आज जब कि भाजपा में मोदी युग चल रहा है, जहां लालकृष्ण आडवाणी जैसे हाशिये पर धकेल दिए गए हैं, ऐसे में राजस्थान की मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे का यह कहना कि आगामी विधानसभा चुनाव भी उनके ही नेतृत्व में लड़ा जाएगा तो यह किसी दुस्साहस से कम नहीं है। आपको याद होगा कि ये वही जिगर वाली नेत्री है, जिसने राजनाथ सिंह के राष्ट्रीय भाजपा अध्यक्ष रहते राजस्थान विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष के पद से इस्तीफा देने से इंकार कर दिया था। बाद में दिया तो भी ऐसा दिया कि वह खाली ही रहा, अगला चुनाव आने से कुछ माह पहले न केवल बहुत गरज करवा कर फिर कब्जा किया, अपितु चुनाव भी उनके ही नेतृत्व में लड़े जाने का ऐलान करवाया।
जब चुनाव में भारी बहुमत से जीत दर्ज की तो स्वाभाविक रूप से उसका श्रेय उनके ही खाते में गिना जाना चाहिए था, मगर चूंकि मोदी लहर के चलते अप्रत्याशित सीटें हासिल हुईं तो उनका यह श्रेय लेना मोदी को नागवार गुजरा। समझ लीजिए, तभी से दोनों के बीच एक ऐसी रेखा खिंच गई, जो कि आज भी नजर आती है। अघोषित टकराव का खामियाजा राजस्थान की जनता भुगत रही है। वसुंधरा उतनी स्वतंत्रता से काम नहीं कर पा रहीं, जितना पिछले कार्यकाल में सीमित बहुमत के बाद भी किया था। पांच में से तीन साल गुजरने के बाद भी कई महत्वपूर्ण राजनीतिक पद खाली ही पड़े हुए हैं। गिनाने को योजनाएं और आंकड़े तो बहुत हैं, मगर धरातल का सच क्या है, ये भाजपाई भी जानते हैं। और यही वजह है कि वे स्वयं समझ रहे हैं कि अगला चुनाव जीतना मुश्किल होगा।
बात भाजपा के अंदरखाने की करें तो ये बात कई बार उठी है कि मोदी किसी न किसी बहाने वसुंधरा की जगह किसी और को मुख्यमंत्री बनाने की फिराक में है, मगर न तो उन्हें उचित मौका मिल पा रहा है और न ही वसुंधरा उन्हें दाव दे रही हैं। एकबारगी वे हिम्मत करके हटा भी दें, मगर समस्या ये है कि उनके पास वसुंधरा का विकल्प नहीं है। आज भी जो फेस वैल्यू वसुंधरा की है, वैसी किसी और भाजपा नेता की नहीं। ऐसे में मोदी चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहे। यह बात खुद वसुंधरा भी जानती हैं और इसी कारण हाल ही जब उनकी सरकार के तीन साल पूरे हुए तो उन्होंने बड़ी हिम्मत के साथ कह दिया कि अगला चुनाव भी उनके नेतृत्व में लड़ा जाएगा। इस पर रूठे भाजपा नेता घनश्याम निवाड़ी ने आपत्ति भी की, मगर ये सच है कि भाजपा में ही बड़ी तादात ऐसे नेताओं की है, जिनकी निष्ठा वसुंधरा में है। समझा जा सकता है कि मोदी जैसे तानाशाही नेता को ये सुन कर कैसा लगा होगा।
वस्तुत: राजस्थान में दो तरह की भाजपा है। एक संघ निष्ठ और दूसरी वसुंधरा निष्ठ। बेशक राष्ट्रीय स्तर पर संघ के हाथ में रिमोट कंट्रोल है, मगर राजस्थान में दोनों के बीच एक संतुलन बैठाया हुआ है, जिसमें वसुंधरा का पलड़ा भारी है। संघ सत्ता में अपना हिस्सा जरूर झटक लेता है, मगर अपर हैंड वसुंधरा का ही रहता है। भला ऐसे में उनमें अगला चुनाव भी उनके ही नेतृत्व में लड़े जाने के ऐलान का दुस्साहस आ जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हां, ये बात जरूर है कि पिछली बार ही तुलना में इस शेरनी की दहाड़ कुछ कमजोर है। देखते हैं, चुनाव आते आते समीकरणों में क्य बदलाव आता है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
8094767000
जब चुनाव में भारी बहुमत से जीत दर्ज की तो स्वाभाविक रूप से उसका श्रेय उनके ही खाते में गिना जाना चाहिए था, मगर चूंकि मोदी लहर के चलते अप्रत्याशित सीटें हासिल हुईं तो उनका यह श्रेय लेना मोदी को नागवार गुजरा। समझ लीजिए, तभी से दोनों के बीच एक ऐसी रेखा खिंच गई, जो कि आज भी नजर आती है। अघोषित टकराव का खामियाजा राजस्थान की जनता भुगत रही है। वसुंधरा उतनी स्वतंत्रता से काम नहीं कर पा रहीं, जितना पिछले कार्यकाल में सीमित बहुमत के बाद भी किया था। पांच में से तीन साल गुजरने के बाद भी कई महत्वपूर्ण राजनीतिक पद खाली ही पड़े हुए हैं। गिनाने को योजनाएं और आंकड़े तो बहुत हैं, मगर धरातल का सच क्या है, ये भाजपाई भी जानते हैं। और यही वजह है कि वे स्वयं समझ रहे हैं कि अगला चुनाव जीतना मुश्किल होगा।
बात भाजपा के अंदरखाने की करें तो ये बात कई बार उठी है कि मोदी किसी न किसी बहाने वसुंधरा की जगह किसी और को मुख्यमंत्री बनाने की फिराक में है, मगर न तो उन्हें उचित मौका मिल पा रहा है और न ही वसुंधरा उन्हें दाव दे रही हैं। एकबारगी वे हिम्मत करके हटा भी दें, मगर समस्या ये है कि उनके पास वसुंधरा का विकल्प नहीं है। आज भी जो फेस वैल्यू वसुंधरा की है, वैसी किसी और भाजपा नेता की नहीं। ऐसे में मोदी चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहे। यह बात खुद वसुंधरा भी जानती हैं और इसी कारण हाल ही जब उनकी सरकार के तीन साल पूरे हुए तो उन्होंने बड़ी हिम्मत के साथ कह दिया कि अगला चुनाव भी उनके नेतृत्व में लड़ा जाएगा। इस पर रूठे भाजपा नेता घनश्याम निवाड़ी ने आपत्ति भी की, मगर ये सच है कि भाजपा में ही बड़ी तादात ऐसे नेताओं की है, जिनकी निष्ठा वसुंधरा में है। समझा जा सकता है कि मोदी जैसे तानाशाही नेता को ये सुन कर कैसा लगा होगा।
वस्तुत: राजस्थान में दो तरह की भाजपा है। एक संघ निष्ठ और दूसरी वसुंधरा निष्ठ। बेशक राष्ट्रीय स्तर पर संघ के हाथ में रिमोट कंट्रोल है, मगर राजस्थान में दोनों के बीच एक संतुलन बैठाया हुआ है, जिसमें वसुंधरा का पलड़ा भारी है। संघ सत्ता में अपना हिस्सा जरूर झटक लेता है, मगर अपर हैंड वसुंधरा का ही रहता है। भला ऐसे में उनमें अगला चुनाव भी उनके ही नेतृत्व में लड़े जाने के ऐलान का दुस्साहस आ जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हां, ये बात जरूर है कि पिछली बार ही तुलना में इस शेरनी की दहाड़ कुछ कमजोर है। देखते हैं, चुनाव आते आते समीकरणों में क्य बदलाव आता है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
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