तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

मंगलवार, अगस्त 14, 2012

वसुंधरा के नेतृत्व में चुनाव लडऩे पर असमंजस

राजस्थान में आगामी विधानसभा चुनाव पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा के नेतृत्व में घोषित रूप से लड़े जाने पर अभी असमंजस बना हुआ है। भाजपा का संघनिष्ठ धड़ा हालांकि भाजपा की सरकार बनने पर श्रीमती वसुंधरा को ही मुख्यमंत्री बनाने पर सहमत है, मगर उन्हें पहले से मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट न करने पर जोर डाल रहा है। इस संबंध में उसका तर्क ये है कि जिस प्रकार गुजरात में मुख्यमंत्री नरेद्र मोदी के कहीं न कहीं पार्टी लाइन से ऊपर होने के कारण वहां हालात दिन ब दिन खराब होते जा रहे हैं, ठीक उसी प्रकार की स्थिति राजस्थान में भी होती जा रही है। ऐसे में बेहतर ये होगा कि उन्हें पहले से मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित न किया जाए, बाद में भले ही भाजपा को बहुमत मिलने पर उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया जाए।
इसी के साथ एक महत्वपूर्ण जानकारी ये भी है कि संघ का धड़ा वसुंधरा को फ्रीहैंड दिए जाने के पक्ष में भी नहीं है। उसका कहना है कि ऐसा करने पर वे अपने समानांतर धड़े को निपटाने की कोशिश कर सकती हैं, जैसा कि वे पहले भी कर चुकी हैं। कई पुराने नेता हाशिये पर धकेल दिए गए। और यदि ऐसा हुआ तो चुनाव में पार्टी को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी। असल में उनका इशारा इस संभावना की ओर है, जिसके तहत यह माना जा रहा है कि चुनाव से पहले वसुंधरा राजे को प्रदेश भाजपा अध्यक्ष का जिम्मा सौंपा जा सकता है। संघ का यह धड़ा मौजूदा अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी को हटाए जाने के पक्ष में भी नहीं है। चतुर्वेदी को हटाए जाने को वह अपनी हार के रूप में देख रहा है।
वस्तुत: श्रीमती राजे को प्रदेश अध्यक्ष बनाने के लिए दबाव बनाने वालों का कहना है कि अगर पार्टी को चुनाव में जीत हासिल करनी है तो वसुंधरा को टिकट वितरण अपने हिसाब से करने की छूट देनी होगी। इसके पीछे उनका तर्क ये है कि यदि प्रदेश अध्यक्ष कोई और होता है तो वह टिकट वितरण के समय रोड़ा अटका सकता है, जिसकी वजह से गलत प्रत्याशियों को टिकट मिल जाने की आशंका रहेगी। अपनी इस बात पर जोर डालने के लिए वे पिछले चुनाव का जिक्र करते हैं कि तब प्रदेश अध्यक्ष ओम माथुर के कुछ टिकटों के लिए अड़ जाने के कारण ऐसे प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतारने पड़े, जो कि हार गए और भाजपा जीती हुई बाजी हार गई। हालांकि वे इस बात पर सहमत हैं कि संघ लॉबी को भी पूरी तवज्जो दी जानी चाहिए और उनके सुझाये हुए प्रत्याशियों को भी टिकट दिए जाएं, मगर कमान केवल वसुंधरा के हाथ में दी जाए। वसुंधरा खेमा इस बात पर भी नजर रखे हुए है कि कहीं संघ लॉबी कुछ ज्यादा हावी न हो जाए। अगर ऐसा होता है तो वे पहले की ही तरह फिर से इस्तीफा हस्ताक्षर अभियान जैसी किसी मुहिम की रणनीति अपना सकते हैं।
समझा जाता है कि फिलहाल पार्टी हाई कमान इस बात को लेकर असमंजस में है कि वसुंधरा को प्रदेश अध्यक्ष बनाया जाए अथवा नहीं। इस बात की संभावना भी तलाशी जा रही है कि वसुंधरा विरोधी लॉबी को संतुष्ट करने के लिए किसी ऐसे नेता को प्रदेश अध्यक्ष का दायित्व सौंपा जाए, जो कि संघ और वसुंधरा दोनों को स्वीकार्य हो। इस सिलसिले में पूर्व गृह मंत्री गुलाब चंद कटारिया का नाम सामने आ रहा है। हालांकि पिछले दिनों कटारिया की प्रस्तावित मेवाड़ यात्रा को लेकर जो बवाल हुआ, उससे ऐसा प्रतीत हुआ कि वे वसुंधरा को चुनाती देने जा रहे हैं और दोनों के बीच संबंध काफी कटु हो चुके हैं, जबकि वस्तुस्थिति ये है कि वह विवाद केवल मेवाड़ अंचल में व्याप्त धड़ेबाजी की वजह से उत्पन्न हुआ। वहां वर्चस्व को लेकर कटारिया व किरण में जबरस्त खींचतान है और उसी वजह से इतना बड़ा नाटक हो गया। उस झगड़े की जड़ किरण माहेश्वरी थीं। अर्थात वसुंधरा व कटारिया के संबंध उतने कटु नहीं हैं, जितने कि समझे जा रहे हैं। कटारिया के अतिरिक्त पूर्व अध्यक्ष ओम माथुर का नाम भी सामने आ रहा है।
कुल मिला कर ताजा स्थिति ये है कि हाईकमान इस मुद्दे पर और विचार कर लेना चाहता है। विशेष रूप से दिसंबर में राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी का कार्यकाल बढ़ाए जाने अथवा स्थितियां बदलने की संभावना के बीच राजस्थान के मसले को एक तरफ ही रखने के पक्ष में है। वैसे उसका एक मात्र मकसद राजस्थान पर फिर काबिज होना है। इसके लिए वह दोनों धड़ों के बीच तालमेल बनाए रखने पर ही पूरी ताकत लगाएगा। वजह ये है  कि एक ओर जहां वसुंधरा खेमा ताकतवर होने के कारण आक्रामक है, वहीं संघ के हार्डकोर नेताओं की मंशा ये है कि इस बार येन केन प्रकारेण वसुंधरा को राजस्थान से रुखसत कर दिया जाए। यह स्थिति पार्टी के लिए बेहद घातक साबित हो सकती है। लब्बोलुआब राजस्थान भाजपा का मसला बेहद नाजुक है और उसे बड़ी सावधानी से निपटाए जाने की कोशिश की जा रही है।
-तेजवानी गिरधर
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tejwanig@gmail.com

सोमवार, अगस्त 13, 2012

आधी अधूरी आजादी में जी रहे हैं हम

इस बार 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस की एक और वर्षगांठ मना रहे हैं। जाहिर सी बात है कि हर बार की तरह यह वर्षगांठ भी महज एक रस्म अदायगी मात्र ही है। हम सिर्फ यह कह-सुन कर आपस में खुश हो लेते हैं कि हम आजाद हैं, लेकिन सच में हम कितना आजाद हैं, यह तो हमारा दिल ही जानता है। यही वजह है कि आजादी का आंदोलन देख चुकी हमारी बुजुर्ग पीढ़ी बड़े सहज भाव में कहती सुनाई देती है कि इससे तो अंग्रेजों का राज अच्छा था।
वस्तुत: हमारी आजादी आधी अधूरी ही है। इसकी वजह ये है कि हम 15 अगस्त 1947 को अग्रेजों की दासता से तो मुक्त हो गए, मगर जैसी शासन व्यवस्था है, उसमें अब हम अपनों की ही दासता में जीने को विवश हैं। सबसे बड़ी समस्या है आतंकवाद और सांप्रदायिक विद्वेष की। इसके चलते देश के अनेक इलाकों में आजाद होने के बावजूद व्यक्ति को अगर अपने ही घर में संगीनों के साए में रहना पड़े, तो यह कैसी आजादी। लचर कानून व्यवस्था और लंबी न्यायिक प्रक्रिया के कारण संगठित अपराध इतना बढ़ गया है कि हम निर्भीक होकर सड़क पर चल नहीं सकते। हमारी बहन-बेटियों को अपने ही मोहल्लों में अपनी अस्मिता का भय बना रहता है। हम अपने ही देश में न्याय के लिये भटकते रहते हैं। शासन और प्रशासन तक अपनी बात पहुंचाने के लिये यदि हमें फिल्म शोले के वीरू की तरह टंकी या टॉवर पर चढना पड़े या आत्मदाह की कोशिश करनी पड़े तो उसे आजादी कैसे कहा जा सकता है।
ऐसे में सवाल ये उठता है कि क्या हमारे अनगिनत स्वतंत्रता सेनानियों ने इसी आजादी के लिये अपना बलिदान दिया था? क्या महात्मा गांधी ने ऐसी ही आजादी के लिए अपना सर्वस्व दांव पर लगा दिया था? क्या हम सिर्फ फिरंगियों की सत्ता से घृणा करते थे? फिरंगियों की सत्ता से हमने भले ही मुक्ति पा ली, लेकिन फिरंगी मानसिकता से आज हम 62 साल बाद भी मुक्त नहीं हो सके हैं। जो काम फिरंगी करते थे, उससे भी कहींं आगे हमारा राजनीतिक तंत्र कर रहा है।  'फूट डालो, राज करोÓ की जगह 'फूट डालो और वोट पाओÓ की नीति चल रही है। राजनीतिक हित साधने के लिए सत्ताधीशों को दंगा-फसाद कराने से भी गुरेज नहीं है। सत्ता को भ्रष्टाचार की ऐसी दीमक लग चुकी है की पूरा देश इससे कराह रहा है।
संविधान में जिस स्वतंत्रता और समानता की बात की जाती है, वह स्वतंत्रता और समानता दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती। पहले हम फिंरगियों के जुल्म सहते थे, अब अपनों के जुल्म सह रहे हैं। पहले भी सत्ता के खिलाफ बोलने पर आवाज बंद करने की कोशिश की जाती थी, आज भी ऐसा चल रहा है। पहले आजादी के संघर्ष में जान जाती थी, आज तो पता नहीं, कब चली जाए। पहले अंग्रेज देश को लूट रहे थे, आज वही काम नेता कर रहे हैं। पहले भी सत्ता की ओर से तुगलकी फरमान जारी होते थे, आज भी ऐसे फरमान जारी हो रहे हैं। आजादी के लिए बलिदान देने वालों को देश भुला चुका है। आज ऐसे सत्ताधीशों की पूजा हो रही है, जिनका न कोई चरित्र है, न जिनमें नैतिकता है और न ईमानदारी। पहले भी लोग भूख से मरते थे, आज भी मर रहे हैं। सत्ता से चिपके रहने वाले लोग फिंरगी  शासन में भी ऐश कर रहे थे, आज भी सत्ता से चिपके रहने वाले ही सारे सुख भोग रहे हैं। आखिर यह कैसी आजादी है? क्या आम आदमी को भय और भूख से मुक्ति मिली है?  क्या आम आदमी को उसके जीवन की गांरंटी दी जा सकी है? क्या नारी की अस्मिता सुरक्षित है? क्या व्यक्ति अपनी बात निर्भीकता से रखने के लिए स्वतंत्र है? जाहिर है, इनके जवाब ना में ही होंगे। और जब ऐसा है, तब फिर इस आजादी के आम आदमी के लिए क्या मायने?
दरअसल, अब हम एक  ऐसी परंतत्रता में जी रहे हैं, जिसके खिलाफ अब दोबारा संघर्ष की जरूरत है। हमें अगर पूरी आजादी चाहिए, तो हमें एक और स्वाधीनता संग्राम के लिये तैयार हो जाना चाहिये। यह स्वाधीनता संग्राम जमाखोरों, कालाबाजारियों के खिलाफ होना चाहिए। यह संग्राम भ्रष्टाचारियों से लड़ा जाना चाहिए। यह संग्राम चोर, उचक्कों, लुटेरों और ठगों के खिलाफ छेड़ा जाना चाहिये। यह संग्राम देश को खोखला कर रहे सत्ता व स्वार्थलोलुप नेताओ के विरुद्ध लड़ा जाना चाहिए। यह संग्र्र्राम उन लोगों के खिलाफ किया जाना चाहिये, जो गरीबों, दलितों, मजलूमों और नारी का शोषण कर फल-फूल रहे हैं। अगर हम ऐसे लोगों को परास्त कर सके, अगर हम ऐसे लोगों से देश को मुक्त करा सके , तब हम कह सकेंगे कि हम वास्तविक रूप से आजाद हो चुके हैं। हालांकि हाल ही समाजसेवी अन्ना हजारे और योग गुरू बाबा रामदेव ने भ्रष्ट तंत्र व काले धन के खिलाफ पूरे देश को जगाने का काम किया है, मगर यह ताकतवर भ्रष्ट ताकतों के कारण यह आंदोलन सिरे चढ़ता नजर नहीं आ रहा। लोगों के मन में भ्रष्टाचार के खिलाफ रोष तो है, मगर व्यवस्था परिवर्तन के लिए कोई तैयार नहीं है।
हर भारतीय की इच्छा है कि आजादी केवल किताबों और शब्दों में ही नहीं, बल्कि धरातल पर भी दिखनी चाहिये। हमें गंाधी के सपनों का भारत चाहिये। हमें देश के महान क्रांतिकारियों के बलिदान को व्यर्थ नहीं जाने देना है। विडंबना यह है कि हम आजादी के पर्व पर इन तथ्यों पर जरा भी चिंतन नहीं करते। हम सिर्फ इस दिन रस्म अदायगी करते हैं। सुबह झंडा फहरा कर और बड़े-बड़े भाषण देकर हम अपने कत्र्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं और दूसरे ही दिन पुराने ढर्ऱे वाली आपाधापी में व्यस्त हो जाते हैं।
-तेजवानी गिरधर

मंगलवार, अगस्त 07, 2012

प्रोजेक्ट न करने की कह कर भी जंग बढ़ा रहे हैं गडकरी

बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार की ओर से गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में अस्वीकार किए जाने पर हालांकि भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने भले ही यह कह कर एनडीए में विवाद को विराम देने की कोशिश की हो कि भाजपा प्रधानमंत्री के रूप में किसी को प्रोजेक्ट नहीं करेगी, मगर साथ भाजपा में एक से अधिक नेताओं को प्रधानमंत्री पद के योग्य बता कर अपनी ही पार्टी में घमासान को बढ़ावा दे दिया है। कौन-कौन नेता प्रधानमंत्री पद के योग्य है, इसकी गिनती करवाने से जाहिर सी बात है कि वे खुद ब खुद दावेदारी की स्थिति में आ जाते हैं। लोगों की छोडिय़े, अगर खुद पार्टी अध्यक्ष ही कुछ नेताओं को प्रधानमंत्री पद के योग्य करार देंगे तो स्वाभाविक है कि वे मौका पडऩे पर दावेदारी करने से क्यों चूकेंगे।
ज्ञातव्य है कि हाल ही आगरा में गडकरी ने कहा कि भाजपा प्रधानमंत्री के रूप में किसी को प्रोजेक्ट नहीं करेगी। भावी प्रधानमंत्री पर फैसला लोकसभा चुनाव के बाद एनडीए करेगा। हालांकि उन्होने पार्टी के भीतर प्रधानमंत्री पद के दावेदारों का नाम भी गिना दिया। उन्होंने कहा कि भाजपा में लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली और राजनाथ सिंह प्रधानमंत्री पद के योग्य हैं। साथ ही गुजरात के सीएम नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय नेता बता कर उन्हें भी उसी श्रेणी में शामिल कर दिया।
यहां उल्लेखनीय है कि घोटालों से घिरी कांग्रेस नीत यूपीए गठबंध की सरकार के फिर सत्ता में नहीं आने की धारणा के बीच भाजपा में प्रधानमंत्री पद के लिए पहले से ही घमासान जारी है। भाजपा भले ही वह अकेले अपने दम पर सरकार न बना पाए, मगर भाजपा नीत एनडीए तो सत्ता में आने की उम्मीद है ही। जाहिर तौर पर भाजपा सबसे बड़ा विपक्षी दल होगा, तो उसी का नेता प्रधानमंत्री पद पर काबिज हो जाएगा। यही वजह है कि भाजपा नेताओं में इस पद को लेकर लार टपक रही है।
पिछली बार कमजोर मनमोहन सिंह बनाम मजबूत लाल कृष्ण आडवाणी के नाम पर चुनाव में पराजय हासिल होने के बाद आडवाणी की दावेदारी स्वत: ही काफी कमजोर हो गई थी, बावजूद इसके वे अपनी दावेदारी को कमतर नहीं मानते। इसी के चलते उन्होंने पिछले दिनों रथयात्रा निकाली। जब यह सवाल उठा कि क्या वे प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किए जाने की तैयारी कर रहे हैं तो उन्होंने साफ कर दिया कि आडवाणी की यात्रा प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के रूप में नहीं। अब एक बार फिर खुद गडकरी ही उन्हें प्रधानमंत्री के योग्य बता कर उनके दावे को मजबूत कर रहे हैं।
जहां तक सुषमा स्वराज व अरुण जेटली का सवाल है, वे खुद ही अपने आपको प्रबल दावेदार मानते हैं और इसी के चलते पैंतरेबाजी करते रहते हैं। दोनों के बीच चल रही प्रतिस्पद्र्धा किसी से छिपी नहीं है।
अगर मोदी की बात करें तो वे सपने में भी नहीं सोच सकते थे कि वे कभी प्रधानमंत्री पद की दावेदारी कर सकेंगे या दावेदार माने भी जाएंगे, मगर गुजरात दंगों से जुड़े एक मामले में उच्चतम न्यायायल की व्यवस्था को उन्होंने अपनी सांप्रदायिक छवि को सुधारने के रूप में इस्तेमाल किया। उसी दौरान अमेरिकी कांग्रेस की रिसर्च रिपोर्ट में उनकी तारीफ करते हुए ऐसा माहौल बना दिया गया कि अगले आम चुनाव में प्रधानमंत्री पद का मुकाबला मोदी और राहुल गांधी के बीच हो सकता है। इससे मोदी का हौंसला और बढ़ गया और 'शांति और साम्प्रदायिक सद्भावÓ के लिए तीन दिन के उपवास के माध्यम से राष्ट्रीय स्तर पर सर्वमान्य नेता बनने का प्रयास किया। हालांकि तब भी शरद यादव ने मोदी के उपवास का उपहास किया था, मगर मोदी का अभियान नहीं रुका। कट्टरवादी हिंदू मानसिकता के लोगों ने तो बाकायदा फेसबुक व ट्विटर पर अभियान सा छेड़ रखा है। बाकायदा योजनाबद्ध तरीके से उनके पक्ष में माहौल बनाया जा रहा है। इसी से चिढ़े बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने ताल ठोक कर कह दिया कि एनडीए को धर्मनिरपेक्ष चेहरा ही स्वीकार्य होगा। उनका सीधा सा इशारा मोदी को प्रोजेक्ट न किए जाने को लेकर है। हालांकि इस बात को लेकर एनडीए संयोजक शरद यादव ने ऐतराज किया है कि इस विषय को उठाना ठीक नहीं है। वैसे भी यह भाजपा का अंदरुनी मामला है कि वह किसी को प्रोजेक्ट करती है या नहीं। उसके बाद भी किसी को अंतिम रूप से प्रोजेक्ट किए जाने का निर्णय एनडीए को करना है। अत: अभी से इस पर चर्चा करके माहौल नहीं बिगाड़ा जाना चाहिए। कदाचित इसी वजह से गडकरी ने यह कह कर उफनते दूध  पर छींटे डालने की कोशिश की है कि भाजपा किसी को प्रोजेक्ट नहीं करेगी। मगर साथ ही जब मोदी सहित कुछ और नेताओं को प्रधानमंत्री पद के योग्य करार दिया तो क्या इस बात की आशंका नहीं रहेगी कि वे एक-दूसरे को काटने की कोशिश करेंगे। सुना तो यह तक जाता है कि कुछ दिग्गज नेता मोदी का नाम ज्यादा प्रचारित होने से परेशानी में हैं और यदि उनका जोर चला तो वे मोदी को गुजरात विधानसभा चुनाव में ही निपटा देंगे।
यदि निष्पक्ष पर्यवेक्षकों की राय मानें तो भले ही मोदी व आडवाणी का जनाधार अन्य नेताओं के मुकाबले अधिक है, लेकिन दोनों पर कट्टरपंथी माना जाता है, इस कारण राजग के घटक दल उनके नाम पर सहमति नहीं देंगे। सुषमा व जेटली अलबत्ता कुछ साफ सुथरे हैं, मगर उनकी ताकत कुछ खास नहीं। इसलिए वे चुप रह कर मौके की तलाश कर रहे हैं। वे जानते हैं कि जैसे ही सरकार बनाने के लिए अन्य दलों के सहयोग की जरूरत होगी तब मोदी व आडवाणी की तुलना में उन्हें पसंद किया जाएगा।
कुल मिला कर गडकरी के ताजा बयान से भाजपा में प्रधानमंत्री पद के लिए चल रही खींचतान और बढ़ेगी।
-तेजवानी गिरधर
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tejwanig@gmail.com

रविवार, अगस्त 05, 2012

टीम अन्ना ने ही अंधे कुएं में धकेल दिया आंदोलन

जिस अन्ना टीम ने देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक सशक्त आंदोलन खड़ा किया, उसी ने अपनी नादानियों, दंभ और मर्यादाहीन वाचालता के चलते उसे एक अंधे कुएं में धकेल दिया है। यह एक कड़वी सच्चाई है, मगर कुछ अंध अन्ना भक्तों को यह सुन कर बहुत बुरा लगता है और वे यह तर्क देकर आंदोलन की विफलता को ढ़ंकना चाहते हैं कि टीम अन्ना ने देशभर में भ्रष्टाचार के खिलाफ जनजागरण तो पैदा किया ही है। बेशक देश के हर नागरिक के मन में भ्रष्टाचार को लेकर बड़ी भारी पीढ़ा थी और उसे टीम अन्ना ने न केवल मुखर किया और उसे एक राष्ट्रीय आंदोलन की शक्ल दी, मगर जिस अंधे मोड़ पर ले जाकर हाथ खड़े किए हैं, वह आम जनता की आशाओं पर गहरा तुषारापात है। एक अर्थ में यह जनता के साथ विश्वासघात है। जिस जनता ने उन पर विश्वास किया, उसे टीम अन्ना ने एक मुकाम पर ला कर ठेंगा दिखा दिया। अब हम भले ही आशावादी रुख अपनाते हुए आंदोलन की गर्म राख में आग की तलाश करें, मगर सच्चाई ये है एक बहुत बड़ी क्रांति का टीम अन्ना ने सत्यानाश कर दिया।
टीम अन्ना में चूंकि भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के लोग थे, इस कारण उनमें कभी  भी मतैक्य नहीं रहा। उनके मतभेद समय-समय पर उजागर होते रहे, जिसकी वजह से कई बार सामूहिक नेतृत्व के मुद्दे पर उनसे जवाब देेते नहीं बना। 
जहां तक स्वयं अन्ना हजारे का सवाल है, वे खुद तो पाक साफ हैं और बने रहे, मगर उनकी टीम कई बार विवादों में आई। कभी अरविंद केजरीवाल पर आयकर विभाग ने उंगली उठाई, तो कभी किरण बेदी पर विमान की टिकट का पैसा बचाने का आरोप लगा। भूषण बाप-बेटे की जोड़ी पर भी तरह-तरह के आरोप लगे। सबसे ज्यादा विवादित हुए अपने घटिया बयानों की वजह से।
टीम अन्ना कितने मतिभ्रम में रही, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कभी जिन बाबा रामदेव से वह कोई संबंध नहीं रखना चाहती थी, बाद में उसी से मजबूरी में हाथ मिला लिया। उसके बाद भी बाबा रामदेव को लेकर भी टीम दो धड़ों में बंटी नजर आई। यही वजह रही कि जब टीम से बाबा से गठबंधन किया तो न केवल उनके विचारों में भिन्नता बनी रही, अपितु मनभेद भी साफ नजर आता रहा। एक ओर बाबा रामदेव गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी से गलबहियां करते रहे तो दूसरी और टीम अन्ना के सदस्य इस मुद्दे पर अलग-अलग सुर उठाते नजर आए। हालत ये हो गई कि जो बाबा रामदेव अपने वायदे के मुताबिक टीम अन्ना के ताजा अनशन के पहले दिन कुछ घंटे नजर आए, बाद में गायब हो गए और आखिरी दिन अनशन तुड़वाने के लिए आने पर कहने पर साफ मुकर गए। टीम अन्ना कभी सभी राजनीतिक दलों से परहेज करती रही तो कभी पलटी और कांग्रेस को छोड़ कर अन्य सभी दलों के नेताओं के साथ एक मंच पर आई। टीम अन्ना की नीयत और नीति सदैव अस्पष्ट ही रही। यही कारण रहा कि शुरू में जो संघ व भाजपा कांग्रेस विरोधी आंदोलन होने की वजह से साथ दे रहे थे, वे  खुद को भी गाली पडऩे पर अलग हो गए।
टीम अन्ना दंभ से इतनी भरी है कि वह अपने आगे किसी को कुछ नहीं गांठती। उसने कई बार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व अन्य मंत्रियों और नेताओं  पर अपमाजनक टिप्पणियां कीं। पिछले साल स्वाधीनता दिवस पर खुद अन्ना ने मनमोहन सिंह पर टिप्पणी की कि वे किस मुंह से राष्ट्रीय झंडा फहरा रहे हैं। यहां तक कि राष्ट्रपति चुनाव के दौरान तो प्रणव मुखर्जी पर आरोप लगाए ही, उनके चुने जाने पर इसे देश का दुर्भाग्य करार दिया। यह बेशर्म सदाशयता ही कही जाएगी कि पहले जानबूझकर प्रणब मुखर्जी का चित्र अपने मंच पर लगाया और बाद में खीसें निपोरते हुए उसे कपड़े से ढंक दिया।
जहां तक टीम की एकता का सवाल है, अन्ना हजारे कहने मात्र को टीम लीडर थे, मगर भीतर अरविंद केजरीवाल तानशाही करते रहे। अकेले उनके व्यवहार की वजह से एक के बाद एक सदस्य टीम से अलग होते गए। एक ओर तो टीम अन्ना लोकतंत्र और पारदर्शिता की मसीहा बनती रही, दूसरी ओर खुद कुलड़ी में गुड़ फोडऩे की नीति पर चलती रही। मौलाना शमून काजमी की टीम से छुट्टी उसी का ज्वलंत उदाहरण है। यह वही टीम है, जिसने सरकार के साथ शुरुआती बहस की वीडियो रिकार्डिंग करवाने की जिद की और दूसरी ओर अन्ना हजारे केन्द्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद से गुप्त वार्ता करने से नहीं चूके। पोल खुलने पर उनका चेहरा देखने लायक था, जो हर एक ने टीवी पर देखा।
जो आखिरी अनशन आंदोलन के पटाक्षेप और राजनीति की ओर पहल का सबब बना, वह भी बिना किसी रणनीति के शुरू हुआ। इसका दोष भले ही सरकार को दिया जाए कि उसने उनको इस बार गांठा ही नहीं, मगर यह टीम अन्ना की रणनीतिक कमजोरी ही मानी जाएगी कि नौवें दिन तक आते-आते किंकतव्र्यविमूढ़ हो गई। वजह साफ थी। टीम अन्ना की बेवकूफियों  व अपरिपक्वता की वजह से आंदोलन जनाधार खो चुका था। जब भीड़ नहीं जुटी तो उस टीम के होश फाख्ता हो गए, जो कि सबसे पहले व दूसरे अनशन के दौरान अपार जनसमर्थन की वजह से बौरा गई थी। जब मीडिया ने भीड़ की कमी को दिखाया तो अन्ना के समर्थक बौखला गए। उन्हीं मीडिया कर्मियों से बदतमीजी पर उतर आए, जिनकी बदौलत चंद दिनों में ही नेशनल फीगर बन गए थे। यहां तक कि सोशल मीडिया पर केजरवाल को भावी प्रधानमंत्री तक करार दिया जाने लगा।
असल में मीडिया किसी का सगा नहीं होता। वो तो उसने इसी कारण टीम अन्ना को जरूरत से ज्यादा उभारा क्योंकि उसे लग रहा था कि टीम एक अच्छे उद्देश्य के लिए काम कर रही है, मगर टीम अन्ना ने समझ लिया कि मीडिया उनका अनुयायी हो गया है। जैसे ही मीडिया तटस्थ हुआ और आंदोलन की कमियां भी उजागर करने लगा तो आंदोलन की रही सही हवा भी निकल गई। इसी के साथ यह भी साफ हो गया था कि पूरा आंदोलन टीवी व इंटरनेट पर की जा रही शोशेबाजी पर टिका हुआ था।
इस बार बलिदान होने की घोषणा करके अनशन पर बैठे अरविंद केजरीवाल की बुलंद आवाज तब ढ़ीली पड़ गई, जब आठ दिन बाद भी उन्हें सरकार ने तवज्जो नहीं दी। हालत ये हो गई कि अपना अनशन खुद ही तोड़ लेने का फैसला करना पड़ा। और बहाना बनाया इक्कीस लोगों की उस चि_ी को, जिस में पार्टी बनाने की कोई सलाह या उस में शामिल होने की कोई इच्छा नहीं लिखी गई थी। आंदोलन एक ऐसे मोड़ पर आ कर खड़ा हो गया, जहां मुंह बाये खड़ी जनता को जवाब देना जरूरी था। जवाब कुछ था नहीं, सो आखिर विकल्प के लिए वही रास्ता चुना, जिसके लिए वे लगातार आनाकानी करते रहे। अर्थात सत्ता परिवर्तन की मुहिम। व्यवस्था परिवर्तन तो कर नहीं पाए। हालांकि अधिसंख्य अन्ना समर्थक सहित खुद टीम अन्ना भी यह जानती है कि ये रास्ता कम से कम उनके हवाई संगठन के लिए धन के अभाव में कत्तई नामुमकिन है, मगर नकटे बन कर यही कह रहे हैं कि हम सत्ता परिवर्तन कर दिखाएंगे। अनेक ऐसे भी हैं, जो आंदोलन से जुड़ कर अब पछता रहे हैं कि यदि इसी प्रकार राजनीति में आना था तो काहे को समय बर्बाद किया। जिन्हें लोग असली राष्ट्रभक्त के रूप में सम्मान दे रहे थे, उन्हें अब उसी तरह हिकारत की नजर से देखा जाएगा, जैसा कि वे राजनीतिक कार्यकर्ताओं व नेताओं को देखा करते थे।
कुल मिला कर आंदोलन की निष्पत्ति ये है कि गलत रणनीतिकारों की मदद लेने से लाखों लोगों की आशा का केन्द्र अन्ना हजारे की चमक फीकी हो गई है, अलबत्ता उनकी छवि आज भी उजली ही है। बाकी पूरी टीम तो एक्सपोज हो गई है। शेष रह गया है आंदोलन, जो आज भी आमजन के दिलों में तो है, मगर उसे फिर नए मसीहा की जरूरत है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

शुक्रवार, अगस्त 03, 2012

दैनिक भास्कर व रजनीगंधा में से कौन सच्चा, कौन झूठा?



दैनिक भास्कर के 29 जुलाई के अंक में छपी खबर के साथ दी गई रिपोर्ट
पान मसाले पर भी प्रतिबंध लगाए जाने की दैनिक भास्कर की मुहिम के बीच एक विरोधाभासी मगर साथ ही हास्यास्पद तथ्य उभर कर सामने आया है। विरोधाभासी इसलिए कि एक ओर दैनिक भास्कर को मिली केन्द्रीय तंबाकू अनुसंधान संस्थान उर्फ सीटीआरआई, राजमुंदरी में बताया गया है कि पान मसाला रजनीगंधा में 2.26 प्रतिशत निकोटिन है, जो कि स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, जबकि दूसरी ओर रजनीगंधा ने एक विज्ञापन जारी कर खुलासा किया है कि सेंट्रल टोबेको रिसर्च इंस्टीट्यूट-इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रिकलचर, राजुमंदरी से यह प्रमाणित हो चुका है कि उनके उत्पाद में निकोटिन नहीं है। असल में ये संस्थान और इंस्टिट्यूट एक ही हैं, केवल हिंदी और अंग्रेजी में नाम का फर्क है। और हास्यास्पद इसलिए कि जिस पान मसाला विरोधी मुहिम के तहत दैनिक भास्कर ने 29 जुलाई के अंक में रजनीगंधा सहित अन्य पान मसालों के बारे में रिपोर्ट छापी है, उसी दैनिक भास्कर के 2 अगस्त के प्रथम पृष्ठ पर रजनीगंधा का विज्ञापन छापा है।
सवाल ये उठता है कि आखिर किसकी रिपोर्ट सही है? दैनिक भास्कर को मिली रिपोर्ट, जिसके आधार पर उसने मुहिम पर और अधिक जोर दिया है या फिर रजनीगंधा की ओर से उल्लेखित रिपोर्ट, जो कि बाकायदा विज्ञापन के जरिए बता रहा है कि उसके उत्पाद में न तम्बाकू है और न ही निकोटिन। इसलिए अपने पसंदीदा रजनीगंधा पान मसाला की शुद्धता का आनंद पूरे विश्वास के साथ लीजिए। एक ही संस्थान भला दो तरह की विरोधाभासी रिपोर्ट कैसे जारी कर सकता है? जरूर कोई घालमेल है। उससे भी अफसोसनाक ये कि जो समाचार पत्र पान मसाला विरोधी मुहिम का श्रेय ले रहा है और उत्पाद विशेष का हवाला दे रहा है, वह भला कैसे उसी पान मसाला का विज्ञापन छाप रहा है। ऐसा करके खुद भास्कर ने अपनी ही खबर का खंडन कर दिया है। मगर इससे पाठक तो भ्रमित हो रहा है। वह भला कहां जाए? उसे असलियत कौन बताएगा?
इतना ही नहीं इससे तो गुटका गोवा 1000, गुटका आरएमडी, खैनी राजा व खैनी चैनी-खैनी के बारे में छपी रिपोर्ट पर भी संदेह होता है, जिसमें बताया गया है कि उनमें क्रमश: 2.04, 1.88, 1.02 व .58 प्रतिशत निकोटिन है। और इस तरह से दैनिक भास्कर की वह मुहिम ही सिरे से खारिज होती नजर आ रही है, जिसके अनुसार सादा पान मसाला में भी निकोटिन मौजूद है, अत: उस पर भी रोक लगाई जानी चाहिए।
भास्कर में छपा  रजनीगंधा का  विज्ञापन
यहां बता दें कि भास्कर ने अपनी खबर में बताया है कि बाजार में जीरो टोबेको के नाम से बिक रहे मशहूर ब्रांडों के पान मसाला भी गुटखा और तंबाकू जितने ही खतरनाक हैं। इनमें गुटखा और तंबाकू उत्पादों से कहीं ज्यादा मात्रा में निकोटिन पाया गया है, जबकि यह जीरो प्रतिशत होना चाहिए। यह खुलासा केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की सिफारिश पर केंद्रीय तंबाकू अनुसंधान संस्थान सीटीआरआई, राजमुंदरी की जांच रिपोर्ट में हुआ। सीटीआरआई ने केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की सिफारिश पर बाजार में मौजूद पान मसाला, तंबाकू और गुटखा उत्पादों के सैंपल लेकर निकोटिन की मात्रा की जांच की थी। रजनीगंधा में 2.26 प्रतिशत निकोटिन पाया गया, जो सभी सैंपलों में सबसे ज्यादा था। सीटीआरआई तंबाकू पर शोध करने वाली केंद्र सरकार की सर्वोच्च संस्था है। यह संस्थान भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद आईसीएआर के अधीन काम करता है। इसकी रिपोर्ट विश्वसनीय मानी जाती है।
दैनिक भास्कर के तीन अगस्त की खबर में भी इसी बात पर जोर दिया जा गया है कि राज्य सरकार की ओर से गुटखे पर लगाई गई पाबंदी के आदेशों में हर उस खाद्य पदार्थ पर बैन है, जिसमें निकोटिन मिला है। इसके बावजूद प्रदेश में ऐसे पान मसाले की बिक्री खुले आम की जा रही है, जिनकी जांच में खतरनाक निकोटिन की पुष्टि हो चुकी है। सरकार अब इसे यह कहकर टाल रही है कि केंद्रीय कानून फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड एक्ट में संशोधन किए बिना रोक संभव नहीं है, लेकिन सरकार के आदेश में स्पष्ट है कि वे खाद्य पदार्थ, जिनमें निकोटिन है उनके भंडारण, उत्पादन व बिक्री पर रोक रहेगी।
लब्बोलुआब, बड़ा सवाल ये है कि जब सादा पान मसालों में निकोटिन होने की रिपोर्ट पर ही सवालिया निशान लग गया है तो दैनिक भास्कर की इस मुहिम के मायने ही क्या रह जाते हैं?
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, अगस्त 02, 2012

डॉ. शर्मा संभालेंगे पूरे देश में निशुल्क दवा योजना?


ऐसी चर्चा सुनने में आ रही है कि राजस्थान में मुख्यमंत्री निशुल्क दवा योजना को लागू करने में अहम भूमिका निभाने वाले राजस्थान मेडिकल सर्विसेज कारपोरेशन के प्रबंध निदेशक डॉ. समित शर्मा को यह योजना पूरे देश में लागू किए जाने की जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है। हालांकि राजस्थान में इस योजना को लागू करने के साथ कुछ विसंगतियां अब भी मौजूद हैं। साथ ही यह उतनी लोकप्रिय नहीं हो पाई, जितनी कि उम्मीद थी, मगर उसके लिए मूलत: योजना की कमी की बजाय अन्य कारकों को जिम्मेदार माना जा रहा है। अर्थात मोटे तौर पर योजना को सफल ही माना जा रहा है।
चूंकि योजना का खाका डॉ. शर्मा ने ही तैयार किया है और वे ही इसकी देखरेख कर रहे हैं, इस कारण केन्द्र सरकार पूरे देश में इसे लागू करवाने में उनकी मदद लेने की सोच रही है। इसी सिलसिले में केन्द्र सरकार के निर्देश पर पिछले दिनों उत्तरप्रदेश व महाराष्ट्र के मुख्य सचिवों के साथ हुई बैठक को इसे अमलीजामा पहनाने की दिशा में एक कदम माना जा रहा है।
शर्मा साहब, जरा इस पर भी गौर करिये-
बेशक यह योजना अपने आप में अनूठी है और किसी भी सरकार के लिए इससे बड़ी लोकहितकारी योजना नहीं हो सकती, मगर वर्षों से दवा माफियाओं के चंगुल में फंसा मेडिकल व्यवसाय अब भी इसमें बाधक बना हुआ है। इस महत्वाकांक्षी योजना का सबसे उल्लेखनीय पहलु ये है कि सरकार लाख कोशिशों के बाद भी दवा माफिया के कुप्रचार से नहीं निपट पाई है। आपको याद होगा कि योजना से पहले जब सरकार ने डॉक्टरों को जेनेरिक दवाई ही लिखने के लिए बाध्य किया, तब भी माफिया के निहित स्वार्थों के कारण उस पर ठीक से अमल नहीं हो पाया था। दवा माफिया ने ब्रांडेड और उन्नत किस्म की दवा के नाम पर बड़े पैमाने पर कमीशनबाजी चला रखी है। कमीशन के आदी हो चुके डॉक्टर अब भी इसी ढर्ऱे पर चल रहे हैं कि वे सरकार के कहने पर अमुक जेनेरिक दवाई लिख तो रहे हैं और वह अस्पताल में मिल भी जाएगी, मगर असर नहीं करेगी। यदि असरकारक दवाई चाहिए तो अमुक ब्रांडेड दवाई लेनी होगी।
असल में शुरू से यह कुप्रचार किया जाता रहा कि जेनेरिक दवाई सस्ती भले ही हो, मगर वह ब्रांडेड दवाइयों के मुकाबले घटिया है और उससे मरीज ठीक नहीं हो पाता। यह धारणा आज भी कायम है। इसकी खास वजह ये है कि सरकार के नुमाइंदे ये तो कहते रहे कि जेनेरिक दवाई अच्छी होती है, मगर आम जनता में उसके प्रति विश्वास कायम करने के कोई उपाय नहीं किए गए। इसी कारण दवा माफिया का दुष्प्रचार अब भी असर डाल रहा है।
हालांकि योजना से लोगों को काफी राहत मिली है, लेकिन अब भी इसकी पर्याप्त उपलब्धता नहीं हो पाई है। यह आशंका शुरू से थी कि क्या सरकार वाकई उतनी दवाई उपलब्ध करवा पाएगी, जितनी कि जरूरत है? क्या सरकार ने वाकई पूरा आकलन कर लिया है कि प्रतिदिन कितने मरीजों के लिए कितनी दवाई की खपत है? इसके अतिरिक्त क्या समय पर दवा कंपनियां माल सप्लाई कर पाएंगी? ये आशंकाएं सही ही निकलीं। सरकार यह सोच रही थी कि जब मरीज को अस्पताल में ही मुफ्त दवाई उपलब्ध करवा दी जाएगी तो वह बाजार में जाएगा ही नहीं, मगर जरूरत के मुताबिक दवाइयां उपलब्ध न करवा पाने के कारण वह सोच धरी रह गई है। हालत ये है कि मरीज अस्पताल में लंबी लाइन में लग कर पर्ची लिखवाने के बाद सरकारी स्टोर पर जाता है तो उसे छह में से चार दवाइयां मिलती ही नहीं। मजबूरी में उसे बाजार में जाना पड़ता है और वहां उसे ब्रांडेड दवाई ही खरीदनी पडती है।
एक छिपा हुआ तथ्य ये भी है कि जेनेरिक दवाई की गुणवत्ता कायम रखने का दावा भले ही जोरशोर से किया जा रहा हो, मगर असल स्थिति ये है कि टेंडर के जरिए दवा कंपनियों को दिए गए आदेश को लेकर उठे सवालों पर सरकार चुप्पी साधे बैठी है। ऐसे में यह सवाल तो कायम ही है कि जो कंपनी राजनीतिक प्रभाव अथवा कुछ ले-दे कर आदेश लेने में कामयाब हुई है, वह दवाई बनाने के मामले में कितनी ईमानदारी बरत नहीं होगी।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, जुलाई 29, 2012

टीम अन्ना : मीठा मीठा गप, कड़वा-कड़वा थू


मीडिया हकीकत दिखाए तो टीम अन्ना को बर्दाश्त नहीं
अब तक तो माना जाता था कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भाजपा की घोर प्रतिक्रियावादी संगठन हैं और उन्हें अपने प्रतिकूल कोई प्रतिक्रिया बर्दाश्त नहीं होती, मगर टीम अन्ना उनसे एक कदम आगे निकल गई प्रतीत होती है। मीडिया और खासकर इलैक्ट्रॉनिक मीडिया पर उसकी तारीफ की जाए अथवा उसकी गतिविधियों को पूरा कवरेज दिया जाए तो वह खुश रहती है और जैसे ही कवरेज में संयोगवश अथवा घटना के अनुरूप कवरेज में कमी हो अथवा कवरेज में उनके प्रतिकूल दृश्य उभर कर आए तो उसे कत्तई बर्दाश्त नहीं होता।
विभिन्न विवादों की वजह से दिन-ब-दिन घट रही लोकप्रियता के चलते जब इन दिनों दिल्ली में चल रहे टीम अन्ना के धरने व अनशन में भीड़ कम आई और उसे इलैक्ट्रॉनिक मीडिया ने दिखाया तो अन्ना समर्थक बौखला गए। उन्हें तब मिर्ची और ज्यादा लगी, जब यह दिखाया गया कि बाबा रामदेव के आने पर भीड़ जुटी और उनके जाते ही भीड़ भी गायब हो गई। शनिवार को हालात ये थी कि जब खुद अन्ना संबोधित कर रहे थे तो मात्र तीस सौ लोग ही मौजूद थे। इतनी कम भीड़ को जब टीवी पर दिखाए जाने लगा तो अन्ना समर्थकों ने मीडिया वालों को कवरेज करने से रोकने की कोशिश तक की।
टीम अन्ना की सदस्य किरण बेदी तो इतनी बौखलाई कि उन्होंने यह आरोप लगाने में जरा भी देरी नहीं की कि यूपीए सरकार ने मीडिया को आंदोलन को अंडरप्ले करने को कहा है। उन्होंने कहा कि इसके लिए केंद्र सरकार ने बाकायदा चि_ी लिखी है। उसे आंदोलन से खतरा महसूस हो रहा है।  ऐसा कह कर उन्होंने यह साबित कर दिया कि टीम अन्ना आंदोलन धरातल पर कम, जबकि टीवी और सोशल मीडिया पर ही ज्यादा चल रहा है। यह कहना ज्यादा उपयुक्त होगा कि टीवी और सोशल मीडिया के सहारे ही आंदोलन को बड़ा करके दिखाया जा रहा है। इससे भी गंभीर बात ये कि जैसे ही खुद के विवादों व कमजोरियों के चलते आंदोलन का बुखार कम होने लगा तो उसके लिए आत्मविश्लेषण करने की बजाया पूरा दोष ही मीडिया पर जड़ दिया। ऐसा कह कर उन्होंने सरकार को घेरा या नहीं, पर मीडिया को गाली जरूर दे दी। उसी मीडिया को, जिसकी बदौलत आंदोलन शिखर पर पहुंचा। यह दीगर बात है कि खुद अपनी घटिया हरकतों के चलते आंदोलन की हवा निकलती जा रही है। ऐसे में एक सवाल ये उठता है कि क्या वाकई मीडिया सरकार के कहने पर चलता है? यदि यह सही है तो क्या वजह थी कि अन्ना आंदोलन के पहले चरण में तमाम मीडिया अन्ना हजारे को दूसरा गांधी बताने को तुला था और सरकार की जम की बखिया उधेड़ रहा था? हकीकत तो ये है कि मीडिया पर तब ये आरोप तक लगने लगा था कि वह सुनियोजित तरीके से अन्ना आंदोलन को सौ गुणा बढ़ा-चढ़ा कर दिखा रहा है।
मीडिया ने जब अन्ना समर्थकों को उनका आइना दिखाया तो सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर बौखलाते हुए मीडिया को जम कर गालियां दी गईं। एक कार्टून में कुत्तों की शक्ल में तमाम न्यूज चैनलों के लोगो लगा कर दर्शाया गया कि उनको कटोरों में सोनिया गांधी टुकड़े डाल रही है। मीडिया को इससे बड़ी कोई गाली नहीं हो सकती।
एक बानगी और देखिए। एक अन्ना समर्थक ने एक न्यूज पोर्टल पर इस तरह की प्रतिक्रिया दी है:-
क्या इसलिए हो प्रेस की आजादी? अरे ऐसी आजादी से तो प्रेस की आजादी पर प्रतिबन्ध ही सही होगा । ऐसी मीडिया से सडऩे की बू आने लगी है। सड़ चुकी है ये मीडिया। ये वही मीडिया थी, जब पिछली बार अन्ना के आन्दोलन को दिन-रात एक कर कवर किया था। आज ये वही मीडिया जिसे सांप सूंघ गया है। ये इस देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा की कुछ लोग इस देश की भलाई के लिए अपना सब कुछ छोड़ कर लगे है, वही हमारी मीडिया पता नहीं क्यों सच्चाई को नजरंदाज कर रही है। इससे लोगों का भ्रम विश्वास में बदलने लगा है। कहीं हमारी मीडिया मैनेज तो नहीं हो गई है? अगर मीडिया आम लोगों से जुडी सच्चाई, इस देश की भलाई से जुड़ी खबरों को छापने के बजाय छुपाने लगे तो ऐसी मीडिया का कोई औचित्य नहीं। आज की मीडिया सिर्फ पैसे के ही बारे में ज्यादा सोचने लगी है। देश और देश के लोगों से इनका कोई लेना-देना नहीं। आज की मीडिया प्रायोजित समाचार को ज्यादा प्राथमिकता देने लगी है।
रविवार को जब छुट्टी के कारण भीड़ बढ़ी और उसे भी दिखाया तो एक महिला ने खुशी जाहिर करते हुए तमाम टीवी चैनलों से शिकायत की वह आंदोलन का लगातार लाइट प्रसारण क्यों नहीं करता? गनीमत है कि मीडिया ने संयम बरतते हुए दूसरे दिन भीड़ बढऩे पर उसे भी उल्लेखित किया। यदि वह भी प्रतिक्रिया में कवरेज दिखाना बंद कर देता तो आंदोलन का क्या हश्र होता, इसकी कल्पना की जा सकती है।
कुल मिला कर ऐसा प्रतीत होता है कि टीम अन्ना व उनके समर्थक घोर प्रतिक्रियावादी हैं। उन्हें अपनी बुराई सुनना कत्तई बर्दाश्त नहीं है। यदि यकीन न हो तो सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर जरा टीम अन्ना की थोड़ी सी वास्तविक बुराई करके देखिए, पूरे दिन इसी काम के लिए लगे उनके समर्थक आपको फाड़ कर खा जाने तो उतारु हो जाएंगे।
वस्तुत: टीम अन्ना व उनके समर्थक हताश हैं। उन्हें समझ नहीं आ रहा कि जिस आंदोलन ने पूरे देश को एक साथ खड़ा कर दिया था, आज उसी आंदोलन में लोगों की भागीदारी कम क्यों हो रही है।

-तेजवानी गिरधर