तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

बुधवार, जून 06, 2012

वसुंधरा को डुबाने वाले माथुर अब उनके मुरीद कैसे हो गए?

प्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे व संघ लॉबी के बीच चल रहे विवाद पर हालांकि भाजपा हाईकमान ने अंतिम निर्णय नहीं दिया है अथवा निर्णय किया भी है तो उसे घोषित नहीं किया है, या फिर घोषणा करने से होने वाले संभावित नुकसान के कारण फिलहाल चुप है, मगर प्रदेश भाजपा के पूर्व अध्यक्ष ओम प्रकाश माथुर को कुछ ज्यादा ही जल्दी है। उन्होंने तो घोषित कर ही दिया है कि राजस्थान में आगामी चुनाव भाजपा श्रीमती वसुंधरा राजे के नेतृत्व में ही लड़ेगी। ये स्थिति तब है, जबकि पूर्व प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी के वसुंधरा को भावी मुख्यमंत्री होने पर गुलाब चंद कटारिया व ललित किशोर चतुर्वेदी ने असहमति जताई थी और उसकी परिणति कटारिया की यात्रा के विवाद के रूप में पार्टी को झेलनी पड़ी।
हालांकि अंदरखाने की खबर यही है और भाजपा के पास मौजूदा हालात में वसुंधरा राजे के अलावा कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है, मगर चूंकि साफ तौर पर वसुंधरा का नाम घोषित करने से संघ खेमा सक्रिय हो जाएगा और पार्टी में पहले से मौजूद धड़ेबाजी और बढ़ जाएगी, इस कारण हाईकमान ने फिलहाल मौन धारण कर रखा है, मगर माथुर हाल ही अजमेर आए तो पत्रकारों से बात करते हुए घोषणा कर गए, मानों उन्हें ऐसा करने के लिए अधिकृत किया गया हो। माना कि सवाल पत्रकारों ने ही उठाया था, मगर माथुर तो मानों इसी सवाल का इंतजार कर रहे थे, ताकि वसुंधरा के प्रति अपनी वफादारी जता सकें। उनकी इस घोषणा से एक बार फिर पार्टी के भीतर बहस छिड़ गई है। विशेष रूप से यह कि आज अचानक माथुर का वसुंधरा प्रेम कैसे जाग गया?
पार्टी नेताओं को अच्छी तरह से याद है कि पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी की हार के लिए जो कारण तलाशे गए थे, उनमें एक यह भी था कि टिकट वितरण में माथुर का अडिय़ल रवैया तकलीफ दे गया। हाईकमान तो समझ रहा था कि अगर दुबारा सत्ता में आना है तो वसुंधरा को फ्री हैंड देना ही होगा, मगर माथुर अड़ गए और अपने कुछ चहेतों को टिकट दिलवाने के चक्कर में कुछ सीटें हरवा दीं। अगर वे उस वक्त जिद नहीं करते तो वसुंधरा के दुबारा मुख्यमंत्री बनने में कोई बाधा नहीं थी। इसका परिणाम ये हुआ कि जब पार्टी की हार की समीक्षा की गई तो इसके लिए माथुर को भी जिम्मेदार माना गया। और यही वजह थी कि उन्हें हार की जिम्मेदारी लेते हुए अध्यक्ष पद छोडऩा पड़ा। हालांकि हार जिम्मेदारी वसुंधरा पर भी आयद की गई, इसी कारण उन्हें विधानसभा में विपक्ष के नेता का पद छोडऩे को कहा गया। ये बात दीगर है कि अधिसंख्य विधायकों के समर्थन की वजह से कई दिन तक तो उन्होंने पद नहीं छोड़ा और छोड़ा भी तो किसी और को उस पद पर काबिज नहीं होने दिया। आखिरकार एक साल बाद फिर उन्हें ही अनुनय विनय करके यह पद संभालने को कहा गया।
खैर बात चल रही थी माथुर की तो जैसे ही उन्होंने वसुंधरा के नेतृत्व में चुनाव लडऩे की बात कही तो सभी चौंके कि इस बार कौन सी गणित ले कर आने वाले हैं। कयास ये भी लगाए जा रहे हैं कि कहीं उन्हें पुन: अध्यक्ष पद सौंप कर वसुंधरा के नेतृत्व में चुनाव लडऩे की रणनीति तो नहीं बनाई जा रही या वे हकीकत से वाकिफ हैं, इस कारण अपने चहेतों की टिकटें पक्की करने के लिए अभी से वसुंधरा जिंदाबाद कह रहे हैं। वे फिर महत्वपूर्ण भूमिका में होंगे, इसके संकेत उन्होंने यह कह कर भी दिये कि अगर वे पिछले दिनों में जयपुर में हुई कोर कमेटी की बैठक में होते तो वरिष्ठ नेता गुलाब चंद कटारिया के यात्रा विवाद को तूल नहीं पकडऩे देते। उनके इस कथन को राजस्थान पत्रिका ने डींग हांकने की संज्ञा तो दी ही, साथ यह भी खुलासा किया कि वे कोर कमेटी की बैठक में मौजूद थे। पत्रकारों से प्रतिप्रश्न किया तो सरासर झूठ ही बोल गए कि वे उस दिन जैसलमेल में थे, मीडिया को गलत जानकारी है कि वे बैठक में मौजूद थे। वे झूठ क्यों बोले, इसका तो पता नहीं, मगर पार्टी नेता उनके इस बयान पर जरूर गौर कर रहे हैं कि वे यह दावा कैसे कर सकते हैं? जिस व्यक्ति की जिद के चक्कर में पार्टी को हार का सामना करना पड़ा हो वही अगर ये कहे कि वे होते तो विवाद नहीं होता, हास्यास्पद ही लगता है।
खैर, जो भी हो, माथुर की बॉडी लैंग्वेज यही बता रही थी कि वे फिर महत्वपूर्ण भूमिका में आ रहे हैं। उनके अब अहम रोल अदा करने को पार्टी के अन्य नेता व कार्यकर्ता और विशेष रूप से टिकट के दावेदार किस रूप में लेते हैं, इस बात को छोड़ भी दिया जाए तो वसुंधरा को तो कम से सोच समझ कर चलना होगा। कहीं वे फिर वसुंधरा को मिलने वाले फ्री हैंड में फच्चर तो नहीं डालेंगे। 

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

शुक्रवार, जून 01, 2012

आडवाणी को रिटायर होने की सलाह देने वाले अंशुमान हैं कौन?

भाजपा के वरिष्ठ नेता व पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने जैसे ही अपने ब्लाग में बीजेपी : एक हब आफ होप शीर्षक से आलेख लिख कर अपनी ही पार्टी की आलोचना की तो पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी के करीबी अंशुमान मिश्रा ने आडवाणी को पत्र लिख कर रिटायर होने की सलाह दे डाली। उन्होंने आडवाणी को सुषमा स्वराज, अरुण जेटली और नरेंद्र मोदी जैसे नेताओं को मौका देने की सलाह देते हुए कहा कि देश को ए के हंगल नहीं, आमिर और रणबीर कपूर की जरूरत है।
आइये जानते हैं कि ये अंशुमान मिश्रा हैं कौन? ये वे ही हैं जो पिछले दिनों राज्यसभा चुनाव के दौरान चर्चा में आए थे। निर्दलीय के रूप में राज्यसभा पहुंचने की तमन्ना लिए अंशुमान को जब भाजपा ने यह कह कर समर्थन देने से इंकार कर दिया कि उसके विधायक झारखंड में वोट ही नहीं डालेंगे तो अंशुमान मिश्रा को अपना नामांकन वापस लेना पड़ा। इस पर वे नाराज हो गए और उन्होंने धमकी दी थी कि वे एक-एक करके सभी भाजपा नेताओं को नंगा करेंगे। सबसे पहला नंबर उन्होंने डा. मुरली मनोहर जोशी का लिया और आरोप लगाया कि 2जी घोटाले की जांच करते समय उसने कुछ उन कंपनियों के अधिकारियों से जोशी की मुलाकात करवाई थी, जो 2जी घोटाले के आरोपी थे। मतलब साफ है कि अंशुमान विरोधी उनको शाहिद बलवा का करीबी बता कर उसका राज्यसभा टिकट काट रहे थे, तो वही अंशुमान मिश्रा उन्हीं टूजी आरोपियों से भाजपा को शिकार करने में जुट गए। मिश्रा ने खुली चुनौती दे दी है कि जोशी के फोन रिकार्ड जांच लिये जाएं, सारी सच्चाई सामने आ जाएगी। अंशुमान सिंह की इस हरकत पर समाचार विश्लेषकों का मानना था कि वे भाजपा के नए भस्मासुर साबित हो सकते हैं।
मीडिया यह पता लगाने में जुट गया था कि आखिर अंशुमान मिश्रा हैं कौन? बताया जाता है वे मूलत: उत्तर प्रदेश के कुशीनगर के रहनेवाले हैं। उनकी जड़ें उत्तर प्रदेश में ज्यादा गहरी हैं । राजनीति की एबीसीडी उन्होंने महर्षि महेश योगी के आश्रम ओहियो में सीखी। उन्होंने वहां जम कर तरक्की की। उनका दावा है कि विदेशों में रहने के दौरान वे ओवरसीज फ्रेंड्स आफ बीजेपी का काम भी देखते थे और भाजपा के लिए चंदा भी उगाहते थे। इस चंदा उगाही के कारण बकौल मिश्रा लालकृष्ण आडवाणी व डा. मुरली मनोहर जोशी सहित अनेक नेताओं के करीबी हो गए। मिश्रा का दावा है कि उसे ये सारे नेता उसे फोन करते थे। अंशुमान मिश्रा की पकड़ नरेन्द्र मोदी तक भी थी और 2011 में जब मोदी ने महात्मा मन्दिर में वाइब्रंट गुजरात का आयोजन किया था तो यह अंशुमान मिश्रा फ्रंट सीट के अतिथि थे।
पिछले विधानसभा चुनाव में गडकरी ने उत्तर प्रदेश के शीर्ष नेतृत्व को अंशुमान मिश्र की प्रतिभा की जानकारी देते हुए कहा था ये हर तरह की मदद करेंगे। बताया जाता है कि अंशुमान ने इससे पहले पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी पर दबाव डाल कर न सिर्फ शीर्ष पदों पर नियुक्तियां करवाई, बल्कि पार्टी के पुराने कार्यकर्ता गिरिजेश शाही का टिकट कटवा कर अपने भाई राजीव मिश्रा को टिकट दिलवा दिया। इस पर शाही बागी हो गए और उन्हें दूसरे नंबर पर 44687 वोट मिले, जबकि राजीव मिश्रा को 17442 वोट ही मिल पाए। यहां उल्लेखनीय है कि राज्यसभा चुनाव में भले ही पार्टी ने उनसे दूरी जहिर की मगर इससे पूर्व वे गडकरी के निर्देश पर पार्टी के जन संपर्क अभियान की अप्रत्यक्ष कमान संभाले रहे थे। गोरखपुर रैली में अंशुमान मिश्र गडकरी के साथ ही मंच पर भी मौजूद थे।
बहरहाल, हाल ही जब उन्होंने आडवाणी को इस्तीफे की सलाद दी है तो अनुमान लगाया जा रहा है कि या तो उन्होंने ऐसा गडकरी के इशारे पर किया है या फिर गडकरी के प्रति अपनी वफादारी जाहिर करने के लिए उन्होंने ऐसा किया है।

-तेजवानी गिरधर
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tejwanig@gmail.com

गुरुवार, मई 31, 2012

आडवाणी के ब्लाग में इस आलेख पर हो रहा है विवाद

भाजपा के वरिष्ठ नेता व पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने अपने ब्लाग में बीजेपी : एक हब आफ होप शीर्षक से लिखे आलेख अपनी ही पार्टी की आलोचना की है। आडवाणी ने कहा है कि पार्टी में उत्साह नहीं है और पार्टी को अपने भीतर झांकना होगा। ब्लाग में आडवाणी ने कहा है, पार्टी में आजकल जीत का मूड नहीं है। उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजे, मायावती द्वारा हटाए गए मंत्री को पार्टी में लिए जाने, झारखंड और कर्नाटक के मामले में पार्टी के रवैये के चलते पार्टी के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान को धक्का लगा है। इन मुद्दों पर आडवाणी और पार्टी के अध्यक्ष नितिन गडकरी के बीच मतभेद खुलकर सामने आ गया है। माना जा रहा है कि आडवाणी से नाराज हैं। समझा जाता है कि एक तो आडवाणी गडकरी को दुबारा अध्यक्ष बनाने के खिलाफ हैं और दूसरा नरेंद्र मोदी द्वारा दबाव बना कर संजय जोशी का इस्तीफा दिलवाए जाने से नाराज हैं। कांग्रेस की नेता व मंत्री अंबिका सोनी ने इस ब्लाग पर चुटकी लेते हुए कहा है कि हम लोग तो पहले से ही कह रहे हैं कि बीजेपी को पहले अपना घर दुरुस्त करना चाहिए। मुझे उम्मीद है कि बीजेपी आडवाणी की बात सुनेगी।
बहरहाल, बतौर आपकी जानकारी अंग्रेजी भाषा में लिखे गए इस आलेख को यहां प्रस्तुत किया जा रहा है:-
BJP : A HUB OF HOPE
Politicians are generally critical of media persons. It is, however, rare that media men themselves ridicule their own fraternity for indulging in political criticism not because it is justified but because even while realizing that the criticism is uninformed and superficial, the write ups do add up to �lazy copy�.
swapan-dasguptaSwapan Dasgupta is an eminent journalist who commands great respect in the capital. His page one piece every Sunday in the Pioneer is read with great interest. His latest column (May 27, 2012) is a severe comment on the media which he holds �shapes the tone and tenor of the chattering class discourse�.
Under caption �Media creates its own realities�, Dasgupta wrote last Sunday: �Given the fact that the media thrives on stereotypes, caricatures�. it was not very surprising that the bite brigade that descended on Mumbai last week for the BJP National Executive was looking for reaffirmations of set conclusions.�
Swapan added a perceptive summing up :
�That everyone in the BJP is not on the same page is a truism. No political party in India, not even the CPI(M), possesses an army where every member of the officer corps think alike. This is democratic normalcy and it is only in India that the media projects the ideal of politics crafted on the North Korean model.�(A Marxist uniformity !)
However, when these days media-persons attack the UPA Government for its string of scams, but at the same time regret that the BJP led NDA is not rising to the occasion, I as a former pressman myself, feel they are reflecting public opinion correctly.
At a meeting of the BJP�s Core Committee some weeks back, a meeting attended by several senior RSS leaders I had reminisced about my sixty years� political journey since the launching of the Bharatiya Jana Sangh in 1951 by Dr. Syama Prasad Mookerji. I had said that thinking of the party�s successes and failures during these sixty years, I cannot think of a more depressing year than 1984, when in the Eighth Lok Sabha Elections that took place that year, our party had put up 229 candidates. Our score in the Lok Sabha was a miserable two, one from Gujarat and the other from Andhra. In all the other states of the country, including U.P., Bihar, Rajasthan, Madhya Pradesh, Maharashtra, we had drawn a blank. Even in the first General Elections to the Lok Sabha in 1952, our party had captured three seats, more than in 1984 !
In 1984 I was Party President and so felt extremely downcast. But I also remember that the party had set up a Committee headed by Krishan Lal Sharma to analyse the poll results objectively. The Committee had reported that in the rank and file of the party as also in our support base, there was no demoralization because of the electoral setback, which was being attributed to the dastardly assassination of Smt. Gandhi by terrorists and a powerful sympathy wave for young Rajiv Gandhi.
The mood within the party these days is not upbeat. The results in Uttar Pradesh, the manner in which the party welcomed BSP Ministers who were removed by Mayawati ji on charges of corruption, the party�s handling of Jharkhand and Karnataka � all these events have undermined the party�s campaign against corruption.
The fact that we have a sizable contingent of MPs in Parliament today as against the niggardly two seats in 1984, that our performance in the two Houses under Sushmaji and Jaitleyji has been excellent, that the party is in power in as many as nine states today is no compensation for the lapses committed. I had said at the Core Group meeting that if people are today angry with the U.P.A. Government, they are also disappointed with us. The situation, I said, calls for introspection.
यह आलेख इंटरनेट पर निम्नलिखित लिंक पर मौजूद है।
http://blog.lkadvani.in/blog-in-english/bjp-a-hub-of-hope

-तेजवानी गिरधर
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शुक्रवार, मई 25, 2012

नितिन गडकरी पर हावी हैं वसुंधरा व मोदी

कांग्रेस कमजोर, मगर खुद अपने में उलझी है भाजपा
एक ओर जहां केंद्र की यूपीए सरकार भ्रष्टाचार, घोटाले और महंगाई जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों की वजह से बुरी तरह घिरी हुई है और उसके दुबारा सत्ता में आने की संभावना क्षीण होने लगी है, वहीं भाजपा मौके का फायदा उठाने की बजाय खुद अपने में ही उलझी हुई है। एक ओर जहां उसे मुंबई में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की दो दिवसीय बैठक शुरू होने से ठीक पहले नरेंद्र मोदी को राजी करने के लिए संजय जोशी का राष्ट्रीय कार्यकारिणी से इस्तीफा दे कर शहीद करना पड़ा, वहीं राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा की दादागिरी के आगे झुक कर संघ लाबी को फिलहाल चुप रहने का अनुनय करना पड़ रहा है। उधर कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा ने भी हाईकमान की नींद हराम कर रखी है।
जहां तक मोदी का सवाल है, वे मीडिया द्वारा योजनाबद्ध तरीके से प्रोजेक्ट किए जाने के कारण केन्द्रीय नेताओं के बराबर आ खड़े हुए हैं। उन्हें भाजपा की ओर भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखा जा रहा है। जाहिर सी बात है कि वे अब इतने मजबूत हो गए हैं कि हाईकमान उन्हें चाह कर नजरअंदाज नहीं कर सकता। नजरअंदाज करना तो दूर उसे तो उनके लिए पलक पांवड़े बिछाने की नौबत आ गई है। और उसके एवज में संघ पृष्ठभूमि के संजय जोशी का कार्यसमिति से इस्तीफा लेना पड़ गया।
यहां उल्लेखनीय है कि संघ के जाने-माने चेहरे संजय जोशी नितिन गडकरी के करीबी माने जाते हैं। यूपी विधानसभा चुनाव से पहले पार्टी में उनकी पार्टी में वापसी हुई थी और चुनाव अभियान का सह-संयोजक बना दिया गया था। इससे नाराज मोदी ने यूपी में चुनाव प्रचार करने से इनकार कर दिया था। मोदी, संजय जोशी को लेकर इतने नाराज थे कि उन्होंने राष्ट्रीय कार्यकारिणी में भी नहीं आने के संकेत दिए थे। वे तभी आए जब कि गडकरी ने संजय जोशी को इस्तीफे के लिए राजी कर लिया।
यह ऐसी शख्सियत का इस्तीफा है जो संघ से बीजेपी में भेजे गए और पार्टी के ताकतवर संगठन मंत्री हुआ करते थे। जिन्ना विवाद के बाद उन्होंने ही लालकृष्ण आडवाणी को बीजेपी अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के लिए बाध्य किया था। वो तो उनकी एक अश्लील सीडी आने के कारण उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था। बाद में जांच में क्लीन चिट मिलने पर वापस लिया गया। हाल ही इस्तीफा देते वक्त जोशी का यह बयान कि वे नहीं चाहते कि पार्टी में उनकी वजह से मनमुटाव हो, उनकी मजबूरी को साफ जाहिर करता है। इसी कारण जोशी के इस्तीफे को गडकरी और मोदी के बीच चल रहे विवाद में मोदी की जीत के रूप में भी देखा जा रहा है।
देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के अध्यक्ष गडकरी की हालत देखिये कि मोदी के बैठक में शामिल होने की पुष्टि का बयान देते हुए उन्हें अपनी ही पार्टी के नेता मोदी के लिए यह कहना पड़ रहा है कि उन्होंने विश्वास दिलाया है कि वे कंघे से कंघा मिला कर काम करेंगे। कैसी विडंबना है? आखिरकार मोदी पार्टी के ही नेता हैं, उन्हें तो पार्टी के लिए काम करना ही है, करना ही चाहिए, मगर चूंकि उनका कद बड़ा हो गया है, इस कारण वे पार्टी के लिए काम करेंगे, इसे रेखांकित करते हुए कहना पड़ रहा है। बहरहाल, मोदी को भले ही उन्होंने राजी कर लिया हो, मगर गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री केशूभाई पटेल को भी पटा कर रखना टेढ़ी खीर होगा।
राजस्थान की बात करें तो यहां भी वसुंधरा पार्टी से इतनी बड़ी हो गईं कि उनके गुस्से को देखते हुए दिग्गज नेता गुलाब चंद कटारिया को मजबूरी में अपनी रथ यात्रा को रद्द करने की घोषणा करनी पड़ी। यह भी तब जब कि संघ लाबी उनके साथ है और गडकरी ने ही उन्हें यात्रा का अनुमति दी थी। अंदाजा लगाया जा सकता है कि वसुंधरा की ताकत के आगे झुकते हुए संघ लाबी को राजी करने में गडकरी को कितना जोर आ रहा होगा। जैसी कि संभावना है कि वसुंधरा को राजस्थान में फ्रीहैंड देना ही होगा।
इन दोनों प्रकरणों में एक समानता ये है कि दोनों ही नेता मोदी व वसुंधरा अपने अपने राज्य में पार्टी से इतर खुद अपना वजूद खड़ा किए हुए हैं और दोनों के ही मामले में संघ समझौता करने को मजबूर है। हालांकि आज संघ के पास हालात के मद्देनजर समझौता करने के सिवाय कोई चारा नहीं है, मगर यह अंनद्र्वद्व पार्टी को दोनों राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में भारी पड़ सकता है। सीधी सी बात है कि उसका असर लोकसभा चुनाव पर भी होगा। ऐसे में पार्टी के कार्यकर्ताओं को कितना मलाल होगा कि एक धक्का मारने पर गिर जाने वाली कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने पर ध्यान देने की बजाय गडकरी को अपनी पार्टी के नेताओं से ही जूझना पड़ रहा है। एक और महत्वपूर्ण बात ये भी कि संघ जैसे सशक्त मातृ संगठन के राजनीति मंच भाजपा पर गैर संघी हावी होते जा रहे हैं, जो कि संघ के लिए गहरी चिंता का विषय है। 

-तेजवानी गिरधर
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गुरुवार, मई 24, 2012

क्या हैं राजवी पर गडकरी व आडवाणी की कृपा के मायने?

आडवाणी व गडकरी की चादर चढाने जाते राजवी
सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह में पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवानी तथा भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी की चादर पूर्व उपराष्ट्रपति स्व. भैरोसिंह शेखावत के नाती अभिमन्यु सिंह द्वारा चढ़ाए जाने से सभी भाजपा नेता व कार्यकर्ता चौंक गए हैं। राजवी को भाजपा के दोनों नेताओं की ओर से यह अहम जिम्मेदारी दिए जाने के मायने निकाले जा रहे हैं।
असल में इस घटना को वर्तमान में भाजपा अध्यक्ष गडकरी व पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के बीच हुए विवाद से जोड़ कर देखा जा रहा है। गडकरी के भाजपा नेता गुलाब चंद कटारिया की यात्रा को हरी झंडी दिए जाने से ही तो वसुंधरा राजे खफा हुई थीं और अपनी ताकत दिखाने के लिए विधायकों के इस्तीफे जमा किए थे। हालांकि विवाद बढऩे पर कटारिया ने यात्रा को स्थगित करने की घोषणा कर दी, मगर विवाद सीधा गडकरी से हो गया। दूसरी ओर सब जानते हैं कि वसुंधरा व राजवी के नाना पूर्व उप राष्ट्रपति स्वर्गीय भैरोंसिंह शेखावत के बीच छत्तीस आंकड़ा था। उस वक्त वसुंधरा मुख्यमंत्री थीं और शेखावत के इतना खिलाफ थीं कि प्रदेश के भाजपा नेता शेखावत से मिलने से भी घबराने व कतराने लगे थे। उसी का परिणाम रहा कि किसी समय में राजस्थान के एक ही सिंह के नाम से प्रसिद्ध शेखावत अपने प्रदेश में ही बेगाने से हो गए थे। दरअसल उपराष्ट्रपति पद से निवृत्त होने के बाद जब शेखावत जयपुर लौटे तो वसुंधरा को लगा कि कहीं वे फिर से पावरफुल न हो जाएं, सो वे उन्हें कमजोर करने में लग गईं। हालांकि उपराष्ट्रपति पद पर रहने के बाद शेखावत के फिर मुख्यमंत्री पद की दावेदारी करने की संभावना न के बराबर थी, मगर उनके दामाद नरपत सिंह राजवी तेजी से उभर रहे थे। वसुंधरा जानती थीं कि राजवी ताकतवर हुए तो उनकी मुख्यमंत्री पद की दावेदारी को चुनौती दे सकते हैं, सो उन्होंने शेखावत व राजवी दोनों को कमजोर करना शुरू कर दिया।
आप जानते होंगे कि राजवी के पुत्र अभिमन्यु सिंह हाल ही सक्रिय हुए हैं। उन्होंने अपने नाना की प्रतिमा खाचरियावास में स्थापित करने के सिलसिले में अग्रणी भूमिका निभा कर अपनी उपस्थिति दर्शायी थी। उस कार्यक्रम में आडवाणी व वसुंधरा सहित अनेक बड़े भाजपा नेताओं ने शिरकत की थी। अजमेर में भी उन्होंने एक प्रेस कान्फे्रंस आयोजित की थी। तभी लग गया था कि वे राजनीति में सक्रिय रूप से आने की तैयारी कर रहे हैं। इस कयास पर मौजूदा चादर प्रकरण ने मुहर लगा दी है। इससे एक तो यह स्थापित हो गया है कि उनकी आडवाणी व गडकरी से कितनी नजदीकी है। दूसरा चादर चढ़ाने के लिए पूरे राजस्थान में कई दिग्गज नेताओं को छोड़ कर अभिमन्यु सिंह को यह जिम्मेदारी दिए जाने से यह संदेश जाता है कि वे उन्हें पूरी तवज्जो देना चाहते हैं। आडवाणी की छोडि़ए, मगर गडकरी चाहते तो पार्टी संगठन के प्रदेश अध्यक्ष अथवा किसी जिम्मेदार पदाधिकारी को यह काम सौंप सकते थे, मगर उन्होंने राजवी को ही चुना, जिसका बेशक खास महत्व है।
समझा जाता है कि ऐसा करके आडवाणी व गडकरी अथवा यूं कहिए भाजपा हाईकमान राजस्थान में पूरी तरह से हाशिये पर लाए गए राजवी परिवार पर हाथ रख रहा है। इस प्रकार वह राजस्थान में नए राजपूत नेतृत्व को आगे लाना चाहता है, ताकि वसुंधरा की एकतरफा दादागिरी पर अंकुश लगाया जा सके। इसके अतिरिक्त इससे अमूमन भाजपा मानसिकता के राजपूत समाज और शेखावत के निजी समर्थकों को भी अच्छा संदेश जाएगा। हालांकि यह कहना बेवकूफी ही कहलाएगी कि वह राजवी को वसुंधरा के बराबर ला कर खड़ा करना चाहता है, मगर इतना तो तय है कि राजवी परिवार का मजबूत होना वसुंधरा के लिए चिंता का कारण तो बन ही सकता है। जिस परिवार के शेखावत व नरपत सिंह राजवी को उन्होंने निपटाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी, उसी परिवार का सूरज उदय होता है तो ये परेशानी वाली ही बात होगी। अब ये तो वक्त ही बताएगा कि अभिमन्यु सिंह अपने नाना व पिता के साथ हुए व्यवहार का बदला चुका पाते हैं या नहीं। 

-तेजवानी गिरधर
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बुधवार, मई 16, 2012

जिन्होंने पीठ थपथपाई, क्या उन्हीं पीठ में खंजर नहीं भोंका वसुंधरा ने?

भैरोंसिंह शेखावत
जीते जी जो शख्स दुश्मन होता है, वहीं दिवंगत हो जाने के बाद कैसे महान दिखाई देने लग जाता है, इसका ताजा उदाहरण पेश किया है पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा सिंधिया ने। सीकर जिले के खाचरियावास गांव में पूर्व उपराष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत की पुण्यतिथि पर आयोजित आदमकद मूर्ति अनावरण समारोह में उन्होंने इतना भावभीना भाषण दिया, मानो वे वाकई उनका आजीवन सम्मान करती रही थीं। तस्वीर का दूसरा रुख ये है कि ये वे ही वसुंधरा हैं, जिनकी वजह से राजस्थान के सिंह कहलाने वाले स्वर्गीय शेखावत जी अपने प्रदेश में ही बेगाने से हो गए थे। अगर ये कहें कि आज भी बेगाने हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। पार्टी के स्तर पर अब भी उनकी जयंती या पुण्यतिथि पर कोई बड़ा कार्यक्रम नहीं होता। यह कार्यक्रम भी राजवी परिवार की पहल पर आयोजित किया गया था।
आइये, देखते हैं कि मूर्ति अनावरण समारोह में वसुंधरा ने क्या-क्या कहा। शेखावत जी की महानता का बखान करते हुए उन्होंने कहा कि स्वर्गीय भैरोंसिंह शेखावत ने राजस्थान में भाजपा का झंडा हमेशा बुलंद रखा। वे हमेशा रोशनी की पहली किरण उस जगह पहुंचाने की तरफदारी करते थे, जहां कभी उजाला पहुंचा ही न हो। सवाल ये उठता है कि अगर ऐसी ही उनकी मान्यता रही है तो आखिर क्या वजह थी कि उपराष्ट्रपति पद से निवृत्त हो कर जब शेखावत राजस्थान में आए तो भाजपाई उनसे कतराते थे?
वसुंधरा ने कहा कि 1996 में शेखावत अपना इलाज कराने अमेरिका गये थे, तब एक ओर से तो वे मौत से संघर्ष कर रहे थे और दूसरी ओर उनकी सरकार गिराने का राजस्थान में षडय़ंत्र चल रहा था। लेकिन जिसकी भगवान रक्षा करता है उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाता। इसीलिये विदेश में उनका आपरेशन सफल हुआ और यहां राजस्थान में उनके खिलाफ रचा गया षडय़ंत्र असफल। उनके इस कथन से क्या यह सवाल उठता है कि क्या खुद वसुंधरा ने शेखावत का वजूद को समाप्त करने का षडयंत्र नहीं रचा था?
उन्होंने कहा कि अटल जी, आडवाणी जी, राजमाता विजयाराजे सिंधिया साहब और भैरोंसिंह जी शेखावत भाजपा की वो मजबूत शाखाएं थीं, जिन्होंने भाजपा को न केवल सींचा, बल्कि भाजपा के कमल को गांव-गांव, ढाणी-ढाणी और घर-घर खिलाया। सवाल उठता है कि क्या उसी मजबूत शाखा की जड़ों में छाछ डालने का काम वसुंधरा ने नहीं किया?
वसुंधरा ने कहा कि उनके जीवन में दो महत्वपूर्ण अवसर आए, जब उन्होंने मेरी पीठ थपथपाई। पहला अवसर था, जब वे पहली बार 1985 में विधायक बनीं। शेखावत जी ने फरमान जारी कर दिया कि हिन्दी में बोलना है। हिन्दी में स्पीच देना बहुत कठिन था, पर डर था शेखावत जी का। तैयारी करके बोली तो मेरी पीठ थपथपाई और लड्डू बंटवाए। सवाल से उठता है कि क्या उसी महान शख्स की पीठ में वसुंधरा ने राजनीतिक खंजर भोंकने की कोशिश नहीं की?
वसुंधरा ने कहा कि 83 वर्ष की उम्र में उन्होंने पैरिस के एफिल टावर पर चढ़ कर बता दिया कि अभी भी उनमें दम है। सवाल ये उठता है कि ऐसे दमदार शख्स का दम निकालने की कोशिश वसुंधरा ने नहीं तो किसने की थी?
दरअसल शेखावत के राजस्थान लौटते ही दोनों के बीच छत्तीस का आंकड़ा हो गया था। वसुंधरा अपने कार्यकाल में इतनी आक्रामक थीं कि भाजपाई शेखावत की परछाई से भी परहेज करने लगे थे। कई दिन तक तो वे सार्वजनिक जीवन में दिखाई ही नहीं दिए। इसी संदर्भ में अजमेर की बात करें तो लोग भलीभांति जानते हैं कि जब वे दिल्ली से लौट कर दो बार अजमेर आए तो उनकी अगुवानी करने को चंद दिलेर भाजपा नेता ही साहस जुटा पाए थे। शेखावत जी की भतीजी संतोष कंवर शेखावत, युवा भाजपा नेता भंवर सिंह पलाड़ा और पूर्व मनोनीत पार्षद सत्यनारायण गर्ग सहित चंद नेता ही उनका स्वागत करने पहुंचे। अधिसंख्य भाजपा नेता और दोनों तत्कालीन विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी व श्रीमती अनिता भदेल ने उनसे दूरी ही बनाए रखी। वजह थी मात्र ये कि अगर वे शेखावत से मिलने गए तो मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया नाराज हो जाएंगी। पूरे प्रदेश के भाजपाइयों में खौफ था कि वर्षों तक पार्टी की सेवा करने वाले वरिष्ठ नेताओं को खंडहर करार दे कर हाशिये पर धकेल देने वाली वसु मैडम अगर खफा हो गईं तो वे कहीं के नहीं रहेंगे।
असल में एक बार मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने तय कर लिया था कि अब राजस्थान को अपने कब्जे में ही रखेंगी। शेखावत ही क्यों, उनके समकक्ष या यूं कहना चाहिए कि उनके वरिष्ठ अनेक नेताओं को उन्होंने खंडहर बता कर हाशिये पर खड़ा कर दिया। कहने की आवश्यकता नहीं है कि उसी कब्जे को शिद्दत से अपने पास रखने की जिद में ही उन्होंने हाल में हाईकमान की नाक में दम कर रखा है। वे तब नहीं चाहतीं थीं कि शेखावत फिर से राजस्थान में पकड़ बनाएं। यूं तो शेखावत के पुत्र नहीं था, इस कारण खतरा नहीं था कि उनका कोई उत्तराधिकारी प्रतिस्पद्र्धा में आ जाएगा, मगर उनके जवांई नरपत सिंह राजवी उभर रहे थे। वसुंधरा इस खतरे को भांप गई थीं। इसी कारण शेखावत राजवी को भी उन्होंने पीछे धकेलने की उन्होंने भरसक कोशिश की। इस प्रसंग में यह बताना अत्यंत प्रासंगिक है कि शेखावत ने वसुंधरा राजे के कार्यकाल में ही भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम की शुरुआत की थी। यही वसुंधरा को नागवार गुजरी। सब जानते हैं कि शेखावत की इसी मुहिम का उदाहरण दे कर कांग्रेस ने वसुंधरा के कार्यकाल पर सवाल उठाने शुरू कर दिए थे।
बहरहाल, प्यार और जंग में सब जायज बताया जाता है। उस लिहाज से वसुंधरा ने जो कुछ किया व कर रही हैं, उनके लिहाज से वह जायज ही है। पार्टी के लिहाज से वह आज भी तकलीफदेह है। पार्टी आज भी दो धड़ों में बंटी हुई है।

-तेजवानी गिरधर
7742067000

मंगलवार, मई 15, 2012

वसुंधरा के मामले में आडवाणी ने दी अपनी जुबान को लगाम

खाचरियावास में वसुंधरा छायी रहीं, चौटाला ने कहा भावी मुख्यमंत्री
सीकर जिले के खाचरियावास गांव में पूर्व उप राष्ट्रपति स्व. भैरोंसिंह शेखावत की मूर्ति के अनावरण कार्यक्रम में प्रतिपक्ष की नेता श्रीमती वसुन्धरा राजे छाई रहीं। कई नेताओं ने उनकी तारीफ में जम कर कशीदे काढ़े। विशेष बात ये रही कि श्रीमती राजे के भाषण के दौरान सबसे ज्यादा तालियां बजीं। पांडाल में या तो भैरोंसिंह शेखावत अमर रहे के नारे लगे, या फिर वसुन्धरा राजे जिन्दाबाद-जिन्दाबाद। हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला ने तो श्रीमती राजे को राजस्थान का भावी मुख्यमंत्री ही बता दिया। हां, अलबत्ता पूर्व उपप्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने जरूर अपनी जुबान को लगाम दी। उन्होंने वसुंधरा की तारीफ में तो कोई कसर बाकी नहीं रखी, मगर उन्हें भावी मुख्यमंत्री बताने के मामले में कंजूसी बरत गए। वे सिर्फ यह बोल कर रह गए कि वसुन्धरा लोकप्रिय जन नेता हैं। वे आज भी उतनी ही लोकप्रिय हैं, जितनी वे मुख्यमंत्री के समय थी। उनकी लोकप्रियता बढ़ती ही जा रही है। वसुन्धरा ने अटल जी की सरकार में विदेश मंत्री के रूप में बहुत अच्छा काम किया था। इसलिये वे उस वक्त भी लोकप्रिय थीं और आज भी हैं।
उनकी यह कंजूसी इस कारण उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों जब वे रथयात्रा ले कर अजमेर आए थे तो उन्होंने साफ तौर पर कहा था कि वसुंधरा राजे ही भावी मुख्यमंत्री होंगी। उनके इसी बयान पर बाद में विवाद हुआ और भाजपा के दो दिग्गजों गुलाब चंद कटारिया व ललित किशोर चतुर्वेदी ने साफ कहा कि पार्टी ने इस प्रकार का कोई निर्णय नहीं किया है। अर्थात वे उन्हें सर्वसम्मत नेता मानने को तैयार नहीं हैं। इस मसले को लेकर पार्टी के अंदर आग सुलगती रही और जैसे ही गुलाब चंद कटारिया ने मेवाड़ अंचल में यात्रा निकालने की घोषणा की तो भाजपा महासचिव श्रीमती किरण माहेश्वरी ने उसका विरोध कर दिया। यह विवाद इतना तूल पकड़ गया कि वसुंधरा राजे ने यात्रा के सिलसिले में जयपुर में आयोजित कोर कमेटी में कटारिया का पलड़ा भारी देख कर बहिष्कार कर दिया और प्रदेश के अधिसंख्य भाजपा विधायकों व कई भाजपा नेताओं के इस्तीफे इक_े कर हाईकमान पर दबाव बना रखा है कि यह स्पष्ट रूप से घोषित किया जाए कि उन्हीं के नेतृत्व में राजस्थान में भाजपा चुनाव लड़ेगी और सरकार बनने पर मुख्यमंत्री भी वे ही होंगी। इस मसले पर हाईकमान अभी विचार कर रहा है और इस प्रकार की घोषणा करने से पहले फूंक फूंक कर कदम रख रहा है। हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला ने जरूर श्रीमती राजे को राजस्थान का भावी मुख्यमंत्री बताया और कहा कि उनके रास्ते में अब कोई रुकावट नहीं है। पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने श्रीमती राजे को करिश्माई नेता बताते हुए कहा कि उन्होंने राजस्थान में बहुत अच्छा काम किया। वे राजमाता साहब की बेटी है, इसलिये मेरे लिये भी वे बेटी के समान हैं। वसुन्धरा जी ने मुझे हमेशा सम्मान दिया। पंजाब में जब-जब भी हमें जरूरत पड़ी लड़ाई में वसुन्धरा जी हमारे साथ रहीं।
बहरहाल, गौर करने लायक बात ये है कि समारोह स्वर्गीय शेखावत जी को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए आयोजित किया गया था, उन्हें तो स्वाभाविक रूप से श्रद्धा सुमन अर्पित किए ही गए, मगर इस प्रसंग में आए नेता वसुंधरा की वंदना करने से नहीं चूके। 

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com