तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

बुधवार, जुलाई 23, 2025

जूठा क्यों नहीं खाना चाहिए?

दोस्तो, नमस्कार। आम तौर पर लोग किसी का जूठा खाना नहीं खाते। जूठा खाना न खाने के पीछे कई स्वास्थ्य और सांस्कृतिक कारण होते हैं। एक तो यह है कि इससे बैक्टीरिया और संक्रमण का खतरा होता है। किसी व्यक्ति द्वारा खाया हुआ भोजन उसके मुंह और लार के संपर्क में आता है। अगर व्यक्ति में कोई संक्रमण या बीमारी है, तो वह दूसरे व्यक्ति को भी संक्रमित कर सकता है। इसके अतिरिक्त जूठा भोजन रखने से उसमें बैक्टीरिया जल्दी पनपते हैं, जिससे भोजन दूषित हो सकता है और खाने से पेट की समस्याएं हो सकती हैं।

दूसरा कारण यह कि भारतीय समाज में भोजन को बहुत पवित्र माना जाता है। इसलिए भोजन का आदर करना जरूरी है और जूठा खाने से उसकी शुद्धता कम होती है। धार्मिक दृष्टिकोण से भी, कई परंपराओं में जूठा भोजन अशुद्ध माना जाता है। इसे खाने से व्यक्ति की मानसिक और शारीरिक शुद्धता पर प्रभाव पड़ता है।

दूसरी ओर एक मान्यता यह भी है कि जूठा खाना खाने से प्यार बढ़ता है और इसी वजह से कई लोग जैसे कि प्रेमी-प्रेमिका, यार-दोस्त, पति-पत्नी एक-दूसरे का जूठा बड़े ही प्यार से खा लेते हैं। हर किसी को यही लगता है कि जूठा खाना खाने से प्यार बढ़ता है लेकिन ऐसा बिल्कुल भी नहीं है क्योंकि ज्योतिष शास्त्र के अनुसार जूठा खाना किसी व्यक्ति के जीवन में दुर्भाग्य को भी आमंत्रण दे सकता है। शास्त्रों के अनुसार किसी का जूठा खाना नहीं खाना चाहिए क्योंकि ऐसा करने वाले व्यक्ति किसी और का दुर्भाग्य अपने नाम कर लेते हैं और अपने हाथों से अपनी समस्याएं बढ़ा लेते हैं.

जो लोग किसी का जूठा भोजन करते हैं तो इससे व्यक्ति की वाणी और भाषा पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। जूठा खाने से प्रभाव पडता ही है, इसकी दलील यह है कि कई समाजों में अन्नप्राषन्न संस्कार में नवजात को किसी बुजुर्ग का जूठा जौ व गुड खिलाया जाता है। एक बात दिलचस्प बात और। ऐसी मान्यता है कि यदि किसी को किसी की नजर लग जाए तो उसका जूठा पानी पिलाने पर नजर का असर खत्म हो जाता है। बहरहाल अगर आप भी प्यार मोहब्बत में आकर किसी का जूठा खाना खाते हैं तो फिर आपको अपनी यह आदत फौरन बदल देनी चाहिए नहीं तो हो सकता है कि जाने-अंजाने में आप अपने हाथों से अपने दुर्भाग्य को आमंत्रण दे बैठें, इसलिए इससे बचने का सबसे बेहतर तरीका यही है कि आप किसी का जूठा खाने से परहेज करें।


 https://youtu.be/LmHpfJxCD-g

मंगलवार, जुलाई 22, 2025

सिर मुंडवाते वक्त चोटी क्यों छोडी जाती है?

दोस्तो, नमस्कार। हम सब के ख्याल में है कि पिता के निधन पर पुत्र अंत्येश्टि से ठीक पहले बाल कटवाता है, लेकिन चोटी छोडी जाती है। क्या आपने विचार किया है कि ऐसा क्यों? वस्तुतः पिता के निधन पर हिन्दू परंपरा में पुत्र द्वारा सिर मुंडवाना एक सामान्य शोक प्रथा है, जो पितृ ऋण से मुक्ति, श्रद्धा और वैराग्य का प्रतीक माना जाता है। मगर चोटी यानि षिखा को नहीं काटने के पीछे गहरे धार्मिक और सांस्कृतिक कारण हैं। शिखा विशेष रूप से ब्राह्मण, वैदिक परंपरा और संस्कार का प्रतीक होती है। यह आध्यात्मिक ऊर्जा और ज्ञान के अनुशासन की निरंतरता का चिन्ह मानी जाती है। ज्ञातव्य है कि सिर के जिस स्थान पर चोटी होती है, उसे ब्रह्मरंध्र या सहस्रार चक्र कहते हैं, जो आध्यात्मिक जागरण का केन्द्र माना जाता है। इसे पूरी तरह से काटना आध्यात्मिक रूप से अनुचित माना जाता है।

चोटी न रहने पर व्यक्ति कई धार्मिक कार्यों और कर्मकांडों के लिए अयोग्य माना जाता है। उदाहरणतः यदि शिखा नहीं हो, तो पिंडदान, श्राद्ध, हवन, संध्या वंदन आदि करने में बाधा मानी जाती है। सिर के बाकी हिस्से के बाल काटकर वैराग्य और शोक प्रकट किया जाता है। लेकिन चोटी को छोड़ना यह संकेत देता है कि धार्मिक जीवन और कर्तव्य अब भी जारी है। चोटी को न काटना धार्मिक परंपरा, आत्मिक ऊर्जा और कर्मकांड की निरंतरता को बनाए रखने के लिए आवश्यक माना गया है।


https://youtu.be/FuVjDkNqAy8


https://ajmernama.com/thirdeye/434866/


रविवार, जुलाई 20, 2025

दीवार पर झरने की तस्वीर क्यों लगाई जाती है?

दोस्तो, नमस्कार। आपको ख्याल में होगा कि घर में लोग झरने, नदी या पानी की तस्वीर लगाते हैं। क्या सोच कर ऐसा किया जाता है? इस परंपरा के पीछे क्या रहस्य है? असल में वास्तुशास्त्र के अनुसार माना जाता है बहते हुए पानी की तस्वीर घर में लगाना शुभ होता है। 

इस सिलसिले में प्रसिद्ध ज्योतिशी ज्योतिषी और हस्तरेखाविद श्री राजेन्द्र गुप्ता की राय है कि पानी तस्वीरों या शो पीस को घर में लगाते समय कुछ बातों का ध्यान रखना चाहिए- घर के सदस्यों या फैमिली बिजनेस को बेडलक या लोगों की बुरी नजर से बचाए रखने के लिए गलियारे या बालकनी में पानी से संबंधित कोई तस्वीर या शो-पीस रखना चाहिए। पानी से जुड़ा कोई भी शो-पीस या तस्वीर किचन में नहीं लगाना चाहिए। किचन में उपयोग किए जाने वाले पानी अलावा जल संबंधी कोई भी वस्तु रखना अच्छा नहीं माना जाता। यदि आप फाउंनटेन घर में लगवा रहे हैं तो इसे घर की उत्तर या दक्षिण-पूर्व दिशा में लगवा सकते हैं। ऐसा करने से फाउंनटेन गुडलक और तरक्की लाता है। घर की उत्तर-पूर्व दिशा में मिट्टी के बने बर्तन या सुराही में पानी भर कर रखना चाहिए। ऐसा करने से घर के लोगों का दुर्भाग्य खत्म होता है और हर काम में सफलता मिलती है।यदि आपके घर में गार्डन एरिया है तो आप वहां वाटरफॉल लगवा सकते हैं। घर में वाटरफॉल की दिशा इस तरह से होनी चाहिए कि पानी का प्रवाह आपके घर की दिशा में हो। यह बाहर की ओर कभी नहीं जाना चाहिए। इस बारे में और विस्तार से जानने के लिए आप उनसे मोबाइल नंबर 9116089175 पर संपर्क कर सकते हैं।


https://youtu.be/u10240gjOl8
https://ajmernama.com/thirdeye/434729/

शनिवार, जुलाई 19, 2025

श्रद्धांजलि देते वक्त दो मिनट का मौन क्यों?

दोस्तो, नमस्कार। हम सब जानते हैं कि किसी को श्रद्धांजलि देते वक्त दो मिनट का मौन रखा जाता है। क्या कभी ख्याल किया है कि यह परंपरा कैसे षुरू हुई और इसकी उपयोगिता क्या है?

असल में श्रद्धांजलि देते वक्त दो मिनट का मौन रखना एक गहरे सम्मान और संवेदना का प्रतीक होता है। इसके पीछे कई सांस्कृतिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कारण होते हैं।

मौन रहकर हम उस व्यक्ति के जीवन और योगदान को याद करते हैं। यह एक शांत और गंभीर तरीका होता है यह दिखाने का कि हम उन्हें दिल से सम्मान देते हैं। मौन का समय हमें भीतर झांकने, अपने विचारों और भावनाओं से जुड़ने का मौका देता है। हम उस व्यक्ति के साथ अपने संबंध को याद करते हैं। जब एक समूह एक साथ मौन धारण करता है, तो यह एकता और सहानुभूति का भाव पैदा करता है। यह दिखाता है कि हम सब मिलकर उस क्षति को महसूस कर रहे हैं। मौन अपने आप में ध्यान का रूप होता है। यह पल थोड़ी देर के लिए संसार की हलचल से हटकर शांति और स्थिरता में जाने का अवसर देता है। दो मिनट का मौन सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि कई देशों में युद्ध, आपदा या किसी महान व्यक्तित्व के निधन पर श्रद्धांजलि के रूप में अपनाया जाता है। दो मिनट का मौन रखने की परंपरा की शुरुआत प्रथम विश्व युद्ध के बाद हुई थी। 1919 में, ब्रिटेन और उसके सहयोगी देशों ने प्रथम विश्व युद्ध में मारे गए सैनिकों की याद में एक दो मिनट का मौन रखा था। इसे पहली बार 11 नवम्बर 1919 को सुबह 11 बजे मनाया गया। यह पहल किंग जॉर्ज पंचम ने की थी। उन्होंने लोगों से अपील की कि वे युद्ध में मारे गए सैनिकों को श्रद्धांजलि देने के लिए दो मिनट का मौन रखें।

भारत में भी यह परंपरा अपनाई गई, विशेषकर महात्मा गांधी की पुण्यतिथि (30 जनवरी) पर दो मिनट का मौन रखकर उन्हें श्रद्धांजलि दी जाती है। इसके अलावा, किसी भी राष्ट्रीय शोक या बड़ी दुर्घटना पर यह मौन रखा जाता है।

 

https://ajmernama.com/thirdeye/434688/

https://youtu.be/6v56HziDVXE

शुक्रवार, जुलाई 18, 2025

आदमी व औरत के कफन का रंग अलग-अलग क्यों?

दोस्तो, नमस्कार। आपकी जानकारी में होगा कि पुरूश की अर्थी पर सफेद रंग का कफन होता है, जबकि महिला के कफन का रंग अमूमन लाल या हल्का गुलाबी होता है। यह अंतर क्यों?

असल में पुरुष की अर्थी पर सफेद कपड़ा वैराग्य, शुद्धता, और त्याग का प्रतीक माना जाता है। स्त्री की अर्थी पर कभी-कभी लाल या हल्का गुलाबी रंग का कफन या चुनरी रखी जाती है, विशेषकर विवाहित स्त्रियों के मामले में। यह रंग सुहाग, शक्ति, और देवी रूप का प्रतीक माना जाता है।

हिंदू मान्यता में स्त्री को देवी का रूप माना गया है। इसलिए उसकी विदाई (मृत्यु) को भी श्रृंगारयुक्त और सम्मानजनक ढंग से किया जाता है। विशेष रूप से विवाहित स्त्री को साड़ी या चुनरी से सजा कर विदा किया जाता है, मानो वह अपने पति के पास जा रही हो।

पुरुष को मृत्यु के बाद वैरागी माना जाता है, इसीलिए उसका कफन सादा सफेद होता है।

यह अंतर केवल धार्मिक नहीं, बल्कि एक संवेदनात्मक श्रद्धा का भाव भी दर्शाता है। परिवार स्त्री की विदाई को एक विशेष सम्मान और भावनात्मक जुड़ाव के रूप में देखता है।

अगर स्त्री विधवा हो या साध्वी हो, तो उसका कफन भी सामान्यतः सफेद ही होता है, जैसे पुरुषों का होता है।


 https://youtu.be/6gml-ayGQlI

गुरुवार, जुलाई 10, 2025

क्या झूलेलाल और कलंदर एक ही हैं?

दोस्तो, नमस्कार। आम तौर पर सिंधी समुदाय के लोग कई मौकों पर दमादम मस्त कलंदर वाले गीत पर झूमते-नाचते हैं। इसको लेकर विवाद है। वो यह कि झूलेलाल व कलंदर एक ही नहीं हैं। अलग-अलग हैं। बाकायदा तर्क भी हैं। इस पर भारतीय सिंधु सभा ने खूब काम किया है। परचे तक छपवा कर जागृति लाने की कोषिष की है। बावजूद इसके यह गीत आज भी गाया जाता है। हाल ही एक वीडियो मेरी जानकारी में आया। वह पाकिस्तान का है। उसमें भी एक गीत में झूलेलाल व कलंदर को एक बताया गया है। यानि पाकिस्तान के मुसलमान व सूफी भी झूलेलाल व कलंदर को एक ही मानते हैं। इस विशय पर पूर्व में बनाए गए वीडियो का लिंक यह हैः-

https://www.youtube.com/watch?v=COszpBXQYzA&t=146s


बुधवार, जुलाई 09, 2025

रविवार को तुलसी की पूजा क्यों नहीं की जाती?

दोस्तो, नमस्कार। आपको जानकारी होगी कि रविवार को तुलसी की पूजा नहीं की जाती। उसे छूने व पत्ते तोडने की भी मनाही है। आखिर इसकी क्या वजह है? एक मान्यता तो यह है कि रविवार के दिन तुलसी में कुलक्ष्मी का वास होता है। उसकी पूजा करने से कुल में दरिद्रता, क्लेश और रोग प्रवेश करते हैं। बताते हैं कि भगवान श्री विश्णु से वरदान प्राप्त कर कुलक्ष्मी ने एक दिन के लिए तुलसी में वास करने की अनुमति हासिल की थी। प्रतीकात्मक रूप से देखा जाए तो रविवार को तुलसी में कुल की समृद्धि को नष्ट करने वाली ऊर्जा होती है। इसलिए उसकी पूजा करना निशिद्ध है। दूसरी मान्यता के अनुसार तुलसी को लक्ष्मीजी का रूप माना जाता है और यह शीतलता व सात्त्विकता की प्रतीक है। रविवार को सूर्य देवता का दिन माना जाता है, जो तेज, ताप और ऊर्जा के देवता हैं। रविवार को सूर्य का प्रभाव प्रबल होता है और तुलसी के पौधे में जल डालने से उसकी जड़ें कमजोर हो सकती हैं। इस कारण रविवार को पूजा से परहेज किया जाता है। प्रसंगवष बता दें कि पौराणिक नियमों में यह उल्लेख है कि तुलसी के पत्ते रविवार, एकादशी और संक्रांति के दिन नहीं तोड़ने चाहिए। जैसे नित्यं तुलस्याः पत्राणि न गृह्णीयात रविवासरे। कुछ विद्वानों का कहना है कि रविवार के अतिरिक्त शुक्रवार को भी तुलसी के पत्ते नहीं तोडने चाहिए।

शुक्रवार को माता लक्ष्मी की विशेष पूजा होती है। कुछ परंपराओं में यह कहा जाता है कि शुक्रवार को तुलसी के पत्ते तोड़ना या पूजा करना लक्ष्मी का अपमान माना जाता है।


सोमवार, जुलाई 07, 2025

कामुक लोगों की उम्र अधिक क्यों होती है?

दोस्तो, नमस्कार। आम तौर पर वासना व कामुकता को अच्छा नहीं माना जाता। सारे विद्वान वासना से निवृत्ति का उपदेष देते हैं। लेकिन कुछ जानकार बताते हैं कि कामुकता बरकरार रहे तो उम्र बढ जाती है, षरीर स्वस्थ रहता है। इसी सिलसिले में किसी ने रूहानी अंदाज में कहा है कि बढती उम्र में भी करते रहिए इष्क, चेहरे का नूर बरकरार रहेगा।

वस्तुतः भारतीय दर्शन, विशेषतः जैन, बौद्ध और वेदांत परंपरा में वासना को एक बंधन माना गया है। यह आत्मा को संसार में बाँधने वाला तत्व है, जिससे मुक्त होना मोक्ष का मार्ग माना जाता है। ब्रह्मचर्य को मानसिक व शारीरिक बल का स्रोत माना गया है। दूसरी ओर आधुनिक विज्ञान और मनोविज्ञान की मान्यता है कि कामेच्छा एक प्राकृतिक जैविक प्रवृत्ति है। नियमित और संतुलित यौन जीवन मानसिक तनाव को घटाता है, इम्यून सिस्टम मजबूत करता है और हृदय स्वास्थ्य में सहायक होता है। अभिनिवेश यानि (जीने की इच्छा) को प्रेम और आकर्षण भी पोषण देते हैं, जिससे उम्र लंबी हो सकती है। कामुकता केवल शारीरिक इच्छा नहीं है, बल्कि यह मानव की जैविक, हार्मोनल, मानसिक और सामाजिक प्रवृत्तियों का समुच्चय है। यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, जो मानव प्रजनन, संबंध निर्माण, और मानसिक संतुलन से जुड़ी है। विज्ञान के अनुसार, नियमित, सुरक्षित और संतुलित यौन क्रिया से शरीर पर कई सकारात्मक प्रभाव होते हैं। यौन क्रिया से डोपामीन, ऑक्सीटोसिन और एंडोर्फिन जैसे हैप्पी हार्मोन्स बढ़ते हैं। ये हार्मोन तनाव कम करते हैं, नींद सुधारते हैं और त्वचा में चमक लाते हैं। नियमित सेक्स से हृदय गति संतुलित होती है। अध्ययन में पाया गया है कि सप्ताह में 1-2 बार यौन संबंध रखने वालों में इम्यून सिस्टम अधिक मजबूत होता है। ब्रिटेन में हुए एक अध्ययन में पाया गया कि जिन पुरुषों ने नियमित सेक्स किया, उनकी मृत्यु दर कम थी। यह संभवतः मानसिक संतुलन, हार्मोनल स्वास्थ्य और शारीरिक सक्रियता के कारण होता है। कामुकता तनाव और अवसाद को कम करने में सहायक है। इसी प्रकार एक सर्वे में यह भी पाया गया है कि ब्रह्चारी भले ही योग के जरिए आध्यात्मिक षिखर पर पहुंच जाएं, मगर उन की उम्र कम होती है। वजह हार्मोनल असंतुलन। वैसे वैज्ञानिक चेतावनी भी है कि अत्यधिक वासना या आकर्षण की लत एक मानसिक समस्या है। संतुलन जरूरी है। सेक्स का अतिरेक अगर विवेक खो दे, तो तनाव, अपराधबोध, या शारीरिक थकान ला सकता है। कुल मिला कर कामुकता एक जैविक शक्ति है, जिसका संतुलित उपयोग जीवन को लंबा, सुंदर और स्वस्थ बना सकता है। लेकिन यदि यह व्यक्ति पर हावी हो जाए, तो उसका नुकसान भी हो सकता है।

https://youtu.be/0hYwmKux_jc

https://ajmernama.com/thirdeye/434054/

रविवार, जुलाई 06, 2025

आधे मार्ग पर शव की दिशा क्यों बदल दी जाती है?

दोस्तो, नमस्कार। अगर आप किसी की षव यात्रा में गए हों, तो आपको पता होगा कि षवयात्रा के आधे मार्ग में षव की दिषा बदल दी जाती है। षव की दिषा बदलने के लिए ष्मषान के पास बाकयदा चबूतरा बनाया जाता है, जिसे मारवाड में आधेठो कहा जाता है। क्या कभी विचार किया है कि ऐसा क्यों?

इसे तफसील से समझने की कोषिष करते हैं। जब घर से षव यात्रा निकाली जाती है तो षव के पैर आगे और सिर पीछे रखा जाता है। मान्यता है कि प्राणी जब ष्मषान स्थल की ओर जा रहा है तो उसके लिए पैर आगे होने चाहिए, मानो वह चल कर जा रहा हो। आधे मार्ग पर उसकी दिषा बदल जाती है और षव का सिर आगे व पैर रखे जाते हैं, यानि उसने संसार का परित्याग कर दिया है। यह संकेत माना जाता है कि मृत व्यक्ति अब वापस लौट कर नहीं आएगा। यह जीवन से मृत्यु की यात्रा का प्रतीकात्मक विभाजन है। कुछ मान्यताओं में कहा जाता है कि आधे रास्ते तक मृतक का मुख घर की ओर रहता है, क्योंकि अभी वह अपने घर-परिवार से जुड़ा माना जाता है। आधे रास्ते पर दिशा बदलने से संकेत होता है कि अब उसका संबंध भूलोक से पूरी तरह समाप्त हो गया। इसके पीछे मनोवैज्ञानिक कारण भी बताया जाता है, वह यह कि परिजन को यह भाव दिया जाए कि अब लौटने की कोई आशा शेष नहीं है। एक धारणा यह है कि प्राणी का मुख मोड़ दो ताकि आत्मा आसक्ति के कारण पीछे मुड ़कर घर न देखे।


https://ajmernama.com/thirdeye/434014/

https://youtu.be/2ks97Nb6nnU


मंगलवार, जुलाई 01, 2025

ज्योतिष में विदेश यात्रा के योग पर सवाल

दोस्तो, नमस्कार। ज्योतिश विद्या में कुंडली या हस्तरेखा का अध्ययन कर विदेष यात्रा का योग बताया जाता है। सवाल यह है कि विदेष किसे कहा जाता है? पुराने जमाने में एक षहर से दूसरे षहर जाने को भी विदेष कहा जाता था, जबकि अब एक देष से दूसरे देष जाने को। ऐसे में विदेष यात्रा के योग का क्या अर्थ निकाला जाए? वास्तव में “विदेश” शब्द का अर्थ समय और संदर्भ के अनुसार बदलता रहा है। भारत में जब संचार और आवागमन सीमित था, तब अपने नगर या सीमित भूभाग से बाहर जाना ही विदेश जाना कहलाता था। उदाहरण के लिए, किसी गांव या राज्य की सीमा पार करके दूसरे क्षेत्र में जाना “विदेश यात्रा” कही जाती थी। धर्मशास्त्रों और पुराणों में भी “विदेश” शब्द का प्रयोग “अपना देश छोड़ कर परदेश में जाना” (भौगोलिक या सांस्कृतिक दृष्टि से) के अर्थ में हुआ। समुद्र पार जाना तो म्लेच्छ भूमि मानी जाती थी और वह विशेष अशुद्धि का कारण समझी जाती थी। इसलिए ज्योतिष के शास्त्रों में विदेशगमन का महत्त्व काफी बड़ा माना जाता था। अब “विदेश” से आशय एक देश से बाहर किसी दूसरे संप्रभु देश में जाना होता है। यानी भारत से अमेरिका, इंग्लैंड, कनाडा या खाड़ी देशों में जाना। नगर या राज्य के भीतर यात्रा को यात्रा या प्रवास कहते हैं, “विदेश यात्रा” नहीं। जब पारंपरिक ज्योतिष ग्रंथ “विदेश यात्रा” का योग बताते हैं, तो उनका आशय मूलतः व्यक्ति के जन्म स्थान से दूर, परदेश में लंबा प्रवास होता है। यह परदेश देश के भीतर भी हो सकता है, पर आज की व्यावहारिक भाषा में इसे अंतरराष्ट्रीय यात्रा ही माना जाता है।

कुल जमा यही समझ में आता है कि घर से दूरस्थ स्थान पर जाने को विदेष यात्रा कहा जाता है, पहले वह एक षहर से दूसरे षहर के लिए माना जाता था, जबकि अब दूसरे देष के लिए। इसमें किलोमीटर में दूरी का जिक्र नहीं किया जा सकता।


https://youtu.be/ATg4GOEfpV0

https://ajmernama.com/thirdeye/433754/