तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

शुक्रवार, फ़रवरी 28, 2025

खाना खाते वक्त जीभ या गाल क्यों कट जाते हैं?

एक परिवार के सदस्य आपस में कितने गहरे जुडे होते हैं और उनके अस्तित्व के बीच कितना अंतरसंबंध होता है, एक इसका एक रोचक उदाहरण मेरे ख्याल में आता है। जिसका जिक्र मेरी माताजी किया करती थी।

आपने देखा होगा कि जब भी खाना खाते वक्त अचानक जीभ दांत की चपेट में आ जाए या दांत से गाल कट जाए तो यही कहा जाता है घर से बाहर गए अमुक सदस्य को भूख लगी होगी। ऐसी मान्यता है तो जरूर इसे अनुभव किया गया होगा। जीभ या गाल कटने की घटना को हम भले ही एक संयोग या सामान्य घटना मानें, मगर अवष्य जानकार लोगों ने इसका कारण खोजा होगा। किसी षास्त्र में इसका जिक्र है या नहीं, पता नहीं, मगर एक नजरिया यह हो सकता है कि जब भी बाहर गए व्यक्ति को भूख लग रही होगी यानि मुख खाने की चाह कर रहा होगा तो जैसे ही घर बैठा भोजन करता है तो आपस में अंतरसंबंध होने के कारण उसके मुख में विचलन होता होगा और जीभ या गाल दांत की चपेट में आ जाता होगा। ऐसा भी हो सकता है कि इस प्रकार के प्रसंग मां और संतान के बीच अधिक होता हो, चूंकि उनका जुडाव नाभी से होता है। अर्थात यह हिचकी और आंख फडकने जैसी एक प्राकृतिक संकेत प्रणाली हो सकती है। आपको जानकारी होगी ही कि हिचकी आने पर ऐसा माना जाता है कि कोई याद कर रहा है। यह मेरा अनुमान या कयास मात्र है। यदि आपको इस संबंध में ठीक ठीक जानकारी हो तो मेहरबानी करते कमेंट जरूर कीजिए।

https://www.youtube.com/watch?v=Q9QDEpVncZM


बुधवार, फ़रवरी 26, 2025

क्या शिव और शंकर अलग-अलग हैं?

हमारी जनचेतना में यह बात गहरे बैठी है कि शिव और शंकर एक ही हैं। इन दोनों में कोई भेद नहीं समझा जाता। जब भी शिव लिंग पर जल चढ़ाते हैं तो मन में त्रिशूलधारी, त्रिनेत्र व नील कंठ की प्रतिमा होती है, जिनकी जटा से गंगा निकलती है। शंकर भगवान का वाहन नंदी को माना जाता है और शिव लिंग के सामने भी नंदी बैल की प्रतिमा स्थापित की जाती है। दोनों के नाम का उच्चारण भी एक साथ किया जाता है, यथा शिव शंकर, शिव शंभू, शिव भोलेनाथ। शिव लिंग पर भी वैसा ही त्रिनेत्र बनाया जाता है, जैसा शंकर के है। दूसरी ओर ऐसे भी लोग हैं, जो कि इन दोनों को अलग-अलग मानते हैं। उनके अपने तर्क हैं।

जो लोग दोनों को अलग मानते हैं, हो सकता है कि उन्हें मतिभ्रम हो या फिर यह एक गूढ़ रहस्य हो, मगर उनके इस तर्क में जरूर दम है कि भगवान शंकर तो खुद ही शिव लिंग के आगे ध्यान करते हैं। ऐसी तस्वीरें मौजूद हैं। यहां तक अवतारी मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम भी शिव लिंग की आराधना करते हैं। अर्थात जिस परम सत्ता का प्रतीक शिव लिंग है, वह महादेव व राम से भी ऊपर हैं। वे ही सृष्टि की रचना, पालना व विनाश करने के लिए क्रमशरू त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु, महेश की रचना करते हैं। अर्थात महेश परमात्मा शिव की रचना हैं तो फिर दोनों एक कैसे हो सकते हैं।  


एक और तर्क में भी दम है। वो ये कि शंकर तो सृष्टि का संहार करते हैं, उसकी रचना व पालन का भार ब्रह्मा व विष्णु पर है, तो फिर ऐसा कैसा हो सकता है कि सृष्टि का संहार करने वाले व त्रिदेव से ऊपर जो परम सत्ता है, वह और शंकर एक ही हों? इसे यूं भी कहा जा सकता है कि जिस पर केवल संहार का दायित्व है, रचना व पालन का अन्य पर तो वे परम सत्ता कैसे हो सकते हैं? 


सवाल ये भी उठता है कि हम जो शिव रात्री मनाते हैं, वह परमात्मा शिव की स्मृति में है या फिर महादेव शंकर की याद में? शिव रात्रि पर शिव लिंग की ही उपासना की जाती है, इससे लगता है कि शिव लिंग परमात्मा शिव का प्रतीक है। यदि भगवान शंकर ही शिव हैं तो उनका अलग प्रतीक बनाने की क्या जरूरत है। शंकर के ही समकक्ष ब्रह्मा व विष्णु के तो प्रतीक चिन्ह नहीं हैं। ऐसे में शंकर को शिव इसलिए नहीं माना जा सकता, क्यों वे तो साकारी देवता हैं, जिनकी लीलाओं का पुराणों व शास्त्रों में वर्णन है।


वेदों में भी यही लिखा है कि शिव निरंकारी है, उनका कोई आकार नहीं है, शिव लिंग तो एक प्रतीक मात्र है। बावजूद इसके यदि शिव व शंकर को एक ही मान लिया गया है तो जरूर कोई कारण होगा या फिर कोई गंभीर त्रुटि हो गई है।


https://youtu-be/s9tw6VECFQo


गुरुवार, फ़रवरी 20, 2025

अल्लाह से जुडे नायाब लफ्ज

आपने अल्लाह से जुडे ये लफ्ज सुने होंगे। माषाअल्लाह, जजाकअल्लाह, सुभानअल्लाह, इंषाअल्लाह आदि। इनका उपयोग भिन्न प्रसंगों में किया जाता है। आम तौर पर लोग इनके ठीक मायने नहीं जानते। आइये, समझने की कोषिष करते हैंः- 

माशाअल्लाह एक अरबी शब्द है, जिसका अर्थ होता है जो अल्लाह ने चाहा या अल्लाह की मर्जी से। इसे आमतौर पर किसी अच्छी चीज, सफलता, सुंदरता या आशीर्वाद को देख कर कहा जाता है, ताकि बुरी नजर न लगे। किसी की तरक्की या सफलता पर, जैसे किसी ने परीक्षा में अच्छे नंबर हासिल किए, तो कहा जाता है माशाअल्लाह, बहुत अच्छे नंबर आए। खूबसूरती की तारीफ में, अगर कोई बच्चा बहुत प्यारा लगे, तो कहते हैं माशाअल्लाह, कितना प्यारा बच्चा है। नए घर, गाड़ी या किसी उपलब्धि पर, जब कोई नई चीज खरीदे या नया घर बनाए तो बधाई देने के साथ माशाअल्लाह कहा जाता है।

अगर कोई आपको माशाअल्लाह कहे, तो आप जजाकअल्लाह कहें, यानि अल्लाह तुम्हें भी बरकत दे, कह सकते हैं।

जजाक अल्लाह अरबी भाषा का एक इस्लामी वाक्यांश है, जिसका अर्थ होता है अल्लाह आपको बदला (प्रतिफल), बरकत दे।

यह वाक्यांश आमतौर पर तब कहा जाता है, जब आप किसी व्यक्ति का शुक्रिया अदा करना चाहते हैं, खासकर किसी अच्छे काम, मदद या भलाई के बदले में। जब कोई आपकी मदद करे या कोई अच्छा काम करे। जब किसी ने आपको दान दिया हो या आपकी सहायता की हो।

इसी प्रकार सुभान अल्लाह कब कहा जाता है? सुभानअल्लाह का अर्थ होता है अल्लाह पाक है या अल्लाह हर कमी से मुक्त है। इसे आमतौर पर अल्लाह की महानता, खूबसूरती या किसी अद्भुत चीज को देखकर कहा जाता है।

अल्लाह की महानता या कुदरत देख कर, जब कोई सुंदर नजारा, जैसे सूर्योदय, समुद्र या पहाड़ देखें तो कहा जाता है सुभानअल्लाह, कितनी खूबसूरत अल्लाह की कुदरत है। मुसलमान अपनी इबादत में सुभानअल्लाह का जिक्र करते हैं, खासकर नमाज के बाद या तसबीह (माला) पढ़ते समय।

अगर कोई सुभानअल्लाह कहे, तो आप भी सुभानअल्लाह या अल्लाहु अकबर कह सकते हैं।

इसी प्रकार इंषाअल्लाह तब कहा जाता है, जब हम कोई काम आरंभ कर रहे हों या आरंभ करने का संकल्प करते हों। इसका अर्थ होता है अल्लाह ने चाहा तो। यानि हर काम का श्रेय अल्लाह को दिया जाता है।


बुधवार, फ़रवरी 19, 2025

प्रार्थना या दुआ के वक्त सिर क्यों ढ़कते हैं?

आपने देखा होगा कि दरगाहों, गुरुद्वारों व सिंधी दरबारों में सिर ढ़कने की परंपरा है। इस परंपरा का सख्ती से पालन भी किया जाता है। दरगाहों में अमूमन टोपी पहनने की परंपरा है। टोपी न हो तो रुमाल से सिर ढ़कते हैं। गुरुद्वारों में पगड़ी न होने पर रुमाल का इस्तेमाल किया जाता है। कई सिंधी दरबारों में टोपी की व्यवस्था होती है, लेकिन आम तौर पर रुमाल से ही सिर ढ़का जाता है। अगर आपने लापरवाही में सिर नहीं ढ़ंका है तो अन्य श्रद्धालु आपको तुरंत टोक देते हैं। सिर ढ़कने की परंपरा क्यों है, यह सवाल कभी आपके जेहन में भी उठता होगा। मैने इस बारे में कई लोगों से चर्चा की। अनेक लोग इसे महज एक परंपरा मानते हैं और इसकी वजह नहीं जानते। कुछ लोग ऐसे हैं, जो कि इसे आदर का सूचक मानते हैं। कुछ जानकार लोग इसका धार्मिक कारण बताते हैं। वे कहते हैं कि इसके पीछे भी एक साइंस है। 

आइये, जरा इस पर विस्तृत चर्चा करते हैं। ऐसी मान्यता है कि धर्म स्थलों में शुद्ध व पवित्र भाव होने के कारण किसी क्षण विशेष में शक्तिपात होने की संभावना रहती है। हमारा शरीर में उस शक्तिपात को सहन करने की क्षमता नहीं होती। विक्षिप्त होने अथवा मृत्यु होने का खतरा रहता है। चूंकि टोपी या रुमाल, यानि कि कपड़ा, कुचालक होता है, इस कारण वह शक्तिपात होने की स्थिति में उसे रोक देता है। आपने यह भी देखा होगा कि हिंदुओं में तिलक करते समय भी सिर ढ़कने की परंपरा है। अगर उस वक्त कपड़ा उपलब्ध नहीं है तो सिर पर हाथ रखते हैं। हालांकि हम जब हाथ रखते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि यह आदर का सूचक है, लेकिन उसके पीछे भी शक्तिपात होने की संभावना का तर्क दिया जाता है। वैसे हाथ रखना पर्याप्त नहीं है, क्योंकि हाथ कुचालक नहीं है। अलबत्ता रुकावट जरूर है। ऐसी मान्यता है कि भ्रूमध्य में अदृश्य तीसरा नेत्र सुप्तावस्था में विद्यमान है। तिलक से प्रतिष्ठित करने पर उस स्थान के जागृत होने की संभावना रहती है। इसे कुंडलिनी जागरण भी कहा जाता है। उस अवस्था में शक्तिपात होने की भी संभावना होती है। यज्ञादि में दौरान भी सिर पर कुशा या मौली का धागा रखने की परंपरा है। इसका संबंध भी कदाचित शक्तिपात से ही होगा।

हमारे यहां मंदिर में प्रवेश व आरती के वक्त, अरदास के समय और किसी के पैर छूने के दौरान, बड़े-बुजुर्गों के सामने स्त्रियां आवश्यक रूप से साड़ी अथवा चुन्नी के पल्लू से सिर ढ़कती हैं। इसे एक मर्यादित आचरण के रूप में लिया जाता है। इस मर्यादा की पालना मुस्लिमों में अधिक पायी जाती है। वे नमाज के वक्त सिर ढ़कते ही हैं। आपने देखा होगा कि मदरसों में जाते वक्त छोटे-छोटे बच्चे टोपी पहनते हैं और बच्चियां चुन्नी ओढ़ती हैं। सिख तो सदैव पगड़ी पहनते हैं। गांवों में अलग-अलग तरह की टोपियां व साफे पहनने का चलन है। इस पर चर्चा फिर कभी।

https://youtu.be/PvgFT-4YX_c

मंगलवार, फ़रवरी 18, 2025

ये डंकी रूट क्या है?

इन दिनों अमेरिका में अवैध रूप से रह रहे अप्रवासी भारतीयों को भारत लौटाया जा रहा है। कहा जा रहा है कि वे डंकी रूट से अमेरिका गए थे। डंकी रूट के मायने क्या हैं? कम ही लोगों को इसकी जानकारी होगी। इस सिलसिले में किसी समय अजमेर में जनस्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग के सेवानिवृत्त अधिशाषी अभियंता रहे लेखक ई. शिव शंकर गोयल, जो कि इन दिनों दिल्ली में निवास कर रहे हैं, उन्होंने शोध किया है। उनकी जानकारी के अनुसार जब राजस्थान में, अगस्त 1968 में, सार्वजनिक निर्माण विभाग से निकल कर जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग का गठन हुआ तो नागौर जिले के बांका पट्टी इलाके में ग्राउंड वाटर में अधिक फ्लोराइड की समस्या मुंह बायें खडी थी। स्थानीय लोग वहां का पानी पी-पीकर कूबड, हाथ-पांव टेढे होना तथा दांतों की विभिन्न बीमारियां झेल रहे थे। विभाग ने उस स्थान से दूर एक जगह पीने योग्य पानी का पता लगा कर एक ट्यूब वैल खुदवाया और उसे गांवों से जोड़ने हेतु एक गांव में सर्वे टीम भेजी। टीम को देख कर गांव वाले भी इकट्ठे हो गये। उनमें से एक ने टीम के मुखिया से पूछ लिया कि इतने ताम-झाम के साथ कैसे आना हुआ? तो उन्हें बताया गया कि ट्यूब वैल से गांव तक आने का छोटे से छोटा रास्ता ढूंढना है ताकि पाइप लाइन बिछाई जा सके। इस पर गांव वालों ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा कि इस छोटे से काम के लिए इतना झंझट करने की क्या जरूरत है? जब रेलवे लाइन बिछी थी तो गांव से स्टेशन तक का छोटे में छोटा गेला (रास्ता) ढूंढना था तो हमने एक गधे को पीट कर उधर की तरफ छोड दिया। वह जिस जिस रास्ते से स्टेशन गया, उससे पता लगा कि वह सबसे सोरा (छोटा) रास्ता है। कहते हैं कि तभी से डंकी रूट चर्चा का विषय हो गया, जिसका इस्तेमाल गुजरात, पंजाब और हरियाणा के कुछ लोगों ने किया।

इस बारे में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस में तनिक भिन्न जानकारी उपलब्ध है। 

उसके अनुसार डंकी रूट एक अवैध और खतरनाक प्रवास मार्ग को संदर्भित करता है, जिसका उपयोग लोग गैरकानूनी तरीके से एक देश से दूसरे देश में जाने के लिए करते हैं। यह रूट मुख्य रूप से दक्षिण एशियाई देशों (भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश आदि) से यूरोप, अमेरिका, कनाडा और अन्य विकसित देशों तक जाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। इसमें कई देशों से होते हुए गुप्त और खतरनाक रास्तों से यात्रा करनी पड़ती है, जैसे ईरान, तुर्की, ग्रीस के जरिए यूरोप में प्रवेश और दक्षिण और मध्य अमेरिका के रास्ते अमेरिका में प्रवेश (मेक्सिको बॉर्डर के जरिए) रूस, सर्बिया या अन्य पूर्वी यूरोपीय देशों से होकर। डंकी शब्द पंजाबी में छिप कर जाने या गैरकानूनी तरीके से यात्रा करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। इसे डंकी इसलिए कहा गया क्योंकि लोगों को लंबी दूरी पैदल, खच्चरों (mules) या अन्य अवैध साधनों से तय करनी पड़ती है, जो गधों (Donkeys) पर बोझ ढोने की तरह कठिन और थकाने वाला होता है। पंजाब और अन्य भारतीय राज्यों के कई लोग कनाडा, यूरोप, अमेरिका जाने के लिए इस अवैध रास्ते का इस्तेमाल करते हैं। पंजाबी बोलचाल में डंकी शब्द का इस्तेमाल उन लोगों के लिए किया जाता है जो बिना वीजा या कानूनी दस्तावेजों के किसी देश में घुसने की कोशिश करते हैं। समय के साथ यह शब्द खासकर अवैध रूप से विदेश जाने वाले प्रवासियों के लिए प्रचलित हो गया।

-तेजवाणी गिरधर

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असुरों को वरदान देते ही क्यों हैं त्रिदेव?

सवाल ये है कि त्रिदेव या देवता असुरों को ऐसे वरदान देते ही क्यों हैं कि वे उसका दुरुपयोग कर सकें? क्या उन्हें इस बात का अहसास और इल्म नहीं कि असुर उस वरदान को दुनिया पर जुल्म ढ़हाने के लिए उपयोग करेगा? क्या किसी को आराधना, कठोर साधना व तप करने के बाद वरदान देना उनकी मजबूरी है, चाहे वह उसका दुरुपयोग करे?

पुराणों और रामायण व महाभारत से जुड़ी कथाओं में इस बात का स्पष्ट जिक्र है कि अमुक असुर ने त्रिदेव या किसी देवी-देवता से प्राप्त वरदान का दुरुपयोग करते हुए देवताओं, ऋषि-मुनियों आमजन को बहुत पीड़ित किया। इस पर दुखी हो कर वे त्रिदेव के पास गए और त्राहि माम त्राहि माम कहते हुए उस असुर की यातानाओं से मुक्ति के लिए प्रार्थना की। उन्होंने अपने वरदान की महत्ता को तो कायम रखा, मगर साथ ही देवताओं व ऋषि-मुनियों पर दया की और अपने ही वरदान का तोड़ निकाला। और इस प्रकार अंततः देवी-देवता, ऋषि-मुनि व आमजन परेशानी से मुक्ति पाते हैं। ऐसे अनेकानेक प्रसंग हैं। कोई गिनती ही नहीं।

सवाल ये है कि त्रिदेव या देवता असुरों को ऐसे वरदान देते ही क्यों हैं कि वे उसका दुरुपयोग कर सकें? क्या उन्हें इस बात का अहसास और इल्म नहीं कि असुर उस वरदान को दुनिया पर जुल्म ढ़हाने के लिए उपयोग करेगा? क्या किसी को आराधना, कठोर साधना व तप करने के बाद वरदान देना उनकी मजबूरी है, चाहे वह उसका दुरुपयोग करे? ऐसे वरदान भी जानकारी में हैं, जिनके साथ ये शर्त लगाई जाती है कि वे उसका उपयोग जनकल्याण के लिए करने की बजाय दुरुपयोग करेंगे तो वह स्वतः ही बेअसर हो जाएगा। मगर सच्चाई ये है कि असुरों द्वारा हासिल वरदानों की प्रकृति ही ऐसी होती है कि उनका दुरुपयोग किया ही जाता है। स्वाभाविक ही है कि असुर ऐसा ही करेंगे। वरना वे असुर ही क्यों कहलाते? वरदान भी ऐसे-ऐसे कि क्या कहें? जिनसे साफ झलकता है कि असुर उसका दुरुपयोग करेंगे ही। असल में वे शक्ति का वरदान हासिल ही इसलिए करते हैं, ताकि उसका उपयोग कर देवताओं का दमन करें। अपने साम्राज्य का विस्तार कर सकें। कोई असुर अजेय होने का वरदान पा लेता है तो कोई ब्रह्मास्त्र, पाशुपतास्त्र व अन्य कई प्रकार के अमोघ अस्त्र वरदान स्वरूप हासिल कर लेता है, जिनका उपयोग महाविनाश के लिए किया जा सकता है। जब यह पहले से संज्ञान में है कि उनका उपयोग सृष्टि को नष्ट करने के लिए किया जा सकता है तो उसे देना ही नहीं चाहिए। 

जरा गौर कीजिए। भस्मासुर शंकर भगवान से किसी के भी सिर पर हाथ फेरने पर उसके भस्म हो जाने का वरदान पा लेता है। बाद में माता पार्वती का वरण करने की खातिर भगवान को ही भस्म करने पर आमादा हो जाता है। बड़ी युक्ति से भगवान को उससे मुक्ति मिल पाती है। उसकी भी एक कहानी है। ब्रह्मा जी व विष्णु भगवान भी पहले तो ऐसे ही अनेक वरदान असुरों को देते हैं और बाद में खुद ही उनके निवारण के रास्ते निकालते हैं। यानि समस्या भी वे ही पैदा करते हैं और समाधान भी खुद ही करते हैं। हिरण्यकश्यप की कथा सर्वविदित है। उसे न अस्त्र से न शस्त्र से, न अंदर न बाहर, न जमीन पर न आसमान में, न मानव द्वारा न पशु द्वारा मारे जाने की वरदान हासिल होता है। अर्थात भगवान पहले तो ऐसा वरदान दे देते हैं कि उसे विभिन्न तरीकों से मारा नहीं जा सकेगा और बाद में खुद ही तोड़ निकालते हुए नृसिंह अवतार लेकर युक्तिपूर्वक उसका वध करते हैं, ताकि उनका वरदान की कायम रहे और हिरण्यकश्यप भी मारा जा सके।

इन सब में एक बात कॉमन है, वो यह कि मृत्यु अवश्यंभावी है, जगत के इस अटल सत्य को ध्यान में रख कर ही वरदान दिए जाते हैं। किसी को भी अमरता का वरदान नहीं दिया जाता। दिया भी नहीं जा सकता। जैसे भीष्म पितामह को इच्छा मृत्यु का वरदान था, मगर में उसमें भी मृत्यु सुनिश्चित थी। बस इतना था कि उन्हें तभी काल वरण पाएगा, जब उनकी इच्छा होगी।

ऐसा नहीं है कि सिर्फ असुर ही प्राप्त वरदान का दुरुपयोग करते हैं, ऐसे कई प्रसंग हैं, जिनमें देवता भी अपनी शक्तियों का बेजा इस्तेमाल करते हैं। बिलकुल वैसा ही व्यवहार करते हैं, जैसा कि आम मनुष्य करता है। ऋषि-मुनि तक मानवीय कामनाओं के वशीभूत हो कर कृत्य करते हैं। हां, इतना जरूर है कि ऐसे प्रसंगों की संख्या कम है। दुरुपयोग करने पर बाद में उन्हें भी शापित होना पड़ता है।

खैर, कुल मिला कर यह सवाल सिर ही चकरा देता है कि क्यों तो असुरों को वरदान दे कर उन्हें शक्तिशाली बनाया जाता है और फिर बाद में देवताओं के अनुनय-विनय पर दया करके असुरों का अंत किया जाता है।

यह तो हुई मोटी बु्द्धि और तर्क की बात। विषय का एक पहलु। जरा गहरे में जाएं तो और ही दृष्टिकोण उभरता है। ऐसा प्रतीत होता है कि परमसत्ता या प्रकृति द्वारा जगत के संचालन के लिए नकारात्मक व सकारात्मक शक्तियों का संतुलन बैठाया जाता है। यह जगत है ही द्वैत। अच्छाई और बुराई से मिल कर ही बना है। दोनों जगत के अस्तित्व के लिए आवश्यक तत्त्व हैं। इनका जोड़, बाकी, गुणा, भाग सृष्टि के रचनाकार भगवान ब्रह्मा, सृष्टि के पालक भगवान विष्णु व सृष्टि के संहारकर्ता भगवान शंकर करते हैं। ये तीनो सृष्टि के नियामक आयोग के डायरेक्टर हैं, जो स्वयं भी शक्ति के आदि केन्द्र के नियमों की पालना करवाने के लिए बाध्य हैं।

दूसरा तथ्य ये समझ में आता है कि कठोर साधना करके कोई भी शक्ति हासिल कर सकता है, चाहे असुर हो या देवता। प्रकृति की आदि शक्ति उसमें कोई भेद नहीं करती। वह सदैव निरपेक्ष रहती है।

इस विषय पर कभी और विस्तार से गहरे में चर्चा करेंगे।

https://www.youtube.com/watch?v=GsUgnVxIs5k


रविवार, फ़रवरी 16, 2025

दैनिक राषिफल पर अविष्वास क्यों?

हर आम ओ खास की दैनिक राषिफल देखने में रूचि होती है। चाहे उस पर विष्वास हो या नहीं। यकीन न हो तो भी एक बार देख ही लेते हैं। यकीन न होने के पीछे तर्क यह होता है कि अमुक राषि का दिनमान पूरी दुनिया के लोगों पर कैसे लागू हो सकता है? जैसे राषिफल आता है कि अमुक राषि के लोग आज मालामाल होंगे। बेषक उस राषि के लोगों के लिए वैसा योग होता तो है, मगर सभी के लिए भिन्न भिन्न होता है, क्योंकि सभी की कुंडली में ग्रहों की स्थिति अलग अलग होती है। अगर मालामाल होने का योग लागू होता है तो भी सभी पर समान रूप से परिफलित नहीं हो पाता। इसे यूं समझिये। जैसे किसी दिन अमुक राषि के लोगों पर धन वर्शा का योग है, मगर सभी पर धन वर्शा होती नजर नहीं आती। असल में वर्शा तो सभी पर समान रूप से होती है, मगर उसका फल हर व्यक्ति की पात्रता के अनुसार मिलता है। जिसका पात्र एक लीटर का है तो उसे एक लीटर और जिसका पांच लीटर का है, उसे पांच लीटर जल मिलता है। गरीब भी मालामाल होता है, मगर पात्रता के अनुसार। जैसे उसके पास दस रूपये हैं तो उसे एक हजार मिलते हैं और जिसके पास पहले से एक हजार रूपये हैं तो उसे पचास हजार मिलते हैं। ऐसे में असमंजस होना स्वाभाविक है, षंका होना लाजिमी है।

https://youtu.be/k6Wt1yPMp-k