तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

शनिवार, मार्च 08, 2025

खूबसूरत चीज का देख कर थुथकारा क्यों करते हैं?

दोस्तो, नमस्कार। आपने देखा होगा कि जब भी हम किसी व्यक्ति अथवा वस्तु को देख कर उसकी तारीफ करते हैं तो सलाह दी जाती है कि थुथकारा कर दो, जमीन पर थूक दो, अन्यथा नजर लग जाएगी। हम यह तथ्य जानते हुए स्वयं भी ऐसा करते हैं। कई बार ऐसा भी पाया होगा कि जब हम किसी बच्चे की खूबसूरती का जिक्र करते हैं तो अंगुली को जीभ से स्पर्ष करके बच्चे के गाल या हाथ पर स्पर्ष करते हैं। इसी प्रकार जब हम मानते हैं कि अमुक आदमी की नजर लगी है तो उसका जूठा पानी पिलाने की सलाह दी जाती है। उसमें भी मूल रूप से थूक की ही भूमिका होती है। 

सवाल यह है कि इसके पीछे कौन सा साइंस है? थूक का नजर से क्या संबंध है? ऐसा प्रतीत होता है कि थूक लगाने या जूठा पानी पीने से दो षरीरों की कीमिया समान हो जाती है। तो जिस तारीफ की वजह से नजर लगी है, उसकी सघनता डाइल्यूट हो जाती है। दोनों षरीरों का गुणधर्म एक जैसा हो जाता है। इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि यूं तो किसी का जूठा खाने या पीने से मना किया जाता है, लेकिन आपको इस मान्यता का भी ख्याल होगा कि हम किसी का जूठा पानी पीते हैं तो उसके गुण हमारे भीतर आ जाते हैं। कई बार आपने देखा होगा कि अमुक व्यक्ति की किसी आदत पर हम कहा करते हैं कि आपने किस जूठा खाया है। जैसे कोई वाचाल है तो कहते हैं न कि इसका अन्न प्राषन्न संस्कार वाचाल मौसी ने किया था। कई समाजों में ऐसी प्रथा है कि नवजात बच्चे को पहला स्वाद किसी बुजुर्ग के जरिये कराया जाता है। वह जौ व गुड चबा कर उसका मामूली सा अंष बच्चे की जीभ पर रखा जाता है। ऐसा माना जाता है कि इससे उसमें बुजुर्ग के गुण प्रवेष कर जाएंगे।

नजर उतारने का एक और तरीका भी अपनाया जाता है। कुछ जानकार सलाह देते हैं कि जब आपको लगे कि किसी व्यक्ति विशेष की नजर लगी है तो आप उससे अपने बच्चे के सिर पर हाथ फिरवा कर भी नजर उतार सकते हैं।

गुरुवार, मार्च 06, 2025

गणेशजी को जबरन मनाने का अनोखा तरीका

दोस्तों, लोग भगवान को, देवता को, अपने इष्ट को मनाने के लिए इस हद तक जा सकते हैं कि आप कल्पना भी नहीं कर सकते। साधना और तपस्या तक तो ठीक है, मगर वे अनोखे तरीके अपनाने तक से नहीं चूकते। गणेशजी को ऐसे ही जबरन व अजीबोगरीब तरीके को देख कर मैं भोंचक्क रह गया। 

हाल ही तीर्थराज पुश्कर के निकट श्रीभट बावडी गणेष जी के मंदिर के दर्षन का सौभाग्य मिला। मंदिर में स्थित गणेष जी की मूर्ति के पास दीवार पर सिंदूर से स्वस्तिक का निषान उलटा अंकित हो रखा था। अज्ञान की वजह से कई लोग अपने घर के बाहर अथवा कॉपी-किताब पर स्वस्तिक का चिन्ह उलटा अंकित कर देते हैं। इस पर जानकार लोग उन्हें टोकते हैं कि स्वस्तिक का निषान सीधा बनाइये। सीधा अर्थात क्लॉक वाइज। वह प्रगति का सूचक भी है। यदि एंटी क्लॉक वाइज बनाएंगे तो मान्यता है कि अवगति होगी। आपको ख्याल में होगा कि वास्तु षास्त्र के अनुसार मकान में सीढियां भी क्लॉक वाइज बनाई जाती हैं। एंटी क्लॉक वाइज सीढी अनिश्ट की सूचक मानी जाती है। खैर, लेकिन एक जाने-माने मंदिर में, जिसके प्रति हजारों श्रद्धालुओं की आस्था हो, स्वस्तिक उलटा अर्थात एंटी क्लॉक वाइज बना हो तो चौंकना स्वाभाविक है। किसी व्यक्ति का इतना इतना दुस्साहस कैसे हो सकता है। मैं तो उसका फोटो तक लेने का साहस नहीं जुटा पाया। मैंने मंदिर के पुजारी से पूछा कि यह क्या है? स्वस्तिक का उलटा निषान? इस पर पुजारी ने बताया कि यह किसी ऐसे व्यक्ति की हरकत है, जिसे किसी तांत्रिक ने यह सलाह दी होगी कि यदि गणेष जी आपकी गुहार न सुन रहे हों तो स्वस्तिक उलटा अंकित कर दीजिए। इससे गणेष जी का ध्यान जल्द आकर्शित होगा। उन्हें आपकी अर्जी मंजूर करनी ही होगी। कमाल है। अपने इश्ट को मनाने के लिए लोग किस हद तक चले जाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि यह एक तरह का हठयोग है, जिसमें बंदा रब से हठपूर्वक मांगता है। कई सवाली भी अपनी मांग के लिए अड जाते हैं और बताते हैं कि यदि आस्था बहुत मजबूत हो तो उसकी मांग पूरी होती भी है।

https://www.youtube.com/watch?v=FbJ-hnwP4RU

बुधवार, मार्च 05, 2025

भोजन करते वक्त उसका अंश गिरने का क्या मतलब है?

क्या भोजन करते समय उसका अंश यानि थोड़ा सा हिस्सा गिर जाने का भी कोई अर्थ हो सकता है? यह सवाल मेरे मन में तब उठा, जब एक बार भोजन करते वक्त सब्जी का छोटा सा अंष मेरी षर्ट पर गिरा तो मेरी ताई ने बताया कि ऐसा हमारे यहां पुरखों से होता आया है। हालांकि वे यह नहीं बता पाई कि ऐसा होता क्यों है या इसका क्या अर्थ है। मैने बहुत खोजा। कई विद्वानों से पूछा। हालांकि ठीक ठीक संतुश्टिपूर्ण जवाब तो नहीं मिला, लेकिन भिन्न भिन्न धारणाएं सामने आईं।

एक मान्यता है कि भोजन का गिरना इस बात का संकेत है कि घर में समृद्धि रहेगी और भोजन की कभी कमी नहीं होगी। एक धारणा यह है कि यदि भोजन खाते समय कुछ गिर जाए, तो यह संकेत हो सकता है कि घर में कोई अतिथि आने वाला है। कुछ परंपराओं में भोजन को ईश्वर का प्रसाद माना जाता है और उसका गिरना इस बात का संकेत हो सकता है कि किसी और पशु-पक्षी या जरूरतमंद को भी इसका भाग मिलना चाहिए था, जो कि हमने नहीं दिया। कुछ लोग इसे अशुभ भी मानते हैं, खासकर यदि भोजन बार-बार गिर रहा हो, तो इसे अनिष्टकारी संकेत के रूप में देखा जा सकता है।

ये सब धारणाएं हैं, इनका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। वैज्ञानिक आधार केवल इतना है कि हम भोजन करते वक्त असावधानी बरतते हैं या जल्दबाजी करते हैं, इस कारण ऐसा घटित होता है।


मंगलवार, मार्च 04, 2025

वे ताजिंदगी आइने में चेहरा नहीं देखते


दोस्तों, बताते हैं कि तिब्बत में एक साधना पद्धति ऐसी भी है, जिसमें लोग ताजिंदगी आइने में अपना चेहरा नहीं देखते। यहां तक कि पानी या तेल की सतह पर भी नजर नहीं डालते कि कहीं उसमें चेहरा न दिखाई दे जाए। विद्वान मानते हैं कि उसके पीछे उनका गहन दर्षन है। वो यह है इस पद्धति में मोक्ष के लिए दुनिया में रहते हुए भी दुनिया के प्रति अनासक्ति की साधना की जाती है। मानसिक स्तर पर दुनिया से संबंध विच्छेद का प्रयास किया जाए। उनका मानना है कि अगर हमें यह पता हो कि हम कैसे दिखते हैं, हमारा चेहरा कैसा है तो उससे भी अटैचमेंट हो सकता है। दुनिया से विरक्त होने में पर्याप्त सफलता मिल भी जाए तो भी आखिर में अपने चेहरे से लगाव बाधक बन सकता है। अपना चेहरा ही मोक्ष में रुकावट बन जाता है। इसके लिए वे पूरी जिंदगी आइने में अपना चेहरा नहीं देखते। है न विलक्षण साधना पद्धति।


सोमवार, मार्च 03, 2025

कौन अधिक खूबसूरत आदमी अथवा औरत?


यही सही है कि आदमी को औरत खूबसूरत दिखती है और औरत को आदमी खूबसूरत नजर आता है, मगर यह आम धारणा है कि निरपेक्ष रूप से देखा जाए तो औरत आदमी की तुलना में अधिक खूबसूरत होती है। मगर पाकिस्तान के मुफ्ती तारीक मसूद कहते हैं कि आदमी में नूर ज्यादा होता है। बेषक खुदा ने औरत को हुस्न दिया है, मगर आदमी को जो जमाल दिया है, उसका दर्जा उंचा है।

कुछ लोग कह सकते हैं कि इस मान्यता के पीछे मौलिक रूप से पुरूशवादी मानसिकता है। चूंकि प्रकृति में पुरूश अधिक मुखर है, इस कारण उसकी धारणा सही प्रतीत होती है। आप देखिए ने औरत की खूबसूरती की बाकायदा नुमाइष होती है। नाइट क्लब्स में औरत का प्रदर्षन हाता है। मजबूरी में या स्वैच्छा से, वह इसके लिए राजी भी है। फैषन षो होते हैं। हालांकि अब पुरूश भी भागीदारी कर रहा है। हो सकता है औरत की मानसिकता इससे भिन्न हो। वह पुरूश को अधिक खूबसूरत करार दे सकती है। दूसरी ओर पाकिस्तान के मुफ्ती तारीक मसूद अपने बयान में इससे इतर राय रखते हैं। वे कहते हैं कि औरत आदमी को और आदमी औरत को खूबसूरत कहेगा ही, लेकिन अगर गैर इंसान अर्थात अन्य मखलूकात से पूछेंगे और अगर वह बता सकता हो तो यही कहेगा कि इंसान में आदमी ज्यादा खूबसूरत होता है। उसकी वजह ये है कि आदमी में जमाल होता है। आदमी में नूर ज्यादा होता है। बेषक खुदा ने औरत को हुस्न दिया है, मगर आदमी को जो जमाल दिया है, उसका दर्जा उंचा है।

दिलचस्प बात है कि ने इंसान के अतिरिक्त अन्य सभी जीव जंतुओं में मादा की बजाय नर को अधिक खूबसूरत बनाया है। आप देखिए कि मोरनी की तुलना में मोर, मुर्गी की तुलना में मुर्गा, घोडी की तुलना में घोडा, बकरी की तुलना में बकरा, षेरनी की तुलना में षेर अधिक खूबसूरत होता है। 

ऐसे में सवाल उठता है कि जब सारी मखलूक में मादा की तुलना में नर ज्यादा खूबसूरत होता है तो इंसान में यह नियम लागू क्यों नहीं होना चाहिए? 

https://www.youtube.com/watch?v=bWqOZEiE_R8&t=26s

महिलाएं अंतिम संस्कार में शामिल क्यों नहीं होती?

हालांकि परिजन के निधन पर विशेष परिस्थितियों में महिलाएं शवयात्रा और अंतिम संस्कार के दौरान श्मशान स्थल पर मौजूद रहती हैं, मगर आमतौर पर केवल पुरुष ही अंत्येष्टि में शामिल होते हैं। महिलाओं के लिए श्मशान स्थल वर्जित होने के पीछे जरूर कोई कारण होंगे। आइये, उन्हें समझने की कोशिश करते हैं। ऐसी मान्यता है कि पुरूशों की तुलना में महिलाएं कोमल हृदय होती हैं। यद्यपि निकट संबंधी के निधन पर पुरूश भी रोते हैं, लेकिन व्यवहार में पाया गया है कि महिलाएं अधिक विलाप करती हैं। अंतिम संस्कार का प्रयोजन ही यह होता है कि मृत आत्मा का षरीर के अतिरिक्त इस जगत से संबंध विच्छेद हो जाए, कपाल क्रिया उसका ही हिस्सा है, लेकिन महिलाओं के रोने की अवस्था में संबध विच्छेद की प्रक्रिया में बाधा आ सकती है। ऐसा माना जाता है कि ष्मषान स्थल पर अषांत मृत आत्माएं विचरण करती रहती हैं, जो कोमल मन वाली महिलाओं में प्रवेष कर सकती हैं। अंतिम संस्कार के दौरान घर सूना न रहे, इसलिए भी महिलाओं को घर पर रहने की सलाह दी जाती है। बदले हालात में अब भाइयों के अभाव में बहिनें अपने माता पिता के निधन पर अर्थी को कंधा देने लगी है, जिसे नारी सषक्तिकरण के रूप में देखा जाता हे, मगर आज भी आम तौर पर महिलाएं अंतिम संस्कार में नहीं जातीं। यह परंपरा पुरूश प्रधान समाज की द्योतक है। महिलाओं ने भी इस व्यवस्था को स्वीकार कर रखा है। हालांकि महिलाओं के ष्मषान स्थल पर जाने पर कोई रोक नहीं है।


https://www.youtube.com/watch?v=mtuY661u6MA


शनिवार, मार्च 01, 2025

सूफी चक्कर नृत्य क्यों करते हैं?

आपने देखा होगा कि बच्चों को खेलते खेलते अपने स्थान पर खडे हो कर चक्कर लगाने की इच्छा होती है। लेकिन हम उसे यह कह कर रोक देते हैं कि आपको चक्कर आ जाएगा। और यह सही भी है। नृत्य के दौरान भी चक्कर लगाया जाता है, लेकिन उतनी ही देर, जब तक चक्कर न आने लग जाए। आपने भी कभी चक्कर लगा कर देखा होगा। चार पांच बार चक्कर लगाने के बाद जैसे ही आप रूकते हैं, सिर घूमने लगता है, सिर चकराने लगता है। आप आंख बंद कर लेते हैं। लेकिन धीरे धीरे चक्कर कम होते होते आप स्थिर हो जाते हैं। निर्विचार होने लगते हैं क्योंकि आप एक केन्द्र पर स्थित हो जाते हैं। बस इसी क्षण ध्यान की हल्की सी झलक दिखाई देती है। इसी सूत्र को गहराई से जान कर सूफियों ने चक्कर नृत्य को इजाद किया। 

आपने देखा होगा कि एक तो वे आंखें बंद रखते हैं। इससे सिर कम चकराता है। यह ठीक वैसा ही है, जैसे घाणी के बैल कर आंखों पर पट्टी बांध दी जाती है, ताकि उसे चक्कर न आएं। दूसरा ये कि सूफी हाथ फैला कर रखते हैं, ताकि षरीर का संतुलन बना रहे। साथ ही ऐसा संगीत बजाया जाता है, जिसे सुनने से षक्ति मिलती है। उर्जा मिलती है। वस्तुतः इसके लिए अभ्यास करना होता है। अभ्यास से चक्कर लगाने का समय बढाया जाता है। जितने अधिक चक्कर लगाए जाते हैं, स्थिर होने पर उसी के अनुपात में ध्यान बना रहता है।

विकीपीडिया के अनुसार सूफी चक्कर शारीरिक रूप से सक्रिय ध्यान का एक रूप है, जो कुछ सूफी समूहों के बीच उत्पन्न हुआ है और जो अभी भी मेवलेवी आदेश के सूफी दरवेशों और अन्य आदेशों जैसे रिफाई-मारुफी द्वारा अभ्यास किया जाता है।

जानकारी के अनुसार चक्करदार दरवेशों की स्थापना रहस्यवादी कवि रूमी ने 13वीं शताब्दी में की थी। प्रारंभ में सूफी बिरादरी को संगठित किया गया था, जहां सदस्यों ने एक शेख या गुरु के साथ विश्वास स्थापित करने के लिए सेवा में निर्धारित अनुशासनों का पालन किया था। ऐसी बिरादरी के सदस्य को फारसी दरवेश कहा जाता है। ये तुर्क धार्मिक जीवन की एक इस्लामी अभिव्यक्ति के आयोजन के लिए जिम्मेदार थे, जो अक्सर स्वतंत्र संतों द्वारा स्थापित किया गया था। एक दरवेश कई अनुष्ठानों का अभ्यास करता है, जिनमें से प्राथमिक है जिक्र, अल्लाह को याद करना। 

एक तथ्य यह भी है कि घूमते हुए उसकी भुजाएं खुली हैं उसका दाहिना हाथ आकाश की ओर निर्देशित है, जो ईश्वर का उपकार प्राप्त करने के लिए तैयार है उसका बायाँ हाथ, जिस पर उसकी आँखें टिकी हैं, पृथ्वी की ओर मुड़ा हुआ है। वह भगवान के आध्यात्मिक उपहार को उन लोगों तक पहुँचाता है जो उसको देख रहे हैं। एक लंबी आस्तीन वाली जैकेट, एक बेल्ट, और एक काला ओवरकोट या खिरका जिसे भंवर शुरू होने से पहले हटा दिया जाता है। जैसा कि अनुष्ठान नृत्य शुरू होता है, दरवेश सिर के चारों ओर लिपटी एक पगड़ी के अलावा एक फेल्ट टोपी, एक सिक्का पहनता है, जो मेवलेवी आदेश का एक ट्रेडमार्क है। 

शेख नाचने की जगह के सबसे सम्मानित कोने में खड़ा होता है, और दरवेश तीन बार उसके पास से गुजरते हैं, हर बार अभिवादन का आदान-प्रदान करते हैं, जब तक कि परिक्रमा शुरू नहीं हो जाती। रोटेशन स्वयं बाएं पैर पर होता है, रोटेशन का केंद्र बाएं पैर की गेंद होती है और पैर की पूरी सतह फर्श के संपर्क में रहती है। रोटेशन के लिए प्रेरणा दाहिने पैर द्वारा प्रदान की जाती है, पूर्ण 360-डिग्री कदम में। यदि एक दरवेश बहुत अधिक मुग्ध हो जाता है, तो एक अन्य सूफी, जो व्यवस्थित प्रदर्शन का प्रभारी होता है, धीरे-धीरे अपने आंदोलन को रोकने के लिए अपनी फ्रॉक को छूएगा। दरवेशों का नृत्य इस्लाम में रहस्यमय जीवन की सबसे प्रभावशाली विशेषताओं में से एक है , और इसके साथ संगीत अति सुंदर है, जो पैगंबर के सम्मान में महान भजन नात-ए शरीफ से शुरू होता है और तुर्की में गाए जाने वाले छोटे, उत्साही गीतों के साथ समाप्त होता है। 

https://www.youtube.com/watch?v=XZxcXCZlldg

क्या यह धरती ही नर्क है?

एक उक्ति है नानक दुखिया सब संसार। अर्थात पूरा संसार दुखी है। यहां हर व्यक्ति दुखी है। चाहे बहुत धनवान हो या सत्ताधीष, दिखता भले ही सुखी हो, मगर उसके भी अपने दुख होते हैं। कोई विपन्नता के कारण परेषान है, तो कोई औलाद न होने के कारण, कोई औलाद के नालायक होने से दुखी है तो कोई पति अथवा पत्नी से संतुश्ट नहीं है। कोई गंभीर बीमारी से पीडित है तो कोई अपनी संतान के बीमार होने के कारण। संसारी मनुश्यों की छोडिये, संत-महात्मा तक व्याधियों से पीडित देखे गए हैं। ऐसे में यह सवाल खडा होता है कि कहीं यह धरती ही तो नर्क नहीं है। बेषक यहां सुख भी हैं, मगर उसका अंत तो दुख ही है। हालांकि षास्त्रों में स्वर्ग व नर्क का अलग से उल्लेख है, और धरती को कर्म व भोग की भूमि कहा गया है, मगर ऐसा प्रतीत होता है कि ये धरती ही नर्क है। बेषक यह कर्म भूमि है। मनुश्य को कर्म की सुविधा है, जो कि पषु को नहीं है। लेकिन प्रत्यक्षतः प्रतीत होता है कि इस धरती पर कोई भी सुखी नहीं है। अव्वल तो तथाकथित नर्क देखा किसने है। अगर नर्क अलग से है तो फिर धरती पर नारकीय दुख क्यों हैं, वे तो नर्क में ही होने चाहिए थे। हां, इतना जरूर हो सकता है कि तथाकथित नर्क में धरती से कई गुना अधिक दुख भोगने पडते हों।

https://www.youtube.com/watch?v=fMIjR-qDGFU&t=41s


शुक्रवार, फ़रवरी 28, 2025

खाना खाते वक्त जीभ या गाल क्यों कट जाते हैं?

एक परिवार के सदस्य आपस में कितने गहरे जुडे होते हैं और उनके अस्तित्व के बीच कितना अंतरसंबंध होता है, एक इसका एक रोचक उदाहरण मेरे ख्याल में आता है। जिसका जिक्र मेरी माताजी किया करती थी।

आपने देखा होगा कि जब भी खाना खाते वक्त अचानक जीभ दांत की चपेट में आ जाए या दांत से गाल कट जाए तो यही कहा जाता है घर से बाहर गए अमुक सदस्य को भूख लगी होगी। ऐसी मान्यता है तो जरूर इसे अनुभव किया गया होगा। जीभ या गाल कटने की घटना को हम भले ही एक संयोग या सामान्य घटना मानें, मगर अवष्य जानकार लोगों ने इसका कारण खोजा होगा। किसी षास्त्र में इसका जिक्र है या नहीं, पता नहीं, मगर एक नजरिया यह हो सकता है कि जब भी बाहर गए व्यक्ति को भूख लग रही होगी यानि मुख खाने की चाह कर रहा होगा तो जैसे ही घर बैठा भोजन करता है तो आपस में अंतरसंबंध होने के कारण उसके मुख में विचलन होता होगा और जीभ या गाल दांत की चपेट में आ जाता होगा। ऐसा भी हो सकता है कि इस प्रकार के प्रसंग मां और संतान के बीच अधिक होता हो, चूंकि उनका जुडाव नाभी से होता है। अर्थात यह हिचकी और आंख फडकने जैसी एक प्राकृतिक संकेत प्रणाली हो सकती है। आपको जानकारी होगी ही कि हिचकी आने पर ऐसा माना जाता है कि कोई याद कर रहा है। यह मेरा अनुमान या कयास मात्र है। यदि आपको इस संबंध में ठीक ठीक जानकारी हो तो मेहरबानी करते कमेंट जरूर कीजिए।

https://www.youtube.com/watch?v=Q9QDEpVncZM


बुधवार, फ़रवरी 26, 2025

क्या शिव और शंकर अलग-अलग हैं?

हमारी जनचेतना में यह बात गहरे बैठी है कि शिव और शंकर एक ही हैं। इन दोनों में कोई भेद नहीं समझा जाता। जब भी शिव लिंग पर जल चढ़ाते हैं तो मन में त्रिशूलधारी, त्रिनेत्र व नील कंठ की प्रतिमा होती है, जिनकी जटा से गंगा निकलती है। शंकर भगवान का वाहन नंदी को माना जाता है और शिव लिंग के सामने भी नंदी बैल की प्रतिमा स्थापित की जाती है। दोनों के नाम का उच्चारण भी एक साथ किया जाता है, यथा शिव शंकर, शिव शंभू, शिव भोलेनाथ। शिव लिंग पर भी वैसा ही त्रिनेत्र बनाया जाता है, जैसा शंकर के है। दूसरी ओर ऐसे भी लोग हैं, जो कि इन दोनों को अलग-अलग मानते हैं। उनके अपने तर्क हैं।

जो लोग दोनों को अलग मानते हैं, हो सकता है कि उन्हें मतिभ्रम हो या फिर यह एक गूढ़ रहस्य हो, मगर उनके इस तर्क में जरूर दम है कि भगवान शंकर तो खुद ही शिव लिंग के आगे ध्यान करते हैं। ऐसी तस्वीरें मौजूद हैं। यहां तक अवतारी मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम भी शिव लिंग की आराधना करते हैं। अर्थात जिस परम सत्ता का प्रतीक शिव लिंग है, वह महादेव व राम से भी ऊपर हैं। वे ही सृष्टि की रचना, पालना व विनाश करने के लिए क्रमशरू त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु, महेश की रचना करते हैं। अर्थात महेश परमात्मा शिव की रचना हैं तो फिर दोनों एक कैसे हो सकते हैं।  


एक और तर्क में भी दम है। वो ये कि शंकर तो सृष्टि का संहार करते हैं, उसकी रचना व पालन का भार ब्रह्मा व विष्णु पर है, तो फिर ऐसा कैसा हो सकता है कि सृष्टि का संहार करने वाले व त्रिदेव से ऊपर जो परम सत्ता है, वह और शंकर एक ही हों? इसे यूं भी कहा जा सकता है कि जिस पर केवल संहार का दायित्व है, रचना व पालन का अन्य पर तो वे परम सत्ता कैसे हो सकते हैं? 


सवाल ये भी उठता है कि हम जो शिव रात्री मनाते हैं, वह परमात्मा शिव की स्मृति में है या फिर महादेव शंकर की याद में? शिव रात्रि पर शिव लिंग की ही उपासना की जाती है, इससे लगता है कि शिव लिंग परमात्मा शिव का प्रतीक है। यदि भगवान शंकर ही शिव हैं तो उनका अलग प्रतीक बनाने की क्या जरूरत है। शंकर के ही समकक्ष ब्रह्मा व विष्णु के तो प्रतीक चिन्ह नहीं हैं। ऐसे में शंकर को शिव इसलिए नहीं माना जा सकता, क्यों वे तो साकारी देवता हैं, जिनकी लीलाओं का पुराणों व शास्त्रों में वर्णन है।


वेदों में भी यही लिखा है कि शिव निरंकारी है, उनका कोई आकार नहीं है, शिव लिंग तो एक प्रतीक मात्र है। बावजूद इसके यदि शिव व शंकर को एक ही मान लिया गया है तो जरूर कोई कारण होगा या फिर कोई गंभीर त्रुटि हो गई है।


https://youtu-be/s9tw6VECFQo


गुरुवार, फ़रवरी 20, 2025

अल्लाह से जुडे नायाब लफ्ज

आपने अल्लाह से जुडे ये लफ्ज सुने होंगे। माषाअल्लाह, जजाकअल्लाह, सुभानअल्लाह, इंषाअल्लाह आदि। इनका उपयोग भिन्न प्रसंगों में किया जाता है। आम तौर पर लोग इनके ठीक मायने नहीं जानते। आइये, समझने की कोषिष करते हैंः- 

माशाअल्लाह एक अरबी शब्द है, जिसका अर्थ होता है जो अल्लाह ने चाहा या अल्लाह की मर्जी से। इसे आमतौर पर किसी अच्छी चीज, सफलता, सुंदरता या आशीर्वाद को देख कर कहा जाता है, ताकि बुरी नजर न लगे। किसी की तरक्की या सफलता पर, जैसे किसी ने परीक्षा में अच्छे नंबर हासिल किए, तो कहा जाता है माशाअल्लाह, बहुत अच्छे नंबर आए। खूबसूरती की तारीफ में, अगर कोई बच्चा बहुत प्यारा लगे, तो कहते हैं माशाअल्लाह, कितना प्यारा बच्चा है। नए घर, गाड़ी या किसी उपलब्धि पर, जब कोई नई चीज खरीदे या नया घर बनाए तो बधाई देने के साथ माशाअल्लाह कहा जाता है।

अगर कोई आपको माशाअल्लाह कहे, तो आप जजाकअल्लाह कहें, यानि अल्लाह तुम्हें भी बरकत दे, कह सकते हैं।

जजाक अल्लाह अरबी भाषा का एक इस्लामी वाक्यांश है, जिसका अर्थ होता है अल्लाह आपको बदला (प्रतिफल), बरकत दे।

यह वाक्यांश आमतौर पर तब कहा जाता है, जब आप किसी व्यक्ति का शुक्रिया अदा करना चाहते हैं, खासकर किसी अच्छे काम, मदद या भलाई के बदले में। जब कोई आपकी मदद करे या कोई अच्छा काम करे। जब किसी ने आपको दान दिया हो या आपकी सहायता की हो।

इसी प्रकार सुभान अल्लाह कब कहा जाता है? सुभानअल्लाह का अर्थ होता है अल्लाह पाक है या अल्लाह हर कमी से मुक्त है। इसे आमतौर पर अल्लाह की महानता, खूबसूरती या किसी अद्भुत चीज को देखकर कहा जाता है।

अल्लाह की महानता या कुदरत देख कर, जब कोई सुंदर नजारा, जैसे सूर्योदय, समुद्र या पहाड़ देखें तो कहा जाता है सुभानअल्लाह, कितनी खूबसूरत अल्लाह की कुदरत है। मुसलमान अपनी इबादत में सुभानअल्लाह का जिक्र करते हैं, खासकर नमाज के बाद या तसबीह (माला) पढ़ते समय।

अगर कोई सुभानअल्लाह कहे, तो आप भी सुभानअल्लाह या अल्लाहु अकबर कह सकते हैं।

इसी प्रकार इंषाअल्लाह तब कहा जाता है, जब हम कोई काम आरंभ कर रहे हों या आरंभ करने का संकल्प करते हों। इसका अर्थ होता है अल्लाह ने चाहा तो। यानि हर काम का श्रेय अल्लाह को दिया जाता है।


बुधवार, फ़रवरी 19, 2025

प्रार्थना या दुआ के वक्त सिर क्यों ढ़कते हैं?

आपने देखा होगा कि दरगाहों, गुरुद्वारों व सिंधी दरबारों में सिर ढ़कने की परंपरा है। इस परंपरा का सख्ती से पालन भी किया जाता है। दरगाहों में अमूमन टोपी पहनने की परंपरा है। टोपी न हो तो रुमाल से सिर ढ़कते हैं। गुरुद्वारों में पगड़ी न होने पर रुमाल का इस्तेमाल किया जाता है। कई सिंधी दरबारों में टोपी की व्यवस्था होती है, लेकिन आम तौर पर रुमाल से ही सिर ढ़का जाता है। अगर आपने लापरवाही में सिर नहीं ढ़ंका है तो अन्य श्रद्धालु आपको तुरंत टोक देते हैं। सिर ढ़कने की परंपरा क्यों है, यह सवाल कभी आपके जेहन में भी उठता होगा। मैने इस बारे में कई लोगों से चर्चा की। अनेक लोग इसे महज एक परंपरा मानते हैं और इसकी वजह नहीं जानते। कुछ लोग ऐसे हैं, जो कि इसे आदर का सूचक मानते हैं। कुछ जानकार लोग इसका धार्मिक कारण बताते हैं। वे कहते हैं कि इसके पीछे भी एक साइंस है। 

आइये, जरा इस पर विस्तृत चर्चा करते हैं। ऐसी मान्यता है कि धर्म स्थलों में शुद्ध व पवित्र भाव होने के कारण किसी क्षण विशेष में शक्तिपात होने की संभावना रहती है। हमारा शरीर में उस शक्तिपात को सहन करने की क्षमता नहीं होती। विक्षिप्त होने अथवा मृत्यु होने का खतरा रहता है। चूंकि टोपी या रुमाल, यानि कि कपड़ा, कुचालक होता है, इस कारण वह शक्तिपात होने की स्थिति में उसे रोक देता है। आपने यह भी देखा होगा कि हिंदुओं में तिलक करते समय भी सिर ढ़कने की परंपरा है। अगर उस वक्त कपड़ा उपलब्ध नहीं है तो सिर पर हाथ रखते हैं। हालांकि हम जब हाथ रखते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि यह आदर का सूचक है, लेकिन उसके पीछे भी शक्तिपात होने की संभावना का तर्क दिया जाता है। वैसे हाथ रखना पर्याप्त नहीं है, क्योंकि हाथ कुचालक नहीं है। अलबत्ता रुकावट जरूर है। ऐसी मान्यता है कि भ्रूमध्य में अदृश्य तीसरा नेत्र सुप्तावस्था में विद्यमान है। तिलक से प्रतिष्ठित करने पर उस स्थान के जागृत होने की संभावना रहती है। इसे कुंडलिनी जागरण भी कहा जाता है। उस अवस्था में शक्तिपात होने की भी संभावना होती है। यज्ञादि में दौरान भी सिर पर कुशा या मौली का धागा रखने की परंपरा है। इसका संबंध भी कदाचित शक्तिपात से ही होगा।

हमारे यहां मंदिर में प्रवेश व आरती के वक्त, अरदास के समय और किसी के पैर छूने के दौरान, बड़े-बुजुर्गों के सामने स्त्रियां आवश्यक रूप से साड़ी अथवा चुन्नी के पल्लू से सिर ढ़कती हैं। इसे एक मर्यादित आचरण के रूप में लिया जाता है। इस मर्यादा की पालना मुस्लिमों में अधिक पायी जाती है। वे नमाज के वक्त सिर ढ़कते ही हैं। आपने देखा होगा कि मदरसों में जाते वक्त छोटे-छोटे बच्चे टोपी पहनते हैं और बच्चियां चुन्नी ओढ़ती हैं। सिख तो सदैव पगड़ी पहनते हैं। गांवों में अलग-अलग तरह की टोपियां व साफे पहनने का चलन है। इस पर चर्चा फिर कभी।

https://youtu.be/PvgFT-4YX_c

मंगलवार, फ़रवरी 18, 2025

ये डंकी रूट क्या है?

इन दिनों अमेरिका में अवैध रूप से रह रहे अप्रवासी भारतीयों को भारत लौटाया जा रहा है। कहा जा रहा है कि वे डंकी रूट से अमेरिका गए थे। डंकी रूट के मायने क्या हैं? कम ही लोगों को इसकी जानकारी होगी। इस सिलसिले में किसी समय अजमेर में जनस्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग के सेवानिवृत्त अधिशाषी अभियंता रहे लेखक ई. शिव शंकर गोयल, जो कि इन दिनों दिल्ली में निवास कर रहे हैं, उन्होंने शोध किया है। उनकी जानकारी के अनुसार जब राजस्थान में, अगस्त 1968 में, सार्वजनिक निर्माण विभाग से निकल कर जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग का गठन हुआ तो नागौर जिले के बांका पट्टी इलाके में ग्राउंड वाटर में अधिक फ्लोराइड की समस्या मुंह बायें खडी थी। स्थानीय लोग वहां का पानी पी-पीकर कूबड, हाथ-पांव टेढे होना तथा दांतों की विभिन्न बीमारियां झेल रहे थे। विभाग ने उस स्थान से दूर एक जगह पीने योग्य पानी का पता लगा कर एक ट्यूब वैल खुदवाया और उसे गांवों से जोड़ने हेतु एक गांव में सर्वे टीम भेजी। टीम को देख कर गांव वाले भी इकट्ठे हो गये। उनमें से एक ने टीम के मुखिया से पूछ लिया कि इतने ताम-झाम के साथ कैसे आना हुआ? तो उन्हें बताया गया कि ट्यूब वैल से गांव तक आने का छोटे से छोटा रास्ता ढूंढना है ताकि पाइप लाइन बिछाई जा सके। इस पर गांव वालों ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा कि इस छोटे से काम के लिए इतना झंझट करने की क्या जरूरत है? जब रेलवे लाइन बिछी थी तो गांव से स्टेशन तक का छोटे में छोटा गेला (रास्ता) ढूंढना था तो हमने एक गधे को पीट कर उधर की तरफ छोड दिया। वह जिस जिस रास्ते से स्टेशन गया, उससे पता लगा कि वह सबसे सोरा (छोटा) रास्ता है। कहते हैं कि तभी से डंकी रूट चर्चा का विषय हो गया, जिसका इस्तेमाल गुजरात, पंजाब और हरियाणा के कुछ लोगों ने किया।

इस बारे में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस में तनिक भिन्न जानकारी उपलब्ध है। 

उसके अनुसार डंकी रूट एक अवैध और खतरनाक प्रवास मार्ग को संदर्भित करता है, जिसका उपयोग लोग गैरकानूनी तरीके से एक देश से दूसरे देश में जाने के लिए करते हैं। यह रूट मुख्य रूप से दक्षिण एशियाई देशों (भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश आदि) से यूरोप, अमेरिका, कनाडा और अन्य विकसित देशों तक जाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। इसमें कई देशों से होते हुए गुप्त और खतरनाक रास्तों से यात्रा करनी पड़ती है, जैसे ईरान, तुर्की, ग्रीस के जरिए यूरोप में प्रवेश और दक्षिण और मध्य अमेरिका के रास्ते अमेरिका में प्रवेश (मेक्सिको बॉर्डर के जरिए) रूस, सर्बिया या अन्य पूर्वी यूरोपीय देशों से होकर। डंकी शब्द पंजाबी में छिप कर जाने या गैरकानूनी तरीके से यात्रा करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। इसे डंकी इसलिए कहा गया क्योंकि लोगों को लंबी दूरी पैदल, खच्चरों (mules) या अन्य अवैध साधनों से तय करनी पड़ती है, जो गधों (Donkeys) पर बोझ ढोने की तरह कठिन और थकाने वाला होता है। पंजाब और अन्य भारतीय राज्यों के कई लोग कनाडा, यूरोप, अमेरिका जाने के लिए इस अवैध रास्ते का इस्तेमाल करते हैं। पंजाबी बोलचाल में डंकी शब्द का इस्तेमाल उन लोगों के लिए किया जाता है जो बिना वीजा या कानूनी दस्तावेजों के किसी देश में घुसने की कोशिश करते हैं। समय के साथ यह शब्द खासकर अवैध रूप से विदेश जाने वाले प्रवासियों के लिए प्रचलित हो गया।

-तेजवाणी गिरधर

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असुरों को वरदान देते ही क्यों हैं त्रिदेव?

सवाल ये है कि त्रिदेव या देवता असुरों को ऐसे वरदान देते ही क्यों हैं कि वे उसका दुरुपयोग कर सकें? क्या उन्हें इस बात का अहसास और इल्म नहीं कि असुर उस वरदान को दुनिया पर जुल्म ढ़हाने के लिए उपयोग करेगा? क्या किसी को आराधना, कठोर साधना व तप करने के बाद वरदान देना उनकी मजबूरी है, चाहे वह उसका दुरुपयोग करे?

पुराणों और रामायण व महाभारत से जुड़ी कथाओं में इस बात का स्पष्ट जिक्र है कि अमुक असुर ने त्रिदेव या किसी देवी-देवता से प्राप्त वरदान का दुरुपयोग करते हुए देवताओं, ऋषि-मुनियों आमजन को बहुत पीड़ित किया। इस पर दुखी हो कर वे त्रिदेव के पास गए और त्राहि माम त्राहि माम कहते हुए उस असुर की यातानाओं से मुक्ति के लिए प्रार्थना की। उन्होंने अपने वरदान की महत्ता को तो कायम रखा, मगर साथ ही देवताओं व ऋषि-मुनियों पर दया की और अपने ही वरदान का तोड़ निकाला। और इस प्रकार अंततः देवी-देवता, ऋषि-मुनि व आमजन परेशानी से मुक्ति पाते हैं। ऐसे अनेकानेक प्रसंग हैं। कोई गिनती ही नहीं।

सवाल ये है कि त्रिदेव या देवता असुरों को ऐसे वरदान देते ही क्यों हैं कि वे उसका दुरुपयोग कर सकें? क्या उन्हें इस बात का अहसास और इल्म नहीं कि असुर उस वरदान को दुनिया पर जुल्म ढ़हाने के लिए उपयोग करेगा? क्या किसी को आराधना, कठोर साधना व तप करने के बाद वरदान देना उनकी मजबूरी है, चाहे वह उसका दुरुपयोग करे? ऐसे वरदान भी जानकारी में हैं, जिनके साथ ये शर्त लगाई जाती है कि वे उसका उपयोग जनकल्याण के लिए करने की बजाय दुरुपयोग करेंगे तो वह स्वतः ही बेअसर हो जाएगा। मगर सच्चाई ये है कि असुरों द्वारा हासिल वरदानों की प्रकृति ही ऐसी होती है कि उनका दुरुपयोग किया ही जाता है। स्वाभाविक ही है कि असुर ऐसा ही करेंगे। वरना वे असुर ही क्यों कहलाते? वरदान भी ऐसे-ऐसे कि क्या कहें? जिनसे साफ झलकता है कि असुर उसका दुरुपयोग करेंगे ही। असल में वे शक्ति का वरदान हासिल ही इसलिए करते हैं, ताकि उसका उपयोग कर देवताओं का दमन करें। अपने साम्राज्य का विस्तार कर सकें। कोई असुर अजेय होने का वरदान पा लेता है तो कोई ब्रह्मास्त्र, पाशुपतास्त्र व अन्य कई प्रकार के अमोघ अस्त्र वरदान स्वरूप हासिल कर लेता है, जिनका उपयोग महाविनाश के लिए किया जा सकता है। जब यह पहले से संज्ञान में है कि उनका उपयोग सृष्टि को नष्ट करने के लिए किया जा सकता है तो उसे देना ही नहीं चाहिए। 

जरा गौर कीजिए। भस्मासुर शंकर भगवान से किसी के भी सिर पर हाथ फेरने पर उसके भस्म हो जाने का वरदान पा लेता है। बाद में माता पार्वती का वरण करने की खातिर भगवान को ही भस्म करने पर आमादा हो जाता है। बड़ी युक्ति से भगवान को उससे मुक्ति मिल पाती है। उसकी भी एक कहानी है। ब्रह्मा जी व विष्णु भगवान भी पहले तो ऐसे ही अनेक वरदान असुरों को देते हैं और बाद में खुद ही उनके निवारण के रास्ते निकालते हैं। यानि समस्या भी वे ही पैदा करते हैं और समाधान भी खुद ही करते हैं। हिरण्यकश्यप की कथा सर्वविदित है। उसे न अस्त्र से न शस्त्र से, न अंदर न बाहर, न जमीन पर न आसमान में, न मानव द्वारा न पशु द्वारा मारे जाने की वरदान हासिल होता है। अर्थात भगवान पहले तो ऐसा वरदान दे देते हैं कि उसे विभिन्न तरीकों से मारा नहीं जा सकेगा और बाद में खुद ही तोड़ निकालते हुए नृसिंह अवतार लेकर युक्तिपूर्वक उसका वध करते हैं, ताकि उनका वरदान की कायम रहे और हिरण्यकश्यप भी मारा जा सके।

इन सब में एक बात कॉमन है, वो यह कि मृत्यु अवश्यंभावी है, जगत के इस अटल सत्य को ध्यान में रख कर ही वरदान दिए जाते हैं। किसी को भी अमरता का वरदान नहीं दिया जाता। दिया भी नहीं जा सकता। जैसे भीष्म पितामह को इच्छा मृत्यु का वरदान था, मगर में उसमें भी मृत्यु सुनिश्चित थी। बस इतना था कि उन्हें तभी काल वरण पाएगा, जब उनकी इच्छा होगी।

ऐसा नहीं है कि सिर्फ असुर ही प्राप्त वरदान का दुरुपयोग करते हैं, ऐसे कई प्रसंग हैं, जिनमें देवता भी अपनी शक्तियों का बेजा इस्तेमाल करते हैं। बिलकुल वैसा ही व्यवहार करते हैं, जैसा कि आम मनुष्य करता है। ऋषि-मुनि तक मानवीय कामनाओं के वशीभूत हो कर कृत्य करते हैं। हां, इतना जरूर है कि ऐसे प्रसंगों की संख्या कम है। दुरुपयोग करने पर बाद में उन्हें भी शापित होना पड़ता है।

खैर, कुल मिला कर यह सवाल सिर ही चकरा देता है कि क्यों तो असुरों को वरदान दे कर उन्हें शक्तिशाली बनाया जाता है और फिर बाद में देवताओं के अनुनय-विनय पर दया करके असुरों का अंत किया जाता है।

यह तो हुई मोटी बु्द्धि और तर्क की बात। विषय का एक पहलु। जरा गहरे में जाएं तो और ही दृष्टिकोण उभरता है। ऐसा प्रतीत होता है कि परमसत्ता या प्रकृति द्वारा जगत के संचालन के लिए नकारात्मक व सकारात्मक शक्तियों का संतुलन बैठाया जाता है। यह जगत है ही द्वैत। अच्छाई और बुराई से मिल कर ही बना है। दोनों जगत के अस्तित्व के लिए आवश्यक तत्त्व हैं। इनका जोड़, बाकी, गुणा, भाग सृष्टि के रचनाकार भगवान ब्रह्मा, सृष्टि के पालक भगवान विष्णु व सृष्टि के संहारकर्ता भगवान शंकर करते हैं। ये तीनो सृष्टि के नियामक आयोग के डायरेक्टर हैं, जो स्वयं भी शक्ति के आदि केन्द्र के नियमों की पालना करवाने के लिए बाध्य हैं।

दूसरा तथ्य ये समझ में आता है कि कठोर साधना करके कोई भी शक्ति हासिल कर सकता है, चाहे असुर हो या देवता। प्रकृति की आदि शक्ति उसमें कोई भेद नहीं करती। वह सदैव निरपेक्ष रहती है।

इस विषय पर कभी और विस्तार से गहरे में चर्चा करेंगे।

https://www.youtube.com/watch?v=GsUgnVxIs5k


रविवार, फ़रवरी 16, 2025

दैनिक राषिफल पर अविष्वास क्यों?

हर आम ओ खास की दैनिक राषिफल देखने में रूचि होती है। चाहे उस पर विष्वास हो या नहीं। यकीन न हो तो भी एक बार देख ही लेते हैं। यकीन न होने के पीछे तर्क यह होता है कि अमुक राषि का दिनमान पूरी दुनिया के लोगों पर कैसे लागू हो सकता है? जैसे राषिफल आता है कि अमुक राषि के लोग आज मालामाल होंगे। बेषक उस राषि के लोगों के लिए वैसा योग होता तो है, मगर सभी के लिए भिन्न भिन्न होता है, क्योंकि सभी की कुंडली में ग्रहों की स्थिति अलग अलग होती है। अगर मालामाल होने का योग लागू होता है तो भी सभी पर समान रूप से परिफलित नहीं हो पाता। इसे यूं समझिये। जैसे किसी दिन अमुक राषि के लोगों पर धन वर्शा का योग है, मगर सभी पर धन वर्शा होती नजर नहीं आती। असल में वर्शा तो सभी पर समान रूप से होती है, मगर उसका फल हर व्यक्ति की पात्रता के अनुसार मिलता है। जिसका पात्र एक लीटर का है तो उसे एक लीटर और जिसका पांच लीटर का है, उसे पांच लीटर जल मिलता है। गरीब भी मालामाल होता है, मगर पात्रता के अनुसार। जैसे उसके पास दस रूपये हैं तो उसे एक हजार मिलते हैं और जिसके पास पहले से एक हजार रूपये हैं तो उसे पचास हजार मिलते हैं। ऐसे में असमंजस होना स्वाभाविक है, षंका होना लाजिमी है।

https://youtu.be/k6Wt1yPMp-k


श्रीमद्भागवत कथा में तोता क्यों रखा जाता है?

हालांकि आकाश में स्वछंद विचरण करने वाले किसी पक्षी को पिंजरे में कैद रखना उचित प्रतीत नहीं होता, लेकिन हमारे यहां तोते को पालने का प्रचलन रहा है। उसे शुभ माना जाता है। चूंकि तोते की आवाज मीठी होती है और वह राम-राम जैसे कुछ शब्द आसानी से सीख लेता है, इस कारण कुछ लोग मनोविनोद के कारण उसे पालते हैं। शौक में कई लोग रंग-बिरंगी चिडिय़ाएं यथा लव बर्ड्स भी पालते हैं।

आपने देखा होगा कि जहां भी श्रीमद्भागवत कथा होती है तो वहां पर तोता रखा जाता है। अगर तोता उपलब्ध न हो तो कथा स्थल के मुख्य द्वार पर कार्ड बोर्ड का बना तोता टांगा जाता है। मैने स्वयं ने कई जगह ऐसा देखा है। स्वाभाविक रूप से यह जिज्ञसा होती है कि आखिर ऐसा क्यों किया जाता है?

पौराणिक जानकारी के अनुसार जैसे बंदर में हनुमान जी की उपस्थिति मानी जाती है, उसी प्रकार तोते को शुकदेव जी का प्रतिनिधि माना जाता है। ज्ञातव्य है कि शुकदेव जी ने राजन परीक्षित को श्रीमद्भागवत कथा सुनाई थी। शुकदेवजी का जन्म व्यासजी की पत्नी पिंगला के गर्भ से हुआ था, जिनके पेट में वह तोता 12 साल तक रहा था। उसने हिमालय की गुफा में उस वक्त  कथा सुन ली थी, जब भगवान शंकर पार्वतीजी को यह कथा सुना रहे थे और इस दौरान पार्वती जी को निद्रा आ गई। स्वयं भगवान शंकर के श्रीमुख से कथा के दस स्कंध सुनने के कारण तोते की महिमा हो गई। तोते को शुक भी कहा जाता है।

ऐसी मान्यता है कि तोते की मौजूदगी के बिना व्यास कथा का महत्व नहीं रहता। तोते को आसन दे कर उसकी पूजा किए बिना श्रीमद्भागवत कथा मान्य ही नहीं है। हालांकि कथा करने वाले को कथा व्यास की पदवी होती है, मगर तोते की मौजूदगी के बिना वह कथा फल प्रदान नहीं करती।

प्रसंगवश बता दें कि पक्षियों में तोता ऐसा पक्षी है, जो कि मनुष्य की तरह बोल सकता है, अगर उसे प्रशिक्षित किया जाए। वैज्ञानिकों के अनुसार तोते के मस्तिष्क का सेरीब्रम पार्ट काफी विकसित होता है, इसी कारण उसे मनुष्य की बोली का प्रशिक्षण दिया जा सकता है।

https://youtu.be/NyxamV_l5nQ


शुक्रवार, फ़रवरी 14, 2025

भगवान के दाढ़ी-मूंछ क्यों नहीं होती है?

आपने देखा होगा कि देवी-देवताओं से इतर जितने भी महामानव हुए हैं, जिन्हें कि हम भगवान मानते हैं, उनके चित्रों व मूर्तियों में चेहरों पर दाढ़ी-मूंछ नहीं होती। इसमें भी किंचित अपवाद हो सकता है, मगर क्या आपने कभी सोचा है कि ऐसा क्यों है? भगवान कहे जाने वाले राम, कृश्ण, महावीर व बुद्ध के दाढी मूंछ क्यों नहीं होती? आइये, समझने की कोषिष करते हैं कि आखिर ऐसा क्यों है-

भगवान के दाढी मूंछ क्यों नहीं होती, इस गुत्थी को समझने से पहले भगवान शब्द पर आते हैं। इसकी अलग-अलग तरह से व्याख्या हुई है। जैसे जिसके पास धन है, उसे धनवान कहते हैं, उसी प्रकार जिसके पास भग है, वह भगवान है। भग अर्थात योनि। अर्थात प्रकृति। जो आदि शक्ति भगवति से युक्त है, वह भगवान है। वह पूर्ण है। हमारी संस्कृति में अर्धनारीश्वर का जिक्र आता है। उसका मतलब है, जो पुरुष व नारी के समान भाग से मिल कर बना है।

एक व्याख्या ये है कि साकार भगवान, निराकार ईश्वर का ही अवतार है, जैसे श्रीराम व श्रीकृष्ण। इसी प्रकार महावीर व बुद्ध को भी भगवान की श्रेणी में गिना जाता है। वो इसलिए कि महावीर ने केवल्य ज्ञान अर्जित किया और बुद्ध ने बुद्धत्व। इन दोनों के बारे में मान्यता है कि वे मोक्ष को प्राप्त हो गए। वे पूर्णता को प्राप्त हो गए। जन्म-मरण के चक्र से मुक्त।

अब तथ्य की बात, जिसे कि विज्ञान भी मानता है। वो यह कि हर मनुष्य, चाहे वह नर हो या नारी, वह पुरुष व स्त्री, दोनों के ही गुणों से युक्त होता है, क्योंकि उसकी संरचना ही स्त्री व पुरुष के संयोग से हुई है। अंतर सिर्फ गुणसूत्रों का है। अगर पुरुष के गुणसूत्र अधिक हैं तो वह पुरुष के रूप में पैदा होता है और अगर स्त्री के गुणसूत्र अधिक हैं तो उसका जन्म नारी रूप में होता है। हर पुरुष में नारी के भी गुण होते हैं और हर स्त्री में पुरुषों के भी गुण होते हैं। आपने देखा होगा कि कुछ स्त्रियों में जन्म के बाद किन्हीं करणों से पुरुषों के गुण ज्यादा हो जाते हैं तो वह पुरुषों की तरह व्यवहार करती हैं। इसी प्रकार जिन पुरुषों में स्त्रियोचित गुण विकसित हो जाते हैं तो वे स्त्रैण कहलाते हैं। स्त्रैणता का सबसे अनूठा उदाहरण स्वामी रामकृष्ण परमहंस को माना जाता है। वे देवी के उपासक थे। वे देवी में इतने लीन हो गए कि उनका शरीर भी स्त्रैण हाने लगा। बताते हैं कि जीवन के आखिरी वर्षों में उनके स्तन उभरने लगे थे। जहां तक प्राकृतिक विकृति का सवाल है गुण सूत्रों के असंतुलन के परिणाम स्वरूप मनुष्य किन्नर रूप में जन्म लेता है। हालांकि किन्नरों में भी नर-मादा का विभेद है, लेकिन आम तौर पर आपने देखा होगा कि किन्नर की आवाज पुरुषों की तरह मोटी होती है, मगर चेहरे पर दाढ़ी-मूंछ नहीं आती। व्यवहार पुरुषों की तरह, मगर चाल-ढ़ाल स्त्रियों की तरह।

यह भी एक तथ्य है कि पुरुषों के चेहरे पर दाढ़ी व मूंछ के रूप में बाल होते हैं, जबकि स्त्रियों में ऐसा नहीं होता। कई बार ऐसा पाया गया है कि जो भी स्त्री पुरुषोचित व्यवहार करती है तो उसके भी पुरुषों की तरह चेहरे पर बाल आने लगते हैं। ऐसे भी प्रमाण हैं कि बहुत अधिक उम्र होने पर महिलाओं में गुण सूत्रों का, हारमोन्स का असंतुलन होता है और उनके दाढ़ी-मूंछ आने लगती है।

अब बात मुद्दे की। कोई भी पुरुष पूर्णता को उपलब्ध होता है, अर्थात भगवान की श्रेणी में आता है, तब उसमें पुरुष व स्त्री के गुण समान होते हैं। इसी कारण उसके चेहरे पर बाल नहीं होते। आपने भगवान राम, भगवान कृष्ण, भगवान महावीर, भगवान बुद्ध के जितने भी चित्र या मूर्तियां देखी होंगी, उनमें उनके दाढ़ी-मूंछ नजर नहीं आई होगी। वजह क्या है? क्या वे रोजाना शेव करते थे? इसका जिक्र शास्त्रों में तो कहीं पर भी नहीं है। अर्थात उनके चेहरे पर बाल आते ही नहीं थे? और वजह थी पूर्ण अवस्था। जितना पुरुष, उतनी ही स्त्री। हालांकि यह भी पक्का नहीं है कि वस्तुस्थिति क्या रही होगी, मगर कुछ तथ्यों के आधार पर ऋषि-मुनियों ने जैसा वर्णन किया, उसी के अनुरूप चित्र व मूर्तियां बना दी गईं। 

ऐसी भी मान्यता है कि भगवान सदा किशोर और अमूर्त है। किशोरावस्था दाढ़ी पैदा होने से पहले की अवस्था है। भरपूर यौवन, प्रखर ओज। इसी आधार पर हमने भगवान की परिकल्पना किशोर के रूप में की। किशोरावस्था को ध्यान में रख कर ही मन्दिरों में मूर्तियां रची गईं। यही वजह है कि उनके चेहरे पर दाढ़ी-मूंछ नहीं दर्शाई गई है।

प्रसंगवश आखिर में भगवान की भिन्न-भिन्न व्याख्याओं पर आते हैं। भगवान शब्द में युक्त भग का अर्थ कामना व भाग्य भी होता है। भग से तात्पर्य प्रकृति या भौतिक संसार से है, अर्थात जो सभी भौतिक आनंदों, कामनाओं और भाग्य को धारणा करने वाला गर्भ है, वह भगवान है। राम व कृष्ण को हम अवतार की श्रेणी में मानते हैं, मगर चूंकि उन्होंने शरीर धारण किया है, इस कारण इस भौतिक संसार से बंधे हुए हैं। उनके जीवन में भी वैसे ही सुख-दुख आए, जैसे कि सामान्य मानव के आते हैं। भगवान का अर्थ जितेंद्रिय भी माना जाता है। इंद्रियों को जीतने वाला। जिसने पांचों इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है तथा जिसकी पंच तत्वों पर पकड़ है, उसे भगवान कहते हैं। जैसे महावीर व बुद्ध। जितेन्द्रिय यानि वह जो पूर्णता को, मोक्ष को प्राप्त हो चुका है और जो जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो गया हो, वही भगवान है। एक और व्याख्या में बताया गया है कि भग यानि ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य, ये छह गुण अपनी समग्रता में जिसमें हों, उसे भगवान कहते हैं। 

https://youtu.be/z8XaD02LCvk


गुरुवार, फ़रवरी 13, 2025

विज्ञान मानता है कि कोई भी ध्वनि नष्ट नहीं होती। वह ब्रह्मांड में कहीं न कहीं विचरण करती रहती है। उसी सिद्धांत पर ही तो रेडियो का अविष्कार हुआ। कोई ध्वनि अंतरिक्ष में छोड़ी गई अर्थात ब्रॉडकास्ट की गई। फिर उसी को कैच करने की तकनीक रेडियो या ट्रांसमीटर में काम में ली गई। इसी प्रकार दृश्यों का, वीडियो का प्रयोग करके टेलीविजन बनाया गया। यह सब हमारे सामने हैं। कोई कपोल कल्पित बात नहीं है। दुनिया में कहीं भी, हजारों किलोमीटर दूर क्रिकेट मैच हो रहा होता है और हम उसे उसी समय अपने टेलिविजन पर देख रहे होते हैं। क्या यह किसी चमत्कार से कम है? मगर चूंकि इसे विज्ञान से संभव कर दिखाया है, इस कारण हमें अचरज नहीं होता।

महाभारत में भी इसी का जिक्र है कि संजय ने दिव्य दृष्टि से युद्ध को देख कर उसका पूरा वृतांत धृष्टराष्ट्र को सुनाया था। बेशक, उस वक्त टेलिविजन का अविष्कार नहीं हुआ था, मगर दूरस्थ घटनाक्रम को देखने की क्षमता का ही संजय ने उपयोग किया, जो कि उनको वरदान के रूप में  मिली थी। यह बात दीगर है कि वह विधा कुछ और थी, 

मगर इसका अर्थ है कि मौलिक रूप से एक स्थान के दृश्य या घटनाक्रम को दूसरे स्थान पर देख पाना संभव था।

अब असल मुद्दे पर आते हैं। ओशो का ख्याल था कि ध्वनि के अंतरिक्ष में सदैव मौजूद रहने के सिद्धांत के आधार पर महाभारत में भगवान श्रीकृष्ण व अर्जुन के बीच जो संवाद हुआ, उसकी ध्वनि भी अंतरिक्ष में कहीं न कहीं विचरण कर रही होगी। बस जरूरत है तो उसे कैच करने की। सर्वविदित है कि गीता में श्रीकृष्ण व अर्जुन के बीच जो संवाद हुआ, वही हूबहू गीता में बताया गया है। गीता लिखित पुस्तक नहीं है, बल्कि उसमें संवाद को लिपिबद्ध किया गया है। बताया जाता है कि ओशो ने कुछ वैज्ञानिकों की टीम को उस संवाद को रिकॉर्ड करने का सौंपा था। वे वर्षों पुरानी ध्वनि की फ्रिक्वेंसी को नाप कर उसे कैच करने की कोशिश में जुटे थे। ओशो के निधन के बाद उस प्रयास का क्या हुआ, कुछ भी जानकारी नहीं। उनके बाद क्या अब भी उस पर कोई काम दुनिया में कहीं हो रहा है, इसकी भी जानकारी नहीं है। अगर कभी ये संभव हो पाया तो कितना सुखद व आश्चर्यजनक होगा। तब गीता पढ़ी नहीं जाएगी, बल्कि सुनी जाएगी, श्रीकृष्ण व अर्जुन की ऑरीजनल आवाज में।

https://youtu.be/cNggac7Db84


बुधवार, फ़रवरी 12, 2025

भगवान शिव की परिक्रमा आधी क्यों की जाती है?

धर्मस्थलों में गर्भग्रह में स्थापित मूर्ति और मजारों की परिक्रमा करने की परंपरा है। यह भी सर्वविदित तथ्य है कि परिक्रमा की दिशा घड़ी की सुई की तरह दक्षिणावृत होती है। लेकिन यह बेहद रोचक तथ्य है कि अकेले भगवान शिव अथवा शिव लिंग ही ऐसे हैं, जिनकी परिक्रमा पूरी नहीं की जाती। परिक्रमा जहां समाप्त होती है, वहीं से फिर घड़ी की सुई की विपरीत दिशा में लौटा जाता है। जहां तक भगवान शिव का प्रश्न है तो सब जानते हैं कि उनकी जटा से गंगा का प्रवाह होता है, जो कि अति विशाल है। यह मान कर कि उसे पार नहीं किया जा सकता, परिक्रमा वहीं रोक पर वापस लौट जाते हैं। इसे चंद्राकार परिक्रमा कहा जाता है। इसी प्रकार शिव लिंग पर भी चूंकि विभिन्न प्रकार के अभिषेक किए जाते हैं, जिनका निकास गोमुख से होता है, जिसे कि सोमसूत्र कहा जाता है, उसे उलांघना भी धार्मिक विधि के विपरीत माना जाता है। शास्त्रानुसार सोमसूत्र शक्ति-स्रोत है। उसे लांघते समय पैर फैलाने से वीर्य निर्मित और 5 अन्तस्थ वायु के प्रवाह पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इससे देवदत्त और धनंजय वायु के प्रवाह में रुकावट पैदा हो जाती है, जिससे शरीर और मन पर बुरा असर पड़ता है। जानकारी ये भी है कि तृण, काष्ठ, पत्ता, पत्थर, ईंट आदि से ढंके हुए सोमसूत्र का उल्लंघन करने से दोष नहीं लगता है।

ऐसी मान्यता है कि सनातन धर्म में परिक्रमा करने का चलन गणेश जी के मां पार्वती की परिक्रमा करने से शुरू हुआ। इससे जुड़ा प्रसंग ये है कि एक बार मां पार्वती ने अपने पुत्रों कार्तिकेय तथा गणेश को सांसारिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए पृथ्वी का एक चक्कर लगा कर आने का आदेश दिया गया।  कार्तिकेय अपनी सवारी मोर पर रवाना हुए, लेकिन गणेश अपने वाहन चूहे को देख विचार में पड़ गए कि वे इस प्रतियोगिता में कैसे प्रथम आएं? उन्होंने एक युक्ति निकाली और मां पार्वती के चक्कर लगाना आरंभ कर दिया। जब कार्तिकेय पृथ्वी का पूरा चक्कर लगा कर लौटे तो देखा कि गणेश वहां पहले से मौजूद हैं तो वे चकित रह गए। इस पर गणेश ने कहा कि मां पार्वती ही संसार हैं। ज्ञान प्राप्ति के लिए उनकी परिक्रमा ही पर्याप्त है, उसके लिए पृथ्वी की परिक्रमा की जरूरत नहीं। 

धार्मिक मान्यता के अनुसार केवल शिव जी की आधी परिक्रमा की जाती है, जबकि मां दुर्गा की एक, हनुमानजी व गणेशजी की तीन-तीन, भगवान विष्णु की चार, पीपल के वृक्ष की एक सौ आठ परिक्रमा का विधान है। वैसे सामान्यरू तीन परिक्रमा का चलन है।

अब आते हैं इस तथ्य पर कि परिक्रमा आखिर क्यों की जाती है? ऐसी मान्यता है कि पवित्र स्थान, मूर्ति, वृक्ष, पौधा आदि की परिक्रमा से उनके इर्द-गिर्द मौजूद आभा मंडल से सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त होती है। हमारी संस्कृति में मंदिर, नदि, पर्वत, तीर्थ, वृक्ष आदि की परिक्रमा का चलन है। दिलचस्प बात है कि पाणिग्रहण संस्कार में वर-वधू अग्नि की परिक्रमा करते हैं। 

जरा और गहरे में जाएं तो देखिए, सभी ग्रह सूर्य की परिक्रमा कर रहे हैं और सभी ग्रहों को साथ लेकर हमारा सूर्य महासूर्य की परिक्रमा कर रहा है। इतना ही नहीं, बल्कि सभी ग्रह अपनी धूरि पर भी कर रहे हैं। अर्थात यह केवल मान्यता का मसला नहीं है, बल्कि परिक्रमा या चक्र में ब्रह्मांड का गहरा रहस्य छुपा हुआ है। हर छोटा बड़े की परिक्रमा कर रहा है। समय की सूचक घड़ी में भी सुइयां चक्राकार घूम रही हैं। चक्र ही परिवर्तन व प्रगति का द्योतक है। निष्कर्ष यही कि परिक्रमा से केन्द्र तुष्ट होता है, वहीं से ऊर्जा प्राप्त होती है।

https://www.youtube.com/watch?v=OYiVYyKP3YU


सोमवार, फ़रवरी 10, 2025

उबासी आने पर चुटकी क्यों ली जाती है?

उबासी व जम्हाई एक सामान्य शारीरिक क्रिया है। हर किसी को आती है उबासी। उसके अपने कारण हैं, लेकिन कई लोग उबासी आने पर होंठों के आगे चुटकी बजाते हैं। संभव है, इसकी आपको भी जानकारी हो। आप भी चुटकी बजाते हों। मगर ये चुटकी क्यों ली जाती है, उसका ठीक-ठीक क्या कारण है, यह ठीक से नहीं पता। जाहिर तौर पर उबासी ऊब, थकावट या नीरसता अनुभव होने का संकेत है। हो सकता है ऊब मिटाने के लिए चुटकी ली जाती हो। यह भी हो सकता है कि ऐसा इसलिए भी किया जाता हो कि उबासी के दौरान मुंह खुला रहने के दौरान कोई मक्खी-मच्छर श्वास के साथ भीतर न प्रवेश कर जाए।

बहरहाल उबासी के दौरान चुटकी लेने का एक प्रसंग रामायण में आता है। जरा इस पर बात कर लेते हैं।

वस्तुतः भक्त हनुमान द्वारा भगवान राम की निरंतर सेवा से सीता जी, भरत, लक्ष्मण आदि ईर्ष्या करने लगे थे। भगवान राम के राज्याभिषेक के बाद सब कुछ आनंद से चल रहा था। हनुमान जी भी अयोध्या में ही रह कर भगवान राम की सेवा करते थे। हर वक्त, यहां तक कि शयन कक्ष में भी हनुमान सेवा में उपस्थित रहते थे। ईर्ष्यावश सीता जी, भरत व लक्ष्मण ने एक योजना बनाई, ताकि हनुमान को सेवा से दूर रखा जा सके। राम दरबार में भरत ने राम की ओर से एक आदेश सुनाया। इसके तहत उन्होंने शयन कक्ष में सिर्फ सीता जी के, दरबार में भरत जी के और भोजन और भ्रमण के दौरान लक्ष्मण जी ने सेवा के अधिकार ले लिए। हालांकि भगवान राम ने हनुमान के लिए सेवा के लिए कुछ न छोडऩे पर संशय किया था, मगर सब टाल गए। अपने लिए सेवा का अवसर न बचने पर हनुमान हनुमान गढ़ी में दुखी हो कर रोने लगे। अपनी सेवा में हनुमान जी को न पाकर श्रीराम का भी मन नहीं लगा, तब उन्होंने हनुमान का पता करवाया और उनको बुलावा भेजा। हनुमान के दुख का कारण जान कर भगवान राम ने उनसे सेवा को कोई मौका मांगने को कहा। चतुर हनुमान ने भगवान राम को उबासी आने पर चुटकी बजाने की सेवा मांगी। भगवान राम ने स्वीकृति दे दी। हनुमान से ईर्ष्या करने वाली मंडली को यह बहुत ही सामान्य सी सेवा लगी, सो उन्होंने कोई ऐतराज नहीं किया। लेकिन इस सेवा के बहाने हनुमान हर पल भगवान राम के साथ ही रहने लगे। पता नहीं कब उबासी आ जाए और उन्हें चुटकी बजानी पड़े। एक दिन रात में सीता जी ने हनुमान को शयन कक्ष से बाहर भेज दिया। भगवान राम ने उबासी ली, और उनका मुंह खुला का खुला रह गया। यह स्थिति देख कर सभी घबरा गए। किसी को कुछ नहीं समझ आया कि क्या किया जाए। इस पर हनुमान को बुलवाया गया। उनके चुटकी बजाते ही भगवान राम सामान्य हो गए। है न दिलचस्प प्रसंग।

खैर, उबासी आती क्यों है, इस पर विदुषी निशी खंडेलवाल ने एक विस्तृत आलेख लिखा है। आइये, उसके कुछ अंश जान लेते हैं। 

जानकारी ये है कि हम ही नहीं, बल्कि गर्भस्थ शिशु भी उबासी लेता है। अल्ट्रा साउंड निरीक्षण के दौरान 20 सप्ताह के शिशुओं की गर्भ में उबासिया रिकार्ड की गई हैं। इससे तो ऐसा लगता है कि उबासी का आना हमारे लिए काफी महत्वपूर्ण है और इस पर नियंत्रण कर पाना सम्भव नहीं। रात को सोने से पहले, सुबह उठने के बाद, किसी काम को लगातार करते रहने से, बहुत ज्यादा थकान महसूस होने जाने आदि-आदि परिस्थितियों में सभी के उबासी लेने के अनुभव हैं।

उबासी क्यों आती है, इसका पता लगाने और किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए बहुत-से अध्ययन किए गए हैं। सन् 1986 में महाविद्यालय के कुछ छात्रों पर किए गए प्रयोगों में पाया कि उस समय उबासी ज्यादा आती है, जब छात्रों को बोरियत महसूस होती है। 

ऐसा माना जाता है कि थके होने पर उबासी ज्यादा आती है। यह देखा जाता है कि अक्सर उबासी नींद आने की स्थिति में आती है। सबसे ज्यादा उबासी सोने से पहले और सो कर उठने के समय आती है, क्योंकि इस समय सक्रियता का स्तर बहुत कम होता है। परन्तुु बाद में हुए कुछ प्रयोगों से यह पता चला कि सतर्कता का स्तर अक्सर उबासी के बाद नहीं, उससे पहले बढ़ जाता है और सतर्कता के अन्य सम्भावित कारण भी पाए गए। तो यह परिकल्पना भी बहुत सटीक साबित नहीं हुई।

दिलचस्प बात है कि कई जानवर उबासी लेते हैं - शेर-बिल्ली, कुत्ते-भेड़िए, बन्दर-वानर, सांप, मछली, चूहे, घोड़े, तोते, पेंग्विन, उल्लू आदि। मनुष्यों की तरह सामाजिक समूहों में रहने वाले जानवरों में किसी को उबासी लेते हुए देख कर अन्य को भी उबासी आ जाती है। इनमें चिम्पैन्ज़ी और तोते शामिल हैं। शोध से यही पता चला है कि कुत्ते अपने मालिक को उबासी लेते देख खुद उबासी लेने लगते हैं। अर्थात उबासी एक प्रजाति से दूसरी प्रजाति में भी फैल सकती है।

-तेजवाणी गिरधर

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https://www.youtube.com/watch?v=Wpzd3YOx4eM

शनिवार, फ़रवरी 08, 2025

संजय जैसी दिव्यदृष्टि क्या अब भी संभव है?

यह हमारे संज्ञान में है कि महाभारत काल में संजय को दिव्य दृश्टि हासिल थी। उन्होंने उसी दिव्य दृश्टि से महल में बैठे बैठे दूरस्थ हो रहे युद्ध को देखा और धृतराश्ट को पूरा वर्णन सुनाया। ऐसा होना काल्पनिक लगता है, मगर धार्मिक आस्था के कारण हमारी मान्यता है कि ऐसा हुआ ही होगा। लेकिन विज्ञान ऐसी किसी दिव्य दृश्टि की पुश्टि नहीं करता। विज्ञान ऐसी स्थिति किसी भी सूरत में मानने को तैयार नहीं है। परंतु वर्तमान काल में एक घटना ने उसे मानने को मजबूर कर दिया है। हालांकि वह अब भी उस गुत्थी को सुलझाने की क्षमता नहीं रखता। ओषो ने अपने एक प्रवचन में बताया कि अमेरिका में टेट सीरियो नामक एक व्यक्ति हुआ। उसे हजारों किलोमीटर दूर हो रही घटना को देखने की क्षमता हासिल थी। किसी स्थान पर घटित हो रही घटना को वह देखना चाहता तो पांच मिनट आंख बंद कर ध्यान में बैठता और उसे घटना दिखाई देने लग जाती। केवल घटना को देखने में ही नहीं, बल्कि घटना के चित्र को पकडने में भी सक्षम था। वह चित्र उसकी आंख में दिखाई देता था, जिसके हजारों फोटो खींचे गए हैं। ओषो कहते हैं कि दिव्य दृश्टि के लिए आत्मज्ञानी होना आवष्यक नहीं, किसी आध्यात्मिक षक्ति की जरूरत नहीं, वह तो एक प्राकृतिक षक्ति है। टेट कोई आत्मज्ञानी नहीं था, अलबत्ता उसे असामान्य व्यक्ति जरूर कहा जा सकता है।

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शुक्रवार, फ़रवरी 07, 2025

क्या पता लग सकता है कि मृतात्मा अगले जन्म में कहां गई?

हालांकि हम हर व्यक्ति के मरने पर उसके नाम के साथ स्वर्गीय शब्द जोड़ देते हैं, भले ही हमें यह पता भी न हो कि वह स्वर्ग में गया या नरक में। वैसे भी हमारे यहां परंपरा है कि यदि कोई व्यक्ति अपने जीवन में बुरा रहा हो, तो भी उसके मरने पर हम उसकी बुराई नहीं करते। यही कहते हैं कि भला आदमी था। उसके नाम के साथ स्वर्गीय शब्द जोड़ कर यही जताते हैं कि वह स्वर्ग में ही गया होगा और सम्मान देते हैं। इसके अतिरिक्त यह भी अवधारणा है कि मृतात्मा अगला जन्म लेती है। कुछ लोग मानते हैं कि मनुष्य मरने के बाद फिर मनुष्य योनि में ही जन्म लेता है। ऐसा मानने वाले पति-पत्नी या प्रेमी-प्रेमिका अगले जन्म में फिर मिलने की कामना करते हैं। कई तो अगले सात जन्म तक भी साथ होने की इच्छा जताते हैं। अब ये सात जन्म ही क्यों, छह या आठ क्यों नहीं, कुछ पता नहीं। षायद मनुश्य योनि में केवल सात बार ही जन्म लिया जा सकता हो। दूसरी ओर कुछ लोगों की मान्यता है कि मनुष्य अपने कर्म के अनुसार किसी अन्य योनि में जन्म लेता है। कुछ मानते हैं कि मरने के वक्त जो ख्याल आता है, उसी के अनुरूप जन्म मिलता है। एक जिज्ञासा ये हो सकती है कि मृतात्मा ने अगले जन्म में किस योनि में जन्म लिया है, क्या इसके बारे में ठीक-ठीक जानकारी मिल सकती है? बताते हैं कि ज्योतिष शास्त्र में यह संभव हैै। ज्योतिषी कुंडली देख कर यह तक बता देते हैं कि यह आपका आखिरी जन्म है, इसके बाद जन्म-मरण के चक्कर से मुक्ति मिल जाएगी। 

खैर, एक पद्दति मेरी जानकारी में भी है, वह आपसे साझा करता हूं। जब किसी की मृत्यु शाम को होती है, और जैसा कि हमारे यहां परंपरा है कि सूर्यास्त के बाद अंतिम संस्कार नहीं किया करते, इस कारण उसे रात भर रखना होता है। उसके पास एक दीपक जलाया जाता है। बताया जाता है कि ऐसा इस कारण किया जाता है ताकि वातावरण में विचरण कर रही कोई बुरी आत्मा उसमें प्रवेश न कर जाए। खैर, जानकारी ये है कि जो दीपक पूरी रात जलता है, उसके नीचे तेल से एक आकृति बन जाती है, जो कि किसी मनुष्य, जीव-जन्तु आदि की हो सकती है। जो भी आकृति बनती है, माना जाता है कि मृतात्मा उसी योनि की ओर प्रस्थान करेगी। यह पद्दति कितनी सही है, पता नहीं, मगर चलन में है जरूर। हमारे परिवार में किन्हीं पूर्वज के बारे में बताया जाता है कि दीपक के नीचे भ्रमर का चिन्ह बन गया था, इस कारण जब भी कोई भ्रमर घर में आ जाता है तो यही मानते हैं कि अमुक पूर्वज पधारे हैं और उन्हें पानी की छींटा दे कर शांत किया जाता है। ऐसा करने पर वे चले जाते हैं।

https://www.youtube.com/watch?v=AawUENKd--s&t=3s


गुरुवार, फ़रवरी 06, 2025

शादी न हो रही हो तो करें ये टोटका

यदि किसी युवक की शादी न हो रही हो, शादी में विलंब हो रहा हो तो एक उपाय किया जाता है। वो ये कि जब किसी की शादी हो रही हो और वह जब वधु पक्ष के दरवाजे पर तोरण मारने के बाद घोड़ी से उतर रहा हो तो अविवाहित युवक अगर तुरंत घोड़ी पर बैठ जाए तो उसकी भी शादी का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। है न विचित्र परंपरा।

ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकृति मरक्त स्थान की पूर्ति होने की व्यवस्था है। जैसे ही कोई स्थान रिक्त होता है, प्रकृति उसे भरने की कोशिश करती है। दूल्हे का घोड़ी पर बैठे होना एक स्थिति है। इसे हम दृश्य भी कह सकते हैं। जैसे ही दूल्हा घोड़ी से उतरता है, तो वह स्थान रिक्त हो जाता है। उसे अगर अविवाहित युवक तुरंत भरता है तो प्रकृति तत्काल बनी दूसरी स्थिति को पूर्ण करने में जुट जाती है। अर्थात प्रकृति ऐसे संयोग निर्मित करती है कि उस युवक की जल्द शादी हो जाए।

https://www.youtube.com/watch?v=y-Q-wayfeaE


बुधवार, फ़रवरी 05, 2025

तकिया उठा सकता है आपको नींद से?

एक अरसे से नौवीं व ग्यारहवीं क्लास की परीक्षा की तुलना में दसवीं व बारहवीं क्लास की बोर्ड परीक्षा को कठिन माना जाता है। इस कारण दसवीं व बारहवीं की परीक्षा देने वाले परीक्षार्थी पढ़ाई पर ज्यादा ध्यान देते हैं। विशेष रूप से सुबह जल्दी उठ कर पढ़ते हैं, चूंकि शांत वातावरण में स्मृति में पढ़ा हुआ जल्द संग्रहित होता है। सुबह जल्द उठने के लिए घड़ी में अलार्म सैट करते हैं। मैं जब दसवीं में था तो किसी ने एक प्रयोग बताया था। वो ये कि आप अपने तकिये पर हाथ रख कर उसे संदेश दीजिए कि हे तकिया देवता, मुझे सुबह चार बजे उठा देना। मैंने इस प्रयोग को कर के देखा। आप यकीन करें या न करें, मगर मेरा अनुभव ये है कि वाकई मेरी नींद अपेक्षित समय पर अपने आप खुल जाती थी।

कुछ बड़ा होने पर मैंने इसका राज जानने की कोशिश की। जिज्ञासा थी कि क्या वाकई एक निर्जीव तकिया हमारे आदेश को मानता है? स्वाभाविक सी बात है कि ऐसा हो नहीं सकता। होता भी हो तो पता नहीं, मगर मैं जिस निष्कर्ष पहुंचा, वह आपसे साझा करता हूं। असल में तकिया एक निमित्त मात्र है। जैसे ही हम तकिये को आदेश देते हैं तो वह आदेश हमारे अंतर्मन में चला जाता है। वस्तुतः वही अंतर्मन काम करता है। जैसे एक भौतिक घड़ी है, वैसे ही हमारे भीतर एक बायलॉजिकल घड़ी है। अंतर्मन उस बायलॉजिकल घड़ी का इस्तेमाल करते हुए हमें निर्धारित समय पर जगा देता है। और हमें ये लगता है कि ऐसा तकिये ने किया है। हालांकि हम चाहें तो अपने अंतर्मन को सीधे भी आदेश दे सकते हैं, मगर वह आसान नहीं, इस कारण निमित्त के रूप में तकिये का इस्तेमाल करना पड़ता है। यह ठीक वैसे ही है, जैसे भगवान सर्वत्र है और उसको कहीं भी याद किया जा सकता है, लेकिन हम उसके लिए मंदिर जा कर मूर्ति का इस्तेमाल करते हैं। मूर्ति निमित्त मात्र है, मगर वहां का वातावरण हमें भगवान पर ध्यान केन्द्रित करने में सहायक होता है। बिना मूर्ति के भी ध्यान हो सकता है, मगर वह आसान नहीं। मन बहुत चंचल है, उसे भीतर से स्थिर करना कठिन है। इसीलिए हम बाहर की मूर्ति का इस्तेमाल करते हैं, जिस पर ध्यान केन्द्रित करना अपेक्षाकृत आसान है।

ये तो हुई तकिये की बात। मगर आपको ये तो ख्याल में होगा ही कि बिना तकिये के प्रयोग के भी सुबह एक निश्चित समय के आसपास हमारी नींद अपने आप खुल जाती है। यह काम हमारी बायलॉजिकल घड़ी करती है।

बायलॉजिकल घड़ी की बात चली है तो मेरी यह समझ भी आपसे शेयर कर लेता हूं। बाहरी घड़ी को देख कर तो हम दिन भर के काम करते ही हैं, मगर साथ ही बायलॉजिकल घड़ी भी काम करती रहती है। जैसे कि हमने यदि ये नियम बनाया कि सुबह दस बजे खाना खाना है। बायलॉजिकल घड़ी उसी हिसाब से सैट हो जाती है। कुछ दिनों बाद दस बजते ही हमें भूख लगती है। बायलॉजिकल घड़ी दस बजते ही आमाशय में मौजूद पाचक तत्त्वों को सक्रिय होने का आदेश देती है। इसीलिए कहा जाता है कि निश्चित समय पर खाना खाने पर आसानी से पचता है, क्योंकि उस समय पर भोजन को पचाने वाले रस सक्रिय होते हैं। अर्थात हम जो नियम अपने लिए बनाते हैं, वह हम पर लागू हो जाता है। एक अर्थ में वह हमें गवर्न करता है। बाध्य करता है। इसीलिए नियमितता की महिमा है। कहा जाता है न कि भगवान का ध्यान, आरती आदि निश्चित समय पर ही करनी चाहिए। उसकी वजह ये है कि निश्चित समय पर बायलॉजिकल घड़ी के आदेश से मन तुरंत एकाग्र होने के लिए तैयार हो जाता है। किसी भी वक्त ध्यान, आरती करने की तुलना में निश्चित समय पर करने से चित्त उस पर तुरंत स्थिर हो जाता है। स्वाभाविक रूप से अधिक फलदायक होता है।

नियमितता का जिक्र आया है तो एक दृष्टांत के साथ अपनी बात को पूरा करता हूं। वह कितना सच्चा है, कितना नहीं, मुझे नहीं पता, मगर यह नियमितता का अल्टीमेट उदाहरण है। एक धार्मिक व्यक्ति प्रतिदिन निश्चित समय पर जंगल में स्थित एक मंदिर में मूर्ति के आगे दीया जलाता था। उसका एक पड़ौसी, जो कि घोर नास्तिक था, वह भी नियम से रोज उस दीये को बुझा कर आ जाता था। एक दिन भयानक तूफान आया। धार्मिक व्यक्ति की हिम्मत जवाब दे गई और वह आलस्य करके घर ही बैठा रहा। नास्तिक आदमी तूफान से घबराया नहीं और पहुंच गया दीया बुझाने। मूर्ति में विराजित देवता ने उसे वरदान दिया। धार्मिक आदमी को यह पता लगा कि देवता ने नास्तिक को वरदान दिया है तो वह पहुंच गया मंदिर और मूर्ति से शिकायत की कि मैं तो रोज आपके सामने श्रद्धा से दीया जलाता हूं, जबकि नास्तिक आदमी आपका अनादर करते हुए दीया बुझा देता है, फिर भी आपने उसे वरदान क्यों दिया? इस पर मूर्ति के देवता ने जवाब दिया कि वह नास्तिक आदमी तुमसे ज्यादा नियमित है। अपने नियम की पालना करके लिए उसने तूफान की भी परवाह नहीं की। इसीलिए उससे प्रसन्न हो कर मैने उसे वरदान दिया है। 

है न दिलचस्प किस्सा। यह एक उदाहरण मात्र है, मगर इसका संदेश यही है कि हम जीवन में नियमितता लाएं। जैसे सृष्टि का नियंता सूर्य निश्चित समय पर उदय होता है और निश्चित समय पर अस्त होता है, ठीक उसी प्रकार हमें भी नियमपूर्वक रहना चाहिए।

https://www.youtube.com/watch?v=BXYLR8q7i9o&t=22s

मंगलवार, फ़रवरी 04, 2025

क्या कलंदर व झूलेलाल एक ही हैं?

 जिस गीत दमा दम मस्त कलंदर को गा और सुन कर सिंधी ही नहीं, अन्य समुदाय के लोग भी झूम उठते है, उस पर यह सवाल बना हुआ है कि क्या कलंदर व सिंधियों के आराध्य देवता झूलेलाल एक ही हैं? पाकिस्तान की मशहूर गायिका रेश्मा व बांग्लादेश की रूना लैला की जुबान से थिरक कर लोकप्रिय हुआ यह गीत किसकी महिमा या स्मृति में बना हुआ है, इसको लेकर विवाद है।

यह सर्वविदित है कि आम तौर सिंधी समुदाय के लोग अपने विभिन्न धार्मिक व सामाजिक समारोहों में इसे अपने इष्ट देश झूलेलाल की प्रार्थना के रूप में गाते हैं, लेकिन भारतीय सिंधू सभा ने खोज-खबर कर दावा किया है कि यह गीत असल में हजरत कलंदर लाल शाहबाज की तारीफ में बना हुआ है, जिसका झूलेलाल से कोई ताल्लुक नहीं है। सभा ने एक पर्चा छाप कर इसका खुलासा किया है।

पर्चे के अनुसार आम धारणा है कि यह अमरलाल, उडेरालाल या झूलेलाल अवतार की प्रशंसा या प्रार्थना के लिए यह गीत बना है। उल्लेखनीय बात है कि पूरे गीत में झूलेलाल से संदर्भित प्रसंगों का कोई जिक्र नहीं है, जैसा कि आम तौर पर किसी भी देवी-देवता की स्तुतियों, चालीसाओं व प्रार्थनाओं में हुआ करता है। सिर्फ झूलेलालण शब्द ही भ्रम पैदा करता है कि यह झूलेलाल पर बना हुआ है। असल में यह तराना पाकिस्तान स्थित सेहवण कस्बे के हजरत कलंदर लाल शाहबाज की करामात बताने के लिए बना है।

पर्चे में बताया गया है कि काफी कोशिशों के बाद भी कलंदर शाहबाज की जीवनी के बारे में कोई लिखित साहित्य नहीं मिलता। पाकिस्तान में छपी कुछ किताबों में कुछ जानकारियां मिली हैं। उनके अनुसार कलंदर लाल शाहबाज का असली नाम सैयद उस्मान मरुदी था। उनका निवास स्थान अफगानिस्तान के मरुद में था। उनका जन्म 573 हिजरी यानि 1175 ईस्वी में हुआ। उनका बचपन मरुद में ही बीता। युवा अवस्था में वे हिंदुस्तान चले आए। सबसे पहले उन्होंने मंसूर की खिदमत की। उसके बाद बहाउवलदीन जकरिया मुल्तानी के पास गए। इसके बाद हिजरी 644 यानि 1246 ईस्वी में सेवहण पहुंचे। हिजरी 650 यानि 1252 ईस्वी में उनका इंतकाल हो गया। इस हिसाब से वे कुल छह साल तक सिंध में रहे।

कुछ किताबों के अनुसार आतताइयों के हमलों से तंग आ कर मुजाहिदीन की एक जमात तैयार हुई, जो तबलीगी इस्लाम का फर्ज अदा करती थी। उसमें कलंदरों का जिक्र आता था। आतताइयों में से विशेष रूप से चंगेज खान, हलाकु, तले और अन्य इस्लामी सुल्तानों पर चढ़ाई कर तबाही मचाई थी। इसमें मरिवि शहर का जिक्र भी है, जो शाहबाज कलंदर का शहर है। कलंदर शाह हमलों के कारण वहां से निकल कर हिंदुस्तान आए। वे मुल्तान से होते हुए 662 हिजरी में सेवहण आए और 673 में उनका वफात हुआ। यानि वे सेवहण में 11 साल से ज्यादा नहीं रहे। इस प्रकार उनके सेहवण में रहने की अवधि और वफात को लेकर मत भिन्नता है। पर्चे के अनुसार सेवहण शहर पुराना है। कई संस्कृतियों का संगम रहा। वहीं से सेवहाणी कल्चर निकल कर आया, जिसकी पहचान बेफिक्रों का कल्चर के रूप में थी। यह शहर धर्म परिवर्तन का भी खास मरकज रहा। इसी सिलसिले में बताया जाता है कि वहां एक सबसे बड़े शेख हुए उस्मान मरुंदी थे, जिन्हें लाल शाहबाज कलंदर के नाम से भी याद किया जाता है।

पर्चे में बताया गया है कि शाह कलंदर का आस्ताना सेवहण में जिस जगह है, वहां पहले शिव मंदिर था। वहां पर हर वक्त अलाव जलता रहता था, जिसे मुसलमान अली साईं का मच कहते थे। यह शहर जब सेवहण में शाह कलंदर का वफात हुआ तो हिंदुओं ने उनको अपने मुख्य मंदिर में दफन करने की इजाजत दी। बाद में वहां के पुजारी भी उनके मलंग हो गए। इस पर्चे के जरिए यह साबित करने की कोशिश की गई है कि कलंदर शाहबाज इस्लाम के प्रचारक थे। इसी को आधार बना कर सिंधी समुदाय को आगाह किया गया है कि भला इस्लाम के प्रचारक और धर्म परिवर्तन की खिलाफत करने वाले झूलेलाल एक कैसे हो सकते हैं। एक और शंका ये है कि यदि दोनों एक हैं तो इस गीत को केवल सिंधी ही क्यों गाते हैं, मुस्लिम क्यों नहीं? क्या इसकी वजह केवल इतनी है कि यह सिंधी भाषा में है?

अलबत्ता परचे में इसे जरूर स्वीकार किया गया है कि दमा दम मस्त कलंदर अकीदत से गाने से मुरादें पूरी होती हैं। आम धारणा है कि सात वर्ष की उम्र में उन्होंने कुरआन को जुबानी याद कर लिया था। यह भी पक्का है कि उनको अरबी व फारसी के साथ उर्दू जीनत जुबान भी बोलते थे। पूरी उम्र उन्होंने शादी नहीं की। उनके मन को जर और जमीन भी मैला नहीं कर पाए। अन्य दरवेश तो बादशाहों के नजराने कबूल कर लेते थे, मगर शाह कलंदर उस ओर आंख उठा कर भी नहीं देखते थे।

पर्चे में यह स्पष्ट नहीं है कि दमा दम मस्त कलंदर गीत में झूलेलालण शब्द कैसे शामिल हो गया, जिसकी वजह से सिंधी समुदाय के लोग इसे श्रद्धा के साथ गाते हैं। बहरहाल यह इतिहासविदों की खोज का विषय है कि शाहबाज कलंदर को झूलेलाल क्यों कहा गया है।

इस सिलसिले में अजमेर में भी असमंजस हो चुका है। बात थोड़ी पुरानी है, मगर चूंकि इसी विवाद से जुड़ी हुई है, इस वजह से यहां जिक्र कर रहा हूं। मौलाई कमेटी के कन्वीनर सैयद अब्दुल गनी गुर्देजी की ओर से पिछले कई साल से चेटीचंड के मौके पर सिंधी समुदाय का हार्दिक अभिनंदन करने के लिए एक पर्चा जारी करते रहे हैं। इसमें उल्लेख था कि सिंधी समाज के आराध्यदेव झूलेलाल जी को ही मुसलमान सखी शाहबाज कलंदर या लाल शाहबाज कलंदर कहते हैं। इस पर 23 नवंबर 2004 को दैनिक भास्कर में मेरी बाईलाइन खबर के अनुसार जब उनसे पूछा गया कि वे किस आधार पर दोनों को एक बताते हैं तो उनका कहना था कि उन्हें कोई जानकारी नहीं है कि दोनों में कोई फर्क है या गाने को लेकर कोई विवाद है। न ही किसी सिंधी भाई ने कभी ऐतराज किया। वे तो महज भाईचारे के लिए पर्चा छपवाते हैं।

https://www.youtube.com/watch?v=COszpBXQYzA


सोमवार, फ़रवरी 03, 2025

इस्लाम में भी है भूतों से बचाव का उपाय

जिस तरह हिंदू मतावलंबियों में भूत-पिशाच इत्यादि से बचाव के लिए हनुमान चालीसा व रामचरित मानस के सुंदर कांड का पाठ करने की परंपरा है, उसी प्रकार इस्लाम को मानने वाले भी भूत-प्रेत को दूर भगाने का उपाय करते हैं। कदाचित सभी मुस्लिमों को उस उपाय के बारे में जानकारी होगी क्योंकि मदरसे की शुरुआती तालीम में ही इसका रियाज करवाया जाता है, मगर शायद हिंदुओं को इसकी जानकारी न हो।

सर्वविदित है कि जब भी कोई शुभ काम करते हैं तो उसमें बाधा न आने के लिए कई लोग सुंदरकांड का पाठ करवाते हैं। इसी प्रकार जब भी किसी स्थान पर भय प्रतीत हो तो हनुमान चालीसा का पाठ करने की सलाह दी जाती है, ताकि वहां मौजूद दुष्टात्माएं भाग जाएं। हनुमान चालीसा में ही लिखा है कि भूत-पिशाच निकट नहीं आवे, महावीर जब नाम सुनावे। स्वाभाविक रूप से यह आम जिज्ञासा होती होगी कि मुस्लिम ऐसी स्थिति में क्या करते हैं?

इस्लाम के जानकारों का कहना है कि मखलूकात आपको कोई नुकसान न पहुंचा पाएं, इसके लिए कुरान की एक आयत का तीन बार पाठ करना चाहिए। उस आयत का नाम है आयतुल कुर्सी। उसमें दस जुमले हैं। इस्लाम के जानकार बताते हैं कि आयतुल कुर्सी कुरान की सब से अज़ीम तरीन आयत है। 

हदीस में इस आयत को तमाम आयातों से अफजल फऱमाया है। सूरह बकरा की यह आयत कुरान की तमाम आयातों की सरदार है, जिस घर में पढ़ी जाती है, शैतान वहां से निकल जाता है।

स्वाभाविक रूप से वह आयत मूलतः अरबी लिपी में है। 

आयत इस प्रकार है-

1. अल्लाहु ला इलाहा इल्लाहू

2. अल हय्युल क़य्यूम

3. ला तअ खुज़ुहू सिनतुव वला नौम

4. लहू मा फिस सामावाति वमा फ़िल अर्ज़

5. मन ज़ल लज़ी यश फ़ऊ इन्दहू इल्ला बि इजनिह

6. यअलमु मा बैना अयदी हिम वमा खल्फहुम

7. वला युहीतूना बिशय इम मिन इल्मिही इल्ला बिमा शा..अ

8. वसिअ कुरसिय्यु हुस समावति वल अर्ज़

9. वला यऊ दुहू हिफ्ज़ुहुमा

10. वहुवल अलिय्युल अज़ीम


उसका तर्जुमा इस प्रकार है:-

1. अल्लाह जिसके सिवा कोई माबूद नहीं।

2. वही हमेशा जिंदा और बाकी रहने वाला है।

3. न उसको ऊंघ आती है न नींद।

4. जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में है सब उसी का है।

5. कौन है जो बगैर उसकी इजाज़त के उसकी सिफारिश कर सके।

6. वो उसे भी जनता है जो मखलूकात के सामने है और उसे भी जो उन से ओझल है।

7. बन्दे उसके इल्म का जऱा भी इहाता नहीं कर सकते सिवाए उन बातों के इल्म के जो खुद अल्लाह देना चाहे।

8. उसकी ( हुकूमत ) की कुर्सी ज़मीन और असमान को घेरे हुए है।

9. ज़मीनों आसमान की हिफाज़त उसपर दुशवार नहीं।

10. वह बहुत बलंद और अज़ीम ज़ात है।

असल में इस आयत की जानकारी मुझे यूट्यूब पर हॉरर शो चलाने वाले चंद व्लागर के एपीसोड से मिली। इनमें ऊपरी हवाओं से ग्रसित हवेलियों या स्थानों की छानबीन के दौरान वे इस आयत का निरंतर पाठ करते हैं। उनका दावा है कि इससे वे मखलूकात से बचे रहते हैं। इस बारे में विस्तार से जानकारी मुझे मेरी एक परिचित विदूषी डॉ. फरगाना से हासिल हुई। वे अध्यात्म की एक अलग ही दुनिया में विचरण करती हैं। जानकारी काफी दिलचस्प लगी, लिहाजा आप सुधि पाठकों के साथ साझा कर रहा हूं। 

एक बेहद रोचक जानकारी ये भी हुई कि जब व्लागर किसी अभिशप्त स्थान पर विजिट करते हैं तो बाकायदा उन मखलूकात से अल्लाह का हवाला देते हुए आग्रह करते हैं कि उन्हें बिना कोई नुकसान पहुंचाते हुए दौरा करने दें। बड़े अदब के साथ ये भी विनती करती हैं कि चूंकि आप अदृश्य हैं, लिहाजा अपने बच्चों को रास्ते से हटा लें, ताकि उनको चोट न लगे। 

इस सिलसिले में आपको जानकारी होगी कि जब भी हम घर से बाहर किसी खुले स्थान पर लघुशंका करते हैं तो कुछ आवाज करते हैं अथवा खंखारते हैं या हनुमान जी का स्मरण करते हैं, ताकि अगर वहां कोई भूत इत्यादि हो तो वह वहां से हट जाए। विशेष रूप से इस बात का ख्याल रखते हैं कि किसी पेड़ या झाड़ी के नीचे लघुशंका नहीं करते, क्योंकि वहां भूत-प्रेत आदि के वास की संभावना होती है।

https://www.youtube.com/watch?v=NR0qCOZMHDs&t=35s

रविवार, फ़रवरी 02, 2025

किसी के लिए दुआ मांगने से खुद के संचित पुण्य का क्षय होता है?

हिंदू, इस्लाम, बौद्ध धर्म और कई अन्य परंपराओं में दुआ या प्रार्थना को सकारात्मक और पुण्यकारी कर्म माना गया है। किसी और के लिए दुआ करना या उनकी भलाई की कामना करना आमतौर पर निस्वार्थता और परोपकार का प्रतीक होता है। कर्म सिद्धांत के अनुसार, किसी के लिए शुभकामना या प्रार्थना करना एक सकारात्मक कर्म है, जो अच्छे फल देता है। यह एक अच्छे कर्म के रूप में जुड़ता है। सर्वे भवन्तु सुखिनः जैसी प्रार्थनाएं दूसरों की भलाई के लिए की जाती हैं और इसे उच्च पुण्य कर्म माना गया है। इसी प्रकार इस्लाम में किसी के लिए दुआ करना  यानि दूसरे के लिए अल्लाह से प्रार्थना करना इबादत का हिस्सा है और इसे एक नेक काम माना जाता है। तभी तो कहते हैं कि दुआ में याद रखना।

मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो दूसरों के लिए प्रार्थना करने से आपके भीतर सकारात्मकता और करुणा का विकास होता है। यह आपको मानसिक शांति और संतोष प्रदान करता है। जब आप दूसरों के लिए प्रार्थना करते हैं, तो यह ब्रह्मांडीय ऊर्जा के प्रवाह को बढ़ाता है, जो अंततः आपको भी लाभ पहुंचाती है। इन सब से भिन्न एक नजरिया मेरी जानकारी में आया तो मैं चकित रह गया। अध्यात्म के बारे में गहन जानकारी रखने वाली एक विदुशी ने बताया जब तक बहुत जरूरी न हो, किसी के लिए दुआ नहीं मांगे। उनकी मान्यता है कि जब हम किसी के लिए दुआ मांगते हैं, तो हमारे संचित पुण्य का क्षय होता है। उनका तर्क था कि जैसे हम अपने किसी प्रिय के लिए दुआ करते हैं कि मेरी उम्र भी उसे लग जाए, तो यह ऐसी ही कीमिया है कि हमारी उम्र दूसरे में षिफ्ट हो जाए। यह ठीक ऐसे ही है, जैसे हम किसी को दस रूपये दान में दें, तो हमारे कोश में दस रूपये की कमी होगी ही। मैं उनके नजरिये से सहमत नहीं हो पाया। लेकिन अब भी यह विचार आता है कि क्या आत्म कल्याण के इच्छुक व्यक्ति के वाकई किसी के लिए दुआ मांगने से उसके पुण्य में क्षय हो सकता है।

https://youtu.be/KJ5N8KUBi3E


शनिवार, फ़रवरी 01, 2025

अच्छे लोगों को भगवान अपने पास जल्दी बुला लेता है?

आम तौर पर यदि किसी सज्जन व्यक्ति का कम उम्र में ही देहावसान हो जाता है तो यही कहा जाता है कि भगवान अच्छे लोगों को अपने पास जल्द बुला लेता है। अनेक उदाहरण ऐसे हैं भी, मगर इस धारणा का आधार क्या है, इसको लेकर सवाल उठते हैं। ऐसी क्या वजह है कि भगवान अच्छे लोगों की उम्र कम ही रखता है? उसका भला क्या प्रयोजन हो सकता है? यदि इस धारणा को सही मानें तो सवाल ये भी उठता है कि जिनकी उम्र अधिक होती है तो क्या वे बुरे होते हैं? इसके विपरीत हमारे यहां तो अधिक उम्र वालों को सौभाग्यशाली माना जाता है। यदि कोई अपने जीवन में पड़पोता या पड़पोती देखे तो उसे बहुत ही भाग्यवान मानते हैं। अधिक उम्र अच्छी होती है, इसी कारण तो हम लोग चिरायु होने की कामना करते हैं, लंबी उम्र की दुआ करते हैं। हमें पता है कि मनुष्य की अधिकतम उम्र एक सौ साल की होती है, फिर भी हम किसी के जन्मदिन पर तुम जीयो हजारों साल की शुभेच्छा जाहिर करते हैं। कदाचित मृत्यु के बाद भी कीर्ति पताका वर्षों तक फहराने के भाव से ऐसा किया जाता होगा।

शास्त्रों व पुराणों में कई ऋषियों के हजारों साल तक जीने के प्रसंग आते हैं। शास्त्रानुसार यह भी स्थापित तथ्य है कि हनुमानजी चिरंजीवी हैं। बताते हैं कि सीता माता ने हनुमानजी को लंका की अशोक वाटिका में राम का संदेश सुनने के बाद आशीर्वाद दिया था कि वे अजर-अमर रहेंगे। यानि कि वे चिरयुवा भी हैं। मान्यता है कि जहां भी भक्ति-भाव से भगवान राम की पूजा-अर्चना होती है, हनुमानजी वहां विद्यमान होते हैं। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा को चिरकाल तक पृथ्वी पर भटकते रहने का श्राप दिया था। वे आज भी पृथ्वी पर अपनी मुक्ति के लिए भटक रहे हैं। इसी प्रकार ऋषि मार्कण्डेय, भगवान वेद व्यास, भगवान परशुराम, राजा बलि, विभीषण और कृपाचार्य भी चिरंजीवी माने जाते हैं।

बहरहाल, अब मौलिक सवाल पर आते हैं। एक ओर हम ये मानते हैं कि भगवान अच्छे लोगों को अपने पास जल्दी बुला लेते हैं तो दूसरी ओर चिरायु होने को अच्छा माना जाता है। है न अजीबोगरीब विरोधाभास। 

ऐसा प्रतीत होता है कि केवल मन की संतुष्टि के लिए ऐसा कहा जाता है कि अच्छे लोगों के परिजन को सांत्वना देने के लिए यह कहा जाता है कि भगवान अच्छे लोगों को जल्द बुला लेता है। सच तो ये है कि मृत्यु का अच्छे या बुरे होने से कोई ताल्लुक नहीं है।

https://www.youtube.com/watch?v=PYIdyeNMAN8

गुरुवार, जनवरी 30, 2025

क्या मूर्ति में शक्ति होती है?

हिंदू संस्कृति में मूर्ति पूजा का बड़ा महत्व है। अधिसंख्य हिंदू मंदिर जाते हैं और मूर्ति पूजा करते हैं। मूर्ति के सामने खड़े हो कर सच्चे दिल से पूजा-अर्चना व आराधना करने से इच्छा की पूर्ति होती है, यह भी पक्की धारणा है। न केवल धारणा है, अपितु ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे, जिनसे प्रमाणित हो सकता है कि मूर्ति पूजा करने से इच्छित फल मिलता है। बावजूद इसके हिंदू संस्कृति की ही एक शाखा आर्य समाज मूर्ति पूजा में यकीन नहीं रखता। सच क्या है, जरा विचार कर के देखें।

असल में आर्य समाज के प्रवर्तक महर्षि दयानंद सरस्वती ने केवल इसी कारण मूर्ति पूजा का निषेध कर दिया कि मूर्ति में प्रतिष्ठित जो देवता या भगवान खुद अपनी रक्षा नहीं कर सकता, वह भला हमारा भला क्या करेगा? ऐसा ख्याल उनमें मन में तब आया, जब उन्होंने देखा कि एक मंदिर में मूर्ति पर एक चूहा चढ़ कर मस्ती कर रहा है और मूर्ति के सामने रखा प्रसाद खा रहा है। तब उनकी सोच बनी कि एक चूहे से मूर्ति अपनी रक्षा नहीं कर पा रही है तो मूर्ति की पूजा करने से क्या लाभ? तार्किक ढंग से यह बात सही प्रतीत होती है।

इसी कड़ी में हमारी यह भी जानकारी है कि मुस्लिम आतताइयों ने देश के अनेक स्थानों पर मंदिर ध्वस्त किए, मूर्तियां तोड़ीं, मगर उनका कुछ भी नहीं बिगड़ा। मूर्तियां अपनी ही रक्षा नहीं कर पाईं। ऐसे में यह सवाल तो उठता ही है कि क्या वाकई मूर्ति में कोई शक्ति नहीं होती? बावजूद इसके  मूर्तियों में अधिसंख्य हिंदुओं की प्रगाढ़ आस्था है। अनेक ऐसी मूर्तियां संज्ञान में हैं, जिनके बारे में मान्यता है कि वे चमत्कारी हैं। ज्यादा दूर नहीं जाते। निकटवर्ती नागौर जिले में मेड़ता के पास गांव में बंवाल माता का मंदिर है। यहां देवी की मूर्ति श्रद्धालुओं के सामने ढ़ाई प्याला शराब पीती है। बताते हैं कि कई वैज्ञानिकों ने उसकी जांच-पड़ताल की, मगर वे यह नहीं पकड़ पाए कि वहां कोई चालबाजी तो नहीं है। स्वयं मैंने देखा है कि देवी मां ढ़ाई प्याला शराब पीती है। रहस्य क्या है, कुछ पता नहीं। दिलचस्प बात ये है कि जिस श्रद्धालु के पास में तंबाकू होती है, उसकी शराब मूर्ति ग्रहण नहीं करती। इसको भी मैने आजमाया, तो सच निकला। ऐसी मान्यता है कि जिस श्रद्धालु का शराब रूपी प्रसाद देवी मां ग्रहण करती है, उसकी मनोकामना पूरी होती है। जिसका ग्रहण नहीं करती, उसके बारे में यह मान्यता है कि अभी देवी उससे प्रसन्न नहीं है। 

बात लंबी हो रही है, मगर प्रसंगवश बताना चाहता हूं कि कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिनकी मान्यता है कि शिव जी, देवी मां, हनुमान जी, गणेश जी आदि देवताओं के अतिरिक्त लोक देवता बाबा रामदेव, भैरों जी, गोगा जी आदि तो त्वरित फल देते हैं, जबकि भगवान श्रीकृष्ण व भगवान श्री राम फल नहीं देते, अलबत्ता वे आत्म कल्याण जरूर करते हैं। चूंकि हमारी रुचि भौतिक उपलब्धियों में होती है, इसी कारण देवताओं की आराधना हम ज्यादा करते हैं। इस धारणा की पुष्टि इससे होती है कि देवताओं के तो अनेकानेक मंदिर हैं, जबकि भगवान श्री राम व भगवान श्री कृष्ण के मंदिर कम हैं।

खैर, मुद्दे पर आते हैं। सवाल ये कि क्या मूर्ति में शक्ति होती है? होनी तो चाहिए, क्योंकि मूर्ति निर्जीव पत्थर या धातु की होती है, इस कारण उनकी बाकायदा विधि-विधान से प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। प्राण प्रतिष्ठा के बाद तो एक अर्थ में वह सजीव हो जाती है। उसमें ताकत होनी ही चाहिए।  मगर फिर वही सवाल कि तो फिर वे अपनी रक्षा क्यों नहीं कर पाती? यानि कि कौतुहल बरकरार है। 

मूर्ति में शक्ति होती है, इस धारणा को बड़े पैमाने पर तब बल मिला, जब कुछ साल पहले पूरे देश में गणेश जी की मूर्तियों ने दूध पिया था। हालांकि उसकी वैज्ञानिक विवेचना भी हुई, आलोचना भी हुई। दूसरी ओर न्यायाधीशों व आईएएस अधिकारी स्तर के बुद्धिजीवियों ने भी गणेश जी को दूध पिलाया। बड़ी बहस हुई। किसी ने उसे अंध श्रद्धा करार दिया तो किसी ने वैज्ञानिक कारण बताए। हालांकि निष्कर्ष कुछ नहीं निकला। 

मुझे ऐसा लगता है कि मूर्ति में अपने आप में ताकत नहीं होती। सारा रहस्य आस्था में है। हम जब उस पर ध्यान केन्द्रित करते हैं तो हमारी आत्मिक शक्ति उसमें प्रतिबिंबित होती है। वही आत्मिक शक्ति पलट कर चमत्कार करती है और हमें ये लगता है कि मूर्ति ने चमत्कार किया है। जिस मूर्ति की बहुत अधिक मान्यता होती है, वहां चमत्कार की संभावना इसलिए बढ़ जाती है, क्यों कि वहां बहुत अधिक लोगों की आत्मिक शक्ति मूर्ति पर केन्द्रित होती है।

ऐसा भी हो सकता है कि भौतिक या त्वरित चमत्कार मूर्ति से नहीं होते होंगे। हम अपेक्षा करें कि वह हम मानवों की ही तरह व्यवहार करे तो यह संभव नहीं है। हां, उसमें धारणा करें तो वह अदृश्य रूप से फल देती होगी।

मूर्ति ही क्यों, किसी स्थान व मजारों आदि पर भी लोग इसी प्रयोजन मत्था टेकते हैं कि वहां मनोकामना पूरी होगी। आप देख सकते हैं कि कभी-कभी अजमेर की दरगाह ख्वाजा साहब के सामने कोई फकीर या कलंदर खड़ा हो कर सवाल करता है और तब तक डटा रहता है, जब तक वह सवाल पूरा नहीं होता। यह हठ योग है। ऐसे हठियों की मनोकामना भी पूरी होती ही है। हालांकि इसका साइंस कुछ और है।

आखिर में एक बात जरूर कहना चाहता हूं। वस्तुतः यह प्रकृति चूंकि विरोधी तत्त्वों से मिल कर बनी है, इस कारण इसमें विरोधाभास भी खूब हैं। यह इतनी रहस्यपूर्ण है कि हम इसकी थाह नहीं पा सकते। यहां कुछ भी अंतिम सत्य नहीं है। जिसे हम सत्य मानते हैं, वही देश, काल, परिस्थिति बदलने पर असत्य हो जाता है। मेरे कहने का तात्पर्य ये है कि हम न तो ये कह सकते हैं कि मूर्ति में शक्ति होती है और न ये कि वह केवल पत्थर है। कहीं है तो कहीं नहीं है। कभी है तो कभी नहीं। तभी तो जब मूर्ति के सामने कामना करने पर पूरी होती है तो कहते हैं कि वह चमत्कारी है और पूरी नहीं होती तो मूर्ति को दोष देने की बजाय खुद को जिम्मेदार मानते हैं कि हमारी श्रद्धा में ही कमी रह गई होगी।

मुझ अज्ञानी व अल्पबुद्धि को मूर्ति के रहस्य के बारे में जो कुछ समझ में आया है, वह साझा किया है। वास्तविक रहस्य क्या है, उसके आगे मैं सरंडर करता हूं। नेति नेति नेति।

https://www.youtube.com/watch?v=nFJzs_RS9gE&t=6s

बुधवार, जनवरी 29, 2025

जिसे दुबारा शादी करनी है, वह पत्नी की अंत्येष्टि में भाग नहीं लेता

आम तौर पर जिस भी युवा व्यक्ति की पत्नी की मृत्यु हो जाती है, तो वह दुबारा शादी करने का विचार रखता है। यदि बच्चे न हों तो करता भी है। यदि उसका विचार न भी हो तो भी रिश्तेदार उस पर दबाव बनाते हैं कि वह दुबारा विवाह कर ले। क्या आपको जानकारी है कि पत्नी के निधन पर फिर विवाह करने का इच्छुक पति, पत्नी की अंत्येष्टि में भाग नहीं लेता। समझा जा सकता है कि ऐसा करके वह अपने संबंधियों व परिचितों को यह संदेश देता है कि वह फिर विवाह करना चाहता है, लिहाजा उसके लिए किसी युवती की तलाश की जाए। हालांकि पत्नी की अंत्येष्टि में भाग न लेना पति के लिए कितना कष्टप्रद है, यह वह ही समझ सकता है, मगर बुजुर्ग उसे सलाह देते हैं कि वह अंतिम संस्कार में न जाए, ताकि फिर शादी का रास्ता खुला रहे, फिर भले ही बाद में वह न करे।

इस सिलसिले मैने ज्योतिष में रुचि रखने कुछ लोगों से चर्चा की तो उन्होंने कुछ अलग ही मत प्रकट किया। उनका कहना था कि यदि किसी आदमी की जन्म कुंडली में दो शादियों का योग हो, तो भी अंत्येष्टि में भाग लेने के बाद दूसरी शादी का योग नष्ट हो जाता है। उसके बाद यदि वह चाहे तो भी उसकी दूसरी शादी नहीं हो सकती। अगर अंत्येष्टि में भाग नहीं लेता तो वैवाहिक संभावना का वर्तुल अधूरा ही रह जाता है, वैक्यूम रह जाता है और वह दूसरी शादी कर सकता है। उसमें बाधा नहीं आती। एक अन्य जानकार ने अलग ही मिथ बताया। वो यह कि जब पति अंत्येष्टि के दौरान उपस्थित नहीं होता तो देह संस्कार के दौरान पत्नी की आत्मा को पति के न दिखाई देने पर उससे संबंध विच्छेद हो जाता है। ऐसे में जब वह दूसरी शादी करता है तो पूर्व पत्नी की आत्मा उसे परेशान नहीं करती। वैसे इसके अपवाद भी हैं कि किसी को पत्नी की अंत्येष्टि में भाग लेने से मना किया गया, मगर वह नहीं माना। बाद में उसकी दुबारा शादी हो गई। 

https://www.youtube.com/watch?v=rRmcMEuplmo&t=79s

मंगलवार, जनवरी 28, 2025

कपाल क्रिया के दौरान जगह क्यों छोड़ते हैं?

आपने देखा होगा कि जब हम किसी की अंत्येष्टि में जाते हैं तो कपाल क्रिया के दौरान लोग एक-दूसरे को जगह छोडऩे को कहते हैं, अर्थात जिस स्थान पर हम बैठे होते हैं, उसे बदलने को कहा जाता है। सभी ऐसा करते भी हैं। मैने इस बारे में अनेक लोगों से बात की कि जगह क्यों छोड़ी जाती है, मगर किसी को यह जानकारी नहीं है कि इसकी वजह क्या है? अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए मैंने अनेक पुस्तकें खंगाली। मुझे याद नहीं कि इस बारे में कहां पढ़ा, मगर इस बारे में इशारा करती कुछ बातें मेरे ख्याल में है।

ऐसी मान्यता है कि अंत्येष्टि के दौरान मृत आत्मा देह में ही कपाल के भीतर ब्रह्मरंद्र में होती है। कपाल की हड्डी चूंकि बहुत मजबूत होती है, इस कारण उस पर घी डाल कर उसे तोड़ा जाता है। बताते हैं कि कपाल क्रिया करने पर ही आत्मा की देह से मुक्ति होती है। देह से मुक्त उसे इसलिए किया जाता है, ताकि वह आगे की यात्रा को प्रस्थान करे। कपाल क्रिया से पहले तक उसका अटैचमेंट न केवल अपने जलते शरीर से अपितु आसपास के दृश्य भी होता है। उस अटैचमेंट को समाप्त करने के लिए श्मशान में मौजूद सभी लोग कपाल क्रिया होते ही अपनी-अपनी जगह छोड़ कर दूसरी जगह पर बैठते हैं और नया दृश्य बन जाता है। एक झटके में जब पुराना दृश्य आत्मा को नहीं दिखाई देता तो स्वाभाविक रूप से उसका श्मशान स्थल से डिटेचमेंट हो जाता है। यानि कि यदि दृश्य नहीं बदला जाए तो आत्मा का पुराने दृश्य से संबंध बना रहेगा और वह श्मशान स्थल से मुक्त नहीं हो पएगी। हम समझ सकते हैं कि वर्षों तक भौतिक शरीर व दुनिया में रहते हुए हमारा कितना गहरा संबंध हो जाता है। शरीर जलने के बाद आत्मा यहीं अटकी रहना चाहती है। उसे जबरन कपाल से मुक्त कराना होता है। इतना ही अंत्येष्टि के दौरान मौजूद दृश्य से भी उसका संबंध विच्छेद कराने का प्रयास करना होता है। यह मेरी नजर में बैठा तथ्य है, हो सकता है वास्तविकता कुछ और हो। मेरा यह दावा नहीं कि मैं ही सही हूं।

आपने देखा होगा कि अंत्येष्टि के बाद जब परिजन घर लौटते हैं तो कपाल क्रिया करने वाला देहलीज पर मृत आत्मा से अपने संबंधी का षब्द जोर से उच्चारण करता है। जैसे पिताजी, बाबोसा, दादाजी इत्यादि। इस का कारण जानने की मैंने बहुत कोशिश की है, मगर अभी तक जानकारी नहीं मिल पाई है। हो सकता है, ऐसा मृत आत्मा का आह्वान करने के लिए किया जाता हो ताकि वह श्मशान के बाद घर पर आ जाए। शास्त्रों में बताया गया है कि तेरह दिन पर आत्मा का वास घर में ही रहता है। उसके बाद की यात्राओं का वर्णन गरुण पुराण सहित अन्य शास्त्रों में मौजूद है।

https://www.youtube.com/watch?v=6V_ouuh_gf0&t=3s