तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

बुधवार, जनवरी 25, 2017

वसुंधरा के दुस्साहस को दाद देनी होगी

आज जब कि भाजपा में मोदी युग चल रहा है, जहां लालकृष्ण आडवाणी जैसे हाशिये पर धकेल दिए गए हैं, ऐसे में राजस्थान की मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे का यह कहना कि आगामी विधानसभा चुनाव भी उनके ही नेतृत्व में लड़ा जाएगा तो यह किसी दुस्साहस से कम नहीं है। आपको याद होगा कि ये वही जिगर वाली नेत्री है, जिसने राजनाथ सिंह के राष्ट्रीय भाजपा अध्यक्ष रहते राजस्थान विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष के पद से इस्तीफा देने से इंकार कर दिया था। बाद में दिया तो भी ऐसा दिया कि वह खाली ही रहा, अगला चुनाव आने से कुछ माह पहले न केवल बहुत गरज करवा कर फिर कब्जा किया, अपितु चुनाव भी उनके ही नेतृत्व में लड़े जाने का ऐलान करवाया।
जब चुनाव में भारी बहुमत से जीत दर्ज की तो स्वाभाविक रूप से उसका श्रेय उनके ही खाते में गिना जाना चाहिए था, मगर चूंकि मोदी लहर के चलते अप्रत्याशित सीटें हासिल हुईं तो उनका यह श्रेय लेना मोदी को नागवार गुजरा। समझ लीजिए, तभी से दोनों के बीच एक ऐसी रेखा खिंच गई, जो कि आज भी नजर आती है। अघोषित टकराव का खामियाजा राजस्थान की जनता भुगत रही है। वसुंधरा उतनी स्वतंत्रता से काम नहीं कर पा रहीं, जितना पिछले कार्यकाल में सीमित बहुमत के बाद भी किया था। पांच में से तीन साल गुजरने के बाद भी कई महत्वपूर्ण राजनीतिक पद खाली ही पड़े हुए हैं। गिनाने को योजनाएं और आंकड़े तो बहुत हैं, मगर धरातल का सच क्या है, ये भाजपाई भी जानते हैं। और यही वजह है कि वे स्वयं समझ रहे हैं कि अगला चुनाव जीतना मुश्किल होगा।
बात भाजपा के अंदरखाने की करें तो ये बात कई बार उठी है कि मोदी किसी न किसी बहाने वसुंधरा की जगह किसी और को मुख्यमंत्री बनाने की फिराक में है, मगर न तो उन्हें उचित मौका मिल पा रहा है और न ही वसुंधरा उन्हें दाव दे रही हैं। एकबारगी वे हिम्मत करके हटा भी दें, मगर समस्या ये है कि उनके पास वसुंधरा का विकल्प नहीं है। आज भी जो फेस वैल्यू वसुंधरा की है, वैसी किसी और भाजपा नेता की नहीं। ऐसे में मोदी चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहे। यह बात खुद वसुंधरा भी जानती हैं और इसी कारण हाल ही जब उनकी सरकार के तीन साल पूरे हुए तो उन्होंने बड़ी हिम्मत के साथ कह दिया कि अगला चुनाव भी उनके नेतृत्व में लड़ा जाएगा। इस पर रूठे भाजपा नेता घनश्याम निवाड़ी ने आपत्ति भी की, मगर ये सच है कि भाजपा में ही बड़ी तादात ऐसे नेताओं की है, जिनकी निष्ठा वसुंधरा में है। समझा जा सकता है कि मोदी जैसे तानाशाही नेता को ये सुन कर कैसा लगा होगा।
वस्तुत: राजस्थान में दो तरह की भाजपा है। एक संघ निष्ठ और दूसरी वसुंधरा निष्ठ। बेशक राष्ट्रीय स्तर पर संघ के हाथ में रिमोट कंट्रोल है, मगर राजस्थान में दोनों के बीच एक संतुलन बैठाया हुआ है, जिसमें वसुंधरा का पलड़ा भारी है। संघ सत्ता में अपना हिस्सा जरूर झटक लेता है, मगर अपर हैंड वसुंधरा का ही रहता है। भला ऐसे में उनमें अगला चुनाव भी उनके ही नेतृत्व में लड़े जाने के ऐलान का दुस्साहस आ जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हां, ये बात जरूर है कि पिछली बार ही तुलना में इस शेरनी की दहाड़ कुछ कमजोर है। देखते हैं, चुनाव आते आते समीकरणों में क्य बदलाव आता है।
-तेजवानी गिरधर
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मंगलवार, जनवरी 24, 2017

गहलोत के बाद अब डूडी की चुनौति के मायने?

राजस्थान विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रामेश्वर डूडी के निवास पर जनसुनवाई के दौरान उनके समर्थकों की ओर से अगला मुख्यमंत्री बनाने संबंधी नारे लगने के बाद इसकी चर्चा राजनीतिक हलकों सहित सोशल मीडिया पर खूब है। कुछ लोग इसे आगामी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की ओर से मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार सचिन पायलट के लिए चुनौति मानते हैं तो कुछ इसे महज अचानक हुई एक घटना मात्र, तो कुछ जाट रणनीति का एक हिस्सा। यहां उल्लेखनीय है कि सचिन के लिए पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भी एक चुनौति के रूप में माने जाते हैं। कांग्रेस का एक खेमा उन्हें अब भी अगला मुख्यमंत्री बनाए जाने के लिए सजीव बनाए हुए है।
सवाल ये उठता है कि क्या गहलोत व डूडी की इन चुनौतियों में गंभीरता कितनी है या फिर ये मात्र शोशेबाजी? असल में कांग्रेस में वही होता है, होता रहा है, जो कि हाईकमान ने चाहा है। बेशक स्थानीय क्षत्रप समय समय पर सिर उठाते हैं, मगर आखिरकार हाईकमान के फैसले के आगे सभी नतमस्तक हो जाते हैं। उसकी वजह ये है कि आमतौर पर क्षत्रपों का खुद का वजूद नहीं होता। वे जो कुछ होते हैं, पार्टी के बलबूते। ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे, जो यह साफ दर्शाते हैं कि चाहे कोई कितना भी बड़ा नेता क्यों न हो, मगर कांग्रेस हाईकमान के विपरीत जाते ही हाशिये पर आ जाता है। ऐसे में अगर हाईकमान अगर चाहता है कि बहुमत आने पर सचिन को ही मुख्यमंत्री बनाना है तो किसी में इतनी ताकत नहीं कि उसे चुनौति दे सके। बेशक दबाव जरूर बना सकते हैं, जैसा कि गहलोत की ओर से बनाया जा रहा है, या फिर अब डूडी के समर्थक बना रहे हैं।
जहां तक गहलोत की ओर से दबाव बनाए जाने का सवाल है तो वह इस वजह से कि वे दो बार मुख्यमंत्री और एक बार प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रह चुके हैं। जाहिर तौर पर इस दौरान उन्होंने हजारों समर्थकों को निजी लाभ पहुंचाया होगा। वे गहलोत के गुण गाएंगे ही। यूं उनका कार्यकाल अच्छा ही रहा है, मगर कुछ बड़ी राजनीतिक भूलों और मोदी लहर के चलते पार्टी चौपट हो गई। ऐसे में पार्टी ने कार्यकर्ताओं में नई जान फूंकने के लिए सचिन को प्रदेश अध्यक्ष बनाया और इस प्रकार का संदेश भी दिया कि उनके नेतृत्व में ही अगला चुनाव लड़ा जाएगा। स्वाभाविक रूप से पूर्व में स्थापित नेताओं को यह नागवार गुजरा होगा। गहलोत समर्थकों को तो कुछ ज्यादा ही, क्योंकि इससे उनको अपने वजूद का भी खतरा महसूस होने लगा। उसे बचाने कर खातिर वे लामबंद हैं। यही वजह है गहलोत एक चुनौति के रूप में देखे जाते हैं। गहलोत भी भला क्यों नहीं चाहेंगे कि उन्हें फिर से मुख्यमंत्री बनने का मौका मिले, अत: वे यह कह कर अपनी संभावनाओं को सुरक्षित कर लेते हैं कि मुख्यमंत्री का फैसला निर्वाचित विधायक करते हैं। मगर वे स्वयं भी जानते हैं कि अगर हाईकमान की रुचि सचिन में रही तो वे कुछ नहीं कर पाएंगे। कांग्रेस हाईकमान भी ऐसे संकेत देता रहा है कि गहलोत का उपयोग राजस्थान की बजाय दिल्ली या संगठन में किया जाएगा। हाल ही उन्हें उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में स्क्रीनिंग कमेटी का चेयरमैन बनाया गया है। रहा सवाल राजस्थान में उनके दखल तो संभावना यही है कि आगामी विधानसभा चुनाव में उनके समर्थकों के लिए भी कुछ सीटें रिजर्व रखी जाएंगी। यानि कि हिस्सेदारी उनकी भी होगी। जैसे जब वे मुख्यमंत्री थे तो सी पी जोशी अपनी हिस्सेदारी बनाए हुए थे।
बात अगर डूडी के निवास पर हुई घटना का करें तो यह डूडी से कहीं अधिक किसी जाट को मुख्यमंत्री बनाए जाने की मांग से जुड़ा हुआ है। डूडी इतने बड़े या सर्वमान्य नेता नहीं कि मुख्यमंत्री पद की दावेदारी कर दें। वस्तुत: किसी जाट को मुख्यमंत्री बनाए जाने की मांग अरसे से की जाती रही है। वर्तमान चूंकि डूडी नेता प्रतिपक्ष हैं तो वे ही मांग के केन्द्र में नजर आ सकते हैं। यह सच है कि राजस्थान में जाटों का वर्चस्व रहा है, मगर एक बार भी किसी जाट को मुख्यमंत्री बनने का मौका नहीं मिला। यहां तक कि खांटी नेता परसराम मदेरणा को भी विधानसभा अध्यक्ष तक ही संतुष्ट रहना पड़ा। वे प्रदेश अध्यक्ष भी रहे। इसी प्रकार डॉ. चंद्रभान व नारायण सिंह को भी प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया। जब प्रदेश अध्यक्ष गुर्जर नेता सचिन पायलट को बनाया तो डूडी को नेता प्रतिपक्ष बना दिया गया। यानि कि जाटों को नकारा नहीं गया, संतुलन बनाए रखा गया, मगर सत्ता का शीर्ष पद नहीं सौंपा गया। इसके पीछे का क्या गणित है, वो तो पार्टी ही जाने। अगर डूडी के बहाने जाटों ने और दबाव बनाया तो होगा इतना ही कि टिकट वितरण के दौरान वे कुछ ज्यादा झटक लेंगे, इससे ज्यादा कुछ होता नजर नहीं आ रहा।
-तेजवानी गिरधर
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रविवार, जनवरी 22, 2017

सफाई क्यों देनी पड़ी मनमोहन वैद्य को?

संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य ने आखिर खुद ही सफाई देते हुए कहा है कि संघ आरक्षण के खिलाफ नहीं है, मगर ये सवाल तो सवाल ही बना रह गया कि आखिर उनके बयान पर विवाद हुआ ही क्यों कर? क्या मीडिया ने उनके पहले दिए बयान को समझने में गलती की? क्या वे अपने पहले दिए बयान में बात ठीक से कह नहीं पाए, इस कारण मीडिया ने ये अर्थ निकाला कि संघ आरक्षण के खिलाफ है? या फिर मीडिया ने जानबूझकर उनके बयान का गलत अर्थ निकाल कर विवाद पैदा किया, जैसा कि कुछ संघनिष्ठ लोग मान रहे हैं?
यह बात ठीक है कि वैद्य ने बाद में जो बयान दिया है, उसमें उन्होंने अपनी बात को तफसील से समझाया है कि संघ आरक्षण का पक्षधर है। इसकी वजह ये बताई है कि चूंकि एक वर्ग सामाजिक भेदभाव की वजह से पिछड़ा हुआ है, उसे आरक्षण की जरूरत महसूस की गई और चूंकि सामाजिक भेदभाव अब भी जारी है, इस कारण आरक्षण भी जारी रहना चाहिए।
अब जरा उनके पहले दिए बयान पर गौर करें तो उसमें उनका कहना था कि आरक्षण को खत्म करना चाहिए और इसकी जगह ऐसी व्यवस्था लाने की जरूरत है, जिसमें सबको समान अवसर और शिक्षा मिले। वैद्य ने कहा कि अगर लंबे समय तक आरक्षण जारी रहा तो यह अलगाववाद की तरफ ले जाएगा। उन्होंने कहा कि किसी भी राष्ट्र में हमेशा के लिए ऐसे आरक्षण की व्यवस्था का होना अच्छी बात नहीं है। सबको समान अवसर और शिक्षा मिले।
उनकी इस बात ये तो स्पष्ट है कि संघ सिद्धांतत: आरक्षण के पक्ष में नहीं, मगर चूंकि सामाजिक भेदभाव जारी है, इस कारण यह लागू ही रहना चाहिए। समझा जा सकता है कि विवाद हुआ ही इसलिए कि उन्होंने जितनी स्पष्टता के साथ बाद में बयान दिया, अगर वैसा ही पहले भी कह देते तो विवाद होता ही नहीं। अव्वल तो ऐन चुनाव के वक्त इस विवादास्पद विषय पर बोलते ही नहीं। अगर सवाल का उत्तर देना बहुत जरूरी ही था तो ठीक वैसा ही बोलते, जैसा कि बाद में कहा। जरा देखिए, उन्होंने कितने साफ शब्दों में स्पष्ट किया है कि आरक्षण जरूरी है:-
https://youtu.be/LIic-Nx8JYg
असल में विवाद ने इसलिए तूल पकड़ा क्योंकि इस वक्त उत्तरप्रदेश सहित पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। यह बात वैद्य भी जानते रहे होंगे, मगर उनसे यह चूक कैसी हुई, यह समझ से परे है। हालांकि माहौल बिगड़ता देख उन्होंने तुरंत सफाई दी, मगर तब तक पिछड़े तबके में तो यह संदेश चला ही गया कि संघ आरक्षण के खिलाफ है। वह इसलिए भी कि इससे पहले भी बिहार चुनाव के वक्त संघ प्रमुख मोहन भागवत कुछ इसी तरह का बयान दे चुके हैं, जिसका खामियाजा भाजपा को भुगतना पड़ा।
-तेजवानी गिरधर
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सुमेधानंद क्या, वसुंधरा तक लाचार हैं संघ के आगे?

सीकर से भाजपा के सांसद सुमेधानन्द सरस्वती का एक कथित ऑडियो सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर वायरल हुआ है, जिसमें सांसद सुमेधानन्द सरस्वती संघ के आगे लाचार होते सुनाई दे रहे हैं। इतना ही नहीं, ऑडियो में सांसद ने यहां तक कह डाला कि संघ के आगे तो राज्य की मुख्यमंत्री तक भी नतमस्तक है। यह ऑडियो में एक कॉलेज लेक्चरर श्रीधर शर्मा और सांसद सुमेधानन्द सरस्वती के बीच हुई बातचीत का बताया जा रहा है, जिसमें श्रीधर शर्मा अपने स्थानांतरण को लेकर सांसद से बात करते हुए सुनाई दे रहे हैं।
ऑडियो की सच्चाई क्या है अथवा क्या वह सुमेधानंद की ही आवाज है, इस पर न जाते हुए विषय वस्तु को देखें तो वह ठीक ही प्रतीत होती है। सुमेधानंद क्या, वसुंधरा राजे तक संघ के आगे नतमस्तक हैं। दिलचस्प बात ये है कि सुमेधानंद न केवल अपनी लाचारी बताई, अपितु वसुंधरा की स्थिति का भी बयान कर दिया। संयोग से चंद दिन पहले ही यह सुस्थापित हो गया था कि वसुंधरा का रिमोट कंट्रोल भी संघ के ही हाथ है। किसी समय राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से संबंधों को सिरे से नकारने वाली भाजपा को संघ ही संचालित करता है, इसका ताजा उदाहरण अजमेर में देखने को मिला। भले ही आधिकारिक तौर पर न तो भाजपा ने कुछ कहा, न ही संघ की ओर से कोई बयान आया, मगर सारे अखबार इसी बात से अटे पड़े थे कि संघ के यहां हुए कैंप में मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और गृहमंत्री गुलाबचंद कटारिया ने हाजिरी दी। यहां आ कर उन्हें सरकार के तीन साल के कामकाज का ब्यौरा दिया। इतना ही नहीं उन्हें यहां सरकार की खामियों को भी गिनाया गया। यानि की यह पूरी तौर से साफ हो गया कि संघ इतनी बड़ी ताकत है, जिसके आगे एक राज्य के मुख्यमंत्री को भी पेश होना पड़ता है। निश्चित रूप से इससे मुख्यमंत्री पद की गरिमा गिरी है, भाजपा व संघ चाहे इसे स्वीकार करें या नहीं।
चलो, ये संघ और भाजपा के आपसी संबंधों और समझ का मामला है, उनका आतंरिक मामला है, मगर क्या इस घटना से मुख्यमंत्री जैसे गरिमा वाले पद की संघ के आगे कितनी बिसात है, यह उजागर नहीं हुआ है? संघ चाहता तो जयपुर में ही किसी गुप्त स्थान पर वसुंधरा राजे को बुला कर उनसे सरकार की परफोरमेंस पूछ सकता था। गोपनीय स्थान पर दिशा-निर्देश दे सकता था। क्या उसके लिए अजमेर में आयोजित हुए कैंप में बुलाना जरूरी था।? संघ और भाजपा के पास सफाई देने को हालांकि कुछ है नहीं, मगर ये कह सकते हैं कि कौन कहता है कि मुख्यमंत्री की हाजिरी लगवाई गई। मगर जब पूरा मीडिया एक स्वर से यह कह रहा था कि मुख्यमंत्री को जवाब तलब किया गया, तो क्या उनकी ओर से उसका खंडन नहीं किया जाना चाहिए था। कहीं ऐसा तो नहीं कि ऐसा जानबूझकर किया गया, ताकि भाजपा नेताओं व कार्यकर्ताओं में यह संदेश जाए कि संघ ही उनका आला कमान है। हालांकि भाजपा नेता व कार्यकर्ता तो अच्छी तरह से जानते हैं कि किस प्रकार संघ का पार्टी में दखल है, मगर यही तथ्य जब सार्वजनिक होता है तो यह सवाल उठना लाजिमी है कि संघ को भाजपा का रिमोट कंट्रोल कहे जाने पर दोनों को क्यों ऐतराज होता है?
अजमेर में हुई इस घटना का एक पहलू ये भी है कि जब से केन्द्र में भाजपा की स्पष्ट बहुमत वाली सरकार आई है, संघ पर शिंकजा और कस गया है। किसी जमाने में सीधे हाई कमान से टक्कर लेने वाली वसुंधरा राजे अब कितनी कमजोर हैं, यह साफ परिलक्षित होता है। और यही वजह है कि जैसा कार्यकाल पिछला रहा, उसकी तुलना में मौजूदा कार्यकाल कमतर माना जा रहा है। सच तो ये है कि सरकार में राजनीतिक नियुक्तियों को लेकर संघ का इतना दखल है कि तीन साल बीत जाने के बाद भी कई महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्यिां अटकी हुई हैं। ऐसे में भला सरकार का परफोरमेंस कैसे बेहतर रह सकता है, यह अपने आप स्पष्ट हो जाता है।
बात अगर सुमेधानंद के वायलर हुए ऑडियो की करें तो उससे यह तक उजागर हो रहा है कि राजनीतिक नियुक्तियां क्या, पोस्टिंग तक में संघ की चलती है। ऑडियो की बातचीत में श्रीधर शर्मा ने सांसद को अपनी पीड़ा सुनाई तो सांसद ने कहा कि संघ जिसको चाहता है, वहीं मनमाफिक पोस्टिंग मिलती है, बिना संघ के इस जमाने में स्थानांतरण और मनमाफिक पोस्टिंग नहीं ली जा सकती।
-तेजवानी गिरधर
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शुक्रवार, जनवरी 20, 2017

बिहार चुनाव से सबक नहीं लिया संघ ने?

घोड़ी चढऩे के दिन तेज जुलाब नहीं लेना चाहिये, क्या इतनी सी बात वैद्य जी को नहीं पता? 
ऐसा प्रतीत होता है कि बिहार चुनाव के परिणाम से संघ ने सबक नहीं लिया है। तब संघ प्रमुख मोहन भागवत ने ऐन चुनाव प्रचार के दौरान अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति के आरक्षण को खत्म करने का सुझाव दे कर भाजपा के लिए एक मुसीबत पैदा कर दी थी। हालांकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भरपूर कोशिश की कि इस बयान से होने वाले नुकसान को रोका जाए और आरक्षण की जबरदस्त पैरवी की, मगर संघ का बयान आम जनता में इतना गहरे पैठ गया कि उसे विरोधियों ने भी जम कर भुनाया और भाजपा चारों खाने चित हो गई।
अब एक बार फिर वही स्थिति संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य ने पैदा कर दी है। उत्तर प्रदेश जैसे सर्वाधिक राजनीतिक महत्वाकांक्षी राज्य सहित पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों की घोषणा के बाद गरम हुए राजनीतिक माहौल के बीच उन्होंने जयपुर में लिटरेचर फेस्टिवल में भाषण देते हुए कहा कि आरक्षण को खत्म करना चाहिए और इसकी जगह ऐसी व्यवस्था लाने की जरूरत है, जिसमें सबको समान अवसर और शिक्षा मिले। वैद्य ने कहा कि अगर लंबे समय तक आरक्षण जारी रहा तो यह अलगाववाद की तरफ ले जाएगा। उन्होंने कहा कि किसी भी राष्ट्र में हमेशा के लिए ऐसे आरक्षण की व्यवस्था का होना अच्छी बात नहीं है। सबको समान अवसर और शिक्षा मिले।
जैसे ही उनका बयान आया तो आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव ने पहले की तरह ही इसे तुरंत लपक लिया और वैद्य की टिप्पणी पर कड़ी प्रतिक्रिया दी। उन्होंने कहा कि आरक्षण का अधिकार छीनना किसी के बस का नहीं है। लालू ने कहा कि लगता है बीजेपी ने बिहार चुनाव से कोई सबक नहीं लिया है। लालू प्रसाद यादव ने एक के बाद एक कई ट्वीट कर संघ और पीएम मोदी पर हमला बोला। आरजेडी सुप्रीमो ने कहा कि आरक्षण संविधान प्रदत्त अधिकार है।इसे छीनने की बात करने वालों को औकात में लाना मेरे वर्गों को आता है।
सवाल उठता है कि संघ की ओर से ऐन चुनाव के वक्त ऐसी हरकत क्यों कर की गई? क्या वैद्य के मुंह से ऐसा बयान प्रसंगवश निकल गया या फिर यह सोची समझी रणनीति का हिस्सा है? क्या उन्हें इस बात अंदाजा नहीं कि इस प्रकार का बयान पांच राज्यों, विशेष रूप से उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव में भाजपा को कितना नुकसान पहुंचा सकता है? यहां उल्लेखनीय है कि दिल्ली और बिहार में बुरी तरह से हारने के बाद भाजपा के लिए उत्तरप्रदेश का चुनाव भाजपा के लिए अत्यंत ही महत्वपूर्ण है, जो न केवल मोदी ब्रांड को बरकरार रखने के लिए जरूरी है, अपितु आगे चल कर राज्यसभा में पार्टी की स्थिति मजबूत करने के लिए भी अहम है। बावजूद इसके संघ ने ठीक चुनाव से पहले यह बयान जारी कर दिया। उनके इस बयान के बाद भाजपा के कर्ताधर्ताओं ने जहां अपना सिर धुन लिया होगा, वहीं सोशल मीडिया पर इसका जम कर उपहास किया जा रहा है। एक सज्जन ने लिखा है कि घोड़ी चढऩे के दिन तेज जुलाब नहीं लेना चाहिये, क्या इतनी सी बात वैद्य जी को नहीं पता? बड़े आए राजवैद्य। एक और टिप्पणी में उन्होंने लिखा कि ये जमाल घोटा चुनाव के ठीक पहले लेना किस वेद में लिखा है? समझा जा सकता है कि ये संघ के प्रचार प्रमुख पर कितना बड़ा तंज है। आम आदमी भी समझ सकता है कि संघ ने चलते रस्ते भाजपा के लिए कितनी बड़ी मुसीबत पैदा कर दी है। ऐसे में सवाल उठता है कि बौद्धिक देने में सिद्धहस्त संघ के जिम्मेदार पदाधिकारी ने ये हरकत क्यों की? राजनीतिक पंडित भी माथापच्ची कर रहे होंगे कि आखिर यह संघ के किस एजेंडे का हिस्सा है?
-तेजवानी गिरधर
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बुधवार, जनवरी 18, 2017

तिवारी जैसे भी स्वीकार हैं भाजपा को?

राजनीति इतनी मर्यादाहीन है कि राजनीतिक दल वोट की खातिर कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। यहां तक कि पार्टी विथ द डिफ्रेंस का तमगा लगाए भाजपा को भी परहेज नहीं। यूं आया राम गया राम का दौर शुरू हुए अरसा हो गया, मगर चारित्रिक दोष की वजह से बदनाम उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री एन डी तिवारी जैसों तक को वोट के लिए स्वीकार किया जा रहा है तो समझा जा सकता है कि राजनीति का स्तर कितना गिर गया है। ये कहना ज्यादा उचित रहेगा कि कोई स्तर ही नहीं रह गया है।
चुनावी सरगरमी के दौरान जैसे ही यह खबर आई कि नारायण दत्त तिवारी, पत्नी उज्जवला और बेटे रोहित शेखर संग अमित शाह के घर पहुंचे, जहां रोहित शेखर ने भाजपा की सदस्यता ली और कहा कि वे भाजपा के लिए प्रचार करेंगे, तो सोशल मीडिया भद्र-अभद्र टिप्पणियों से अट गया। हालांकि पूर्व तिवारी के भी भाजपा में शामिल होने की चर्चा हो रही थी, लेकिन उन्होंने अभी भाजपा ज्वाइन नहीं की है। कहने भर को भले ही तिवारी भाजपा में शामिल नहीं हुए हैं, मगर इस सवाल का क्या जवाब है कि उनके बेटे को भाजपा ज्वाइन करनी थी तो वे साथ क्यों गए? जाहिर सी बात है, रोहित शेखर को जानता कौन है? उसे तो दुनिया ने तब जाना, जब उसकी मां उज्जवला ने यह उजागर किया कि रोहित तिवारी जी का बेटा है। न केवल कहा, बल्कि बाकायदा डीएनए टेस्ट से यह साबित किया कि तिवारी ही उनके बेटे के पिता हैं। यानि कि रोहित की पहचान तिवारी की ही वजह से है, कि वह एक पूर्व मुख्यमंत्री का बेटा है। स्पष्ट है कि भाजपा तिवारी को चाहने वालों के वोट बटोरना चाहती है। चलो ऊंचे आदर्शों वाली भाजपा ने तो ऐसा वोट की खातिर किया, मगर सवाल ये उठता है कि हमारी सोसायटी को आखिर हो क्या गया है? तिवारी जैसे भी समाज में प्रतिष्ठित हैं, तभी तो उनकी राजनीतिक वैल्यू कायम है। अफसोस।
-तेजवानी गिरधर
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मंगलवार, जनवरी 10, 2017

यानि कि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने पल्लू झाड़ लिया

नोटबंदी को लेकर सवालों का सामना कर रहे रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के यह कहने के साथ ही कि उसके बोर्ड ने सरकार की सलाह पर नोटबंदी की सिफारिश की थी, यह साफ हो गया है कि वह सीधे तौर पर इसके लिए जिम्मेदार होते हुए भी अपना पल्लू झाड़ रहा है। इतना ही नहीं, इसके साथ यह स्वीकारोक्ति भी है कि उसने सरकार के दबाव में काम किया, अपने विवेक का इस्तेमाल नहीं किया। विवेक का इस्तेमाल होता भी कैसे, नोटबंदी 8 नवंबर को लागू की गई और सरकार ने सिर्फ एक दिन पहले 7 नवंबर को इसकी सलाह दी थी। मात्र एक दिन में इस सलाह को मानने पर होने वाले प्रभाव पर विचार नितांत असंभव था।
फाइनेंस मैटर मॉनीटर करने वाली पार्लियामेंट्री कमेटी को 7 पेज का जो नोट भेजा है, उसमें बताया गया है कि 7 नवंबर 2016 को सरकार ने बैंक से कहा कि जाली नोट, टेरेरिज्म फाइनेंस और ब्लैक मनी जैसी तीन परेशानियों के लिए नोटबंदी जरूरी है। सरकार ने ये भी कहा कि एक हजार और पांच सौ के नोट बंद करने के प्रपोजल पर विचार करना चाहिए। 8 नवंबर को बैंक के सेंट्रल बोर्ड ने प्रपोजल पर विचार करने के बाद नोटबंदी की सिफारिश कर दी थी। ऐसे में समझा जा सकता है कि बोर्ड में बैठे अर्थशास्त्रियों को सरकार की सलाह पर ठीक से विचार का समय ही नहीं मिल पाया। मात्र एक दिन में सलाह को मान कर सिफारिश करने से यह स्पष्ट है कि उस पर तुरंत सिफारिश करने का दबाव था। अगर बोर्ड चाहता तो उस पर तफसील से विचार कर अपनी सिफारिश देता, जो कि होना भी चाहिए था, मगर हाथों हाथ सलाह मान लेने का परिणाम ये रहा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पचास दिन की मोहलत मांगने के दस दिन बाद भी लोग अपने पैसे के लिए बैंक व एटीएम के चक्कर लगा रहे हैं।
जहां तक सलाह का सवाल है, सरकार ने नोटबंदी के लिए जो जरूरी कारण बताए, उनमें दम है, मगर सवाल ये उठता है कि क्या रिजर्व बैंक ने  सलाह पर मुहर लगाने के साथ यह विचार नहीं किया कि वह जमा हो रही करंसी की तुलना में नई करंसी देने की स्थिति में नहीं है? जिस वजह से नोटबंदी का कदम उठाया गया, उसकी पूर्ति हुई या नहीं, ये अलग विषय है, मगर आज जो यह नोटबंदी पूरी अर्थव्यवस्था को झकझोड़ देने वाली साबित हो गई है, उसकी एक मात्र वजह ये है कि लोगों की जमा पूंजी बैंकों में तो है, मगर खर्च करने के लिए हाथ में नहीं आ पा रही।
नोटबंदी का फैसला केवल और केवल मोदी ने बिना किसी अर्थशास्त्री की सलाह के लागू करवा दिया, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि बोर्ड की मंजूरी के बाद कुछ ही घंटे के भीतर मोदी ने कैबिनेट से मुलाकात की। कुछ मिनिस्टर्स का मानना था कि सरकार ने बैंक के कहने पर ये फैसला लिया है, इस कारण उन्होंने कुछ किंतु परंतु किया ही नहीं। यानि कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में नोटबंदी का निर्णय पूरी तरह से तानाशाही स्टाइल में लागू हो गया, जो कि बेहद शर्मनाक और विचारणीय है।
-तेजवानी गिरधर
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रविवार, जनवरी 08, 2017

50 दिन बाद मोदी का लटका मुंह ताकते ही रह गए लोग

नोटबंदी से हो रही परेशानी से कोई राहत नहीं दे पाए
ध्यान बंटाने के लिए की गई नई घोषणाएं अप्रासंगिक 

-तेजवानी गिरधर-
हर आम आदमी, ठेठ मजदूर तक को उम्मीद थी कि पचास दिन की मोहलत पूरी होने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी नोटबंदी के संत्रास से मुक्ति का कोई ऐलान करेंगे, मगर निराशा ही हाथ लगी। न वो पहले जैसी दहाड़, न फड़कती भुजाएं, न वो गर्मजोशी, न विपक्ष की कमजोरी पर होता अट्टहास, बस एक बुझा हुआ, लटका हुआ चेहरा सामने आया। कहने को कुछ था ही नहीं।  कहने लायक रहा भी नहीं था। मजबूरी थी पचास दिन बाद रूबरू होने की, सो हो गए। जिसकी उम्मीद थी, उस पर कुछ नहीं बोले। मात्र ध्यान बंटाने के लिए होम लोन के ब्याज में छूट के साथ किसानों, वरिष्ठ नागरिकों व गर्भवति महिलाओं को लुभावने वाली कुछ घोषणाएं कीं, जो पूरी तरह से अप्रासंगिक थीं। अप्रांसगिक इसलिए चूंकि इनका ऐलान तो आने वाले बजट भाषण में वित्त मंत्री अरुण जेटली भी कर सकते थे। बेशक इन घोषणाओं का लाभ पाने वाले कुछ खुश होंगे, मगर जिस आर्थिक संताप से राहत की उम्मीद पाले उनके मन की बात सुनने को लोग आतुर थे, उन्होंने सिर पीट लिया।
कैसी विडंबना है कि नोटबंदी लागू करने के बाद आम आदमी को हुई भारी तकलीफ, जिसका कि उन्हें अंदाजा भी नहीं था, का पता लगने पर पचास दिन की मोहलत मांगने वाले प्रधानमंत्री को चौराहे पर सजा दिए जाने का मर्यादाहीन जुमला फैंकने का जरा भी अफसोस नहीं था। पचास दिन बाद भी मुंह चिढ़ाते कैश लेस एटीएम को देख कर परेशान आम जनता को राहत देने का एक आश्वासन तक उनके पास नहीं था। बैंकों के बाहर लगी लंबी लाइनों में आर्थिक आपातकाल का शिकार हुए एक सौ से ज्यादा निर्दोष नागरिकों के प्रति भी संवेदना का एक शब्द तक मुंह से नहीं फूटा। एक तानाशाह के बिना किसी तैयारी के लागू किए गए फैसले से परेशान जनता के लिए अगर राहत की बात थी तो इतनी कि उसे उस तानाशाह ने महान जनता करार दिया, जो कि बैंकों के बाहर पुलिस डंडे खा कर भी चुपचाप सहन कर गई। अब तक कर रही है।
नोटबंदी की विफलता तो इसी से साबित हो गई कि इसे लागू करते वक्त महान ऐतिहासिक कदम करार देने वाले के पास उससे हुए लाभ का कोई आंकड़ा नहीं था। जिस काले धन का हल्ला मचाया था, वह कितना आया, उसका भी कोई ठोस सबूत पेश नहीं कर पाए। हालत ये थी कि जिन बैंक वालों की काली करतूत के कारण किल्लत ज्यादा हुई, उन्हीं की उन्हें तारीफ करनी पड़ी। बेशक ज्यादा लूट मचाने वाले चंद बैंक कर्मियों को सजा देने की बात कही, मगर वह मात्र औपचारिक थी, जबकि उनकी ही वजह से जनता त्राहि त्राहि कर उठी है। वे जानते थे कि बैंक वाले बड़े यूनाइटेड हैं। एक भी कड़ी टिप्पणी की तो लेने के देने पड़ जाएंगे। आखिर कैश का लेने देन उन्हीं के जरिए तो करना है। उन्हें भला नाराज कैसे करें?
तेजवानी गिरधर
असल में कैश कि किल्लत मूलत: बिना तैयारी के कदम उठाने के कारण ही हुई है, मगर बैंक वालों ने उसमें करेला और नीम चढ़ा वाली कहावत चरितार्थ कर दी।  देश के इतिहास में पहली बार बेईमानी की तमगा हासिल करने वाले बैंक वाले अब भी अपनों को ऑब्लाइज करने और आम आदमी को ठेंगा दिखाने से बाज नहीं आ रहे। नमक में आटा डालने वाले जरूर आइडेंटिफाई हो गए, मगर चौबीस हजार रुपए तक की लिमिट के अंतर्गत बैंक वालों को मिली लिबर्टी का जिस तरह आज भी हर बैंक में दुरुपयोग किया जा रहा है, उसका उपाय अब भी नहीं तलाशा गया है। कदाचित सरल व सीधा उपाय है भी नहीं। बैंकों में इतना बारीक चैक सिस्टम लागू करना बेहद मुश्किल है। फिर, जब पचास दिन में जितनी गालियां मिलनी थी, मिल चुकीं, थोड़ी और सही। जनता भी परेशानी सहन करते करते उसकी आदी हो चुकी है। उसे भी समझ में आ गया है कि और भोगना पड़ेगा तो पड़ेगा, मोदी के पास भी कोई उपाय नहीं। मांग की तुलना में जिस गति से नए नोट छप रहे हैं, उसके अनुसार तो अभी और कष्ट झेलना ही है। वैसे भी मोदी की मारक मुद्राएं विरोधियों को डराने, बेईमानों को धमकाने और भ्रष्ट लोगों को बच कर निकल जाने के भ्रम से निकालने के लिए ही हैं।
कुल मिला कर ताजा हालात ये हैं कि दिहाड़ी मजदूर का भी सारा पैसा बैंकों में जमा है और वह खाली जेब भटक रहा है। भिवंड़ी का 50 फीसदी मजदूर खाली बैठा है। मुंबई के हजारों बंगाली ज्वेलरी कारीगर अपने गांव लौट गए हैं। आगरा में तिलपट्टी बनाने वाले भी हाथ पर हाथ धरे हैं। मुंबई का कंस्टरक्शन मजदूर भी बेकार बैठा है और फिल्मों के लिए अलग-अलग काम में दिहाड़ी काम करने वाले करीब दो लाख लोग भी गांव लौट गए हैं। नोटबंदी की मार मनरेगा के मजदूर पर इस कदर पड़ेगी, यह सरकार ने भी पता नहीं सोचा था या नहीं।
बहरहाल, आज सवाल यह नहीं है कि अब अचानक कोई जादू की छड़ी अपना काम शुरू कर देगी, सवाल ये है कि नोटबंदी के बाद देश, तकदीर के जिस तिराहे पर आ खड़ा हुआ है, वहां से जाना किधर है, यह समझ से परे होता जा रहा है। ऐसे में सरकार देश की नोटों की मांग पूरी न कर पाने के लाचारी की हालत से उबरने के लिए कैशलेस हो जाने का राग आलाप रही है। लेकिन जिस देश की करीब 30 फीसदी प्रजा को गिनती तक ठीक से लिखनी नहीं आती हो, जहां के 70 फीसदी गांवों में इंटरनेट तो छोड़ दीजिए, बिजली भी हर वक्त परेशान करती हो। उस हिंदुस्तान में कैशलेस के लिए मोबाइल बटुए, ईपेमेंट, पेटीएम और क्रेडिट कार्ड की कोशिश कितनी सार्थक होगी, यह भी एक सवाल है।