तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

रविवार, जनवरी 05, 2014

आप को कांग्रेस के समर्थन से भाजपा चिंतित

दिल्ली में आम आदमी पार्टी को कांग्रेस के समर्थन देने से सरकार बन जाने के साथ ही भाजपा चिंता में पड़ गई है। उसे लगता है कि दिल्ली की सफलता के बाद आम आदमी पार्टी अब पूरे देश में भी पांव पसारेगी और इसका सीधा नुकसान उसे होगा। उसकी ज्यादा चिंता ये है कि बड़ी मुश्किल से नरेन्द्र मोदी को प्रोजेक्ट कर हीरो बनाया है, जिसके सहारे उसकी वैतरणी पार हो जाती, मगर अब केजरीवाल के एक नए हीरो के रूप में उभरने से कांग्रेस विरोधी वोटों में बंटवारा हो जाएगा। जैसा कि आम आदमी पार्टी घोषणा कर चुकी है कि वह लोकसभा चुनाव में बड़े पैमाने पर प्रत्याशी उतारेगी, भाजपा को चिंता है कि भाजपा के प्रभाव वाले शहरी क्षेत्रों में आम आदमी पार्टी उसको नुकसान पहुंचाएगी, भले ही उसके प्रत्याशी जीतने में कामयाब न हो पाएं। भाजपा की इसी चिंता का परिणाम है कि सोशल मीडिया पर आम आदमी पार्टी पर हमले वाले आइटमों की भरमार नजर आने लगी है। देखिए बानगी:-


दिल्ली में खुद काँग्रेस ने
करवाया अपना सुपडा साफ !
चार राज्यों के चुनाव में
कांग्रेस को करारी हार भले
ही मिली हो लेकिन
दिल्ली को लेकर भारत
कि राजनीति में काँग्रेस
रुपी विदेशी ताकतों ने बहोत
बडा गेम खेला हैं।
ये गेम
काँग्रेस ने अपनी पेदाईश "आप"
पार्टी को साथ लेकर खेला हैं।
बंदुक और निशाना काँग्रेस
(विदेशी ताकतों) का था,
कंधा कजरिवाल का वापरा गया और
लक्ष्य चुनाव 2014 ।
दिल्ली में "आप" पार्टी कि कोई
औकात नहीं थी कि वे इतनी सिटे
जित कर ले जाये जब तक
कि काँग्रेस अपनी लडाई से पिछे
ना हट पडे।
दिल्ली में काँग्रेस
हारी नहीं बल्कि काँग्रेस ने
खुद हार को गले लगाया और कजरीवाल
ने जित खुद के दम पर हाँसील
नहीं कि बल्कि काँग्रेस ने हर
तरह से "आप" को पैर पसारने
का मौका देकर जित दिलाई।
अब सवाल खडा होता हैं कि आखिर
इसके पिछे कि पुरी साजिश हैं
क्या....
ये एक बहोत बडा षडयंत्र
जो कि लंबी रणनिती के तहत
खेला गया हैं। इस षडयंत्र
को चुनाव के पहले सिर्फ
दिल्ली ही नहीं बल्कि देशभर में
किये गये तमाम सर्वेक्षणों के
नतिजों के बाद तयार
किया गया हैं।
हर तरह के चुनावी सर्वेक्षण में
हर राज्यों में काँग्रेस
की करारी हार सामने आ
ही रही हैं। लेकिन काँग्रेस
किसी भी तरह से अपनी इस "हार"
को बीजेपी के गले की "विजय"
माला बनने नहीं देना चाहती। और
जनता का मुड भी काँग्रेस
अच्छी तरह से भाँप चुकी हैं
कि किसी भी परिस्थिति में
जनता अब काँग्रेस को वोट
नहीं देने वाली।और नरेंद्र
मोदी के हाथ में देश कि कमान
काँग्रेस बर्दाश्त कर
ही नहीं सकती। लेकिन नरेंद्र
मोदी का तोड अब काँग्रेस के
जरीये निकलना असंभवसा हैं। इस
लिये काँग्रेस ने अब
अपनी रणनीती को बदलते हुवे
पैतरा ही बदल लिया।
दिल्ली में "आप" का कद बढवाकर
काँग्रेस ने कई निशाने साधे
हैं...
"आप" को जितवा कर काँग्रेस ने
कजरीवाल को हिरों बनाने
कि कोशिश कि हैं
सारे काँग्रेसी दलाल
मिडीया जिनको मजबुरी में
नरेंद्र मोदी का ही नाम
लेना पडता था वो अब कजरीवाल
को मोदी कि तुलना में
खडा करेंगे
विदेशी ताकतों ने पहले
ही कजरीवाल पर भारी भरकम
पैसा लगा रखा हैं अब
विदेशी पैसों पर ही पलने
वाला भांड मिडीया पुरी ताकत
लगाकर कजरीवाल को नरेंद्र
मोदी के टक्कर में खडा करने
कि कोशिश करेगा
इसका मतलब लोकसभा चुनाव में
जो वोट काँग्रेस से कट कर
बीजेपी को जा रहे थे अब उन्हे
कजरीवाल के खाते में
उतारा जायेगा
विदेशी ताकतों ने अपनी रखेल
काँग्रेस को अब नई खाल "आप"
पार्टी के रुप में उतार
दिया हैं
plz atention and high alert for। MISSION 2014 होशियार! होशियार! होशियार! यह
नरेंद्र मोदी कि बढती ताकत पर कठोर अंकुश लगाने का राष्ट्र विरोधी विदेशी ताकतों का बहोत
बडा गेम प्लान नजर आ रहा हैं। हमें हर किसी को होशियार करने कि सख्त आवश्यकता हैं।
जागो और जगाऔ, देश बचाऔ !!!
जय हिंद, जय भारत!
plz forward to all यह मेसेज सभी को भेजें
एक ही विकल्प मोदी लावो

गुरुवार, जनवरी 02, 2014

भाजपा का सिरदर्द बन गए केजरीवाल

कांग्रेस के लिए संकट पैदा करने के लिए अन्ना हजारे के आंदोलन को पीछे से समर्थन करने वाली भाजपा के लिए उसी आंदोलन से उपजी आम आदमी पार्टी अब सिरदर्द बन गई है। बड़ी मेहनत से गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने वाली भाजपा को दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार बनने के बाद लगने लगा है कि कहीं वह आगामी लोकसभा चुनाव में मोदी के प्रधानमंत्री बनने में बाधक न बन जाए। इसके स्पष्ट संकेत सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर मोदी व केजरीवाल की हो रही तुलनात्मक जंग से मिल  रहे हैं। यह एक खुला सत्य भी है कि चार राज्यों भाजपा की जीत का श्रेय जिस मोदी लहर को दिया जा रहा है, वह मोदी की अनेक सभाओं के बाद भी दिल्ली में कामयाब नहीं हो पाई।
असल में कांग्रेस के खिलाफ विपक्ष की भूमिका ठीक से न निभा पाने के कारण ही अन्ना हजारे को उभरने का मौका मिला और उन्होंने इतना तगड़ा आंदोलन चलाया कि एक बारगी पूरा देश उबलने लगा। यह भी सच है कि कांग्रेस को घेरने के लिए उस आंदोलन को पीछे से भाजपा ही सपोर्ट कर रही थी। हालांकि बाद में कई कारणों से आंदोलन तो कमजोर पड़ गया, मगर अन्ना के प्रमुख सहयोगी अरविंद केजरीवाल ने अन्ना की असहमति के बावजूद एक नई राजनीतिक पार्टी बना ली। इस पार्टी को हल्के में ही लिया गया, मगर उसने दिल्ली विधानसभा चुनाव में ऐसा चमत्कार कर दिखाया कि सभी भौंचक्के रह गए। कांग्रेस का तो सूपड़ा साफ हो ही गया और भाजपा भी बहुमत से थोड़ा सा पीछे रह गई। किसी को भी स्पष्ट बहुमत न मिलने के कारण दुबारा चुनाव की नौबत आ गई, मगर कांग्रेस ने चतुराई से केजरीवाल को समर्थन दे कर उनकी सरकार बनने का रास्ता साफ कर दिया। जाहिर है इसके पीछे मोदी को आंधी को कमजोर करने की सोच है। हालांकि यह सरकार बैसाखियों पर ही टिकी हुई है, मगर उसे जितना भी समय मिलेगा, वह कुछ न कुछ नया करके अपना वर्चस्व बढ़ा लेगी।
दिल्ली में मिली सफलता के बाद अब आम आदमी पार्टी का अगला लक्ष्य लोकसभा चुनाव है। इसके लिए उसने जोरदार तैयारी शुरू कर दी है। ऐसे में भाजपा को यह डर सता रहा है कि अगर उसने चुनिंदा एक सौ सीटों पर भी अपने प्रत्याशी खड़े किए और उनमें से भले ही उसे कुछ पर ही जीत हासिल हो, मगर भाजपा का समीकरण जरूर बिगाड़ देगी। इसका सीधा सीधा अर्थ ये है कि केजरीवाल को जिस प्रकार मीडिया राजनीति के एक नए अवतार के रूप में प्रोजेक्ट कर रहा है, उससे कथित रूप से आंधी का रूप ले चुके मोदी का असर कम हो सकता है।
उल्लेखनीय है कि कोई एक साल पहले बनी आम आदमी पार्टी ने 22 राज्यों में अपना नेटवर्क खड़ा कर लिया है। उसने गुजरात और कर्नाटक जैसे राज्यों में सभी लोकसभा सीटों पर लडऩे का ऐलान कर दिया है। भाजपा की  सोच है कि मोदी के सामने कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी तो नहीं टिक पाएंगे, मगर 12 करोड़ नए युवा मतदाताओं पर केजरीवाल की उतनी ही पकड़ है, जितनी कि मोदी की। सोशल मीडिया पर अब तक मोदी ही छाये हुए थे, मगर सोशल मीडिया के माध्यम से ही आंदोलन चलाने वाले आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता भी बराबर की टक्कर दे रहे हैं। माना जा रहा है कि 150 शहरी सीटों पर सोशल मीडिया का प्रभाव रहेगा, जहां अब तक मोदी की ही पकड़ थी, मगर अब केजरवाल भी खम ठोक कर मैदान में उतर सकते हैं। इस मसले एक पहलु पर मतभिन्नता है, वो यह कि केजरीवाल मध्य प्रदेश, गुजरात, राजस्थान, छत्तीसगढ़ जैसे भाजपा के गढ़ में सेंध लगा कर कांग्रेस विरोधी मतों को बांटेंगे या फिर दिल्ली विधानसभा चुनाव की तरह कांग्रेस को ही ज्यादा नुकसान पहुंचाएगी।
जानकार मानते हैं कि आम आदमी पार्टी को ज्यादा आशा दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और कनार्टक में है। भाजपा के प्रभाव वाले राजस्थान, मध्यप्रदेश गुजरात, छत्तीसगढ़, बिहार, उत्तराखंड, गोवा, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और महाराष्ट्र में आम आदमी पार्टी को जोर आएगा।
राजस्थान में आप के तकरीबन 30 सदस्य हैं, मगर पार्टी का संगठित ढ़ांचा नहीं है। उधर छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में अभी तक शुरुआत भी नहीं कर पाई है। जहां तक उत्तर प्रदेश का सवाल है, वह भाजपा का गढ़ तो नहीं, मगर भाजपा को मोदी लहर के दम पर सफलता की उम्मीद है। लेकिन समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस के बाद अब आम आदमी पार्टी भी वोटों को बांटेगी। वहां आम आदमी पार्टी ने पांच जोनल ऑफिस खोल लिए हैं। इसी प्रकार आम आदमी पार्टी ने हरियाणा के 21 में 18 जिलों में ऑफिस बना लिए हैं। ज्ञातव्य है कि केजरीवाल का पैतृक गांव हरियाणा के भिवानी में है और दूसरे वरिष्ठ नेता योगेंद्र यादव भी हरियाणा के रेवाड़ी से हैं। कर्नाटक की बात करें तो आम आदमी पार्टी ने 18 जिलों में अपनी इकाइयां गठित कर ली हैं। उत्तराखंड में राजधानी देहरादून सहित 13 जिलों में पार्टी की इकाइयां हैं। झारखंड के राजधानी रांची सहित 17 जिलों में पार्टी कार्यालय चल रहे हैं।
कुल मिला कर आम आदमी पार्टी आगामी लोकसभा चुनाव में कई सीटों पर भाजपा को मिलने वाले कांग्रेस विरोधी वोटों में सेंध मार सकती है। अगर ऐसा हुआ तो मोदी के नाम पर सत्ता पर काबिज होने वाली भाजपा का सपना टूट सकता है।
-तेजवानी गिरधर

शुक्रवार, दिसंबर 20, 2013

राज्यमंत्री कैसे स्वीकार कर लिया अरुण चतुर्वेदी ने?

राजस्थान की सत्ता पर काबिज भाजपा के मंत्रीमंडल में पूर्व अध्यक्ष व मौजूदा उपाध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी ने एक बार फिर राज्य मंत्री का पद स्वीकार कर सभी को चौंकाया है। इससे पूर्व उनके प्रदेश भाजपा अध्यक्ष वसुंधरा राजे की कार्यकारिणी में उपाध्यक्ष का पद स्वीकार करने पर भी सभी को अचरज हुआ था। पार्टी कार्यकर्ताओं व नेताओं को समझ में ही नहीं आ रहा है कि एक ही किस्म की गलती उन्होंने दुबारा कैसे की? क्या उन्हें अपने पूर्व पद की मर्यादा व गौरव का जरा भी भान नहीं रहा? अपनी पहले ही प्रतिष्ठा का जरा भी ख्याल नहीं किया? क्या वे इतने पदलोलुप हैं कि अध्यक्ष के बाद उपाध्यक्ष बनने और अब मात्र राज्य मंत्री बनने को उतारू थे? ये सारे सवाल भाजपाइयों के जेहन में रह-रह कर उभर रहे हैं।
स्वाभाविक सी बात है कि जो खुद अध्यक्ष पद पर रहा हो, वह राज्य मंत्री पद के लिए राजी होगा तो ये सवाल पैदा होंगे? जब वे पूर्व में उपाध्यक्ष बने थे तो अपुन ने लिखा था कि शायद वे अध्यक्ष पद के लायक थे ही नहीं। गलती से उन्हें अध्यक्ष बना दिया गया, जिसे उन्होंने संघ के दबाव में ढ़ोया, तब उन्होंने व्यक्तिगत रूप से फोन पर जानकारी दी थी कि वे तो पार्टी के एक सिपाही हैं, पार्टी हाईकमान उन्हें जो भी जिम्मेदारी देता है, वह उनको शिरोधार्य है। कदाचित इस बार भी कुछ ऐसा ही हुआ है। 
वैसे आपको बता दें कि पूर्व में उन्हें अध्यक्ष बनाया ही नेता प्रतिपक्ष श्रीमती वसुंधरा को चैक एंड बैलेंस के लिए था, मगर उसमें वे कत्तई कामयाब नहीं हो पाए। वे कहने भर को पार्टी के अध्यक्ष थे, मगर प्रदेश में वसुंधरा की ही तूती बोलती रही। वह भी तब जब कि अधिकतर समय वसुंधरा ने जयपुर से बाहर ही बिताया। चाहे दिल्ली रहीं या लंदन में, पार्टी नेताओं का रिमोट वसुंधरा के हाथ में ही रहा। अधिसंख्य विधायक वसुंधरा के कब्जे में ही रहे। यहां तक कि संगठन के पदाधिकारी भी वसुंधरा से खौफ खाते रहे। परिणाम ये हुआ कि वसुंधरा ने जिस विधायक दल के पद से बमुश्किल इस्तीफा दिया, वह एक साल तक खाली ही रहा। आखिरकार अनुनय-विनय करने पर ही फिर से वसुंधरा ने पद ग्रहण करने को राजी हुई।
कुल मिला कर चतुर्वेदी का राज्य मंत्री बनना स्वीकार करना पार्टी कार्यकर्ताओं गले नहीं उतर रहा, चतुर्वेदी भले ही संतुष्ट हों और उनके पास से तर्क हो कि वे तो पार्टी के सिपाही हैं, पार्टी हाईकमान जहां चाहे उपयोग करे। उनकी इज्जत सिर्फ यह कह बची मानी जा सकती है कि उन्हें स्वतंत्र प्रभार दिया गया है। बहरहाल, जो कुछ भी हो मगर इससे देश की इस दूसरी सबसे बड़ी व पहली सबसे बड़ी कैडर बेस पार्टी में सत्ता की तुलना में संगठन की अहमियत कम होने पर तो सवाल उठते ही हैं।
-तेजवानी गिरधर

शुक्रवार, नवंबर 15, 2013

वाट्स एप व फेसबुक पर आचार संहिता क्यों नहीं?






एक ओर चुनाव आयोग इस बार पेड न्यूज को लेकर कुछ ज्यादा ही सख्त है और इस कारण विभिन्न दलों के प्रत्याशी और प्रिंट व इलैक्ट्रॉनिक मीडिया फूंक फूंक कर कदम रख रहे हैं, वहीं वाट्स एप व फेसबुक पर प्रत्याशियों के विज्ञापन धड़ल्ले से चल रहे हैं, जिन पर आयोग का कोई जोर नजर नहीं आता।
आपको याद होगा कि जैसे ही आयोग ने विज्ञापनों पर खर्च की गई राशि को प्रत्याशी के चुनाव प्रचार खर्च में जोडऩे पर सख्ती दिखाई तो उन्होंने बीच का रास्ता निकाल लिया। मोटी रकम देने वाले प्रत्याशियों का प्रचार करने के लिए न्यूज आइटम दिए जाने लगे, जो कि थे तो प्रत्याशी विशेष का विज्ञापन, मगर न्यूज की शक्ल में। जैसे ही इस घालमेल पर आयोग ने प्रसंज्ञान लिया तो ऐसी पेड न्यूज पर भी सख्ती बरती जाने लगी। बड़े-बड़े समाचार पत्र समूहों व इलैक्ट्रॉनिक मीडिया ने भी पेड न्यूज न छापने की कसमें खाईं। प्रत्याशियों को भी विज्ञापन न देने का बहाना मिल गया। यह बात दीगर है कि बावजूद इसके संपादकों व संवाददाताओं को गुपचुप खुश करने की चर्चा आम है।
खैर, बात चल रही थी विज्ञापनों की। अखबारों व इलैक्ट्रॉनिक मीडिया पर भले ही प्रत्याशियों के विज्ञापन नजर नहीं आ रहे, मगर वाट्स एप व फेसबुक पर विज्ञापनों और उनके दौरों की खबरों व फोटो की भरमार है। बानगी के तौर पर चंद प्रत्याशियों के ऐसे विज्ञापन यहां दिए जा रहे हैं। सवाल उठता है कि क्या आयोग का इस न्यू सोशल मीडिया पर कोई जोर नहीं है? जोर की छोडिय़े, वहां पर तो एक-दूसरे की छीछालेदर धड़ल्ले से की जा रही है। पिछले दिनों अजमेर उत्तर के कांग्रेस प्रत्याशी डॉ. श्रीगोपाल बाहेती का पक्ष लेते हुए जब एक समाज विशेष पर किसी शरारती ने हमला किया तो अखबार संयमित रहे, मगर वाट्स एप पर वह परचा छाया रहा। अब भी छाया हुआ है। यहां तक कि उस पर बहुत ही घटिया टिप्पणियां भड़ास निकालने की जरिया बनी हुई हैं। सवाल ये उठता है कि एक ओर तो प्रशासन ने मार्केट में लगे वे परचे हटवाए और मुकदमा भी दर्ज किया, मगर वाट्स एप के जरिए चलाए जा रहे शब्द बाणों पर उसकी नजर क्यों नहीं है? ऐसा प्रतीत होता है कि इस बारे में आयोग की कोई स्पष्ट नीति नहीं है। यही वजह है कि इस न्यू सोशल मीडिया का जम कर उपयोग किया जा रहा है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

सोमवार, अक्टूबर 21, 2013

नरेन्द्र मोदी की हवा है या ये केवल हौवा है?

पिछले कुछ माह से जिस प्रकार भाजपा ने गुजरात के मुख्यमंत्री को देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किया है और सोशल मीडिया पर जिस तरह से धुंआधार अभियान चलाया जा रहा है, उससे यह तो तय है कि मुद्दा आधारित राजनीति करने वाली भाजपा उनकी हवा चला कर अपनी नैया पर लगाना चाहती है, मगर क्या वाकई उनकी हवा चल पड़ी है या वे केवल हौवा मात्र हैं, इस पर सवाल उठने लगे हैं।
जहां तक खुद भाजपा का सवाल है, उसे तो मोदी हवा क्या कांग्रेस और गांधी परिवार के खिलाफ आंधी ही नजर आ रही है। हर भाजपाई सिर्फ यही सोच कर खुशफहमी में जी रहा है कि इस बार मोदी उनको वैतरणी पार लगा देंगे। इसके लिए सोशल मीडिया पर बाकायदा योजनाबद्ध तरीके से प्रोफेशनल अनेकानेक तरीके से मोदी को राजनीति का नया भगवान स्थापित कर रहे हैं। मोदी के विकास का मॉडल भी धरातल पर उतना वास्तविक नहीं है, जितना की मीडिया और सोशल नेटवर्किंग साइट्स ने खड़ा किया है। इसका बाद में खुलासा भी हुआ। पता लगा कि ट्विटर पर उनकी जितनी फेन्स फॉलोइंग है, उसमें तकरीबन आधे फाल्स हैं। फेसबुक पर ही देख लीजिए। मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताने वाली पोस्ट बाकायदा योजनाबद्ध तरीके से डाली जाती रही हैं। गौर से देखें तो साफ नजर आता है कि इसके लिए कोई प्रोफेशनल्स बैठाए गए हैं, जिनका कि काम पूरे दिन केवल मोदी को ही प्रोजेक्ट करना है। बाकी कसर भेड़चाल ने पूरी कर दी। हां, इतना जरूर है कि चूंकि भाजपा के पास कोई दमदार चेहरा नहीं है, इस कारण मोदी की थोड़ी सी भी चमक भाजपा कार्यकर्ताओं को कुछ ज्यादा की चमकदार नजर आने लगती है। शाइनिंग इंडिया व लोह पुरुष लाल कृष्ण आडवाणी का बूम फेल हो जाने के बाद यूं भी भाजपाइयों को किसी नए आइकन की जरूरत थी, जिसे कि मोदी के जरिए पूरा करने की कोशिश की जा रही है।
सच तो ये है कि हॉट इश्यू को और अधिक हॉट करने को आतुर इलैक्ट्रानिक मीडिया भी जम कर मजे ले रहा है। भले ही निचले स्तर पर भाजपा के कार्यकर्ता को मोदी में ही पार्टी के तारणहार के दर्शन हो रहे हों, मगर सच ये है कि उन्हें भाजपा नेतृत्व ने जितना प्रोजेक्ट नहीं किया, उससे कहीं गुना अधिक मीडिया ने शोर मचाया है। यह कहना तो उचित नहीं होगा कि वह सोची-समझी चाल के तहत मोदी का साथ दे रहा है, मगर इतना तय है कि उसकी बाजारवादी प्रवृत्ति और टीआरपी बढ़ाने की मुहिम के चलते मोदी एक बम का रूप लेते नजर आ रहे हैं। इस बम में कितना दम है, यह तो आगे आने वाला वक्त ही बताएगा, मगर इसे समझना होगा कि क्या वाकई इस तरह के प्रोजेक्शन इससे पहले धरातल पर खरे उतरे हैं या नहीं। आपको याद होगा कि यह वही मीडिया है, जिसने अन्ना हजारे और बाबा रामदेव में हवा भर कर आसमान की ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया था, मगर जल्द ही हवा निकल गई और वे धरातल पर आ गिरे। दिलचस्प बात ये है कि इन दोनों को अवतार बनाने वाले इसी मीडिया ने ही बाद में उनके कपड़े भी उतारने शुरू कर दिए। इससे इलैक्ट्रोनिक मीडिया की फितरत साफ समझ में आती है।
हालांकि ना-नुकर करते-करते अब भाजपा ने औपचारिक रूप से मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए अपना दावेदार घोषित कर दिया है, इससे पहले का सच ये है कि प्रधानमंत्री पद के दावेदारों ने कभी अपनी ओर से यह नहीं कहा कि मोदी भी दावेदार हैं। वे कहने भी क्यों लगे। मीडिया ने ही उनके मुंह में जबरन मोदी का नाम ठूंसा। मीडिया ही सवाल खड़े करता था कि क्या मोदी प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं तो भाजपा नेताओं को मजबूरी में यह कहना ही पड़ता था कि हां, वे प्रधानमंत्री पद के योग्य हैं। इक्का-दुक्का को छोड़ कर अधिसंख्य भाजपा नेताओं ने कभी ये नहीं कहा कि मोदी ही प्रधानमंत्री पद के दावेदार हो सकते हैं। वे यही कहते रहे कि भाजपा में मोदी सहित एकाधिक योग्य दावेदार हो सकते हैं। और इसी को मीडिया ने यह कह कर प्रचारित किया कि मोदी प्रबल दावेदार हैं।
मोदी को भाजपा का आइकन बनाने में मीडिया की कितनी बड़ी भूमिका है, इसका अंदाजा आप इसी बात ये लगा सकते हैं कि हाल ही एक टीवी चैनल पर लाइव बहस में एक वरिष्ठ पत्रकार ने मोदी को अपरिहार्य आंधी कह कर इतनी सुंदर और अलंकार युक्त व्याख्या की, जितनी कि पैनल डिस्कशन में मौजूद भाजपा नेता भी नहीं कर पाए। आखिर एंकर को कहना पड़ा कि आपने तो भाजपाइयों को ही पीछ़े छोड़ दिया। इतना शानदार प्रोजेक्शन तो भाजपाई भी नहीं कर पाए।
कुल मिला कर आज हालत ये हो गई है कि मोदी भाजपा नेतृत्व और संघ के लिए अपरिहार्य हो चुके हैं। व्यक्ति गौण व विचारधारा अहम के सिद्धांत वाली पार्टी तक में एक व्यक्ति इतना हावी हो गया है, उसके अलावा कोई और दावेदार नजर ही नहीं आता। संघ के दबाव में फिर से हार्ड कोर हिंदूवाद की ओर लौटती भाजपा को भी उनमें अपना भविष्य नजर आने लगा है। कांग्रेस को भी मोदी की हवा चलती हुई दिखाई देती है, भले ही वह हवाबाजी का प्रतिफल हो।
यदि इस पर गौर करें कि कहीं यह हवा हौवा मात्र तो नहीं है तो इसमें तनिक सच्चाई नजर आती है। अर्थात जितनी हवा है, उससे कहीं गुना अधिक हौवा है। इसका सबूत देते हैं ये तथ्य। आपको याद होगा कि पिछले दिनों कुछ बड़े मीडिया हाउसेस ने सर्वे कराया, जिसमें कांग्रेस और भाजपा को मिलने वाली लोकसभा सीटों में सिर्फ 15 से 20 सीट का फासला है। कांग्रेस के मुकाबले भाजपा को महज 20 ज्यादा! ये उन लोगों के मुंह पर तमाचा है, जो पूरे देश में मोदी की लहर बहने का दावा करते हैं। तमाम सर्वे बता रहे हैं कि देश की दो बड़ी पार्टियां कांग्रेस और बीजेपी 150 सीट भी नहीं ले पाएंगी। यानी कुल 543 सीटों में से भाजपा 150 (लगभग एक चौथाई) का आंकडा भी ना छू पाए तो ये किस लहर और किस लोकप्रियता के दावे की बात हो रही है? सर्वे के मुताबिक देश का महज 25 प्रतिशत जनमानस मोदी की भाजपा को वोट दिखाई देता दे रहा है, और मीडिया इसे पूरे देश की सोच घोषित करता रहा है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

शुक्रवार, अक्टूबर 11, 2013

राजस्थान में भाजपा की जीत नहीं अब सुनिश्चित

कोई छह माह पहले तक कायम यह धारणा अब कमजोर होने लगी है कि इस बार राजस्थान की सत्ता पर भाजपा काबिज होने ही जा रही है। बेशक पूरे चार साल तक राज्य से बाहर रही प्रदेश भाजपा अध्यक्ष श्रीमती वसुंधरा राजे ने सुराज संकल्प यात्रा निकाल कर पार्टी को सक्रिय किया है, मगर इसी बीच मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कई जनकल्याणकारी योजनाओं की झड़ी लगा कर माहौल बदल दिया है। अब मुकाबला कांटे का माना जा रहा है, जो कि पहले पूरी तरह से भाजपा के पक्ष में माना जा रहा था।
असल में आज से छह माह पहले तक जनता को ऐसा लग रहा था कि भाजपा बढ़त की स्थिति में हैं और आगामी सरकार भाजपा की ही बनेगी। भाजपाइयों को भी पूरा यकीन था कि अब वे सत्ता का काबिज होने ही जा रहे हैं। वस्तुत: इसकी एक वजह ये भी थी कि भ्रष्टाचार और महंगाई के कारण देशभर में यह माहौल बना कि कांग्रेस तो गई रसातल में। उसका प्रतिबिंब राजस्थान में भी दिखाई देने लगा। भाजपाई भी अति उत्साहित थे कि अब तो हम आ ही रहे हैं। रहा सवाल राज्य सरकार के कामकाज का तो वह था तो अच्छा, मगर उसका प्रोजेक्शन कमजोर था। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को भी उम्मीद थी कि उन्होंने पिछले चार साल में जो जनहितकारी काम किए हैं, उसकी वजह से जनता उनके साथ रहेगी, मगर सर्वे से यह सामने आया कि आम जन तक कांग्रेस सरकार के कामकाज का प्रचार ठीक से नहीं हुआ है। इस पर खुद गहलोत ने कांग्रेस संदेश यात्रा निकालने का जिम्मा उठाया। इसी दौरान विभिन्न योजनाओं के कारण स्वाभाविक रूप से विभिन्न वर्गों को मिल रहे आर्थिक लाभ से माहौल बदला है। हालांकि इससे चिढ़ कर वसुंधरा ने यह आरोप लगाना शुरू किया कि सरकार खजाना लुटा रही है, मगर उनके पास इसका कोई जवाब नहीं है कि यह खजाना आखिरकार गरीब जनता के लिए ही तो उपयोग में आ रहा है। कुछ मिला कर अब माहौल साफ होने लगा है कि कांग्रेस सरकार से जनता उतनी नाखुश नहीं है, जितना की प्रचार किया गया था। अब तो मीडिया के सर्वे भी कहने लगे हैं कि राजस्थान में कांग्रेस व भाजपा टक्कर में हैं।
पिछले कुछ माह में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की ओर से की गई मशक्कत के बाद बदले माहौल से कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को अब जा कर उम्मीद जागी है कि इस बार राजस्थान में फिर से कांग्रेस की सरकार बनाई जा सकती है, इसी कारण उन्होंने यहां पर विशेष ध्यान देना शुरू कर दिया है। इसी सिलसिले में उनके निर्देशन में बनी चुनाव अभियान समिति और घोषणा पत्र समिति को पूरी तरह से संतुलित बनाया गया। डेमेज कंट्रोल में कुछ कामयाबी भी हासिल हुई है, इसका एक संकेत देखिए कि जेल में बंद पूर्व जलदाय मंत्री महिपाल मदेरणा की पुत्री दिव्या मदेरणा तक का सुर बदल गया है, जो कि अब तक सरकार को लगातार घेरती रही थीं।
उधर वसुंधरा राजे ने टिकट दावेदारों के बलबूते सुराज यात्रा में शक्ति प्रदर्शन तो कर लिया, मगर अब ये ही टिकट दावेदार उनके लिए सिरदर्द साबित होने वाले हैं और वे उनकी जीत की गणित को भी गड़बड़ा सकते हैं। टिकट दावेदारों ने वसुंधरा में चाहे भीड़ जुटाना हो या अखबारों में लाखों रुपए के विज्ञापन देने की बात हो, सारी ताकत लगा और उसके बदले अब वे भी टिकट की उम्मीद तो रखते ही हैं, यह अलग बात है कि वसुंधरा ने यह स्पष्ट कर दिया कि योग्य उम्मीदवारों को टिकट मिलेगा मगर हर दावेदार अपने योग्य मानते हुए अपनी टिकट पक्की मान रहा है। हर सीट पर दावेदारों की लंबी लिस्ट है। भाजपा में पहली बार टिकट को लेकर दिखा माहौल भाजपा के लिए खतरे का संकेत दे रहा है। यदि भाजपा ने 2009 की तरह टिकट बंटवारे में पैराशूट उम्मीदवारों को उतारा तो जीत की उम्मीद पर पानी फिर सकता है।
जहां तक सुराज संकल्प यात्रा के दौरान कांग्रेस सरकार पर हमले का सवाल है, भले ही वसुंधरा ने मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को अब तक का सबसे भ्रष्ट मुख्यमंत्री बताया हो, मगर धरातल पर वे इसे साबित करने में नाकाम रही हैं। उनके अधिसंख्य आरोप नुक्ताचीनी टाइप और रूटीन के हैं। कम से कम इतने तो दमदार नहीं कि सरकार की चूलें हिल जाएं। यानि उनका आम जन पर कोई गहरा असर नहीं है। उनके आरोपों की धार तो तेज रही, मगर उसकी मार उतनी नजर नहीं आई। जुमले उनके तगड़े थे, मगर वे केवल भाषणों में ही सुहावने नजर आए, धरातल पर उसकी गंभीरता कम रही। खुद भाजपाई भी मानने लगे हैं कि इस बार वसुंधरा की यात्रा पहले जैसी कामयाब नहीं रही है। कारण स्पष्ट है। वे खुद अपनी पार्टी में दोफाड़ का कारण बनी रहीं। चार साल तक राज्य से गायब रह कर चुनावी साल में यकायक सक्रिय होने के कांग्रेस के आरोप का आज तक कोई सटीक जवाब नहीं दे पाई हैं।
अगर मोदी फैक्टर की बात करें तो वह अपना असर जरूर दिखाएगा, मगर धरातल की सच्चाई वैसी नहीं जैसी दिखाई देती है। आपको याद होगा कि हाल में कुछ बड़े मीडिया हाउसेस ने सर्वे कराया। सर्वे के मुताबिक कांग्रेस और भाजपा को मिलने वाली (लोकसभा) सीटों में सिर्फ 15 से 20 सीट का फासला है। भाजपा को महज 20 ज़्यादा। ये उन लोगों के मुंह पर तमाचा है, जो पूरे देश में मोदी की लहर बहने का दावा करते हैं। तमाम सर्वे बता रहे हैं कि देश की दो बड़ी पार्टियां (कांग्रेस और बीजेपी) 150 सीट भी नहीं ला पाएंगी। साथ ही गैर कांग्रेसी-गैर भाजपाई कुनबा 200 के आंकड़े को भी बमुश्किल छू पायेगा। यानी कुल 543 सीटों में से भाजपा 150 (लगभग एक चौथाई) का आंकडा भी ना छू पाए तो ये किस लहर और किस लोकप्रियता के दावे की बात हो रही है?
सीएनएन, आईबीएन सीएनडीएस के लोकसभा चुनाव के लिए किए सर्वे के मुताबिक राजस्थान में कांग्रेस के तीन प्रतिशत वोट घटने वाले है, जबकि 2009 के चुनाव में कांग्रेस को 47 प्रतिशत वोट मिले थे। इस तरह आगामी चुनाव में कांग्रेस को 44 प्रतिशत वोट मिल पाएंगे। वहीं भाजपा का सात प्रतिशत मतों का इजाफा होने से 37 प्रतिशत से बढ़कर कांग्रेस के बराबर रहेगी। इससे यह संकेत मिलते है कि मौटे तौर पर विधानसभा चुनाव में भाजपा व कांग्रेस में कड़ी टक्कर होने वाली है। इसमें साइलेंट फैक्टर ये है कि इस प्रकार के सर्वे आमतौर पर शहरी होते हैं, जहां भाजपा का प्रभाव अधिक है, जबकि गांवों में आज भी कांग्रेस की पकड़ ज्यादा है।
ऐसे में अगर ये कहा जाए कि भाजपा की जीत सुनिश्चित नहीं तो, कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। हालांकि इन सबके बावजूद चुनाव परिणाम इस मुख्य फैक्टर पर निर्भर करेंगे कि दोनों दलों में से कौन ज्यादा सही उम्मीदवारों को टिकट बांटता है।
-तेजवानी गिरधर, 7742067000
tejwanig@gmail.com

गुरुवार, अगस्त 15, 2013

तिवाड़ी भी हुए वसुंधरा शरणम गच्छामी

घोषणा पत्र बनाने के लिए अजमेर में हुई संभागीय बैठक में भाषण देते तिवाडी
राजस्थान में भाजपाई बेड़े की खेवनहार प्रदेश भाजपा अध्यक्ष श्रीमती वसुंधरा राजे के आगे प्रदेश के सारे दिग्गज भाजपा नेताओं के शरणम गच्छामी होने के बाद भी इकलौते वरिष्ठ नेता घनश्याम तिवाड़ी अलग सुर अलाप रहे थे। एक ओर तो वसुंधरा राजे सुराज संकल्प यात्रा में व्यस्त थीं, दूसरी ओर उन्होंने अपनी ओर से देव दर्शन यात्रा का नाटक शुरू कर दिया। बाबा रामदेव का सहयोग मिलने पर तो यह संदेश गया कि संभव है वे अपनी अलग पार्टी बना लेंगे। मगर जैसे ही बाबा रामदेव खुल कर नरेन्द्र मोदी और भाजपा की पैरवी करने लगे तो उन्हें भारी झटका  लगा। उनकी अक्ल ठिकाने आ गई कि इस वक्त भाजपा के विपरीत चलना अपने पैरों को कुल्हाड़ी मारने के समान होगा। सो वे भी पलटी खा गए। 
हाल ही वे भाजपा घोषणा पत्र के लिए सुझाव की संभागीय बैठक में भाग लेने अजमेर आए। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि प्रदेश और देश में परिवर्तन अवश्यम्भावी होगा और भा.ज.पा. सुराज देने के लिये कृत संकल्प है। 
अपुन ने तो पहले ही इस कॉलम में लिख दिया कि तिवाड़ी भी अन्य दिग्गजों की तरह प्रदेश भाजपा अध्यक्ष श्रीमती वसुंधरा राजे की शरण में आ जाएंगे। वरिष्ठ नेता रामदास अग्रवाल व अन्य वरिष्ठ नेताओं की समझाइश के बाद वसुंधरा व तिवाड़ी के बीच कायम दूरियां कम हुईं। बर्फ पिघलने के संकेत पिछले दिनों जयपुर में भाजपा के धरने पर उनकी मौजूदगी से भी मिल गए थे। अब तो वे घोषणा पत्र बनवाने में भी जुट गए हैं। 
ज्ञातव्य है कि वे वसुंधरा को मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किए जाने के वे शुरू से ही खिलाफ थे। तिवाड़ी की खुली असहमति तब भी उभर कर आई, जब दिल्ली में सुलह वाले दिन ही वे तुरंत वहां से निजी काम के लिए चले गए। इसके बाद वसुंधरा के राजस्थान आगमन पर स्वागत करने भी नहीं गए। श्रीमती वसुंधरा के पद भार संभालने वाले दिन सहित कटारिया के नेता प्रतिपक्ष चुने जाने पर मौजूद तो रहे, मगर कटे-कटे से। कटारिया के स्वागत समारोह में उन्हें बार-बार मंच पर बुलाया गया लेकिन वे अपनी जगह से नहीं हिले और हाथ का इशारा कर इनकार कर दिया।
ज्ञातव्य है कि उन्होंने उप नेता का पद स्वीकार करने से इंकार कर दिया था और कहा था कि मैं राजनीति में जरूर हूं, लेकिन स्वाभिमान से समझौता करना अपनी शान के खिलाफ समझता हूं। मैं उपनेता का पद स्वीकार नहीं करूंगा। उनके इस बयान पर खासा भी खासी चर्चा हुई कि देव दर्शन में सबसे पहले जाकर भगवान के यहां अर्जी लगाऊंगा कि हे भगवान, हिंदुस्तान की राजनीति में जितने भी भ्रष्ट नेता हैं उनकी जमानत जब्त करा दे, यह प्रार्थना पत्र दूंगा। भगवान को ही नहीं उनके दर्शन करने आने वाले भक्तों से भी कहूंगा कि राजस्थान को बचाओ। वसुंधरा का नाम लिए बिना उन पर हमला करते हुए जब वे बोले कि राजस्थान को चरागाह समझ रखा है। वसुंधरा और पार्टी हाईकमान की बेरुखी को वे कुछ इन शब्दों में बयान कर गए-लोग कहते हैं कि घनश्यामजी देव दर्शन यात्रा क्यों कर रहे हैं? घनश्यामजी किसके पास जाएं? सबने कानों में रुई भर रखी है। न कोई दिल्ली में सुनता है, न यहां। सारी दुनिया बोलती है, उस बात को भी नहीं सुनते।
उन्हें उम्मीद थी कि आखिरकार संघ पृष्ठभूमि के पुराने नेताओं का उन्हें सहयोग मिलेगा, मगर हुआ ये कि धीरे-धीरे सभी वसुंधरा शरणम गच्छामी होते गए। रामदास अग्रवाल, कैलाश मेघवाल और ओम माथुर जैसे दिग्गज धराशायी हुए तो तिवाड़ी अकेले पड़ गए। उन्हें साफ दिखाई देने लगा कि यदि वे हाशिये पर ही बैठे रहे तो उनका पूरा राजनीतिक केरियर की चौपट हो जाएगा। ऐसे में रामदास अग्रवाल की समझाइश से उनका दिमाग ठिकाने आ गया है।
-तेजवानी गिरधर