आपको यह जान कर अचरज हो सकता है कि क्या मनोसंवाद विधि से, पश्यंति वाणी से कोई पुस्तक लिखी जा सकती है। जी हां, अजमेर के विद्वान श्री शिव शर्मा ने यह उपलब्धि हासिल की है। इस पुस्तक में सूफी संत हजरत हरप्रसाद मिश्रा उवैसी ने गीता के एक श्लोक की 110 पेज में व्याख्या कराई है। प्राचीन ऋषि-मुनियों वाली मनोसंवाद विधि से कराए गए इस कार्य के लिए आपने अपने मुरीद अजमेर के जाने-माने इतिहासविद व पत्रकार श्री शिव शर्मा को माध्यम बनाया।
गीता शास्त्र में दूसरे अध्याय के सर्वाधित चर्चित श्लोक है-
कर्मण्येवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफल हेतुर्भूमा, ते संगोस्तव कर्मणि।
इस एक ही श्लोक में गीता के कर्मयोग का सार निहित है। इसका अर्थ समझने के लिए कर्म के उनतीस रूपों की विवेचना की गई है-स्वकर्म, स्वधर्म, नियतकर्म, अकर्म, विकर्म, निषिद्ध कर्म आदि। आपने स्पष्ट किया है कि कर्म के शास्त्रीय, प्रासंगिक, मनोवैज्ञानिक और परिस्थितिगत व्यावहारिक पक्षों को ज्ञात लेने के बाद ही इस श्लोक के वास्तविक अर्थ को समझा जा सकता है। गुरुदेव ने 22 नवंबर 2008 को महासमाधि ले ली थी और यह कार्य आपने 2011 में करवाया। आपकी रूहानी चेतना के माध्यम बने आपके शिष्य श्री शिव शर्मा ने बताया कि शक्तिपात के द्वारा आपने नाम दीक्षा के वक्त ही मेरी कुंडलिनी शक्ति को आज्ञाचक्र पर स्थित कर दिया था। फिर मेरी आंतरिक चेतना को देह से समेट कर आप इसी जगह चौतन्य कर देते थे। उसी अवस्था में आप इस श्लोक की व्याख्या समझाते थे। यह कार्य पश्यन्ती वाणी के सहारे होता था। वाणी के चार रूप होते हैं-परा यानि जिसे आकाश व्यापी ब्रह्म वाणी जो केवल सिद्ध संत महात्मा सुनते हैं, पश्यन्ति यानि नाभी चक्र में धड़कने वाला शब्द जो आज्ञा चक्र पर आत्मा की शक्ति से सुना जाता है और देखा भी जाता है, मध्यमा यानि हृदय क्षेत्र में स्पंदित शब्द और बैखरी यानि कंड से निकलने वाली वाणी जिसके सहारे में हम सब बोलते हैं। कामिल पूर्ण गुरू हमारे अंतर्मन में पश्यन्ती के रूप में बोलते हैं। गुरुदेव ने मुझ पर इतनी बड़ी कृपा क्यों की, मैं नहीं जानता, किंतु जिन दिनों आप मुझसे यह कार्य करवा रहे थे, उन दिनों ध्यान की खुमारी चढ़ी रहती थी। ध्यान में गीता, मौन में गीता, इबादत में गीता, सत्संग में गीता, अध्ययन में गीता और चिंतन में भी गीता ही व्याप्त रहती थी। बाहरी स्तर पर जीवन सामान्य रूप से चलता रहता था, लेकिन अंतर्मन में गुरु चेतना, गीता शास्त्र और भगवान वासुदेव श्री कृष्ण की परा चेतना धड़कती रहती थी।
हजरत मिश्रा जी ने भगवान श्री कृष्ण के दो बार दर्शन किए थे। उनके दीक्षा गुरू सूफी कलंदर बाबा बादामशाह की भी श्रीकृष्ण में अटूट निष्ठा थी। संभवतः इसीलिए पर्दा फरमाने के बाद भी आपने गीता के इस एक ही श्लोक की विराट व्याख्या वाला लोक कल्याणकारी कार्य कराया है। इस पुस्तक में गुरुदेव ने कहा है कि मनुष्य मन का गुलाम है और गीता इस गुलामी से छूटने की बात करती है। आप कामनाओं के वश में हैं और गीमा इनसे मुक्त होने की राह दिखाती है। आप पर अहंकार हावी है, जबकि गीता इस अहंकार को जड़मूल से उखाड़ फैंकने की बात समझाती है। आप भोग की तरफ भागते हैं, गीता कर्मपथ पर दौड़ाती है। आप स्वर्ग के लिए ललचाते हैं और गीता आपको जन्म-मरण से छुटकारा दिलाने वाले परमधाम तक पहुंचाना चाहती है। इसलिए गीता से भागो मत, उसे अपनाओ, कर्मयोग से घबराओ मत, उसे स्वीकार करो। तुम मोक्षदायी कर्मयोग के पथ पर कदम तो रखो, भगवान स्वयं तुम्हें चलाना सिखा देंगे।
पुस्तक में गुरू महाराज ने कहा है कि मनुष्य को केवल कर्तव्य कर्म करने का अधिकार है। स्वैच्छाचारी कर्म उसका पतन करते हैं। यह पुस्तक अजमेर के अभिनव प्रकाशन ने प्रकाशित की है। इसके बाद नारी मुक्ति से संबंधित अगली पुस्तक में गुरूदेव गीता के ही आधे श्लोक की व्याख्या करा रहे हैं।
लेखक शिव शर्मा स्वभाव से दार्शनिक हैं और अजमेर के इतिहास के अच्छे जानकार हैं। इससे पहले वे अनेक पुस्तकें लिख चुके हैं। उनमें प्रमुख हैं-भाषा विज्ञान, हिंदी साहित्य का इतिहास, ऊषा हिंदी निबंध, केशव कृत रामचन्द्रिका, कनुप्रिया, चंद्रगुप्त, रस प्रक्रिया, भारतीय दर्शन, राजस्थान सामान्य ज्ञान, हमारे पूज्य गुरुदेव, पुष्कर, अध्यात्म और इतिहास, अपना अजमेर, अजमेर - इतिहास व पर्यटन, दशानन चरित, सदगुरू शरणम, मोक्ष का सत्य, गुरू भक्ति की कहानियां।