तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

सोमवार, जनवरी 06, 2025

क्या भगवान प्रसाद ग्रहण करते हैं?

स्थूल व तार्किक बुद्धि का एक सवाल है कि हम भगवान की मूर्ति के आगे जो प्रसाद चढ़ाते हैं, क्या वह उसे ग्रहण करती है? अगर ग्रहण करती है तो वह कम क्यों नहीं होता? अगर मूर्ति प्रसाद का अंश मात्र भी ग्रहण नहीं करती तो फिर प्रसाद चढ़ाने का प्रयोजन क्या है? सवाल वाजिब है।

इसी से जुड़ा सवाल है कि जब सब कुछ भगवान का ही दिया हुआ है तो वही उसे अर्पण करने का क्या मतलब है? जिसने संपूर्ण चराचर जगत  बनाया है, सारे भोज्य पदार्थ उसी की देन हैं। उसी का अंश मात्र अर्पित करने से उसे क्या फर्क पड़ता होगा?

भगवान की मूर्ति भोग ग्रहण करती है या नहीं, इस शंका का समाधान करते हुए एक प्रसंग कुछ इस प्रकार व्यक्त किया गया है-

एक शिष्य ने अपने गुरू से यही प्रश्न किया। इस पर उन्होंने पुस्तक में अंकित एक श्लोक कंठस्थ करने को कहा। एक घंटे बाद गुरू ने शिष्य से पूछा कि उसे श्लोक कंठस्थ हुआ कि नहीं। इस पर शिष्य ने शुद्ध उच्चारण के साथ श्लोक सुना दिया। गुरू ने पुस्तक दिखाते हुए कहा कि श्लोक तो पुस्तक में ही है, तो वह तुम्हारी स्मृति में कैसे आ गया? स्वाभाविक रूप से शिष्य निरुत्तर हो गया। गुरू ने समझाया कि पुस्तक में जो श्लोक है, वह स्थूल रूप में है । तुमने जब श्लोक पढ़ा तो वह सूक्ष्म रूप में तुम्हारे अंदर प्रवेश कर गया, लेकिन पुस्तक में स्थूल रूप में अंकित श्लोक में कोई कमी नहीं आई। इसी प्रकार भगवान हमारे प्रसाद को सूक्ष्म रूप में ग्रहण करते हैं और इससे स्थूल रूप के प्रसाद में कोई कमी नहीं आती।

वस्तुतर: प्रसाद चढ़ाना एक भाव है, कृतज्ञता प्रकट करने का। और भाव की ही महिमा है। कहा तो यहां तक जाता है कि अगर हमारे पास पुष्प, फल, मिष्ठान्न आदि नहीं हैं तो भी अगर हम कल्पना करके सच्चे भाव से उसे अर्पित करते हैं तो वह उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना भौतिक रूप से प्रसाद चढ़ाने का। अर्थात महत्व पदार्थ का नहीं, बल्कि भाव का है। उससे भी दिलचस्प बात ये है कि भगवान को चढ़ाया हुआ प्रसाद दिव्य हो जाता है। भले ही उसमें रासायनिक रूप से कोई अंतर न आता हो, तो भी उसके एक-एक कण में दिव्यता आ जाती है। यह भी एक भाव है। तभी तो कहते हैं कि प्रसाद का तो एक कण ही काफी है, जरूरी नहीं कि वह अधिक मात्रा में हो। इसके अतिरिक्त प्रयास ये भी रहता है कि वह अधिक से अधिक के मुख में जाए। यह भी एक भाव है, सबके भले का।

एक आरती में तो बाकायदा एक पंक्ति है कि तेरा तुझ को अर्पण, क्या लागे मेरा। ऐसा इसलिए कहा जाता है ताकि कृतज्ञता प्रकट करते समय यह अहम भाव न आ जाए कि मैने कुछ अर्पित किया है। एक रोचक बात देखिए। भगवान को हम हमारा ही विराट रूप मानते हैं। इसी कारण जैसे मौसम के अनुसार हमारा भोजन परिवर्तित होता है, तो प्रसाद भी हम वैसा ही चढ़ाते हैं। यहां तक कि सर्दी में भगवान की मूर्ति को गरम वस्त्र पहनाते हैं। भला मूर्ति को भी कोई ठंड लगती है? मगर ये हमारा भाव है। और कहते भी हैं कि भगवान भाव के भूखे हैं। तभी तो वे शबरी के झूठे बेर भी ग्रहण कर लेते हैं।

https://www.youtube.com/watch?v=KCUUkPl9Qr4

दीपक से दीपक क्यों नहीं जलाना चाहिए?

हमारे यहां दीप से दीप जले की बड़ी महिमा है। ज्ञान के प्रसार के लिए इस उक्ति का प्रयोग किया जाता है। व्यवहार में यह बिलकुल ठीक भी है। एक व्यक्ति से ही दूसरे में ज्ञान का प्रकाश जाता है और उससे आगे वह अन्य में। इस प्रकार यह सिलसिला चलता रहता है। मगर धर्म के जानकार कहते हैं कि एक दीपक से दूसरा दीपक नहीं जलाना चाहिए। हर दीपक को नई दियासलाई से जलाने की सलाह दी जाती है। सवाल ये उठता है कि यह मान्यता कैसे स्थापित हुई?

सामान्यतरू हमें एक दीपक से दूसरे दीपक को जलाने में कुछ भी गलत प्रतीत नहीं होता। चाहे दीपक से जलाओ या दूसरी दियासलाई से, क्या फर्क पड़ता है? अगर हमें अधिक दीपक जलाने हैं तो यह निरी मूर्खता ही होगी कि हर दीपक को जलाने के लिए नई दियासलाई काम में लें। तो फिर धर्म के जानकार अलग-अलग दीपक को अलग-अलग जलाने की सलाह क्यों देते हैं?

बताया जाता है कि जब हम किसी दीपक को जलाते हैं तो वह अग्नि की एक इकाई होती है। जिस भी देवी-देवता के नाम दीपक जलाया गया है, वह उसी के नाम होता है। उसको शेयर नहीं किया जा सकता। यदि हम उसी दीपक से दूसरा दीपक जलाते हैं तो वह जूठन के समान हो जाता है। जब हम किसी का जूठा नहीं खाते तो एक देवता की जूठी अग्नि दूसरे को कैसे अर्पित कर सकते हैं। मान्यता है कि ऐसी जूठी अग्नि दूसरे दीपक के देवता को स्वीकार्य भी नहीं होती।

कुछ जानकार कहते हैं कि दीपक से दीपक जलाने से ऋण का भार बढ़ता है। इसके पीछे क्या तर्क है, क्या विज्ञान है, पता नहीं। हो सकता है ऐसा इसलिए माना जाता हो एक दीपक की ज्योति दूसरे दीपक के लिए उधार लेने की घटना हमारे जीवन में ऋण लेने के रूप में घटित होती हो।

प्रसंगवश इस जानकारी पर भी चर्चा कर लेते हैं। एक दियासलाई से सिर्फ एक ही सिगरेट जलाने का भी चलन है। हद से हद दो सिगरेटें जलाई जाती हैं। तीसरी सिगरेट तक के लिए दियासलाई बच जाने पर भी उसे बुझा कर नई दियासलाई जलाई जाती है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह चलन तीन तिगाड़ा काम बिगाड़ा की मान्यता के कारण है। कुछ लोग बताते हैं कि इसका चलन सेना से आया। सैनिकों की मान्यता है कि लगातार एक के बाद एक सिगरेट एक ही दियासलाई से जलाने पर एक रेखा निर्मित होती है। दुश्मन को पता चल जाता है कि वहां सैनिक पंक्तिबद्ध खड़े हैं और वह आक्रमण कर सकता है।

https://www.youtube.com/watch?v=LPy_U0Wrf2s&t=91s

शनिवार, जनवरी 04, 2025

क्या मोर के आंसू से मोरनी गर्भवति होती है?

बचपन में मैने एक प्रसंग सुना था। वो ये कि मोर मोरनी को रिझाते  वक्त अपने खूबसूरत पंखों को देख कर इठलाता है, लेकिन जैसे ही अपने बदसूरत पैर देखता है तो दुखी हो जाता है। उसकी आंखों से आंसू बहने लगते है। मोरनी तुरंत उसके आंसू पी लेती है और उसी से उसके भीतर प्रजनन की प्रक्रिया होती है।

असल में यह एक अवधारणा है। अनेक कथावाचकों को यह प्रसंग सुनाते हुए मैने देखा है। यह अवधारणा कहां से आई, पता नहीं, मगर ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान श्रीकृष्ण के सिर पर बंधे मोर पंख की गरिमा को और महिमामंडित करने के प्रयास में ऐसी सोच निर्मित हुई होगी। सोच यह भी रही कि चूंकि मोर अन्य प्राणियों की तरह मादा से संसर्ग नहीं करता, इस कारण वह ब्रह्मचारी है। उसकी इसी विशेषता के कारण उसे राष्ट्रीय पक्षी घोषित किया गया।

कुछ अरसा पहले राजस्थान हाईकोर्ट के जज श्री महेश शर्मा ने अपने कार्यकाल के आखिरी दिन एक अहम फैसले के दौरान इसी अवधारणा का हवाला दिया तो पूरे देश में खूब हो-हल्ला हुआ। उनकी खिल्ली भी उड़ाई गई कि इतना विद्वान व्यक्ति बिना पुख्ता जानकारी के कैसे ऐसी मिथ्या बात कर सकता है। ऐसा प्रतीत होता है कि उनके दिमाग में प्रचलित अवधारणा ही थी। गलती सिर्फ ये हुई कि उन्होंने इसका वैज्ञानिक पहलु जानने की कोशिश नहीं की। 

बहरहाल, उनके वक्तव्य पर बहस शुरू हो गई और लोग ये सवाल करने लगे कि क्या ये मुमकिन है कि आंसू पीकर मोरनी गर्भवती हो जाए? इस पर पक्षी वैज्ञानिक अपना पक्ष लेकर सामने आए। उनका कहना था कि मोर और मोरनी भी वैसे ही बच्चे पैदा करते हैं, जैसे बाकी पशु-पक्षी। दरअसल वे अपने सुंदर पंख फैला कर मोरनी को मोहित करते हैं। मोरनी जब संसर्ग की सहमति दे देती है तो वे बाकायदा वैसे ही काम क्रीड़ा करते हैं, जैसे अन्य पक्षी। और इस तरह से वह गर्भवति होती है। 

विज्ञान के अनुसार प्रजनन के लिए नर-मादा का मिलाप जरूरी है। जिस समय इनका मिलाप होता है, नर मादा की पीठ पर सवार होता है। दोनों मल विसर्जन करने वाले अंग, जिसे कि क्लोका कहा जाता है, उसे खोलते हैं और इस प्रकार नर पक्षी अपना वीर्य मादा के शरीर में प्रविष्ठ करवाता है।

गूगल सर्च करने पर जानकारी मिली कि प्रोफेसर डॉ. संदीप नानावटी के अनुसार मोर शर्मिला पक्षी है, इसलिए वह एकांत मिलने पर ही सहवास करता है। कदाचित इसी वजह से लोगों में भ्रांति है कि मोर के आंसू पी कर मोरनी गर्भवती होती है। पक्षी विज्ञानी विक्रम ग्रेवाल का भी मानना है कि अन्य पक्षियों की तरह मोरनी से सहवास कर प्रजनन करता है। 

जहां तक मोर को राष्ट्रीय पक्षी घोषित करने का सवाल है तो जानकारी ये है कि मोर पहले भारत में ही पाया जाता था। राष्ट्रीय पक्षी के चुनाव की लिस्ट में मोर के साथ सारस व हंस के नाम थे। 1960 में राष्ट्रीय पक्षी चुनने पर विचार हुआ। उनमें यह एक राय बनी कि उसी पक्षी को राष्ट्रीय पक्षी घोषित किया जाए जो देश के हर हिस्से में पाया जाता हो, उसे हर आम-ओ-खास जानता हो और वह भारतीय संस्कृति का हिस्सा हो। इन शर्तों पर मोर ही खरा उतरा। और इस प्रकार 26 जनवरी 1963 को मोर को राष्ट्रीय पक्षी घोषित कर दिया गया।

आंसू के जरिए प्रजनन होने के इस प्रसंग के साथ ही इस प्रकार एक प्रसंग और ख्याल में आता है। आपने रामायण सुनी-पढ़ी होगी। उसमें जिक्र आता है कि पवन पुत्र हनुमान जी बाल ब्रह्मचारी थे। अपनी पूंछ से लंका दहन के कारण उनको तीव्र पीड़ा हो रही थी। पूंछ की अग्नि को शांत करने के लिए समुद्र के निकट गए। इस दौरान उनको पसीना आया। उस पसीने की एक बूंद को एक मछली ने पी लिया था। उसी पसीने की बूंद से वह मछली गर्भवती हो गई। बाद में एक दिन पाताल के असुरराज अहिरावण के सेवकों ने उस मछली को पकड़ लिया। जब वे उसका पेट चीर रहे थे, तो उसमें से वानर की आकृति का एक मनुष्य निकला। वे उसे अहिरावण के पास ले गए। अहिरावण ने उसे पाताल पुरी का रक्षक नियुक्त कर दिया। यही वानर हनुमान पुत्र मकरध्वज के नाम से जाना गया। मकरध्वज ने अपने पैदा होने का वृतांत हनुमान जी को सुनाया। हनुमानजी ने अहिरावण का वध कर श्रीराम व लक्ष्मण को मुक्त कराया और उसे पाताल लोक का राजा नियुक्त कर दिया।

यह प्रसंग मोर-मोरनी के प्रसंग से मिलता जुलता है। तर्क ये दिया जा सकता है कि जब पसीने की बूंद से प्रजनन हो सकता है तो आंसू से क्यों नहीं हो सकता? सच्चाई क्या है, कुछ पता नहीं। शास्त्रों में बिना संसर्ग के अन्य तरीकों से प्रजनन के अनेक उदाहरण मौजूद हैं। उन पर विज्ञान ने अब तक कोई काम नहीं किया है।

https://www.youtube.com/watch?v=2i90D1hDqJo

शुक्रवार, जनवरी 03, 2025

चौराहे, तिराहे व मार्ग के भी देवता होते हैं?

हिंदू धर्म में तैंतीस कोटी अर्थात करोड़ देवी-देवता माने जाते हैं। हालांकि इसको लेकर मतभिन्नता भी है। कुछ जानकारों का कहना है कि कोटि का अर्थ करोड़ तो होता है, मगर कोटि का अर्थ प्रकार भी होता है। उनका कहना है कि देवता तैंतीस कोटि अथवा प्रकार के होते हैं। जो कुछ भी हो, मगर यह पक्का है कि देवी-देवता अनगिनत हैं। हम तो पेड़-पौधे यथा तुलसी, पीपल, कल्पवृक्ष, बड़, आंवले का पेड़ इत्यादि में देवता मान कर उनकी पूजा करते हैं। हरियाली अमावस्या पर कल्पवृक्ष की विशेष पूजा की जाती है। आंवला नवमी के दिन आंवले के पेड़ को पूजा जाता है। खेजड़ी, रात की रानी के पेड़ व बेर के झाड़ी में भूत-प्रेत का वास माना जाता है। इसी प्रकार पशु-पक्षी यथा गाय में सभी देवताओं व कुत्ते में शनि और बंदर में हनुमान जी की धारणा करते हैं। पहली रोटी गाय व आखिरी रोटी कुत्ते के लिए निकाली जाती है। काली गाय व काले कुत्ते का तो और भी अधिक महत्व है। बंदरों को केला खिलाने की परंपरा है। आपकी जानकारी में होगा कि बंदर में हनुमान जी की मौजूदगी की मान्यता के कारण उसकी मृत्यु होने पर बाकायादा बैकुंठी निकाली जाती है। करंट से बंदर की मृत्यु हो जाने पर करंट वाले बालाजी के मंदिर कई शहरों में बनाए जा चुके हैं। इसी प्रकार सांड का अंतिम संस्कार करने से पहले बैकुंठी निकाली जाती है। कबूतर, चिडिय़ा इत्यादि को दाना डालने के पीछे भी देवताओं को तुष्ट करने का चलन है। ऐसी मान्यता है कि मकान की छत पर पूर्वजों की मौजूदगी है, इस कारण कई लोग वहां पक्षियो के लिए दाना बिखरते हैं। श्राद्ध पक्ष में कौए के लिए ग्रास निकाला जाता है। उल्लू को लक्ष्मी  का वाहन माना जाता है। चींटी के माध्यम से शनि देवता को प्रसन्न करने के लिए कीड़ी नगरे को सींचते हैं। कई लोग चूहे को इस कारण नहीं मारते कि वह गणेश जी का वाहन है। जलचरों में मछली को दाना डालने की परंपरा है। जल, धरती, वायु इत्यादि में भी देवताओं के दर्शन करते हैं। यहां तक कि पत्थर की मूर्ति बना कर उसमें विभिन्न प्रकार के देवताओं की प्राण-प्रतिष्ठा करके उसे पूजते हैं। निहायत तुच्छ सी झाड़ू में लक्ष्मी का वास होने की मान्यता है, इस कारण उसे गुप्त स्थान पर रखने व पैर न छुआने की सलाह दी जाती है। छिपकली में भी लक्ष्मी की मौजूदगी मानी जाती है। कहते हैं कि दीपावली के दिन अगर छिपकली दिखाई दे जाए तो समझिये कि लक्ष्मी माता ने दर्शन दे दिए हैं। वास्तु शास्त्र की बात करें तो हर रिहाहिशी मकान व व्यावसायिक स्थल और ऑफिस का अपना अलग वास्तु पुरुष है, जो कि विभिन्न देवी-देवताओं का प्रतिनिधित्व करता है। और तो और चौराहे, तिराहे व मार्ग तक में भी देवता की उपस्थिति होने की मान्यता है। 

मैंने देखा है कि चाय की दुकान करने वाले सुबह सबसे पहली चाय चौराहे, तिराहे या मार्ग को अर्पित करते हैं। इसी प्रकार नाश्ते की दुकान करने वाले भी भोग लगाते हैं। इस बारे में उनसे चर्चा करने पर यह निष्कर्ष निकला कि हालांकि उन्हें इसका ठीक से पता नहीं कि वे किस देवता को प्रसाद चढ़ा रहे हैं। वे तो परंपरा का पालन कर रहे हैं। फिर भी यह पूछने पर आपके भीतर ऐसा करते वक्त क्या भाव उत्पन्न होता है, तो वे बताते हैं कि चौराहे, तिराहे व मार्ग पर स्थानीय देवता की मौजूदगी है, चाहे उसका कोई नामकरण न हो। हम उनकी छत्रछाया में ही व्यवसाय करते हैं, इस कारण उनकी कृपा दृष्टि के लिए प्रसाद चढ़ाते हैं।

चौराहे, तिराहे या मार्ग का महत्व तंत्र में भी है। नजर उतारने सहित अनके प्रकार के टोने-टोटके के लिए इन स्थानों का उपयोग किया जाता है। आपने देखा होगा कि कई लोग किसी टोटके के तहत नीबू, कौड़ी, गेहूं, लाल-काला कपड़ा, दीपक, छोटी मटकी इत्यादि रखते हैं। यही सलाह दी जाती है कि उनको न छुएं। इसका मतलब ये हुआ कि तंत्र विद्या में भी इन जगहों पर शक्तियों का वास माना गया है।

है न हमारी सनातन संस्कृति सबसे अनूठी। शास्त्र तो कण-कण में भगवान की उपस्थिति मानता है। बताते हैं गीतांजलि काव्य के लिए नोबेल पुरस्कार पाने वाले श्री रविन्द्र नाथ टैगोर का जब ईश्वर से साक्षात्कार हुआ तो उन्हें हर जगह उसके दर्शन होने लगे। भावातिरेक अवस्था में वे पेड़ों से लिपट कर रोया करते थे। लोग भले ही इसे पागलपन की हरकत मानते हों, मगर वे तो किसी और ही तल पर जीने लगे थे।

https://www.youtube.com/watch?v=r7pq9rOfUX0


गुरुवार, जनवरी 02, 2025

क्या इंशा अल्लाह कहना जरूरी है?

आम तौर पर जब भी हम कोई काम करने का इरादा करते हैं तो उसका जिक्र करते वक्त कहते हैं कि अगर भगवान ने चाहा तो। मुस्लिम लोग इंशा अल्लाह कह कर ही काम करने का ऐलान करते हैं। इसके मायने ये हैं कि हम ने तो इरादा किया है, मगर वह तभी संभव होगा, जब भगवान की, प्रकृति की या अल्लाह की सहमति होगी। यह इस जुमले की स्वीकारोक्ति से जुडा हुआ तथ्य है कि वही होता है जो मंजूरे खुदा होता है। अब सवाल ये उठता है कि क्या कोई भी काम करने का निर्णय करने पर इंशा अल्लाह कहना जरूरी है। इस बारे में पाकिस्तान के जाने माने मुफ्ती तारीक मसूद इस्लाम के हवाले से बताते हैं कि यह बहुत जरूरी है, वरना काम बिगड जाता है या बिगड सकता है। उन्होंने एक वाकया बयान किया है कि एक बार किसी कौम के कुछ लोगों ने एक बाग की परवरिश की। जब फल पक गए तो इतराने लगे और उन्होंने कहा कि अब कल हम इसकी फसल काटेंगे और खूब फायदा उठाएंगे। उन्होंने ऐसा कहते वक्त यह नहीं कहा कि इंशा अल्लाह। नतीजा ये हुआ के दूसरे ही दिन बाग पर आसमानी आफत व मुसीबत आई और बाग तबाह हो गया, चौपट हो गया। सनातन धर्म को मानने वाले भी आवश्यक रूप से भगवान को ही श्रेय देते हुए काम आरंभ करते हैं। इतना ही नहीं, हर शुभ काम के आरंभ में विघ्न विनायक गणेश जी की स्तुति भी करते हैं, ताकि उसमें कोई बाधा न आए। इसके प्रति इतनी गहरी आस्था है कि काम के आरंभ को ही श्रीगणेश कहा जाने लगा है। विवाह के कार्ड में सबसे उपर श्री गणेश का चित्र अथवा स्वस्तिक का चिन्ह लगाते हैं और न्यौते का आरंभ करते हुए सबसे पहले कार्ड गणेश जी व साथ ही कुल देव अथवा कुल देवी को समर्पित करते हैं। इंशा अल्लाह कहने को दार्शनिक दृष्टिकोण से देखें तो ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकृति में यह व्यवस्था है कि जहां भी अहम भाव जागता है, प्रकृति उसे तिरोहित करने में लग जाती है। यही जान कर हम अपने आगे भगवान या अल्लाह को कर देते हैं, उसकी मर्जी होगी तो ही काम पूरा होगा, वरना जय राम जी की।

https://www-youtube-com/watch\v¾nKZZDgyvzAE&t¾4s


सोमवार, दिसंबर 30, 2024

बच्चा बुहारी लगाए तो मेहमान आता है?

हम रोजाना घर में बुहारी लगाते हैं। संपन्न लोगों के घर में काम वाली बाई बुहारी लगाती है। यह एक सामान्य बात है। लेकिन अगर कभी कोई बच्चा खेल-खेल में बुहारी लगाए तो यह माना जाता है कि कोई मेहमान आने वाला है। तभी तो उसे कहते हैं कि क्या किसी मेहमान को बुला रहा है? इस मान्यता का कोई ठोस कारण अथवा वैज्ञानिक आधार विद्वानों की जानकारी में हो तो पता नहीं, मगर आम जनमानस उससे अनभिज्ञ है। वह तो इस तथ्य को परंपरागत रूप से मान्यता के रूप में ही लेता है। मैने इसके रहस्य को जानने की कोशिश की, मगर मुझे भी सटीक समाधान नहीं मिला।

जहां तक मेरी समझ है, ऐसा प्रतीत होता है कि चूंकि बच्चा सहज व सरल होता है, मन-बुद्धि विशुद्ध होते हैं, उसमें अभी सांसारिक विकृतियां नहीं प्रवेश की होती हैं, इस कारण उसकी छठी इन्द्री प्रकृति के संकेतों को ग्रहण कर लेती होगी। चूंकि हम वयस्कों की नैसर्गिक शक्तियां कई प्रकार के झूठ, प्रपंच आदि के कारण शिथिल हो जाती हैं, इस कारण हमारी छठी इन्द्री संकेत ग्रहण करने की क्षमता खो देती होगी। संभव है कि अनुभव से ऐसी मान्यता स्थापित हुई हो कि बच्चा बुहारी लगाए तो वह किसी मेहमान के आने का संकेत होता है। यद्यपि बच्चे को उस संकेत का भान नहीं होता, मगर उस संकेत की वजह से वह सहज ही बुहारी लगाने लगता होगा। ऐसा छत पर बैठे-बैठे कौए के कांव-कांव करने पर भी कहा जाता है। शायद कौवे में भी संकेत ग्रहण करने की क्षमता हो।

जहां तक बुहारी का मेहमान से संबंध है तो इस बारे में मुझे किशोरावस्था की एक घटना याद आती है। कदाचित पचास से अधिक उम्र के लोगों की भी जानकारी में हो। तब मदारी टाइप के लोग काजल की डिब्बी यह कह कर बेचा करते थे कि उसे रात को सोते समय सिरहाने के नीचे रखने पर सपने में विशिष्ट अनुभव होंगे। राजा आपक मनचाही मुराद पूरी करेगा। डेमो के रूप में वे किसी एक बच्चे से कहते थे कि वह डिब्बी में गौर से देखे। कहते थे कि राजा आने वाले हैं। देखो राजा के आगमन से पहले सफाई कर्मचारी बुहारी लगा रहा है। अब पानी का छिड़काव कर रहा है। अब दरी बिछा रहा है। और अब देखो एक राजा आ रहा है। बच्चा हां में हां मिलाता जाता था। संभव है वे बच्चे को सम्मोहित कर देते थे। अन्य बच्चे इस चमत्कार को देख कर मान लेते थे कि वह डिब्बी चमत्कारी है और वे उसे खरीद लेते थे। बाद में किसी ने डिब्बी को सिरहाने के नीचे रखने पर विशिष्ट सपना देखा या नहीं, मुझे नहीं पता, मगर किशोरावस्था की इस घटना से मेरे जेहन में यह तथ्य बैठा दिया कि किसी आगंतुक के आने से पहले स्वागत में बुहारी लगाई जाती है। यह पुरानी परंपरा है। ऐसा अमूमन हम करते भी हैं। कोई मेहमान आने वाला हो तो उससे पहले साफ-सफाई करते हैं। ऐसे प्रसंग भी आपने सुने होंगे कि विशिष्ट व्यक्ति के आने पर उसके आगे बुहारने की रस्म अदा की जाती है। इस प्रकरण का यूं ही जिक्र कर दिया। महज एक संस्मरण आपसे साझा करने के लिए। आजकल ऐसे मदारी नजर नहीं आते। न जाने कहां चले गए ऐसे लोग? न जाने कहां विलुप्त हो गई ऐसी विद्या अथवा अविद्या? 

https://www.youtube.com/watch?v=6BR12sLU460

नासा का स्पेसक्राफ्ट चला हनुमान जी की राह पर

आपने हनुमान जी के बचपन की अद्भुत लीलाओं को सुना होगा। एक बार उन्होंने सूर्य को पका हुआ लाल फल समझ कर मुंह में रख लिया था। यह कथा बाल हनुमान के बल, मासूमियत और अद्वितीय शक्ति को दर्शाती है। जब हनुमान छोटे थे, तो वे बहुत ही चंचल और शक्तिशाली थे। एक दिन उन्होंने आकाश में चमकते हुए सूर्य को देखा और उसे एक पका हुआ लाल फल समझ लिया। वे सूर्य को खाने की इच्छा से आकाश में उड़ गए। वे सूर्य के बहुत पास पहुंच गए और उसे अपने मुंह में रख लिया। अंधकार छा गया। देवताओं ने घबरा कर इंद्र देव से मदद मांगी। इंद्र देव ने अपने वज्र से हनुमान पर प्रहार किया, जिससे हनुमान बेहोष हो गए। उनकी ठोडी पर चोट लगी।यह देख कर हनुमान के पिता वायुदेव क्रोधित हो गए और उन्होंने पूरी सृष्टि में वायु का प्रवाह रोक दिया। इससे देवता और सभी जीव संकट में आ गए। तब सभी देवताओं ने ब्रह्मा जी के नेतृत्व में वायुदेव को शांत किया और हनुमान को होश में लाने के लिए उन्हें वरदान दिया। हनुमान को अमरता, असीम शक्ति और बुद्धि का वरदान मिला। इसके बाद वायुदेव ने पुनः संसार में वायु का प्रवाह शुरू किया, और सभी जीवों ने राहत की सांस ली। यह कथा न केवल हनुमान जी की महिमा को प्रकट करती है, बल्कि उनकी बचपन की मासूमियत और उनके अनोखे पराक्रम का भी उदाहरण है। हाल ही जब यह खबर पढी कि नासा का स्पेसक्राफ्ट सूरज के सबसे करीब पहुंच कर सुरक्षित लौट गया, तो ऐसा लगा मानो नासा के स्पेसक्राफ्ट ने हनुमान जी से मिलता जुलता कृत्य कर दिया हो। उसने भले ही सूरज को मुंह में नहीं रखा हो, मगर वह सूरज के करीब पहुंचने में तो कामयाब हो ही गया। उसने वहां 980 डिग्री तापमान दर्ज किया। यह विज्ञान की बहुत महत्वपूर्ण उपलब्धि है। ज्ञातव्य है कि रामायण काल में जिस पुश्पक विमान का जिक्र आता है, उसी प्रकार विज्ञान ने भी विमान बनाने में कामयाबी हासिल कर ली है। इससे यह आभास होता है कि विज्ञान षनैः षनैः अध्यात्म के मार्ग पर चल रहा है। यह बात दीगर है कि उसकी कीमिया भिन्न है। उसका मैथड अलग है।