तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

सोमवार, अप्रैल 18, 2011

बेबाकी से विवादित हो रहे हैं अन्ना हजारे

सत्ता के शिखर पर व्याप्त भ्रष्टाचार को रोकने के लिए मीडिया के सहयोग से मिले अपार जनसमर्थन के बूते सरकार को जन लोकपाल बिल बनाने को मजबूर कर देने वाले प्रख्यात समाजसेवी और गांधीवादी अन्ना हजारे एक और गांधी के रूप में स्थापित तो हो गए, मगर हर विषय पर क्रीज से हट कर बेबाकी से बोलने की वजह से विवादित भी होते जा रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि जिस पवित्र मकसद से उन्होंने अहिंसात्मक आंदोलन छेड़ा, उसे कामयाबी मिली। इसमें भी कोई दोराय नहीं कि आंदोलन की शुरुआत से लेकर सफलता तक उन्होंने देश की वर्तमान राजनीति पर जो बयान दिए हैं, उनमें काफी कुछ सच्चाई है, मगर उनकी भाषा-शैली से यह अहसास होने लगा है कि वे खुद को ऐसे मुकाम पर विराजमान हुआ मान रहे हैं, जहां से वे किसी के भी बारे में कुछ कहने की हैसियत में आ गए हैं। इसी का परिणाम है कि उनके खिलाफ प्रतिक्रियाएं भी उभर कर आ रही हैं।
वस्तुत: उन्होंने जिस तरह से सरकार को जन लोकपाल बिल बनाने को मजबूर किया है, वह उनके पाक-साफ और नि:स्वार्थ होने की वजह से ही संभव हो पाया। फिर भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता की भावना को मुखर करते हुए योग गुरू बाबा रामदेव ने जो मुहिम छेड़ी, उससे एक ऐसा राष्ट्रीय धरातल बन गया, जिस पर खड़े हो कर जन लोकपाल बिल के लिए सरकार को झुकाना आसान हो गया। और इसमें मीडिया ने अतिरिक्त उत्साह दिखाते हुए मुहिम को इतनी तेज धार दी कि सरकार बुरी तरह से घिर गई। यहां तक तो सब ठीक था, लेकिन जैसे ही समझौता हुआ और समिति का गठन हुआ, विवादों की शुरुआत हो गई। उन्हें कुछ शीर्षस्थ लोगों ने तो जन्म दिया ही, खुद अन्ना हजारे ने भी कुछ ऐसे बयान दे डाले, जिसकी वजह से पलटवार शुरू हो गए। निश्चित रूप से इसमें मीडिया की भी अहम भूमिका रही। जिस मीडिया ने अन्ना को भगवान बना दिया, उसी ने उनके कपड़े भी फाडऩा शुरू कर दिया है।
सबसे पहले जनता की ओर से शामिल पांच सदस्यों में दो के पिता-पुत्र होने पर ऐतराज किया गया। जिन बाबा रामदेव ने दो दिन पहले अन्ना के मंच पर नृत्य करके समर्थन दिया था, उन्होंने ही भाई-भतीजावाद पर अंगुली उठाई। हालांकि उन्होंने रिटायर्ड आईपीएस किरण बेदी को समिति में शामिल नहीं करने पर भी नाराजगी दिखाई, मगर संदेश ये गया कि वे स्वयं उस समिति में शामिल होना चाहते थे। इस पर समिति के सह अध्यक्ष पूर्व कानून मंत्री शांति भूषण ने पटलवार करते हुए कहा कि समिति में योग की नहीं, कानून की समझ रखने वालों की जरूरत है। जिस योग के दम पर बाबा रामदेव करोड़ों लोगों के पूजनीय माने जाते हैं, उसी योग को केवल इसी कारण जलील होना पड़ा, क्योंकि बाबा ने अतिक्रमण करने का दुस्साहस शुरू कर दिया था। हालांकि बाबा दूसरे दिन पलट गए, मगर गंदगी की शुरुआत तो हो ही गई। बाबा के भाई-भतीजावाद के आरोप को भले ही अन्ना ने यह कह कर खारिज कर दिया कि समिति में कानूनी विशेषज्ञों का होना जरूरी है, मगर वे इसका कोई संतोषजनक जवाब नहीं दे पाए कि पिता-पुत्र शांतिभूषण व प्रशांतभूषण में से किसी एक को छोड़ कर किसी और कानूनविद् को मौका क्यों नहीं दिया गया। हालांकि कहा ये गया कि समिति में बहस वे ही तो कर पाएंगे, जिन्होंने जन लोकपाल का मसौदा तैयार किया है।
विवाद तब और ज्यादा हो गए, जब अन्ना ने राजनीति के अन्य विषयों पर भी बेबाकी से बोलना शुरू कर दिया। असल में हुआ सिर्फ इतना कि अन्ना कोई कूटनीतिज्ञ तो हैं नहीं कि तोल-मोल कर बोलते, दूसरा ये कि मीडिया भी अपनी फितरत से बाज नहीं आता। उसने ऐसे सवाल उठाए, जिन पर खुल कर बोलना अन्ना को भारी पड़ गया। इसकी एक वजह ये भी है कि किसी कृत्य की वजह से शिखर पर पहुंचे शख्स से हम हर समस्या का समाधान पाने की उम्मीद करते हैं।   पत्रकारों के सवालों का जवाब देते हुए अन्ना ने नरेन्द्र मोदी की तारीफ तो की थी गुजरात में तैयार नए विकास मॉडल की वजह से, मगर इससे धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दलों को आग लग गई। उन्होंने गुजरात में कत्लेआम करने के आरोप से घिरे मोदी की तारीफ किए जाने पर कड़ा ऐतराज दर्ज करवाया। बाद में अन्ना को सफाई देनी पड़ गई। सवाल ये उठता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ सफल आंदोलन करने की बिना पर क्या अन्ना को देश के नेताओं को प्रमाण पत्र देने का अधिकार मिल गया है?
अन्ना के उस बयान पर भी विवाद हुआ, जिसमें उन्होंने सभी राजनेताओं को भ्रष्ट करार दे दिया था। उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अलावा को सभी मंत्रियों को ही भ्रष्ट करार दे दिया। इस पर जब उनसे पूछा गया कि तो फिर समिति में शामिल किए जाने योग्य एक भी मंत्री नहीं है, इस पर वे बोले में जो अपेक्षाकृत कम भ्रष्ट होगा, उसे लिया जाना चाहिए। बहरहाल, अन्ना की सभी नेताओं को एक ही लाठी से हांकने की हरकत कई नेताओं को नागवार गुजरी। भाजपा की ओर से प्रकाश जावड़ेकर ने साफ कहा कि पार्टी लोकपाल बिल के मामले में उनके साथ है, लेकिन उनकी हर बात से सहमत नहीं है। भाजपा के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवानी ने इतना तक कहा कि हर नेता को भ्रष्ट कहना लोकतंत्र की अवमानना है। उन्होंने कहा कि जो लोग राजनीति व राजनेताओं के खिलाफ घृणा का माहौल बना रहे हैं वे लोकतंत्र को नुकसान पहुंचा रहे हैं। मध्यप्रदेश भाजपा अध्यक्ष प्रभात झा ने यहां तक कह दिया कि अन्ना ईमानदारी का विश्वविद्यालय नहीं चलाते। राजनेताओं को उनके सर्टीफिकेट की जरूरत नहीं है। हालांकि यह बात सही है कि आज नेता शब्द गाली की माफिक हो गया है, मगर लोकतंत्र में उन्हीं नेताओं में से श्रेष्ठ को चुन कर जनता सरकार बनाती है। यदि इस प्रकार हम नेता जाति मात्र को गाली बक कर नफरत का माहौल बनाएंगे तो कोई आश्चर्य नहीं कि देश में ऐसी क्रांति हो जाए, जिससे अराजकता फैल जाए। इस बारे में प्रख्यात लेखिका मृणाल पांड ने तो यहां तक आशंका जताई है कि कहीं ऐसा करके हम किसी सैनिक तानाशाह को तो नहीं न्यौत रहे हैं।
-गिरधर तेजवानी

सोमवार, अप्रैल 04, 2011

... तो जेटली के मामले में सुषमा की बोलती बंद कैसे हो गई?

हाल ही विकीलीक्स की ओर से किए गए खुलासों से पूरा विश्व हिला हुआ है। दुनिया के अन्य देशों की तरह हमारे देश की राजनीति में भी भारी उबाल आया हुआ है। विशेष रूप से पिछली कांग्रेस नीत सरकार के दौरान सरकार को बचाने के लिए सांसदों को घूस देने के मामले पर संसद और संसद के बाहर जम कर हंगामा हुआ। हालांकि इस मुद्दे पर पूर्व में भी हंगामा हो चुका है, लेकिन विकीलीक्स के ताजा खुलासे से राजनीति में फिर से उफान आ गया। महंगाई और भ्रष्टाचार को लेकर चारों ओर से बुरी तरह से घिरी कांग्रेसनीत सरकार पर भाजपा को हमला करने का एक और मौका मिल गया। सांसदों को घूस देने वाले कथित लोगों के नाम एफआईआर में शामिल किए जाने की मांग को लेकर पर लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने आसमान सिर पर उठा लिया। अगर विकीलीक्स के खुलसो को सच माना जाए तो उनकी मांग जायज ही प्रतीत हो रही थी। सुषमा की हुंकार से देशभर में कांग्रेस के खिलाफ माहौल भी बनने लगा। मगर जैसे ही विकीलीक्स ने भाजपा के वरिष्ठ नेता अरुण जेटली के बारे में एक तथ्य का खुलासा किया तो जेटली तो परेशानी आए ही, सुषमा स्वराज की भी बोलती बंद हो गई।
विकीलीक्स ने खुलासा किया था कि दिल्ली स्थित अमेरिकी राजनयिक ने अपने देश के विदेश विभाग को भेजे गए संदेश में कहा था कि भाजपा नेता अरुण जेटली ने कहा है कि हिन्दू राष्ट्रवाद उनकी पार्टी के लिए महज अवसरवादी मुद्दा है। राजनयिक के मुताबिक, हिन्दुत्व के सवाल पर बातचीत के दौरान जेटली ने तर्क दिया कि हिन्दू राष्ट्रवाद भाजपा के लिए हमेशा महज चर्चा का बिंदु रहेगा। उन्होंने हालांकि इसे अवसरवादी मुद्दा बताया। नई दिल्ली स्थित अमेरिकी दूतावास के राजनयिक राबर्ट ब्लैक ने जेटली से मुलाकात के बाद अपनी सरकार को 6 मई 2005 को भेजे एक संदेश में यह बात कही थी। ब्लैक ने अपने संदेश में कहा था, मिसाल के तौर पर भारत के पूर्वोत्तर में हिन्दुत्व का मुद्दा खूब चलता है क्योंकि वहां बांग्लादेश से आकर बसने वाल मुसलमानों को लेकर स्थानीय आबादी में काफी चिंता है। उनके अनुसार, भारत-पाक रिश्तों में हाल में आए सुधार के मद्देनजर उन्होंने (जेटली) कहा कि हिन्दू  राष्ट्रवाद अब कम असरदार हो गया है, लेकिन सीमा पार से एक और आतंकी हमला होने पर हालात फिर पलट सकते हैं। इस पर जेटली ने सफाई देते हुए कहा कि उन्होंने अवसरवादी शब्द का प्रयोग नहीं किया था, यह शब्द राजनयिक ने अपनी तरफ से जोड़ा होगा।
सवाल ये उठता है कि क्या अब सुषमा स्वराज अपनी मुखरता को बरकरार रखते हुए अपनी ही पार्टी के एक स्तम्भ अरुण जेटली के खिलाफ भी एफआईआर दर्ज करवाने जैसी कोई मांग करेंगी? अथवा उनके खिलाफ पार्टी मंच पर कार्यवाही करने पर जोर देंगी, जिनकी वजह से पार्टी को शर्मिंदगी का सामना करना पड़ रहा है? सवाल ये है कि जब सुषमा स्वराज या कोई अन्य भाजपा नेता विकीलीक्स के किसी खुलासे से कांग्रेस के घिरने पर हमला-दर-हमला करने को आतुर होते हैं तो उसी साइट के भाजपा नेता के बारे में खुलासे पर चुप क्यों हो जाते हैं? जाहिर तौर जैसी उम्मीद थी  विकीलीक्स के नए खुलासे पर कांग्रेस ने भी भाजपा पर पलटवार करते हुए कह दिया कि जो लोग शीशे के मकान में रहते हों, उन्हें दूसरे के घर पत्थर नहीं फैंकने चाहिए। स्पष्ट है कि विकीलीक्स के खुलासे पर कांग्रेस को घेरने वाली भाजपा अब खुद उसमें घिरती जा रही है। उसका दोहरा मापदंड खुल कर सामने आ गया है।
अव्वल तो विकीलीक्स के खुलासों को लेकर पूरी सावधानी बरती जानी चाहिए थी। भले ही उसके खुलासे सही भी हैं तब भी उनकी अपने स्तर जांच के बाद ही आगे बढऩा चाहिए। केवल त्वरित राजनीति लाभ उठाने के लिए विकीलीक्स के खुलासों को आधार बनाया जाना यह साबित करता है कि विपक्ष का असल मकसद हंगामा करना है, आरोप चाहे सही हों या न हों। और अगर विकीलीक्स के खुलासों को सच मान कर कांग्रेस को घेरा जा रहा है तो अपनी पार्टी के नेता जेटली से जुड़ा तथ्य उजागर होने पर वही मापदंड अपनाना चाहिए। कम से कम पार्टी विथ द डिफ्रेंस का नारा बुलंद करने वाली पार्टी से तो यह उम्मीद की ही जानी चाहिए कि वह जैसा कहती है, वैसा करे भी।
-गिरधर तेजवानी

शुक्रवार, अप्रैल 01, 2011

यानि कि वसुंधरा राजे को फ्री हैंड तो नहीं दिया गया है

संगठन की कमान अब भी संघ के हाथों में हैहालांकि यह सही है कि भाजपा हाईकमान के पास पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का कोई तोड़ नहीं, इस कारण मजबूरी में उन्हें फिर से विधानसभा में विपक्ष का नेता बनाना पड़ा, मगर उनकी विरोधी लॉबी भी चुप नहीं बैठी है, यही वजह है कि संगठन में वसुंधरा लॉबी को नजरअंदाज कर यह साबित कर दिया गया है कि पार्टी दोनों के बीच संतुलन बैठा कर ही चलना चाहती है।
उल्लेखनीय है कि लम्बी जद्दोजहद के बाद जब वसुंधरा को फिर से विपक्ष नेता बनाया गया तो उन्हें राजस्थान से रुखसत करने का सपना देख रहे भाजपा नेताओं के सीनों पर सांप लौटने लगे थे। रही सही कसर वसुंधरा के तेवरों ने कर दी। सब जानते हैं कि वसुंधरा किस प्रकार आंधी की माफिक पूरे राज्य में छा जाने की तैयारी कर रही हैं। ऐसे में विरोधी लॉबी ने हाईकमान पर दबाव बनाना शुरू कर दिया कि चलो विधायक दल में बहुमत भले ही वसुंधरा के पास हो, मगर संगठन में तो उनको तवज्जो दी ही जा सकती है। असल में इसी विरोधी लॉबी के कारण ही भाजपा की कुछ सीटें खराब हुई थीं और वसुंधरा राजे दुबारा सरकार बनाने में नाकमयाब हो गईं। भले ही भाजपाई इस तथ्य को स्वीकार न करें, मगर मन ही मन वे जानते हैं कि प्रदेश की कितनी सीटों पर संघ और भाजपा के बीच टकराव की नौबत आई थी। वसुंधरा लॉबी तो चाहती ही ये थी कि वे फिर राजस्थान का रुख न करें, मगर एक तो अंतर्विरोध के बावजूद काफी संख्या में भाजपा विधायक जीत कर आ गए, दूसरा अधिसंख्य विधायक वसुंधरा खेमे के ही थे। इस कारण वसुंधरा का पलड़ा भारी हो गया। सब जानते हैं कि हाईकमान पार्टी की दुर्दशा के लिए मूल रूप से वसुंधरा राजे के साथ पार्टी में आई नई अपसंस्कृति को ही दोषी मानता था, इस कारण उसने सबसे पहले वसुध्ंारा पर इस्तीफे का दबाव बनाया। वसुंधरा को कितना जोर आया पद छोडऩे में, यह भी किसी से छिपा हुआ नहीं है। वे जानती थीं कि ऐसा करके हाईकमान उनसे राजस्थान छुड़वाना चाहता है। इसी कारण बड़े ही मार्मिक शब्दों में कहती थीं कि वे राजस्थान वासियों के प्रेम को भूल नहीं सकतीं और आजन्म राजस्थान की ही सेवा करना चाहती हैं। वे अपने दर्द का बखान इस रूप में भी करती थीं कि उनकी मां विजयाराजे ने भाजपा को सींच कर बड़ा किया है, उसी पार्टी में उन्हें बेगाना कैसे किया जा रहा है। उनका इशारा साफ तौर पर उन दिनों की ओर था, जब भाजपा काफी कमजोर थी और विजयराजे ही पार्टी की सबसे बड़ी फाइनेंसर थीं। अटल बिहारी वाजपेयी व लाल कृष्ण आडवाणी से कंधे से कंधा मिला कर उन्होंने पार्टी को खड़ा किया था।
बहरहाल, प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी ने जिस तरह संगठन के विस्तार में वसुंधरा लॉबी को दरकिनार किया है, उससे साफ संकेत मिलता है कि हाईकमान वसुंधरा विरोधियों को भी पूरी तवज्जो देना चाहता है, ताकि वह आगे चल कर वसुंधरा के हाथों पूरी तरह से ब्लैकमेल न होता रहे। हाईकमान समझता है कि जो महिला विधायकों की ताकत के दम पर उसको लोकतंत्र व बहुमत का उपदेश दे कर बगावत के स्तर पर टकराव मोल ले सकती है, आगामी विधानसभा चुनाव में टिकटों के बंटवारे के वक्त भी भिड़ सकती है। ऐसे में हाईकमान के ही इशारे पर प्रदेश अध्यक्ष चतुर्वेदी ने अपने पत्ते खोले हैं। संगठन में किस तरह वसुंधरा विरोधियों को चुन-चुन कर स्थान दिया गया है, इसका एक उदाहरण ही काफी है कि गुर्जर आंदोलन के दौरान वसुंधरा के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले प्रहलाद गुंजल को प्रदेश उपाध्यक्ष बनाया गया है। समझा जाता है कि ऐसा इसलिए भी किया गया है कि ताकि आगामी विधानसभा चुनाव के वक्त दोनों गुटों के नेगोसिएशन की नौबत आए और दोनो पर ही दबाव रहे कि वे नेगोसिएशन के बाद बनाए गए प्रत्याशियों के लिए एकजुट हो कर काम करें। हाईकमान पिछले अनुभव से भी सबक सीख रहा है कि वसुध्ंारा को फ्री हैंड देने व संघ को अपेक्षित सीटें नहीं देने के कारण टकराव हुआ और भाजपा सत्ता में आने से वंचित रह गई। हाईकमान यह भी अच्छी तरह से समझता है कि वसुंधरा के चक्कर में संघ को कमतर आंका गया तो वह पार्टी की जमीन ही खिसका सकता है। कुल मिला कर संगठन में हुए विस्तार से यह साबित हो गया है कि विधायकों की ताकत के कारण भले ही वसुंधरा पावर में हैं, मगर संगठन में अब भी संघ की ही चल रही है। ऐसे में केवल वसुंधरा के सहारे ही टिकट हासिल करने की सोच रखने वालों की आशाओं पर पानी फिर गया है। उन्हें संगठन के नेताओं के आगे भी नतमस्तक होना पड़ेगा।

शुक्रवार, मार्च 25, 2011

क्या अंजुमनों का फूल मोहम्मद के खानदान को मदद करना जायज है?

महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह में तकरीबन आठ सौ साल से खिदमत करने की खुशकिस्मती हासिल खादिमों की दोनों अंजुमनों ने सवाई माधोपुर के सूरवाल थाना इलाके में जला कर मारे गए थानेदार फूल मोहम्मद के खानदान को पचास हजार रुपए की माली इमदाद करने का फैसला किया है। इस फैसले की खबर पढ़ कर यकायक एक सवाल मेरे जेहन में उभर आया। हो सकता है ये सवाल चूंकि एक खास जमात को लेकर है, इस वजह से उन्हें तो उनके मामले में नाजायज दखल सा लग सकता है, मगर उस जमात का हर जमात के लोगों में एक खास दर्जा है, खास इज्जत है, खास यकीन है, इस वजह से जायज न सही, सोचने लायक तो लगता ही है। सवाल आप सुर्खी को देख कर ही चौंके होंगे। इस पर मेरे जेहन में आए कुछ ख्याल तफसील से रख रहा हूं। इसे बुरा न मानते हुए न लेकर खुले दिल और दिमाग से सोचेंगे, ऐसी मेरी गुजारिश है।
दरअसल आज के जमाने में हमारा पूरा समाज धर्म, संप्रदाय और जातिवाद बंट चुका है। हर जाति वर्ग के लोग अपने जाति वर्ग की बहबूदी के लिए काम कर रहे हैं। इसे बुरा नहीं माना जाता। मोटे तौर पर इस लिहाज से अंजुमनों का फूल मोहम्मद के खानदान वालों के लिए हमदर्दी रखना जायज ही माना जाएगा। उस पर ऐतराज की गुंजाइश नहीं लगती। वजह साफ है। फूल मोहम्मद इस्लाम को मानने वाले थे और खादिम भी इस्लाम को मानते हैं। इस लिहाज से हमदर्दी में मदद करने में कुछ भी गलत नजर नहीं आता। मगर सवाल ये है कि खादिम भले ही जाति तौर पर इस्लाम को मानने वाले हों, मगर वे उस कदीमी आस्ताने के खिदमतगार हैं, जहां से पूरी दुनिया में इत्तेहादुल मजाहिब और मजहबों में भाईचारे का पैगाम जाता है। यह उस महान सूफी दरवेश की बारगाह है, जिसमें केवल इस्लाम को मानने वालों का ही नहीं, बल्कि दुनियाभर के हर मजहब और जाति के करोड़ों लोगों का अकीदा है। अगर ये कहा जाए कि इस मुकद्दस स्थान पर मुसलमानों से ज्यादा हिंदू और दीगर मजहबों के लोग सिर झुकाते हैं, गलत नहीं होगा। वे सब ख्वाजा साहब को एक मुस्लिम संत नहीं, बल्कि सूफी संत मान कर दौड़े चले आते हैं, क्योंकि उन्होंने इंसानियत का संदेश दिया, जो कि हर मजहब के मानने वाले के दिल को छूता है। और यही वजह है कि इस दरगाह की खिदमत करने वालों को भी एक खास दर्जा हासिल है। हर मजहब के लोग आस्ताने में उनका हाथ और चादर अपने सिर पर रखवाने को अपनी खुशनसीबी मानते हैं। बड़ी अकीदत के साथ उनके हाथ चूमते हैं। किसी आम मुसलमान का तो हाथ नहीं चूमते। ऐसी खास जमात के लोग जाति तौर पर भले ही इस्लाम को मानते हैं, मगर सभी मजहबों के लोगों को बराबरी का दर्जा दे कर ही जियारत करवाते हैं। ऐसे में उनकी अंजुमन का इस्लाम को मानने वाले के खानदान के लिए खास हमदर्दी कुछ अटपटी सी लगती है। खासतौर पर यह मामला तो पहले से ही मजहब परस्ती का रुख अख्तियार कर रहा है, इस कारण और भी ज्यादा होशियार रहने की जरूरत है। ख्वाजा साहब के आस्ताने से तो इसे खत्म किए जाने का पैगाम जाना चाहिए। यह भी एक सच है कि अंजुमन ने कई बार सभी मजहबों के लोगों के बीच भाईचारे के जलसे किए हैं। यहां तक कि जब कभी मुल्क में कोई कुदरती आफत आई है तो बढ़-चढ़ कर प्रधानमंत्री कोष और मुख्यमंत्री कोष में मदद की है। यही वजह है कि अंजुमन को नजराना देने वालों में हर मजहब के लोग शुमार हैं। उसी नजराने से इकट्ठा हुई रकम में से एक खास मजहब के परिवार वालों को देना कुछ अटपटा सा लगता है। इसे थोड़ा और खुलासा किए देता हूं। गर कोई मीणा संगठन किसी मीणा को इमदाद देता है तो उस पर कोई ऐतराज नहीं। कोई सिंधी संगठन किसी सिंधी की मदद करता है तो कोई ऐतराज नहीं। ऐसे ही कोई इस्लामिक संगठन किसी मुसलमान की मदद करता है तो भी कोई ऐतराज नहीं। मगर खादिम जमात उन सब से अलहदा है। ऐसा भी नहीं कि इस पचास हजार रुपए की रकम से उस खानदान को बहुत बड़ी राहत मिल जाएगी, जबकि सरकार ने पहले से ही पुलिस का फर्ज निभाते हुए शहीद होने की वजह से काफी मदद कर दी है। ऐसे में महज पचास हजार रुपए की इमदाद की खातिर अपने खास दर्जे से हटना नाजायज नहीं तो सोचने लायक तो है ही।
मेरा मकसद किसी जमात के अंदरूनी मामलात में न तो दखल करने का है और न ही किसी की हमदर्दी पर ऐतराज करने का। असल में मकसद कुछ है नहीं। बस एक ख्याल है, जिसे मैने जाहिर किया है। उम्मीद है इसे बुरा न मानते हुए थोड़ा सा गौर फरमाएंगे। मेरा ख्याल गर दिल को छूता हो तो उसे दाद बेशक न दीजिए, मगर उस पर ख्याल तो कर लीजिए। ताकि एक खास दर्जे की जमात की ओर से ऐसी मिसाल पेश न कर दी जाए, जिसे तंगदिली या तंग जेहनियत माना जाए।
-गिरधर तेजवानी

मंगलवार, मार्च 22, 2011

दवाइयों में लूट मची है ड्रग कंट्रोलर की लापरवाही से

यूं तो दवाइयों के मूल्य पर नियंत्रण रखने के लिए औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश, 1995 लागू है और उसकी पालना करने के लिए औषधि नियंत्रक संगठन बना हुआ है, लेकिन दवा निर्माता कंपनियों की मनमानी और औषधि नियंत्रक 6ड्रग कंट्रोलर8 की लापरवाही के कारण अनेक दवाइयां बाजार में लागत मूल्य से कई गुना महंगे दामों में बिक रही हैं। जाहिर तौर पर इससे इस गोरखधंधे में ड्रग कंट्रोलर की मिलीभगत का संदेह होता है और साथ ही डॉक्टरों की कमीशनबाजी की भी पुष्टि होती है।
वस्तुत: सरकार ने बीमारों को उचित दर पर दवाइयां उपलब्ध होने के लिए औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश, 1995 लागू कर रखा है। इसके तहत सभी दवा निर्माता कंपनियों को अपने उत्पादों पर अधिकतम विक्रय मूल्य सभी कर सहित 6एमआरपी इन्क्लूसिव ऑफ ऑल टैक्सेज8 छापना जरूरी है। इस एमआरपी में मटेरियल कॅास्ट, कन्वर्जन कॉस्ट, पैकिंग मटेरियल कॉस्ट व पैकिंग चार्जेज को मिला कर एक्स-फैक्ट्री कॉस्ट, एक्स फैक्ट्री कॉस्ट पर अधिकतम 100 प्रतिशत एमएपीई, एक्साइज ड्यूटी, सेल्स टैक्स-वैल्यू एडेड टैक्स और अन्य लोकल टैक्स को शामिल किया जाता है। अर्थात जैसे किसी दवाई की लागत या एक्स फैक्ट्री कॉस्ट एक रुपया है तो उस पर अधिकतम 100 प्रतिशत एमएपीई को मिला कर उसकी कीमत दो रुपए हो जाती है और उस पर सभी कर मिला कर एमआरपी कहलाती है। कोई भी रिटेलर उससे अधिक राशि नहीं वसूल सकता।
नियम ये भी है कि सभी दवा निर्माता कंपनियों को अपने उत्पादों की एमआरपी निर्धारित करने के लिए ड्रग कंट्रोलर से अनुमति लेनी होती है। उसकी स्वीकृति के बाद ही कोई दवाई बाजार में बेची जा सकती है। लेकिन जानकारी ये है कि इस नियम की पालना ठीक से नहीं हो रही। या तो दवा निर्माता कंपनियां ड्रग कंट्रोलर से अनुमति ले नहीं रहीं या फिर ले भी रही हैं तो ड्रग कंट्रोलर से स्वीकृत दर से अधिक दर से दवाइयां बेच रही हैं।
एक उदाहरण ही लीजिए। हिमाचल प्रदेश की अल्केम लेबोरेट्री लिमिटेड की गोली च्ए टू जेड एन एसज् की 15 गोलियों की स्ट्रिप की स्वीकृत दर 10 रुपए 52 पैसे मात्र है, जबकि बाजार में बिक रही स्ट्रिप पर अधिकतम खुदरा मूल्य 57 रुपए लिखा हुआ है। इसी से अंदाजा हो जाता है कि कितने बड़े पैमाने पर लूट मची हुई है। इसमें एक बारीक बात ये है कि स्वीकृत गोली का नाम तो च्ए टू जेडज् है, जबकि बाजार में बिक रही गोली का नाम च्ए टू जेड एन एसज् है। यह अंतर जानबूझ कर किया गया है। च्एन एसज् का मतलब होता है न्यूट्रिनेंटल सप्लीमेंट, जो दवाई के दायरे बाहर आ कर उसे एक फूड का रूप दे रही है। अर्थात दवाई बिक्री की स्वीकृति ड्रग कंट्रोलर से दवा उत्पाद के रूप में ली गई है, जबकि बाजार में उसका स्वरूप दवाई का नहीं, बल्कि खाद्य पदार्थ का है। इसका मतलब साफ है कि जब कभी बाजार में बिक रही दवाई को पकड़ा जाएगा तो निर्माता कंपनी यह कह कर आसानी से बच जाएगी कि यह तो खाद्य पदार्थ की श्रेणी में आती है, ड्रग कंट्रोल एक्ट के तहत उसे नहीं पकड़ा जा सकता। मगर सवाल ये उठता है कि जिस उत्पाद को सरकान ने दवाई मान कर स्वीकृत किया है तो उसे खाद्य पदार्थ के रूप में कैसे बेचा जा सकता है?
एक और उदाहरण देखिए, जिससे साफ हो जाता है कि एक ही केमिकल की दवाई की अलग-अलग कंपनी की दर में जमीन-आसमान का अंतर है। रिलैक्स फार्मास्यूटिकल्स प्रा. लि., हिमाचल प्रदेश द्वारा उत्पादित और मेनकाइंड फार्मा लि., नई दिल्ली द्वारा मार्केटेड गोली च्सिफाकाइंड-500ज् की दस गोलियों का अधिकतम खुदरा मूल्य 189 रुपए मात्र है, जबकि ईस्ट अफ्रीकन ओवरसीज, देहरादून-उत्तराखंड द्वारा निर्मित व सिट्रोक्स जेनेटिका इंडिया प्रा. लि. द्वारा मार्केटेड एलसैफ-50 की दस गोलियों की स्ट्रिप का अधिकतम खुदरा मूल्य 700 रुपए है। इन दोनों ही गोलियों में सेफ्रोक्सिम एक्सेटाइल केमिकल 500 मिलीग्राम है। एक ही दवाई की कीमत में इतना अंतर जाहिर करता है कि दवा निर्माता कंपनियां किस प्रकार मनमानी दर से दवाइयां बेच रही हैं और ड्रग कंट्रोलर हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। इससे यह भी साबित होता है कि बाजार में ज्यादा कीमत पर दवाइयां बेचने वाली कंपनियां डॉक्टरों व रिटेलरों को किस प्रकार आकर्षक कमीशन देती होंगी।
दरों में अंतर एक और गोरखधंधा देखिए। जयपुर की टोलिमा लेबोरेट्रीज  का अजमेर के एक मेडिकल स्टोर को दिए गए बिल में 300 एमएल की टोल्युविट दवाई की 175 बोतलों की टे्रड रेट 18 रुपए के हिसाब से 3 हजार 150 रुपए और उस पर कर जोड़ कर उसे 3 हजार 621 रुपए की राशि अंकित की गई है, जबकि उसी बिल में दवाई की एमआरपी 70 रुपए दर्शा कर कुल राशि 12 हजार 250 दर्शायी गई है। अर्थात मात्र 18 रुपए की दवाई को रिटेलर को 70 रुपए में बेचने का अधिकार मिल गया है। तस्वीर का दूसरा रुख देखिए कि बीमार जिस दवाई के 70 रुपए अदा कर खुश हो रहा है कि वह महंगी दवाई पी कर जल्द तंदरुस्त हो जाएगा, उस दवाई को निर्माता कंपनी ने जब रिटेलर को ही 18 रुपए में बेचा है तो उस पर लागत कितनी आई होगी। यदि मोटे तौर पर एक सौ प्रतिशत एमएपीई ही मानें तो उसकी लागत बैठती होगी मात्र नौ रुपए। वह नौ रुपए लागत वाली दवाई कितनी असरदार होगी, इसकी सहज की कल्पना की जा सकती है।
कुल मिला कर यह या तो ड्रग कंट्रोलर की लापरवाही से हो रहा है या फिर मिलीभगत से। सवाल ये उठता है कि ऐसी दवा निर्माता कंपनियों व ड्रग कंट्रोलर को कंट्रोल कौन करेगा?
-गिरधर तेजवानी

शुक्रवार, मार्च 18, 2011

सांसद कोष : मांगने वाले भी खुद ही, देने वाले भी खुद ही, भई वाह !

केन्द्र सरकार ने अंतत: निर्णय कर ही लिया कि सांसद कोष को दो करोड़ से बढ़ा कर पांच करोड़ कर दिया जाए। सरकार ने क्या, सांसदों ने ही निर्णय किया है। मांग करने वाले भी सांसद और मांग पूरी करने वाले भी सांसद। खुद ने खुद को ही सरकारी खजाने से तीन करोड़ रुपए ज्यादा देने का निर्णय कर लिया। सांसद निधि बढ़ाने के निर्णय का कोई और विकल्प है भी नहीं। और दिलचस्प बात ये है कि राजनीतिक विचारधाराओं में लाख भिन्नता के बावजूद इस मसले पर सभी सांसद एकमत हो गए। भला अपने हित के कौन एक नहीं होता। मगर आमजन को यह सवाल करने का अधिकार तो है ही कि जिस मकसद से यह निर्णय किया गया है, वह पूरा होगा भी या नहीं? क्या वास्तव में इसका सदुपयोग होगा?
हालांकि कोष बढ़ाने के निर्णय के साथ यह तर्क दिया गया है कि इससे दूरदराज गांव-ढ़ाणी में रह रहे गरीब का उत्थान होगा, मगर इस तर्क से उस पूरे प्रशासनिक तंत्र पर सवालिया निशान लग जाता है, जो कि वास्तव में सरकार की रीढ़ की हड्डी है। एक सांसद तो फिर भी अपने कार्यकाल में संसदीय क्षेत्र के गांव-गांव ढ़ाणी-ढ़ाणी तक नहीं पहुंच पाता, जबकि प्रशासनिक तंत्र छोटे-छोटे मगरे-ढ़ाणी तक फैला हुआ है। 
सवाल ये उठता है सांसद निधि बढ़ाए जाने के निर्णय से पहले धरातल पर जांच की गई कि क्या वास्तव में सांसद अपने विवेकाधीन कोष का लाभ जरूरतमंद को ही दे रहे हैं? क्या किसी सरकारी एजेंसी से जांच करवाई गई है कि सांसद निधि की बहुत सारी राशि ऐसी संस्थाओं को रेवड़ी की तरह बांट दी जाती है, जिससे व्यक्तिगत का व्यक्तिगत हित सधता है? चाहे वह वोटों के रूप में हो अथवा कमीशनबाजी के रूप में। कमीशनबाजी का खेल काल्पनिक नहीं है, कई बार ऐसे मामले सामने आ चुके हैं। सवाल ये भी है कि सांसद निधि बढ़ाए जाने से पहले क्या इसकी भी जांच कराई गई कि पहले जो दो करोड़ की राशि थी, वह भी ठीक से काम में ली गई है या नहीं?
हालांकि इस सभी सवालों के मायने यह नहीं है कि सांसद निधि का दुरुपयोग ही होता है, लेकिन यह तो सच है ही कि अनेक सांसद ऐसे हैं जो सांसद निधि का उपयोग करने में रुचि लेते ही नहीं। और जो लेते हैं वे किस तरह से अपने निकटस्थों और उनकी संस्थाओं को ऑब्लाइज करते हैं, यह किसी से छिपा हुआ नहीं है। इस सिलसिले में अंधा बांटे रेवड़ी, फिर-फिर अपनों को दे वाली कहावत अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं कही जाएगी। इसके अतिरिक्त जिन संस्थाओं को सांसद कोष से राशि दी जाती है, वे संस्थाएं अमूमन प्रभावशाली लोगों की होती हैं। इनमें पत्रकारों के संगठन व पत्रकार क्लबों को शामिल किया जा सकता है। जयपुर के पिंक सिटी क्लब में भी अनेक सांसदों व विधायकों के कोष की राशि खर्च की गई है। यानि जिन संस्थाओं को राशि दी जाती है, वे उतनी जरूरतमंद नहीं, जितने कि गरीब तबके के लोग। एक उदाहरण और देखिए। अजमेर के दो सांसदों औंकारसिंह लखावत व डॉ. प्रभा ठाकुर ने देशनोक स्थित करणी माता मंदिर के लिए इसलिए अपने कोष से राशि इसीलिए दे दी क्योंकि उन पर अपनी चारण जाति के प्रभावशाली लोगों का दबाव था। या फिर इसे उनकी श्रद्धा की उपमा दी जा सकती है। हालांकि यह सही है कि दोनों सांसदों ने नियमों के मुताबिक ही यह राशि दी होगी, इस कारण इसे चुनौती देना बेमानी होगा, मगर सवाल ये है कि देशभर में इस प्रकार खर्च की गई राशि से ठेठ गरीब आदमी को कितना लाभ मिलता है?
वस्तुस्थिति तो ये है कि इस राशि का उपयोग अपनी राजनीतिक विचारधारा का पोषित के लिए किया जाता है। अनेक सांसदों ने अपनी पार्टी की विचारधारा से संबद्ध दिवंगत अथवा जीवित नेताओं के नाम पर स्मारक, उद्यान आदि बनाने के लिए राशि दी है।
ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे, जिनमें आपको सांसद कोष से बने निर्माणों की दुर्दशा होती हुई मिल जाएगी। अजमेर का ही एक छोटा सा उदाहरण ले लीजिए। तत्कालीन भाजपा सांसद प्रो. रासासिंह रावत ने पत्रकारों को ऑब्लाइज करने के लिए सूचना केन्द्र में छोटा सा पत्रकार भवन बनाया, मगर उसका आज तक उपयोग नहीं हो पाया है। उस पर ताले ही लगे हुए हैं। रखरखाव के अभाव में वह जर्जर होने लगा है।
ऐसे में सांसद निधि को दो करोड़ से बढ़ा कर यकायक पांच करोड़ रुपए कर दिया जाना नि:संदेह नाजायज ही लगता है। सांसदों को अपनी निधि बढ़ाने से पहले ये तो सोचना चाहिए था कि यह पैसा आमजन की मेहनत की कमाई से बने कोष में से निकलेगा। एक ओर गरीबी हमारे देश की लाइलाज बीमारी बन गई है। सरकार के लाख प्रयासों और अनेकानेक योजनाओं के बाद भी बढ़ती जनसंख्या और महंगाई के कारण गरीबी नहीं मिटाई जा सकी है, दूसरी ओर सांसद निधि के नाम पर सरकारी कोष से करीब आठ सौ सांसदों को मिलने वाले अतिरिक्त चौबीस सौ करोड़ रुपए  क्या जायज हैं? खैर, आमजन केवल सवाल ही उठा सकते हैं, उस पर निर्णय करना तो जनप्रतिनिधियों के ही हाथ में है। जब तक ये सवाल उनके दिल को नहीं छू लेते, तब तक कोई भी उम्मीद करना बेमानी है।
-गिरधर तेजवानी