तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

मंगलवार, जून 07, 2011

आखिर उमा को थूक कर चाट ही लिया भाजपा ने

सिद्धांतों की दुहाई दे कर पार्टी विथ दि डिफ्रेंस का तमगा लगाए हुए भाजपा समझौता दर समझौता करने को मजबूर है। पहले उसने पार्टी की विचारधारा को धत्ता बताने वाले जसवंत सिंह व राम जेठमलानी को छिटक कर गले लगाया, कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा व राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे की बगावत के आगे घुटने टेके और अब उमा भारती को थूक कर चाट लिया। असल में उन्हें पार्टी में वापस लाने के लिए तकरीबन छह माह से पार्टी के शीर्षस्थ नेता लाल कृष्ण आडवानी कोशिश कर रहे थे।
हालांकि राजनीति में न कोई पक्का दोस्त होता और न ही कोई पक्का दुश्मन। परिस्थितियों के अनुसार समीकरण बदलने ही होते हैं। मगर भाजपा इस मामले में शुरू से सिद्धांतों की दुहाई देते हुए अन्य पार्टियों से कुछ अलग कहलाने की खातिर सख्त रुख रखती आई है, मगर जब से भाजपा की कमान नितिन गडकरी को सौंपी गई है, उसे ऐसे-ऐसे समझौते करने पड़े हैं, जिनकी कल्पना तक नहीं की जा सकती थी। असल में जब से अटल बिहारी वाजपेयी व लाल कृष्ण आडवाणी कुछ कमजोर हुए हैं, पार्टी में अनेक क्षत्रप उभर कर आ गए हैं, दूसरी पंक्ति के कई नेता भावी प्रधानमंत्री के रूप में दावेदारी करने लगे हैं। और सभी के बीच तालमेल बैठाना गडकरी के लिए मुश्किल हो गया है। हालत ये हो गई कि उन्हें ऐसे नेताओं के आगे भी घुटने टेकने पड़ रहे हैं, जिनके कृत्य पार्टी की नीति व मर्यादा के सर्वथा विपरीत रहे हैं।
लोग अभी उस घटना को नहीं भूले होंगे कि पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की तारीफ में पुस्तक लिखने वाले जसवंत सिंह को बाहर का रास्ता दिखाने के चंद माह बाद ही फिर से गले लगा लिया गया था। कितने अफसोस की बात है कि अपने आपको सर्वाधिक राष्ट्रवादी पार्टी बताने वाली भाजपा को ही हिंदुस्तान को मजहब के नाम पर दो फाड़ करने वाले जिन्ना के मुरीद जसवंत सिंह को फिर से अपने पाले में लेना पड़ा। इसी प्रकार वरिष्ठ एडवोकेट राम जेठमलानी का मामला भी थूक कर चाटने के समान है। भाजपाइयों के आदर्श वीर सावरकर की तुलना पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना से करने, जिन्ना को इंच-इंच धर्मनिरपेक्ष तक करार देने, पार्टी की मनाही के बाद इंदिरा गांधी के हत्यारों का केस लडऩे, संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी नहीं देने की वकालत करने और पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतरने वाले जेठमलानी को पार्टी का प्रत्याशी बनाना क्या थूक कर चाटने से कम है।
पार्टी में क्षेत्रीय क्षत्रपों के उभर आने के कारण पार्टी को लगातार समझौते करने पड़े हैं। राजस्थान में अधिसंख्य भाजपा विधायकों का समर्थन प्राप्त पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के सामने आखिरकार भाजपा का शीर्ष नेतृत्व आखिरकार नतमस्तक हो ही गया। पहले उन्हें विधानसभा में विपक्ष का नेता पद से हटाने में पार्टी को काफी जोर आया। उन्हें राष्ट्रीय महामंत्री बना कर संतुष्ट किया गया, मगर उन्होंने राजस्थान नहीं छोड़ा। हालत ये हो गई कि संघ ने अपनी पसंद के अरुण चतुर्वेदी को प्रदेश अध्यक्ष पद पर तो तैनात कर दिया, मगर पूरी पार्टी वसुंधरा के इर्द-गिर्द ही घूमती रही। तकरीबन एक साल तक विधानसभा में विपक्ष का नेता पद खाली रहा और आखिरकार पार्टी को वसुंधरा को ही फिर से पुरानी जिम्मेदारी सौंपनी पड़ी। उसमें भी हालत ये हो गई कि वे विधानसभा में विपक्ष का नेता दुबारा बनने को तैयार ही नहीं थीं और बड़े नेताओं को उन्हें राजी करने के लिए काफी अनुनय-विनय करना पड़ा। इसे राजस्थान भाजपा में व्यक्ति के पार्टी से ऊपर होने की संज्ञा दी जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। प्रदेश भाजपा के इतिहास में वर्षों तक यह बात रेखांकित की जाती रहेगी कि हटाने और दुबारा बनाने, दोनों मामलों में पार्टी को झुकना पड़ा। पार्टी के कोण से इसे थूक कर चाटने वाली हालत की उपमा दी जाए तो गलत नहीं होगा। चाटना क्या, निगलना तक पड़ा।
पार्टी हाईकमान वसुंधरा को फिर से विपक्ष नेता बनाने को यूं ही तैयार नहीं हुआ है। उन्हें कई बार परखा गया है। ये उनकी ताकत का ही प्रमाण है कि राज्यसभा चुनाव में दौरान वे पार्टी की राह से अलग चलने वाले राम जेठमलानी को न केवल पार्टी का अधिकृत प्रत्याशी बनवा लाईं, अपितु अपनी कूटनीतिक चालों से उन्हें जितवा भी दिया। ये वही जेठमलानी हैं, जिन्होंने भाजपाइयों के आदर्श वीर सावरकर की तुलना पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना से की, जिन्ना को इंच-इंच धर्मनिरपेक्ष तक करार दिया, पार्टी की मनाही के बाद इंदिरा गांधी के हत्यारों का केस लड़ा, संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी नहीं देने की वकालत की और पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतर गए। जेठमलानी को जितवा कर लाने से ही साफ हो गया था कि प्रदेश में दिखाने भर को अरुण चतुर्वेदी के पास पार्टी की फं्रैचाइजी है, मगर असली मालिक श्रीमती वसुंधरा ही हैं।
कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा के मामले में भी पार्टी को दक्षिण में जनाधार खोने के खौफ में उन्हें पद से हटाने का निर्णय वापस लेना पड़ा। असल में उन्होंने तो साफ तौर पर मुख्यमंत्री पद छोडऩे से ही इंकार कर दिया था। उसके आगे गडकरी को सिर झुकाना पड़ गया।
उमा भारती के मामले में भी पार्टी की मजबूरी साफ दिखाई दी। जिन आडवाणी को पहले पितातुल्य मानने वाली मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती ने उनके ही बारे में अशिष्ट भाषा का इस्तेमाल किया, वे ही उसे वापस लाने की कोशिश में जुटे हुए दिखाई दिए। पार्टी से बगावत कर नई पार्टी बनाने को भी नजरअंदाज करने की नौबत यह साफ जाहिर करती है कि भाजपा सिद्धांतों समझौते करने को लगातार मजबूर होती जा रही है। हालांकि मध्यप्रदेश से दूर रखने के लिए उन्हें उत्तरप्रदेश में काम करने की जिम्मेदारी सौंपी गई है, मगर एक बार पार्टी में लौटने के बाद उन्हें धीरे-धीरे मध्यप्रदेश में भी घुसपैठ करने से कौन रोक पाएगा।
-तेजवानी गिरधर, अजमेर

शुक्रवार, मई 27, 2011

Jantar Mantar par Anna Hazare... By Ras Bihari Gaur

लॉफ्टर चैलेंज फेम और सुविख्यात व्यंग्य व हास्य कवि रासाबिहारी गौड की देश के मौजूदा हालात पर यह रचना गागर में सागर के समान है, व्यंग्य और हास्य के साथ इसमें आम आदमी को तंग करता वह तंज भी है, जिसका उसके पास कोई उपाय ही नहीं है, आप स्वयं ही देख सुन लीजिए

मंगलवार, मई 24, 2011

अजमेर में इंडिया अगेंस्ट करप्शन खुद ही पथ-भ्रष्ट

देश को भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाने का झंडाबरदार बनी इंडिया अगेंस्ट करप्शन मुहिम की अजमेर इकाई इसके दिल्ली में बैठे मैनेजरों की लापरवाही की वजह से पथ-भ्रष्ट हो गई। पथ-भ्रष्ट कहना इसलिए अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं कहा जा सकता क्यों कि उसमें गुटबाजी हो गई और उसका परिणाम ये रहा कि मौजूदा दौर की सर्वाधिक पवित्र मुहिम का कार्यक्रम फ्लॉप शो साबित हो गया।
असल में यह हालत पद और प्रतिष्ठा की लड़ाई के कारण हुआ। अजमेर इकाई का झंडा लेकर अब तक सक्रिय रही कॉर्डिनेटर प्रमिला सिंह को न केवल हटा दिया गया, अपितु उनको दिया गया पद ही समाप्त कर दिया गया। उनके स्थान कीर्ति पाठक को मुख्य कार्यकर्ता की जिम्मेदारी सौंप दी गई। बात यहीं खत्म नहीं हुई। एक ओर जहां कीर्ति पाठक ने ब्लॉसम स्कूल में इंडिया अगेंस्ट करप्शन के सदस्य श्रीओम गौतम का उद्बोधन आयोजित किया, वहीं प्रमिला सिंह भी पीछे नहीं रहीं और उन्होंने भी गौतम का कार्यक्रम कश्यप डेयरी में आयोजित करने की प्रेस रिलीज जारी कर दी। बड़ी दिलचस्प बात ये थी दोनों का समय शाम छह बजे बताया गया। जहां तक स्थान का सवाल है, बताने भर को दोनों अलग-अलग हैं, जबकि वे हैं एक ही स्थान पर। कश्यप डेयरी परिसर में ही ब्लॉसम स्कूल चलती है।
खैर, हुआ वही जो होना था। कीर्ती पाठक की ओर से आयोजित कार्यक्रम ब्लॉसम स्कूल में हुआ, प्रमिला सिंह वाला नहीं। इतना ही नहीं प्रमिला सिंह व उनके समर्थकों को कार्यक्रम में घुसने ही नहीं दिया गया। कीर्ति पाठक के पति राजेश पाठक ने पहले से ही पुलिस का बंदोबस्त कर दिया था। प्रमिला सिंह ने वहां खूब पैर पटके, मगर उनकी एक नहीं चली। इस पर उन्होंने झल्ला कर कहा कि वे आईएसी दिल्ली को शिकायत करेंगी। देखने वाल बात ये है कि उनकी शिकायत क्या रंग लाती है?
इस पूरे प्रकरण से यह तो स्पष्ट है कि प्रमिला सिंह को भी श्रीओम गौतम के आने की पुख्ता जानकारी थी। गौतम उनके कार्यक्रम में क्यों नहीं आए, इस पर दो सवाल उठते हैं। या तो प्रमिला सिंह को आखिर तक बेवकूफ बनाया जाता रहा या फिर उन्हें पता था कि गौतम उनके कार्यक्रम में नहीं आएंगे, फिर भी उन्होंने अपनी ओर से कार्यक्रम की घोषणा कर दी। हालांकि गौतम सुबह ही अजमेर आ गए थे, मगर प्रमिला सिंह लाख कोशिश के बाद भी उनसे मिल नहीं पाईं। वैसे ये संभव लगता नहीं है कि प्रमिला सिंह इतनी मासूम हैं कि उन्हें कीर्ति पाठक के कार्यक्रम का पता ही नहीं था।
बहरहाल, अजमेर इकाई में तो गुटबाजी उजागर हो ही गई है, मगर इस बात अभी पता नहीं लग पाया है कि क्या यही हाल ऊपर भी है? रहा सवाल कॉर्डिनेटर जैसे पद को समाप्त करने का तो साफ है कि मुहिम के मैनेजरों को पद का झगड़ा समाप्त करने की अक्ल बाद में आई है। और पहले जो पद देने की व्यवस्था की गई थी, उसी का परिणाम है कि अजमेर में गुटबाजी हो गई। वैसे मुहिम से जुड़े कार्यकर्ताओं में यह कानाफूसी होते हुए जरूर सुनी गई कि प्रमिला सिंह को उनके व्यक्तित्व के मुहिम के अनुकूल नहीं मान कर हटाया गया है।
खैर, पूरे उत्तर भारत में सबसे पहले पूर्ण साक्षर घोषित होने का गौरव हासिल अजमेर में इस मुहिम का क्या हाल है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि गौतम के लोकपाल बिल विवेचना कार्यक्रम में एक सौ से कुछ अधिक ही लोग पहुंचे, वे भी जुटाए हुए। ऐसा प्रतीत होता है कि दिल्ली में मुहिम के मैनेजरों को यह पता ही नहीं कि अजमेर में उन्होंने जिन स्वच्छ छवि के लोगों को कमान सौंपी है, उनकी न तो कोई पहचान है और न ही जनता पर पकड़। तुर्रा ये कि वे आम जनता को जोड़ कर अभियान छेड़े हुए हैं। हालांकि इससे उनकी निष्ठा व ईमानदारी पर सवाल खड़ा नहीं किया जा सकता, मगर इतना तो तय ही है कि उनको जनता को जोडऩे का कोई अनुभव ही नहीं है। केवल मीडिया के दम पर टिके हुए हैं। सोचते हैं कि चूंकि आमजन में भ्रष्टाचार के प्रति विरोध का भाव है, इस कारण मात्र मीडिया के जरिए ही वे उस फसल को काट लेंगे। अब ये बात किसी से छिपी हुई नहीं है कि लोकपाल बिल के मामले में मीडिया ने पिछले दिनों क्या कमाल कर दिखाया था। अजमेर वाला कार्यक्रम भी उसकी जीती जागती मिसाल है। जितना बड़ा वह कार्यक्रम था नहीं, उससे कहीं अधिक उसे कवरेज दिया गया। और यही वजह है कि कार्यक्रम आयोजित करने वाले जितने बड़े नेता हैं नहीं, उससे कहीं अधिक अपने आप को मानने लगे हैं।

शुक्रवार, मई 20, 2011

मतदाता के बदलते मूड का संकेत हैं ये चुनाव परिणाम

माकपा विचारधारा की राष्ट्रीय प्रासंगिकता पर लटकी तलवार
कांग्रेस को भुगतनी पड़ी अपनी खुद की गलतियां
भाजपा के अकेले दिल्ली पहुंचना सपना मात्र
पांच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव नतीजों ने यह एक बार फिर साबित कर दिया है कि आम मतदाता का मूड अब बदलने लगा है। वह जाति, धर्म अथवा संप्रदाय दीवारों को लांघ कर वह विकास और स्वस्थ प्रशासन को प्राथमिकता देने लगा है। राजनीति में घुन की तरह लगे भ्रष्टाचार से वह बेहद खफा हो गया है। अब उसे न तो धन बल ज्यादा प्रभावित करता है और न ही वह क्षणिक भावावेश के लिए उठाए गए मुद्दों पर ध्यान देता है। चंद लफ्जों में कहा जाए तो हमारा मजबूत लोकतंत्र अब परिपक्व भी होने लगा है। अब उसे वास्तविक मुद्दे समझ में आने लगे हैं। कुछ ऐसा ही संकेत उसने कुछ अरसे पहले बिहार में भी दिया था, जहां कि जंगलराज से उकता कर उसने नितीश कुमार की विकास की गाडी में चढऩा पसंद किया। कुछ इसी प्रकार सांप्रदायिकता के आरोपों से घिरे नरेन्द्र मोदी भी सिर्फ इसी वजह से दुबारा सत्तारूढ़ हो गए क्योंकि उन्होंने अपनी पूरी ताकत विकास के लिए झोंक दी।
सर्वाधिक चौंकाने वाला रहा पश्चिम बंगाल में आया परिवर्तन। यह कम बात नहीं है कि एक विचारधारा विशेष के दम पर 34 साल से सत्ता पर काबिज वामपंथी दलों का आकर्षण ममता की आंधी के आगे टिक नहीं पाया। असल में इस राज्य में वामपंथ का कब्जा था ही इस कारण कि मतदाता के सामने ऐसा कोई दमदार विकल्प मौजूद नहीं था जो राज्य के सर्वशक्तिमान वाम मोर्चे के लिए मजबूत चुनौती खड़ी कर सके। जैसे ही मां, माटी और मानुस की भाषा मतदाता के समझ में आई, उसने ममता का हाथ थाम लिया और वहां का लाल किला ढ़ह गया। असल में ममता का परिवर्तन का नारा जनता की अपेक्षाओं के अनुरूप था। कदाचित ममता की जीत व्यक्तिवाद की ओर बढ़ती राजनीति का संकेत नजर आता हो, मगर क्या यह कम पराकाष्ठा है कि लोकतंत्र यदि अपनी पर आ जाए तो जनकल्याणकारी सरकार के लिए वह एक व्यक्ति के परिवर्तन के नारे को भी ठप्पा लगा सकता है।
इस किले के ढ़हने की एक बड़ी वजह ये भी थी कि कैडर बेस मानी जाने वाली माकपा के हिंसक हथकंडों ने आम मतदाता को आक्रोषित कर दिया था। सिंगुर और नंदीग्राम की घटनाओं के बाद ममता की तृणमूल कांग्रेस ने साबित कर दिया कि वही वामपंथियों से टक्कर लेने की क्षमता रखती है। एक चिन्हित और स्थापित विचारधारा वाली सरकार का अपेक्षाओं का केन्द्र बिंदु बनी ममता के आगे परास्त हो जाना, इस बात का इशारा करती है कि आम आदमी की प्राथमिकता रोटी, कपड़ा, मकान और शांतिपूर्ण जीवन है, न कि कोरी विचारधारा।
तमिलनाडु चुनाव ने तो एक नया तथ्य ही गढ दिया है। इस चुनाव ने यह भी साबित कर दिया है कि आम मतदाता अपनी सुविधा की खातिर किसी दल को खुला भ्रष्टाचार करने की छूट देने को तैयार नहीं है। मतदाता उसको सीधा लालच मिलने से प्रभावित तो होता है, लेकिन भ्रष्ट तंत्र से वह कहीं ज्यादा प्रभावित है। चाहे उसे टीवी और केबल कनैक्शन जैसे अनेक लुभावने हथकंडों के जरिए आकर्षित किया जाए, मगर उसकी पहली प्राथमिकता भ्रष्टाचार से मुक्ति और विकास है। भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के आरोपों से घिरे वयोवृद्ध द्रमुक नेता एम. करुणानिधि ने कभी कल्पना भी नहीं की होगी कि वे लोक-लुभावन हथकंडों के बाद भी अकेले भ्रष्टाचार के मुद्दे की वजह से इस तरह बुरी कदर हार जाएंगे। कदाचित इसकी वजह देशभर में वर्तमान में सर्वाधिक चर्चित भ्रष्टाचार के मुद्दे की वजह से भी हुआ हो।
जहां तक पांडिचेरी का सवाल है, वह अमूमन तमिलनाडु की राजनीति से प्रभावित रहता है। यही वजह है कि वहां करुणानिधि के परिवारवाद और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी उनकी पार्टी से मतदाता में उठे आक्रोश ने अपना असर दिखा दिया। कांग्रेस को करुणानिधि से दोस्ती की कीमत चुकानी पड़ी। इसके अतिरिक्त रंगासामी के कांग्रेस से छिटक कर जयललिता की पार्टी के साथ गठबंधन करने ने भी समीकरण बदल दिए।
वैसे हर चुनाव में परिवर्तन का आदी केरल अपनी आदत से बाज नहीं आया, मगर अच्युतानंदन की निजी छवि ने भी नतीजों को प्रभावित किया। यद्यपि राहुल गांधी की भूमिका के कारण कांग्रेस की लाज बच गई और यही वजह रही कि वहां कांग्रेस की जीत का अंतर बहुत कम रहा।
रहा असम का सवाल तो वह संकेत दे रहा है कि अब छोटे राज्यों में हर चुनाव में सरकार बदल देने की प्रवत्ति समाप्त होने लगी है। मतदाता अब विकास को ज्यादा तरजीह देने लगा है। हालांकि जहां तक असम का सवाल है, वहां लागू की गईं योजनाएं तात्कालिक फायदे की ज्यादा हैं, मगर आम मतदाता तो यही समझता है कि उसे कौन सा दल ज्यादा फायदा पहुंचा रहा है। उसे तात्कालिक या स्थाई फायदे से कोई मतलब नहीं है। असम में सशक्त विपक्ष का अभाव भी तुरुण गोगोई की वापसी का कारण बना। एक और मुद्दा भी है। असम की जनता के लिए मौजूदा हालात में अलगाववाद का मुद्दा भाजपा के बांग्लादेशी नागरिकों के मुद्दे से ज्यादा असरकारक रहा। तरुण गोगोई की ओर से उग्रवादियों पर अंकुश के लिए की गई कोशिशों को मतदाता ने पसंद किया है। असल में अलगाववादियों की वह से त्रस्त असम वासी हिंसा और अस्थिरता से मुक्ति चाहते हैं।
कुल मिला कर इन परिणामों को राष्ट्रीय परिदृश्य की दृष्टि से देखें तो त्रिपुरा को छोड़ कर अपने असर वाले अन्य दोनों राज्यों में सत्ता से च्युत होना माकपा के लिए काफी चिंताजनक है। इसकी एक वजह ये भी है कि वह वैचारिक रूप से भले ही एक राष्ट्रीय पार्टी का आभास देती है, केन्द्र में उसका दखल भी रहता है, मगर वह कुछ राज्यों विशेष में ही असर रखती है और राष्ट्रीय स्तर पर वह प्रासंगिकता स्थापित नहीं कर पा रही। ताजा चुनाव कांग्रेस के लिए सुखद इसलिए नहीं रहे कि उसने खुद ने ही कुछ मजबूरियों के चलते गलत पाला नहीं छोड़ा। करुणानिधि की बदनामी के बावजूद उसने मौके की नजाकत को नहीं समझा और अन्नाद्रमुक के साथ हाथ मिलाने का मौका खो दिया। भाजपा की दिशा हालांकि ये चुनाव तय नहीं करने वाले थे, लेकिन फिर भी नतीजों ने उसे निराश ही किया है। पार्टी ने असम में जोर लगाया, मगर उसकी सीटें पिछली बार की तुलना में आधी से भी कम हो गई हैं। कुल मिला कर उसके सामने यह यक्ष प्रश्न खड़ा का खड़ा ही है कि वह आज भी देश के एक बड़े भू भाग में जमीन नहीं तलाश पाई है, ऐसे में भ्रष्टाचार और महंगाई से त्रस्त मतदाता को लुभाने के बावजूद राजनीतिक लाभ उठा कर देश पर शासन का सपना देखने का अधिकार नहीं रखती।

सोमवार, अप्रैल 25, 2011

अब महान कैसे हो गए सत्य साईं बाबा?

पुट्टापर्थी में सत्य साईं बाबा के अस्पताल में भर्ती होने से लेकर निधन के बाद तक सारे न्यूज चैनल जिस तरह बाबा की महिमा का बखान कर रहे हैं, उस देख यह हैरानी होती है कि कभी अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए ये ही चैनल उन्हें डोंगी बाबा बता कर सनसनी पैदा कर रहे थे और आज जनता के मूड की वजह से उन्हें वे ही यकायक करोड़ों लोगों के भगवान और हजारों करोड़ रुपए के साम्राज्य वाले धर्मगुरू कैसे दिखाई दे रहे हैं। कभी ये ही चैनल तर्कवादियों की जमात जमा करके बाबा को फर्जी बताने से बाज नहीं आ रहे थे, आज वे ही पुट्टापर्थी की पल-पल की खबर दिखाते हुए दुनियाभर में उनकी ओर से किए गए समाजोत्थान के कार्यों का बखान कर रहे हैं। ये कैसा दोहरा चरित्र है?
असल में महत्वपूर्ण ये नहीं है कि साईं बाबा चमत्कारी थे या नहीं, कि वे जादू दिखा कर लोगों को आकर्षित करते थे और वह जादू कोई भी दिखा सकता है, महत्वपूर्ण ये है कि उस शख्स ने यदि हजारों करोड़ रुपए का साम्राज्य खड़ा भी किया तो उसका मकसद आखिर जनता की भलाई ही तो था।
सवाल ये भी है कि क्या केवल जादू के दम पर करोड़ों लोगों को अपना भक्त बनाया जा सकता है? जादू से अलबत्ता आकर्षित जरूर किया जा सकता है, मगर कोई भी व्यक्ति भक्त तभी होता है, जब उसके जीवन में अपेक्षित परिवर्तन आए। केवल जादू देख कर ज्यादा देर तक जादूगर से जुड़ा नहीं रहा जा सकता। राजनेता जरूर वोटों की राजनीति के कारण हर धर्म गुरू के आगे मत्था टेकते नजर आ सकते हैं, चाहे उनके मन में उसके प्रति श्रद्धा हो या नहीं, मगर सचिन तेंदुलकर जैसी अनेकानेक हस्तियां यदि बाबा के प्रति आकृष्ठ हुई थीं, तो जरूर उन्हें कुछ तो नजर आया होगा।
माना कि जो कुछ लोग उनके कथित आशीर्वाद की वजह से खुशहाल हुए अथवा जो कुछ लोग उनकी ओर किए गए समाजोपयोगी कार्यों का लाभ उठा रहे थे, इस कारण उनके भक्त बन गए, मगर इसमें कोई दो राय नहीं होनी चाहिए कि चाहे जादू के माध्यम से ही सही, मगर उन्होंने लोगों को अध्यात्म का रास्ता दिखाया, गरीबों का कल्याण किया। अगर ये मान भी लिया जाए कि वे जो चमत्कार दिखाते थे, उन्हें कोई भी जादूगर दिखा सकता है, मगर क्या यह कम चमत्कार है कि करोड़ों लोग उनके प्रति आस्थावान हो गए।
संभव है आज पुट्टापर्थी का चौबीस घंटे कवरेज देने के पीछे तर्क ये दिया जाए कि वे तो महज घटना को दिखा रहे हैं कि वहां कितनी भीड़ जमा हो रही है या फिर वीवीआईपी का कवरेज दिखा रहे है या फिर करोड़ों लोंगों की आस्था का ख्याल रख रहे हैं, तो इस सवाल जवाब क्या है कि वे पहले उन्हीं करोड़ों लोगों की आस्था पर प्रहार क्यों कर रहे थे।
कुल जमा बात इतनी सी है कि न्यूज चैनल संयमित नहीं हैं। उन्हें जो मन में आता है, दिखाते हैं। जिस व्यक्ति से आर्थिक लाभ होता है, उसका कवरेज ज्यादा दिखाते हैं। बाबा रामदेव उसके सबसे बड़े उदाहरण हैं। वे जो योग सिखा रहे हैं, वह हमारे ऋषि-मुनि हजारों वर्षों से करते रहे हैं, वह हजारों योग गुरू सिखा रहे हैं, कोई बाबा ने ये योग इजाद नहीं किया है, मगर चूंकि उन्होंने अपने कार्यक्रमों का कवरेज दिखाने के पैसे दिए, इस कारण उन्हें ऐसा योग गुरू बना दिया, मानो न पहले ऐसे योग गुरू हुए, न हैं और न ही भविष्य में होंगे।
तेजवानी गिरधर, अजमेर

सोमवार, अप्रैल 18, 2011

बेबाकी से विवादित हो रहे हैं अन्ना हजारे

सत्ता के शिखर पर व्याप्त भ्रष्टाचार को रोकने के लिए मीडिया के सहयोग से मिले अपार जनसमर्थन के बूते सरकार को जन लोकपाल बिल बनाने को मजबूर कर देने वाले प्रख्यात समाजसेवी और गांधीवादी अन्ना हजारे एक और गांधी के रूप में स्थापित तो हो गए, मगर हर विषय पर क्रीज से हट कर बेबाकी से बोलने की वजह से विवादित भी होते जा रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि जिस पवित्र मकसद से उन्होंने अहिंसात्मक आंदोलन छेड़ा, उसे कामयाबी मिली। इसमें भी कोई दोराय नहीं कि आंदोलन की शुरुआत से लेकर सफलता तक उन्होंने देश की वर्तमान राजनीति पर जो बयान दिए हैं, उनमें काफी कुछ सच्चाई है, मगर उनकी भाषा-शैली से यह अहसास होने लगा है कि वे खुद को ऐसे मुकाम पर विराजमान हुआ मान रहे हैं, जहां से वे किसी के भी बारे में कुछ कहने की हैसियत में आ गए हैं। इसी का परिणाम है कि उनके खिलाफ प्रतिक्रियाएं भी उभर कर आ रही हैं।
वस्तुत: उन्होंने जिस तरह से सरकार को जन लोकपाल बिल बनाने को मजबूर किया है, वह उनके पाक-साफ और नि:स्वार्थ होने की वजह से ही संभव हो पाया। फिर भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता की भावना को मुखर करते हुए योग गुरू बाबा रामदेव ने जो मुहिम छेड़ी, उससे एक ऐसा राष्ट्रीय धरातल बन गया, जिस पर खड़े हो कर जन लोकपाल बिल के लिए सरकार को झुकाना आसान हो गया। और इसमें मीडिया ने अतिरिक्त उत्साह दिखाते हुए मुहिम को इतनी तेज धार दी कि सरकार बुरी तरह से घिर गई। यहां तक तो सब ठीक था, लेकिन जैसे ही समझौता हुआ और समिति का गठन हुआ, विवादों की शुरुआत हो गई। उन्हें कुछ शीर्षस्थ लोगों ने तो जन्म दिया ही, खुद अन्ना हजारे ने भी कुछ ऐसे बयान दे डाले, जिसकी वजह से पलटवार शुरू हो गए। निश्चित रूप से इसमें मीडिया की भी अहम भूमिका रही। जिस मीडिया ने अन्ना को भगवान बना दिया, उसी ने उनके कपड़े भी फाडऩा शुरू कर दिया है।
सबसे पहले जनता की ओर से शामिल पांच सदस्यों में दो के पिता-पुत्र होने पर ऐतराज किया गया। जिन बाबा रामदेव ने दो दिन पहले अन्ना के मंच पर नृत्य करके समर्थन दिया था, उन्होंने ही भाई-भतीजावाद पर अंगुली उठाई। हालांकि उन्होंने रिटायर्ड आईपीएस किरण बेदी को समिति में शामिल नहीं करने पर भी नाराजगी दिखाई, मगर संदेश ये गया कि वे स्वयं उस समिति में शामिल होना चाहते थे। इस पर समिति के सह अध्यक्ष पूर्व कानून मंत्री शांति भूषण ने पटलवार करते हुए कहा कि समिति में योग की नहीं, कानून की समझ रखने वालों की जरूरत है। जिस योग के दम पर बाबा रामदेव करोड़ों लोगों के पूजनीय माने जाते हैं, उसी योग को केवल इसी कारण जलील होना पड़ा, क्योंकि बाबा ने अतिक्रमण करने का दुस्साहस शुरू कर दिया था। हालांकि बाबा दूसरे दिन पलट गए, मगर गंदगी की शुरुआत तो हो ही गई। बाबा के भाई-भतीजावाद के आरोप को भले ही अन्ना ने यह कह कर खारिज कर दिया कि समिति में कानूनी विशेषज्ञों का होना जरूरी है, मगर वे इसका कोई संतोषजनक जवाब नहीं दे पाए कि पिता-पुत्र शांतिभूषण व प्रशांतभूषण में से किसी एक को छोड़ कर किसी और कानूनविद् को मौका क्यों नहीं दिया गया। हालांकि कहा ये गया कि समिति में बहस वे ही तो कर पाएंगे, जिन्होंने जन लोकपाल का मसौदा तैयार किया है।
विवाद तब और ज्यादा हो गए, जब अन्ना ने राजनीति के अन्य विषयों पर भी बेबाकी से बोलना शुरू कर दिया। असल में हुआ सिर्फ इतना कि अन्ना कोई कूटनीतिज्ञ तो हैं नहीं कि तोल-मोल कर बोलते, दूसरा ये कि मीडिया भी अपनी फितरत से बाज नहीं आता। उसने ऐसे सवाल उठाए, जिन पर खुल कर बोलना अन्ना को भारी पड़ गया। इसकी एक वजह ये भी है कि किसी कृत्य की वजह से शिखर पर पहुंचे शख्स से हम हर समस्या का समाधान पाने की उम्मीद करते हैं।   पत्रकारों के सवालों का जवाब देते हुए अन्ना ने नरेन्द्र मोदी की तारीफ तो की थी गुजरात में तैयार नए विकास मॉडल की वजह से, मगर इससे धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दलों को आग लग गई। उन्होंने गुजरात में कत्लेआम करने के आरोप से घिरे मोदी की तारीफ किए जाने पर कड़ा ऐतराज दर्ज करवाया। बाद में अन्ना को सफाई देनी पड़ गई। सवाल ये उठता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ सफल आंदोलन करने की बिना पर क्या अन्ना को देश के नेताओं को प्रमाण पत्र देने का अधिकार मिल गया है?
अन्ना के उस बयान पर भी विवाद हुआ, जिसमें उन्होंने सभी राजनेताओं को भ्रष्ट करार दे दिया था। उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अलावा को सभी मंत्रियों को ही भ्रष्ट करार दे दिया। इस पर जब उनसे पूछा गया कि तो फिर समिति में शामिल किए जाने योग्य एक भी मंत्री नहीं है, इस पर वे बोले में जो अपेक्षाकृत कम भ्रष्ट होगा, उसे लिया जाना चाहिए। बहरहाल, अन्ना की सभी नेताओं को एक ही लाठी से हांकने की हरकत कई नेताओं को नागवार गुजरी। भाजपा की ओर से प्रकाश जावड़ेकर ने साफ कहा कि पार्टी लोकपाल बिल के मामले में उनके साथ है, लेकिन उनकी हर बात से सहमत नहीं है। भाजपा के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवानी ने इतना तक कहा कि हर नेता को भ्रष्ट कहना लोकतंत्र की अवमानना है। उन्होंने कहा कि जो लोग राजनीति व राजनेताओं के खिलाफ घृणा का माहौल बना रहे हैं वे लोकतंत्र को नुकसान पहुंचा रहे हैं। मध्यप्रदेश भाजपा अध्यक्ष प्रभात झा ने यहां तक कह दिया कि अन्ना ईमानदारी का विश्वविद्यालय नहीं चलाते। राजनेताओं को उनके सर्टीफिकेट की जरूरत नहीं है। हालांकि यह बात सही है कि आज नेता शब्द गाली की माफिक हो गया है, मगर लोकतंत्र में उन्हीं नेताओं में से श्रेष्ठ को चुन कर जनता सरकार बनाती है। यदि इस प्रकार हम नेता जाति मात्र को गाली बक कर नफरत का माहौल बनाएंगे तो कोई आश्चर्य नहीं कि देश में ऐसी क्रांति हो जाए, जिससे अराजकता फैल जाए। इस बारे में प्रख्यात लेखिका मृणाल पांड ने तो यहां तक आशंका जताई है कि कहीं ऐसा करके हम किसी सैनिक तानाशाह को तो नहीं न्यौत रहे हैं।
-गिरधर तेजवानी

सोमवार, अप्रैल 04, 2011

... तो जेटली के मामले में सुषमा की बोलती बंद कैसे हो गई?

हाल ही विकीलीक्स की ओर से किए गए खुलासों से पूरा विश्व हिला हुआ है। दुनिया के अन्य देशों की तरह हमारे देश की राजनीति में भी भारी उबाल आया हुआ है। विशेष रूप से पिछली कांग्रेस नीत सरकार के दौरान सरकार को बचाने के लिए सांसदों को घूस देने के मामले पर संसद और संसद के बाहर जम कर हंगामा हुआ। हालांकि इस मुद्दे पर पूर्व में भी हंगामा हो चुका है, लेकिन विकीलीक्स के ताजा खुलासे से राजनीति में फिर से उफान आ गया। महंगाई और भ्रष्टाचार को लेकर चारों ओर से बुरी तरह से घिरी कांग्रेसनीत सरकार पर भाजपा को हमला करने का एक और मौका मिल गया। सांसदों को घूस देने वाले कथित लोगों के नाम एफआईआर में शामिल किए जाने की मांग को लेकर पर लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने आसमान सिर पर उठा लिया। अगर विकीलीक्स के खुलसो को सच माना जाए तो उनकी मांग जायज ही प्रतीत हो रही थी। सुषमा की हुंकार से देशभर में कांग्रेस के खिलाफ माहौल भी बनने लगा। मगर जैसे ही विकीलीक्स ने भाजपा के वरिष्ठ नेता अरुण जेटली के बारे में एक तथ्य का खुलासा किया तो जेटली तो परेशानी आए ही, सुषमा स्वराज की भी बोलती बंद हो गई।
विकीलीक्स ने खुलासा किया था कि दिल्ली स्थित अमेरिकी राजनयिक ने अपने देश के विदेश विभाग को भेजे गए संदेश में कहा था कि भाजपा नेता अरुण जेटली ने कहा है कि हिन्दू राष्ट्रवाद उनकी पार्टी के लिए महज अवसरवादी मुद्दा है। राजनयिक के मुताबिक, हिन्दुत्व के सवाल पर बातचीत के दौरान जेटली ने तर्क दिया कि हिन्दू राष्ट्रवाद भाजपा के लिए हमेशा महज चर्चा का बिंदु रहेगा। उन्होंने हालांकि इसे अवसरवादी मुद्दा बताया। नई दिल्ली स्थित अमेरिकी दूतावास के राजनयिक राबर्ट ब्लैक ने जेटली से मुलाकात के बाद अपनी सरकार को 6 मई 2005 को भेजे एक संदेश में यह बात कही थी। ब्लैक ने अपने संदेश में कहा था, मिसाल के तौर पर भारत के पूर्वोत्तर में हिन्दुत्व का मुद्दा खूब चलता है क्योंकि वहां बांग्लादेश से आकर बसने वाल मुसलमानों को लेकर स्थानीय आबादी में काफी चिंता है। उनके अनुसार, भारत-पाक रिश्तों में हाल में आए सुधार के मद्देनजर उन्होंने (जेटली) कहा कि हिन्दू  राष्ट्रवाद अब कम असरदार हो गया है, लेकिन सीमा पार से एक और आतंकी हमला होने पर हालात फिर पलट सकते हैं। इस पर जेटली ने सफाई देते हुए कहा कि उन्होंने अवसरवादी शब्द का प्रयोग नहीं किया था, यह शब्द राजनयिक ने अपनी तरफ से जोड़ा होगा।
सवाल ये उठता है कि क्या अब सुषमा स्वराज अपनी मुखरता को बरकरार रखते हुए अपनी ही पार्टी के एक स्तम्भ अरुण जेटली के खिलाफ भी एफआईआर दर्ज करवाने जैसी कोई मांग करेंगी? अथवा उनके खिलाफ पार्टी मंच पर कार्यवाही करने पर जोर देंगी, जिनकी वजह से पार्टी को शर्मिंदगी का सामना करना पड़ रहा है? सवाल ये है कि जब सुषमा स्वराज या कोई अन्य भाजपा नेता विकीलीक्स के किसी खुलासे से कांग्रेस के घिरने पर हमला-दर-हमला करने को आतुर होते हैं तो उसी साइट के भाजपा नेता के बारे में खुलासे पर चुप क्यों हो जाते हैं? जाहिर तौर जैसी उम्मीद थी  विकीलीक्स के नए खुलासे पर कांग्रेस ने भी भाजपा पर पलटवार करते हुए कह दिया कि जो लोग शीशे के मकान में रहते हों, उन्हें दूसरे के घर पत्थर नहीं फैंकने चाहिए। स्पष्ट है कि विकीलीक्स के खुलासे पर कांग्रेस को घेरने वाली भाजपा अब खुद उसमें घिरती जा रही है। उसका दोहरा मापदंड खुल कर सामने आ गया है।
अव्वल तो विकीलीक्स के खुलासों को लेकर पूरी सावधानी बरती जानी चाहिए थी। भले ही उसके खुलासे सही भी हैं तब भी उनकी अपने स्तर जांच के बाद ही आगे बढऩा चाहिए। केवल त्वरित राजनीति लाभ उठाने के लिए विकीलीक्स के खुलासों को आधार बनाया जाना यह साबित करता है कि विपक्ष का असल मकसद हंगामा करना है, आरोप चाहे सही हों या न हों। और अगर विकीलीक्स के खुलासों को सच मान कर कांग्रेस को घेरा जा रहा है तो अपनी पार्टी के नेता जेटली से जुड़ा तथ्य उजागर होने पर वही मापदंड अपनाना चाहिए। कम से कम पार्टी विथ द डिफ्रेंस का नारा बुलंद करने वाली पार्टी से तो यह उम्मीद की ही जानी चाहिए कि वह जैसा कहती है, वैसा करे भी।
-गिरधर तेजवानी