तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

रविवार, जुलाई 27, 2025

40 के अंक का इतना महत्व क्यों?

 

दोस्तो, नमस्कार। चालीस के अंक का बहुत महत्व है, यह हम सब जानते हैं। आइये, जरा विस्तार से समझने की कोषिष करते हैं।

आपको ख्याल में होगा कि इस्लाम जगत में मोहर्रम पर मुसलमान 40 दिन तक शोक मनाते हैं। हजरत मूसा को अल्लाह ने तोरेत देने के लिए 40 रातों के लिए तूर पर्वत पर बुलाया था। हजरत मुहम्मद साहब को भी 40 वर्ष की आयु में ही पहला ईश्वरीय संदेश प्राप्त हुआ। चालीस का कितना महत्व है, इसका अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती जब अजमेर आए तो आनासागर के पास स्थित पहाड़ी पर 40 दिन इबादत की थी। इस स्थान को ख्वाजा साहब का चिल्ला कहा जाता है। बताते हैं कि यहां इबादत करने के बाद जब ख्वाजा साहब दरगाह वाले स्थान की ओर जाने लगे तो कहते हैं कि उनकी जुदाई में पहाड़ के भी आंसू छलक पड़े थे। पहाड़ी के निचले हिस्से पर आज भी आंसू की सी आकृति साफ बनी दिखाई देती है। इस्लामिक मान्यता है कि हमारे पेट में एक निवाला भी हराम का हो तो चालीस दिन तक इबादत कबूल नहीं होती। बाइबिल में भी बताया गया है कि हजऱत मसीह ने 40 दिन रोज़े रखे थे। बाइबिल में 40 का अंक अक्सर दिखाई देता है। सख्या 40 न्याय या परीक्षा से सम्बन्धित सन्दर्भों में अक्सर पाई जाती है, जिसके कारण कई विद्वान इसे परख या परीक्षा की संख्या भी समझते हैं। बाइबिल के पुराने नियम में, जब परमेश्वर ने पृथ्वी को जल प्रलय से नष्ट कर दिया, तो उसने 40 दिन और 40 रात तक वर्षा को आने दिया। 

नए नियम में, यीशु की परीक्षा 40 दिनों और 40 रातों तक की गई थी। यीशु के पुनरुत्थान और स्वर्गारोहण के बीच 40 दिन थे।

ऐसी मान्यता भी है कि जो स्थान चालीस दिन तक सुनसान होता है या आबाद नहीं होता, वहां प्रेत आत्माएं डेरा जमा लेती हैं। 

सनातन धर्म में भी सभी देवी देवताओं की चालीसाएं गायी जाती हैं, जिनमें चालीस दोहे होते हैं। इसी प्रकार सिंधी समुदाय चालीस दिवसीय अखंड ज्योति महोत्सव यानि चालिहो मनाता है। सिंधी समाज के लोग चालीस दिन तक व्रत-उपवास रख कर पूजा-अर्चना के साथ सुबह-शाम झूलेलाल कथा का श्रवण करते हैं। इस महोत्सव में झूलेलाल मंदिरों को विशेष रूप से सुसज्जित किया गया है तथा मंदिरों में कथा, आरती, भजन-कीर्तनों के साथ धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है। अर्थात चालीस अंक का बहुत महत्व है, मगर इस गणित या कीमिया का राज क्या है? इसके बारे में कहीं उल्लेख नहीं मिलता। अंक चालीस ही क्यों, बीस या तीस क्यों नहीं? इस बारे में मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि कोई भी नई आदत या आत्मिक अनुशासन विकसित करने में लगभग 40 दिन लगते हैं। इस दौरान मन और शरीर एक नई लय में ढलते हैं। इसलिए 40 दिन का समय किसी भी साधना या इबादत को गहराई से अपनाने के लिए उपयुक्त माना जाता है।

https://youtu.be/eGS1FfnScW0

बुधवार, जुलाई 23, 2025

जूठा क्यों नहीं खाना चाहिए?

दोस्तो, नमस्कार। आम तौर पर लोग किसी का जूठा खाना नहीं खाते। जूठा खाना न खाने के पीछे कई स्वास्थ्य और सांस्कृतिक कारण होते हैं। एक तो यह है कि इससे बैक्टीरिया और संक्रमण का खतरा होता है। किसी व्यक्ति द्वारा खाया हुआ भोजन उसके मुंह और लार के संपर्क में आता है। अगर व्यक्ति में कोई संक्रमण या बीमारी है, तो वह दूसरे व्यक्ति को भी संक्रमित कर सकता है। इसके अतिरिक्त जूठा भोजन रखने से उसमें बैक्टीरिया जल्दी पनपते हैं, जिससे भोजन दूषित हो सकता है और खाने से पेट की समस्याएं हो सकती हैं।

दूसरा कारण यह कि भारतीय समाज में भोजन को बहुत पवित्र माना जाता है। इसलिए भोजन का आदर करना जरूरी है और जूठा खाने से उसकी शुद्धता कम होती है। धार्मिक दृष्टिकोण से भी, कई परंपराओं में जूठा भोजन अशुद्ध माना जाता है। इसे खाने से व्यक्ति की मानसिक और शारीरिक शुद्धता पर प्रभाव पड़ता है।

दूसरी ओर एक मान्यता यह भी है कि जूठा खाना खाने से प्यार बढ़ता है और इसी वजह से कई लोग जैसे कि प्रेमी-प्रेमिका, यार-दोस्त, पति-पत्नी एक-दूसरे का जूठा बड़े ही प्यार से खा लेते हैं। हर किसी को यही लगता है कि जूठा खाना खाने से प्यार बढ़ता है लेकिन ऐसा बिल्कुल भी नहीं है क्योंकि ज्योतिष शास्त्र के अनुसार जूठा खाना किसी व्यक्ति के जीवन में दुर्भाग्य को भी आमंत्रण दे सकता है। शास्त्रों के अनुसार किसी का जूठा खाना नहीं खाना चाहिए क्योंकि ऐसा करने वाले व्यक्ति किसी और का दुर्भाग्य अपने नाम कर लेते हैं और अपने हाथों से अपनी समस्याएं बढ़ा लेते हैं.

जो लोग किसी का जूठा भोजन करते हैं तो इससे व्यक्ति की वाणी और भाषा पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। जूठा खाने से प्रभाव पडता ही है, इसकी दलील यह है कि कई समाजों में अन्नप्राषन्न संस्कार में नवजात को किसी बुजुर्ग का जूठा जौ व गुड खिलाया जाता है। एक बात दिलचस्प बात और। ऐसी मान्यता है कि यदि किसी को किसी की नजर लग जाए तो उसका जूठा पानी पिलाने पर नजर का असर खत्म हो जाता है। बहरहाल अगर आप भी प्यार मोहब्बत में आकर किसी का जूठा खाना खाते हैं तो फिर आपको अपनी यह आदत फौरन बदल देनी चाहिए नहीं तो हो सकता है कि जाने-अंजाने में आप अपने हाथों से अपने दुर्भाग्य को आमंत्रण दे बैठें, इसलिए इससे बचने का सबसे बेहतर तरीका यही है कि आप किसी का जूठा खाने से परहेज करें।


 https://youtu.be/LmHpfJxCD-g

मंगलवार, जुलाई 22, 2025

सिर मुंडवाते वक्त चोटी क्यों छोडी जाती है?

दोस्तो, नमस्कार। हम सब के ख्याल में है कि पिता के निधन पर पुत्र अंत्येश्टि से ठीक पहले बाल कटवाता है, लेकिन चोटी छोडी जाती है। क्या आपने विचार किया है कि ऐसा क्यों? वस्तुतः पिता के निधन पर हिन्दू परंपरा में पुत्र द्वारा सिर मुंडवाना एक सामान्य शोक प्रथा है, जो पितृ ऋण से मुक्ति, श्रद्धा और वैराग्य का प्रतीक माना जाता है। मगर चोटी यानि षिखा को नहीं काटने के पीछे गहरे धार्मिक और सांस्कृतिक कारण हैं। शिखा विशेष रूप से ब्राह्मण, वैदिक परंपरा और संस्कार का प्रतीक होती है। यह आध्यात्मिक ऊर्जा और ज्ञान के अनुशासन की निरंतरता का चिन्ह मानी जाती है। ज्ञातव्य है कि सिर के जिस स्थान पर चोटी होती है, उसे ब्रह्मरंध्र या सहस्रार चक्र कहते हैं, जो आध्यात्मिक जागरण का केन्द्र माना जाता है। इसे पूरी तरह से काटना आध्यात्मिक रूप से अनुचित माना जाता है।

चोटी न रहने पर व्यक्ति कई धार्मिक कार्यों और कर्मकांडों के लिए अयोग्य माना जाता है। उदाहरणतः यदि शिखा नहीं हो, तो पिंडदान, श्राद्ध, हवन, संध्या वंदन आदि करने में बाधा मानी जाती है। सिर के बाकी हिस्से के बाल काटकर वैराग्य और शोक प्रकट किया जाता है। लेकिन चोटी को छोड़ना यह संकेत देता है कि धार्मिक जीवन और कर्तव्य अब भी जारी है। चोटी को न काटना धार्मिक परंपरा, आत्मिक ऊर्जा और कर्मकांड की निरंतरता को बनाए रखने के लिए आवश्यक माना गया है।


https://youtu.be/FuVjDkNqAy8


https://ajmernama.com/thirdeye/434866/


रविवार, जुलाई 20, 2025

दीवार पर झरने की तस्वीर क्यों लगाई जाती है?

दोस्तो, नमस्कार। आपको ख्याल में होगा कि घर में लोग झरने, नदी या पानी की तस्वीर लगाते हैं। क्या सोच कर ऐसा किया जाता है? इस परंपरा के पीछे क्या रहस्य है? असल में वास्तुशास्त्र के अनुसार माना जाता है बहते हुए पानी की तस्वीर घर में लगाना शुभ होता है। 

इस सिलसिले में प्रसिद्ध ज्योतिशी ज्योतिषी और हस्तरेखाविद श्री राजेन्द्र गुप्ता की राय है कि पानी तस्वीरों या शो पीस को घर में लगाते समय कुछ बातों का ध्यान रखना चाहिए- घर के सदस्यों या फैमिली बिजनेस को बेडलक या लोगों की बुरी नजर से बचाए रखने के लिए गलियारे या बालकनी में पानी से संबंधित कोई तस्वीर या शो-पीस रखना चाहिए। पानी से जुड़ा कोई भी शो-पीस या तस्वीर किचन में नहीं लगाना चाहिए। किचन में उपयोग किए जाने वाले पानी अलावा जल संबंधी कोई भी वस्तु रखना अच्छा नहीं माना जाता। यदि आप फाउंनटेन घर में लगवा रहे हैं तो इसे घर की उत्तर या दक्षिण-पूर्व दिशा में लगवा सकते हैं। ऐसा करने से फाउंनटेन गुडलक और तरक्की लाता है। घर की उत्तर-पूर्व दिशा में मिट्टी के बने बर्तन या सुराही में पानी भर कर रखना चाहिए। ऐसा करने से घर के लोगों का दुर्भाग्य खत्म होता है और हर काम में सफलता मिलती है।यदि आपके घर में गार्डन एरिया है तो आप वहां वाटरफॉल लगवा सकते हैं। घर में वाटरफॉल की दिशा इस तरह से होनी चाहिए कि पानी का प्रवाह आपके घर की दिशा में हो। यह बाहर की ओर कभी नहीं जाना चाहिए। इस बारे में और विस्तार से जानने के लिए आप उनसे मोबाइल नंबर 9116089175 पर संपर्क कर सकते हैं।


https://youtu.be/u10240gjOl8
https://ajmernama.com/thirdeye/434729/

शनिवार, जुलाई 19, 2025

श्रद्धांजलि देते वक्त दो मिनट का मौन क्यों?

दोस्तो, नमस्कार। हम सब जानते हैं कि किसी को श्रद्धांजलि देते वक्त दो मिनट का मौन रखा जाता है। क्या कभी ख्याल किया है कि यह परंपरा कैसे षुरू हुई और इसकी उपयोगिता क्या है?

असल में श्रद्धांजलि देते वक्त दो मिनट का मौन रखना एक गहरे सम्मान और संवेदना का प्रतीक होता है। इसके पीछे कई सांस्कृतिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कारण होते हैं।

मौन रहकर हम उस व्यक्ति के जीवन और योगदान को याद करते हैं। यह एक शांत और गंभीर तरीका होता है यह दिखाने का कि हम उन्हें दिल से सम्मान देते हैं। मौन का समय हमें भीतर झांकने, अपने विचारों और भावनाओं से जुड़ने का मौका देता है। हम उस व्यक्ति के साथ अपने संबंध को याद करते हैं। जब एक समूह एक साथ मौन धारण करता है, तो यह एकता और सहानुभूति का भाव पैदा करता है। यह दिखाता है कि हम सब मिलकर उस क्षति को महसूस कर रहे हैं। मौन अपने आप में ध्यान का रूप होता है। यह पल थोड़ी देर के लिए संसार की हलचल से हटकर शांति और स्थिरता में जाने का अवसर देता है। दो मिनट का मौन सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि कई देशों में युद्ध, आपदा या किसी महान व्यक्तित्व के निधन पर श्रद्धांजलि के रूप में अपनाया जाता है। दो मिनट का मौन रखने की परंपरा की शुरुआत प्रथम विश्व युद्ध के बाद हुई थी। 1919 में, ब्रिटेन और उसके सहयोगी देशों ने प्रथम विश्व युद्ध में मारे गए सैनिकों की याद में एक दो मिनट का मौन रखा था। इसे पहली बार 11 नवम्बर 1919 को सुबह 11 बजे मनाया गया। यह पहल किंग जॉर्ज पंचम ने की थी। उन्होंने लोगों से अपील की कि वे युद्ध में मारे गए सैनिकों को श्रद्धांजलि देने के लिए दो मिनट का मौन रखें।

भारत में भी यह परंपरा अपनाई गई, विशेषकर महात्मा गांधी की पुण्यतिथि (30 जनवरी) पर दो मिनट का मौन रखकर उन्हें श्रद्धांजलि दी जाती है। इसके अलावा, किसी भी राष्ट्रीय शोक या बड़ी दुर्घटना पर यह मौन रखा जाता है।

 

https://ajmernama.com/thirdeye/434688/

https://youtu.be/6v56HziDVXE

शुक्रवार, जुलाई 18, 2025

आदमी व औरत के कफन का रंग अलग-अलग क्यों?

दोस्तो, नमस्कार। आपकी जानकारी में होगा कि पुरूश की अर्थी पर सफेद रंग का कफन होता है, जबकि महिला के कफन का रंग अमूमन लाल या हल्का गुलाबी होता है। यह अंतर क्यों?

असल में पुरुष की अर्थी पर सफेद कपड़ा वैराग्य, शुद्धता, और त्याग का प्रतीक माना जाता है। स्त्री की अर्थी पर कभी-कभी लाल या हल्का गुलाबी रंग का कफन या चुनरी रखी जाती है, विशेषकर विवाहित स्त्रियों के मामले में। यह रंग सुहाग, शक्ति, और देवी रूप का प्रतीक माना जाता है।

हिंदू मान्यता में स्त्री को देवी का रूप माना गया है। इसलिए उसकी विदाई (मृत्यु) को भी श्रृंगारयुक्त और सम्मानजनक ढंग से किया जाता है। विशेष रूप से विवाहित स्त्री को साड़ी या चुनरी से सजा कर विदा किया जाता है, मानो वह अपने पति के पास जा रही हो।

पुरुष को मृत्यु के बाद वैरागी माना जाता है, इसीलिए उसका कफन सादा सफेद होता है।

यह अंतर केवल धार्मिक नहीं, बल्कि एक संवेदनात्मक श्रद्धा का भाव भी दर्शाता है। परिवार स्त्री की विदाई को एक विशेष सम्मान और भावनात्मक जुड़ाव के रूप में देखता है।

अगर स्त्री विधवा हो या साध्वी हो, तो उसका कफन भी सामान्यतः सफेद ही होता है, जैसे पुरुषों का होता है।


 https://youtu.be/6gml-ayGQlI

गुरुवार, जुलाई 10, 2025

क्या झूलेलाल और कलंदर एक ही हैं?

दोस्तो, नमस्कार। आम तौर पर सिंधी समुदाय के लोग कई मौकों पर दमादम मस्त कलंदर वाले गीत पर झूमते-नाचते हैं। इसको लेकर विवाद है। वो यह कि झूलेलाल व कलंदर एक ही नहीं हैं। अलग-अलग हैं। बाकायदा तर्क भी हैं। इस पर भारतीय सिंधु सभा ने खूब काम किया है। परचे तक छपवा कर जागृति लाने की कोषिष की है। बावजूद इसके यह गीत आज भी गाया जाता है। हाल ही एक वीडियो मेरी जानकारी में आया। वह पाकिस्तान का है। उसमें भी एक गीत में झूलेलाल व कलंदर को एक बताया गया है। यानि पाकिस्तान के मुसलमान व सूफी भी झूलेलाल व कलंदर को एक ही मानते हैं। इस विशय पर पूर्व में बनाए गए वीडियो का लिंक यह हैः-

https://www.youtube.com/watch?v=COszpBXQYzA&t=146s