तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

मंगलवार, अक्टूबर 11, 2011

मैदान से बाहर रह कर मैदान का मजा ले रहे हैं अन्ना

भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम तथा जनलोकपाल विधेयक संसद में पेश किए जाने की मांग को लेकर पूरे देश में हलचल मचाने के दौरान खुद को राजनीति से दूर रखने की घोषणा करने वाले अन्ना हजारे का छुपा एजेंडा सामने आने लगा है। असल में आ ही गया है। उनकी और उनके साथियों की भी राजनीतिक महत्वाकांक्षा साफ नजर आ रही है।
इस सिलसिले में मुझे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का एक सभा में कहा गया एक कथन याद आता है। उन दिनों अभी जनता पार्टी का राज नहीं आया था। नागौर शहर की एक सभा में उन्होंने कहा कि कांग्रेस उन पर आरोप लगा रही है कि वे सत्ता हासिल करना चाहते हैं। हम कहते हैं कि इसमें बुराई भी क्या है? क्या केवल कांग्रेस ही राज करेगी, हम नहीं करेंगे? हम भी राजनीति में सत्ता के लिए आए हैं, कोई कपास कातने या कीर्तन थोड़े ही करने आए हैं। वाजपेयी जी ने तो जो सच था कह दिया, मगर अन्ना एंड कंपनी में शायद ये साहस नहीं है। वे राजनीति और सत्ता में आना भी चाहते हैं और कहते हैं कि हम राजनीति में नहीं आना चाहते। असल में वे जानते हैं कि उनको जो समर्थन मिला था, वह केवल इसी कारण कि लोग समझ रहे थे कि वे नि:स्वार्थ आंदोलन कर रहे हैं। यदि वे भी ये कह कर कि हम भी राजनीति में आना चाहते हैं तो कदाचित जनता उनको इतना समर्थन नहीं देती। भाजपा को ही लीजिए न, आंदोलन तो उसने भी दिखाने को किया, विपक्षी दल की औपचारिकता निभाई, मगर जनसमर्थन नहीं मिला। वजह साफ थी कि जिस मुद्दे पर आंदोलन हुआ, उस मामले में वह भी दूध की धुली हुई है।
बहरहाल, अन्ना एंड कंपनी को जैसे ही लगा कि जनता उनका साथ दे रही है तो उनकी भी महत्वाकांक्षा जाग गई है। ऐसा प्रतीत होता है कि अन्ना हजारे को अंदाजा था। इसी कारण कदम दर कदम राजनीति की ओर सरक रहे हैं। पहले देशभक्ति का नाम दे कर जनता का समर्थन हासिल किया और अब अपनी ताकत भी नाप रहे हैं। उसमें भी चालाकी कर रहे हैं। खुद सीधे तौर पर राजनीति में नहीं उतर रहे। हिसार के उपचुनाव में अपना कोई प्रत्याशी खड़ा नहीं कर रहे, मगर कांग्रेस को निशाना बना कर उसके विरोध में प्रचार कर रहे हैं। जाहिर तौर पर जो जनता उनको महात्मा गांधी की उपमा दे रही थी, वही अब रवैये देखकर उनके आंदोलन को संदेह से देख रही है।
भले ही वे कहें कि जो भी जनलोकपाल बिल के प्रति सहयोगात्मक रुख नहीं रखेगा, उसका विरोध करेंगे, मगर केवल एक पार्टी विशेष पर निशाना साधने से उनके कृत्य में राजनीति की बू आने लगी है। अन्ना और उनके समर्थक भले ही शब्दों के कितने ही जाल फैलाएं, कितनी ही सफाई दें, मगर उनके ताजा कृत्य से जाहिर हो गया है कि वे अपने मूल मकसद से हटकर विवाद की ओर बढ़ रहे हैं। खुद उनकी ही टीम के प्रमुख सहयोगी जस्टिस संतोष हेगडे एक पार्टी विशेष की खिलाफत को लेकर मतभिन्ना जाहिर कर चुके हैं। चलो कांग्रेस पर तो हमला हो रहा है, इस कारण वह राजनीति के तहत की पलट वार कर रही है। उसके इस आरोप में कितना दम है कि अन्ना भाजपा व संघ के हाथों की कठपुतली हैं या उनको राष्ट्रपति पद का साझा उम्मीदवार बनाने का लालच दिया गया है, कुछ कह नहीं सकते, मगर आमजन में भी यह प्रतिक्रिया तो है कि आखिर अन्ना हजारे व उनके साथियों मकसद वास्तव में है क्या?  सवाल ये भी उठने लगा है कि वे जनलोकपाल विधेयक को संसद में पारित कराने की बजाय खुल कर कांग्रेस की खिलाफत पर क्यों उतर आए? जाहिर तौर पर इसका भारतीय जनता पार्टी समर्थित उम्मीदवार के रूप में हरियाणा जनहित कांगेस के उम्मीदवार कुलदीप बिश्रोई को फायदा होगा, जो कि परोक्ष रूप से उनका समर्थन करने के ही समान है। खुद अन्ना भी स्वीकार कर रहे हैं कि ऐसा तो होता ही है, एक का विरोध करने पर दूसरे को फायदा होता है। मगर आश्चर्य है कि वे इसे दूसरे का समर्थन करार दिए जाने को गलत मानते हैं। क्या यह एक चतुराई नहीं है कि वे राजनीति के मैदान को गंदा बताते हुए उसमें आ भी नहीं रहे और उसमें टांग भी अड़ा रहे हैं? यानि राजनीति से दूर रह कर अपने आपको महान भी कहला रहे हैं और उसके मजे भी ले रहे हैं। गुड़ से परहेज दिखा रहे हैं और गुलगुले बड़े चाव से खा रहे हैं। यह ठीक उसी प्रकार है जैसे कोई शादी न करके उसकी परेशानियों से दूर भी बना रहे और शादी से मिलने वाले सुख को भोगता रहे।
एक दिलचस्प बात और है। वो ये कि अन्ना हजारे खुद ही हिसार के दंगल को आगामी लोकसभा चुनाव का सेंपल सर्वे तक करार दिए रहे हैं, जो कि नितांत हास्यास्पद है। हर लोकसभा क्षेत्र के चुनावी समीकरण काल, परिस्थितियों सहित अनेकानेक पहलुओं पर निर्भर करता है। गौर करने लायक बात ये भी है कि अरविंद केजरीवाल अपने भाषणों में जैसी भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं, वह किसी सदाशयी की भाषा तो कत्तई नहीं दिखाई देती। साफ तौर पर वे राजनीति के गिरे हुए स्तर पर जा कर बोल रहे हैं। उनकी भाषा में वैसी ही कुटिलता है, जैसी आमतौर पर राजनीतिकज्ञों की भाषा में होती है। ऐसा प्रतीत होता है कि खुद अन्ना एंड कंपनी इस उपचुनाव को अपने लिए सेंपल सर्वे कर रही है, ताकि बाद में अन्ना की उस घोषणा पर भी काम शुरू किया जा सके, जिसमें उन्होंने कहा था कि वे ऐसे स्वच्छ लोगों की तलाश में हैं जो आगामी लोकसभा चुनाव में उतारे जा सकें। वे ऐसे लोगों को पूरा समर्थन देंगे। कुल मिला कर इससे अन्ना और उनकी टीम की राजनीतिक महत्वाकांक्षा खुलकर सामने आ गई है और ये भी जाहिर हो गया है कि अन्ना शुरू से ही अपने आंदोलन को सत्ता संघर्ष के लिए एक सीढ़ी बना कर चल रहे हैं।
रहा सवाल अन्ना के भाजपा या संघ की कठपुतली होने का तो भले ही यह आरोप सीधे तौर पर गलत हो, मगर यह तो सच है ही कि अन्ना के आंदोलन की सफलता में भाजपा का भी हाथ रहा है, भले ही उसके कार्यकर्ता अपनी पहचान छुपा कर शामिल हुए हों। संघ प्रमुख मोहन भागवत सहित भाजपा के नेताओं ने तो साथ स्वीकार कर ही लिया कि देशहित की खातिर संघ ऐसे आंदोलन का समर्थन करता है और करता रहेगा, भले अन्ना उनके समर्थन होने की बात से इंकार करें।
बहरहाल, अन्ना एंड कंपनी जो कुछ कर रही है, वह इस लोकतांत्रिक देश में उनकी स्वतंत्रता है, मगर यदि वे वाकई राजनीति के इसी स्तर पर आने का छुपा एजेंडा ले कर चल रहे थे तो उस युवा पीढ़ी के साथ जरूर धोखा होगा, जो देशभक्ति के जज्बे के कारण उनके साथ हो ली थी। उन पर क्या बीतेगी जो, राष्ट्र प्रेम की खातिर निष्छल भाव से भ्रष्टाचार मुक्त देश बनाने की खातिर जुटे थे?
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गुरुवार, अक्टूबर 06, 2011

तब क्यों छुड़वाया था पाक यात्रियों को आडवानी ने?

हाल ही भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश उपाध्यक्ष तथा पूर्व सांसद औंकार सिंह लखावत व जिलाध्यक्ष व पूर्व सांसद रासासिंह रावत सहित विधायक द्वय प्रो. वासुदेव देवनानी व श्रीमती अनिता भदेल ने अजमेर में बिना अनुमति के पाकिस्तान के वाणिज्य मंत्री के सभा करने पर कड़ा ऐतराज करते हुए दोषियों के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही के साथ केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिदम्बरम तथा राज्य के गृहमंत्री शान्ति धारीवाल के इस्तीफे की मांग की है। जैसा प्रकरण है, उनकी मांग बिलकुल जायज है। बेशक अजमेर में अवैधानिक तथा सुरक्षा नियमों के विपरीत हुई पाक वाणिज्य  मंत्री मकदूम अमीन फहीम की सभा कराने तथा इसमें सीमावर्ती जिलों से हजारों की तादाद में लोगों को लाने की कार्यवाही राष्ट्र की सुरक्षा के लिए खतरा है, मगर सवाल ये उठता है क्या भाजपा नेता दोहरा मापदंड अपना  रहे हैं?
पाठकों को याद होगा कि काफी दिन पहले तीर्थराज पुष्कर में बिना वीजा के घूमते पकड़े गए पाकिस्तान के सिंध प्रांत के 66 हिंदू तीर्थ यात्रियों को कथित रूप से लालकृष्ण आडवाणी ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर बिना किसी कार्यवाही के छुड़वा दिया। इतना ही नहीं उन्हें आगे की यात्रा भी जारी रखने की इजाजत दिलवा दी थी। कुछ हिंदूवादी संगठनों व भाजपा विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी के आग्रह पर आडवाणी के इस प्रकार दखल करने से एक नई बहस छिड़ गई थी।
हुआ यूं था कि जैसे ही पाकिस्तान के सिंधी तीर्थयात्रियों के बिना वीजा पुष्कर में पकड़े जाने की सूचना आई, हिंदूवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व भारतीय सिंधु सभा के पदाधिकारी सक्रिय हो गए। उन्होंने पुष्कर पहुंच कर सीआईडी के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक गजानंद वर्मा पर दबाव बनाया कि उन्हें बिना किसी कार्यवाही के छोड़ दिया जाए, क्योंकि वे हिंदू तीर्थयात्री हैं। वर्मा ने उनकी एक नहीं सुनी, उलटे उन्हें डांट और दिया। बहरहाल उन्हें पाक तीर्थ यात्रियों से मिलने और उनकी सेवा-चाकरी करने छूट जरूर दे दी। जब हिंदूवादी संगठनों और विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी को लगा कि स्थानीय स्तर पर दबाव बनाने से कुछ नहीं होगा, उन्होंने ऊपर संपर्क किया। आडवाणी को फैक्स किए और गृह मंत्रालय से भी इस मामले में नरमी बरतने का आग्रह किया। इस पर भी जब दाल नहीं गली तो पाक जत्थे में एक प्रभावशाली व्यक्ति ने भी अपने अहमदाबाद निवासी समधी के जरिए आडवाणी से मदद करने का आग्रह किया। अहमदाबाद निवासी उस व्यापारी के आडवाणी से करीबी रिश्ते होने के कारण आखिरकार उन्हें मशक्कत करनी पड़ी। जानकारी के मुताबिक आडवाणी ने अपने स्तर पर केन्द्र व राज्य के अधिकारियों से संपर्क साधा और पाक तीर्थयात्रियों को बेकसूर बता कर उन्हें छोडऩे का आग्रह किया। भारी दबाव में आखिरकार सीआईडी मुख्यालय को उन्हें बिना कोई कार्यवाही किए आगे की यात्रा के लिए जाने की इजाजत देनी पड़ी।
उसी के अनुरूप सीआईडी पुलिस के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक गजानंद वर्मा को यह रिपोर्ट देनी पड़ी कि तीर्थ यात्रियों ने भूल से वीजा नियमों का उल्लंघन किया है और ट्रेवल एजेंसी संचालकों ने उन्हें इस बारे में जानकारी नहीं दी थी, मगर जिस तरह घटनाक्रम घूमा, उससे स्पष्ट है कि तीर्थयात्री जानते थे कि वे वीजा में उल्लेख न होने के बावजूद पुष्कर का भ्रमण कर रहे हैं। इसकी पुष्टि इस बात से होती है कि जत्थे में से एक यात्री ने यहां मीडिया को बताया था कि उनका पुष्कर यात्रा का कोई कार्यक्रम नहीं था, लेकिन जब उन्हें मुनाबाव में पता लगा कि पुष्कर भी एक प्रमुख तीर्थस्थल है तो मुनाबाव में भारतीय अधिकारियों ने कहा कि वीजा में पुष्कर का अलग से उल्लेख करने की जरूरत नहीं है, वे चाहें तो खाना खाने के बहाने से वहां कुछ देर घूम सकते हैं। उस यात्री ने ही दबाव बनाया था कि उन्हें मुनाबाव में भारतीय अधिकारियों ने गुमराह किया था, वरना वे पुष्कर में नहीं उतरते।
बहरहाल, सीआईडी के नरम रुख की चर्चा इस कारण उठी है क्योंकि पिछले उर्स मेले के दौरान चार पाक जायरीन भी इसी तरह बिना वीजा के पुष्कर गए और वहां ब्रह्मा मंदिर में प्रवेश करते हुए पकड़े गए तो उनके खिलाफ सीआईडी की ओर से ब्लैक लिस्टेड करने की सिफारिश की गई थी। तब सवाल ये भी उठाया गया था कि यदि भारत के हिंदू राष्ट्रीयता को छोड़ कर पाकिस्तान के हिंदुओं के प्रति सोफ्ट कॉर्नर रखते हैं तो यदि भारत के मुसलमान कभी पाकिस्तान के मुस्लिमों के प्रति सोफ्ट कॉर्नर रखते हैं तो उसमें ऐतराज क्यों किया जाता है? यानि कि धर्म निश्चित रूप से राष्ट्रों की सीमा से बड़ा है।
उससे भी बड़ी बात ये है कि एक ओर तो भाजपा बिना अनुमति के पाक मंत्री की सभा होने पर ऐतराज करती है, दूसरी ओर बिना बीजा के पुष्कर आए हिंदू पाकिस्तानियों के प्रति नरम रुख रखती है। सही क्या है और गलत क्या, यह पाठक ही तय कर सकते हैं।
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रविवार, अक्टूबर 02, 2011

भाजपा में मचा प्रधानमंत्री पद के लिए घमासान

घोटालों से घिरी कांग्रेस नीत सरकार के फिर सत्ता में नहीं आने की धारणा के बीच भाजपा में प्रधानमंत्री पद के लिए घमासान शुरू हो गया है। पार्टी को लग रहा है कि इस बार उसे उत्तर भारत के कांग्रेस प्रभावित क्षेत्रों में अच्छी सफलता हासिल होगी। भले ही वह अकेले अपने दम पर सरकार न बना पाए, मगर भाजपा नीत एनडीए तो सत्ता में आ ही जाएगा। जाहिर तौर पर भाजपा सबसे बड़ा विपक्षी दल होगा, लिहाजा उसी का नेता प्रधानमंत्री पद पर काबिज हो जाएगा।
हालांकि अब तक लोकसभा में विपक्ष की नेता श्रीमती सुषमा स्वराज और राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली के बीच ही इस पद को लेकर प्रतिस्पद्र्धा चल रही थी, मगर अब कुछ और दावेदार भी सामने आने लगे हैं। गुजरात में लगातार दो बार सरकार बनाने में कामयाब रहे नरेन्द्र मोदी ने गुजरात दंगों से जुड़े एक मामले में उच्चतम न्यायायल के निर्देश को अपनी जीत के रूप में प्रचारित कर अपनी छवि धोने की खातिर जनता के नाम खुले पत्र में शांति और सद्भावना के लिए तीन दिवसीय उपवास की घोषणा कर दी। उसी दौरान अमेरिकी कांग्रेस की रिसर्च रिपोर्ट में उनकी तारीफ करते हुए ऐसा माहौल बना दिया कि अगले आम चुनाव में प्रधानमंत्री पद का मुकाबला मोदी और राहुल गांधी के बीच हो सकता है। इससे मोदी का हौसला और बढ़ गया और 'शांति और साम्प्रदायिक सद्भावÓ के लिए तीन दिन के उपवास के माध्यम से राष्ट्रीय स्तर पर अपनी छवि बदल कर सर्वमान्य नेता बनने का प्रयास किया।
यूं तो मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार खुसफुसाहट में माना जाता रहा है, लेकिन सबसे बड़ी बाधा यही रही कि उनका चेहरा सर्वमान्य नहीं है। उनके नाम पर राजग के अन्य घटक सहमत होने की संभावना शून्य ही मानी जाती रही है। यह सही है कि मोदी का उपवास जिस प्रकार का था, वह हाल ही अन्ना हजारे की ओर से किए गए उपवास के तुरंत बाद हुआ, इस कारण लोगों ने उसकी तुलना जाहिर तौर पर उससे करते हुए उसे नाटकबाजी ही करार दिया। कांग्रेस ने तो मोदी के इस उपवास को फाइव स्टार उपवास की संज्ञा देते हुए कड़ी आलोचना करते हुए कहा कि इससे उन पर लगे सांप्रदायिकता के आरोप समाप्त नहीं हो जाएंगे। कांग्रेस नेता शंकर सिंह वाघेला ने समानांतर उपवास करके मोदी के लोकप्रियता को बढऩे से रोकने का प्रयास किया। मीडिया तक यही सवाल करता रहा कि इससे मोदी को चेहरा धुल पाएगा या नहीं। रही सही कसर मोदी ने मुस्लिम धार्मिक नेताओं की टोपी ग्रहण करने से इंकार करके पूरी कर दी। कुल मिला कर मोदी विकास के नाम पर जिस तरह का सर्वसम्मत चेहरा हासिल करना चाहते थे, वह पूरा नहीं हो पाया। उनके उपवास कार्यक्रम में पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल आसानी से आ गये और तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने भी मोदी के आग्रह पर अपने दो पार्टी नेताओं को वहां भेज दिया। शिवसेना और मनसे ने भी अपने नेताओं को भेजा, लेकिन जद-यू इससे दूर रहा। राजग संयोजक शरद यादव ने तो मोदी के उपवास का उपहास तक किया। ्रबावजूद इसके मोदी का यह कदम भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदारों पर भारी पड़ गया। वे एकाएक एक प्रबल दावेदार बन कर उभर आए। कम से कम हिंदू वोट बटोरने के मामले में तो उनका नाम सबसे ऊपर माना जाने लगा है। जाहिर तौर पर इससे सुषमा स्वराज व जेटली को तकलीफ हुई होगी। वे ही क्यों पिछले चुनाव में प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश किए गए आडवाणी तक को तकलीफ हुई। उन्होंने भी रथयात्रा की घोषणा कर रखी है। हालांकि उसमें मोदी के फच्चर डालने से आडवाणी को दिक्कत आ गई है। खुद पार्टी अध्यक्ष निनित गडकरी को ही यह सफाई देनी पड़ गई कि आडवाणी की यात्रा प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के रूप में नहीं है। आडवाणी के अतिरिक्त पूर्व पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह भी उत्तर प्रदेश में रथयात्रा के माध्यम से आगे निकलने की कोशिश कर रहे हैं। इन सबके अतिरिक्त सुनने में यह भी आ रहा है कि पार्टी अध्यक्ष गडकरी भी गुपचुप तैयारी कर रहे हैं। वे लोकसभा चुनाव नागपुर से लडऩा चाहते हैं और मौका पडऩे पर खुल कर दावा पेश कर देंगे।
कुल मिला कर भाजपा में प्रधानमंत्री पद के लिए घमासान शुरू हो गया है। हालांकि मोदी व आडवाणी का जनाधार अन्य नेताओं के मुकाबले अधिक है, लेकिन दोनों पर कट्टरपंथी माना जाता है, इस कारण राजग के घटक दल उनके नाम पर सहमति नहीं देंगे। सुषमा व जेटली अलबत्ता कुछ साफ सुथरे हैं, मगर उनकी ताकत कुछ खास नहीं। सुषमा स्वराज फिलहाल चुप हैं, क्योंकि वे जानती हैं कि अकेले भाजपा के दम पर तो सरकार बनेगी नहीं, और अन्य दलों का सहयोग लेना ही होगा। ऐसे में मोदी की तुलना में उनको पसंद किया जाएगा। रहा सवाल जेटली का तो वे भी गुटबाजी को आधार बना कर मौका पडऩे पर यकायक आगे आने का फिराक में हैं। इसी प्रकार जहां तक राजनाथ सिंह के नाम का सवाल है तो यह उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों पर निर्भर करता है। यदि भाजपा का प्रदर्शन अच्छा रहा तो निश्चित रूप से उनकी दावेदारी मजबूत होगी।
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गुरुवार, सितंबर 08, 2011

विवादों से घिरते जा रहे हैं स्वामी अग्निवेश



हाल ही अन्ना हजारे की टीम से अलग हुए स्वामी अग्निवेश एक बार फिर विवादों से घिरने लगे हैं। वस्तुस्थिति तो ये है कि उनकी विश्वसनीयता ही संदिग्ध हो गई है। अन्ना की टीम में रहने के दौरान भी कुछ लोग उनके बारे में अलग ही राय रखते थे। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर उनके बारे में अंटशंट टिप्पणियां आती रहती थीं, लेकिन जैसे ही वे अन्ना से अलग हुए हैं, उनके बारे में उनके बारे में सारी मर्यादाएं ताक पर रख कर टीका-टिप्पणियां होने लगी हैं। हालत ये है कि आजीवन सामाजिक क्षेत्र में काम करने का संकल्प लेने वाले अग्निवेश को अब कांगे्रस का एजेंट बन कर सियासी दावपेंच चलाने में मशगूल बताया जा रहा है।
असल में स्वामी अग्निवेश मूलत: अन्ना हजारे की टीम में शामिल नहीं थे। वैसे भी उनका अपना अलग व्यक्तित्व रहा है, इस कारण अन्ना हजारे के आभामंडल को पूरी तरह से स्वीकार किए जाने की कोई संभावना नहीं थी। कम से कम अरविंद केजरीवाल व किरण बेदी की तरह अन्ना हजारे का हर आदेश मानने को तत्पर रहने की तो उनसे उम्मीद भी नहीं की जा सकती थी। सामाजिक क्षेत्र में पहले से सक्रिय स्वामी अन्ना से जुड़े ही एक मध्यस्थ के रूप में थे। वे उनकी टीम का हिस्सा थे भी नहीं, मगर ऐसा मान लिया गया था कि वे उनकी टीम में शामिल हो गए हैं। और यही वजह रही कि उनसे भी वैसी ही उम्मीद की जा रही थी, जैसी कि केजरीवाल व किरण से की जा सकती है।
जहां तक मध्यस्थता का सवाल है, उसमें कोई बुराई नहीं है। मध्यस्थ का अर्थ ही ये है कि जो दो पक्षों में बीच-बचाव करे और वह दोनों ही पक्षों में विश्वनीय हो। तभी तो दोनों पक्ष उसके माध्यम से बात करने को राजी होते हैं। मगर समस्या तब उत्पन्न हुई, जब इस बात की जानकारी हुई कि वे पूरी तरह से कांग्रेस का साथ देते हुए मध्यस्थता कर रहे हैं तो अन्ना व उनकी टीम को ऐतराज होना स्वाभाविक था। जैसा कि आरोप है, वे तो अन्ना की टीम को ही निपटाने में जुट गए थे। जाहिर तौर पर उनकी यह हरकत अन्ना टीम सहित उनके सभी समर्थकों को नागवार गुजरी। बुद्धिजीवियों में मतभेद होना स्वाभाविक है, मगर यदि मनभेद की स्थिति आ जाए तो संबंध विच्छेद की नौबत ही आती है। कदाचित कुछ मुद्दों पर स्वामी अन्ना से सहमत न हों, मगर उन्हीं मुद्दों को लेकर अन्ना के खिलाफ काम करना कत्तई जायज नहीं ठहराया जा सकता। संतोष हेगड़े को ही लीजिए। उनके भी कुछ मतभेद थे, मगर उन्होंने पहले ही स्पष्ट कर दिया था। उनको लेकर कोई राजनीति नहीं कर रहे थे।
जैसी कि जानकारी है, अन्ना टीम को पता तो पहले ही लग गया था कि स्वामी क्या कारस्तानी कर रहे हैं, मगर आंदोलन के सिरे तक पहुंचने से पहले वह चुप रहने में ही भलाई समझ रही थी। जानती थी कि अगर मतभेद और विवाद पहले ही उभर आए तो परेशानी ज्यादा बढ़ जाएगी। और यही वजह रही कि जब अन्ना का आंदोलन एक मुकाम पर पहुंच गया और उसकी सफलता का जश्न मनाया जा रहा था तो दूसरी ओर इस बात की समीक्षा की जा रही थी कि कौन लंका ढ़हाने के लिए विभीषण की भूमिका अदा कर रहा है। उसमें सबसे पहले नाम आया स्वामी अग्निवेश का। इसी सिलसिले में उनका का एक कथित वीडियो यूट्यूब पर डाल दिया गया। जिससे यह साबित हो रहा था कि वे थे तो टीम अन्ना में, मगर कांग्रेस का एजेंट बन कर काम कर रहे थे। वीडियो में उन्हें कथित रूप से हजारे पक्ष को पागल हाथी की संज्ञा देते हुए दिखाया गया है। वीडियो में वह कपिल जी से यह भी कह रहे हैं कि सरकार को सख्ती दिखानी चाहिए ताकि कोई संसद पर दबाव नहीं बना सके।
जहां तक वीडियो की विषय वस्तु का प्रश्न है, स्वयं अग्निवेश भी स्वीकार कर रहे हैं कि वह गलत नहीं है, मगर उनकी सफाई है कि इस वीडियो में वे जिस कपिल से बात कर रहे हैं, वे केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल नहीं हैं, बल्कि हरिद्वार के प्रसिद्ध कपिल मुनि महाराज हैं। बस यहीं उनका झूठ सामने आ गया। मौजूदा इंस्टंट जर्नलिज्म के दौर में मीडिया कर्मी कपिल मुनि महाराज तक पहुंच गए। उन्होंने साफ कह दिया कि उन्होंने पिछले एक वर्ष से अग्निवेश से बात ही नहीं की। साथ ये भी बताया कि हरिद्वार में उनके अतिरिक्त कोई कपिल मुनि महाराज नहीं है। यानि कि यह स्पष्ट है कि स्वामी सरासर झूठ बोल रहे हैं। जाहिर तौर पर इस प्रकार की हरकत को धोखाधड़ी ही कहा जाएगा।
जहां तक अग्निवेश का अन्ना टीम छोडऩे का सवाल है, ऐसा वीडियो आने के बाद ऐसा होना ही था, मगर स्वयं अग्निवेश का कहना है कि वे केजरीवाल की शैली से नाइत्तफाकी रखते थे, इस कारण बाहर आना ही बेहतर समझा। इस बात में तनिक सच्चाई भी लगती है, क्यों कि अन्ना की टीम में दूसरे नंबर के लैफ्टिनेंट वे ही हैं। कुछ लोग तो यहां तक भी कहते हैं कि अन्ना की चाबी भी केजरवाल ही हैं। बहरहाल, दूसरी ओर केजरीवाल का कहना है कि स्वामी इस कारण नाराज हो कर चले गए क्योंकि आखिरी दौर की बातचीत में अन्ना की ओर से उन्हें प्रतिनिधिमंडल में शामिल नहीं किया गया। ऐसा प्रतीत होता है कि अन्ना को उनके बारे में पुख्ता जानकारी मिल चुकी थी, इसी कारण उनसे थोड़ी दूरी बनाने का प्रयास किया गया होगा।
यहां यह उल्लेखनीय है कि हजारे पहली बार अनशन पर बैठे तो स्वामी ही मध्यस्थ के रूप में आगे आए थे, मगर उनकी भूमिका पर संदेह होने के कारण ही उन्हें लोकपाल विधेयक का ड्राफ्ट बना कर सरकार से बात करने वाली टीम में शामिल नहीं किया गया, जब कि स्वामी ने बहुत कोशिश की कि उन्हें जरूर शामिल किया जाए। बस तभी से स्वामी समझ गए कि अब उनकी दाल नहीं गलने वाली है। इसी कारण जब हजारे ने 16 अगस्त से अनशन पर बैठने का फैसला किया तो अग्निवेश ने आलोचना की थी। अनशन शुरू होने से लेकर तिहाड़ जेल से बाहर आने तक स्वामी गायब रहे, मगर फिर नजदीक आने की कोशिश की तो अन्ना की टीम ने उनसे किनारा शुरू कर दिया।
खैर, यह पहला मौका नहीं कि उनकी ऐसी जलालत झेलनी पड़ी हो। इससे पूर्व आर्य समाज, जो कि उनके व्यक्तित्व का आधार रहा है, उस तक ने उनसे दूरी बना ली थी। ताजा मामले में भी आर्य समाज के प्रतिनिधियों ने उन्हें धोखेबाज बताते हुए सावधान रहने की सलाह दी है। माओवादियों से बातचीत के मामले में भी उनकी कड़ी आलोचना हो चुकी है। अब देखना यह है कि आगे वे क्या करते हैं? सरकार की किसी पेशकश को स्वीकार करते हैं या फिर से सामाजिक क्षेत्र में जमीन तलाशते हैं?

गुरुवार, अगस्त 04, 2011

क्या दूसरी आजादी की मुहिम कामयाब होगी?

यह एक संयोग ही है कि एक ओर हम देश की आजादी का जश्न मनाने जा रहे हैं और दूसरी सिविल सोसायटी की ओर से अन्ना हजारे लोकपाल बिल के लिए दूसरी आजादी की मुहिम को परवान पर चढ़ा रहे हैं। उनका कहना है कि हमने एक आजादी तो गोरे अंग्रेजों से हासिल कर ली, लेकिन उनकी जगह काले अंग्रेजों ने ले ली। अब उनसे भी आजादी हासिल करनी होगी, तभी हम सुख से जी सकेंगे। हालांकि उनका आजादी के बाद की सरकारों को काले अंग्रेजों की संज्ञा देना बेहद आपत्तिजनक है, यह अराजकता फैलाने जैसा प्रतीत होता है, मगर हम अगर उनकी भावना पर ही ध्यान करें तो उनका कहना ठीक ही है कि हम आजाद होते हुए भी पूरी आजादी हासिल नहीं कर पाए हैं। कहने भर को हम आजाद हैं, हमारी खुद की चुनी हुई सरकार है, लेकिन आजादी के बाद जिस तेजी से भ्रष्टाचार बढ़ा है, उससे अमीर और अमीर एवं गरीब और गरीब होता जा रहा है। भ्रष्टाचार के कारण आम आदमी पिसता जा रहा है। पूरे सिस्टम में भ्रष्टाचार व्याप्त है और इससे मुक्ति के लिए बड़े उपाय करने की जरूरत है। इसे वे दूसरी आजादी का नाम दे रहे हैं।
यह सच है कि जो काम फिरंगी करते थे, उससे भी कहींं आगे हमारा राजनीतिक तंत्र कर रहा है।  'फूट डालो, राज करोÓ की जगह 'फूट डालो और वोट पाओÓ की नीति चल रही है। राजनीतिक हित साधने के लिए सत्ताधीशों को दंगा-फसाद कराने से भी गुरेज नहीं है। सत्ता को भ्रष्टाचार की ऐसी दीमक लग चुकी है की पूरा देश इससे कराह रहा है। संविधान में जिस स्वतंत्रता और समानता की बात की जाती है, वह स्वतंत्रता और समानता दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती। पहले अंग्रेज देश को लूट रहे थे, आज वही काम नेता कर रहे हैं। आज ऐसे सत्ताधीशों की पूजा हो रही है, जिनका न कोई चरित्र है, न जिनमें नैतिकता है और न ईमानदारी। दरअसल, अब हम एक  ऐसी परंतत्रता में जी रहे हैं, जिसके खिलाफ अब दोबारा संघर्ष की जरूरत है। हमें अगर पूरी आजादी चाहिए, तो हमें एक और स्वाधीनता संग्राम के लिये तैयार हो जाना चाहिये। यह स्वाधीनता संग्राम जमाखोरों, कालाबाजारियों के खिलाफ होना चाहिए। यह संग्राम भ्रष्टाचारियों से लड़ा जाना चाहिए। यह संग्राम चोर, उचक्कों, लुटेरों और ठगों के खिलाफ छेड़ा जाना चाहिये। यह संग्राम देश को खोखला कर रहे सत्ता व स्वार्थलोलुप नेताओं के विरुद्ध लड़ा जाना चाहिए। यह संग्र्र्राम उन लोगों के खिलाफ किया जाना चाहिये, जो गरीबों, दलितों, मजलूमों और नारी का शोषण कर फल-फूल रहे हैं। अगर हम ऐसे लोगों को परास्त कर सके, अगर हम ऐसे लोगों से देश को मुक्त करा सके , तब हम कह सकेंगे कि हम वास्तविक रूप से आजाद हो चुके हैं।
अन्ना हजारे उसी आजादी की बात कर रहे हैं। मगर ऐसा प्रतीत होता है कि मौजूदा सरकार और उनके बीच चल रही रस्साकसी संघर्ष को बढ़ाएगी। केन्द्रीय मंत्रीमंडल में पारित लोकपाल बिल का जो मसौदा संसद में पेश करने को तैयार है, उससे अन्ना हजारे व उनकी टीम सहित अनेक बुद्धिजीवी सहमत नहीं हैं। सरकार नहीं चाहती कि सर्वोच्च पद पर बैठे प्रधानमंत्री व न्यायपालिका  इस बिल के माध्यम से लोकपाल के अधिकार क्षेत्र में आएं। इसके पीछे सरकार की चाहे जो मंशा हो, और चाहे जो तर्क दिए जा रहे हों, मगर वे आम जन को गले नहीं उतर रहे। दूसरी ओर हालांकि अन्ना हजारे की जिद देश के भले के लिए ही है, मगर उनके कुछ बिंदु ऐसे हैं, जिनके बारे में पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि उनको देश की तमाम जनता का पूरा समर्थन है। जो समर्थन दिखाई दे रहा है, वह भी पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि सोच-समझ कर दिया जा रहा है, अथवा देश हित के जज्बे के कारण दिया जा रहा है। उचित क्या है, अनुचित क्या है, इसका फैसला वस्तुत: अन्ना की टीम को नहीं दिया जा सकता। यदि ऐसा किया जाता है तो फिर पूरे लोकतांत्रिक सिस्टम का कोई मतलब ही नहीं रहेगा। आखिरकार हमारे यहां एक लोकतांत्रिक व्यवस्था है। मुहिम अपनी जगह है, उसकी महत्ता भी है, मगर निर्णय तो आखिरकार संसद को ही करना है। अन्ना हजारे को भी उसे मानना होगा, क्योंकि वे संसद से बड़े नहीं हैं।
बहरहाल, अन्ना की अनशन की जिद सरकार के लिए क्या संकट उत्पन्न करेगी, यह अभी पता नहीं लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत विपक्षी पार्टियों पर बड़ा दायित्व आ गया है। उन्हें चाहिए कि वे संविधान के दायरे में रचनात्मक रूप से उचित मुद्दों पर सरकार को झुकने को मजबूर करें। हालांकि सरकार की रणनीति यही है कि कारगर लोकपाल की स्थापना के लिए अन्ना हजारे जब अनशन पर बैठें तो उनके आंदोलन को संसद के खिलाफ चित्रित कर दिया जाए, लेकिन यही मौका है जब विपक्ष प्रस्तावित लोकपाल को अधिक से अधिक ताकतवर बनाने के लिए रचनात्मक सुझाव पेश करे और उसे मनवाए। कोई ऐसा रास्ता निकाला जाए, जिससे अन्ना की मुहिम भी कामयाब हो जाए और टकराव भी न हो।
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शनिवार, जुलाई 30, 2011

समलैंगिकता : कानूनी भले ही मिल गई, मगर सामाजिक मान्यता नहीं

यह सच है कि भारत में समलैंगिकता को एक अत्यंत निंदित, घृणित सामाजिक अपराध के रूप में देखा जाता रहा है, परंतु धरातल सच है कि  सामाजिक भय से भले ही छिप कर, लेकिन यह प्रवृत्ति बढ़ रही है। विशेष रूप से इस सिलसिले में आए कोर्ट के फैसले के दौरान पिछले दिनों जब इस पर बड़ी भारी बहस छिड़ी तो पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित लोग खुल कर सामने आ गए। यहां तक कि कई गैर-सरकारी संगठन और कथित उदार वादी इसके पक्ष में खड़े हो गए।
यहां उल्लेखनीय है कि समलैंगिकों के हित केलिए काम करने वाली संस्था नाज फाउंडेशन ने तो समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर करवाने के लिए कानूनी लड़ाई लड़ी और उसे कुछ सफलता भी मिली। पहले दिल्ली हाईकोर्ट ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के उन अंशों को अवैध करार दिया, जो दो वयस्कों के बीच पारस्परिक सहमति पर आधारित यौन संबंधों को अपराध की श्रेणी में रखते आए हैं। अदालत ने इसे भारतीय संविधान की धाराओं 21 (निजी स्वतंत्रता), 14 (समानता का अधिकार) और 15 (पक्षपात के विरुद्ध संरक्षण) का उल्लंघन माना। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने उस पर ठप्पा लगा दिया। हालांकि अब भी समलैंगिक विवाहों या विवाहेत्तर समलैंगिक संबंधों को विधिमान्यता पर निर्णय होना बाकी है। हालांकि यह सही है कि दंड संहिता की जिस धारा के अंशों को अदालत ने असंवैधानिक करार दिया है, उनमें पिछले डेढ़ सौ साल में डेढ़ सौ लोगों को भी सजा नहीं दी गई, फिर भी अदालती फैसले का गहरा सांकेतिक महत्व है। इससे सामाजिक भय के कारण छिप कर समलैंगिक संबंध कायम रखने वाले लोगों को उन्मुक्त होने का मौका दे दिया। इस मसले का सबसे घिनौना रूप ये रहा कि जैसे ही कोर्ट का ठप्पा लगा समलैंगिक बेशर्म हो कर सड़कों पर आ गए।
ऐसे में चिंता का विषय ये है कि क्या जिस कृत्य को सामाजिक मान्यता नहीं और जिसे समाज निंदनीय मानता है, उसे केवल कानून के दम पर इतना प्रचारित किया जाना चाहिए। दिल्ली में  गे, लेस्बियन, बाईसेक्सुअल एंड ट्रांसजेंडर (जीएलबीटी) लोगों ने रैली निकाली थी। उनमें से एक कार्यकर्ता के हाथ में ली हुई तख्ती पर लिखा था- हेट्रोसेक्सुअल रिलेशनशिप्स आर नॉट नैचुरल, दे आर ओन्ली कॉमन। यानी पुरुष-महिला संबंध प्राकृतिक नहीं हैं, अधिक प्रचलित भर है। एक अर्थ में देखा जाए तो यह महज नारा नहीं था, बल्कि सामाजिक प्रतिबंधों के कारण चुप बैठे लोगों का उस समाज के प्रति मौन प्रत्युत्तर था, जिसने उन्हें लंबे समय से उन्हें हाशिए पर डाला हुआ है। ऐसे में जाहिर तौर पर समाज आज समलैंगिक संबंधों को परोक्ष वैधता प्रदान करने वाले दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले से ठगा सा रह गया है।
मसले का एक पहलु ये है कि लैंगिक विभाजनों के संदर्भ में भारत में आए ये कुछ फैसले वास्तव में एक वैश्विक प्रक्रिया का हिस्सा हैं। पिछले एक दशक में अमेरिका, ब्रिटेन और अन्य विकसित देशों में महिला-पुरुष संबंधों के दायरे में फिट न होने वाले लोगों के प्रति नजरिए में बदलाव की प्रक्रिया चल रही है। चर्च के भारी विरोध के बावजूद अमेरिका के अनेक प्रांतों में समलैंगिक जोड़ों के विवाह को मान्यता दे दी गई है। लिंजी लोहान जैसे हॉलीवुड के कलाकारों, एल्टन जॉन जैसे संगीत के दिग्गजों और अन्य क्षेत्रों की समलैंगिक हस्तियों ने खुले आम अपने संबंधों को स्वीकार कर इस वर्ग के लोगों का खुल कर सामने आने को प्रेरित किया। विश्व के अनेक देशों में नियमित अंतराल पर गे परेड होने लगी हैं। कुछ देशों में तो हॉटेस्ट गे कपल और हॉटेस्ट लेस्बियन कपल जैसी प्रतियोगिताएं भी हो रही हैं। पश्चिमी दुनिया का यह संदेश धीरे-धीरे विकासमान देशों तक भी पहुंच रहा है। अब वह हमें चौंकाता नहीं। एक सौ पंद्रह देशों ने इन्हें मान्यता दे दी है और 80 देश अब भी इसके लिए तैयार नहीं हैं और सऊदी अरब, ईरान, यमन, सूडान तथा मॉरीतानिया में ऐसे संबंध बनाने वालों को फांसी पर चढ़ाने की व्यवस्था है।
सच्चाई तो ये है कि समलैंगिता तो दूर, भारत में अभी तक विरपरीत लिंगियों के प्रेम को ही पूर्ण मान्यता प्राप्त नहीं है। बहुत से इलाकों में प्रेमी-प्रेमिका को फांसी पर लटकाने जैसी वीभत्स घटनाएं होती रहती हैं। ऑनर किलिंग भी एक बड़ी समस्या के रूप में उभर कर आ रही है। ऐसे लोगों का समान लिंगी व्यक्तियों के प्रेम को स्वीकार करना कम से कम भारतीय समाज के लिए तो बेहद कठिन है। भले ही इसे कानूनी मान्यता मिल जाए और समलैंगिता में रुचि रखने वाले निडर हो जाएं, मगर समाज तो उन्हें हेय दृष्टि से ही देखेगा।
वस्तुत: समलैंगिता मूल रूप से मानसिक विकृति है। जब प्राकृतिक और सहज तरीकों से किसी के काम की पूर्ति नहीं होती तो वह उसके विकृत रूप की ओर उन्मुख हो जाता है। अत: यह समाज का ही दायित्व है कि वह इस समस्या के समाधान की दिशा में काम करे। समलैंगिकता को बीमारी व मानसिक विकृति मान कर उपचारात्मक कार्यवाही की जानी चाहिए।
-तेजवानी गिरधर, अजमेर
७७४२०६७०००

रविवार, जुलाई 17, 2011

मंत्रीमंडल विस्तार के अर्थ निकालना बहुत कठिन

प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की ओर से हाल ही किए गए मंत्रीमंडल में एक ओर जहां गुरुदास कामत के इस्तीफे की पेशकश और वीरप्पा मोइली व श्रीकांत जेला की नाराजगी से कांग्रेस के अंदर अंतरविरोध उभर आया है, वहीं विपक्षी दल इस कवायद को बेमानी साबित करने पर तुले हुए हैं। एक ओर जहां सिंह का यह कहना कि यह यूपीए-दो का अंतिम मंत्रिमंडलीय फेरबदल है, यह संकेत दे रहा है कि उनकी कुर्सी को फिलहाल कोई खतरा नहीं है, लेकिन दूसरी ओर विस्तार में सोनिया गांधी व राहुल गांधी के वफादारों को तवज्जो मिलने से यह भी साफ है सिंह आज भी कठपुतली से अधिक कुछ नहीं हैं। हालांकि इस विस्तार से इस तरह कि मीडियाई अटकलों से मुक्ति मिल गई है कि मनमोहन सिंह हटाए जा रहे हैं और राहुल गांधी प्रधानमंत्री बन रहे हैं, लेकिन इस पर यकीन करना कुछ कठिन ही प्रतीत हो रहा है। कुल मिला कर राजनीति के दिग्गज जानकार भी इसे समझने की कोशिश कर रहे हैं कि आखिर इस विस्तार के क्या-क्या ठीक अर्थ हैं।
यह सही है कि सिंह को हटाए जाने और राहुल की ताजपोशी की अटकलों पर विराम दे कर देश में राजनीतिक स्थिरता कायम करने की दिशा में यह विस्तार काफी महत्वपूर्ण है। चारों ओर से घिरी सरकार के लिए यह संदेश देना जरूरी हो गया था। मगर पीछे के एजेंडे को समझना कठिन हो गया है। वस्तुत: यूपीए-2 की परफोरमेंस कमजोर रहने और विपक्ष की ओर से एक बार फिर मनमोहन सिंह को कमजोर व कठपुतली प्रधानमंत्री करार दिए जाने के कारण यह तय माना जा रहा था कि राहुल के लिए रास्ता बनाने के लिए इस विस्तार में राहुल के काफी चहेतों को स्थान देने की कोशिश की जाएगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। दूसरी ओर मनमोहन सिंह की भी व्यक्तिगत इच्छा चली हो, ऐसा भी नहीं दिखाई दे रहा है। केवल सोनिया दरबार की चली है। इसका परिणाम ये है कि विस्तार को सिंह के निस्तेज और अप्रभावी फेरबल के रूप में आंका जा रहा है।
इससे कम से कम ये तो साफ है कि सिंह के निस्तेज चेहरे और नवगठित मंत्रीमंडल के भरोसे तो कांग्रेस के लिए आगामी चुनाव लडऩा काफी कठिन हो जाएगा। ऐसे में यह कयास अनपेक्षित नहीं होगा कि भले ही सिंह कुछ भी कहें, कांग्रेस राहुल के लिए कोई न कोइ रास्ता तो निकालेगी ही। यह भी साफ है कि ऐसा लुंजपुंज विस्तार गठबंधन की मजबूरी की वजह से नहीं, बल्कि कांग्रेस की आंतरिक संरचना के चलते हुआ है। मनमोहन सिंह कितने मजबूर हैं, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यूपीए गठबंधन के घटक तृणमूल कांग्रेस से रेल राज्यमंत्री मुकुल राय ने रेल दुर्घटना के स्थल का दौरा करने से इंकार कर दिया। यह बात अलग है कि उनसे अब यह विभाग ले लिया गया है। विभाग बंटवारे से नाराज राज्यमंत्री गुरुदास कामत का इस्तीफा और श्रीकांत जैना का शपथ ग्रहण समारोह में नहीं आना भी यही इशारा कर रहा है कि सिंह की लीडरशिप में दम नहीं है। वे विवादास्पद मंत्री जयराम रमेश को हटाने की बजाय उन्हें कैबिनेट मंत्री का दर्जा देने को मजबूर हुए, भले ही उन्हें पर्यावरण मंत्रालय से हटा दिया गया हो। अपनी कमजोरियों और असफलताओं को छिपाने के लिए जिस गठबंधन की मजबूरी का सिंह बार-बार हवाला देते रहे, वही मजबूरी अब भी कायम है।  तभी तो द्रमुक से संबंध बेहतर नहीं रह पाने के बावजूद उसके लिए दो सीटें खाली रखी हैं। गठबंधन की मजबूरी का एक और बड़ा सबूत ये कि तृणमूल अध्यक्ष ममता के पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बनने के बाद रेल मंत्रालय तृणमूल के दिनेश त्रिवेदी का दर्जा बढ़ाकर उन्हें कैबिनेट में जगह दी गई।
हालांकि मंत्रिमंडल को व्यापक कहा जा रहा है, लेकिन इसे अभी अधूरा ही माना जाएगा। इससे सिंह के इस बयान पर यकीन करना कठिन हो गया है कि यह आखिरी विस्तार है। मंत्रिमंडल के बहुचर्चित पुनर्गठन में मनमोहन सिंह ने 'चार बड़ों' वित्त, गृह, रक्षा और विदेश मामले को नहीं छुआ और दूरसंचार तथा नागर विमानन सहित चार मंत्रालयों का अतिरिक्त प्रभार भी यथावत रहा। मंत्रिमंडल का पुनर्गठन करने की कवायद अभी अधूरी इस कारण भी मानी गई है कि कपड़ा और जल संसाधन के अतिरिक्त प्रभार क्रमश: आनंद शर्मा और पीके बंसल को ही दिए गए हैं। शर्मा के पास वाणिज्य एवं उद्योग और बंसल के पास संसदीय मामले पहले से हैं। मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल दूरसंचार का अतिरिक्त प्रभार संभाले हुए हैं, जबकि प्रवासी भारतीय मामलों के मंत्री वयालार रवि के पास नागर विमानन विभाग का अतिरिक्त प्रभार है। डीएमके के किसी प्रतिनिधि को राजा और मारन के स्थान पर मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया गया है। कुछ विभागों को अतिरिक्त प्रभार के तौर पर रखा गया है ताकि अगर डीएमके अपने प्रतिनिधि भेजना चाहे तो उन्हें मंत्रिमंडल में मुनासिब जगह दी जा सके।
कुल मिला कर ताजा मंत्रिमंडल विस्तार से न तो सरकार कोई संदेश दे पाई है और न ही सिंह की छवि में कोई सुधार हो पाया है। अंतिम बताए जाने के बाद भी विस्तार अधूरा ही है। राहुल के बढ़ते कदमों पर कुछ रोक जरूर दिखाई देती है, मगर वे ठहर जाएंगे और कांग्रेस हाईकमान फिर आगामी चुनाव सिंह के नेतृत्व में ही लड़े जाने  का साहस दिखा पाएगा, इस पर सहसा यकीन नहीं होता। लब्बोलुआब  इस विस्तार के ठीक-ठीक अर्थ निकाल पाना कठिन ही है।
 -तेजवानी गिरधर
tejwanig@gmail.com