुल जाते हैं। जो भी बुरे कर्म किए हैं, उनसे मुक्ति मिल जाती है। बेषक गंगा में नहाने से पुण्य तो मिल सकता है, नई उर्जा का संचार तो हो सकता है, मगर किए हुए कर्मों से मुक्ति कैसे मिल सकती है, जबकि सिद्धांत यह है कि आदमी को कर्मों का फल भोगना ही होता है, तत्काल या देर से। आप देखिए न, अपने कर्मों के फल से तो गंगा के पुत्र भीष्म भी नहीं बच पाए थे। उन्हें भी षर षैया पर लेटना पडा था। गंगा स्वयं अपने पुत्र तक को कर्म के बंधन से मुक्त नहीं कर पाई थी। असल में होना यह चाहिए कि हम बुरे कर्म करें ही नहीं कि पाप धोने के लिए गंगा में स्नान करना पडे। मगर हम बहुत चालाक हैं, पहले बुरे कर्म धडल्ले से करते हैं और फिर पाप धोने के लिए गंगा नहाने चले जाते हैं।

शुक्रवार, अक्टूबर 18, 2024

भगवान के दाढ़ी-मूंछ क्यों नहीं होती है?


आपने देखा होगा कि देवी-देवताओं से इतर जितने भी महामानव हुए हैं, जिन्हें कि हम भगवान मानते हैं, उनके चित्रों व मूर्तियों में चेहरों पर दाढ़ी-मूंछ नहीं होती। इसमें भी किंचित अपवाद हो सकता है, मगर क्या आपने कभी सोचा है कि ऐसा क्यों है? भगवान कहे जाने वाले राम, कृश्ण, महावीर व बुद्ध के दाढी मूंछ क्यों नहीं होती? आइये, समझने की कोषिष करते हैं कि आखिर ऐसा क्यों है-

भगवान के दाढी मूंछ क्यों नहीं होती, इस गुत्थी को समझने से पहले भगवान शब्द पर आते हैं। इसकी अलग-अलग तरह से व्याख्या हुई है। जैसे जिसके पास धन है, उसे धनवान कहते हैं, उसी प्रकार जिसके पास भग है, वह भगवान है। भग अर्थात योनि। अर्थात प्रकृति। जो आदि शक्ति भगवति से युक्त है, वह भगवान है। वह पूर्ण है। हमारी संस्कृति में अर्धनारीश्वर का जिक्र आता है। उसका मतलब है, जो पुरुष व नारी के समान भाग से मिल कर बना है।

एक व्याख्या ये है कि साकार भगवान, निराकार ईश्वर का ही अवतार है, जैसे श्रीराम व श्रीकृष्ण। इसी प्रकार महावीर व बुद्ध को भी भगवान की श्रेणी में गिना जाता है। वो इसलिए कि महावीर ने केवल्य ज्ञान अर्जित किया और बुद्ध ने बुद्धत्व। इन दोनों के बारे में मान्यता है कि वे मोक्ष को प्राप्त हो गए। वे पूर्णता को प्राप्त हो गए। जन्म-मरण के चक्र से मुक्त।

अब तथ्य की बात, जिसे कि विज्ञान भी मानता है। वो यह कि हर मनुष्य, चाहे वह नर हो या नारी, वह पुरुष व स्त्री, दोनों के ही गुणों से युक्त होता है, क्योंकि उसकी संरचना ही स्त्री व पुरुष के संयोग से हुई है। अंतर सिर्फ गुणसूत्रों का है। अगर पुरुष के गुणसूत्र अधिक हैं तो वह पुरुष के रूप में पैदा होता है और अगर स्त्री के गुणसूत्र अधिक हैं तो उसका जन्म नारी रूप में होता है। हर पुरुष में नारी के भी गुण होते हैं और हर स्त्री में पुरुषों के भी गुण होते हैं। आपने देखा होगा कि कुछ स्त्रियों में जन्म के बाद किन्हीं करणों से पुरुषों के गुण ज्यादा हो जाते हैं तो वह पुरुषों की तरह व्यवहार करती हैं। इसी प्रकार जिन पुरुषों में स्त्रियोचित गुण विकसित हो जाते हैं तो वे स्त्रैण कहलाते हैं। स्त्रैणता का सबसे अनूठा उदाहरण स्वामी रामकृष्ण परमहंस को माना जाता है। वे देवी के उपासक थे। वे देवी में इतने लीन हो गए कि उनका शरीर भी स्त्रैण हाने लगा। बताते हैं कि जीवन के आखिरी वर्षों में उनके स्तन उभरने लगे थे। जहां तक प्राकृतिक विकृति का सवाल है गुण सूत्रों के असंतुलन के परिणाम स्वरूप मनुष्य किन्नर रूप में जन्म लेता है। हालांकि किन्नरों में भी नर-मादा का विभेद है, लेकिन आम तौर पर आपने देखा होगा कि किन्नर की आवाज पुरुषों की तरह मोटी होती है, मगर चेहरे पर दाढ़ी-मूंछ नहीं आती। व्यवहार पुरुषों की तरह, मगर चाल-ढ़ाल स्त्रियों की तरह।

यह भी एक तथ्य है कि पुरुषों के चेहरे पर दाढ़ी व मूंछ के रूप में बाल होते हैं, जबकि स्त्रियों में ऐसा नहीं होता। कई बार ऐसा पाया गया है कि जो भी स्त्री पुरुषोचित व्यवहार करती है तो उसके भी पुरुषों की तरह चेहरे पर बाल आने लगते हैं। ऐसे भी प्रमाण हैं कि बहुत अधिक उम्र होने पर महिलाओं में गुण सूत्रों का, हारमोन्स का असंतुलन होता है और उनके दाढ़ी-मूंछ आने लगती है।

अब बात मुद्दे की। कोई भी पुरुष पूर्णता को उपलब्ध होता है, अर्थात भगवान की श्रेणी में आता है, तब उसमें पुरुष व स्त्री के गुण समान होते हैं। इसी कारण उसके चेहरे पर बाल नहीं होते। आपने भगवान राम, भगवान कृष्ण, भगवान महावीर, भगवान बुद्ध के जितने भी चित्र या मूर्तियां देखी होंगी, उनमें उनके दाढ़ी-मूंछ नजर नहीं आई होगी। वजह क्या है? क्या वे रोजाना शेव करते थे? इसका जिक्र शास्त्रों में तो कहीं पर भी नहीं है। अर्थात उनके चेहरे पर बाल आते ही नहीं थे? और वजह थी पूर्ण अवस्था। जितना पुरुष, उतनी ही स्त्री। हालांकि यह भी पक्का नहीं है कि वस्तुस्थिति क्या रही होगी, मगर कुछ तथ्यों के आधार पर ऋषि-मुनियों ने जैसा वर्णन किया, उसी के अनुरूप चित्र व मूर्तियां बना दी गईं। 

ऐसी भी मान्यता है कि भगवान सदा किशोर और अमूर्त है। किशोरावस्था दाढ़ी पैदा होने से पहले की अवस्था है। भरपूर यौवन, प्रखर ओज। इसी आधार पर हमने भगवान की परिकल्पना किशोर के रूप में की। किशोरावस्था को ध्यान में रख कर ही मन्दिरों में मूर्तियां रची गईं। यही वजह है कि उनके चेहरे पर दाढ़ी-मूंछ नहीं दर्शाई गई है।

प्रसंगवश आखिर में भगवान की भिन्न-भिन्न व्याख्याओं पर आते हैं। भगवान शब्द में युक्त भग का अर्थ कामना व भाग्य भी होता है। भग से तात्पर्य प्रकृति या भौतिक संसार से है, अर्थात जो सभी भौतिक आनंदों, कामनाओं और भाग्य को धारणा करने वाला गर्भ है, वह भगवान है। राम व कृष्ण को हम अवतार की श्रेणी में मानते हैं, मगर चूंकि उन्होंने शरीर धारण किया है, इस कारण इस भौतिक संसार से बंधे हुए हैं। उनके जीवन में भी वैसे ही सुख-दुख आए, जैसे कि सामान्य मानव के आते हैं। भगवान का अर्थ जितेंद्रिय भी माना जाता है। इंद्रियों को जीतने वाला। जिसने पांचों इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है तथा जिसकी पंच तत्वों पर पकड़ है, उसे भगवान कहते हैं। जैसे महावीर व बुद्ध। जितेन्द्रिय यानि वह जो पूर्णता को, मोक्ष को प्राप्त हो चुका है और जो जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो गया हो, वही भगवान है। एक और व्याख्या में बताया गया है कि भग यानि ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य, ये छह गुण अपनी समग्रता में जिसमें हों, उसे भगवान कहते हैं। 

गुरुवार, अक्टूबर 03, 2024

जेनेरिक दवाओं की गुणवत्ता पर अब भी संशय क्यों?

राजस्थान में निःशुल्क जेनेरिक दवा योजना के प्रणेता डॉ समित शर्मा ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधीजी की जयंती पर 13 वर्ष पूर्व राजस्थान राज्य के समस्त राजकीय चिकित्सा संस्थानो में आने वाले प्रत्येक रोगी के लिए जेनेरिक मेडिसिन के ड्रीम प्रोजेक्ट के तहत ’निशुल्क दवा योजना’ आरंभ करने के बारे में अपने फेसबुक अकाउंट पर उद्गार व्यक्त किए हैं। उन्होंने लिखा है कि राजस्थान मेडिकल सर्विसेज कॉरपोरेशन एवं चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग की कर्तव्यनिष्ठ और समर्पित टीम ने अनेक बाधाओं और चुनौतियां से लड़ते हुए इसे धरातल पर उतारा, उस विजयी टीम का भी बहुत-बहुत आभार। इतने वर्षों से हमारे सेवाभावी चिकित्सक बंधु, फार्मासिस्ट, नर्सिंग कर्मी आदि अनवरत अनेक रोगियों के दुख, दर्द और कष्टों को दूर करने व उनकी जान बचाने का पुण्य कार्य इसके माध्यम से कर है। उन सब की मेहनत और कर्तव्य निष्ठा को कोटि-कोटि प्रणाम।

बेशक डॉ शर्मा के प्रयासों से मेडिसिन के क्षेत्र में युगांतरकारी परिवर्तन किया जा सका है। वे कोटि कोटि साधुवाद के पात्र हैं। लाभान्वितों की संख्या भी निरंतर बढ रही है, मगर आज भी जेनेरिक दवाओं पर पूर्ण विश्वास कायम नहीं किया जा सका है। आज भी यह धारणा समाप्त नहीं की जा सकी है कि जेनेरिक दवाएं गुणवत्ता की दृश्टि से कमतर हैं। अतः इस महत्वाकांक्षी व बहुउपयोगी योजना की पूर्ण सफलता के लिए गुणवत्ता कायम रखने के कडे उपाय किए जाने चाहिए। 


जेनेरिक दवाओं की गुणवत्ता पर अब भी संशय क्यों?

राजस्थान में निःशुल्क जेनेरिक दवा योजना के प्रणेता डॉ समित शर्मा ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधीजी की जयंती पर 13 वर्ष पूर्व राजस्थान राज्य के समस्त राजकीय चिकित्सा संस्थानो में आने वाले प्रत्येक रोगी के लिए जेनेरिक मेडिसिन के ड्रीम प्रोजेक्ट के तहत ’निशुल्क दवा योजना’ आरंभ करने के बारे में अपने फेसबुक अकाउंट पर उद्गार व्यक्त किए हैं। उन्होंने लिखा है कि राजस्थान मेडिकल सर्विसेज कॉरपोरेशन एवं चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग की कर्तव्यनिष्ठ और समर्पित टीम ने अनेक बाधाओं और चुनौतियां से लड़ते हुए इसे धरातल पर उतारा, उस विजयी टीम का भी बहुत-बहुत आभार। इतने वर्षों से हमारे सेवाभावी चिकित्सक बंधु, फार्मासिस्ट, नर्सिंग कर्मी आदि अनवरत अनेक रोगियों के दुख, दर्द और कष्टों को दूर करने व उनकी जान बचाने का पुण्य कार्य इसके माध्यम से कर है। उन सब की मेहनत और कर्तव्य निष्ठा को कोटि-कोटि प्रणाम।

बेशक डॉ शर्मा के प्रयासों से मेडिसिन के क्षेत्र में युगांतरकारी परिवर्तन किया जा सका है। वे कोटि कोटि साधुवाद के पात्र हैं। लाभान्वितों की संख्या भी निरंतर बढ रही है, मगर आज भी जेनेरिक दवाओं पर पूर्ण विश्वास कायम नहीं किया जा सका है। आज भी यह धारणा समाप्त नहीं की जा सकी है कि जेनेरिक दवाएं गुणवत्ता की दृश्टि से कमतर हैं। अतः इस महत्वाकांक्षी व बहुउपयोगी योजना की पूर्ण सफलता के लिए गुणवत्ता कायम रखने के कडे उपाय किए जाने चाहिए। 


रिटायर्ड कर्मचारी की उम्र कम हो जाती है?

एक सर्वे के मुताबिक जो कर्मचारी अस्सी साल जी सकता था, रिटायर होने के कारण सत्तर साल में ही मर जाता है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार कर्मचारी रिटायरमेंट के बाद काम के अभाव में धीरे धीरे अकर्मण्य होने लगता है, जिससे उसका मानसिक स्वास्थ्य बिगडने लगता है। उसका प्रभाव शारीरिक स्वास्थ्य पर भी पडता है और उसे बीमारियां घेरने लगती हैं। वस्तुतः सरकार की ओर से रिटायरमेंट की तय आयु के बाद भी अनेक कर्मचारी काम करने में सक्षम होते हैं। हठात उनसे काम छीन लिया जाता है। जैसा जिसका ओहदा व वर्चस्व होता है, वह खो जाता है, इस कारण उसकी आत्मशक्ति क्षीण होने लगती है। बेशक बेरोजगारी के दौर में नई पीढी को रोजगार देने के लिए कर्मचारियों को रिटायर करना भी जरूरी है, मगर उसकी वजह से जो कर्मचारी अभी सक्षम हैं, उनकी शक्ति को यूं ही व्यर्थ गंवाना भी उचित प्रतीत नहीं होता। ऐसे में होना यह चाहिए कि जिन कर्मचारियों की उत्पादकता व उपयोगिता शेष है, उसका उपयोग करने के उपाय किए जाने चाहिए। कदाचित उनकी उत्पादकता कम हो सकती है, मगर उनके अनुभव का लाभ लिया जाना चाहिए। नई पीढी की कर्मशीलता का उपयोग भी जरूरी है, इसके लिए रोजगार के नए उपाय तलाशे जाने चाहिए।


बुधवार, अक्टूबर 02, 2024

आदमी के स्तन क्यों होते हैं?

क्या आपके दिमाग में कभी यह सवाल आया है कि आदमी के स्तन क्यों होते हैं? उनका क्या उपयोग है? चलो, औरतों को तो इसलिए होते हैं कि क्योंकि जब वह बच्चे को जन्म देती है तो उसके पोषण के लिए प्रकृति उनमें दूध उत्पन्न करती है, मगर आदमी के स्तन तो किसी भी काम के नहीं। आदमी का एक यही अंग ऐसा है, जिसका ताजिंदगी कोई उपयोग नहीं होता। आम तौर पर आदमी में ये अविकसित व सुप्त अवस्था में ही होते हैं। किसी-किसी के बड़े भी हो जाते हैं, मगर उनका कोई उपयोग नहीं। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि प्रकृति ने आदमी को स्तन क्यों दिए? आइये, इस सवाल का जवाब तलाषने की कोषिष करते हैंः-

आदमी को स्तन क्यों होते हैं, इस सवाल का जवाब पाने के लिए बहुत प्रयास किए, मगर फिलवक्त तक सटीक उत्तर नहीं मिल पाया है। हां, इतना जरूर समझ आया है कि यह इस बात का प्रतीक हैं कि आदमी में कुछ मात्रा में स्त्रैण हार्माेन भी होते हैं। होंगे ही, क्योंकि मनुष्य की उत्पत्ति स्त्री व पुरुष के मिलन से होती है और हर एक में दोनों के गुणसूत्र विद्यमान होते हैं। बस प्रतिशत का ही फर्क होता है, जिसकी वजह से कोई मेल तो कोई फीमेल पैदा होता है।

खैर, स्तन भले ही दूध की ग्रंथी है, मगर कहीं न कहीं इसका नस-नाडिय़ों के संतुलन से भी संबंध है। जब धरण टल जाती है तो नाड़ी वैद्य एक डोरी लेकर नाभि से पहले एक स्तन की दूरी नापता है और फिर दूसरे की। यदि दोनों की दूरी समान हो तो वह यही बताता है कि धरण नहीं टली है, पेट में दर्द किसी और वजह से है। यदि दूरी में फर्क आता है तो वह कहता है कि धरण टल गई है और झटके दे कर नाडिय़ों को संतुलित करता है। इसका मतलब ये हुआ कि जैसे नाभि पूरे शरीर की नस-नाडिय़ों का केन्द्र स्थान है, वैसे ही स्तन के बिंदु भी कहीं न कहीं नाडिय़ों के संतुलन का हिस्सा हैं।

दूसरी बात ये कि भले ही आदमी के स्तनों में दूध उत्पन्न नहीं होता, मगर हैं तो वे स्तन ही। भले ही सुप्त अवस्था में हों। यह नजरिया तब बना, जब ओशो के एक प्रवचन में यह सुना कि स्वामी रामकृष्ण परमहंस काली माता की भक्ति में इतने लीन हो गए कि जीवन के आखिरी दौर में उनका शरीर स्त्रैण हो गया। उनके स्तन अप्रत्याशित रूप से बढ़ गए व उनमें से दूध टपकने लगा। इसके यही मायने हैं कि पुरुष के शरीर में जो स्तन हैं, वे वाकई स्तन ही हैं, तभी तो स्वामी रामकृष्ण के स्तनों में से दूध आने लगा। 

चूंकि आदमी के स्तन प्रतीकात्मक हैं, इस कारण यदि किसी के स्तन बढ़ जाते हैं तो उसके लिए शर्मिंदगी का कारण बन जाते हैं। विज्ञान की भाषा में बात करें तो असल में यह एक बीमारी है, इसको गाइनेकॉमस्टिया कहते हैं। टेस्टोस्टेरोन या एस्ट्रोजन हार्माेन के असंतुलन के कारण पुरुषों के स्तन बढ़ते हैं।। वैज्ञानिक शोध में यह भी सामने आया है कि लैवेंडर और चाय के पौधों के तेल के कारण युवकों के स्तन असामान्य रूप से बढ़ जाते हैं। इन तेलों में आठ ऐसे केमिकल होते हैं, जो हमारे हार्माेन्स पर प्रभाव डालते हैं। ज्ञाातव्य है कि लैवेंडर और टी ट्री पौधों से जुड़े तेल कई उत्पादों में पाए जाते हैं। साबुन, लोशन, शैम्पू और बाल संवारने वाले उत्पादों में इन तेलों का इस्तेमाल किया जाता है। ऐसा भी पाया गया है कि जिन लोगों ने इन तेलों का इस्तेमाल बंद किया तो उन्हें बढ़ते स्तन को काबू में करने में मदद मिली है।

जानकारी के अनुसार पुरुषों के स्तन बढऩे के मामले बढऩे लगे हैं। उसकी वजह हार्माेनल चैंजेज के साथ जिम जाने वालों में स्टेरॉयड का प्रयोग करने व लाइफ स्टाइल से जुड़े मामले इसके लिए जिम्मेदार हैं।

आखिर में एक रोचक बात। हालांकि ये अपवाद मात्र है, मगर है दिलचस्प। यह एक सामान्य सी बात है कि जो युवती गर्भ धारण करती है तो उसका जी मिचलाने लगता है। यदि यही समस्या पिता बनने वाले युवक के साथ भी हो तो चौंकना स्वाभाविक है। एक खबर के मुताबिक 29 साल के हैरिस ऐशबे की मंगेतर को उनका पहला बच्चा होने वाला था। हैरिस का भी जी मिचलाने लगा। उसके स्तन बढऩे लगे। डॉक्टरों ने बताया कि वह एक तरह के मेडिकल कंडिशन का शिकार हो गया है, जिसे कौवेड सिंड्रोम कहते हैं।


शनिवार, सितंबर 28, 2024

भगवान आदमी है या औरत?

हालांकि ईश्वर को त्रिगुणातीत और निराकार माना जाता है। उसका कोई लिंग नहीं, अर्थात न तो वह पुरुष है और न ही स्त्री। बावजूद इसके प्रचलन में यही है कि जब भी हम उसके बारे चर्चा करते हैं, जिक्र करते हैं तो उसे पुरुषवाचक के रूप में ही संबोधित करते हैं। कहते हैं न कि ईश्वर भला करेगा, वह सब पर कृपा करता है? जिससे प्रतीत होता है कि वह पुरुष है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर वास्तविकता क्या है? सवाल इसलिए भी स्वाभाविक है क्यों कि हमारी सोच के अनुसार वह पुरुष या स्त्री, कोई एक तो होगा। इन दोनों से इतर जो भी तत्त्व है, उससे हम अनभिज्ञ हैं। सिर्फ कल्पना ही कर सकते हैं। आइये, इस विशय को विस्तार से समझेंः-

ईश्वर आदमी है या औरत, इस विषय को लेकर विशेष रूप से ईसाई समुदाय में काफी बहस छिड़ी हुई है। चर्च ऑफ इंग्लैंड का एक समूह दैनिक प्रार्थना के दौरान ईश्वर को पुरुषवाचक के साथ ही स्त्रीवाचक के रूप में भी संबोधित करने की मांग कर रहा है। उसकी मांग में दम भी है। लेकिन दिक्कत ये है कि जब भी हम ईश्वर का जिक्र करते हैं तो स्वाभाविक रूप से बिना सर्वनाम के उसके बारे में चर्चा करना कठिन है। यह भाषा की भी समस्या है। या तो हमें उसे पुरुष या स्त्री वाचक शब्द से पुकारना होगा। पुरुषवादी समाज में उसे स्त्री के रूप में संबोधित करना हमें स्वीकार्य नहीं, इसलिए हम उसे पुरुष मान कर ही संबोधित करते हैं।

वस्तुतरू ईश्वर एक सत्ता है, एक शक्ति केन्द्र है। वह स्वयंभू है। उसी सत्ता के अधीन संपूर्ण चराचर जगत संचालित हो रहा है। वह कोई व्यक्ति नहीं है। लेकिन चूंकि हम स्वयं व्यक्ति हैं, हमारी सीमित शक्ति है, इस कारण सर्वशक्तिमान की परिकल्पना करते समय हम उसे अपार क्षमताओं से युक्त एक महानतम व्यक्ति के रूप में देखते हैं। और चूंकि पूरी प्रकृति व समाज की व्यवस्था पुरुषवादी है, इस कारण उसके प्रति संबोधन में स्वाभाविक रूप से पुरुषवाचक शब्दों का चलन है। 

अनादि काल से पुरुष तत्व की प्रधानता रही है। सामाजिक व धार्मिक परंपराओं का ढ़ांचा बनाने वाले पुरुष हैं। यही वजह है कि लिंगातीत, निर्गुण, निराकार ईश्वर का जिक्र पुरुष वाचक शब्दों से करते हैं।

आखिर में एक बात पर गौर कीजिए। ईश्वर के बारे हम चाहे जितनी टीका-टिप्पणियां कर लें, लेकिन वह हमारी कल्पनाओं व अवधारणों से कहीं बहुत आगे है। उसका पार पाना कठिन ही नहीं, नामुमकिन है। वेद भी व्याख्या करते वक्त आखिर में नेति-नेति कह कर हाथ खड़े कर देते हैं।