तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

गुरुवार, नवंबर 21, 2024

क्या शुभ मुहूर्त निकालना बेमानी है?

भारतीय संस्कृति में सभी कार्य शुभ मुहूर्त में ही करने की परंपरा है। ऐसा कार्य की सफलता के लिए किया जाता है। इसके प्रति लोगों में गहरी आस्था है। विवाह, भवन निर्माण, दुकान के उद्घाटन इत्यादि बड़े कार्यों में तो शुभ मुहूर्त का विशेष ध्यान रखा ही जाता है, कई लोग छोटे-छोटे कार्य भी चोघडिय़ा देख कर करते हैं। यह तो हुआ तस्वीर का एक रुख। दूसरा रुख ये है कि शुभ मुहूर्त में काम आरंभ करने पर भी कई बार असफलता हाथ लगती है। यह सर्वविदित है कि लगभग हर विवाह शुभ मुहूर्त में ही होता है, कुंडलियों का मिलान किया जाता है, बावजूद इसके गृह क्लेश और संबंध विच्छेद की घटनाएं होती हैं। शुभ मुहूर्त में दुकान का आरंभ करने पर भी कई बार दुकान नहीं चलती या फिर घाटा होने पर बंद करनी पड़ती है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या शुभ मुहूर्त बेमानी है?

किसी सज्जन ने हाल ही एक पोस्ट सोशल मीडिया पर डाली, जिसका सारांश आपकी नजर पेश है-

सीता विवाह और राम का राज्याभिषेक दोनों शुभ मुहूर्त में किए गए, फिर भी न वैवाहिक जीवन सफल हुआ, न ही राज्याभिषेक। जब मुनि वशिष्ठ से इसका जवाब मांगा गया तो उन्होंने साफ कह दिया-

सुनहु भरत भावी प्रबल, बिलखि कहेहूं मुनिनाथ। 

लाभ हानि, जीवन मरण, यश-अपयश विधि हाथ।

इसका तात्पर्य ये है कि विधि ने जो निर्धारित कर रखा है, वही होता है, चाहे आप कोई भी कार्य शुभ मुहूर्त में आरंभ करें। 

विशेष रूप से मरण के मामले में हमारा कोई दखल नहीं। वह अवश्यंभावी है। उसे टाला नहीं जा सकता। बेशक चिरंजीवी होने का वरदान तो होता है, मगर कभी न मरने का वरदान कभी किसी को नहीं मिला। यदि कोई मृत्यु से बचने के अनेक प्रकार के वरदान किसी के पास थे तो भी विधि ने उसकी मृत्यु का युक्तिसंगत रास्ता निकाल दिया। पितामह भीष्म को भले ही इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था, मगर उन्हें भी एक दिन मरना था। बस फर्क इतना था कि वे अपनी मृत्यु को टाल सकते है। 

उस पोस्ट में यह भी लिखा है कि भगवान राम व भगवान कृष्ण को विधि अनुसार ही फल भोगने पड़े। इसी प्रकार शिव जी सती की मृत्यु को नहीं टाल सके, जबकि महामृत्युंजय मंत्र उन्हीं का आह्वान करता है। इसी प्रकार रामकृष्ण परमहंस भी अपने कैंसर को न टाल सके। न साईं बाबा अपनी मृत्यु को और न ईसा मसीह अपनी पीड़ादायक मृत्यु को। रावण व कंस बहुत शक्तिसंपन्न थे, मगर उनका अंत भी विधि ने तय कर रखा था।

प्रश्न ये उठता है कि जब सब कुछ विधि के ही हाथ है तो मुहूर्त निकलवाने की जरूरत क्या है?

ऐसा प्रतीत होता है कि विधि का विधान तो काम करता ही है, मगर किसी भी कार्य की सफलता में कई फैक्टर काम करते हैं। वस्तुतः विधि अपनी ओर से कुछ भी निर्धारित नहीं करती। वह हमारे कर्मों, काम के प्रति समर्पण, लगन, मेहनत आदि से ही गणना कर निर्धारण करती है। कदाचित पूर्व जन्म के कर्म व संस्कार भी भूमिका अदा करते हैं। शुभ समय में काम आरंभ करना भी एक फैक्टर है, मगर अकेले इससे काम नहीं चलता, अन्य फैक्टर भी काम करते हैं। इसी कारण शुभ मुहूर्त में कार्यारंभ करने पर भी कई बार असफलता हाथ लगती है। 

एक और बात ये भी लगती है कि जीवन के सोलह संस्कार व अन्य बड़े काम पूर्व कर्मों के आधार पर पहले से निर्धारित होते हैं, मगर दैनिक दिनचर्या से जुड़े छोटे-मोटे कार्य में शुभ मुहूर्त अपनी भूमिका निभाता है। इसका आप स्पष्ट अनुभव भी कर सकते हैं। चूंकि शुभ मुहूर्त का अस्तित्व माना गया है, इस कारण यह जानते हुए भी कि होगा वही जो मंजूरे खुदा होगा, हम शुभ मुहूर्त निकलवाते हैं। और सफलता नहीं मिलने पर हम यह मान कर अपने आप को संतुष्ट करते हैं कि हमारी किस्मत में नहीं था, या फिर हमसे कोई त्रुटि हो गई होगी।

बुधवार, नवंबर 13, 2024

क्या अंतिम समय में भगवान का नाम लेने से कल्याण संभव है?

क्या अंतिम समय में भगवान का नाम लेने से कल्याण संभव है? मान्यता तो यही है, इसी कारण अंत समय में भगवान का नाम लेने व स्मरण करने की सलाह दी जाती है। मरणासन्न व्यक्ति के सामने भगवान का नाम दोहराया जाता है, ताकि उसका ध्यान भगवान में लगे। मगर सवाल यह उठता है कि जिसने जीवन भर धर्माचरण नहीं किया, केवल आखिरी वक्त में भगवान का नाम लेने से उसका कल्याण कैसे हो सकता है? अव्वल तो मरते समय भगवान पर ध्यान स्थिर होना ही मुष्किल है। इस बारे में विद्वानों की मान्यता है कि अंतिम समय में भगवान का नाम लेने से कल्याण की संभावना है, लेकिन यह व्यक्ति की आंतरिक स्थिति, उनके कर्म, और पूरे जीवन में किए गए प्रयासों पर भी निर्भर करता है। असंभव भले न हो, मगर कठिन जरूर है। आध्यात्मिक दृष्टि से इसका तात्पर्य यह है कि अंतिम समय में भगवान का नाम लेने से व्यक्ति की चेतना का स्तर ऊंचा होता है और वह भौतिक बंधनों से मुक्त हो जाता है। इस प्रकार, भले ही व्यक्ति ने जीवन में गलतियां की हों, अंत में भगवान का स्मरण करने से उसे एक विशेष कृपा मिल सकती है।

दूसरा मत ये है कि सिर्फ अंतिम समय में भगवान का नाम लेना ही पर्याप्त नहीं होता। यदि व्यक्ति अपने पूरे जीवन में धर्म का पालन करता है, सत्कर्म करता है और भगवान का स्मरण करता है, तो अंत में उसका भगवान से जुड़ना सहज और स्वाभाविक हो जाता है।

 अंतिम समय में भगवान का स्मरण केवल तभी फलदायी होता है जब व्यक्ति ने पूर्व में आध्यात्मिक साधना की हो या संपूर्ण विश्वास से उसे किया हो।


शनिवार, नवंबर 09, 2024

नंदी के कान में क्यों बताते हैं मनोकामना?

आपने देखा होगा कि कई श्रद्धालु षिवजी के मंदिर में दर्षन को जाते हैं तो मंदिर के गर्भगृह के ठीक बाहर सामने स्थित नंदी की प्रतिमा के कान में कुछ फुसफुसाते हैं। असल वे नंदी को अपनी मनोकामना बताते हैं। विष्वास यह कि नंदी उनकी मनोकामना की जानकारी षिवजी को देंगे और षिवजी उसे पूरा करेंगे। असल में मान्यता है कि नंदी षिवजी के परमभक्त व उनके वाहन हैं। उसके सबसे करीब। अतः अर्जी ठीक मुकाम पर पहुंचेगी। यह ठीक वैसे ही है, जैसे श्रद्धालु दरगाह ख्वाजा साहब में हाजिरी के वक्त ख्वाजा साहब से दुआ मांगते हैं, मगर हाजिरी अर्थात जियारत की रस्म खुद्दाम साहेबान अदा करते हैं। इसी प्रकार तीर्थराज पुश्कर में स्नान के दौरान पूजा अर्चना किसी पुरोहित के माध्यम से करवाते है। बेषक अपने ईश्ट से सीधे भी संपर्क साधा जा सकता है, मगर माध्यम की जरूरत होती ही है। जैसे मुवक्किल को वकील की जरूरत होती है। किसी सज्जन ने इंटरनेट पर लिखा है कि नंदी के कान में मनोकामना बताने का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। यह आस्था मात्र है। बिलकुल यह प्रथा विज्ञान द्वारा प्रमाणित नहीं है। मगर वैज्ञानिक आधार तलाषना भी तो अर्थहीन है। क्या खादिम व पुरोहित की भूमिका का कोई वैज्ञानिक आधार है। नहीं। तो नंदी की अहमियत पर सवाल करना उचित कैसे हो सकता है?

पौराणिक कथा के अनुसार, शिलाद नाम के मुनि ने संतान प्राप्ति की कामना के साथ भगवान इंद्रदेव को रिझाने के लिए तपस्या की। परंतु, इंद्रदेव ने संतान का वरदान देने में असर्मथता जताते हुए भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए अनुरोध किया। इसके बाद शिलाद मुनि ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए तपस्या की। जिसके बाद शिवजी प्रकट हुए और उन्होंने शिलाद को स्वयं के रूप में प्रकट होने का वरदान दिया। महादेव के वरदान के बाद शिलाद मुनि को नंदी के रूप में संतान प्राप्त हुई। शिवजी के आशीर्वाद के कारण नंदी अजर अमर हो गए। उन्होंने संपूर्ण गणों, गणेश व वेदों के समक्ष गणों के अधिपति के रूप में नंदी का अभिषेक कराया। जिसके बाद नंदी नंदीश्वर कहलाए। भगवान शिव ने नंदी को वरदान दिया कि जहां उनका निवास होगा, वहां स्वयं भी निवास करेंगे। मान्यता है कि तब से ही शिव मंदिर में भगवान शिव के सामने नंदी विराजमान रहते हैं।


बुधवार, नवंबर 06, 2024

ज्योतिषी के लिए आस्तिक होना जरूरी नहीं?

क्या आपको इस बात पर यकीन होगा कि कोई नास्तिक भी ज्योतिश का प्रकांड पंडित हो सकता है। जाहिर है, आप यही कहेंगे कि ऐसा कैसे संभव हो सकता है। जो आस्तिक नहीं, उसे ज्योतिश आ ही कैसे सकता है। मगर सच ये है कि ऐसा संभव होते देखा है मैने। मेरे एक अभिन्न मित्र नास्तिक हैं, बचपन से। कभी कोई पूजा-पाठ नहीं करते। न दीया जलाते हैं और न ही अगरबत्ती। बावजूद इसके वे हस्तरेखा व कुंडली के प्रकांड विद्वान हैं। सटीक भविश्यवाणी किया करते हैं। दिलचस्प बात ये है कि खुद टोने-टोटके में यकीन नहीं करते, मगर जिज्ञासु को उसका उपाय बताते हैं। मैं तब अचंभित रह गया, जब उन्होंने एक सुपरिचित ज्योतिशी को उनकी हथेली देख कर बता दिया था अमुक दिन आपका एक बडा ऑपरेषन होगा, जबकि स्वयं ज्योतिशी को इसकी जानकारी नहीं थी। ऐसा प्रतीत होता है कि ज्योतिश विषुद्ध रूप से एक विज्ञान है, जैसे एमबीबीएस। एमबीबीएस करने के लिए धार्मिक होने की कोई जरूरत नहीं, ठीक इसी प्रकार ज्योतिर्विद्या सीखने के लिए आस्तिक होना जरूरी नहीं। हां, इतना जरूर हो सकता है कि आस्तिक ज्योतिशी भविश्य वाणी करते वक्त अंतर्दृश्टि का उपयोग भी किया करते होंगे। इन्ट्यूषन का उपयोग करते होंगे। मैं निजता की रक्षा करते हुए नास्तिक ज्योतिशी का नाम उजागर नहीं करूंगा। मेरा मकसद सिर्फ ज्योतिश को विषुद्ध विज्ञाान होने को आपसे साझा करना है।