अंतत: जब पानी सिर पर से ही गुजरने लगा तो भारतीय जनता पार्टी को अपने राज्यसभा सांसद और जाने-माने वकील राम जेठमलानी को पार्टी से बाहर करने का फैसला करने की नौबत आ गई। गौरतलब है कि जेठमलानी जहां पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी के इस्तीफे की मांग पर अड़े हुए थे, वहीं सीबीआई के नए डायरेक्टर की नियुक्ति पर पार्टी से अलग रुख दिखाने से पार्टी की आंख की किरकिरी बने हुए थे। वे खुल कर पार्टी के खिलाफ मोर्चाबंदी करने लगे थे। ऐसे समय में जब कि पार्टी अपने अध्यक्ष नितिन गडकरी पर लग रहे आरोपों के चलते परेशानी में थी, जेठमलानी ने लगातार आग में घी डालने का काम किया। और तो और जेठमलानी ने पार्टी हाईकमान को चुनौती देते हुए कहा था कि उन्हें पार्टी से निकालने का दम किसी में नहीं है। हालांकि पार्टी को निर्णय करने से पहले दस बार सोचना पड़ा क्योंकि वे पार्टी से बाहर होने के बाद और ज्यादा नुकसान पहुंचाने का माद्दा रखते हैं, मगर वे इससे भी ज्यादा किरकिरी पार्टी में रहते हुए कर रहे थे। ऐसे में आखिर पार्टी ने उस अंग को काटना ही बेहतर समझा, जिसका जहर पूरे शरीर में फैलने का खतरा था। ज्ञातव्य है कि उनकी पहल के बाद वरिष्ठ भाजपा नेता यशवंत सिन्हा व शत्रुघ्न सिन्हा भी खुल कर सामने आ गए थे।
बहरहाल, राम जेठमलानी की आगे की राम कहानी क्या होगी, ये तो आगे आने वाला वक्त ही बताएगा, मगर कम से कम राजस्थान के भाजपाइयों में यह चर्चा उठने लगी है कि आखिर ऐसे पार्टी कंटक को यहां से राज्यसभा सदस्य का चुनाव काहे को जितवाया?
वस्तुत: जेठमलानी की फितरत शुरू से ही खुरापात की रही है। पहले भी वे कई बार पार्टी के खिलाफ मोर्चा खोल चुके हैं। ऐसे में अब वे भाजपा नेता ये सवाल खड़ा करने की स्थिति में आ गए हैं कि आखिर ऐसी क्या वजह रही कि उनके बगावती तेवर के बाद भी राजस्थान के किसी और नेता का हक मार पर पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा के दबाव में राज्यसभा बनवाया गया?
आपको याद होगा कि जब वसुंधरा जेठमलानी को राज्यसभा चुनाव के दौरान पार्टी प्रत्याशी बनवा कर आईं तो भारी अंतर्विरोध हुआ, मगर वसुंधरा ने किसी की न चलने दी। सभी अचंभित थे, मगर छिटपुट विरोध के अलावा कुछ न कर पाए। विशेष रूप से संगठन के नेता तो जेठमलानी पर कत्तई सहमत नहीं थे, मगर विधायकों पर अपनी पकड़ के दम पर वसुंधरा उन्हें जितवाने में भी कामयाब हो गईं।
यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि जेठमलानी के विचार भाजपा की विचारधारा से कत्तई मेल नहीं खाते। उन्होंने बेबाक हो कर भाजपाइयों के आदर्श वीर सावरकर की तुलना पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना से की थी। इतना ही नहीं उन्होंने जिन्ना को इंच-इंच धर्मनिरपेक्ष तक करार दे दिया था। पार्टी के अनुशासन में वे कभी नहीं बंधे। पार्टी की मनाही के बाद भी उन्होंने इंदिरा गांधी के हत्यारों का केस लड़ा। इतना ही नहीं उन्होंने संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी नहीं देने की वकालत की, जबकि भाजपा अफजल को फांसी देने के लिए आंदोलन चला रही है। वे भाजपा के खिलाफ किस सीमा तक चले गए, इसका सबसे बड़ा उदाहरण ये रहा कि वे पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतर गए।
आपको बता दें कि जब वे पार्टी के बैनर पर राज्यसभा सदस्य बने तो मीडिया में ये सवाल उठे थे कि क्या बाद में पार्टी के सगे बने रहेंगे? क्या वे पहले की तरह मनमर्जी की नहीं करेंगे? आज वे आशंकाएं सच साबित हो गई। जाहिर सी बात है कि उन्हें जबरन जितवा कर ले जानी वाली वसुंधरा पर भी सवाल तो उठ ही रहे हैं।
-तेजवानी गिरधर
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