तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

शनिवार, सितंबर 28, 2024

भगवान आदमी है या औरत?

हालांकि ईश्वर को त्रिगुणातीत और निराकार माना जाता है। उसका कोई लिंग नहीं, अर्थात न तो वह पुरुष है और न ही स्त्री। बावजूद इसके प्रचलन में यही है कि जब भी हम उसके बारे चर्चा करते हैं, जिक्र करते हैं तो उसे पुरुषवाचक के रूप में ही संबोधित करते हैं। कहते हैं न कि ईश्वर भला करेगा, वह सब पर कृपा करता है? जिससे प्रतीत होता है कि वह पुरुष है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर वास्तविकता क्या है? सवाल इसलिए भी स्वाभाविक है क्यों कि हमारी सोच के अनुसार वह पुरुष या स्त्री, कोई एक तो होगा। इन दोनों से इतर जो भी तत्त्व है, उससे हम अनभिज्ञ हैं। सिर्फ कल्पना ही कर सकते हैं। आइये, इस विशय को विस्तार से समझेंः-

ईश्वर आदमी है या औरत, इस विषय को लेकर विशेष रूप से ईसाई समुदाय में काफी बहस छिड़ी हुई है। चर्च ऑफ इंग्लैंड का एक समूह दैनिक प्रार्थना के दौरान ईश्वर को पुरुषवाचक के साथ ही स्त्रीवाचक के रूप में भी संबोधित करने की मांग कर रहा है। उसकी मांग में दम भी है। लेकिन दिक्कत ये है कि जब भी हम ईश्वर का जिक्र करते हैं तो स्वाभाविक रूप से बिना सर्वनाम के उसके बारे में चर्चा करना कठिन है। यह भाषा की भी समस्या है। या तो हमें उसे पुरुष या स्त्री वाचक शब्द से पुकारना होगा। पुरुषवादी समाज में उसे स्त्री के रूप में संबोधित करना हमें स्वीकार्य नहीं, इसलिए हम उसे पुरुष मान कर ही संबोधित करते हैं।

वस्तुतरू ईश्वर एक सत्ता है, एक शक्ति केन्द्र है। वह स्वयंभू है। उसी सत्ता के अधीन संपूर्ण चराचर जगत संचालित हो रहा है। वह कोई व्यक्ति नहीं है। लेकिन चूंकि हम स्वयं व्यक्ति हैं, हमारी सीमित शक्ति है, इस कारण सर्वशक्तिमान की परिकल्पना करते समय हम उसे अपार क्षमताओं से युक्त एक महानतम व्यक्ति के रूप में देखते हैं। और चूंकि पूरी प्रकृति व समाज की व्यवस्था पुरुषवादी है, इस कारण उसके प्रति संबोधन में स्वाभाविक रूप से पुरुषवाचक शब्दों का चलन है। 

अनादि काल से पुरुष तत्व की प्रधानता रही है। सामाजिक व धार्मिक परंपराओं का ढ़ांचा बनाने वाले पुरुष हैं। यही वजह है कि लिंगातीत, निर्गुण, निराकार ईश्वर का जिक्र पुरुष वाचक शब्दों से करते हैं।

आखिर में एक बात पर गौर कीजिए। ईश्वर के बारे हम चाहे जितनी टीका-टिप्पणियां कर लें, लेकिन वह हमारी कल्पनाओं व अवधारणों से कहीं बहुत आगे है। उसका पार पाना कठिन ही नहीं, नामुमकिन है। वेद भी व्याख्या करते वक्त आखिर में नेति-नेति कह कर हाथ खड़े कर देते हैं।


शुक्रवार, सितंबर 27, 2024

बहुत रहस्य छुपे हुए हैं हमारी छाया में

हम जानते हैं कि प्रकाष के सामने आने वाली वस्तु के पीछे बनने वाली आकृति को छाया कहा जाता है। हम यही समझते हैं कि छाया का अपना कोई अलग अस्तित्व नहीं। उसका भला क्या महत्व हो सकता है? बात ठीक भी लगती है। मगर हमारी संस्कृति में इस पर भी बहुत काम हुआ है। आइये, विस्तार से समझने की कोषिष करते हैं इस विशय के बारे मेंः-

हमारे शरीर की छाया के बारे में बात करने से पहले हम चर्चा कर लेते हैं छाया के कारण से होने वाले सूर्य ग्रहण व चंद्र ग्रहण की। हम सब जानते हैं कि ये छाया की ही परिणाम स्वरूप घटित होते हैं। इस पर बड़े वैज्ञानिक प्रयोग हुए हैं और हो भी रहे हैं, लेकिन भारतीय संस्कृति में बहुत पहले ही खोज हो चुकी है कि इनका मानव सहित चराचर जगत पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। यही वजह है कि ज्योतिष विज्ञानी बताते हैं कि सूर्य ग्रहण व चंद्र ग्रहण के दौरान कौन कौन से काम नहीं करने चाहिए।

आपको यह भी जानकारी होगी कि किसी व्यक्ति में असामान्य लक्षण पाए जाने पर कहा जाता है कि उस पर किसी की छाया पड गई है। अमूमन यह बात किसी भूत-प्रेत आदि के संदर्भ में कही जाती है। परियों की छाया पड जाने के बारे में भी आपने सुना होगा। किसी व्यक्ति के विचारों या आचरण पर किसी व्यक्ति का प्रभाव दिखाई देने पर भी कहा जाता है कि उस पर उस अमुक व्यक्ति की छाया पड गई है। जिन लोगों ने तंत्र विद्या के बारे में पढ़ा अथवा सुना है, उनकी जानकारी में होगा कि तांत्रिकों ने भी लक्षित परिणाम पाने के लिए छाया का प्रयोग किया है।

खैर, अब चर्चा करते हैं हमारे शरीर की छाया की। इस बारे में मुझे जो जानकारी मिली है, वह आपसे साझा करना चाहता हूं। छाया के महत्व के बारे में शिव स्वरोदय में विस्तार से चर्चा की गई है। शिव स्वरोदय भारतीय प्राकृतिक विज्ञान है। इसमें भगवान शिव प्रकृति के रहस्यों के बारे में माता पार्वती को जानकारी देते हैं।

शिव स्वरोदय में बताया गया है कि एकान्त निर्जन स्थान में जाकर और सूर्य की ओर पीठ करके खड़ा हो जाएं या बैठ जाएं। फिर अपनी छाया के कंठ भाग को देखे और उस पर मन को थोड़ी देर तक केन्द्रित करें। इसके बाद आकाश की ओर देखते हुए ह्रीं परब्रह्मणे नमः मंत्र का 108 बार जप करना चाहिए अथवा तब तक जप करना चाहिए, जब तक आकाश में भगवान शिव की आकृति न दिखने लगे। छह मास तक इस प्रकार अपनी छाया की उपासना करने पर साधक को शुद्ध स्फटिक की भांति आलोक युक्त भगवान शिव की आकृति का दर्शन होता है। यदि वह रूप (भगवान शिव की आकृति) कृष्ण वर्ण का दिखाई पड़े, तो साधक को समझना चाहिए कि आने वाले छह माह में उसकी मृत्यु सुनिश्चित है। यदि वह आकृति पीले रंग की दिखाई पड़े, तो साधक को समझ लेना चाहिए कि वह निकट भविष्य में बीमार होने वाला है। लाल रंग की आकृति दिखने पर भयग्रस्तता, नीले रंग की दिखने पर उसे हानि, दुख तथा अभावग्रस्त होने का सामना करना पड़ता है। यदि आकृति बहुरंगी दिखाई पड़े, तो साधक पूर्णरूपेण सिद्ध हो जाता है।

यदि चरण, टांग, पेट और बाहें न दिखाई दें, तो साधक को समझना चाहिए कि निकट भविष्य में उसकी मृत्यु निश्चित है। यदि छाया में बायीं भुजा न दिखे, तो पत्नी और दाहिनी भुजा न दिखे, तो भाई या किसी घनिष्ट मित्र अथवा समबन्धी एवं स्वयं की मृत्यु निकट भविष्य में निश्चित है। यदि छाया का सिर न दिखाई पड़े, तो एक माह में, जंघा और कंधा न दिखाई पड़ें तो आठ दिन में और छाया न दिखाई पड़े, तो तुरन्त मृत्यु निश्चित है। यदि छाया की उंगलियां न दिखाई पड़ें, तो तुरन्त मृत्यु समझना चाहिए। कान, सिर, चेहरा, हाथ, पीठ या छाती का भाग न दिखाई पड़े, तो भी समझना चाहिए कि मृत्यु एकदम सन्निकट है। लेकिन यदि छाया का सिर न दिखे और दिग्भ्रम हो, तो उस व्यक्ति का जीवन केवल छरू माह समझना चाहिए।

शिव स्वरोदय में जिस प्रकार लिखा गया है, उससे यह तो समझ में आता ही है कि हमारे ऋषियों ने छाया का गहन अध्ययन किया है और उसका अपना विशेष महत्व है।


क्या मृतात्मा तक भोजन पहुंचता है?

हिंदू धर्म में मान्यता है कि मनुष्य की मृत्यु हो जाने पर पुनर्जन्म होता है। अर्थात एक शरीर त्यागने के बाद आत्मा दूसरा शरीर ग्रहण करती है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब हमारे किसी पूर्वज की आत्मा मत्योपरांत कहीं और, किसी और शरीर में होती है तो श्राद्ध के दौरान हम उन्हें पंडित के माध्यम से जो भोजन अर्पित करते हैं, वह उन तक कैसे पहुंच सकता है? 

आइये, इस विशय पर विस्तार से चर्चा करेंः-

यह सुस्पश्ट है कि मृतात्मा के स्वयं आ कर भोजन ग्रहण करने का तो सवाल ही नहीं उठता। बावजूद इसके हम जब श्राद्ध करते हैं तो पंडित को उतना ही सम्मान देते हैं, जितना पूर्वज को। वस्तुतः हम पंडित में हमारे पूर्वज की उपस्थिति मान कर ही व्यवहार करते हैं। भोजन अर्पित करने के विषय से हट कर बात करें तो भी इस सवाल का क्या उत्तर है कि उन्हें हम जो याद करते हैं अथवा श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं, वह उन तक कैसे पहुंचती होगी?

इससे जुड़ी एक बात और। क्या किसी ने अनुभव किया है कि पूर्व जन्म में वह क्या था, कहां था? वस्तुतरू प्रकृति की व्यवस्था ही ऐसी है कि वह पूर्व जन्म की सारी स्मृतियों को लॉक कर देती है। वह उचित भी है। अन्यथा सारा गड़बड़ हो जाएगा। स्मृति समाप्त हो जाने का स्पष्ट मतलब है कि हमारा पूर्व जन्म से कोई नाता नहीं रहता। तब सवाल ये उठता है कि क्या हमें भी हमारे पूर्वजन्म के परिजन की ओर से किए जा रहे श्राद्ध कर्म का अनुभव होता है? क्या किसी ने अनुभव किया है कि श्राद्ध पक्ष के दौरान किसी तिथी पर पूर्व जन्म के परिजन हमें भोजन करवा रहे हैं? क्या कभी हमने अनुभव किया है कि बिन भोजन किए ही हमारा पेट भर गया हो? यदि हमारा कोई श्राद्ध रहा है तो ऐसा होना चाहिए, मगर होता नहीं है। 

वाकई गुत्थी बहुत उलझी हुई है। अब चूंकि शास्त्र के अनुसार श्राद्ध पक्ष माना जाता है, श्राद्ध कर्म किया जाता है, तो जरूर इस व्यवस्था के पीछे कोई तो विज्ञान होगा ही। हजारों से साल ये यह परंपरा यूं ही तो नहीं चली आ रही। इस बारे में अनेक पंडितों व विद्वानों से चर्चा की, मगर आज तक कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिल पाया है। हद से हद ये उत्तर आया कि भोजन पूर्वज तक पहुंचता हो या नहीं, मगर श्राद्ध के बहाने हम अपने पूर्वजों को याद करने, उनके प्रति सम्मान प्रकट करने 

और उनकी बताई गई अच्छी बातों का अनुसरण करने के लिए पखवाड़ा मनाते हैं।

इस बारे प्रसिद्ध मायथोलॉजिस्ट श्री देवदत्त पटनायक का अध्ययन बताता है कि मृत्यु के बाद शरीर का एक हिस्सा, जो उसके ऋणों की याद है, जीवित रहता है। वह हिस्सा वैतरणी पार कर यमलोक में प्रवेश करता है। वहां पितर के रूप में रहता है। यदि वह वैतरणी पार नहीं कर पाता तो प्रेत बन कर धरती लोक पर रहता है और तब तक परेशान करता है, जब तक कि उसका वैतरणी पार करने का अनुष्ठान पूरा नहीं किया जाता। वे बताते हैं कि हर पूर्वज के लिए हर साल उसकी पुण्यतिथि पर अनुष्ठान करना संभव नहीं है, इसलिए श्राद्ध पक्ष का निर्धारण किया गया। इस काल में मृतक जीवित लोगों के सबसे करीब होता है। उन्होंने एक बहुत दिलचस्प बात भी कही है। वह ये कि हम पूर्वजों को याद तो करते है, सम्मान भी देते हैं, मगर साथ ही डरते भी हैं, उन्हें बहुत सुखद भी अनुभव नहीं करने देते, अन्यथा वे फिर प्रेत बन कर धरती लोग पर आ सकते हैं। हालांकि उन्होंने इसका खुलासा नहीं किया है कि उन्हें कैसे सुखद अनुभव नहीं होने देते, मगर लगता ऐसा है कि श्राद्ध के दौरान सामान्य दाल-चावल का भोजन इसीलिए दिया जाता है। विभिन्न स्वादिष्ट व्यंजन नहीं खिलाते कि कहीं वह फिर आकर्षित हो कर पितर लोक छोड़ कर न आ जाएं। 

कई बार मुझे ख्याल आया है कि अगर हम अपने पूर्वजों का बहुत सम्मान करते हैं, उन्हें सुख पहुंचाना चाहते हैं तो पंडित को वह भोजन करवाना चाहिए, जो कि हमारे पूर्वज को अपने जीवन काल में प्रिय रहा हो। यथा हमारे किसी पूर्वज को शराब, बीड़ी, मांसाहार आदि पसंद रहा हो तो, हमें वहीं अर्पित करना चाहिए। मगर ऐसा नहीं करके सादा भोजन परोसते हैं।  मेरी इस शंका का समाधान श्री पटनायक की जानकारी से होता है, अगर उनका अध्ययन सही है तो।


मंगलवार, सितंबर 24, 2024

आदमी स्त्रैण तो किन्नर, औरत में पौरुष तो झांसी की रानी?

यह कैसी उलटबांसी है कि आदमी अगर तनिक स्त्रियोचित व्यवहार करे तो उसे किन्नर करार दे कर हेय दृष्टि से देखा जाता है, उपहास किया जाता है, खिल्ली उडाई जाती है, जबकि कोई स्त्री यदि पुरुषोचित व्यवहार या काम करे तो उस पर गर्व करते हैं, उसे झांसी की रानी की उपाधि दे दी जाती है। आखिर क्यों? आइये, इस विषय में गहरी डुबकी लगाने से पहले कुछ मौलिक तथ्यों पर विचार करते हैंः-

स्तुतः यह प्रकृति आदमी व औरत दोनों के संयुक्त प्रयास से चलती है। दोनो का संयुक्त अस्तित्व है प्रकृति। दोनों की अपनी-अपनी भूमिका है। न तो आदमी अपेक्षाकृत बेहतर है और न ही औरत तुलनात्मक रूप से कमतर। हर व्यक्ति में नर तत्व है और नारी तत्व भी। बस फर्क इतना है कि जिसमें नर तत्व की अधिकता है, वह नर कहलाता है और जिसमें नारी तत्व अधिक है, वह नारी कही जाती है। और दोनों तत्वों की समानता हो जाती है तो वह ईश्वर की अवस्था कहलाती है, यथा अर्धनारीश्वर। इससे स्पष्ट होता है कि नर व नारी दोनों अपनी-अपनी जगह महत्वपूर्ण हैं। दोनों भिन्न हैं। कोई किसी से कम नहीं। दोनों की कोई बराबरी भी नहीं। बावजूद इसके समाज की संरचना में आरंभ से पुरुष की प्रधानता रही। यही वजह है कि धार्मिक, सामाजिक व पारिवारिक रूप से पुरुष अग्रणी रहा।

आप देखिए, बेशक, नाम स्मरण करते हुए राधे-श्याम, सीता-राम, लक्ष्मी-नारायण कहा जाता है, अर्थात पहले स्त्री का नाम लिया जाता है, स्त्री तत्त्व को विशेष सम्मान दर्शाया जाता है, मगर सच्चाई ये है कि प्रधानता पुरुष की ही रही है। सारे भगवान पुरुष हैं। चित्रों में भगवान विष्णु शेष नाग पर लेटे होते हैं और माता लक्ष्मी उनके चरणों बैठी दिखाई जाती है। अन्य भगवानों व देवी-देवताओं में भी पुरुष की ही प्रधानता है। बेशक, इतिहास में विदुषी महिलाओं के विशेष सम्मान के उदाहरण हैं, सारे आश्रमों के प्रमुख ऋषि रहे हैं। लगभग सारे मठाधीश पुरुष ही रहे हैं। सभी शंकराचार्य पुरुष हैं।  अधिसंख्य मंदिरों में पुजारी पुरुष हैं। तीर्थराज पुष्कर में पवित्र सरोवर की पूजा-अर्चना पुरुष पुरोहित ही करवाते हैं। हालत यहां तक है कि आज भी ऐसे मंदिर हैं, जहां महिलाओं का प्रवेश वर्जित है और कोर्ट को दखल देना पड़ रहा है।

इसी प्रकार रामायण व श्रीमद्भागवत की कथा करने वाली चंद महिलाएं ही व्यास पीठ पर बैठती हैं, अधिकतर कथावाचक पुरुष ही हैं। आज भी धर्म के प्रति कट्टर मठाधीश किसी महिला के व्यास पीठ पर बैठने पर आपत्ति करते हैं। उनका तर्क ये है कि महिला चूंकि माहवारी के दौरान चार दिन अपवित्र होती है, इस कारण वह अनवरत कथा नहीं कर सकती। आप देख सकते हैं कि यूट्यूब पर ऐसे वीडियो भरे पड़े हैं, जिनमें साध्वी चित्रलेखा व  साध्वी जयाकिशोरी जी के व्यास पीठ पर बैठ कर कथा करने को शास्त्र विरुद्ध करार दिया जा रहा है।

जैन धर्म की बात करें। जैन समाज के सभी तीर्थंकर पुरुष हैं। जैन मुनियों के नाम के आगे 108 व जैन साध्वियों के नाम के आगे 105 लिखा जाता है। उसके पीछे बाकायदा तर्क दिया जाता है जैन साध्वियों में जैन मुनियों की तुलना में तीन गुण कम हैं।

इस्लाम की बात करें तो पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब पुरुष है। सारे मौलवी पुरुष हैं। मस्जिदों में नमाज की इमामत पुरुष करते हैं। यहां तक कि सार्वजिनक नमाज के दौरान महिलाओं की सफें पुरुषों से अलग लगती हैं। अजमेर की विश्व प्रसिद्ध दरगाह ख्वाजा साहब की दरगाह में खिदमत का काम पुरुष खादिम करते हैं। दरगाह स्थित महफिलखाने में महिलाएं पुरुषों के साथ नहीं बैठ सकतीं। उनके लिए अलग से व्यवस्था है। जानकारी तो ये भी है कि दरगाह परिसर में महिला कव्वालों को कव्वाली करने की इजाजत नहीं है। इसी प्रकार इसाई धर्म में भी ईश्वर के दूत ईसा मसीह पुरुष हैं। गिरिजाघरों में प्रार्थना फादर करवाते हैं।

सामाजिक व्यवस्था में भी पुरुषों की प्रधानता है। अधिसंख्य समाज प्रमुख पुरुष ही होते हैं। पारिवारिक इकाई का प्रमुख पुरुष है। वंश परंपरा पुरुष से ही रेखांकित होती है। स्त्रियां ब्याह कर पुरुष के घर जाती हैं, न कि पुरुष स्त्री के घर। यह तो ठीक है कि पैदा होने के साथ नारी को अपनी नियति पता होती है, इस कारण वह उसे चुपचाप स्वीकार कर लेती है, मगर अऋारह-बीस साल पिता के घर पलने के बाद जब उसे अपना परिवार छोड़ कर पति के घर जाना होता है तो उस पर क्या बीतती होगी, इसकी अनुभूति सिर्फ उसे ही है?

हमारे यहां तो पत्नी से अपेक्षा की जाती है कि वह पति को भगवान माने। पति की लंबी आयु के लिए पत्नियां करवा चौथ का व्रत करती हैं, जबकि पुरुष ऐसा कोई व्रत नहीं करते। मैने नारी स्वातंर्त्य की समर्थक प्रगतिशील महिलाओं तक को करवा चौथ का व्रत करते देखा है। इस तरह की धारणा चलन में हैं कि महिला यदि कोई पुण्य करे तो उसका आधा फल पुरुष को मिलता है, जबकि पुरुष को उसके पुण्य का पूरा फल मिलता है। स्त्री से अपेक्षा की जाती है कि वह पतिव्रता हो, जबकि पुरुष अनेक विवाह करते हैं। पत्नी की मृत्यु पर पति को दूसरी शादी की छूट है, जबकि लंबे समय तक यह परंपरा रही कि पति की मृत्यु पर पत्नी दूसरा विवाह नहीं करती थी। हालांकि विधवा व परित्यक्ता के लिए विशेष कानूनी प्रावधान किए गए हैं और अब विधवा विवाह होने लगे हैं, बावजूद इसके अधिसंख्य विधवाएं व परित्यक्ताएं दूसरा विवाह नहीं करतीं। धीरे-धीरे महिलाओं में जागृति आई है तो अब उन्हें भी बराबरी का हक देने की कोशिशें की जाती है, फिर भी सामाजिक ढ़ांचा आज भी पुरुष प्रधान है। आधुनिक युग में पुरुषों की प्रधानता की भले ही आलोचना की जाए, मगर सच्चाई ये है कि अभी भी 

महिलाएं पुरुष के आधिपत्य से मुक्त होने का संपूर्ण साहस नहीं जुटा पाई हैं। हालांकि लोकतांत्रक व्यवस्था में महिलाओं को भी आरक्षण दिया जाने लगा है, इस कारण राजनीति में महिलाएं पदों पर काबिज होती जा रही हैं। बड़े पदों की बात अलग है, मगर गांव-कस्बों में जा कर देखिए, आज भी महिला सरपंच का काम पति देख रहे हैं, महिलाए पार्षद पति की देखरेख में ही काम कर रही हैं। यानि कि लक्ष्य हासिल करने में अभी और वक्त लगेगा।

वस्तुतरू पुरुष चूंकि अधिक बलशाली, बहादुर, साहसी व कर्मठ माना जाता है, उसके इसी गुण के कारण सेनाओं, अर्द्धसैनिक बलों व पुलिस में पुरुषों का वर्चस्व है। यह एक सुखद बात है कि अब महिलाओं की विंग अलग से बनाई गई हैं।

ऐसा माना जाता है कि महिलाएं अपेक्षाकृत कमजोर होती हैं। अकेले इसी वजह से पुरुष व महिला मजदूर की मजदूरी में अंतर है। हालांकि पुरुष नर्तक भी हैं, मगर नर्तकियों की बहुतायत क्यों है? अब तो मुजरे होना बंद हो गए, मगर फिल्मों में देखिए किस तरह महिला मुजरा करती है और पुरुष वर्ग उसका आनंद उठाते हैं। साफ झलकता है कि महिला की स्थिति क्या बना कर रखी गई है?

कुल मिला कर पुरुष की प्रधानता के कारण ही पुरुष से यह अपेक्षा की जाती है कि वह पुरुषोचित व्यवहार करे। अगर कोई स्त्रियोचित व्यवहार अथवा कार्य करता है या उसमें स्त्रैणता पाई जाती है तो उसे हेय दृष्टि से देखा जाता है। किन्नर तक की उपमा दी जाती है। इसके विपरीत अगर कोई महिला पुरुषोचित व्यवहार या काम करती है, उच्च पदों पर पहुंचती है तो उसे बड़े गर्व की दृष्टि से देखा जाता है। झांसी की रानी की उपमा दी जाती है। समय के बदलाव के साथ नारी स्वांतर्त्य आंदोलनों के मुखर होने के कारण महिलाएं अब बराबरी करने की स्थिति में आने लगी हैं, यह एक सुखद संकेत हैं। चूंकि आरंभ से नर प्रधान है, नारी दमन की शिकार हुई है, इस कारण आज नारी उसके बराबर होने की हक मांग रही है। उसे मिलने भी लगा है।


सोमवार, सितंबर 16, 2024

स्वर विज्ञान के उपयोगी टिप्स

भारतीय सनातन संस्कृति में शिव स्वरोदय एक ऐसा विज्ञान है, जिसका प्रयोग हर आम-ओ-खास कर सकता है, मगर दुःखद पहलु ये है कि इसके बारे में चंद लोगों को ही जानकारी है। हालांकि विस्तार में जाने पर यह बहुत गूढ़ भी है, पूरे ब्रह्मांड का रहस्य इसमें छिपा है, जिसे योगाभ्यास करने वाला ही जान-समझ सकता है, लेकिन इसमें वर्णित अनेक तथ्य ऐसे हैं, जो न केवल आसानी से समझ में आते हैं, अपितु उनका प्रयोग भी बहुत सरल है। शास्त्रों के अनुसार यह विज्ञान मूलतः भगवान शिव व शक्ति के बीच का संवाद है, जिसमें जन कल्याण के लिए भगवान इसकी विस्तार से व्याख्या करते हैं। इस वीडियो में हम आम आदमी के हितार्थ कुछ टिप्स पर चर्चा करेंगे, ताकि वह उनका लाभ ले सके।

षिव स्वरोदय के टिप्स का वर्णन से पहले हम जरा इस विज्ञान के बारे में मोटी-मोटी जानकारी हासिल कर लें। यह तो आपके अनुभव में है ही हम अपनी नासिका छिद्रों से सांस लेते हैं और छोड़ते हैं। सांस ही प्राण वायु है। सांस हर पल चल रही है, खाते, पीते, चलते-फिरते, कुछ भी करते। स्वतः चल रही है। हम सोच भी नहीं सकते कि इसके पीछे प्रकृति का एक अनूठा विज्ञान काम कर रहा है। जरा गौर करेंगे तो पाएंगे कि कभी तो हमारे नाक के बायें छिद्र से सांस आती-जाती है तो कभी दायें छिद्र से। हमें उसके महत्व का कोई भान नहीं, मगर इसके पीछे एक गहरा रहस्य छिपा है।

बायें छिद्र से चलने वाली सांस को चंद्र स्वर कहते हैं और दायें छिद्र से चलने वाली सांस को सूर्य स्वर करते हैं। चंद्र स्वर स्त्री प्रधान है एवं इसका रंग गोरा है, यह शक्ति अर्थात पार्वती का रूप है। सूर्य स्वर पुरुष प्रधान है। इसका रंग काला है। यह शिव स्वरूप है। इड़ा नाड़ी शरीर के बाईं तरफ स्थित है तथा पिंगला नाड़ी दाहिनी तरफ अर्थात इड़ा नाड़ी में चंद्र स्वर स्थित रहता है और पिंगला नाड़ी में सूर्य स्वर। सुषुम्ना मध्य में स्थित है, अतः दोनों ओर से श्वास निकले तो वह सुषम्ना स्वर कहलाएगा। मध्यमा स्वर क्रूर है। यह चलने पर हर काम के विघ्न आते हैं।

चंद्र स्वर में किए जाने वाले कार्य इस प्रकार हैंः-

विवाह, दान, मंदिर, जलाशय निर्माण, नया वस्त्र धारण करना, घर बनाना, आभूषण खरीदना, शांति अनुष्ठान कर्म, व्यापार, बीज बोना, दूर प्रदेशों की यात्रा, विद्यारंभ, धर्म, यज्ञ, दीक्षा, मंत्र, योग क्रिया आदि कार्य आदि चंद्र स्वर के चलते करने चाहिए। इसी प्रकार पानी, चाय, काफी आदि पेय पदार्थ पीने, मूत्र त्याग करने आदि में बांया स्वर होना चाहिए।

सूर्य स्वर में किए जाने वाले कार्य इस प्रकार हैंः-

उत्तेजना, आवेश और जोश के साथ करने पर जो कार्य ठीक होते हैं, उनमें सूर्य स्वर उत्तम कहा जाता है। अर्थात यदि हम ऐसे कार्य के लिए जा रहे हैं, जिसमें वाद-विवाद होना है, तो सूर्य स्वर जीत दिलवाता है। सूर्य स्वर में स्नान, भोजन, शौच, औषधि सेवन, विद्या, संगीत अभ्यास आदि कार्य सफल होते हैं। घुड़सवारी अथवा वाहन पर चढ़ते समय सूर्य स्वर बेहतर होता है।

सुषम्ना स्वर का महत्व यह हैः-

सुषुम्ना स्वर साक्षात् काल स्वरूप है। इसमें ध्यान, समाधि, प्रभु स्मरण भजन-कीर्तन आदि सार्थक होते हैं। सुषुम्ना स्वर में अच्छी बात का चिन्तन न करें अन्यथा वह बिगड़ जाएगी। इस समय यात्रा न करें, अन्यथा अनिष्ट होगा। इस समय सिर्फ भगवान का चिन्तन ही करें। सुषुम्ना नाड़ी मोक्ष प्राप्त करवाती है।

अब कुछ उपयोगी टिप्स जानियेः-

सुबह उठते वक्त जो भी स्वर चल रहा हो, उसी तरफ का पैर जमीन पर पहले रखें। इसके अतिरिक्त उसी तरफ के हाथ के दर्शन करें व हाथ को चूमें। उसके बाद दोनों हाथों को मिला कर दर्शन करें। स्नान के बाद जब भी कपड़े पहनें, तो जिस तरफ स्वर चल रहा हो, उस तरफ से कपड़े पहनना शुरू करें।

जब शरीर में अत्यधिक गर्मी महसूस करें, तब दाहिनी करवट लेट लें और बायां स्वर शुरू कर दें। इससे तत्काल शरीर ठंडक अनुभव करेगा। जब शरीर ज्यादा शीतलता महसूस करे तब बांयी करवट लेट लें, इससे दाहिना स्वर शुरू हो जाएगा और शरीर जल्दी गर्मी महसूस करेगा।

यदि किसी क्रोधी पुरुष के पास जाना है तो जो स्वर नहीं चल रहा है, उस पैर को आगे बढ़ा कर प्रस्थान करना चाहिए तथा अचलित स्वर की ओर उस पुरुष या महिला को लेकर बातचीत करनी चाहिए। ऐसा करने से क्रोधी व्यक्ति को शांत हो जाएगा। गुरु, मित्र, अधिकारी, राजा, मंत्री आदि से वाम स्वर से ही वार्ता करनी चाहिए।

सवाल ये उठता है कि यदि भोजन का समय हो गया हो और चंद्र स्वर चल रहा हो तो क्या करें? ऐसे में स्वर को बदलना ही होगा। यदि सूर्य स्वर चल रहा हो और चंद्र स्वर चलाना है तो दाहिनी करवट लेट जाना चाहिए। इसी प्रकार इसका विलोम भी किया जा सकता है। अनुलोम-विलोम के अतिरिक्त चल रहे स्वर नासिका को कुछ देर बंद करके भी स्वर बदल जा सकता है। जिस नथुने से श्वास नहीं आ रही हो, उससे दूसरे नथुने को दबाकर पहले नथुने से श्वास निकालें। इस तरह कुछ ही देर में स्वर परिवर्तित हो जाएगा। घी खाने से वाम स्वर और शहद खाने से दक्षिण स्वर चलना प्रारंभ हो जाता है।

इस विज्ञान में यात्रा के लिए कुछ उपयोगी जानकारी दी गई है। पूर्व तथा उत्तर दिशा में चन्द्र स्वर, पश्चिम तथा दक्षिण दिशा में सूर्य रहता है। दाहिना स्वर चलने पर पश्चिम या दक्षिण दिशा की यात्रा नहीं करनी चाहिए। बायें स्वर के चलते समय पूर्व तथा उत्तर दिशा की यात्रा नहीं करनी चाहिए। इससे यात्री को शत्रु का भय होता है और कभी-कभी तो यात्री घर वापस भी नहीं आता है। बायां या दाहिना कोई भी स्वर चल रहा हो और साथ ही सुषुम्ना भी चल रही हो तो मुख्य स्वर की तरफ वाला पांव आगे बढ़ा कर यात्रा करनी चाहिए। ऐसा करने से सफलता प्राप्त होती है।

आयु व मृत्यु के बारे में यह विज्ञान में विस्तार से जानकारी देता है। यदि किसी व्यक्ति का बायां स्वर लगातार चले और दाहिना स्वर बिलकुल न चले, तो समझना चाहिए कि उसकी मृत्यु एक माह में होगी। जिस व्यक्ति की आयु समाप्त हो गयी है उसे अरुन्धती, धु्रव, विष्णु के तीन चरण और मातृमंडल नहीं दिखायी पड़ते। जिह्वा को अरुन्धती, नाक के अग्र भाग को धु्रव, दोनों भौहें और उनके मध्य भाग को विष्णु के तीन चरण तथा आंखों के तारों को मातृमंडल कहते हैं। जिस व्यक्ति को अपनी भौहें न दिखें, उसकी मृत्यु नौ दिन में, सामान्य ध्वनि कानों से न सुनाई पड़े तो सात दिन में, आंखों का तारा न दिखे तो पांच दिन में, नासिका का अग्रभाग न दिखे तो तीन दिन में और जिह्वा न दिखे तो एक दिन में मृत्यु होती है। आंखों के कोनों को दबाने पर चमकते तेज बिन्दु यदि न दिखें, तो समझना चाहिए कि उस व्यक्ति की मृत्यु दस दिन में होगी।

ऐसा बताया गया है कि जो लोग चन्द्र नाड़ी से सांस अन्दर लेकर सूर्य नाड़ी से रेचन करते हैं और फिर सूर्य नाड़ी से सांस अन्दर लेकर चन्द्र नाड़ी से उसका रेचन करते हैं, वे दीर्घजीवी होते हैं। इसे ही अनुलोम-विलोम या नाड़ी-शोधक प्राणायाम कहा गया है।

ज्योतिषी भी इस विज्ञान का उपयोग करते हैं। प्रश्नकर्ता यदि अप्रवाहित स्वर की ओर से आकर प्रवाहित स्वर की ओर बैठ जाए और किसी रोग के सम्बन्ध में प्रश्न करे, तो मृत्यु शैया पर पड़ा व्यक्ति भी ठीक हो जाएगा। प्रश्नकर्ता सक्रिय स्वर की ओर से किसी रोग के विषय में प्रश्न करे, तो रोग किसी भी स्टेज पर क्यों न हो ठीक हो जाएगा। रोगी के बारे जानकारी चाहने वाला दूत प्रश्न करे तथा उस समय सूर्य स्वर प्रवाहित हो रहा हो, तो समझना चाहिए कि रोगी स्वस्थ हो जाएगा। परन्तु यदि उस समय चन्द्र स्वर प्रवाहित हो, तो समझना चाहिए कि रोगी अभी और बीमार रहेगा।

वशीकरण में भी इस विज्ञान का उपयोग किया जाता है। चूंकि हमारी व्यवस्था पुरुष प्रधान है, इस कारण इसमें स्त्री को वश में करने की विधि बताई गई है। पुरुष यदि स्त्री के प्रवाहित स्वर को अपने प्रवाहित स्वर के द्वारा ग्रहण करे और पुनरू उसे स्त्री के सक्रिय स्वर में दे, तो वह स्त्री सदा उसके वश में रहती है। रजस्वला होने के पांचवें दिन यदि स्त्री का चन्द्र स्वर प्रवाहित हो और पुरुष का सूर्य स्वर प्रवाहित हो, तो समागम करने से पुत्र उत्पन्न होता है।


शुक्रवार, सितंबर 13, 2024

सोये हुए व्यक्ति के पैर क्यों नहीं छुए जाते?

हमारे यहां मान्यता है कि सोये हुए व्यक्ति के चरण स्पर्श नहीं किए जाने चाहिए। अगर इस मान्यता से अनभिज्ञ कोई व्यक्ति सोये हुए व्यक्ति के चरण स्पर्श करता है तो उसे ऐसा करने से रोका जाता है। मान्यता तो यह तक है कि लेटे हुए व्यक्ति के भी चरण स्पर्श नहीं किए जाते। अगर कोई चरण स्पर्श करना चाहता है तो लेटा हुआ व्यक्ति बैठ जाता है। सवाल ये है कि आखिर इस मान्यता के पीछे क्या साइंस है, क्या कारण है?

अव्वल तो अगर सोये हुए किसी व्यक्ति के चरण स्पर्श करेंगे तो उसका प्रयोजन पूरा ही नहीं होगा। आप आशीर्वाद या सम्मान की खातिर किसी के चरण स्पर्श करते हैं, मगर यदि वह सोया हुआ है तो उसे पता ही नहीं लगेगा कि आप उसके चरण स्पर्श कर रहे हैं। अर्थात वह आशीर्वाद देने की स्थिति में ही नहीं है और न ही उसको ये पता लगेगा कि आप उसके प्रति सम्मान का इजहार कर रहे हैं।

वैसे इसका मूल कारण दूसरा बताया जाता है। हालांकि सोते समय सांस चल रही होती है और आदमी जिंदा होता है, मगर सोना भी एक प्रकार की मृत्यु मानी गई है। अगर कोई आदमी गहरी नींद में हो तो उसकी ज्ञानेन्द्रियां-कर्मेन्द्रियां भी सुप्त हो जाती हैं। चूंकि उसकी आंखें बंद हैं, इस कारण दिखाई नहीं देता है, उसका मुख बंद है, इस कारण उसका स्वर यंत्र व जीभ की स्वाद तंत्रिका सुप्त होती है, उसे सुनाई भी नहीं देता। स्पर्श का भी अनुभव नहीं होता। यानि कि वह लगभग मृतक समान है। ज्ञातव्य है कि हमारे यहां मृतक के शव के चरण स्पर्श करने कर चलन है। जिस मान्यता की हम चर्चा कर रहे हैं, उसे इसी से जोड़ कर देखा जाता है। अर्थात हम यदि सोये हुए किसी व्यक्ति के चरण स्पर्श कर रहे हैं, इसका मतलब ये कि हम मृत व्यक्ति के चरण छू रहे हैं। इसे अपशकुन माना जाता है। हालांकि ऐसा नहीं है कि हमारे चरण स्पर्श करने से वह मर ही जाएगा, मगर यह कृत्य उसी के तुल्य माना जाता है। 

लेटे हुए व्यक्ति के चरण स्पर्श नहीं करने के पीछे तर्क ये है कि ऐसा करने से चरण स्पर्श करने वाले के प्रति उपेक्षा का भाव महसूस होता है। यह सामान्य शिष्टाचार के विपरीत है। वाकई यह कितनी अभद्रता है कि कोई आपके प्रति सम्मान दर्शा रहा है और हम उसके सम्मान को स्वीकार करने के लिए उठ कर बैठ तक नहीं सकते।  

स्थितियों अथवा दृश्य के प्रति हम कितने सतर्क हैं, इसको लेकर एक आलेख में पहले भी चर्चा कर चुके हैं। इन उदाहरणों से उसे समझ सकते हैं। आपने देखा होगा कि हमारे यहां भोजन परोसते समय पहले जल पेश किया जाता है। उसके बाद भोजन की थाली। या फिर आगे-पीछे। अज्ञानतावश कोई यदि भोजन की थाली एक हाथ में व दूसरे हाथ में पानी का गिलास ले कर आए या पानी का गिलास भोजन की थाली में लाए तो इसे अपशगुन माना जाता है। ज्ञातव्य है कि हमारे यहां मान्यता है कि श्राद्ध के दौरान ऐसा मृतक के लिए किया जाता है। यदि हम जिंदा व्यक्ति के साथ ऐसा कर रहे हैं, तो इसका अर्थ ये हुआ कि हम मृतक के साथ ऐसा कर रहे हैं। इसी प्रकार अगर कोई मकान की चौखट पर बैठे तो उसे वहां न बैठने को कहा जाता है, क्यों कि मान्यता ये है कि चौखट पर बैठने से दरिद्रता आती है। इसके विपरीत तथ्य है कि जो दरिद्र हो जाता है, जिसके पास खाने को भी नहीं होता, वह चौखट पर आ कर बैठता है। ऐसे ही अनेक और उदाहरण हो सकते हैं। यथा दुकान बंद करने को दुकान मंगल करना कहते हैं। दीया बुझाने को दीया बढ़ाना कहते हैं। किसी अपने को अपशब्द कहने की जरूरत पड़ जाए तो उसका विलोमार्थ उपयोग में लेते हैं। जैसे यदि कोई लापरवाही करते हुए कुछ नुकसान कर दे तो यकायक मुंह से ये निकलता है कि अंधा है क्या, मगर सिंधी में कहते हैं कि सजा है क्या अर्थात आंख से पूरा दिखता है क्या? 

कुल जमा बात ये है कि हमारी संस्कृति में नकारात्मकता को भी सकारात्मक दृष्टि से देखते हैं।

शुक्रवार, सितंबर 06, 2024

इंशा अल्लाह एक रहस्यमय सूत्र

पूर्व में भी इस बिंदु पर हम चर्चा कर चुके हैं। एक बार फिर तनिक संषोधन के साथ फिर प्रस्तुत है। आम तौर पर जब भी हम कोई काम करने का इरादा करते हैं तो उसका जिक्र करते वक्त साथ ही कहते हैं कि अगर भगवान ने चाहा तो। मुस्लिम बंधु इंषा अल्लाह कह कर ही काम करने षुरूआत  करते हैं। इसके मायने ये हैं कि हम ने तो इरादा किया है, मगर वह तभी संभव होगा, जब भगवान की, प्रकृति की या अल्लाह की सहमति होगी। यह इस जुमले की स्वीकारोक्ति से जुडा हुआ तथ्य है कि वही होता है जो मंजूरे खुदा होता है। अब सवाल ये उठता है कि क्या कोई भी काम करने का निर्णय करने पर इंषा अल्लाह कहना जरूरी है। इस बारे में पाकिस्तान के जाने माने मुफ्ती तारीक मसूद बताते हैं कि यह बहुत जरूरी है, वरना काम बिगड जाता है या बिगड सकता है। उन्होंने एक वाकया बयान किया है कि एक बार किसी कौम के कुछ लोगों ने एक बाग की परवरिष की। जब फल पक गए तो इतराने लगे और उन्होंने कहा कि अब कल हम इसकी फसल काटेंगे और फायदा उठाएंगे। उन्होंने ऐसा कहते वक्त इंषा अल्लाह नहीं कहा। नतीजा ये हुआ के दूसरे ही दिन बाग पर आसमानी आफत व मुसीबत आई और बाग तबाह हो गया, चौपट हो गया। सनातन धर्म को मानने वाले भी आवष्यक रूप से भगवान को ही श्रेय देते हुए काम आरंभ करते हैं। इतना ही नहीं, हर षुभ काम की षुरूआत में विघ्न विनायक गणेष जी की स्तुति भी करते हैं, ताकि उसमें कोई बाधा न आए। इसके प्रति इतनी गहरी आस्था है कि काम के आरंभ को ही श्रीगणेष कहा जाने लगा है। विवाह के कार्ड में सबसे उपर श्री गणेष का चित्र अथवा स्वस्तिक का चिन्ह लगाते है और न्यौते का आरंभ करते हुए सबसे पहले कार्ड गणेष जी को समर्पित करते हैं। इंषा अल्लाह कहने को दार्षनिक दृश्टिकोण से देखें तो ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकृति में यह व्यवस्था है कि जहां भी अहम भाव जागता है, प्रकृति उसे तिरोहित करने में लग जाती है। यही जान कर हम अपने आगे भगवान या अल्लाह को कर देते हैं, उसकी मर्जी होगी तो ही काम पूरा होगा, वरना जय राम जी की।