तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

सोमवार, मई 06, 2013

सरबजीत को शहीद का दर्जा देने पर उठ रहे सवाल?


पाकिस्तान की कोट लखपत जेल में अन्य कैदियों के हमले में मारे गए भारतीय कैदी सरबजीत, जो कि आज पूरे भारत की संवेदना के केन्द्र हो गए हैं, को पंजाब की सरकार की ओर से शहीद दर्जा दे कर पूरे राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किए जाने पर सवाल उठ रहे हैं। उन्हें जिस तरह से निर्ममता पूर्वक मारा गया, उससे हर भारतीय में मन में पाकिस्तान के खिलाफ गुस्सा उफन रहा है, मगर सरबजीत की बहन दरबीर कौर की मांग तो तुरंत स्वीकार कर जिस प्रकार पंजाब की विधानसभा ने शहीद का दर्जा देने का प्रस्ताव पारित किया, उसमें कई लोगों को राजनीति की बू आती है।
हालांकि इस वक्त पूरे देश में जिस तरह का माहौल है, उसमें किसी भी राजनीतिक दल में इस बात का साहस नहीं कि वह इस मुद्दे की बारिकी में जा कर सवाल खड़े करे, न ही प्रिंट और इलैक्ट्रॉनिक मीडिया की हिम्मत है कि वह इस पर चूं भी बोल जाए, मगर सोशल मीडिया में कहीं-कहीं से ये आवाज आने लगी है कि सरबजीत को शहीद का दर्जा किस आधार पर दिया गया? क्या इसे सरबजीत के परिवार के प्रति उपजी संवेदना को तुष्ट मात्र करने और इसके जरिए वोट पक्के करने के लिए की राजनीतिक कवायद करार नहीं दिया जाना चाहिए?
मौजूदा माहौल में, जबकि पूरे देश में सरबजीत के प्रति अपार श्रद्धा उमड़ रही है, ऐसा सवाल करना अनुचित प्रतीत होता है और कदाचित कुछ लोगों की भावनाओं को आहत भी कर सकता है, मगर उनकी इस बात में दम तो है। सवाल उठता है कि आखिर किसी को शहीद का दर्जा दिए जाने के कोई मापदंड नहीं हैं? क्या गलती से पाकिस्तान चले जाने पर जासूसी करने के आरोप पकड़े गए व्यक्ति की हत्या और सीमा पर दुश्मन से लड़ते हुए अथवा देश में आतंकियों से जूझते हुए मरे सैनिक या सिपाही की मौत में कोई फर्क नहीं है? बेशक उसे एक हिंदुस्तानी होने की वजह से ही पाकिस्तान की कुत्सित हरकत का शिकार होना पड़ा,  जिसकी ओर सरबजीत की बहन ने भी इशारा किया है, और इसी आधार पर उसे शहीद का दर्जा दिए जाने की मांग कर डाली, मगर सवाल ये है कि क्या वह देश के लिए मारा गया? भारत देश का होने की वजह से मारे जाने और भारत की अस्मिता के लिए प्राण उत्सर्ग करने वाले में क्या कोई फर्क नहीं होना चाहिए? यदि इस प्रकार हम पाकिस्तान में मारे जाने वाले भारतीयों को शहीद का दर्जा देने लगे तो क्या हम उन सभी भारतीयों को भी शहीद का दर्जा देंगे, जो पाकिस्तान की जेलों में बंद हैं और उनकी निर्मम हरकतों से मौत का शिकार होंगे? क्या उन्हें भी हम इसी प्रकार विशेष आर्थिक पैकेज देने को तैयार हैं?
मामला कुल जमा ये लगता है कि चूंकि सरबजीत की बहन दलबीर कौर अपने भाई की रिहाई को मुद्दा बनाने में कामयाब हो गई, इस कारण सरबजती की हत्या की गई तो सरबजीत हीरो बन गए। करोड़ों लोगों की भावनाएं उनसे जुड़ गईं। सरकार की नाकामी स्थापित हो गई, कारण वह विपक्ष के निशाने पर आ गई। वरना अन्य सैकड़ों निर्दोष भारतीय भी पाकिस्तान की जेलों में बंद हैं, मगर चूंकि उनके परिवार में दलबीर कौर जैसी तेज-तर्रार महिला नहीं है, उनके पास मुद्दा बनाने को पैसा नहीं है या मुद्दा बना कर समाज से चंदा लेने की चतुराई नहीं है, इस कारण वे गुमनामी की जिंदगी जीते हुए रिहाई या मौत का इंतजार कर रहे हैं। यानि को ऐसे मसले को मुद्दा बनाने में कामयाब हो जाए, उसके आगे राजनीतिज्ञ स्वार्थ की खातिर नतमस्तक हो जाएंगे, बाकी के परिवार वालों के आंसू पौंछने वाला कोई पैदा नहीं होगा। दलबीर कौर मुद्दा बनाने में कितनी माहिर निकलीं, इसका अंदाजा इसी बात से लग जाता है कि सरबजीत के गांव भिक्खीविंड में हिंदी बोलने व समझने वाले लोग इतने ही होंगे कि उंगलियों पर गिने जा सकते हैं, फिर भी यहां के बच्चों के हाथों में हिंदी में लिखे बैनर थमा कर हिंदी में नारे लगवाते कई चैनलों पर दिखाए गए।
इस मुद्दे का एक पहलु ये भी है कि कदाचित सरबजीत वाकई भारत के लिए जासूसी करने को पाकिस्तान गए थे, तो फिर इसे स्वीकार किया जाना चाहिए। यदि ऐसा स्पष्ट रूप से न कह पाना सरकार की अंतरराष्ट्रीय मजबूरी है तो भी क्या सरबजीत की रिहाई के लिए वैसे ही प्रयास नहीं किए जाने चाहिए थे, जैसे कि मुफ्ती मोहम्मद सईद की साहिबजादी की रिहाई के लिए किए गए थे?
इस सिलसिले में नवभारत टाइम्स के ब्लॉगर सैक्शन में रजनीश कुमार ने लिखा है कि सरबजीत के परिवार वालों के अनुसार सरबजीत शराब के नशे में सरहद पार हो गया था, तो पाकिस्तान का कहना है कि उसका कराची विस्फोट में हाथ है और इसमें वहां की अदालत ने उसे फांसी की सजा सुनाई थी। परिवार की बात भी हम मानकर चलें तो शराब पीकर सरहद पार करने वाला शहीद कैसे हो सकता है? क्या ऐसा नहीं होना चाहिए कि जिन सबूतों के आधार पर पाकिस्तान सरबजीत को आतंकवादी कह रहा था उसकी छानबीन भारत सरकार को करनी चाहिए थी? चुनावी राजनीति में सत्ता पाने के लिए शहीद का तमगा ऐसे बांटना उन शहीदों का अपमान है, जो सच में देश के लिए मर मिटे।
उन्होंने पंजाब सरकार की नजर में शहीद की परिभाषा पर सवाल उठाते हुए कहा है कि पंजाब की अकाली सरकार के लिए पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के हत्यारे भी शहीद हैं। अकाली का समर्थन हासिल गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी के कैलेंडर में ऐसे कई लोग शामिल हैं जिन्हें शहीद का दर्जा दिया गया है। सिखों की सबसे बड़ी रिप्रेजेंटेटिव बॉडी शिरोमणि गरुद्वारा प्रबंधक कमिटी के नानकशाही कैलेंडर में कुछ तारीखों को ऐतिहासिक दर्जा दिया गया है। इसमें पूर्व प्रधानमंत्री के हत्यारे सतवंत सिंह और बेअंत सिंह की डेथ ऐनिवर्सरी भी शामिल है। यकीन मानिए आज के वक्त में वे सारे मरने वाले शहीद हैं, जिनसे यहां की सियासी पार्टियों को सत्ता पाने में मदद मिलती है, जैसे तमिलनाडु की सियासी पार्टियों के लिए प्रभाकरण कभी आंतकी नहीं रहा।
इस बारे में फेसबुक पर एक सज्जन विनय शर्मा ने लिखा है कि इसमें कोई शक नहीं कि सरबजीत भारतीय नागरिक था और वह पाकिस्तान में साजिशन मारा गया, मगर क्या यह जानना हमारा हक नहीं कि ऐसा उसने क्या किया था कि उसे शहीद का दर्जा दिया गया?
हालांकि इस सवाल का जवाब कोई नहीं देगा, मगर इस वजह से यह सवाल सदैव कायम रहेगा, चुप्पी से सवाल समाप्त नहीं जाएगा।
-तेजवानी गिरधर

शनिवार, मई 04, 2013

सीबीआई यकायक इतनी ईमानदार कैसे हो गई?


देश के रेल मंत्री पवन कुमार बंसल के भानजे विजय सिंगला को सीबीआई द्वारा रिश्वत लेते हुए गिरफ्तार किए जाने के साथ ही यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि सीबीआई यकायक इतनी ईमानदार कैसे हो गई? जिस सीबीआई को विपक्ष कांग्रेस ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टीगेशन की उपमा देती रही है, उसने रेल मंत्रालय जैसे महत्वपूर्ण महकमे के मंत्री के भानजे कैसे हाथ डाल दिया, जबकि इससे पहले से आरोपों से घिरी सरकार पर और दबाव बनता? हालांकि भाजपा ने परंपरा का निर्वाह करते हुए बंसल के इस्तीफे की मांग की है और कांग्रेस ने भी पुराने रवैये को ही दोहराते हुए इस्तीफा लेने से इंकार कर दिया, मगर इससे अनेक सवाल मुंह बाये खड़े हो गए हैं।
इस वाकये एक पक्ष तो ये है कि भ्रष्टाचार के आरोपों से चारों ओर से घिरी कांग्रेसी नीत सरकार ने संभव है यह जताने की कोशिश की हो कि विपक्ष का यह आरोप पूरी तरह से निराधार है कि सीबीआई उसके इशारे पर काम करती है। वह स्वतंत्र और निष्पक्ष है। कांग्रेस प्रवक्ता राशिद अल्वी ने तो बाकायदा यही कहा कि देखिए सीबीआई कितनी स्वतंत्र है कि उसने मंत्री के रिश्तेदार को भी दोषी मान कर गिरफ्तार कर लिया। गिनाने को उनका तर्क जरूर दमदार है, लेकिन इस पर यकायक यकीन होता नहीं है। कांग्रेस की ओर से रेलमंत्री का यह कह कर बचाव करने से सवालिया उठता है कि सीबीआई की जांच में अभी तक रेलमंत्री की संलिप्तता पुष्टि नहीं हुई है। खुद रेल मंत्री भी मामले की जांच करने को कह रहे हैं, इससे बड़ी क्या बात होगी। अपने भानजे की गिरफ्तारी के बाद रेलमंत्री पवन बंसल ने भी कहा कि उनका उनके भानजे के साथ कोई कारोबारी रिश्ता नहीं रहा है। उन्होंने कहा कि चंडीगढ़ में उनकी बहन के फर्म में छापा मारा गया है, उससे उनका कोई लेना-देना नहीं है। कुछ सूत्र ये भी कहते हैं कि बंसल पर आज तक कोई दाग नहीं है। उनकी छवि साफ-सुथरी है। यही इसे सही मानें और यदि बंसल की बात को भी ठीक मानें तो सवाल ये उठता है कि आखिर रेलवे बोर्ड के सदस्य (स्टाफ) नियुक्त हुए महेश कुमार ने किस बिना पर रिश्वत दी? क्या रिश्वत के पेटे उनकी नए पद नियुक्ति में बंसल कोई हाथ नहीं है? जब रिश्वत ले कर ही नियुक्ति हुई तो आखिर नियुक्ति किस प्रकार हुई? रिश्वत की राशि का हिस्सा किसके पास पहुंचा? भले ही बंसल ये कहें कि उनका भानजे से कोई लेना-देना नहीं है, मगर उसने उन्हीं के नाम पर तो यह गोरखधंधा अंजाम दिया। ऐसे में क्या बंसल की कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं बनती? क्या वे भूतपूर्व रेल मंत्री लाल बहादुर शास्त्री की तरह ईमानदारी का परिचय नहीं दे सकते थे, जिन्होंने एक रेल दुर्घटना की नैतिक जिम्मेदारी अपने ऊपर लेते हुए पद छोड़ दिया था? बताया जाता है कि कांग्रेस के मैनेजरों की राय यह रही कि इस प्रकार इस्तीफा देने यह संदेश जाता है कि वाकई मंत्री दोषी थे, इस कारण इस्तीफा न दिलवाने का विचार बनाया गया।
इस वाकये का दूसरा पक्ष ये भी है कि क्या कोलगेट मामले में सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद सीबीआई चीफ वाकई में निडर हो गए हैं और राजनीतिक आकाओं से आदेश नहीं ले रहे? या फिर केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को दिखाने के लिए ऐसा करवाया ताकि वह उसके इस दबाव से मुक्त हो सके कि वे सीबीआई का दुरुपयोग करती है?
कुछ सूत्र बताते हैं कि अंदर की कहानी कुछ और है। इस वाकये से ये जताने की कोशिश की जा रही है कि सीबाईआई निष्पक्ष है, मगर यह कांगे्रस के आंतरिक झगड़े का परिणाम है। बताया जा रहा है कि प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के विश्वसनीय कानून मंत्री अश्वनी कुमार के साथ बंसल की नाइत्तफाकी का ही नतीजा है कि उन्हें हल्का सा झटका दिया गया है। बताते हैं कि कोलगेट मामले में सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद जब भाजपा ने अश्वनी कुमार पर इस्तीफे का दबाव बनाया तो कांग्रेस का एक गुट भी हमलावर हो गया और उसमें बंसल अग्रणी थे। इसी कारण बंसल को सीमा में रहने का इशारा देने के लिए इस प्रकार की कार्यवाही की गई। यदि यह सच है तो इसका मतलब भी यही है कि सीबीआई सरकार के इशारे पर ही काम करती है। सहयोगी दलों बसपा व सपा पर शिकंजा कसने के लिए, चाहे अपने मंत्रियों को हद में रखने के लिए, उसका उपयोग किया ही जाता है।
इस प्रकरण का एक दिलचस्प पहलु ये भी है कि बंसल के इस्तीफे पर एनडीए के दो प्रमुख घटक दल भाजपा और जनता दल यूनाइटेड में ही मतभेद हो गया है। भाजपा जहां बंसल का इस्तीफा मांग रही है तो जेडीयू अध्यक्ष शरद यादव ने कहा कि रेलमंत्री के इस्तीफे की कोई आवश्यकता नहीं है। भांजे ने रिश्वत ली तो बंसल की क्या गलती है? है न चौंकाने वाला बयान? खैर, राजनीति में न जाने क्या-क्या होता है, क्यों-क्यों होता है, पता लगाना ही मुश्किल हो जाता है।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, मई 02, 2013

सरबजीत की बहन एक ही रात में कैसे बदल गई?


पाकिस्तान की कोट लखपत जेल में साथी कैदियों के हमले के बाद अस्पताल में दम तोड़ चुके भारतीय नागरिक सरबजीत के लिए एक ओर जहां पूरा देश संवेदना से भर गया है, लोगों में पाकिस्तान की घिनौनी हरकत व भारत सरकार की नाकामी पर गुस्सा है और कहीं न कहीं इसे भारत सरकार की लापरवाही अथवा कूटनीतिक पराजय मान रहा है, वहीं सरबजीत की बहन दलबीर कौर के एक ही रात में बदले सुर से सब भौंचक्क हैं।
पाकिस्तान से लौटने पर वाघा बॉर्डर पर शेरनी की तरह दहाड़ते हुए दलबीर कौर ने कहा था कि भारत सरकार के लिए शर्म की बात है कि वह अपने एक नागरिक को नहीं बचा सकी। भारत ने पाकिस्तान के कई कैदी छोड़े लेकिन अपने सरबजीत को नहीं बचा सके। उन्होंने आरोप लगाया था कि भारत सरकार ने उनके परिवार को धोखा दिया है। उन्होंने यह धमकी भी दी थी कि अगर सरबजीत को कुछ हुआ तो वह देश में ऐसे हालात पैदा कर देंगी कि मनमोहन सिंह कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे। एक ओर जहां उनके इस बयान को उनके अपने भाई के प्रति अगाघ प्रेम की वजह से भावावेश में आ जाना माना जा रहा था, वहीं कुछ को लग रहा था कि वे किसी के इशारे पर मनमोहन सिंह को सीधी चुनौती दे रही हैं। कुछ ऐसे भी हो सकते हैं जिनको उम्मीद रही हो कि दलबीर कौर को सरकार के खिलाफ काम में लिया जाएगा। जो कुछ भी हो, लेकिन उनका गुस्सा जायज था। मगर जैसे ही सरबजीत की मौत की खबर आई, राहुल गांधी ने सरबजीत के परिवार से मुलाकाम की, दलजीत कौर का सुर बदल गया है।
उन्होंने कहा कि उनका भाई देश के लिए शहीद हुआ है। देश के सभी हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई और सभी राजनीतिक दलों को एक हो जाना चाहिए। उन्होंने सब से मिलकर पाकिस्तान पर हमला करने की जरूरत बताई। दलबीर ने कहा कि पहले मुशर्रफ ने वाजपेयी की पीठ पर छुरा मारा, अब जरदारी ने मनमोहन की पीठ पर छुरा मारा है। यह मौका है जब देशवासियों को सब कुछ भूल कर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के हाथ मजबूत करने चाहिए और गृह मंत्री शिंदे का साथ देना चाहिए।
स्वाभाविक सी बात है कि उनके इस बदले हुए रवैये पर आश्चर्य होता है। आखिर ऐसी क्या वजह रही कि एक दिन पहले सरकार से सीधी टक्कर लेने की चेतावनी देने वाली सरबजीत की बहन पलट गई। संदेह होता है कि वे अब किसी दबाव में बोल रही हैं। जाहिर तौर पर यह सरकार का ही दबाव होगा, जिसके तहत सरबजीत के परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी और कुछ आर्थिक मदद करने की पेशकश की गई होगी। दलबीर कौर के इस रवैये की सोशल मीडिया पर आलोचना हो रही है। बानगी के बतौर कोलाकाता के एक व्यक्ति किरण प्रांतिक की ट्वीट देखिए:-
सरबजीत की बहन दलबीर को मनमोहन-शिंदे सरकार ने खरीद लिया. अब वे इस नपुंसक सरकार के हाथ मजबूत करने के लिए भाषण दे रहीं!! सरबजीत की हत्या पे आज पूरा देश दुखी और क्रोधित है. गुस्सा फूटा पड़ रहा...बेहद अफसोस कि उनका परिवार ही आज इस नपुंसक सरकार से घूस खा गया!! ऐसे घूसखोर परिवार में सरबजीत का जन्म! जो घूस खाकर उस नपुंसक सरकार को बचाने लग गया, जिसने सरबजीत को बचाने के लिए कभी कड़े कदम उठाये ही नहीं!
बहरहाल, इन महाशय की प्रतिक्रिया चुभने वाली जरूर है, मगर यह भी सच है कि सरकारें इसी प्रकार लालच दे कर गुस्साए लोगों के मुंह बंद करती हैं और सरबजीत की बहन भी उसके परिवार के भविष्य के लिए झुक गई, क्योंकि अब सरबजीत तो कभी लौट कर नहीं आने वाला।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, अप्रैल 18, 2013

मोदी के इस पैंतरे के मायने क्या हैं?


वर्तमान में सर्वाधिक सशक्त व चर्चित हिंदूवादी चेहरे की बदोलत भाजपा में प्रधानमंत्री पद के सशक्त दावेदार गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी छवि के विपरीत एक ऐसी पहल की है, जिसने राजनीतिक हलके को तो भौंचक्का किया ही है, विश्लेषकों को भी असमंजस में डाल दिया है। अकेले गुजरात दंगों के आरोप की वजह से भाजपा के धर्मनिरपेक्ष सहयोगियों के लिए अछूत बने नरेन्द्र मोदी की सरकार ने तय किया है कि वह नरोड़ा पाटिया में दोषी करार दिये गये उन दोषियों के लिए सजा-ए-मौत मांगेगी, जो अभी विभिन्न विभिन्न सजाओं के तहत जेलों में बंद हैं। ज्ञातव्य है कि नरोडा पाटिया नरसंहार के लिए बाबू बजरंगी को आजीवन कारावास मिला था, जबकि माया कोडनानी को 28 साल के जेल की सजा सुनाई गई थी। गुजरात सरकार ने तय किया है कि वह माया और बजरंगी सहित सभी दसों आरोपियों के लिए फांसी की सजा के लिए हाईकोर्ट जाएगी और अन्य 22 दोषियों के लिए सजा बढ़ाने की मांग करेगी। असल में पहल एसआईटी ने की है, मगर जिस तरह राज्य के कानून विभाग ने इसे मंजूरी दी है, उससे यह समझ में नहीं आ रहा है कि ऐसा उसने मजबूरी में किया है अथवा जानबूझकर सोची-समझी रणनीति के तहत। मोदी सरकार की ओर से गठित तीन सदस्यीय वकीलों का पैनल सारी तैयारी पूरी करने के बाद अगले हफ्ते गुजरात हाईकोर्ट में याचिका दाखिल कर सकता है।
दरअसल सन् 2002 दंगों के बारे में जब तहलका ने स्टिंग ऑपरेशन किया था तो बाबू बजरंगी ने साफ कहा था कि नरेन्द्र मोदी के कहने पर ही ऐसा हुआ हुआ था। बजरंगी ने मोदी को मर्द बताते हुए दावा किया था कि वे उनको बचा लेंगे। वे मोदी के इतने कट्टर व अंध भक्त थे कि यह तक कह दिया कि हिंदू हित के लिए नरेन्द्र भाई कहेंगे तो वे अपने शरीर पर बम बांध कर विस्फोट कर देंगे। बाद में हालात बदले और कोर्ट में यही स्टिंग ऑपरेशन बतौर सबूत पेश किया गया, नतीजतन नरोडा पाटिया नरसंहार में अभियुक्त दोषी साबित किए जा सके। ऐसे में यह सवाल कौंधना स्वाभाविक है कि ऐसे  अनन्य भक्त बजरंगी और उनकी ही सरकार में मंत्री रही माया कोडनानी के लिए फांसी की सजा मांगने के लिए तैयार कैसे हो गई? हालांकि अब तक हिंदूवादी संगठनों की ओर से इस पर कुछ खास प्रतिक्रिया नहीं आई है, मगर मोदी के राजनीतिक गुरु रहे शंकर सिंह वाघेला ने जरूर इसे सियासी स्टंट बताया है। उन्होंने कहा है कि 2002 में मुसलमानों के कत्लेआम के बाद अब मोदी को समझ आ रहा है कि राष्ट्रीय स्तर पर अल्पसंख्यकों के बगैर नहीं जीता जा सकता, इसलिए अपनी छवि ठीक करने के लिए मोदी ऐसा करने जा रहे हैं। संभव है वाघेला की बात सही हो। लगातार सांप्रदायिकता का आरोप ढ़ो रहे और अकेले इसी वजह से बहस का मुद्दा बने मोदी को फिलवक्त इसी की जरूरत है कि वे अपने आपको सर्वस्वीकार्य बनाएं। अब देखना ये है कि मोदी के इस कदम को हिंदूवादी किस रूप में लेते हैं। मगर इतना तय है कि यह कदम बिना सोचे-समझे नहीं उठाया जा रहा।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, अप्रैल 14, 2013

दुगुने उत्साह के साथ मैदान में आ डटी है बसपा


पिछले विधानसभा चुनाव में बड़ी मशक्कत के बाद छह विधायकों की जीत के साथ राजस्थान में अच्छी एंट्री करने वाली बसपा इस बार दुगुने उत्साह के साथ चुनाव मैदान में उतरने जा रही है। साथ ही प्रत्याशियों के चयन में फूंक-फूंक कर कदम रख रही है। चयन करने में पूरी सावधानी बरती जा रही है और पार्टी के निष्ठावान कार्यकर्ताओं को ही आगे लाने पर ध्यान दिया जा रहा है। ज्ञातव्य है कि पिछली बार छहों बसपा विधायकों ने पार्टी के साथ दगा कर कांग्रेस की शरण ले ली, जिससे पार्टी को एक बड़ा झटका लग गया। हालांकि संगठन का ढ़ांचा जरूर बच गया, मगर कहने भर तक को उसका एक भी विधायक विधानसभा में नहीं रहा था। इससे सबक लेते हुए इस बार पूरी सावधानी बरती जा रही है। साथ ही पिछले चुनाव के अनुभवी प्रत्याशियों पर अपने भरोसे को कायम रखते हुए उन्हें आगामी चुनाव के लिए फिर से एक मौका दिया जा रहा है।
पार्टी अच्छी तरह से जानती है कि भले ही आज उसका एक भी विधायक नहीं है, मगर उसका जनाधार अब भी कायम है। बसपा का राजस्थान में कितना जनाधार है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले चुनाव में बसपा ने 199 प्रत्याशी मैदान में उतारे थे, जिनमें से 53 सीटें ऐसी थीं, जिनमें बसपा ने 10 हजार से अधिक वोट हासिल किए थे। छह पर तो बाकायदा जीत दर्ज की और बाकी 47 सीटों पर परिणामों में काफी उलट-फेर कर दिया। अपने वोट बैंक के दम पर बसपा ने फिर से चुनाव मैदान में आने का आगाज कर दिया है और पूर्वी राजस्थान के लिए सबसे पहले 29 प्रत्याशियों की घोषणा करके अपने चुनावी पत्ते खोल दिए हैं। चुनाव से तकरीबन छह माह पहले कुछ प्रत्याशियों की घोषणा इस बात का प्रमाण है कि पार्टी ने पिछले झटके से हताश होने की बजाय अतिरिक्त आत्मविश्वास पैदा किया है। ऐसा करके उसने अन्य पार्टियों व राजस्थान की जनता को यह संदेश देने की कोशिश की है कि वह पिछले झटके से पूरी तरह उबर चुकी है और दुगुने उत्साह के साथ मैदान में आ डटी है। पार्टी का मानना है कि समय से पहले घोषित हुए प्रत्याशियों को चुनाव प्रचार का भरपूर मौका मिलेगा। बसपा सुप्रीमो मायावती को उम्मीद है कि पदोन्नति में आरक्षण के लिए सतत प्रयत्नशील रहने के कारण बसपा के वोट बैंक में और इजाफा होगा, जिसे वे किसी भी सूरत में गंवाना नहीं चाहेंगी। लक्ष्य यही है कि किसी भी प्रकार दस-बीस सीटें हासिल कर ली जाएं, ताकि बाद में सरकार के गठन के वक्त नेगोसिएशन किया जा सके।
बसपा का ध्यान इस दफा युवा और महिला वर्ग पर है। इन वर्गों को अधिकाधिक टिकट देकर सत्ता संतुलन करने का प्रयास है। इसके लिए जिलेवार कार्यकत्र्ताओं के सम्मेलन आयोजित कर अपनी पकड़ को अधिक मजबूत करने की कोशिश की जा रही है। पूर्वी राजस्थान में 29 टिकटों की घोषणा के बाद प्रदेश की शेष विधानसभा सीटों के लिए मई माह में प्रत्याशियों की घोषणा की जाएगी। बसपा के प्रदेशाध्यक्ष भगवान सिंह बाबा पूरे आत्म विश्वास से भरे हुए हैं और उनका मानस है कि प्रदेश की सभी 200 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ा जाए।
ये हैं अब तक घोषित उम्मीदवार
करणपुर से जसविन्दर सिंह, सूरतगढ़ से बसपा के पूर्व प्रदेशाध्यक्ष डूंगर राम गैदर, अनूपगढ़ से हरीश सांवरिया, भादरा से सुखदेव सिंह शेखावत, सादुलपुर राजगढ़ चुरू से मनोज सिंह न्यांगली, पूर्व विधायक सुरेश मीणा करौली, हनुमानगढ़ से मनीराम, मंडावा से प्यारेलाल ढूकिया, खेतड़ी से पूरण सैनी, तिजारा से फजल हुसैन, किशनगढ़बास से सपात खान, बानसूर से हवा सिंह गुर्जर, अलवर ग्रामीण से अशोक वर्मा, रामगढ़ से फजरू खान, बाड़ी से दौलत सिंह कुशवाह, कठूमर से श्रीमती कमला, बैर से अतर सिंह, बयाना से मुन्नी देवी दुबेश, धौलपुर से बी.एल.कुशवाह, टोडाभीम से हरीओम मीणा, करौली से सुरेश मीणा, बांदीकुई से राजकुमारी गुर्जर, ओसियां से उमराव जोधा, राजाखेड़ा से विजेन्द्र शर्मा, नदबई से घनश्याम कटारा, नगर से सुदेश गुर्जर, भरतपुर से दलबीर सिंह, जालोर से मांगीलाल परिहार, सिवाना से विजयराज देवासी और कुम्भलगढ़ से धीरज गुर्जर चुनाव मैदान में उतरेंगे।
-तेजवानी गिरधर

मंगलवार, अप्रैल 09, 2013

आम आदमी से सीधे जुड़ रही हैं वसुंधरा


राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री व प्रदेश भाजपा अध्यक्ष श्रीमती वसुंधरा राजे अपनी सुराज संकल्प यात्रा के दौरान एक ओर जहां कांग्रेस, राज्य सरकार व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पर तीखे प्रहार कर रही हैं, वहीं आम लोगों का दिल जीतने के लिए अपना हाई प्रोफाइल रूप त्याग कर लो प्रोफाइल शख्सियत को भी उभार रही हैं। इस यात्रा के दौरान उन्हें देखने, सुनने के लिए लोगों का हुजूम उमड़ रहा है, जो कि उनके प्रति लोगों में मौजूद क्रेज को उजागर करता है। कदाचित अपने प्रति आम लोगों की चाहत को वे गहराई से समझ रही हैं, और इसी कारण उनसे नजदीकी का कोई भी मौका नहीं चूकना चाहतीं। इसी सिलसिले में वे सारे सुरक्षा इंतजामों को दरकिनार करते हुए आदिवासी महिलाओं से इस प्रकार घुल मिल गईं, मानों वे उनकी सहेलियां हों। इससे भी एक कदम आगे बढ़ कर उन्होंने एक कार्यकर्ता के इस आग्रह को भी स्वीकार कर लिया कि वे उसकी मोटर साइकिल पर बैठें।
हुआ यूं कि डूंगरपुर जिले के बीजामाता मोड़़ से बीजामाता मंदिर तक रथ से जाने का मार्ग नहीं था। जैसे ही श्रीमती राजे रथ से नीचे उतर कर उनकी कार में बैठने लगी तो एक कार्यकर्ता ने कहा मेरी इच्छा है कि मैं अपनी मोटर साईकिल से आपको बीजामाता मंदिर तक ले जाऊं, फिर क्या था, श्रीमती राजे बैठ गई कार्यकर्ता शंकर मीणा की मोटरसाइकिल पर। और पहुंच गई बीजामाता मंदिर। जहां उन्होंने दर्शन और पूजा-अर्चना की। उनकी इस सहजता को देख कर वहां मौजूद लोग अभिभूत हो गए।
ऐसा प्रतीत होता है कि इस बार वे सत्ता में लौटने के लिए कोई कोर कसर बाकी नहीं छोडऩा चाहतीं। स्वाभाविक भी है, यदि ये मौका चूकीं तो उनके राजनीतिक कैरियर पर बे्रक लग जाएगा, कम से कम राजस्थान में, क्योंकि उनकी जिद के आगे झुक कर ही हाईकमान ने उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किया है।

मंगलवार, अप्रैल 02, 2013

मोदी की टांग खींची तो भाजपा डूब जाएगी?


gujratहालांकि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद का अधिकृत दावेदार घोषित किया जाना बाकी है, या यूं कहें कि फिलहाल प्रबल संभावना मात्र है, मगर ऐसा प्रतीत होता है कि मोदी को लेकर अभी से पार्टी में घमासान शुरू हो गया है। प्रधानमंत्री पद के अन्य दावेदारों को मोदी का नाम पचाना मुश्किल हो रहा है। इस स्थिति को मोदी के समर्थक भांप रहे हैं। भीलवाड़ा के एक मोदी समर्थक संजीव पाठक ने तो बाकायदा इस आशय की एक पोस्ट फेसबुक पर लगाई भी है, जिसमें आगाह किया गया है कि यदि मोदी की टांग खींची गई तो भाजपा नाम की रह जाएगी।
उनकी इस पोस्ट में एक फोटो भी लगाई गई है, जो यह साबित करती है कि मोदी के समर्थक बाकायदा मोदी को प्रोजेक्ट करने में लगे हुए हैं, जिसका संकेत मैं मोदी विषयक पूर्व आलेख में दे चुका हूं कि मोदी जितने बड़े हैं नहीं, उससे कहीं अधिक मीडिया और सोशल नेटवर्किंग साइट्स के जरिए प्रोजेक्ट किए जा रहे हैं।
बहरहाल, संजीव पाठक की पोस्ट को यहां हूबहू यहां दिया जा रहा है, जिससे आपको सब कुछ समझ में आ जाएगा:-
संजीव पाठक
संजीव पाठक
अब अन्दर खाते समझ में आने लगा है कि भाजपा के कुछेक वरिष्ठ नेता नरेन्द्र मोदी को पार्टी का नेतृत्व संभलाने से कतरा रहे हैं .पार्टी नेता यह मान बैठे हैं कि देश कांग्रेस की बुराइयों से त्रस्त होकर भाजपा को माला पहना ही देगी ! फिर क्यों न " मैं " ही प्रधानी करूँ ! क्या जरुरत है मोदी की ? 
मेरे भाजपाइयों , कृपया यह कत्तई न भूलें कि देश का मतदाता कांग्रेस से नाखुश है तो खुश आप से भी नहीं है . उत्तराखण्ड और हिमाचल में मिली हार से भी यदि आप अभी भी कुछ नहीं समझे हैं तो फिर तरस आता है आप पर . 
यह तो नरेन्द्र मोदी जैसा निष्ठावान , देशभक्त , खालिस ईमानदार , योग्य प्रशासक , नीतिवान नेता आपकी पार्टी में हैं नहीं तो आप भी कहीं कांग्रेस से कम नहीं है . कर्नाटक , झाड़खंड के उदाहरण आपके लिए नासूर से कम नहीं है . 
यह बात भी भली भांति समझ लें कि जिन राज्यों में आप सत्तासुख भोग रहे हैं वहाँ भी वहीं के नेतृत्व की ही करामात है . आप लोग यदि इतने ही सक्षम हैं तो क्यों उत्तरप्रदेश में हारे ? क्यों नहीं अभी तक पूर्वोत्तर या सुदूर दक्षिण में अपने पैर जमा सके ? यदि ऐसा नहीं तो क्यों नहीं अटलजी की तरह अडवाणीजी भी स्वयं को सन्यासी घोषित करने में देरी कर रहे हैं ? हाँ , इस बात में कोई दो राय नहीं है कि
अटलजी - अडवाणीजी भाजपा के दो कीर्तिस्तंभ हैं किन्तु समयानुसार अपनी भावी पीढी को व्यवस्थापक बना कर स्वयं को संरक्षक बना लेना चाहिए .
एक बार पूर्ण जिम्मेदारी से पुनः ( एक जागरूक मतदाता की हैसियत से ) चेतावनी देना चाहता हूँ कि मोदी जी नीतिज्ञ की राह में कांटे बिछाने का काम न करें वरना भाजपा नाम की ही रह जाएगी....
अब तो आप समझ गए होंगे कि मोदी के समर्थकों अथवा भाजपा के तथाकथित सच्चे हितेषियों के मन में कैसे धुकधुकी है।
-तेजवानी गिरधर