तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

बुधवार, नवंबर 05, 2025

उपयोग में ली हुई पूजन सामग्री का विसर्जन कहां करना चाहिए?

पिछले दिनो पाया गया कि अनेक स्थानों पर पूजन सामग्री फैंकी हुई है, विशेष रूप से आनासागर में, पीपल के पेडों के पास और हैंडपंपों के निकट। क्या आपको ख्याल में है कि लोग इन स्थानों पर पूजन सामग्री क्यों डालते हैं? असल में हमारी धार्मिक मान्यता है कि पूजा के बाद सामग्री अथवा खंडित मूर्ति व देवी-देवताओं के फटे हुए चित्रों को नदी में विसर्जन करना चाहिए। जहां नदी नहीं है, वहां लोग पानी के कुंड, कुएं या तालाब में पूजन सामग्री विसर्जित करते हैं। इसी प्रकार हैंड पंप को भी जल का स्थान मानते हुए उसके पास पूजन सामग्री डाली जाती है। एक धार्मिक मान्यता यह भी है कि पूजन सामग्री पीपल अथवा किसी पेड के नीचे डाली जा सकती है। इसी वजह से लोग पूजन सामग्री का विसर्जन इन जगहों पर करते हैं। हालांकि आनासागर में पूजन सामग्री अथवा मूर्तियों का विसर्जन करने की मनाही है, मगर लोग चुपके से विसर्जित कर ही देते हैं, जिससे आनासागर प्रदूषित होता है। आप देखिए कि जिस पूजा सामग्री को हम बहुत श्रद्धा से उपयोग करते हैं, उपयोग के बाद उसे हैंडपंप व पीपल के पेड के नीचे फैंक आते हैं। अब सवाल उठता है कि उपयोग में ली गई पूजन सामग्री का विसर्जन कैसे की जाए?

प्राकृतिक रूप से नष्ट होने वाली सामग्री जैसे फूल, पत्ते, माला, बेलपत्र, दूर्वा, आदि अपने घर के बगीचे या पौधों की जड़ में दबा सकते हैं। या किसी कम्पोस्ट पिट यादि खाद गड्ढे में डालें। इससे मिट्टी की उर्वरता बढ़ती है और प्रदूषण नहीं होता। अविघटनीय या हानिकारक वस्तुएं जैसे प्लास्टिक, थर्मोकोल, पॉलिथीन, कपड़ा, रंगीन मूर्तियां आदि को झील व तालाब में नहीं डालना चाहिए। उन्हें नगर निगम के सूखे कचरे वाले पात्र में डालना चाहिए। मिट्टी या गोबर की मूर्तियां घर के पौधों के पास या बगीचे की मिट्टी में विसर्जित कर सकते हैं। रासायनिक रंगों वाली मूर्तियां नगर निगम द्वारा तय निर्धारित विसर्जन टैंक या कृत्रिम कुंड में ही डालनी चाहिए। घी, तेल, अगरबत्ती, कपड़ा, राख, रौली, सिंदूर, चावल आदि जैविक हैं, इन्हें मिट्टी में दबाया जा सकता है। राख को पेड़ की जड़ में विसर्जित किया जा सकता है।


रविवार, नवंबर 02, 2025

क्या वास्तव में नागमणि का अस्तित्व है?

आपने नागमणि का नाम सुना होगा, जिसे सर्पमणि भी कहा जाता है। इसका अस्तित्व वास्तव में है या नहीं, पता नहीं, मगर भारतीय लोककथाओं, पुराणों और लोकविश्वासों में इसे एक अत्यंत रहस्यमयी वस्तु माना जाता है। कहा जाता है कि कुछ विशेष नागों के पास एक चमकती हुई मणि या रत्न होती है। इस मणि से तेज प्रकाश निकलता है, जो अंधेरे में भी चारों ओर रोशनी फैला देता है। मान्यता है कि यह मणि नाग को अलौकिक शक्ति, दीर्घायु और तेज प्रदान करती है। 

कहा जाता है, जब नाग अपनी मणि जमीन पर रखता है तो उसका प्रकाश दीपक से भी अधिक तेज होता है। कई पौराणिक ग्रंथों (जैसे गरुड़ पुराण, स्कंद पुराण) में मणिधारी नाग का उल्लेख मिलता है।

भारतीय लोककथाओं में नागमणि को लेकर अनेक दंतकथाएं प्रसिद्ध हैं। जैसे अगर कोई व्यक्ति नागमणि प्राप्त कर ले, तो वह धनवान, बलवान और अमर हो जाता है। नाग अपनी मणि को छिपाकर रखते हैं, और जिसे यह मिल जाती है, उसके पीछे वे प्रतिशोध लेने आते हैं। लेकिन ये सब लोककथाएं हैं, प्रमाण नहीं। विज्ञान के अनुसार अब तक ऐसी कोई वास्तविक नागमणि नहीं मिली है, जो किसी सर्प के सिर से निकलती हो या चमक उत्पन्न करती हो। सांपों के पास कोई रत्न या जैविक मणि नहीं होती। उनकी चमकदार आंखें या कुछ विशेष सरीसृपों की त्वचा प्रकाश परावर्तित करती हैं, जिससे दूर से चमक दिखाई देती है, और यही भ्रम मणि का बन गया। जंगलों में पाए जाने वाले फॉस्फोरस युक्त कवक या जुगनू जैसे बायोल्यूमिनस जीव भी मणि की तरह चमकते दिखते हैं, जिन्हें लोग नागमणि समझ लेते हैं।

ऐसा प्रतीत होता है कि षनि ग्रह के रत्न नीलम को ही नागमणि मान लिया गया है, जबकि इनमें फर्क है। संस्कृत में नीलम को इन्द्रनील, तृषाग्रही नीलमणि भी कहा जाता है। जो दो प्रकार के होते हैं- जलनील व इन्द्रनील। जानकारी के अनुसार भारत में नीलमणि पर्वत भी है। भारत के जम्मू-कश्मीर राज्य में नीलम पाया जाता है। कश्मीर में पहले नागवंशियों का राज था। नीलम विशुद्ध रंग मोर की गर्दन के रंग का होता है। कहते हैं कि नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर में असली नीलमणि रखी हुई है। धार्मिक मान्यता है कि नागमणि को भगवान शेषनाग धारण करते हैं। भारतीय पौराणिक और लोक कथाओं में नागमणि के किस्से आम लोगों के बीच प्रचलित हैं। वह यह कि नागमणि सिर्फ नागों के पास ही होती है। नाग इसे अपने पास इसलिए रखते हैं ताकि उसकी रोशनी के आसपास एकत्र हो गए कीड़े-मकोड़ों को वह खाता रहे। हालांकि इसके अलावा भी नागों द्वारा मणि को रखने के और भी कारण हैं। कुल मिला कर नागमणि का रहस्य आज भी अनसुलझा हुआ है। आम जनता में यह बात प्रचलित है कि कई लोगों ने ऐसे नाग देखे हैं, जिसके सिर पर मणि थी। हालांकि पुराणों में मणिधर नाग के कई किस्से हैं। भगवान कृष्ण का भी इसी तरह के एक नाग से सामना हुआ था। छत्तीसगढ़ी साहित्य और लोककथाओं में नाग, नागमणि और नागकन्या की कथाएं मिलती हैं। मनुज नागमणि के माध्यम से जल में उतरते हैं। नागमणि की यह विशेषता है कि जल उसे मार्ग देता है। इसके बाद साहसी मनुज महल में प्रस्थित होकर नाग को परास्त कर नागकन्या प्राप्त करता है। कहते हैं कि नागमणि में अलौकिक शक्तियां होती हैं। उसकी चमक के आगे हीरा भी फीका पड़ जाता है। मान्यता अनुसार नागमणि जिसके भी पास होती है उसमें भी अलौकिक शक्तियां आ जाती हैं और वह आदमी भी दौलतमंद हो जाता है। मणि का होना उसी तरह है जिस तरह की अलादीन के चिराग का होना। हालांकि इसमें कितनी सच्चाई है, यह कोई नहीं जानता। किंवदती के अनुसार अजमेर में एक संपन्न परिवार के पास नागमणि मौजूद है, हालांकि इसकी पुष्टि आज तक नहीं हुई है।


कालबेलिया युवतियों की आंखें नशीली क्यों होती हैं?

राजस्थान की तपती रेत पर जब पुष्कर का मेला सजता है, तब भीड़ में सुमन कालबेलिया जैसी नर्तकियां सबका ध्यान अपनी ओर खींच लेती हैं। उनके लचकते हुए शरीर से अधिक लोग उनकी आंखों को देखते हैं। वे आंखें, जो सर्प की तरह सम्मोहक हैं, जिनमें आकर्षण भी है और रहस्य भी। यह वही आकर्षण है, जिसने पहले “कालबेलिया मोनालिसा” को प्रसिद्धि दी थी, और अब सुमन कालबेलिया को लोकनृत्य की नई पहचान बना दिया है। सवाल उठता है, आखिर इस समाज की स्त्रियों की आंखें इतनी नशीली क्यों होती हैं?

मनोवैज्ञानिक व सामुद्रिक शास्त्र के जानकारों का मानना है कि प्राकृतिक परिस्थितियों और सांपों से लगातार संपर्क में रहने के कारण शनैः शनैः उनकी आंखें भी सांपों जैसी हो गईं। फिर आनुवांषिक गुणों की वजह से हर आने वाली पीढी की युवतियों की आंखें भी वैसी ही होने लगीं। इसके भेद का खुद कालबेलियां युवतियों तक को भान नहीं। उनसे पूछो तो वे यही बता पाती हैं कि यह सब भगवान की देन है। 

वस्तुतः कालबेलिया समाज पीढ़ियों से सांपों के साथ जीता आया है। वे सर्पों को पकड़ते, उनके विष को पहचानते और उन्हें सुरक्षित छोड़ने का काम करते रहे हैं। सर्प उनके जीवन का साथी है, डर का नहीं। सांप की तरह वे भी स्थिर दृष्टि से दुनिया को देखते हैं। सर्प की निगाह में जो रहस्य और गहराई होती है, वही वर्षों के सह-अस्तित्व से इन स्त्रियों की आंखों में उतर आई है। उनके नृत्य में, उनके चेहरे के भावों में और उनकी दृष्टि में वह स्थिरता झलकती है, जो सर्प अपने शिकार को देखते समय दिखाता है।

रेगिस्तान की तेज धूप, खुला आसमान और धूलभरा जीवन उनकी आंखों को गहरी और चमकदार बनाता है। निरंतर खुले वातावरण में रहने से आंखों की मांसपेशियां मजबूत होती हैं, और उनमें स्वाभाविक तीक्ष्णता आती है। इसके साथ ही, कालबेलिया स्त्रियां बचपन से नृत्य सीखती हैं। उनके नृत्य में शरीर के हर अंग की भूमिका होती है, पर सबसे प्रभावशाली भूमिका निभाती हैं उनकी आंखें। वे नृत्य नहीं करतीं, बल्कि अपनी नजरों से कहानी कहती हैं। दर्शक को बांधने की यह कला उनके भीतर पीढ़ियों से उतरी है। यह भी सच है कि कभी यह समाज उपेक्षित था। सांप पकड़ने वाला समुदाय अछूत माना जाता था। लेकिन आज वही स्त्रियां कैमरे की रोशनी में लोकनृत्य का चेहरा बन चुकी हैं। यह परिवर्तन सिर्फ बाहरी नहीं है, यह उनकी आंखों की चमक में भी झलकता है। वह चमक सौंदर्य की नहीं, आत्मसम्मान की है। वे आंखें कहती हैं, “हम वही हैं जिन्हें जंगलों में भुला दिया गया था, पर अब सभ्यता हमारे पांवों की थाप पर नाचती है।”

कालबेलिया स्त्रियों की आंखों का नशा किसी सजावट का परिणाम नहीं, बल्कि उनकी जीवनगाथा का प्रतिबिंब है। उनके भीतर सर्प का प्रतीक बसता है। लहराता हुआ, स्थिर आकर्षक, पर खतरनाक। उनके काजल से घिरी आंखें लोककथा बन चुकी हैं। राजस्थान के लोकगीतों में भी कहा गया है “नागिन नैना मत मिला, नजर से चुभे डंस ज्यूं।” यह पंक्ति उनके सौंदर्य और रहस्य दोनों को एक साथ बयान करती है।

आज जब सुमन कालबेलिया मंच पर नाचती हैं, तो वह केवल एक नर्तकी नहीं होतीं। वह अपने समाज की परंपरा, अपनी दादी-नानियों की मेहनत, और रेगिस्तान की आत्मा को लेकर नाचती हैं। उनकी आंखों में जो नशा है, वह रूप का नहीं, बल्कि संघर्ष और पहचान का है।

इसलिए कहा जा सकता है- कालबेलिया स्त्रियों की आंखें नशा नहीं, इतिहास हैं। वे उस समाज की कहानी कहती हैं, जिसने विष के बीच भी नृत्य करना सीखा और नजरों को कविता बना दिया।


मंगलवार, अक्टूबर 28, 2025

क्या हमारी राशियां अब बदल गई है?

एक अध्ययन में इस बात का खुलासा हुआ है कि हमारी राशियां तकरीबन 25 हजार 800 साल पुरानी हैं, जो कि अब बदल गई हैं। जैसे जिसकी राशि अभी कुंभ है तो वह मीन हो गई है। अध्ययन के मुताबिक पृथ्वी की धुरी थोडी हिलती रहती है, जैसे घूर्णन करते हुए झूला। इस कारण उसके उत्तरी ध्रुव की दिशा आकाश में धीरे-धीरे बदलती है। इसके परिणामस्वरूप सितारों की स्थिति हमारे दृष्टिकोण से समय के साथ विस्थापित होती है। यही घटना पूर्णसारण व अक्षीय कंपन कहलाती है। इस पूर्वसारण-चक्र की अवधि लगभग 25 हजार 800 साल मानी जाती है। यानी लगभग उतना समय लगेगा कि पृथ्वी की धुरी फिर उसी ओर लौटे। इस बदलाव का एक परिणाम यह है कि सूर्य (जब वह वसंत विषुव बिंदु पर हो) अब उन सितारों के बीच से गुजरता है, जिनके बीच में वह इसलिए नहीं गुजरता था, जब पुराने ज्योतिषिक मानदंड बनाए गए थे। इसलिए, यदि हम सितारों की स्थिति को आज की आकाशगंगा के अनुसार देखें, तो यह संभव है कि किसी व्यक्ति की मौजूदा राशि पुराने प्रतिज्ञान से थोड़ी-बहुत भिन्न हो। 

अधिकतर पश्चिमी ज्योतिष राशियों को ऋतुओं और विषुव बिंदुओं के सापेक्ष निर्धारित करता है, न कि वर्तमान सितारों की वास्तविक स्थिति के आधार पर। इस प्रणाली में, राशि-तिथियां समय से नहीं बदलती। वे ऋतु-चक्र पर आधारित रहती हैं। 

दूसरी ओर, कुछ अन्य ज्योतिषीय प्रणालियां (जैसे कुछ दक्षिण एशियाई व वैदिक ज्योतिष पद्धतियां) सितारों की वास्तविक स्थिति को महत्व देती हैं, और उनमें समय के साथ समायोजन हो सकता है।

ज्ञातव्य है कि इंटरनेट पर यह बहुत चर्चा में रहा कि नासा ने 13वीं राशि जोड़ दी या अब राशि बदल गई हैं। इस पर यह दावा वैज्ञानिक एवं खगोलीय दृष्टिकोण से गलत या गलत प्रस्तुत किया गया है। नासा ने स्पष्ट किया है कि उन्होंने राशियों की सूची नहीं बदली है और न ही उन्होंने ओफिउकस को नई राशि घोषित किया है। तस्वीर यह है कि यदि आप खगोलीय दृष्टिकोण अपनाएं, तो एक व्यक्ति उस राशि में हो सकता है जो पुरानी ज्योतिषी तालिका से नहीं मिलती।

इस बारे में जानकारों का कहना कि अब राशियां बदल चुकी हैं, आंशिक रूप से सच हो सकता है, यदि आप सितारों की वास्तविक स्थिति के आधार पर राशि तय करना चाहें। लेकिन ज्योतिष की प्रणालियां (खासकर पश्चिमी ज्योतिष) तिथियों को ऋतुओं के सापेक्ष स्थिर रखती हैं, इसलिए उन प्रणालियों में “राशियों का बदलना” नहीं माना जाता। अतः, यह कहना कि “राशियां बदल गई हैं” यह निर्भर करता है कि आप किस संदर्भ में “राशि” ले रहे हैं। खगोलीय या पारंपरिक ज्योतिषीय।


गुरुवार, सितंबर 25, 2025

रावण के दस सिरों के ऊपर एक सिर गधे का क्यों होता है?

आपने रावण के दस सिरों के ऊपर एक सिर गधे का भी देखा होगा। क्या आपने सोचा है कि ऐसा क्यों? वस्तुतः रावण को लेकर हमारे यहा कई तरह की मान्यताएं, पुराणकथाएं और लोककथाएं प्रचलित हैं। रावण के सिर पर गधा होना भी एक लोकमान्यता या रूपकात्मक व्याख्या है, उसका उल्लेख वाल्मीकि रामायण या रामचरित मानस में नहीं है।

ज्ञातव्य है कि गधा भारतीय संस्कृति में प्रायः मूर्खता और हठ का प्रतीक माना जाता है। इसलिए कहा जाता है कि रावण के दस सिरों पर उसके ज्ञान और विद्या के बावजूद मूर्खता का बोझ गधे के रूप में रहता था। यह बताने का संकेत है कि अत्यधिक ज्ञान होने पर भी यदि विवेक न रहे तो अंततः वह गधापन ही है। यह प्रतीक रावण के उस व्यवहार को दर्शाता है, जहां उसने सीता का हरण जैसा विनाशकारी काम किया और हनुमान द्वारा लंका जलाए जाने के बाद भी अपनी जिद नहीं छोड़ी।

लोककथाओं में कई बार रावण को दंभी और अभिमानी बताया गया है। वहां यह कल्पना की गई कि उसके दस सिरों के ऊपर गधे का सिर रखा है, ताकि लोग याद रखें कि इतना बड़ा ज्ञानी भी अपने अहंकार से गधे जैसा बन गया। एक मान्यता यह भी है कि रावण ने पिछले जन्मों में किसी ऋषि का अपमान किया था। शाप की वजह से उसके सिर पर गधे का प्रतीक चिह्न उत्पन्न हुआ, जो उसके अज्ञान और पापकर्म का स्मरण कराता है। लोक नाटकों, रामलीला और चित्रों में कलाकार कई बार रावण को हास्यास्पद बनाने के लिए गधे के सिर का उल्लेख करते हैं। यह धार्मिक ग्रंथों की बात नहीं, बल्कि लोकरीति और हास्य-व्यंग्य का अंश है।

कुल मिला कर रावण के सिर पर गधा होना कोई शास्त्रीय तथ्य नहीं, बल्कि लोककथाओं और रूपक की बात है। इसका संकेत यही है कि विद्या और शक्ति के बावजूद अहंकार और मूर्खता सबसे ऊपर बैठी थी। 


सोमवार, सितंबर 15, 2025

ऐसा पानी, जिसको पीने से अद्भुत ताकत मिलती है

एक दिन मेरे एक मित्र ने किसी विदेशी झील के पानी का डेमो करके दिखाया, जिसकी कुछ बूंदें जिव्हा पर रखने से षरीर में कुछ समय के लिए अतिरिक्त शक्ति आ गई। मैं अचंभित रह गया। विचार आया कि पानी के ऐसे किसी गुण का पता लगाया जाए। आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस के विभिन्न प्लेटफार्म्स पर तलाशा तो कई रोचक तथ्य जानकारी में आए। आप भी जानिएः- 

दुनिया में कई झीलें हैं, जिनके पानी के बारे में कथाएं, लोकविश्वास और किंवदंतियां प्रचलित हैं, जिनमें कहा जाता है कि वहां का पानी पीने से स्वास्थ्य, ऊर्जा या विशेष गुण मिलते हैं। ये ज्यादातर धार्मिक आस्था, ऐतिहासिक घटनाओं या प्राकृतिक खनिजों की वजह से प्रसिद्ध हैं।

सर्वविदित है कि गंगा नदी के पानी को पवित्र माना जाता है, जिसमें नहाने से सारे पाप धुल जाते हैं। वह अत्यंत षुद्ध है और किसी पात्र में रखने पर सालों तक वैसा ही बना रहता है। हमारे यहां तो किसी स्थान को शुद्ध करने के लिए गंगा का पानी छिडका जाता है। मरणासन्न व्यक्ति को गंगा जल पिलाया जाता है।

इसी प्रकार आबे जमजम की इस्लाम में बहुत अधिक मान्यता है। आबे जमजम मक्का शरीफ (सऊदी अरब) के मशहूर पवित्र कुएं का नाम है, जो काबा शरीफ के पास स्थित है। हजरत इब्राहीम की पत्नी हजरत हाजरा और उनके बेटे हजरत इस्माईल के लिए अल्लाह की रहमत से यह पानी निकला। आज भी यह कुआं मक्का में मौजूद है और हज व उमरा करने वाले लाखों लोग इसका पानी पीते और साथ ले जाते हैं। यह ताजगी, शिफा (आरोग्य), और बरकत (आशीर्वाद) देने वाला माना जाता है। दुनिया में किसी भी पानी से इसकी तुलना नहीं की जाती।

मान्यता है कि अजमेर में महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के सालाना उर्स के दौरान छोटे कुल और बडे कुल की रस्म के दौरान केवडे व गुलाब के जिस जल से गुस्ल दिया जाता है, वह शारीरिक व मानसिक बीमारियों में रूप से बहुत लाभदायक होता है।

पूजा पाठ व कथा के दौरान कमंडल या लोटे में रखे पानी को भी शुद्ध माना जाता है, जिसके छींटे दिए जाते हैं। उसका सेवन किया जाता है।

जानकारी के अनुसार पेरू-बोलीविया में एंडीज पर्वत की झील लेक टिटिकाका स्थानीय किंवदंतियों में “जीवन देने वाली” कही जाती है।

माना जाता है कि झील के पानी को प्राचीन देवताओं का आशीर्वाद है, जो साहस और शक्ति देता है।

इसी प्रकार तिब्बत में मानसरोवर झील हिन्दू, बौद्ध, जैन और बोन धर्म में पवित्र मानी जाती है। आस्था है कि इसका जल पीने या स्नान करने से पाप नष्ट होते हैं और आध्यात्मिक बल मिलता है।

न्यूजीलैंड की ब्लू लेक में दुनिया का सबसे साफ पानी माना जाता है। 

यहां का पानी पीने से ताकत मिलने की कोई वैज्ञानिक पुष्टि नहीं, लेकिन स्वच्छता के कारण इसे “जीवंत पानी” कहा जाता है।

रोमानिया की सिल्विया झील के बारे में लोक कथाओं में कहा जाता है कि यहां का पानी पीने से बीमारियां दूर होती हैं और ताकत मिलती है। वास्तव में पानी में खनिज प्रचुर मात्रा में होते हैं, जिससे थोड़ी ऊर्जा महसूस हो सकती है।

कुल जमा कहा जा सकता है कि यदि पानी में प्राकृतिक खनिज, लवण या ऑक्सीजन की मात्रा अधिक हो, तो उसे पीने से ताजगी और ऊर्जा महसूस हो सकती है। लेकिन “सुपरपावर” जैसी ताकत मिलना सिर्फ मिथक या धार्मिक मान्यता है, वैज्ञानिक प्रमाण नहीं।


मंगलवार, अगस्त 05, 2025

जन्म के बाद नामकरण तक पूजा वर्जित क्यों?

जन्म के बाद नामकरण संस्कार तक पूजा-पाठ को वर्जित माना जाता है? इसके पीछे धार्मिक, शास्त्रीय और व्यवहारिक कारण होते हैं, जो भारतीय सनातन परंपरा और संस्कृति से जुड़े हैं। वस्तुतः बच्चे के जन्म के बाद लगभग 10 दिन तक का समय सूतक काल कहलाता है। इस अवधि में घर में पूजा-पाठ, यज्ञ, हवन, मंदिर प्रवेश आदि वर्जित माने जाते हैं। यह समय मां और नवजात के लिए शुद्धिकरण और विश्राम का होता है। प्रसव के दौरान शरीर से रक्त और अन्य तरल पदार्थ निकलते हैं, जिसे धार्मिक दृष्टि से अशुद्ध माना जाता है। मां का शरीर और घर का वातावरण संक्रमण की दृष्टि से संवेदनशील होता है, अतः विश्राम और शुद्धि जरूरी मानी गई है। नवजात शिशु को इस दौरान संस्कारों और पूजा के योग्य नहीं माना जाता, क्योंकि वह अभी सामाजिक और धार्मिक जीवन का हिस्सा नहीं बना होता।

नामकरण संस्कार के साथ ही उसे एक धार्मिक पहचान और सामाजिक स्थान प्राप्त होता है। नामकरण संस्कार केवल नाम देने की प्रक्रिया नहीं, बल्कि यह एक धार्मिक अनुष्ठान है, संस्कार है, जिसमें शिशु को पहली बार उसका नाम सुनाया जाता है।

इसके बाद ही शिशु को धार्मिक अनुष्ठानों में सम्मिलित किया जाता है। मनुस्मृति, गृह्यसूत्र, धर्मशास्त्रों में स्पष्ट निर्देश है कि सूतक काल में कोई भी पवित्र कर्म जैसे पूजा, यज्ञ, श्राद्ध आदि नहीं करने चाहिए।

एक सवाल यह भी कि क्या जन्म के बाद नामकरण संस्कार तक पूजा करने से वह नकारात्मक शक्तियों को मिलती है? शास्त्रों में बताया गया है कि शिशु के जन्म के बाद सूतक काल में की गई पूजा को देवताओं तक नहीं पहुंचने योग्य बताया गया है। इससे उल्टा प्रभाव हो सकता है, यानी आत्मिक शुद्धि की जगह मानसिक व्याकुलता। यदि धार्मिक कार्य अशुद्ध शरीर, वस्त्र या भाव से किए जाएं, तो वे फलदायी नहीं होते, बल्कि कुछ शास्त्रों में इसे अपवित्र यज्ञ कहा गया है, जो पितरों या अन्य अदृश्य शक्तियों को अप्रसन्न कर सकता है। सूतक काल में शरीर की ऊर्जा कमजोर होती है। पूजा-पाठ एक उच्चतर ऊर्जा स्तर की क्रिया है, यदि वह अशुद्ध या कमजोर ऊर्जा से की जाए तो आसपास की सूक्ष्म नकारात्मक शक्तियां आकर्षित हो सकती हैं।

परंपराएं बताती हैं कि नवजात शिशु के आसपास की रक्षा करने वाले तंत्र बहुत कोमल होते हैं। कोई भी असंतुलन जैसे शास्त्रविरुद्ध पूजा उस सुरक्षा कवच को भेद सकता है, जिससे नकारात्मक ऊर्जाओं का प्रभाव संभव है।

 

https://youtu.be/93Wkzhy9qdg

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