तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

सोमवार, दिसंबर 08, 2025

मुस्लिम तीन बार गले क्यों मिलते हैं?

आम तौर पर आपने देखा होगा कि ईद या अन्य मौकों पर मुस्लिम एक दूसरे को षुभकामना देते हैं, तो तीन बार गले मिलते हैं। यह रवायत क्यों है? क्या एक बार ही गले मिलना पर्याप्त नहीं है? 

जानकार लोग बताते हैं कि असल में मुसलमानों के तीन बार गले मिलने की परंपरा इस्लामी शिक्षाओं में सीधे अनिवार्य नहीं है, लेकिन यह एक सामाजिक और सांस्कृतिक परंपरा बन गई है, विशेषकर ईद जैसे त्योहारों पर। इसके पीछे कुछ मानवीय, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक कारण होते हैं। पहली बार गले मिलना एक-दूसरे से मिलने की खुशी व्यक्त करना। दूसरी बार दिलों में आपसी रंजिश मिटाना। तीसरी बार आपसी संबंध को मजबूत करना और दुआ देना। यह मानवीय भावनाओं को दर्शाता है कि हम सिर्फ औपचारिकता नहीं, बल्कि दिल से एक-दूसरे से जुड़े हैं। हालाँकि तीन बार गले मिलना कुरान या हदीस में अनिवार्य नहीं बताया गया, लेकिन भारतीय उपमहाद्वीप और कुछ अन्य जगहों पर यह रिवाज के तौर पर विकसित हो गया है। यह व्यक्ति को यह अनुभव कराता है कि सामने वाला उसे सचमुच अहमियत दे रहा है। कुल जमा यह इस्लाम का धार्मिक आदेश नहीं है, बल्कि एक सामाजिक रिवाज है, जो खासकर भारतीय, पाकिस्तानी, बांग्लादेशी मुसलमानों में ज्यादा प्रचलित है। दुनिया के कई मुस्लिम देशों में लोग एक ही बार गले मिलते हैं या सिर्फ सलाम करके मुबारकबाद दे देते हैं।

चर्चा के दौरान अंजुमन दरगाह तारागढ के सचिव सैयद रब नवाज ने जानकारी दी कि कोई नियम नहीं है, मगर षीया समुदाय में परंपरागत रूप से दो बार गले मिलने की परंपरा है। 


शुक्रवार, नवंबर 21, 2025

क्या गायब हुआ जा सकता है?

गायब या अंतर्ध्यान शब्द के मायने है, अदृश्य होना। इसका उल्लेख आपने शास्त्रों, पुराणों आदि में सुना होगा। अनेक देवी-देवताओं, महामानवों व ऋषि-मुनियों से जुड़े प्रसंगों में इसका विवरण है कि वे आह्वान करने पर प्रकट भी होते हैं, साक्षात दिखाई देते हैं और अंतर्ध्यान भी हो जाते हैं। मौजूदा वैज्ञानिक युग में यह वाकई अविश्वनीय है। विज्ञान आज तक भी इस पुरातन कला को समझ नहीं पाया है। हालांकि कुछ वैज्ञानिकों ने इस पर काम किया है और सिद्धांततः यह मानते हैं कि ऐसा संभव है, मगर कोई भी ऐसा कर नहीं पाया है। बताते हैं कि ओशो ने दुनिया के चंद शीर्ष वैज्ञानिकों की टीम बना कर इस पर काम किया था और उन्हें पूरी उम्मीद थी कि कामयाबी मिल जाएगी।

इस बारे में उपलब्ध जानकारी के अनुसार वैज्ञानिक नैनो किरणों पर काम कर रहे हैं। इस सिलसिले में एक लबादा बनाने की कोशिश की जा रही है, जिसे पहनने के बाद उस पर नैनो किरणें डालने पर दिखाई देना बंद हो जाता है। कुछ वैज्ञानिक इस पर भी काम कर रहे हैं कि विशेष तापमान व दबाव यदि मनुष्य के आसपास क्रियेट किया जाए तो वह अदृश्य हो सकता है। कुछ प्रयोग कनाडा, जापान और अमेरिका में चल रहे हैं। जापान के वैज्ञानिक डॉ. सुसुमु ताची ने ऐसा “इनविजिबिलिटी क्लोक” बनाया था, जो कैमरा और प्रोजेक्टर से पीछे की पृष्ठभूमि को आगे दिखा देता है। यानी पहनने वाला लगभग गायब सा दिखाई देता है। यह तकनीक कुछ सैन्य वाहनों और ड्रोन में प्रयोग की जा रही है। यह परिवेश के रंग और प्रकाश को नकल कर आंखों को भ्रमित करती है।

जानकारी के अनुसार एक उपकरण बनाया जा चुका है, जिसके भीतर रखी वस्तु एक दिशा से तो दिखाई देती है, मगर दूसरी दिशा से नहीं दिखाई देती। एक उपकरण, जिसका नाम फोटोनिक क्रिस्टल बताया गया है, वह वस्तुओं को दिखाई देने में बाधक बनता है, अर्थात अदृश्य कर देता है। प्रसंगवश एक शब्द ख्याल में आता है- मृग मरीचिका। कहते हैं न कि रेगिस्तान में तेज धूप में किरणों की तरंगों में दूर से हिरण को ऐसा आभास होता है कि वहां समुद्र है या पानी है, जबकि वास्तव में ऐसा होता नहीं है। अर्थात हिरण को दृष्टि भ्रम होता है। हो सकता है कि कल इसी प्रकार का दृष्टि भ्रम बना कर आदमी को अदृश्य किया जा सके। 

एक जानकारी ये भी है कि देवी देवता सशरीर प्रकट हो सकते हैं, जो कि पंचमहाभूत से बने हैं, मगर अन्य आत्माएं वायु अथवा प्रकाश के रूप में विचरण करती हैं और उसका आभास भी करवा सकती हैं। भारतीय ग्रंथों में कई पात्रों के अदृश्य होने का उल्लेख मिलता है। जैसे हनुमानजी, जो इच्छा से आकार बदल सकते थे (सूक्ष्म रूप धारण करना)। 

बताते हैं कि हिमालयों की पहाडियों में एक जड़ी पाई जाती है, जिसे मुंह में रखने पर आदमी दिखाई देना बंद हो जाता है। मगर इसके भी प्रमाणिक उदाहरण हमारे संज्ञान में नहीं हैं। इसी प्रकार जनश्रुति है कि एक पक्षी विशेष का पंख अपने पास रखने वाला व्यक्ति दूसरों को दिखाई नहीं देता, मगर इसके भी पुख्ता सबूत नहीं मिले हैं।

गायब हो जाने के संबंध में कुछ रहस्यमयी किस्से जानकारी में आए हैं। बताते हैं कि एक महिला क्रिस्टीन जांसटन और उनके पति एलन जांसटन 1975 की गर्मियों में उत्तरी ध्रुव की यात्रा पर गए थे। वहां एलन अचानक गायब हो गए। बाद में पुलिस तेज घ्रांण शक्ति वाले कुत्ते ले कर खोजने गई तो जिस स्थान से एलन गायब हुए थे, वहां पर आ कर कुत्ते रुक गए। 

एक किस्सा ये भी है। अमेरिका के टेनेसी स्थित गैलेटिन के निवासी डेविड लांग 23 सितम्बर, 1808 को दोपहर में घर से बाहर निकले। उनकी मुलाकात उनके एक न्यायाधीश मित्र आगस्टस पीक से हुई। शिष्टाचार के बाद जैसे ही डेविड लांग आगे बढ़ा तो वह अचानक गायब हो गया।

इसी प्रकार पूरी बस्ती ही गायब होने का भी किस्सा है। घटना अगस्त 1930 की बताई जाती है। कनाडा के चर्चिल थाने के पास अंजिकुनी नामक एस्किमो की बस्ती थी। एक दिन अचानक पूरी बस्ती के लोग न जाने कहां गायब हो गए। 

इसी प्रकार 1885 में वियतनाम में सैनिकों की छह सौ सैनिकों की एक टुकड़ी ने सेगॉन शहर की ओर कूच किया। कोई एक मील दूर जाने पर वह पूरी टुकड़ी गायब हो गई। आज तक उस रहस्य से पर्दा नहीं उठ पाया है। अनुमान यही लगाया गया कि धरती से इतर कोई और ग्रह है, जहां के प्राणी लोगों को पकड़ कर ले जाते हैं।

वस्तुओं के गायब हो जाने के किस्से भी आम हैं। आप के साथ भी ऐसा हो चुका होगा। जैसे किसी स्थान विशेष पर रखी वस्तु आप लेने जाते हैं तो वह वहां नहीं मिलती। आपको अचरज होता है कि वह कहां गायब हो गई। कुछ समय बाद जब फिर देखते हैं तो वह वहीं मिल जाती है। ऐसा प्रतीत होता है कि वह कुछ समय के लिए गायब हो जाती है। ऐसा भ्रम की वजह से भी हो सकता है।

आपने ऐसे मदारियों को भी करतब दिखाते हुए देखा होगा कि वे गुलाब जामुन या कोई मिठाई मांगने पर हवा में हाथ धुमा कर वह वस्तु पेश कर देते हैं। हालांकि यह ऐसे जादू के रूप में माना जाता है, जिसके पीछे कोई तकनीक काम करती है, जबकि आम मान्यता है कि मदारी कुछ समय के लिए मांगी गई वस्तु किसी दुकान या ठेले से मंगवाते हैं और कुछ समय बाद वह वस्तु वापस वहीं पहुंच जाती है, जहां से मंगाई गई है।

मंगलवार, नवंबर 11, 2025

क्या गायब हुआ जा सकता है?

गायब या अंतर्ध्यान शब्द के मायने है, अदृश्य होना। इसका उल्लेख आपने शास्त्रों, पुराणों आदि में सुना होगा। अनेक देवी-देवताओं, महामानवों व ऋषि-मुनियों से जुड़े प्रसंगों में इसका विवरण है कि वे आह्वान करने पर प्रकट भी होते हैं, साक्षात दिखाई देते हैं और अंतर्ध्यान भी हो जाते हैं। मौजूदा वैज्ञानिक युग में यह वाकई अविश्वनीय है। विज्ञान आज तक भी इस पुरातन कला को समझ नहीं पाया है। हालांकि कुछ वैज्ञानिकों ने इस पर काम किया है और सिद्धांततः यह मानते हैं कि ऐसा संभव है, मगर कोई भी ऐसा कर नहीं पाया है। बताते हैं कि ओशो ने दुनिया के चंद शीर्ष वैज्ञानिकों की टीम बना कर इस पर काम किया था और उन्हें पूरी उम्मीद थी कि कामयाबी मिल जाएगी।

इस बारे में उपलब्ध जानकारी के अनुसार वैज्ञानिक नैनो किरणों पर काम कर रहे हैं। इस सिलसिले में एक लबादा बनाने की कोशिश की जा रही है, जिसे पहनने के बाद उस पर नैनो किरणें डालने पर दिखाई देना बंद हो जाता है। कुछ वैज्ञानिक इस पर भी काम कर रहे हैं कि विशेष तापमान व दबाव यदि मनुष्य के आसपास क्रियेट किया जाए तो वह अदृश्य हो सकता है। कुछ प्रयोग कनाडा, जापान और अमेरिका में चल रहे हैं। जापान के वैज्ञानिक डॉ. सुसुमु ताची ने ऐसा “इनविजिबिलिटी क्लोक” बनाया था, जो कैमरा और प्रोजेक्टर से पीछे की पृष्ठभूमि को आगे दिखा देता है। यानी पहनने वाला लगभग गायब सा दिखाई देता है। यह तकनीक कुछ सैन्य वाहनों और ड्रोन में प्रयोग की जा रही है। यह परिवेश के रंग और प्रकाश को नकल कर आंखों को भ्रमित करती है।

जानकारी के अनुसार एक उपकरण बनाया जा चुका है, जिसके भीतर रखी वस्तु एक दिशा से तो दिखाई देती है, मगर दूसरी दिशा से नहीं दिखाई देती। एक उपकरण, जिसका नाम फोटोनिक क्रिस्टल बताया गया है, वह वस्तुओं को दिखाई देने में बाधक बनता है, अर्थात अदृश्य कर देता है। प्रसंगवश एक शब्द ख्याल में आता है- मृग मरीचिका। कहते हैं न कि रेगिस्तान में तेज धूप में किरणों की तरंगों में दूर से हिरण को ऐसा आभास होता है कि वहां समुद्र है या पानी है, जबकि वास्तव में ऐसा होता नहीं है। अर्थात हिरण को दृष्टि भ्रम होता है। हो सकता है कि कल इसी प्रकार का दृष्टि भ्रम बना कर आदमी को अदृश्य किया जा सके। 

एक जानकारी ये भी है कि देवी देवता सशरीर प्रकट हो सकते हैं, जो कि पंचमहाभूत से बने हैं, मगर अन्य आत्माएं वायु अथवा प्रकाश के रूप में विचरण करती हैं और उसका आभास भी करवा सकती हैं। भारतीय ग्रंथों में कई पात्रों के अदृश्य होने का उल्लेख मिलता है। जैसे हनुमानजी, जो इच्छा से आकार बदल सकते थे (सूक्ष्म रूप धारण करना)। 

बताते हैं कि हिमालयों की पहाडियों में एक जड़ी पाई जाती है, जिसे मुंह में रखने पर आदमी दिखाई देना बंद हो जाता है। मगर इसके भी प्रमाणिक उदाहरण हमारे संज्ञान में नहीं हैं। इसी प्रकार जनश्रुति है कि एक पक्षी विशेष का पंख अपने पास रखने वाला व्यक्ति दूसरों को दिखाई नहीं देता, मगर इसके भी पुख्ता सबूत नहीं मिले हैं।

गायब हो जाने के संबंध में कुछ रहस्यमयी किस्से जानकारी में आए हैं। बताते हैं कि एक महिला क्रिस्टीन जांसटन और उनके पति एलन जांसटन 1975 की गर्मियों में उत्तरी ध्रुव की यात्रा पर गए थे। वहां एलन अचानक गायब हो गए। बाद में पुलिस तेज घ्रांण शक्ति वाले कुत्ते ले कर खोजने गई तो जिस स्थान से एलन गायब हुए थे, वहां पर आ कर कुत्ते रुक गए। 

एक किस्सा ये भी है। अमेरिका के टेनेसी स्थित गैलेटिन के निवासी डेविड लांग 23 सितम्बर, 1808 को दोपहर में घर से बाहर निकले। उनकी मुलाकात उनके एक न्यायाधीश मित्र आगस्टस पीक से हुई। शिष्टाचार के बाद जैसे ही डेविड लांग आगे बढ़ा तो वह अचानक गायब हो गया।

इसी प्रकार पूरी बस्ती ही गायब होने का भी किस्सा है। घटना अगस्त 1930 की बताई जाती है। कनाडा के चर्चिल थाने के पास अंजिकुनी नामक एस्किमो की बस्ती थी। एक दिन अचानक पूरी बस्ती के लोग न जाने कहां गायब हो गए। 

इसी प्रकार 1885 में वियतनाम में सैनिकों की छह सौ सैनिकों की एक टुकड़ी ने सेगॉन शहर की ओर कूच किया। कोई एक मील दूर जाने पर वह पूरी टुकड़ी गायब हो गई। आज तक उस रहस्य से पर्दा नहीं उठ पाया है। अनुमान यही लगाया गया कि धरती से इतर कोई और ग्रह है, जहां के प्राणी लोगों को पकड़ कर ले जाते हैं।

वस्तुओं के गायब हो जाने के किस्से भी आम हैं। आप के साथ भी ऐसा हो चुका होगा। जैसे किसी स्थान विशेष पर रखी वस्तु आप लेने जाते हैं तो वह वहां नहीं मिलती। आपको अचरज होता है कि वह कहां गायब हो गई। कुछ समय बाद जब फिर देखते हैं तो वह वहीं मिल जाती है। ऐसा प्रतीत होता है कि वह कुछ समय के लिए गायब हो जाती है। ऐसा भ्रम की वजह से भी हो सकता है।

आपने ऐसे मदारियों को भी करतब दिखाते हुए देखा होगा कि वे गुलाब जामुन या कोई मिठाई मांगने पर हवा में हाथ धुमा कर वह वस्तु पेश कर देते हैं। हालांकि यह ऐसे जादू के रूप में माना जाता है, जिसके पीछे कोई तकनीक काम करती है, जबकि आम मान्यता है कि मदारी कुछ समय के लिए मांगी गई वस्तु किसी दुकान या ठेले से मंगवाते हैं और कुछ समय बाद वह वस्तु वापस वहीं पहुंच जाती है, जहां से मंगाई गई है।


शुक्रवार, नवंबर 07, 2025

घर की चौखट पर बैठने से दरिद्रता आती है?

भारतीय परंपरा में माना जाता है कि घर की चौखट पर बैठने से दरिद्रता आती है। इसलिए जब भी कोई चौखट पर बैठता है तो परिवार के अन्य सदस्य उसे टोक कर वहां से उठ जाने की सलाह देते हैं। वस्तुतः चौखट पर बैठना केवल अंधविष्वास नहीं है, बल्कि इसके प्रतीकात्मक अर्थ है और व्यावहारिक पहलु भी हैं। चौखट घर की चौखट अर्थात देहरी का सीमांत स्थान होता है। यह भीतर और बाहर की ऊर्जा और सकारात्मक व नकारात्मक उर्जा का संगम बिंदु मानी जाती है। इसलिए वहां बैठना ऊर्जा के प्रवाह को रोकना माना गया है, जिससे घर में लक्ष्मी प्रवेश नहीं करती और यही बात दरिद्रता आने के रूप में कही जाती है। देवी लक्ष्मी को चौखट से घर में प्रवेश करने वाली शक्ति माना गया है। लोकमान्यता है कि चौखट पर बैठना उनके मार्ग में अवरोध डालता है, इसलिए यह अशुभ समझा गया।

व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाए तो चौखट दरवाजे का चलन क्षेत्र होता है। वहां बैठने से आने-जाने वालों को असुविधा होती है या चोट लग सकती है। इसलिए लोगों को ऐसा न करने के लिए डराने हेतु दरिद्रता आएगी जैसी चेतावनी दी गई। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से, यह अनुशासन और मर्यादा सिखाने का तरीका है, यानी जो व्यक्ति मर्यादा रखते हुए चौखट पर पर नहीं बैठता, उसके घर में स्थिरता और समृद्धि रहती है।

जहां तक वैज्ञानिक नजरिये का सवाल है विज्ञान के अनुसार चौखट पर बैठने और दरिद्रता के बीच कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं है, परंतु स्वच्छता, आवागमन और ऊर्जा-प्रवाह की दृष्टि से चौखट को साफ, खाली और खुला रखना उचित है।

बुधवार, नवंबर 05, 2025

उपयोग में ली हुई पूजन सामग्री का विसर्जन कहां करना चाहिए?

पिछले दिनो पाया गया कि अनेक स्थानों पर पूजन सामग्री फैंकी हुई है, विशेष रूप से आनासागर में, पीपल के पेडों के पास और हैंडपंपों के निकट। क्या आपको ख्याल में है कि लोग इन स्थानों पर पूजन सामग्री क्यों डालते हैं? असल में हमारी धार्मिक मान्यता है कि पूजा के बाद सामग्री अथवा खंडित मूर्ति व देवी-देवताओं के फटे हुए चित्रों को नदी में विसर्जन करना चाहिए। जहां नदी नहीं है, वहां लोग पानी के कुंड, कुएं या तालाब में पूजन सामग्री विसर्जित करते हैं। इसी प्रकार हैंड पंप को भी जल का स्थान मानते हुए उसके पास पूजन सामग्री डाली जाती है। एक धार्मिक मान्यता यह भी है कि पूजन सामग्री पीपल अथवा किसी पेड के नीचे डाली जा सकती है। इसी वजह से लोग पूजन सामग्री का विसर्जन इन जगहों पर करते हैं। हालांकि आनासागर में पूजन सामग्री अथवा मूर्तियों का विसर्जन करने की मनाही है, मगर लोग चुपके से विसर्जित कर ही देते हैं, जिससे आनासागर प्रदूषित होता है। आप देखिए कि जिस पूजा सामग्री को हम बहुत श्रद्धा से उपयोग करते हैं, उपयोग के बाद उसे हैंडपंप व पीपल के पेड के नीचे फैंक आते हैं। अब सवाल उठता है कि उपयोग में ली गई पूजन सामग्री का विसर्जन कैसे की जाए?

प्राकृतिक रूप से नष्ट होने वाली सामग्री जैसे फूल, पत्ते, माला, बेलपत्र, दूर्वा, आदि अपने घर के बगीचे या पौधों की जड़ में दबा सकते हैं। या किसी कम्पोस्ट पिट यादि खाद गड्ढे में डालें। इससे मिट्टी की उर्वरता बढ़ती है और प्रदूषण नहीं होता। अविघटनीय या हानिकारक वस्तुएं जैसे प्लास्टिक, थर्मोकोल, पॉलिथीन, कपड़ा, रंगीन मूर्तियां आदि को झील व तालाब में नहीं डालना चाहिए। उन्हें नगर निगम के सूखे कचरे वाले पात्र में डालना चाहिए। मिट्टी या गोबर की मूर्तियां घर के पौधों के पास या बगीचे की मिट्टी में विसर्जित कर सकते हैं। रासायनिक रंगों वाली मूर्तियां नगर निगम द्वारा तय निर्धारित विसर्जन टैंक या कृत्रिम कुंड में ही डालनी चाहिए। घी, तेल, अगरबत्ती, कपड़ा, राख, रौली, सिंदूर, चावल आदि जैविक हैं, इन्हें मिट्टी में दबाया जा सकता है। राख को पेड़ की जड़ में विसर्जित किया जा सकता है।


रविवार, नवंबर 02, 2025

क्या वास्तव में नागमणि का अस्तित्व है?

आपने नागमणि का नाम सुना होगा, जिसे सर्पमणि भी कहा जाता है। इसका अस्तित्व वास्तव में है या नहीं, पता नहीं, मगर भारतीय लोककथाओं, पुराणों और लोकविश्वासों में इसे एक अत्यंत रहस्यमयी वस्तु माना जाता है। कहा जाता है कि कुछ विशेष नागों के पास एक चमकती हुई मणि या रत्न होती है। इस मणि से तेज प्रकाश निकलता है, जो अंधेरे में भी चारों ओर रोशनी फैला देता है। मान्यता है कि यह मणि नाग को अलौकिक शक्ति, दीर्घायु और तेज प्रदान करती है। 

कहा जाता है, जब नाग अपनी मणि जमीन पर रखता है तो उसका प्रकाश दीपक से भी अधिक तेज होता है। कई पौराणिक ग्रंथों (जैसे गरुड़ पुराण, स्कंद पुराण) में मणिधारी नाग का उल्लेख मिलता है।

भारतीय लोककथाओं में नागमणि को लेकर अनेक दंतकथाएं प्रसिद्ध हैं। जैसे अगर कोई व्यक्ति नागमणि प्राप्त कर ले, तो वह धनवान, बलवान और अमर हो जाता है। नाग अपनी मणि को छिपाकर रखते हैं, और जिसे यह मिल जाती है, उसके पीछे वे प्रतिशोध लेने आते हैं। लेकिन ये सब लोककथाएं हैं, प्रमाण नहीं। विज्ञान के अनुसार अब तक ऐसी कोई वास्तविक नागमणि नहीं मिली है, जो किसी सर्प के सिर से निकलती हो या चमक उत्पन्न करती हो। सांपों के पास कोई रत्न या जैविक मणि नहीं होती। उनकी चमकदार आंखें या कुछ विशेष सरीसृपों की त्वचा प्रकाश परावर्तित करती हैं, जिससे दूर से चमक दिखाई देती है, और यही भ्रम मणि का बन गया। जंगलों में पाए जाने वाले फॉस्फोरस युक्त कवक या जुगनू जैसे बायोल्यूमिनस जीव भी मणि की तरह चमकते दिखते हैं, जिन्हें लोग नागमणि समझ लेते हैं।

ऐसा प्रतीत होता है कि षनि ग्रह के रत्न नीलम को ही नागमणि मान लिया गया है, जबकि इनमें फर्क है। संस्कृत में नीलम को इन्द्रनील, तृषाग्रही नीलमणि भी कहा जाता है। जो दो प्रकार के होते हैं- जलनील व इन्द्रनील। जानकारी के अनुसार भारत में नीलमणि पर्वत भी है। भारत के जम्मू-कश्मीर राज्य में नीलम पाया जाता है। कश्मीर में पहले नागवंशियों का राज था। नीलम विशुद्ध रंग मोर की गर्दन के रंग का होता है। कहते हैं कि नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर में असली नीलमणि रखी हुई है। धार्मिक मान्यता है कि नागमणि को भगवान शेषनाग धारण करते हैं। भारतीय पौराणिक और लोक कथाओं में नागमणि के किस्से आम लोगों के बीच प्रचलित हैं। वह यह कि नागमणि सिर्फ नागों के पास ही होती है। नाग इसे अपने पास इसलिए रखते हैं ताकि उसकी रोशनी के आसपास एकत्र हो गए कीड़े-मकोड़ों को वह खाता रहे। हालांकि इसके अलावा भी नागों द्वारा मणि को रखने के और भी कारण हैं। कुल मिला कर नागमणि का रहस्य आज भी अनसुलझा हुआ है। आम जनता में यह बात प्रचलित है कि कई लोगों ने ऐसे नाग देखे हैं, जिसके सिर पर मणि थी। हालांकि पुराणों में मणिधर नाग के कई किस्से हैं। भगवान कृष्ण का भी इसी तरह के एक नाग से सामना हुआ था। छत्तीसगढ़ी साहित्य और लोककथाओं में नाग, नागमणि और नागकन्या की कथाएं मिलती हैं। मनुज नागमणि के माध्यम से जल में उतरते हैं। नागमणि की यह विशेषता है कि जल उसे मार्ग देता है। इसके बाद साहसी मनुज महल में प्रस्थित होकर नाग को परास्त कर नागकन्या प्राप्त करता है। कहते हैं कि नागमणि में अलौकिक शक्तियां होती हैं। उसकी चमक के आगे हीरा भी फीका पड़ जाता है। मान्यता अनुसार नागमणि जिसके भी पास होती है उसमें भी अलौकिक शक्तियां आ जाती हैं और वह आदमी भी दौलतमंद हो जाता है। मणि का होना उसी तरह है जिस तरह की अलादीन के चिराग का होना। हालांकि इसमें कितनी सच्चाई है, यह कोई नहीं जानता। किंवदती के अनुसार अजमेर में एक संपन्न परिवार के पास नागमणि मौजूद है, हालांकि इसकी पुष्टि आज तक नहीं हुई है।


कालबेलिया युवतियों की आंखें नशीली क्यों होती हैं?

राजस्थान की तपती रेत पर जब पुष्कर का मेला सजता है, तब भीड़ में सुमन कालबेलिया जैसी नर्तकियां सबका ध्यान अपनी ओर खींच लेती हैं। उनके लचकते हुए शरीर से अधिक लोग उनकी आंखों को देखते हैं। वे आंखें, जो सर्प की तरह सम्मोहक हैं, जिनमें आकर्षण भी है और रहस्य भी। यह वही आकर्षण है, जिसने पहले “कालबेलिया मोनालिसा” को प्रसिद्धि दी थी, और अब सुमन कालबेलिया को लोकनृत्य की नई पहचान बना दिया है। सवाल उठता है, आखिर इस समाज की स्त्रियों की आंखें इतनी नशीली क्यों होती हैं?

मनोवैज्ञानिक व सामुद्रिक शास्त्र के जानकारों का मानना है कि प्राकृतिक परिस्थितियों और सांपों से लगातार संपर्क में रहने के कारण शनैः शनैः उनकी आंखें भी सांपों जैसी हो गईं। फिर आनुवांषिक गुणों की वजह से हर आने वाली पीढी की युवतियों की आंखें भी वैसी ही होने लगीं। इसके भेद का खुद कालबेलियां युवतियों तक को भान नहीं। उनसे पूछो तो वे यही बता पाती हैं कि यह सब भगवान की देन है। 

वस्तुतः कालबेलिया समाज पीढ़ियों से सांपों के साथ जीता आया है। वे सर्पों को पकड़ते, उनके विष को पहचानते और उन्हें सुरक्षित छोड़ने का काम करते रहे हैं। सर्प उनके जीवन का साथी है, डर का नहीं। सांप की तरह वे भी स्थिर दृष्टि से दुनिया को देखते हैं। सर्प की निगाह में जो रहस्य और गहराई होती है, वही वर्षों के सह-अस्तित्व से इन स्त्रियों की आंखों में उतर आई है। उनके नृत्य में, उनके चेहरे के भावों में और उनकी दृष्टि में वह स्थिरता झलकती है, जो सर्प अपने शिकार को देखते समय दिखाता है।

रेगिस्तान की तेज धूप, खुला आसमान और धूलभरा जीवन उनकी आंखों को गहरी और चमकदार बनाता है। निरंतर खुले वातावरण में रहने से आंखों की मांसपेशियां मजबूत होती हैं, और उनमें स्वाभाविक तीक्ष्णता आती है। इसके साथ ही, कालबेलिया स्त्रियां बचपन से नृत्य सीखती हैं। उनके नृत्य में शरीर के हर अंग की भूमिका होती है, पर सबसे प्रभावशाली भूमिका निभाती हैं उनकी आंखें। वे नृत्य नहीं करतीं, बल्कि अपनी नजरों से कहानी कहती हैं। दर्शक को बांधने की यह कला उनके भीतर पीढ़ियों से उतरी है। यह भी सच है कि कभी यह समाज उपेक्षित था। सांप पकड़ने वाला समुदाय अछूत माना जाता था। लेकिन आज वही स्त्रियां कैमरे की रोशनी में लोकनृत्य का चेहरा बन चुकी हैं। यह परिवर्तन सिर्फ बाहरी नहीं है, यह उनकी आंखों की चमक में भी झलकता है। वह चमक सौंदर्य की नहीं, आत्मसम्मान की है। वे आंखें कहती हैं, “हम वही हैं जिन्हें जंगलों में भुला दिया गया था, पर अब सभ्यता हमारे पांवों की थाप पर नाचती है।”

कालबेलिया स्त्रियों की आंखों का नशा किसी सजावट का परिणाम नहीं, बल्कि उनकी जीवनगाथा का प्रतिबिंब है। उनके भीतर सर्प का प्रतीक बसता है। लहराता हुआ, स्थिर आकर्षक, पर खतरनाक। उनके काजल से घिरी आंखें लोककथा बन चुकी हैं। राजस्थान के लोकगीतों में भी कहा गया है “नागिन नैना मत मिला, नजर से चुभे डंस ज्यूं।” यह पंक्ति उनके सौंदर्य और रहस्य दोनों को एक साथ बयान करती है।

आज जब सुमन कालबेलिया मंच पर नाचती हैं, तो वह केवल एक नर्तकी नहीं होतीं। वह अपने समाज की परंपरा, अपनी दादी-नानियों की मेहनत, और रेगिस्तान की आत्मा को लेकर नाचती हैं। उनकी आंखों में जो नशा है, वह रूप का नहीं, बल्कि संघर्ष और पहचान का है।

इसलिए कहा जा सकता है- कालबेलिया स्त्रियों की आंखें नशा नहीं, इतिहास हैं। वे उस समाज की कहानी कहती हैं, जिसने विष के बीच भी नृत्य करना सीखा और नजरों को कविता बना दिया।


मंगलवार, अक्टूबर 28, 2025

क्या हमारी राशियां अब बदल गई है?

एक अध्ययन में इस बात का खुलासा हुआ है कि हमारी राशियां तकरीबन 25 हजार 800 साल पुरानी हैं, जो कि अब बदल गई हैं। जैसे जिसकी राशि अभी कुंभ है तो वह मीन हो गई है। अध्ययन के मुताबिक पृथ्वी की धुरी थोडी हिलती रहती है, जैसे घूर्णन करते हुए झूला। इस कारण उसके उत्तरी ध्रुव की दिशा आकाश में धीरे-धीरे बदलती है। इसके परिणामस्वरूप सितारों की स्थिति हमारे दृष्टिकोण से समय के साथ विस्थापित होती है। यही घटना पूर्णसारण व अक्षीय कंपन कहलाती है। इस पूर्वसारण-चक्र की अवधि लगभग 25 हजार 800 साल मानी जाती है। यानी लगभग उतना समय लगेगा कि पृथ्वी की धुरी फिर उसी ओर लौटे। इस बदलाव का एक परिणाम यह है कि सूर्य (जब वह वसंत विषुव बिंदु पर हो) अब उन सितारों के बीच से गुजरता है, जिनके बीच में वह इसलिए नहीं गुजरता था, जब पुराने ज्योतिषिक मानदंड बनाए गए थे। इसलिए, यदि हम सितारों की स्थिति को आज की आकाशगंगा के अनुसार देखें, तो यह संभव है कि किसी व्यक्ति की मौजूदा राशि पुराने प्रतिज्ञान से थोड़ी-बहुत भिन्न हो। 

अधिकतर पश्चिमी ज्योतिष राशियों को ऋतुओं और विषुव बिंदुओं के सापेक्ष निर्धारित करता है, न कि वर्तमान सितारों की वास्तविक स्थिति के आधार पर। इस प्रणाली में, राशि-तिथियां समय से नहीं बदलती। वे ऋतु-चक्र पर आधारित रहती हैं। 

दूसरी ओर, कुछ अन्य ज्योतिषीय प्रणालियां (जैसे कुछ दक्षिण एशियाई व वैदिक ज्योतिष पद्धतियां) सितारों की वास्तविक स्थिति को महत्व देती हैं, और उनमें समय के साथ समायोजन हो सकता है।

ज्ञातव्य है कि इंटरनेट पर यह बहुत चर्चा में रहा कि नासा ने 13वीं राशि जोड़ दी या अब राशि बदल गई हैं। इस पर यह दावा वैज्ञानिक एवं खगोलीय दृष्टिकोण से गलत या गलत प्रस्तुत किया गया है। नासा ने स्पष्ट किया है कि उन्होंने राशियों की सूची नहीं बदली है और न ही उन्होंने ओफिउकस को नई राशि घोषित किया है। तस्वीर यह है कि यदि आप खगोलीय दृष्टिकोण अपनाएं, तो एक व्यक्ति उस राशि में हो सकता है जो पुरानी ज्योतिषी तालिका से नहीं मिलती।

इस बारे में जानकारों का कहना कि अब राशियां बदल चुकी हैं, आंशिक रूप से सच हो सकता है, यदि आप सितारों की वास्तविक स्थिति के आधार पर राशि तय करना चाहें। लेकिन ज्योतिष की प्रणालियां (खासकर पश्चिमी ज्योतिष) तिथियों को ऋतुओं के सापेक्ष स्थिर रखती हैं, इसलिए उन प्रणालियों में “राशियों का बदलना” नहीं माना जाता। अतः, यह कहना कि “राशियां बदल गई हैं” यह निर्भर करता है कि आप किस संदर्भ में “राशि” ले रहे हैं। खगोलीय या पारंपरिक ज्योतिषीय।


गुरुवार, सितंबर 25, 2025

रावण के दस सिरों के ऊपर एक सिर गधे का क्यों होता है?

आपने रावण के दस सिरों के ऊपर एक सिर गधे का भी देखा होगा। क्या आपने सोचा है कि ऐसा क्यों? वस्तुतः रावण को लेकर हमारे यहा कई तरह की मान्यताएं, पुराणकथाएं और लोककथाएं प्रचलित हैं। रावण के सिर पर गधा होना भी एक लोकमान्यता या रूपकात्मक व्याख्या है, उसका उल्लेख वाल्मीकि रामायण या रामचरित मानस में नहीं है।

ज्ञातव्य है कि गधा भारतीय संस्कृति में प्रायः मूर्खता और हठ का प्रतीक माना जाता है। इसलिए कहा जाता है कि रावण के दस सिरों पर उसके ज्ञान और विद्या के बावजूद मूर्खता का बोझ गधे के रूप में रहता था। यह बताने का संकेत है कि अत्यधिक ज्ञान होने पर भी यदि विवेक न रहे तो अंततः वह गधापन ही है। यह प्रतीक रावण के उस व्यवहार को दर्शाता है, जहां उसने सीता का हरण जैसा विनाशकारी काम किया और हनुमान द्वारा लंका जलाए जाने के बाद भी अपनी जिद नहीं छोड़ी।

लोककथाओं में कई बार रावण को दंभी और अभिमानी बताया गया है। वहां यह कल्पना की गई कि उसके दस सिरों के ऊपर गधे का सिर रखा है, ताकि लोग याद रखें कि इतना बड़ा ज्ञानी भी अपने अहंकार से गधे जैसा बन गया। एक मान्यता यह भी है कि रावण ने पिछले जन्मों में किसी ऋषि का अपमान किया था। शाप की वजह से उसके सिर पर गधे का प्रतीक चिह्न उत्पन्न हुआ, जो उसके अज्ञान और पापकर्म का स्मरण कराता है। लोक नाटकों, रामलीला और चित्रों में कलाकार कई बार रावण को हास्यास्पद बनाने के लिए गधे के सिर का उल्लेख करते हैं। यह धार्मिक ग्रंथों की बात नहीं, बल्कि लोकरीति और हास्य-व्यंग्य का अंश है।

कुल मिला कर रावण के सिर पर गधा होना कोई शास्त्रीय तथ्य नहीं, बल्कि लोककथाओं और रूपक की बात है। इसका संकेत यही है कि विद्या और शक्ति के बावजूद अहंकार और मूर्खता सबसे ऊपर बैठी थी। 


सोमवार, सितंबर 15, 2025

ऐसा पानी, जिसको पीने से अद्भुत ताकत मिलती है

एक दिन मेरे एक मित्र ने किसी विदेशी झील के पानी का डेमो करके दिखाया, जिसकी कुछ बूंदें जिव्हा पर रखने से षरीर में कुछ समय के लिए अतिरिक्त शक्ति आ गई। मैं अचंभित रह गया। विचार आया कि पानी के ऐसे किसी गुण का पता लगाया जाए। आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस के विभिन्न प्लेटफार्म्स पर तलाशा तो कई रोचक तथ्य जानकारी में आए। आप भी जानिएः- 

दुनिया में कई झीलें हैं, जिनके पानी के बारे में कथाएं, लोकविश्वास और किंवदंतियां प्रचलित हैं, जिनमें कहा जाता है कि वहां का पानी पीने से स्वास्थ्य, ऊर्जा या विशेष गुण मिलते हैं। ये ज्यादातर धार्मिक आस्था, ऐतिहासिक घटनाओं या प्राकृतिक खनिजों की वजह से प्रसिद्ध हैं।

सर्वविदित है कि गंगा नदी के पानी को पवित्र माना जाता है, जिसमें नहाने से सारे पाप धुल जाते हैं। वह अत्यंत षुद्ध है और किसी पात्र में रखने पर सालों तक वैसा ही बना रहता है। हमारे यहां तो किसी स्थान को शुद्ध करने के लिए गंगा का पानी छिडका जाता है। मरणासन्न व्यक्ति को गंगा जल पिलाया जाता है।

इसी प्रकार आबे जमजम की इस्लाम में बहुत अधिक मान्यता है। आबे जमजम मक्का शरीफ (सऊदी अरब) के मशहूर पवित्र कुएं का नाम है, जो काबा शरीफ के पास स्थित है। हजरत इब्राहीम की पत्नी हजरत हाजरा और उनके बेटे हजरत इस्माईल के लिए अल्लाह की रहमत से यह पानी निकला। आज भी यह कुआं मक्का में मौजूद है और हज व उमरा करने वाले लाखों लोग इसका पानी पीते और साथ ले जाते हैं। यह ताजगी, शिफा (आरोग्य), और बरकत (आशीर्वाद) देने वाला माना जाता है। दुनिया में किसी भी पानी से इसकी तुलना नहीं की जाती।

मान्यता है कि अजमेर में महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के सालाना उर्स के दौरान छोटे कुल और बडे कुल की रस्म के दौरान केवडे व गुलाब के जिस जल से गुस्ल दिया जाता है, वह शारीरिक व मानसिक बीमारियों में रूप से बहुत लाभदायक होता है।

पूजा पाठ व कथा के दौरान कमंडल या लोटे में रखे पानी को भी शुद्ध माना जाता है, जिसके छींटे दिए जाते हैं। उसका सेवन किया जाता है।

जानकारी के अनुसार पेरू-बोलीविया में एंडीज पर्वत की झील लेक टिटिकाका स्थानीय किंवदंतियों में “जीवन देने वाली” कही जाती है।

माना जाता है कि झील के पानी को प्राचीन देवताओं का आशीर्वाद है, जो साहस और शक्ति देता है।

इसी प्रकार तिब्बत में मानसरोवर झील हिन्दू, बौद्ध, जैन और बोन धर्म में पवित्र मानी जाती है। आस्था है कि इसका जल पीने या स्नान करने से पाप नष्ट होते हैं और आध्यात्मिक बल मिलता है।

न्यूजीलैंड की ब्लू लेक में दुनिया का सबसे साफ पानी माना जाता है। 

यहां का पानी पीने से ताकत मिलने की कोई वैज्ञानिक पुष्टि नहीं, लेकिन स्वच्छता के कारण इसे “जीवंत पानी” कहा जाता है।

रोमानिया की सिल्विया झील के बारे में लोक कथाओं में कहा जाता है कि यहां का पानी पीने से बीमारियां दूर होती हैं और ताकत मिलती है। वास्तव में पानी में खनिज प्रचुर मात्रा में होते हैं, जिससे थोड़ी ऊर्जा महसूस हो सकती है।

कुल जमा कहा जा सकता है कि यदि पानी में प्राकृतिक खनिज, लवण या ऑक्सीजन की मात्रा अधिक हो, तो उसे पीने से ताजगी और ऊर्जा महसूस हो सकती है। लेकिन “सुपरपावर” जैसी ताकत मिलना सिर्फ मिथक या धार्मिक मान्यता है, वैज्ञानिक प्रमाण नहीं।


मंगलवार, अगस्त 05, 2025

जन्म के बाद नामकरण तक पूजा वर्जित क्यों?

जन्म के बाद नामकरण संस्कार तक पूजा-पाठ को वर्जित माना जाता है? इसके पीछे धार्मिक, शास्त्रीय और व्यवहारिक कारण होते हैं, जो भारतीय सनातन परंपरा और संस्कृति से जुड़े हैं। वस्तुतः बच्चे के जन्म के बाद लगभग 10 दिन तक का समय सूतक काल कहलाता है। इस अवधि में घर में पूजा-पाठ, यज्ञ, हवन, मंदिर प्रवेश आदि वर्जित माने जाते हैं। यह समय मां और नवजात के लिए शुद्धिकरण और विश्राम का होता है। प्रसव के दौरान शरीर से रक्त और अन्य तरल पदार्थ निकलते हैं, जिसे धार्मिक दृष्टि से अशुद्ध माना जाता है। मां का शरीर और घर का वातावरण संक्रमण की दृष्टि से संवेदनशील होता है, अतः विश्राम और शुद्धि जरूरी मानी गई है। नवजात शिशु को इस दौरान संस्कारों और पूजा के योग्य नहीं माना जाता, क्योंकि वह अभी सामाजिक और धार्मिक जीवन का हिस्सा नहीं बना होता।

नामकरण संस्कार के साथ ही उसे एक धार्मिक पहचान और सामाजिक स्थान प्राप्त होता है। नामकरण संस्कार केवल नाम देने की प्रक्रिया नहीं, बल्कि यह एक धार्मिक अनुष्ठान है, संस्कार है, जिसमें शिशु को पहली बार उसका नाम सुनाया जाता है।

इसके बाद ही शिशु को धार्मिक अनुष्ठानों में सम्मिलित किया जाता है। मनुस्मृति, गृह्यसूत्र, धर्मशास्त्रों में स्पष्ट निर्देश है कि सूतक काल में कोई भी पवित्र कर्म जैसे पूजा, यज्ञ, श्राद्ध आदि नहीं करने चाहिए।

एक सवाल यह भी कि क्या जन्म के बाद नामकरण संस्कार तक पूजा करने से वह नकारात्मक शक्तियों को मिलती है? शास्त्रों में बताया गया है कि शिशु के जन्म के बाद सूतक काल में की गई पूजा को देवताओं तक नहीं पहुंचने योग्य बताया गया है। इससे उल्टा प्रभाव हो सकता है, यानी आत्मिक शुद्धि की जगह मानसिक व्याकुलता। यदि धार्मिक कार्य अशुद्ध शरीर, वस्त्र या भाव से किए जाएं, तो वे फलदायी नहीं होते, बल्कि कुछ शास्त्रों में इसे अपवित्र यज्ञ कहा गया है, जो पितरों या अन्य अदृश्य शक्तियों को अप्रसन्न कर सकता है। सूतक काल में शरीर की ऊर्जा कमजोर होती है। पूजा-पाठ एक उच्चतर ऊर्जा स्तर की क्रिया है, यदि वह अशुद्ध या कमजोर ऊर्जा से की जाए तो आसपास की सूक्ष्म नकारात्मक शक्तियां आकर्षित हो सकती हैं।

परंपराएं बताती हैं कि नवजात शिशु के आसपास की रक्षा करने वाले तंत्र बहुत कोमल होते हैं। कोई भी असंतुलन जैसे शास्त्रविरुद्ध पूजा उस सुरक्षा कवच को भेद सकता है, जिससे नकारात्मक ऊर्जाओं का प्रभाव संभव है।

 

https://youtu.be/93Wkzhy9qdg

https://ajmernama.com/thirdeye/435660/

शुक्रवार, अगस्त 01, 2025

क्या ब्रह्मा जी के और मंदिर भी हैं?

दोस्तो, नमस्कार। यह आम धारणा है कि जगतपिता ब्रह्मा जी का एक मात्र मंदिर तीर्थराज पुश्कर में ही है। लेकिन कुछ तथ्य व दावे ऐसे में भी समाने आए हैं कि ब्रह्माजी के और मंदिर भी हैं। जहां तक तीर्थराज पुश्कर के ब्रह्माजी मंदिर का सवाल है तो यह सबसे प्रसिद्ध और पुराना मंदिर है। इसके जुडी कथा के अनुसार उन्हें उनकी पत्नी सावित्री ने श्राप दिया था। श्राप से जुड़ी कथा पद्म पुराण, स्कंद पुराण और कुछ अन्य पुराणों में मिलती है। वो यह कि जब ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना की, तब ब्रह्माजी पुष्कर में यज्ञ कर रहे थे। यज्ञ में पत्नी का उपस्थिति होना अनिवार्य था। सावित्री यज्ञ में देर से पहुंचीं। यज्ञ का शुभ मुहूर्त निकलता जा रहा था। तब ब्रह्माजी ने तत्काल एक स्थानीय गायत्री नामक कन्या से विवाह कर लिया और उनके साथ यज्ञ आरंभ कर दिया। जब सावित्री वहां पहुंचीं और यह देखा, तो उन्हें अत्यंत क्रोध हुआ। उन्होंने ब्रह्माजी को यह श्राप दिया कि तुम्हारी पूजा संसार में पुश्कर के अतिरिकत कहीं भी विशेष रूप से नहीं होगी। यही कारण माना जाता है कि ब्रह्माजी के मंदिर अत्यंत विरले हैं।

राजस्थान सरकार के पर्यटन दस्तावेज में उल्लेख है कि बांसवाड़ा के निकट स्थित बेणेश्वर धाम (जिसे वागड़ प्रयाग के नाम से भी जाना जाता है), त्रिवेणी संगम यानी सोम, माही और जाखम नदियों के मिलन स्थल पर मावजी महाराज की तपोस्थली स्थित है, जहां ब्रह्मा जी का भी मंदिर मौजूद है। आदिवासी यहां बड़ी संख्या में आते हैं, खासकर माघ पूर्णिमा को।

हरियाणा के फरीदबाद गांव असोटी में भी ब्रह्मा जी मंदिर है।

इसी प्रकार तमिलनाडू के तिरूपत्तूर में भी ब्रह्मा जी का मंदिर है, जहां लोग भाग्य सुधारने के लिए पूजा करते हैं। मान्यता है कि यहां ब्रह्मा ने पुनः सृजन कार्य किया था।

इसी प्रकार तमिलनाडू के थंजावुर जिले में कंबहम में ब्रह्माजी का मंदिर है। बांसवाडा जिले के त्रिवेणी संगम पर भी मावजी महाराज की तपोस्थली पर एक ब्रह्मा मंदिर स्थित है। यह क्षेत्र आदिवासी संस्कृति और संत परंपरा से जुड़ा है।

पौराणिक कथा के अनुसार, ब्रह्मा जी ने झूठ बोलकर यज्ञ में स्थान पाने की कोशिश की थी और भगवान शिव ने उन्हें शाप दिया कि उनकी पूजा धरती पर नहीं होगी। इसी कारण उनके मंदिर दुर्लभ हैं।

नसीराबाद के वरिश्ठ पत्रकार श्री सुधीर मित्तल ने बताया कि लोहरवाडा स्थित रामपुरा तेजाजी धाम पर भी ब्रह्माजी का मंदिर है। धाम के उपासक श्री रतन जी प्रजापति का कहना है कि ऐसी धारणा है कि जो भी ब्रह्माजी का मंदिर बनवाता है, वह मर जाता है। लेकिन बारह साल से भी अधिक हो चुके हैं, उन्हें बुखार तक नहीं आया।

https://youtu.be/-VU3Pv-rdX4
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रविवार, जुलाई 27, 2025

40 के अंक का इतना महत्व क्यों?

 

दोस्तो, नमस्कार। चालीस के अंक का बहुत महत्व है, यह हम सब जानते हैं। आइये, जरा विस्तार से समझने की कोषिष करते हैं।

आपको ख्याल में होगा कि इस्लाम जगत में मोहर्रम पर मुसलमान 40 दिन तक शोक मनाते हैं। हजरत मूसा को अल्लाह ने तोरेत देने के लिए 40 रातों के लिए तूर पर्वत पर बुलाया था। हजरत मुहम्मद साहब को भी 40 वर्ष की आयु में ही पहला ईश्वरीय संदेश प्राप्त हुआ। चालीस का कितना महत्व है, इसका अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती जब अजमेर आए तो आनासागर के पास स्थित पहाड़ी पर 40 दिन इबादत की थी। इस स्थान को ख्वाजा साहब का चिल्ला कहा जाता है। बताते हैं कि यहां इबादत करने के बाद जब ख्वाजा साहब दरगाह वाले स्थान की ओर जाने लगे तो कहते हैं कि उनकी जुदाई में पहाड़ के भी आंसू छलक पड़े थे। पहाड़ी के निचले हिस्से पर आज भी आंसू की सी आकृति साफ बनी दिखाई देती है। इस्लामिक मान्यता है कि हमारे पेट में एक निवाला भी हराम का हो तो चालीस दिन तक इबादत कबूल नहीं होती। बाइबिल में भी बताया गया है कि हजऱत मसीह ने 40 दिन रोज़े रखे थे। बाइबिल में 40 का अंक अक्सर दिखाई देता है। सख्या 40 न्याय या परीक्षा से सम्बन्धित सन्दर्भों में अक्सर पाई जाती है, जिसके कारण कई विद्वान इसे परख या परीक्षा की संख्या भी समझते हैं। बाइबिल के पुराने नियम में, जब परमेश्वर ने पृथ्वी को जल प्रलय से नष्ट कर दिया, तो उसने 40 दिन और 40 रात तक वर्षा को आने दिया। 

नए नियम में, यीशु की परीक्षा 40 दिनों और 40 रातों तक की गई थी। यीशु के पुनरुत्थान और स्वर्गारोहण के बीच 40 दिन थे।

ऐसी मान्यता भी है कि जो स्थान चालीस दिन तक सुनसान होता है या आबाद नहीं होता, वहां प्रेत आत्माएं डेरा जमा लेती हैं। 

सनातन धर्म में भी सभी देवी देवताओं की चालीसाएं गायी जाती हैं, जिनमें चालीस दोहे होते हैं। इसी प्रकार सिंधी समुदाय चालीस दिवसीय अखंड ज्योति महोत्सव यानि चालिहो मनाता है। सिंधी समाज के लोग चालीस दिन तक व्रत-उपवास रख कर पूजा-अर्चना के साथ सुबह-शाम झूलेलाल कथा का श्रवण करते हैं। इस महोत्सव में झूलेलाल मंदिरों को विशेष रूप से सुसज्जित किया गया है तथा मंदिरों में कथा, आरती, भजन-कीर्तनों के साथ धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है। अर्थात चालीस अंक का बहुत महत्व है, मगर इस गणित या कीमिया का राज क्या है? इसके बारे में कहीं उल्लेख नहीं मिलता। अंक चालीस ही क्यों, बीस या तीस क्यों नहीं? इस बारे में मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि कोई भी नई आदत या आत्मिक अनुशासन विकसित करने में लगभग 40 दिन लगते हैं। इस दौरान मन और शरीर एक नई लय में ढलते हैं। इसलिए 40 दिन का समय किसी भी साधना या इबादत को गहराई से अपनाने के लिए उपयुक्त माना जाता है।

https://youtu.be/eGS1FfnScW0

बुधवार, जुलाई 23, 2025

जूठा क्यों नहीं खाना चाहिए?

दोस्तो, नमस्कार। आम तौर पर लोग किसी का जूठा खाना नहीं खाते। जूठा खाना न खाने के पीछे कई स्वास्थ्य और सांस्कृतिक कारण होते हैं। एक तो यह है कि इससे बैक्टीरिया और संक्रमण का खतरा होता है। किसी व्यक्ति द्वारा खाया हुआ भोजन उसके मुंह और लार के संपर्क में आता है। अगर व्यक्ति में कोई संक्रमण या बीमारी है, तो वह दूसरे व्यक्ति को भी संक्रमित कर सकता है। इसके अतिरिक्त जूठा भोजन रखने से उसमें बैक्टीरिया जल्दी पनपते हैं, जिससे भोजन दूषित हो सकता है और खाने से पेट की समस्याएं हो सकती हैं।

दूसरा कारण यह कि भारतीय समाज में भोजन को बहुत पवित्र माना जाता है। इसलिए भोजन का आदर करना जरूरी है और जूठा खाने से उसकी शुद्धता कम होती है। धार्मिक दृष्टिकोण से भी, कई परंपराओं में जूठा भोजन अशुद्ध माना जाता है। इसे खाने से व्यक्ति की मानसिक और शारीरिक शुद्धता पर प्रभाव पड़ता है।

दूसरी ओर एक मान्यता यह भी है कि जूठा खाना खाने से प्यार बढ़ता है और इसी वजह से कई लोग जैसे कि प्रेमी-प्रेमिका, यार-दोस्त, पति-पत्नी एक-दूसरे का जूठा बड़े ही प्यार से खा लेते हैं। हर किसी को यही लगता है कि जूठा खाना खाने से प्यार बढ़ता है लेकिन ऐसा बिल्कुल भी नहीं है क्योंकि ज्योतिष शास्त्र के अनुसार जूठा खाना किसी व्यक्ति के जीवन में दुर्भाग्य को भी आमंत्रण दे सकता है। शास्त्रों के अनुसार किसी का जूठा खाना नहीं खाना चाहिए क्योंकि ऐसा करने वाले व्यक्ति किसी और का दुर्भाग्य अपने नाम कर लेते हैं और अपने हाथों से अपनी समस्याएं बढ़ा लेते हैं.

जो लोग किसी का जूठा भोजन करते हैं तो इससे व्यक्ति की वाणी और भाषा पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। जूठा खाने से प्रभाव पडता ही है, इसकी दलील यह है कि कई समाजों में अन्नप्राषन्न संस्कार में नवजात को किसी बुजुर्ग का जूठा जौ व गुड खिलाया जाता है। एक बात दिलचस्प बात और। ऐसी मान्यता है कि यदि किसी को किसी की नजर लग जाए तो उसका जूठा पानी पिलाने पर नजर का असर खत्म हो जाता है। बहरहाल अगर आप भी प्यार मोहब्बत में आकर किसी का जूठा खाना खाते हैं तो फिर आपको अपनी यह आदत फौरन बदल देनी चाहिए नहीं तो हो सकता है कि जाने-अंजाने में आप अपने हाथों से अपने दुर्भाग्य को आमंत्रण दे बैठें, इसलिए इससे बचने का सबसे बेहतर तरीका यही है कि आप किसी का जूठा खाने से परहेज करें।


 https://youtu.be/LmHpfJxCD-g

मंगलवार, जुलाई 22, 2025

सिर मुंडवाते वक्त चोटी क्यों छोडी जाती है?

दोस्तो, नमस्कार। हम सब के ख्याल में है कि पिता के निधन पर पुत्र अंत्येश्टि से ठीक पहले बाल कटवाता है, लेकिन चोटी छोडी जाती है। क्या आपने विचार किया है कि ऐसा क्यों? वस्तुतः पिता के निधन पर हिन्दू परंपरा में पुत्र द्वारा सिर मुंडवाना एक सामान्य शोक प्रथा है, जो पितृ ऋण से मुक्ति, श्रद्धा और वैराग्य का प्रतीक माना जाता है। मगर चोटी यानि षिखा को नहीं काटने के पीछे गहरे धार्मिक और सांस्कृतिक कारण हैं। शिखा विशेष रूप से ब्राह्मण, वैदिक परंपरा और संस्कार का प्रतीक होती है। यह आध्यात्मिक ऊर्जा और ज्ञान के अनुशासन की निरंतरता का चिन्ह मानी जाती है। ज्ञातव्य है कि सिर के जिस स्थान पर चोटी होती है, उसे ब्रह्मरंध्र या सहस्रार चक्र कहते हैं, जो आध्यात्मिक जागरण का केन्द्र माना जाता है। इसे पूरी तरह से काटना आध्यात्मिक रूप से अनुचित माना जाता है।

चोटी न रहने पर व्यक्ति कई धार्मिक कार्यों और कर्मकांडों के लिए अयोग्य माना जाता है। उदाहरणतः यदि शिखा नहीं हो, तो पिंडदान, श्राद्ध, हवन, संध्या वंदन आदि करने में बाधा मानी जाती है। सिर के बाकी हिस्से के बाल काटकर वैराग्य और शोक प्रकट किया जाता है। लेकिन चोटी को छोड़ना यह संकेत देता है कि धार्मिक जीवन और कर्तव्य अब भी जारी है। चोटी को न काटना धार्मिक परंपरा, आत्मिक ऊर्जा और कर्मकांड की निरंतरता को बनाए रखने के लिए आवश्यक माना गया है।


https://youtu.be/FuVjDkNqAy8


https://ajmernama.com/thirdeye/434866/


रविवार, जुलाई 20, 2025

दीवार पर झरने की तस्वीर क्यों लगाई जाती है?

दोस्तो, नमस्कार। आपको ख्याल में होगा कि घर में लोग झरने, नदी या पानी की तस्वीर लगाते हैं। क्या सोच कर ऐसा किया जाता है? इस परंपरा के पीछे क्या रहस्य है? असल में वास्तुशास्त्र के अनुसार माना जाता है बहते हुए पानी की तस्वीर घर में लगाना शुभ होता है। 

इस सिलसिले में प्रसिद्ध ज्योतिशी ज्योतिषी और हस्तरेखाविद श्री राजेन्द्र गुप्ता की राय है कि पानी तस्वीरों या शो पीस को घर में लगाते समय कुछ बातों का ध्यान रखना चाहिए- घर के सदस्यों या फैमिली बिजनेस को बेडलक या लोगों की बुरी नजर से बचाए रखने के लिए गलियारे या बालकनी में पानी से संबंधित कोई तस्वीर या शो-पीस रखना चाहिए। पानी से जुड़ा कोई भी शो-पीस या तस्वीर किचन में नहीं लगाना चाहिए। किचन में उपयोग किए जाने वाले पानी अलावा जल संबंधी कोई भी वस्तु रखना अच्छा नहीं माना जाता। यदि आप फाउंनटेन घर में लगवा रहे हैं तो इसे घर की उत्तर या दक्षिण-पूर्व दिशा में लगवा सकते हैं। ऐसा करने से फाउंनटेन गुडलक और तरक्की लाता है। घर की उत्तर-पूर्व दिशा में मिट्टी के बने बर्तन या सुराही में पानी भर कर रखना चाहिए। ऐसा करने से घर के लोगों का दुर्भाग्य खत्म होता है और हर काम में सफलता मिलती है।यदि आपके घर में गार्डन एरिया है तो आप वहां वाटरफॉल लगवा सकते हैं। घर में वाटरफॉल की दिशा इस तरह से होनी चाहिए कि पानी का प्रवाह आपके घर की दिशा में हो। यह बाहर की ओर कभी नहीं जाना चाहिए। इस बारे में और विस्तार से जानने के लिए आप उनसे मोबाइल नंबर 9116089175 पर संपर्क कर सकते हैं।


https://youtu.be/u10240gjOl8
https://ajmernama.com/thirdeye/434729/

शनिवार, जुलाई 19, 2025

श्रद्धांजलि देते वक्त दो मिनट का मौन क्यों?

दोस्तो, नमस्कार। हम सब जानते हैं कि किसी को श्रद्धांजलि देते वक्त दो मिनट का मौन रखा जाता है। क्या कभी ख्याल किया है कि यह परंपरा कैसे षुरू हुई और इसकी उपयोगिता क्या है?

असल में श्रद्धांजलि देते वक्त दो मिनट का मौन रखना एक गहरे सम्मान और संवेदना का प्रतीक होता है। इसके पीछे कई सांस्कृतिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कारण होते हैं।

मौन रहकर हम उस व्यक्ति के जीवन और योगदान को याद करते हैं। यह एक शांत और गंभीर तरीका होता है यह दिखाने का कि हम उन्हें दिल से सम्मान देते हैं। मौन का समय हमें भीतर झांकने, अपने विचारों और भावनाओं से जुड़ने का मौका देता है। हम उस व्यक्ति के साथ अपने संबंध को याद करते हैं। जब एक समूह एक साथ मौन धारण करता है, तो यह एकता और सहानुभूति का भाव पैदा करता है। यह दिखाता है कि हम सब मिलकर उस क्षति को महसूस कर रहे हैं। मौन अपने आप में ध्यान का रूप होता है। यह पल थोड़ी देर के लिए संसार की हलचल से हटकर शांति और स्थिरता में जाने का अवसर देता है। दो मिनट का मौन सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि कई देशों में युद्ध, आपदा या किसी महान व्यक्तित्व के निधन पर श्रद्धांजलि के रूप में अपनाया जाता है। दो मिनट का मौन रखने की परंपरा की शुरुआत प्रथम विश्व युद्ध के बाद हुई थी। 1919 में, ब्रिटेन और उसके सहयोगी देशों ने प्रथम विश्व युद्ध में मारे गए सैनिकों की याद में एक दो मिनट का मौन रखा था। इसे पहली बार 11 नवम्बर 1919 को सुबह 11 बजे मनाया गया। यह पहल किंग जॉर्ज पंचम ने की थी। उन्होंने लोगों से अपील की कि वे युद्ध में मारे गए सैनिकों को श्रद्धांजलि देने के लिए दो मिनट का मौन रखें।

भारत में भी यह परंपरा अपनाई गई, विशेषकर महात्मा गांधी की पुण्यतिथि (30 जनवरी) पर दो मिनट का मौन रखकर उन्हें श्रद्धांजलि दी जाती है। इसके अलावा, किसी भी राष्ट्रीय शोक या बड़ी दुर्घटना पर यह मौन रखा जाता है।

 

https://ajmernama.com/thirdeye/434688/

https://youtu.be/6v56HziDVXE

शुक्रवार, जुलाई 18, 2025

आदमी व औरत के कफन का रंग अलग-अलग क्यों?

दोस्तो, नमस्कार। आपकी जानकारी में होगा कि पुरूश की अर्थी पर सफेद रंग का कफन होता है, जबकि महिला के कफन का रंग अमूमन लाल या हल्का गुलाबी होता है। यह अंतर क्यों?

असल में पुरुष की अर्थी पर सफेद कपड़ा वैराग्य, शुद्धता, और त्याग का प्रतीक माना जाता है। स्त्री की अर्थी पर कभी-कभी लाल या हल्का गुलाबी रंग का कफन या चुनरी रखी जाती है, विशेषकर विवाहित स्त्रियों के मामले में। यह रंग सुहाग, शक्ति, और देवी रूप का प्रतीक माना जाता है।

हिंदू मान्यता में स्त्री को देवी का रूप माना गया है। इसलिए उसकी विदाई (मृत्यु) को भी श्रृंगारयुक्त और सम्मानजनक ढंग से किया जाता है। विशेष रूप से विवाहित स्त्री को साड़ी या चुनरी से सजा कर विदा किया जाता है, मानो वह अपने पति के पास जा रही हो।

पुरुष को मृत्यु के बाद वैरागी माना जाता है, इसीलिए उसका कफन सादा सफेद होता है।

यह अंतर केवल धार्मिक नहीं, बल्कि एक संवेदनात्मक श्रद्धा का भाव भी दर्शाता है। परिवार स्त्री की विदाई को एक विशेष सम्मान और भावनात्मक जुड़ाव के रूप में देखता है।

अगर स्त्री विधवा हो या साध्वी हो, तो उसका कफन भी सामान्यतः सफेद ही होता है, जैसे पुरुषों का होता है।


 https://youtu.be/6gml-ayGQlI

गुरुवार, जुलाई 10, 2025

क्या झूलेलाल और कलंदर एक ही हैं?

दोस्तो, नमस्कार। आम तौर पर सिंधी समुदाय के लोग कई मौकों पर दमादम मस्त कलंदर वाले गीत पर झूमते-नाचते हैं। इसको लेकर विवाद है। वो यह कि झूलेलाल व कलंदर एक ही नहीं हैं। अलग-अलग हैं। बाकायदा तर्क भी हैं। इस पर भारतीय सिंधु सभा ने खूब काम किया है। परचे तक छपवा कर जागृति लाने की कोषिष की है। बावजूद इसके यह गीत आज भी गाया जाता है। हाल ही एक वीडियो मेरी जानकारी में आया। वह पाकिस्तान का है। उसमें भी एक गीत में झूलेलाल व कलंदर को एक बताया गया है। यानि पाकिस्तान के मुसलमान व सूफी भी झूलेलाल व कलंदर को एक ही मानते हैं। इस विशय पर पूर्व में बनाए गए वीडियो का लिंक यह हैः-

https://www.youtube.com/watch?v=COszpBXQYzA&t=146s


बुधवार, जुलाई 09, 2025

रविवार को तुलसी की पूजा क्यों नहीं की जाती?

दोस्तो, नमस्कार। आपको जानकारी होगी कि रविवार को तुलसी की पूजा नहीं की जाती। उसे छूने व पत्ते तोडने की भी मनाही है। आखिर इसकी क्या वजह है? एक मान्यता तो यह है कि रविवार के दिन तुलसी में कुलक्ष्मी का वास होता है। उसकी पूजा करने से कुल में दरिद्रता, क्लेश और रोग प्रवेश करते हैं। बताते हैं कि भगवान श्री विश्णु से वरदान प्राप्त कर कुलक्ष्मी ने एक दिन के लिए तुलसी में वास करने की अनुमति हासिल की थी। प्रतीकात्मक रूप से देखा जाए तो रविवार को तुलसी में कुल की समृद्धि को नष्ट करने वाली ऊर्जा होती है। इसलिए उसकी पूजा करना निशिद्ध है। दूसरी मान्यता के अनुसार तुलसी को लक्ष्मीजी का रूप माना जाता है और यह शीतलता व सात्त्विकता की प्रतीक है। रविवार को सूर्य देवता का दिन माना जाता है, जो तेज, ताप और ऊर्जा के देवता हैं। रविवार को सूर्य का प्रभाव प्रबल होता है और तुलसी के पौधे में जल डालने से उसकी जड़ें कमजोर हो सकती हैं। इस कारण रविवार को पूजा से परहेज किया जाता है। प्रसंगवष बता दें कि पौराणिक नियमों में यह उल्लेख है कि तुलसी के पत्ते रविवार, एकादशी और संक्रांति के दिन नहीं तोड़ने चाहिए। जैसे नित्यं तुलस्याः पत्राणि न गृह्णीयात रविवासरे। कुछ विद्वानों का कहना है कि रविवार के अतिरिक्त शुक्रवार को भी तुलसी के पत्ते नहीं तोडने चाहिए।

शुक्रवार को माता लक्ष्मी की विशेष पूजा होती है। कुछ परंपराओं में यह कहा जाता है कि शुक्रवार को तुलसी के पत्ते तोड़ना या पूजा करना लक्ष्मी का अपमान माना जाता है।


सोमवार, जुलाई 07, 2025

कामुक लोगों की उम्र अधिक क्यों होती है?

दोस्तो, नमस्कार। आम तौर पर वासना व कामुकता को अच्छा नहीं माना जाता। सारे विद्वान वासना से निवृत्ति का उपदेष देते हैं। लेकिन कुछ जानकार बताते हैं कि कामुकता बरकरार रहे तो उम्र बढ जाती है, षरीर स्वस्थ रहता है। इसी सिलसिले में किसी ने रूहानी अंदाज में कहा है कि बढती उम्र में भी करते रहिए इष्क, चेहरे का नूर बरकरार रहेगा।

वस्तुतः भारतीय दर्शन, विशेषतः जैन, बौद्ध और वेदांत परंपरा में वासना को एक बंधन माना गया है। यह आत्मा को संसार में बाँधने वाला तत्व है, जिससे मुक्त होना मोक्ष का मार्ग माना जाता है। ब्रह्मचर्य को मानसिक व शारीरिक बल का स्रोत माना गया है। दूसरी ओर आधुनिक विज्ञान और मनोविज्ञान की मान्यता है कि कामेच्छा एक प्राकृतिक जैविक प्रवृत्ति है। नियमित और संतुलित यौन जीवन मानसिक तनाव को घटाता है, इम्यून सिस्टम मजबूत करता है और हृदय स्वास्थ्य में सहायक होता है। अभिनिवेश यानि (जीने की इच्छा) को प्रेम और आकर्षण भी पोषण देते हैं, जिससे उम्र लंबी हो सकती है। कामुकता केवल शारीरिक इच्छा नहीं है, बल्कि यह मानव की जैविक, हार्मोनल, मानसिक और सामाजिक प्रवृत्तियों का समुच्चय है। यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, जो मानव प्रजनन, संबंध निर्माण, और मानसिक संतुलन से जुड़ी है। विज्ञान के अनुसार, नियमित, सुरक्षित और संतुलित यौन क्रिया से शरीर पर कई सकारात्मक प्रभाव होते हैं। यौन क्रिया से डोपामीन, ऑक्सीटोसिन और एंडोर्फिन जैसे हैप्पी हार्मोन्स बढ़ते हैं। ये हार्मोन तनाव कम करते हैं, नींद सुधारते हैं और त्वचा में चमक लाते हैं। नियमित सेक्स से हृदय गति संतुलित होती है। अध्ययन में पाया गया है कि सप्ताह में 1-2 बार यौन संबंध रखने वालों में इम्यून सिस्टम अधिक मजबूत होता है। ब्रिटेन में हुए एक अध्ययन में पाया गया कि जिन पुरुषों ने नियमित सेक्स किया, उनकी मृत्यु दर कम थी। यह संभवतः मानसिक संतुलन, हार्मोनल स्वास्थ्य और शारीरिक सक्रियता के कारण होता है। कामुकता तनाव और अवसाद को कम करने में सहायक है। इसी प्रकार एक सर्वे में यह भी पाया गया है कि ब्रह्चारी भले ही योग के जरिए आध्यात्मिक षिखर पर पहुंच जाएं, मगर उन की उम्र कम होती है। वजह हार्मोनल असंतुलन। वैसे वैज्ञानिक चेतावनी भी है कि अत्यधिक वासना या आकर्षण की लत एक मानसिक समस्या है। संतुलन जरूरी है। सेक्स का अतिरेक अगर विवेक खो दे, तो तनाव, अपराधबोध, या शारीरिक थकान ला सकता है। कुल मिला कर कामुकता एक जैविक शक्ति है, जिसका संतुलित उपयोग जीवन को लंबा, सुंदर और स्वस्थ बना सकता है। लेकिन यदि यह व्यक्ति पर हावी हो जाए, तो उसका नुकसान भी हो सकता है।

https://youtu.be/0hYwmKux_jc

https://ajmernama.com/thirdeye/434054/

रविवार, जुलाई 06, 2025

आधे मार्ग पर शव की दिशा क्यों बदल दी जाती है?

दोस्तो, नमस्कार। अगर आप किसी की षव यात्रा में गए हों, तो आपको पता होगा कि षवयात्रा के आधे मार्ग में षव की दिषा बदल दी जाती है। षव की दिषा बदलने के लिए ष्मषान के पास बाकयदा चबूतरा बनाया जाता है, जिसे मारवाड में आधेठो कहा जाता है। क्या कभी विचार किया है कि ऐसा क्यों?

इसे तफसील से समझने की कोषिष करते हैं। जब घर से षव यात्रा निकाली जाती है तो षव के पैर आगे और सिर पीछे रखा जाता है। मान्यता है कि प्राणी जब ष्मषान स्थल की ओर जा रहा है तो उसके लिए पैर आगे होने चाहिए, मानो वह चल कर जा रहा हो। आधे मार्ग पर उसकी दिषा बदल जाती है और षव का सिर आगे व पैर रखे जाते हैं, यानि उसने संसार का परित्याग कर दिया है। यह संकेत माना जाता है कि मृत व्यक्ति अब वापस लौट कर नहीं आएगा। यह जीवन से मृत्यु की यात्रा का प्रतीकात्मक विभाजन है। कुछ मान्यताओं में कहा जाता है कि आधे रास्ते तक मृतक का मुख घर की ओर रहता है, क्योंकि अभी वह अपने घर-परिवार से जुड़ा माना जाता है। आधे रास्ते पर दिशा बदलने से संकेत होता है कि अब उसका संबंध भूलोक से पूरी तरह समाप्त हो गया। इसके पीछे मनोवैज्ञानिक कारण भी बताया जाता है, वह यह कि परिजन को यह भाव दिया जाए कि अब लौटने की कोई आशा शेष नहीं है। एक धारणा यह है कि प्राणी का मुख मोड़ दो ताकि आत्मा आसक्ति के कारण पीछे मुड ़कर घर न देखे।


https://ajmernama.com/thirdeye/434014/

https://youtu.be/2ks97Nb6nnU


मंगलवार, जुलाई 01, 2025

ज्योतिष में विदेश यात्रा के योग पर सवाल

दोस्तो, नमस्कार। ज्योतिश विद्या में कुंडली या हस्तरेखा का अध्ययन कर विदेष यात्रा का योग बताया जाता है। सवाल यह है कि विदेष किसे कहा जाता है? पुराने जमाने में एक षहर से दूसरे षहर जाने को भी विदेष कहा जाता था, जबकि अब एक देष से दूसरे देष जाने को। ऐसे में विदेष यात्रा के योग का क्या अर्थ निकाला जाए? वास्तव में “विदेश” शब्द का अर्थ समय और संदर्भ के अनुसार बदलता रहा है। भारत में जब संचार और आवागमन सीमित था, तब अपने नगर या सीमित भूभाग से बाहर जाना ही विदेश जाना कहलाता था। उदाहरण के लिए, किसी गांव या राज्य की सीमा पार करके दूसरे क्षेत्र में जाना “विदेश यात्रा” कही जाती थी। धर्मशास्त्रों और पुराणों में भी “विदेश” शब्द का प्रयोग “अपना देश छोड़ कर परदेश में जाना” (भौगोलिक या सांस्कृतिक दृष्टि से) के अर्थ में हुआ। समुद्र पार जाना तो म्लेच्छ भूमि मानी जाती थी और वह विशेष अशुद्धि का कारण समझी जाती थी। इसलिए ज्योतिष के शास्त्रों में विदेशगमन का महत्त्व काफी बड़ा माना जाता था। अब “विदेश” से आशय एक देश से बाहर किसी दूसरे संप्रभु देश में जाना होता है। यानी भारत से अमेरिका, इंग्लैंड, कनाडा या खाड़ी देशों में जाना। नगर या राज्य के भीतर यात्रा को यात्रा या प्रवास कहते हैं, “विदेश यात्रा” नहीं। जब पारंपरिक ज्योतिष ग्रंथ “विदेश यात्रा” का योग बताते हैं, तो उनका आशय मूलतः व्यक्ति के जन्म स्थान से दूर, परदेश में लंबा प्रवास होता है। यह परदेश देश के भीतर भी हो सकता है, पर आज की व्यावहारिक भाषा में इसे अंतरराष्ट्रीय यात्रा ही माना जाता है।

कुल जमा यही समझ में आता है कि घर से दूरस्थ स्थान पर जाने को विदेष यात्रा कहा जाता है, पहले वह एक षहर से दूसरे षहर के लिए माना जाता था, जबकि अब दूसरे देष के लिए। इसमें किलोमीटर में दूरी का जिक्र नहीं किया जा सकता।


https://youtu.be/ATg4GOEfpV0

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रविवार, जून 29, 2025

मुख पर रुमाल क्यों रखता है दूल्हा?

दोस्तो, नमस्कार। आपने देखा होगा कि अमूमन दूल्हा अपने मुख पर रूमाल रखता है। विषेश रूप से वह अगर हंसे तो दिखाई न दे। दूल्हे के हंसने को अभद्रता माना जाता है। कुछ लोग दूल्हे के हंसने को अनिश्टकारी भी मानते हैं। यह प्रथा विशेषतः सिंधी, गुजराती, राजस्थानी व अन्य हिन्दू समुदायों में देखी जाती है। क्या आपने कभी सोचा है कि इसकी वजह क्या है? असल में भारतीय विवाह परंपराओं में दूल्हे को भगवान विष्णु का रूप माना जाता है, और इसी भावना से जुड़ी हुई है यह प्रथा कि दूल्हा अपने मुख पर रूमाल या वस्त्र रखता है। ताकि भगवान की पवित्रता व गरिमा कायम रहे। कई लोग दूल्हे का दर्षन करते वक्त सोचते हैं कि उन्हें भगवान विश्णु का दर्षन हो रहे हैं। यह दूल्हे के संयमी, विचारशील और मर्यादित होने का प्रतीक भी है। यह दर्शाता है कि विवाह एक देवकार्य है, और दूल्हा इस भूमिका को आदर और मर्यादा के साथ निभा रहा है। एक वजह बुरी नजर से बचाव की भी हो सकती है। विवाह की विशेष रस्म “मुख-दिखाई” के समय ही पहली बार दुल्हन दूल्हे का चेहरा देखती है, तब तक दूल्हा मुख पर रूमाल रखता है।


https://youtu.be/IYipNONlUmA

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जीव-जंतुओं को कैसी दिखाई देती है दुनिया?

दोस्तो, नमस्कार। कभी कभी कौतुहल होता है कि यह जगत जैसा हमें दिखाई देता है, क्या अन्य जीव-जंतुओं को भी वैसा ही दिखाई देता है? इस पर विज्ञान का मत है कि हर प्राणी को दुनिया अलग दिखाई देती है। इसका कारण यह है कि अलग-अलग जीवों की इन्द्रियाँ, दिमाग की संरचना और क्षमता अलग-अलग होती हैं। हम मनुष्य तीन रंगों (लाल, हरा, नीला) को देखने वाले ट्राइकोमैटिक दृष्टि वाले हैं। जबकि कुत्ते सिर्फ दो रंग (पीला और नीला) देख पाते हैं, बाकी रंग उन्हें धुंधले या ग्रे लगते हैं। इसी प्रकार मधुमक्खियाँ अल्ट्रावायलेट किरणें देख सकती हैं, जो हमें बिल्कुल भी नजर नहीं आतीं। उनके लिए फूल अलग चमकते हैं। सांप कुछ खास स्थितियों में इन्फ्रारेड किरणों से गर्मी भी देख सकते हैं। चमगादड़ इकोलोकेशन से देखता है यानी आवाज की गूंज से आकार-आकार पहचानता है। डॉल्फिन भी अल्ट्रासोनिक ध्वनियों से “दुनिया” का बोध करती हैं। हाथी धरती में कंपन सुनकर कई किलोमीटर दूर का आभास कर सकते हैं। कुत्तों की सूंघने की क्षमता हमसे हजारों गुना तेज होती है। उनके लिए गंधों की एक पूरी अलग “दुनिया” है। सांप अपनी जीभ से हवा में मौजूद कणों को पकड़कर “सूंघते” हैं। यानि हर जीव-जंतु की अपनी अनोखी इन्द्रिय-दृष्टि और अनुभूति होती है। इसलिए उनका “जगत” वैसा नहीं जैसा हमें दिखाई या सुनाई देता है। दुनिया वही है, लेकिन हर प्राणी का अनुभव अलग।

 https://youtu.be/KsahY8fxF5E
https://ajmernama.com/thirdeye/433599/

मंगलवार, जून 24, 2025

दूल्हे का चेहरा सेहरे से क्यों ढंका जाता था?

दोस्तो, नमस्कार। सिंधी समुदाय में परंपरा रही है कि षादी में दूल्हे का चेहरा सेहरे से ढंका जाता था। मेरे पिताजी व चाचाजी की षादी हुई, तो उनका चेहरा भी फूलों की माला बना हुआ सेहरा बांधा गया था। आजकल वह परंपरा समाप्त प्रायः हो गई है। सवाल उठता है पुराने समय में सेहरा बांधने की वजह क्या थी? जानकार बताते हैं कि इसके अनेक कारण थे। एक तो सेहरा इसलिए बांधा जाता था कि दूल्हे का चेहरा नजर न आए, ताकि बुरी नजर से बच जाए। शादी जैसे शुभ अवसर पर ईर्श्या या नकारात्मक ऊर्जा से बचाने के लिए यह परंपरा प्रचलित थी। इसके अतिरिक्त सेहरा दूल्हे के लिए एक तरह की विनम्रता और लज्जा का प्रतीक माना जाता था। विवाह को एक पवित्र संस्कार माना जाता है, जिसमें दूल्हा स्वयं को सरल और संयमित रूप में प्रस्तुत करता है। एक बात और। कुछ मान्यताओं के अनुसार, शादी के समय दूल्हा और दुल्हन एक-दूसरे को पहले नहीं देखते। सेहरे के कारण दूल्हे का चेहरा ढंका रहता है, और मुख-दिखाई की एक खास रस्म के दौरान ही दुल्हन को उसका चेहरा दिखाया जाता है। सेहरा फूलों या मोतियों से सजाया जाता है, जिससे दूल्हे का स्वरूप और अधिक शुभ व राजसी दिखाई दे। यह विवाह की भव्यता को भी दर्शाता है। कुल जमा सिंधी समुदाय में सेहरे से दूल्हे के चेहरे को ढकने की परंपरा केवल सौंदर्य या आडंबर का हिस्सा नहीं थी, बल्कि यह परंपरा, सुरक्षा और आध्यात्मिकता का मिश्रण थी।


https://youtu.be/qJNtL0vxL_k


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मंगलवार, जून 17, 2025

भारत ने तो बहुत पहले ही बना लिया था मानव क्लोन

दोस्तो, नमस्कार। जिस मानव क्लोन को बनाने की वर्तमान में चर्चाएं हैं, ऐसे मानव क्लोन का इतिहास त्रेता युग से भी अधिक पुराना है। यह दावा रहा है प्रज्ञा ज्योतिष शोध संस्थान के संचालक पं. पंतराम शर्मा का। कुछ साल पहले उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा था कि ऐसे विस्मयकारी प्रयोग हमें वैदिक वांगमय में अनेकं बार सुनने अथवा पढ़ने को मिलते हैं। 

प्रज्ञा ज्योतिष शोध संस्थान के संचालक पं. पंतराम शर्मा का मानना है कि स्मरण विज्ञान व श्रुति परम्परा (ओरल ट्रेडिशन) के धीरे-धीरे निष्प्रभावी होने के कारण हम भूल गए कि क्लोनिंग और अंतरिक्ष युद्ध जैसे चौंकाने वाले विषय कभी भारतीय वेद, पुराण और इतिहास में व्यवहारिक प्रयोग में थे। क्लोनिंग (रक्त बीज) से उत्पन्न सैनिक पूर्ण कुशलता से युद्ध लड़ा करते थे। यहां तक की उनके पराक्रम और शौर्य का देवगण भी लोहा मानते

थे। श्री शर्मा के अनुसार मानव क्लोनिंग के विषय में वेद, पुराण व इतिहास में बहुत कुछ कहा गया है। हां, स्मरण विज्ञान के लुप्त प्रायः हो जाने और वर्तमान भौतिक विज्ञान की प्रचण्ड आंधी ने स्मृतियों के सारांश पर धूल की अनेक परतें अवश्य जमा दी है। दुर्गा सप्तसती में वर्णित रक्त बीज वध नामक अध्याय का विवरण युद्ध क्षेत्र में क्लोनिंग से असुर सैनिकों की उत्पत्ति पर प्रकाश डालता है। हरिवंश पुराण के पंचम अध्याय में भी मानव क्लोनिंग का रोचक प्रसंग है, जिसमें राजा वेन के अनाचार से कुद्ध होकर महर्षियों ने वेन की दाहिनी भुजा का मंथन कर महान् सदाचारी महिपाल राजा पृथु को उत्पन्न किया। हरिवंश पुराणा में ही एक और उदाहरण देखने को मिलता है जिसमें एक अविवाहित ऋषि ने अपनी वंशवृद्धि की इच्छा से जंघा को चीरकर रक्त निकाला और स्वगुण स्वरूप पुत्र की उत्पत्ति की। ब्रह्मचारी हनुमान के पसीने से मकरध्वज की उत्पत्ति भी विचारणीय है। इन धारणाओं के चलते वर्तमान जैव वैज्ञानिकों द्वारा प्रचारित चिकित्सकीय क्लोनिंग प्रौद्योगिकी पर दृष्टिपात करें तो डॉली नामक भेड़ को क्लोनिंग के जरिए पैदा करने वाले ब्रिटिश वैज्ञानिक प्रो. ईयन विल्मट ने दावा किया कि वे कुछ अनुसंधान के बाद पूर्णतः विकसित मानव कोशिका से दूसरा मानव बना सकते हैं। इसी प्रकार जैव नीति शास्त्र विषय पर इन्डो-जर्मन कार्य शिविर में नीतिपरक चर्चा के दौरान बाखूम विश्वविद्यालय के आणविक जीव विज्ञानी प्रो. स्ट्रेफेर ने जैव नीति शास्त्र पर दार्शनिकों के साथ मिलकर निरंतर विचार- विनिमय की बात पर बल दिया। उन्होंने कहा कि रक्तबीज (क्लोनिंग) क उपयोग ठीक उसी तरह है, जिस प्रकार शूरवीर यौद्धा शस्त्रों का उपयोग आतंकवाद को नष्ट करने के लिए करता है तथा तमोगुणी असुर अपने शस्त्र बल का प्रयोग जन समूह को आतंकित करने के लिए करता है। भारतीय चिंतन में नीति और ज्ञान-विज्ञान की कहीं कमी नहीं है। कमी है सिर्फ स्मरण शास्त्र को लुप्त होने से बचाने की। वर्तमान सरकार द्वारा शिक्षा में स्थापित किए गए नये आयाम यदि निरंतर क्रमोन्नत होते रहे तो हमारे प्राचीन ज्ञान-विज्ञान की पश्चिमी वैज्ञानिकों का मुंह नहीं ताकना पड़ेगा।

इस मसले का एक पहुल यह है कि मानव क्लोनिंग तकनीकी रूप से सिद्धांत में संभव मानी जाती है, लेकिन वर्तमान में यह कानूनी, नैतिक और वैज्ञानिक सीमाओं के कारण व्यवहार में नहीं की जाती। क्लोनिंग का मतलब है किसी जीव का सटीक आनुवंशिक प्रतिरूप बनाना। 1996 में डॉली नाम की भेड़ को क्लोन किया गया था, जिससे यह साबित हुआ कि स्तनधारियों की क्लोनिंग संभव है। उसी तकनीक से, मानव कोशिकाओं की क्लोनिंग (जैसे स्टेम सेल थेरपी के लिए) प्रयोगशालाओं में की गई है, लेकिन पूरा मानव नहीं। क्लोनिंग से जन्मे जानवरों में अक्सर बीमारियां, असामान्यताएं, और कम जीवनकाल देखा गया है। तो इंसानों में ये खतरे और भी गंभीर हो सकते हैं।

ज्ञातव्य है कि लगभग हर देश में मानव क्लोनिंग पर रोक है, जैसे भारत, अमेरिका, यूरोप आदि में। संयुक्त राष्ट्र ने भी 2005 में इसके विरोध में प्रस्ताव पारित किया।

ज्ञातव्य है कि थेरेप्यूटिक क्लोनिंग को कुछ सीमित रूप से स्वीकार किया गया है, ताकि कैंसर, अल्जाइमर, पार्किंसंस जैसी बीमारियों का इलाज खोजा जा सके। लेकिन प्रजनन के लिए मानव क्लोनिंग पर सख्त प्रतिबंध है।

सैद्धांतिक रूप से मानव क्लोनिंग संभव हो सकती है, लेकिन आज की स्थिति में यह व्यावहारिक, नैतिक और कानूनी रूप से अस्वीकार्य है। भविष्य में विज्ञान और समाज की सोच में बदलाव के अनुसार इसमें परिवर्तन हो सकता है, लेकिन फिलहाल यह केवल विज्ञान कथा जैसा ही है।


https://youtu.be/nSF12IxYApE

https://ajmernama.com/thirdeye/433050/

क्या बृहस्पति देव और वीरल पीर एक ही हैं?

दोस्तो, नमस्कार। आमतौर पर लोग बृहस्पति देव और वीरल पीर को एक ही मानते हैं, लेकिन जानकार लोग बताते हैं कि दोनो एक ही नहीं हैं, लेकिन कुछ सांस्कृतिक और लोक आस्थाओं में लोगों ने इन दोनों में समानता या संबंध देखा है। 

वस्तुतः हिंदू धर्म में बृहस्पति देव को देवताओं के गुरु के रूप में जाना जाता है। वे ज्ञान, धर्म, सत्य और ज्योतिष में निपुण माने जाते हैं। बृहस्पति ग्रह को ज्योतिष में सबसे शुभ माना गया है और गुरु के रूप में पूजा जाता है। गुरुवार यानि (बृहस्पतिवार) को इनकी विशेष पूजा होती है, पीले वस्त्र, चना दाल, पीले फूल आदि चढ़ाए जाते हैं।

दूसरी ओर लोकदेवता स्वरूप वीरल पीर या वीर पीर को संन्यासी, योगी या संत के रूप में पूजा जाता है। इनका संबंध कई बार इस्लाम और हिंदू लोक परंपरा दोनों से जुड़ता है। राजस्थान, गुजरात और सिंध क्षेत्र में इनकी लोकपूजा होती है। इन्हें रोग निवारण, रक्षा और चमत्कारों के लिए जाना जाता है। कई बार मुस्लिम संतों को भी पीर कहा जाता है, जो चमत्कारी और मार्गदर्शक होते हैं। कई बार ग्रामीण क्षेत्रों में हिंदू और मुस्लिम मान्यताओं का मेल हो जाता है। इसलिए किसी संत या पीर को बृहस्पति देव का अवतार या प्रतिनिधि मान लिया जाता है। अगर वीरल पीर की पूजा गुरुवार को होती है, तो लोग उन्हें बृहस्पति से जोड़ सकते हैं। शास्त्रीय दृष्टिकोण से बृहस्पति देव और वीरल पीर अलग हैं, लेकिन लोक मान्यताओं और भक्ति परंपरा में उन्हें एक जैसा आस्था का प्रतीक माना जा सकता है।

राजस्थान और सिंध क्षेत्र में बृहस्पति देव और वीरल पीर को जोड़ने की परंपरा लोकविश्वास, सांस्कृतिक समन्वय और धार्मिक सह-अस्तित्व की भावना से उत्पन्न हुई है। 


https://youtu.be/bacfjSLkzHE


बुधवार, जून 11, 2025

क्या महाभारत को घर रखना उचित नहीं है?

दोस्तो, नमस्कार। यह एक आम धारणा है कि महाभारत ग्रंथ को घर में नहीं रखना चाहिए। विशेषकर कुछ परंपरागत हिन्दू परिवारों में। लेकिन इसका कारण धार्मिक से ज्यादा सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक है। आइए इसे विस्तार से समझते हैं- महाभारत एक ऐसे महायुद्ध की कथा है, जिसमें भाई-भाई आमने-सामने हो जाते हैं। इसलिए माना जाता है कि इसे घर में रखने से झगड़े और तनाव का वातावरण बन सकता है। बहुत सी परंपराएं कहती हैं कि अगर आप संपूर्ण महाभारत ग्रंथ ( यानि 18 पर्वों वाला) घर में रखते हैं, तो वह घर कलह का केंद्र बन सकता है। लेकिन यदि कोई व्यक्ति अध्ययन के लिए अंशतः महाभारत जैसे गीता या भीष्म पर्व आदि रखता है, तो वह स्वीकार्य माना जाता है। वस्तुतः यह सोचने वाली बात है कि किसी पुस्तक को घर पर रखने से उसका प्रभाव कैसे पड सकता है। विद्वान कहते हैं कि कोई भी ग्रंथ खुद कलह नहीं लाता। हमारी सोच, व्यवहार और परिवार में प्रेम की भावना ही मूल कारण होते हैं। एक पहलु यह भी है कि महाभारत केवल युद्ध कथा नहीं, बल्कि उसमें नीति, धर्म, कर्तव्य और जीवन के गूढ़ रहस्य भी समाहित हैं। यह एक महान ग्रंथ है, विशेषकर गीता का उपदेश। ऐसे में यदि आप उसमें श्रद्धा और अध्ययन की भावना से रखते हैं, तो कोई दोष नहीं। दिलचस्प बात है कि गीता महाभारत का ही अंष है, मगर उसे हर घर में रखा जाता है और पढा जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि वास्तुविदों ने अपने हिसाब से व्याख्या करके ऐसी धारणा जन जन में डाली है कि युद्ध के ग्रंथ महाभारत को घर पर रखने से घर में झगडे व विवाद हो सकते हैं। जैसे युद्ध के चित्र घर की दीवार पर टांगने को लेकर भी धारणा है कि उससे घर का वातावरण खराब होता है। कुल जमा बात यह है कि महाभारत घर में नहीं रखने की धारणा आस्था जुडी हुई है तो उसका कोई उपाय नहीं, मगर असल में महाभारत को घर में रखना अशुभ नहीं है, बशर्ते आप उसे सही भाव से रखें।

https://ajmernama.com/thirdeye/432789/

https://youtu.be/GsXfDbTLeho


सोमवार, जून 09, 2025

कैसे पहननी चाहिए कछुए वाली अंगूठी?

दोस्तो, नमस्कार। कई लोग कछुए वाली अंगूठी पहनते हैं, उनमें से कई के मन में जिज्ञासा होती है कि उसकी दिषा क्या होनी चाहिए? कछुए वाली अंगूठी यानि टोरटोइज रिंग पहनते समय उसकी दिशा और पहनने का तरीका वास्तु शास्त्र और ज्योतिष के अनुसार विशेष महत्व रखता है। यह अंगूठी धन, सुख-शांति और सौभाग्य को आकर्षित करने के लिए पहनी जाती है। जानकार बताते हैं कि कछुए का मुख यानि सिर आपकी ओर यानी हथेली की ओर होना चाहिए। अर्थात जब आप अपनी हथेली देखें, तो कछुए का सिर आपकी ओर दिखे। ऐसा माना जाता है कि जब कछुए का मुख आपकी ओर होता है, तो वह ऊर्जा और समृद्धि आपकी ओर खींचता है। अगर उसका मुख बाहर की ओर हो, यानी नाखून की ओर, तो वह ऊर्जा बाहर की ओर धकेल सकता है, जिससे लाभ की बजाय हानि हो सकती है। यह अंगूठी आमतौर पर मध्यमा यानि मिडल फिंगर या अनामिका यानि रिंग फिंगर में पहनी जाती है। ज्योतिश परंपरा के अनुसार पुरुष दाएं हाथ में और महिलाएं बाएं हाथ में पहन सकती हैं। यह अंगूठी चांदी या पंचधातु में श्रेष्ठ मानी जाती है। इसके अतिरिक्त इसे पहनना शुक्रवार या सोमवार शुभ माना जाता है।

https://youtu.be/7V7sewBLduo


https://ajmernama.com/thirdeye/432667/

शनिवार, जून 07, 2025

क्या एआई हमें कभी अंतर्ध्यान कर पाएगा?

दोस्तो, नमस्कार। षास्त्रों में आपने देवी-देवताओं के अंतर्ध्यान होने के प्रसंग सुने होंगे। उन्होंने इसके लिए किस विधा का उपयोग किया, पता नहीं, मगर आज के वैज्ञानिक युग में भी इस पर प्रयोग किए जा रहे हैं। अंतर्ध्यान अर्थात इन्विजिबिलिटी की तकनीक पर विज्ञान और आर्टिफिषियल इंटेलिजेंस दोनों ही अलग-अलग दृष्टिकोणों से काम कर रहे हैं।

विज्ञान की दृष्टि से देखें तो आज के युग में वस्तुओं को अदृश्य बनाना कुछ हद तक संभव हो चुका है, लेकिन बहुत सीमित परिस्थितियों में। मेटा मटीरियल्स का उपयोग करके वैज्ञानिक कुछ तरंगों (जैसे कि माइक्रोवेव या इन्फ्रारेड) को मोड़ सकते हैं, जिससे वस्तु दिखाई नहीं देती। 2020 में कुछ शोधों में छोटे स्तर पर ऐसी वस्तुओं को दिखाया गया, जो कुछ खास एंगल से अदृश्य लगती थीं।

एआई खुद अंतर्ध्यान नहीं कर सकता, लेकिन इसमें मदद कर सकता है। एआई मेटामटीरियल्स और नैनो टेक्नोलॉजी के डिजाइन में मदद कर सकता है, ताकि लाइट वेव्स को मोड़ा जा सके। एआई की मदद से अंतर्ध्यान के लिए उपयोगी संरचनाओं और फॉर्मूलों, सिमुलेशन और मॉडलिंग को तेजी से टेस्ट किया जा सकता है। किसी भी अंतर्ध्यान डिवाइस को नियंत्रित करने के लिए स्मार्ट सेंसिंग और रिएक्शन सिस्टम की जरूरत होगी। जिसमें एआई की बड़ी भूमिका हो सकती है। फिलहाल इंसानों को पूरी तरह अदृश्य बनाना केवल साइंस फिक्शन में ही संभव है।

ज्ञातव्य है कैमुफ्लाज सूट आसपास के वातावरण की छवि को डिस्प्ले करता है, जिससे व्यक्ति अदृश्य हो जाता है। ऑप्टिकल क्लोकिंग डिवाइसेज भी बने हैं, जो अभी बहुत प्रारंभिक स्तर पर हैं।

कुल मिला कर एआई खुद अंतर्ध्यान की तकनीक नहीं खोजेगा, लेकिन यह एक सहयोगी उपकरण की तरह वैज्ञानिकों की मदद करेगा। अभी तक पूरी तरह से कार्यशील अंतर्ध्यान तकनीक मानव के लिए उपलब्ध नहीं है, पर भविष्य में एआई़ मेटामटीरियल्स ़ नैनो टेक्नोलॉजी की मदद से यह संभव हो सकता है, खासकर सैन्य या रिसर्च एप्लिकेशन में।

कनाडा की कंपनी एक ने एक ऐसी शीट डिवाइस का दावा किया है जो पीछे की रोशनी को इस तरह बेंड करती है कि सामने खड़ा व्यक्ति गायब लगने लगता है। वे इसे लेंस आधारित क्लोकिंग बताते हैं, बिना बैटरी या प्रोजेक्शन के। एआई की मदद से हम जल्द ही ऐसे डायनामिक क्लोकिंग सिस्टम बना सकते हैं, जो किसी भी वस्तु को अपने वातावरण के अनुसार खुद को ढालने में सक्षम बनाए। लब्बोलुआब, पूरी तरह मानव अंतर्ध्यान अभी काल्पनिक है, लेकिन छोटे उपकरण, ड्रोन या वस्तुएं कुछ एंगल से अदृश्य बनाई जा सकती हैं।


https://youtu.be/2Sgs39KNia8


मंगलवार, जून 03, 2025

भगवान दयालु नहीं?

एक कहावत है कि जो होता है, वह अच्छे के लिए होता है अथवा जो होगा, वह अच्छे के लिए होगा। मैं इससे तनिक असहमत हूं। मेरी नजर में हमारे साथ वह होता है, जो उचित होता है। उसकी वजह ये है कि प्रकृति अथवा जगत नियंता को इससे कोई प्रयोजन नहीं कि हमारा अच्छा हो रहा है या बुरा। प्रकृति तो वही करती है, जो हमारे कर्मों व प्रारब्ध के अनुसार उचित होता है। अच्छा या बुरा तो हमारा दृष्टिकोण है। जो हमारे अनुकूल होता है, उसे हम अच्छा मानते हैं और जो प्रतिकूल होता है, उसे बुरा मानते हैं। 

वस्तुतः प्रकृति निरपेक्ष भाव से काम करती है। जैसे सूरज की रोशनी अमीर पर भी उतनी ही गिरती है, जितनी की गरीब पर। सज्जन पर भी उतनी ही, जितनी दुष्ट पर। इसी प्रकार बारिश न तो महल देखती है और झोंपड़ी, वह तो सब पर समान रूप से गिरती है। 

मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि जिन भी विद्वानों ने उपर्युक्त कहावत कही है, उसके पीछे हमें सकारात्मकता बनाए रखने का प्रयोजन है। अगर बुरा भी हो रहा होता है तो, जो कि उचित होता है, उसमें अच्छाई पर ही नजर रखने की प्रेरणा है। यह सही भी है कि अच्छाई व बुराई का जोड़ा है, जो अच्छा है, उसमें कुछ बुरा भी होता है और जो बुरा होता है, उसमें भी कुछ अच्छा होता है। हम निराश न हों, इसलिए कहा जाता है कि भगवान जो कर रहे हैं, उसमें जरूर हमारी भलाई है। यह सिर्फ मन को समझाने का प्रयास है। आपने यह उक्ति भी सुनी होगी- जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिये। अर्थात प्रकृति जो कर रही है, उसमें राजी रहें, वही हमारी नियति है, चूंकि उसके अतिरिक्त हमारे पास कोई चारा भी नहीं है। बेहतर ये है कि हम उसे हमारे लिए उचित मान कर स्वीकार कर लें।

इसी कड़ी में यह बात जोड़ देता हूं। वो यह कि यह बात भी गलत है कि भगवान कृपा के सागर है, दयालु हैं। वे तो कर्म के अनुसार फल देते हैं। यदि बुरे कर्म करेंगे तो बुरा फल देंगे और अगर हम कर्म अच्छे करते हैं तो वह उसके अनुरूप अच्छा फल देने को प्रतिबद्ध हैं। दयालु तो तब मानते, जब कि हम कर्म तो बुरे करें और भगवान की कृपा से फल अच्छा मिले। ऐसे में कर्म का सिद्धांत झूठा हो जाता। पुनः दोहराता हूं कि परम सत्ता निरपेक्ष है। दया व क्रोध को वहां कोई स्थान नहीं। हां, इतना जरूर है कि चूंकि हमें कर्म करने की स्वतंत्रता मिली हुई है, इस कारण हम अच्छे कर्म करके बुरे कर्मों के प्रभाव को कम कर सकते हैं। 

मेरे ख्याल में एक बात और है। सही या गलत, पता नहीं। वो यह कि यदि हम बुरा कर्म कर चुके हैं और उसके बाद भगवान की भक्ति करते हैं, अनुनय-विनय करते हैं, माफी मांगते हैं, तो प्रायश्चित करने के उस भाव की वजह से, सच्चे दिल से गलती मानने से, कदाचित बुरे कर्म का बंधन कुछ कट जाने का भी सिद्धांत हो, जिसकी वजह से बुरे कर्म का उतना बुरा फल न मिलता हो, इस कारण भगवान को दयालु बताया जाता हो।

कुल जमा बात ये है कि यदि हम हमारा भला चाहते हैं तो अच्छे कर्म करें, बुरे कर्म करके ऐसी नौबत ही क्यों लाएं कि माफी की अर्जी लगानी पडें।


https://www.youtube.com/watch?v=MpE2nmTdOeQ

क्या एआई श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद रिकार्ड कर पाएगा?

दोस्तो, नमस्कार। इन दिनों आर्टिफिषियल इंटेलिजेंस का बोलबाला है। अनेक आयामों में उसकी सफलता देख कर सभी अचंभित हैं। उसके जरिए ब्रह्मांड के ऐसे रहस्यों की खोज हो रही है, जिसक कल्पना तक नहीं की गई थी। ऐसे में एक सवाल उभर कर आया है। कि महाभारत युद्ध में भगवान श्रीकृश्ण ने अर्जुन को गीता का जो उपदेष दिया गया था, उस संवाद को क्या रिकार्ड किया जा सकता है? ज्ञातव्य है कि गीता कोई लिखित ग्रंथ नहीं है, बल्कि श्रीकृश्ण-अर्जुन संवाद है। विज्ञान के अनुसार कोई भी ध्वनि कभी नश्ट नहीं होती। ब्रह्मांड में कहीं न कहीं मौजूद रहती है। इसी को ख्याल में रखते हुए किसी समय में ओषो ने कुछ वैज्ञानिकों के समूह को यह काम सौंपा था। कि उस संवाद को रिकार्ड किया जाए। सैद्धांतिक रूप से यह माना जाता था कि रिकार्डिंग संभव है। ओषो के निधन के बाद बात आई गई हो गई। आज जब एआई ने नई खोजों से चमत्कृत कर रखा है, यह सवाल उठा है कि क्या उसके जरिए श्रीकृश्ण-अर्जुन संवाद को रिकार्ड किया जा सकता है।

इस बारे में एआई के जानकारों का कहना है कि श्रीमद्भगवद् गीता वास्तव में श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच का संवाद है, जो महाभारत के युद्धभूमि कुरुक्षेत्र में हुआ था। यह संवाद लगभग 5,000 वर्ष पूर्व घटित हुआ माना जाता है और इसे श्रुति अर्थात श्रवण से प्राप्त ज्ञान और शाश्वत सत्य के रूप में देखा जाता है, जो केवल शब्दों से नहीं, बल्कि अनुभव और चेतना की उच्च अवस्था से जुड़ा हुआ है। ताजा स्थिति ये है कि एआई वर्तमान में केवल उन ध्वनियों को रिकॉर्ड या पुनर्निर्मित कर सकता है जो कभी भौतिक रूप से उत्पन्न हुई हों और उनका कोई रिकॉर्ड मौजूद हो। चूंकि श्रीकृष्ण-अर्जुन का वास्तविक संवाद (ध्वनि रूप में) 5,000 वर्ष पहले हुआ और कोई भी यंत्र उस समय मौजूद नहीं था, इसलिए उस मूल ध्वनि को वह रिकॉर्ड नहीं कर सकता। कुछ वैज्ञानिक विचार (जैसे कि अकाश तत्व में ध्वनि का संग्रह क्वांटम रेजोनेंस आदि) यह संकेत करते हैं कि ब्रह्मांड में हर ऊर्जा, हर ध्वनि कहीं न कहीं प्रतिध्वनित होती है। यदि भविष्य में कोई ऐसी तकनीक बनती है जो ब्रह्मांडीय ध्वनि-अवशेष अर्थात कॉस्मिक साउंड इंप्रिंट्स को डिकोड कर सके, तब सैद्धांतिक रूप से शायद उस संवाद का कंपन पकड़ा जा सके। पर यह अभी कल्पना के क्षेत्र में ही है।

भारतीय दर्शन में कहा गया है कि गीता का ज्ञान अपौरुषेय (मनुष्य द्वारा न रचित) है, वह अनादि और शाश्वत है।

योगियों और ऋषियों के अनुसार, उस ध्वनि को केवल ध्यान, आंतरिक चेतना और श्रवण यानि इनर हियरिंग से अनुभव किया जा सकता है, न कि बाहरी यंत्रों से। इसे नाद या ओंकार के रूप में भी जाना जाता है, जिसे सूक्ष्म रूप में केवल अनुभवी साधक ही सुन सकते हैं। निश्कर्श यह कि उस मूल गीता संवाद की ध्वनि को वर्तमान में या निकट भविष्य में रिकॉर्ड नहीं किया जा सकता।

शनिवार, मई 17, 2025

बुजुर्ग भाइयों के चेहरे मिलते जुलते हैं?

दोस्तो, नमस्कार। पुरानी पीढी के लोगों को देखेंगे तो भाई भाई की षक्ल लगभग एक जैसी नजर आएगी। काफी समानता दिखाई देगी। जब कि आज ऐसा नहीं है। भाई भाई की षक्ल कम ही मिलती है। मिलती है तो थोडी बहुत। मेरे मित्र लक्ष्मण सतवानी उर्फ कालू भाई ने मुझे यह जानकारी दी। उनका कहना है कि पुराने समय में गर्भवती महिलाएं अमूमन घर में ही रहती थीं। बाहर कम ही निकलती थीं। सारे दिन उसके सामने घर के ही सदस्य होते थे। बाहर नहीं निकलने के कारण अन्य चेहरे उसके सामने आते ही नहीं थे। इस कारण संतान में बुजुर्गों का अक्स आता था। आजकल गर्भवती महिलाएं बाहर जाती हैं। नौकरी के लिए या किसी काम से। वह अन्य पुरूशों के चेहरे भी देखती है। इसका उसके मन मस्तिश्क पर असर पडता है। और उसका प्रभाव गर्भस्थ षिषु पर भी पडता है। कदाचित यह सही हो, मगर इस धारणा का वैज्ञानिक पहलु यह है कि भाई-भाई के चेहरों में समानता का मुख्य कारण जीन होते हैं। संतान अपने माता-पिता से जीन प्राप्त करती है। जब माता-पिता एक ही जातीय, सामाजिक या क्षेत्रीय पृष्ठभूमि से होते हैं (जैसा कि पहले अधिकतर होता था), तब उनकी संतानों में जीन का मेल अधिक होता है, जिससे भाई-भाई में अधिक समानता नजर आती है।

आजकल, अंतर्जातीय विवाह, अंतर-क्षेत्रीय विवाह अधिक होते जा रहे हैं, जिससे जीन का मिश्रण विविध हो गया है। इसका परिणाम यह है कि बच्चों में विविधता अधिक दिखने लगी है। निश्कर्श यह है कि यह धारणा कि गर्भवती महिला के द्वारा देखे गए चेहरों का प्रभाव भ्रूण के चेहरे पर पड़ता है, वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित नहीं है। पुराने समय में भाई-भाई में समानता अधिक इसलिए दिखती थी क्योंकि जीन पूल सीमित था और विवाह की विविधता कम थी।

आज की विविधता, मिश्रित समाज और व्यापक सामाजिक संपर्क ने अनुवांशिक विविधता बढ़ा दी है, जिससे चेहरे अलग-अलग नजर आते हैं। यह तय करने में कि बच्चा किसकी तरह दिखेगा, केवल और केवल जीन ही भूमिका निभाते हैं, न कि गर्भवती महिला ने किसे देखा या किनके साथ समय बिताया।

इस पर सवाल उठता है कि तो अमूमन लोग गर्भवति के कमरे में क्यों खुबसूरत बच्चे की फोटो लगाते हैं, इसलिए न कि गर्भस्थ शिशु भी सुंदर हो। इस बारे में वैज्ञानिक दृश्टिकोण यह है कि गर्भ के दौरान अच्छे पोषण, मानसिक शांति, और तनाव-मुक्त वातावरण से बच्चे के संपूर्ण विकास पर जरूर असर पड़ता है, लेकिन इससे चेहरे की सुंदरता नहीं बदलती। सकारात्मक माहौल से हॉर्मोन बैलेंस बना रहता है, जिससे शिशु का मानसिक और शारीरिक विकास बेहतर हो सकता है।


https://youtu.be/ShORoNDJLto


बुधवार, मई 14, 2025

केवल गहरी चिंता भी प्रार्थना बन जाती है?

जब हम किसी बात से परेषान होते हैं, तो अपने इश्ट देव से, भगवान से प्रार्थना करते हैं, खुदा से दुआ मांगते हैं। इस उम्मीद में कि वहां से मदद आएगी। आती भी है। इससे इतर अगर हम मदद की गुहार नहीं भी करते और चिंता में ही गहरे डूबे रहते हैं, तब भी वह प्रार्थना बन जाती है और प्रकृति से मदद आती है।

मेरे एक अति प्रिय मित्र श्री ऋशिराज षर्मा, जो कि वरिश्ठ पत्रकार हैं, ने अपने किसी दोस्त के हवाले से बताया कि जब हम किसी बात से परेषान होते हैं, तो अपने इश्ट देव से, भगवान से प्रार्थना करते हैं, खुदा से दुआ मांगते हैं। इस उम्मीद में कि वहां से मदद आएगी। आती भी है। इससे इतर अगर हम मदद की गुहार नहीं भी करते और चिंता में ही गहरे डूबे रहते हैं, तब भी वह प्रार्थना बन जाती है और प्रकृति से मदद आती है। प्रत्यक्षतः यह बात गले नहीं उतरती। यदि हम सहायता की प्रार्थना नहीं करेंगे तो भला कोई देवी-देवता, भगवान अथवा खुदा क्यों द्रवित हो कर कृपा करेगा। केवल चिंता में डूबने से क्या हो जाएगा?

इस विशय पर मैने इसलिए गहन चिंतन-मनन किया कि कोई अगर ऐसी बात कर रहा है, तो जरूर उसका कोई तो आधार होगा। हो सकता है कि उसका यह निजी अनुभव भी हो।

ऐसा प्रतीत होता है कि जब भी हम गहरी पीडा में होते हैं तो प्रकृति स्वयं आगे हो कर उसे दूर करने में जुट जाती है। इसका एक उदाहरण मेरे ख्याल में है। एक प्रवचन में ओषो ने जिक्र किया है कि ऐसे कई कीट-पतंग, जीव-जंतु हैं, जो दुर्घटनाग्रस्त होते हैं, जिन्हें कि मानव मदद नहीं मिलती, तो वे क्षतिग्रस्त भाग पर अपना पूरा ध्यान केन्द्रित कर लेते हैं, एकाग्र हो जाते हैं और प्रकृति उसे दुरूस्त करने लगती है।

यह बात उपर उल्लेखित बात से तनिक मेल खाती प्रतीत होती है। गहरी पीडा के वक्त भी आदमी एकाग्र हो जाता है, भले ही वह किसी देवता का स्मरण न कर रहा हो, मगर दुख से निवृत्ति का भाव तो होता ही है, ऐसे में कदाचित प्रकृति विकृत स्थिति को दुरूस्त करने लगती हो। इस तथ्य को हम लॉ ऑफ अटेक्षन से भी जोड कर देख सकते हैं, जिसमें कहा गया है कि जब भी हम कोई मजबूत संकल्प लेते हैं तो प्रकृति की सारी षक्तियां उसे पूरा करने में जुट जाती हैं।

यह प्रकरण इसलिए जिक्र नहीं किया जा रहा कि दुख के समय में भगवान से मदद की गुहार करने की जरूरत नहीं है, बल्कि उस कीमिया को समझने का प्रयास मात्र है, जो कि प्रकृति में इनबिल्ट है। 

प्रकृति अपनी ओर से कैसे काम करती है, इसके एक दो छोटे उदाहरण देखिए। जब भी हमें चोट लगती है, खून बहता है तो जल्द ठीक होने के लिए हम दवाई लेते हैं, लेकिन यह भी सही है कि प्रकृति खुद थक्का बना कर खून को बहने से रोकती है। इसे तो चिकित्सा विज्ञान भी स्वीकार करता है कि जब हड्डी टूटती है तो डाक्टर इतना भर करता है कि उसे ठीक से बैठा कर दर्द निवारक दवा दे देता है, मगर हड्डी को जाडने की स्वतः प्रक्रिया तो प्रकृति ही करती है। आपने देखा होगा कि कोई कुत्ता-बिल्ली आदि जानवर चोटिल हो जाते हैं तो अपनी जीभ से चोटग्रस्त स्थान को जीभ से चाटते हैं। विज्ञान कहता है कि जीभ की लार में घाव को ठीक करने के तत्व मौजूद रहते हैं। यह प्रकृति का ही तो कमाल है कि भोजन करते वक्त, पानी पीते वक्त उसका कुछ अंष अगर ष्वास नली में चला जाए तो प्रकृति उसे खांसी के जरिए बाहर निकालने लग जाती है। जब भी कोई विशाक्त पदार्थ षरीर के भीतर प्रवेष करता है तो प्रकृति उसे बाहर निकालने की कोषिष करती है, जिसे हम उल्टी करना कहते हैं।

कुल मिला कर इस निश्कर्श पर पहुंचा जा सकता है कि प्रकृति सदैव संतुलन करने में जुटी रहती है। जहां भी विकृति होती है तो उसे फिर से ठीक कर प्राकृतिक अवस्था में लाने में प्रवृत्त होती है। षायद यही सिद्धांत हमारे गहरे चिंतित होने पर भी लागू होता हो। और हम यह सोचते हैं कि अमुक देवी-देवता की प्रार्थना करने से दुख की निवृत्ति हुई है, जबकि असल में वह प्रकृति का कमाल हो।


https://www.youtube.com/watch?v=bMBH2cV8Wpw