तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

सोमवार, अक्टूबर 29, 2012

शर्म नहीं आई पूर्व थल सेना अध्यक्ष सिंह को बयान देते?


पूर्व थल सेना अध्यक्ष जनरल वी के सिंह ने मुम्बई में टीम अन्ना शामिल होते हुए अन्ना हजारे के साथ संयुक्त बयान दिया कि यूपीए सरकार असंवैधानिक है और संसद को तुरंत भंग किया जाए। इतना ही नहीं उन्होंने यहां तक कहा कि जितना ब्रिटिश सरकार ने नहीं लूटा, उससे कहीं अधिक पिछले पैंसठ साल में सरकार ने देश को लूटा है। कदाचित बहुत ज्यादा नहीं पढ़े-लिखे अन्ना हजारे को सेना की नौकरी करते हुए सरकार की हकीकत समझ में न आई हो, मगर पूरी जिंदगी थल सेना अध्यक्ष जैसे गरिमापूर्ण पद की सुविधाओं और सम्मान को भोग चुका व्यक्ति अगर सेवा निवृत्त हो कर इस प्रकार का बयान देता है तो वह सरकार से कहीं ज्यादा खुद उसके लिए शर्मनाक है। यदि वाकई देश का इतना दर्द था, देशभक्ति इतना ही उछाल मार रही थी तो नौकरी छोड़ कर देते ये बयान देते। कैसी विडंबना है कि इसी सरकार के सर्वाधिक महत्वपूर्ण पदों में एक पर रह कर पूरी जिंदगी सुख भोगने वाले व्यक्ति की जुबान अभिव्यक्ति की आजादी का उपयोग करते हुए लडख़ड़ाई तक नहीं। वाकई यह बेशर्मी की इंतहा है।
होना तो यह चाहिए था कि जब भी सिंह की समझदानी में यह बात आई कि यह सरकार लुटेरी है और देशभक्ति इतनी ही कूट-कूट कर भरी थी तो नौकरी छोड़ देते और सरकार के खिलाफ बिगुल बजा देते, तो उनकी महानता समझ में आती। कहने की जरूरत नहीं है कि ये वही सिंह हैं, जो कुर्सी की पूरा सुख भोगने की खातिर उम्र विवाद को सेवानिवृत्ति तक खींचते रहे। उन्हें इस संदेह का लाभ कत्तई नहीं दिया जा सकता कि उन्हें नौकरी पर रहते सरकार की असलियत का पता नहीं था और नौकरी पूरी होते ही पता लगा है कि सरकार लुटेरी है। स्पष्ट है कि वे सरकार के बारे में अपनी धारणा को दिल में कायम रखते हुए नौकरी के अनुशासन में बंध कर चुप थे और साथ ही उसका पूरा ऐश्वर्य भी भोग रहे थे। अब जब कि नौकरी नहीं रही तो खुल कर मैदान में आ गए हैं। पता है कि अब उनका कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता, चाहे जो बयान जारी करें।
एक बात और। ये वही वी के सिंह हैं, जिनके उम्र विवाद के चलते सेना व सरकार के बीच टकराव की नौबत आ गई थी। बीते साल 4 अप्रैल को इंडियन एक्सप्रेस में खबर छपी कि 16 जनवरी को सेना की दो टुकडिय़ां हिसार और आगरा से दिल्ली की ओर कूच कर चुकी थीं, जिसका सीधा सा अर्थ था कि सिंह तख्ता पटल जैसी हरकत करने का मानस बना चुके थे। यह वही दिन था, जिस दिन सेना प्रमुख की याचिका सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट में आ रही थी। मीडिया में यहां तक छपा कि क्या जनरल सिंह ने 16 जनवरी की रात को भारत का परवेज मुशर्रफ बनने की ठान ली थी? वे लोकतंत्र का अपहरण कर सैन्य शासन लाने का ताना-बाना बुन चुके थे? हालांकि भारत सरकार और भारतीय सेना, दोनों ने इन आरोपों का खंडन किया और कहा गया कि वह सेना की टुकडिय़ों का रूटीन अभ्यास था, मगर शक की सुई तो सिंह पर घूम चुकी थी। इस खबर को लेकर यह बात भी आई कि सिंह को बदनाम करने के लिए यह प्रायोजित की गई थी। इस बारे में सैन्य मामलों को जानकार सेवानिवृत्त मेजर जनरल अशोक मेहता का कहना था कि भारत में इस तरह तख्ता पलट करना अथवा तख्ता पलट की धमकी देना संभव नहीं है, लेकिन इस खबर में शक तो गुंजाइश है है। शक इसलिए माना गया चूंकि आम तौर पर सेना की टुकडिय़ों के अभ्यास की खबर सरकार को पहले से ही दी जाती है, लेकिन इस मामले में ऐसा नहीं हुआ था।
एक बात और गौर करने लायक है। वो यह कि आज अगर सिंह को अन्ना हजारे गले लगा रहे हैं तो वह इसी कारण न कि सिंह के नाम के साथ पूर्व थल सेना अध्यक्ष का तमगा लगा है। उनका बयान असर डालेगा कि एक पूर्व थल सेना अध्यक्ष यदि सरकार के बारे में कुछ कह रहे हैं तो, जरूर सही ही कह रहे होंगे। यानि कि उसी पद का लाभ उठा रहे हैं। उससे भी गंभीर बात, जिस पर किसी की नजर नहीं गई है, वो यह कि एक पूर्व सेना अध्यक्ष का यह रवैया सैनिकों में बगावत का भाव भी तो पैदा कर सकता है। इस सिलसिले में अन्ना का सेवानिवृत्त सेनाधिकारियों को लामबंद करना कई प्रकार की आशंकाओं को जन्म देता है।
ऐसा नहीं कि सिंह अकेले ऐसे अफसर हैं, जो सेवानिवृत्ति के बाद खुल कर सरकार के खिलाफ खड़े हैं। पहले भी कई अफसर इस प्रकार की हरकतें कर चुके हैं। खैरनार जैसे कम ही अफसर रहे हैं जो ईमानदारी को जिंदा रखने के लिए नौकरी पर रहते हुए सरकारों से टकराव ले चुके हैं। इस सिलसिले में अरविंद केजरीवाल जरूर समर्थन के हकदार हैं, जिन्होंने समाजसेवा व देश सेवा की खातिर अच्छी खासी नौकरी छोड़ दी, यह बात दीगर है कि उसमें भी उन्होंने नियम-कायदों को ताक पर रख दिया। बाद में कलई खुली तो बड़ा अहसान जताते हुए बकाया चुकाने को राजी हुए।
लब्बोलुआब, देश हित की खातिर लोकतांत्रिक तरीके से आंदोलन करना भले ही हमारा जन्मसिद्ध अधिकार हो, मगर पूरी जिंदगी सरकारी नौकरी का आनंद उठा कर सेवानिवृत्त होने पर सरकार के खिलाफ बकवास करना कत्तई जायज नहीं ठहराया जा सकता।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, अक्टूबर 25, 2012

किरण ने भी जताई गडकरी के प्रति वफादारी


भाजपा की राष्ट्रीय महासचिव एवं विधायक श्रीमती किरण माहेश्वरी ने भी अपने अध्यक्ष नितिन गडकरी के प्रति वफादारी जाहिर कर दी है। इससे पहले जहां पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने गडकरी को संबल प्रदान किया, वहीं लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज भी खुल कर साथ खड़ी हो चुकी हैं। प्रवक्ता बलबीर पुंज व मुख्तार अब्बास नकवी भी औपचारिक रूप से निष्पक्ष जांच की मांग करते हुए औपचारिकता निभा चुके हैं। ये बात दीगर है कि शतरंज में ढ़ाई घर की चाल चलने वाले भाजपा सांसद राम जेठमलानी ने जरूर विभीषण वाला काम कर दिया है।
खैर, अपुन बात कर रहे थे, किरण माहेश्वरी की। उन्होंने अपने लिखित बयान में गडकरी को इस बात के लिए बधाई दी है कि उन्होंने उन पर लगाए जा रहे भ्रष्टाचार के आरोपों की किसी भी एजेन्सी से जांच करवाने को कहा है। अब इसमें बधाई वाली बात कहां से आ गई, ये तो खुद किरण माहेश्वरी ही जानें। किरण के बयान में विरोधाभास देखिए। एक ओर वे कहती हैं कि सारी एजेंसियां कांग्रेस सरकार के नियत्रंण में है, इसलिए यह भी नहीं कहा जा सकता कि जांच में शिथिलता एवं पक्षपात की संभावना है। दूसरी ओर वे यह अपेक्षा भी रख रही हैं कि केन्द्रीय सरकार के अधिकरण कांग्रेस के दबाव में विद्वेष पूर्वक कार्यवाही नहीं करेंगे। सवाल ये उठता है कि यदि आपको सरकार पर भरोसा ही नहीं है तो जांच की मांग काहे को कर रहे हैं। अर्थात जांच की मांग इस कारण कर रहे हैं ताकि फिलहाल कहीं कमजोरी साबित न हो जाए और शक इस कारण कर रहे हैं ताकि अगर बाद में सच में गड़बड़ी उजागर हो जाए तो कम से कम यह कहने की गुंंजाइश तो रहे कि सरकार ने बदले की भावना से काम किया है।
एक और दिलचस्प बात देखिए। किरण ने कहा है कि नितिन गडकरी पर भ्रष्टाचार के आरोप कांग्रेस की एक गहरी चाल है। जबकि सच ये है कि उनके खिलाफ पहले अरविंद केजरीवाल ने मामला उठाया और बाद में एक अखबार ने अपनी खोज खबर के आधार पर।
किरण का कहना है कि देश की सत्ता संभालने के बाद से ही कांग्रेस की रणनीति है, विरोधियों की प्रतिष्ठा गिराना और चरित्र हनन। वाकई कांग्रेस की बड़ी दुर्गति है। विरोधी कहते हैं कि कांग्रेस बदमाशी कर रही है, उधर केजरीवाल ने चिल्ला चिल्ला कर आसमान सिर पर उठा रखा है कि कांग्रेस व भाजपा मिलीभगत कर एक दूसरे के निजी मामलात दबा रहे हैं।
किरण का कहना है कि भाजपा कांग्रेस के षड्यंत्रों से विचलित नहीं है। सवाल उठता है कि कौन कह रहा है कि भाजपा विचलित है? ये तो खुद भाजपा नेताओं को ही पता है कि वे सकते में हैं या नहीं कि जिनके नेतृत्व में आगामी लोकसभा चुनाव लडऩा है, वहीं निशाने पर आ गया है।
प्रसंगवश बता दें कि जब केजरीवाल ने हमला बोला था तब तो गडकरी खुल कर सामने आए थे, मगर अखबार के खुलासे के बाद से वे स्वयं छिप कर अपने अन्य साथियों से बयान जारी करवा रहे हैं। सुषमा स्वराज ने तो गडकरी को पाक साफ बताने के लिए बड़ा ही लचर तर्क दिया। वे बोलीं कि गडकरी स्वयं रजत शर्मा के कार्यक्रम आपकी अदालत में तीखे सवालों के जवाब दे चुके हैं, जबकि एक आम आदमी भी जानता है कि रजत शर्मा का यह कार्यक्रम नूरा कुश्ती से ज्यादा कुछ नहीं होता। इसमें लगता तो ये है कि सवाल तीखे हैं, मगर सच ये है कि यह सब मैच फिक्सिंग होती है और इसके जरिए कटघरे में बैठे नेता को उसको पूरा पक्ष उभारने का मौका दिया जाता है। दर्शक तक भाड़े के लाए हुए नजर आते हैं, जो कि नेता के बयानों पर तालियों की गडगड़ाहट से स्टूडियो को गुंजा देते हैं।
खैर, फिलहाल सरकार ने जांच शुरू करवा दी है, जिसमें कि अभी वक्त लगेगा, तब तक तो गडकरी की जान सांसत में ही है।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, अक्टूबर 21, 2012

दिग्विजय के सवालों पर अरविंद की बोलती बंद


इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के सुनियोजित सहयोग से राजनीतिक हस्तियों पर सीधे हमले कर हंगामाश्री बने अरविंद केजरीवाल की बोलती बंद है। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने जैसे ही उनके व्यक्तिगत व सार्वजनिक जीवन से संबंधित सवाल उठाए हैं, उनका जवाब देते उनसे नहीं बन रहा। अपनी पादर्शिता की ढिंढोरा पीटने वाली टीम केजरीवाल दिग्विजय के सवालों पर लीपापोती करती नजर आ रही है। केजरीवाल जानते हैं कि अगर जवाब दिया तो उनके आदर्शों की पूरी पोल खुल जाएगी और सवाल दर सवाल उठेंगे तो सारी छकड़ी भूल जाएंगे, सो बहाना ये बना रहे हैं कि पहले दिग्विजय अपने आकाओं सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह व राहुल में से किसी को उनसे खुली बहस के लिए राजी करें, तब वे जवाब देंगे।
असल में वे जानते हैं कि दिग्विजय सिंह बिना अध्ययन के हवा में सवाल नहीं उठाते। उनके सवालों पर भले ही लोग खिल्ली उड़ाते हुए अपशब्दों का इस्तेमाल करते हैं, पागल करार देते हैं, मगर बाद में खुलासा हो जाता है कि उनके सवाल में दम था। केजरीवाल जानते हैं कि वे दिग्विजय सिंह से अटके तो उनके सवालों के जवाब देते खुद की चाल ही भूल बैठेंगे। हालांकि उनका तर्क ये है कि दिग्विजय के सावलों में से एक भी सवाल देश से जुड़ा नहीं है, इसलिए जवाब देने की कोई जरूरत नहीं, मगर सच ये है कि कई सवाल उनके आंदोलन व उनके एनजीओ की पोल खोलने वाले हैं। हालांकि वे कहते हैं कि दिग्विजय सिंह जनता के करप्शन के मुद्दे से ध्यान हटाना चाहते हैं, मगर सच ये भी है कि खुद केजरीवाल भी देश के अन्य सभी जरूरी मुद्दों से ध्यान हटा कर केवल अपनी भावी राजनीतिक पार्टी को चमकाने में ही जुटे हुए हैं।
टीम केजरीवाल के अहम सदस्य संजय सिंह कह रहे हैं कि हमने 15 मंत्रियों से सवाल पूछे, लेकिन हमें एक भी सवाल का जवाब नहीं मिला। सरकार की जवाबदेही जनता के प्रति है तो उसे सामने आकर खुली बहस करना चाहिए। मगर उनके इस तर्क से केजरीवाल पर उठे सवालों के जवाब न देने का कोई ठोस आधार नहीं बनता। चलो, वे 15 मंत्री तो चोर हैं, भ्रष्ट हैं, मगर केजरीवाल तो ईमानदारी की मिसाल हैं, वे क्यों मंत्रियों जैसा रवैया अपना रहे हैं?
दरअसल व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर लोगों को सब्ज बाग दिखा कर चर्चित हुए अरविंद केजरीवाल जब अपने राजनीतिक एजेंडे पर आए, तब तक तो ठीक था, मगर खुद को महान व ईमानदारी का पुतला साबित करने के लिए जैसे ही राजनीतिक शख्सियतों पर सीधे हमले पर उतारु हुए, उनका घटियापन खुल कर सामने आ गया। अगर ये मान भी लिया जाए कि दिग्विजय सिंह घटिया व अविश्वसनीय हैं, तो वे तो हैं ही इसी रूप में चर्चित, मगर इससे केजरीवाल की महानता तो स्थापित नहीं हो जाती। लब्बोलुआब, केजरीवाल को पहली बार सेर को सवा सेर मिला है। अब आया है ऊंट पहाड़ के नीचे।
-तेजवानी गिरधर

शुक्रवार, अक्टूबर 19, 2012

क्या वसुंधरा राजस्थान में नई पार्टी बनाने जा रही हैं?


राजस्थान में पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे और संघ लॉबी में बंटी भाजपा में फिलवक्त सुलह होती नहीं दिख रही, सो एक बार इस प्रकार की खबरें आ रही हैं कि यदि भाजपा हाईकमान ने श्रीमती राजे को आगामी विधानसभा चुनाव में टिकट वितरण में फ्री हैंड नहीं दिया तो वे अपनी अलग क्षेत्रीय पार्टी बना सकती हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया, दिल्ली के शुक्रवार के अंक में फ्रंट पेज पर लीड स्टोरी शाया करते हुए इस बात की संभावना जताई गई है। हालांकि श्रीमती राजे ने तुरंत इसका खंडन पुरजोर शब्दों में किया है, लेकिन इससे इस आशय के संकेत मिलते हैं कि कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ है। संभव है वसुंधरा विरोधियों ने उन्हें बदनाम करने के लिए इस प्रकार की खबर छपवाई हो, जिसकी की आशंका स्वयं वसुंधरा राजे भी व्यक्त कर रही हैं। कयास ये भी लगाया जा सकता है कि यह स्टोरी वसुंधरा खेमे की उपज हो, ताकि हाईकमान स्थिति की गंभीरता को समझे।
यहां उल्लेखनीय है कि पिछली बार जब वसुंधरा राजे को विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया गया था, तब भी इस बात की आशंकाएं जाहिर की गई थीं कि विधायकों का पूर्ण बहुमत साथ होने पर भी हाईकमान की दादागिरी से तंग आ कर वे नई पार्टी का गठन कर सकती हैं। वे इतनी सक्षम भी हैं। मगर एक साल तक नेता प्रतिपक्ष का पद खाली रहने के बाद जब उन्हें फिर से इस पद से नवाजा गया तो बात आई गई हो गई। पिछले दिनों जब पूर्व मंत्री गुलाब चंद कटारिया मेवाड़ में रथयात्रा निकालना चाहते थे, तब भी बड़ा भारी बवाल हुआ और वसुंधरा ने विधायकों के इस्तीफे मंगवा कर हाईकमान पर दबाव बनाया था। वह विवाद आज भी नहीं थमा है। अब भी कटारिया व पूर्व मंत्री ललित किशोर चतुर्वेदी आए दिन यही बयान दे रहे हैं कि पार्टी ने किसी नेता को मुख्यमंत्री पद के रूप में प्रोजेक्ट करके चुनाव लडऩे का निर्णय नहीं किया है, जबकि पार्टी की राष्ट्रीय महामंत्री श्रीमती किरण माहेश्वरी सहित अन्य नेता बार-बार कह रहे हैं कि राजस्थान की भावी मुख्यमंत्री वसुंधरा ही होंगी। इन्हीं बयानबाजियों के बीच टाइम्स ऑफ इंडिया की ताजा खबर ने एक बार फिर भाजपा में हलचल पैदा कर दी है। जयपुर में दिनभर चली सरगरमी के बाद आखिरकार वसुंधरा राजे को इस खबर का खंडन जारी करना पड़ा।
आइये, देखिए टाइम्स ऑफ इंडिया की स्टोरी में क्या-क्या कहा गया है। पेश है हूबहू रिपोर्ट:-
Raje to break away from BJP to form own party?
Miffed Over High Command Not Giving Free Hand
Akhilesh Kumar Singh TNN

Jaipur: Even as BJP battles instability in its Karnataka unit along with former CM B S Yeddyurappa threatening to walk out, a bombshell seems to be waiting to explode for the party in Rajasthan, with Vasundhara Raje on the verge of revolting against party’s central leadership. Raje, former Rajasthan CM and currently the leader of opposition in the state assembly, is considering walking away with a big chunk of “loyalists” to float her own regional party before assembly polls in the state — due in December next year — if the leadership does not recognize her pre-eminence in the state unit. Raje has demanded a say in the appointment of state chief, and an upper hand in the distribution of party tickets for the assembly polls.
    Raje is widely acknowledged to be the only leader in the BJP with a pan-state appeal: Something which defies Rajasthan’s reputation as a conservative state and has baffled political observers and sociologists alike.
    It is also recognized that sabotage was the chief reason why she failed to pull off a win in the last assembly election despite coming close to pulling off one in the face of anti-incumbency.
    The grouse of Raje and her supporters is that the appreciation of her being the best bet for the party is not reflected in way central leadership has been conducting its affairs, insisting on parity in the party between her and the “leaders who have no influence outside their assembly constituencies”.
    The indulgence of indiscipline has encouraged disproportionate ambitions, dealing a blow to the authority of the leadership. “Devi Singh Bhati (Kolayat MLA) has launched an independent campaign and challenged the party leadership to stop his campaign. Gulab Chand Kataria is already moving places. There is no discipline in the party and senior leaders are shy of projecting Vasundharaj ias a party leader. That leaves her with no option but to think about options beyond BJP,” said a Raje loyalist.
ROYAL REBEL
Vasundhara Raje was chief minister of Rajasthan from December 8, 2003 to December 11, 2008
First woman chief minister of the state
Initiated into politics by her mother Vijay Raje Scindia in 1982
Won 4 consecutive Lok Sabha polls from Jhalwar from 1989 onwards
Then BJP party president Rajnath Singh forced her to resign as leader of opposition in Rajasthan in Oct 2009
    Reinstated as leader of opposition in state after Gadkari took over as BJP's national president
    Recently threatened to quit party over Gulab Chand Kataria's anti-corruption campaign, forcing Kataraia to shelve his plan
    Sources in Raje camp claim 70 of 79 BJP MLAs have expressed their support for her 70 out of 79 MLAs may be backing Raje
Jaipur: Former chief minister Vasundhara Raje is planning to break away from the BJP and float her own regional party before the assembly polls. “Madam (Raje) was aghast at the national leaders’ indifference towards her repeated demand for a free hand in the run-up to assembly polls in the state,” BJP MLAs aligned with Raje told TOI.
    A leader from the Raje camp claimed that 70 out of the 79 MLAs have expressed their support to Raje, and several other party leaders are also willing to follow suit. While efforts to contact Raje proved futile, her trusted lieutenant and party chief whip in the state assembly, Rajendra Singh Rathore also refused to comment on the issue. “I have no information in this regard,” he said.
    Raje camp insiders said that they were in touch with a few independent legislators, including the six “turncoat” MLAs elected from the BSP who went on to join the Congress, providing a majority to the Ashok Gehlot government.
    Raje is also said to be mulling over an alliance with the BSP as that will not only strengthen them in eastern Rajasthan but also fetch a sizeable number of Muslim votes.
    The BSP did well in eastern Rajasthan during the 2008 assembly polls in the state as six MLAs were elected and several of its candidates finished runners-up.
    The trouble in Rajasthan unit spells serious concern for the party. BJP is hoping for a good tally of Lok Sabha seats from the state, but the prospect could suffer a setback if Raje heeds her supporters to go her separate way.
    Raje could be the latest addition to a long list of regional satraps of the BJP, who have had a falling out with the national leadership. Yeddyurappa is also toying with the idea of floating a regional party as the high command has refused to reinstate him as chief minister of Karnataka. The party has still not recovered from the loss caused by the exit of Kalyan Singh in Uttar Pradesh and Babulal Marandi has emerged a strong regional force in Jharkhand after parting ways with the BJP.
    The trend of satraps launching their own outfits is also seen as fallout of the vanishing Hindutva fervour and BJP’s failure to find a replacement for the charismatic Atal Bihari Vajpayee.
    After attending the recent assembly session in the state, Raje is camping in New Delhi. She met with several senior party leaders in the national capital to convince them about giving her a free hand to take final calls about the assembly polls. It was learnt that Raje also asked for state party chief Arun Chaturvedi to be substituted by a colleague of her choice, and rejection of the candidature of Gulab Chand Kataria, her detractor for the post.
    Senior leaders have rejected her demands and suggested that they will let her lead the party but no “free hand” will be encouraged as unanimity ought to be maintained among senior state leaders on all major issues.
    Kataria is a known Raje baiter and has already tried to open a parallel front as he planned a “rath yatra” against corruption in the beginning of this year. Raje vehemently opposed Kataria’s proposed campaign and that latter had to cancel the plan.
    Reports suggest that Kataria, this time around, has got support of other senior state leaders including Ghanshyam Tiwadi (deputy leader of opposition), Arun Chaturvedi (current state president), Lalit Chaturvedi and Narpat Singh Rajvi (son-in-law of Bhairon Singh Shekhawat). These leaders have reportedly maintained a concerted pressure on the BJP top brass to make sure that Raje was not allowed to “dictate” her will and that other leaders are also given the due consideration on party matters.
अब देखिए, श्रीमती राजे की ओर से जारी खंडन का हूबहू मजमून:-
नेता प्रतिपक्ष श्रीमती वसुन्धरा राजे का बयान
पार्टी के साथ मेरे और मेरे परिवार के रिश्तों पर मुझे कोई स्पष्टीकरण देने की आवश्यकता नहीं है। ये तो विरोधी दलों और कुछ स्वार्थी लोगों का राजनीतिक षडय़ंत्र है जो मेरे खिलाफ मीडिया में असत्य, भ्रामक और आधारहीन खबरें छपवाकर मेरी छवि को नुकसान पहुंचाना चाहते हैं। राजस्थान की जनता का प्यार और आशीर्वाद मेरे साथ है। इसलिये ऐसी खबरों से मैं विचलित होने वाली नहीं हूं और न ही ऐसी खबरों से भाजपा जैसी मजबूत पार्टी टूटने वाली है।
यह भी दुर्भाग्य की बात है कि टाइम्स ऑफ इण्डिया जैसे प्रतिष्ठित समाचार पत्र ने ऐसे लोगों के साथ मिलकर यह खबर प्रकाशित की है जो कि अवमाननापूर्ण है।
( वसुन्धरा राजे )

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

खुद अंजलि का घर शीशे का, पत्थर मारने चली


एक कहावत है कि जिनके खुद के घर शीशे के होते हैं, वे दूसरों के शीशे के घरों पर पत्थर नहीं मारा करते। लगता है ये कहावत बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकरी पर किसानों की जमीन हड़पने का आरोप लगाने वाली अंजलि दमानिया ने नहीं सुनी है। तभी तो केजरीवाल को बेवकूफ बना कर किए गए हवन उनके हाथों पर भी आंच आने लगी है। ये बात दीगर है कि अंजलि ये कह कर अपना पिंड छुड़वा रही हैं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद करने की वजह से उन्हें निशाना बनाया जा रहा है।
आपको याद होगा कि जब केजरवाली व दमानिया प्रेस कांफ्रेंस कर रहे थे तो टीम अन्ना की एक महिला कार्यकर्ता ने दमानिया पर सवाल उठाया था, मगर शोरगुल में वह खो गया। उस वक्त भले ही मामला दब गया हो, मगर बात चली तो दूर तक जाएगी। केजरीवाल भी सोच रहे होंगे कि बिना मामले की जांच किए दमानिया के चक्कर में अपनी क्रेडिट खराब करवा ली।
बताते हैं कि दमानिया ने खेती की जमीन खरीदने के लिए खुद को गलत तरीके से किसान साबित किया और बाद में जमीन का लैंड यूज बदलवा कर उसे प्लॉट में तब्दील कर बेच दिया। रायगढ़ प्रशासन ने जांच में पाया कि अंजलि दमानिया का किसान होने का दाव गलत है। बताते हैं कि दमानिया एसवीवी डेवलपर्स की डायरेक्टर भी हैं। जिस जगह उन्होंने गडकरी पर जमीन हड़पने का आरोप लगाया है, उसी के आसपास दमानिया की भी 30 एकड़ जमीन है। दमानिया ने 2007 में करजत तालुका के कोंडिवाडे गांव में आदिवासी किसानों से उल्हास नदी के पास जमीनें खरीदीं। आदिवासियों से जमीन खरीदने की शर्त पूरी करने के लिए उन्होंने नजदीक के कलसे गांव में पहले से किसानी करने का सर्टिफिकेट जमा किया। अपनी 30 एकड़ की जमीन के पास ही दमानिया ने 2007 में खेती की 7 एकड़ जमीन और खरीदी थी, जिसका लैंड यूज बदल कर उन्होंने बेच दिया। करजत के दो किसानों से उन्होंने जमीन लेते वक्त खेती करने का वादा किया था, लेकिन बाद में उस जमीन पर प्लॉट काटकर बेच दिए। बताते हैं कि पहले दमानिया और गडकरी के बीच अच्छे ताल्लुकात थे, लेकिन प्रस्तावित कोंधवाने डैम में पड़ रही 30 एकड़ जमीन बचाने में गडकरी से भरपूर मदद न मिलने की वजह से वह बीजेपी अध्यक्ष के खिलाफ मोर्चा खोल बैठीं। सवाल ये है कि जो दमानिया गडकरी के विकिट उड़ाने तक तो उतारू हो गई, लेकिन उनकी नैतिकता उस समय कहां थी जब उन्होंने अपनी जमीन बचाने के लिए आदिवासियों की जमीनें अधिग्रहित करने की मांग की।

गुरुवार, अक्टूबर 18, 2012

जेठमलानी पहले भी दिखा चुके के बगावती तेवर


एक ओर जहां अरविंद केजरीवाल की ओर से भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी पर सीधा हमला किए जाने पर पूरी भाजपा उनके बचाव में आ खड़ी हुई है, वहीं भाजपा कोटे से राज्यसभा सांसद बने वरिष्ठ वकील राम जेठमलानी ने अलग ही सुर अलापना शुरू कर दिया। लंदन में एक चैनल से उन्होंने कहा कि यदि केजरीवाल के आरोप सही हैं तो गडकरी को पद छोड़ देना चाहिए। वे इतने पर भी नहीं रुके और बोले कि भाजपा अध्यक्ष रहते हुए गडकरी द्वारा लिए गए गलत फैसलों के सबूत मैं भी पेश करूंगा। जेठमलानी की यह हरकत पहली नहीं है। इससे पहले भी वे कई बार पार्टी के खिलाफ मोर्चा खोल चुके हैं। ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि आखिर ऐसी क्या वजह रही कि उन्हें उनके बगावती तेवर के बाद भी राजस्थान के किसी और नेता का हक मार पर पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा के दबाव में राज्यसभा बनवाया गया? ऐसा प्रतीत होता है कि सुप्रीम कोर्ट के नामी वकील राम जेठमलानी भारतीय जनता पार्टी के गले की फांस साबित हो गए हैं, तभी तो उनकी पार्टी अध्यक्ष विरोधी टिप्पणी के बाद भी सारे नेताओं को सांप सूंघे रहा।
आपको याद होगा कि जब वसुंधरा जेठमलानी को राज्यसभा चुनाव के दौरान पार्टी प्रत्याशी बनवा कर आईं तो भारी अंतर्विरोध हुआ, मगर वसुंधरा ने किसी की न चलने दी। इतना ही नहीं विधायकों पर अपनी पकड़ के दम पर वे उन्हें जितवाने में भी कामयाब हो गईं। तभी इस बात की पुष्टि हो गई थी कि जेठमलानी के हाथ में जरूर भाजपा के बड़े नेताओं की कमजोर नस है। भाजपा के कुछ नेता उनके हाथ की कठपुतली हैं। उनके पास पार्टी का कोई ऐसा राज है, जिसे यदि उन्होंने उजागर कर दिया तो भारी उथल-पुथल हो सकती है। स्पष्ट है कि वे भाजपा नेताओं को ब्लैकमेल कर पार्टी में बने हुए हैं। तब यह तथ्य भी उभरा था कि उन्हें टिकट दिलवाने में कहीं ने कहीं गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का हाथ था। कदाचित इसी वजह से जेठमलानी ने हाल ही मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करने तक की सलाह दी है।
यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि जेठमलानी के प्रति आम भाजपा कार्यकर्ता की कोई संवेदना नहीं है। वजह साफ है। उनके विचार भाजपा की विचारधारा से कत्तई मेल नहीं खाते। उन्होंने बेबाक हो कर भाजपाइयों के आदर्श वीर सावरकर की तुलना पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना से की थी। इतना ही नहीं उन्होंने जिन्ना को इंच-इंच धर्मनिरपेक्ष तक करार दे दिया था। पार्टी के अनुशासन में वे कभी नहीं बंधे। पार्टी की मनाही के बाद भी उन्होंने इंदिरा गांधी के हत्यारों का केस लड़ा। इतना ही नहीं उन्होंने संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी नहीं देने की वकालत की, जबकि भाजपा अफजल को फांसी देने के लिए आंदोलन चला रही है। वे भाजपा के खिलाफ किस सीमा तक चले गए, इसका सबसे बड़ा उदाहरण ये रहा कि वे पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतर गए।
आपको बता दें कि जब वे पार्टी के बैनर पर राज्यसभा सदस्य बने तो मीडिया में ये सवाल उठे थे कि क्या बाद में पार्टी के सगे बने रहेंगे? क्या वे पहले की तरह मनमर्जी की नहीं करेंगे? आज वे आशंकाएं सच साबित हो गई हैं। इतना ही नहीं उनकी टिप्पणी का प्रतिकार तक किसी ने नहीं किया। ऐसे में लगता ये है कि पार्टी विथ द डिफ्रेंस और अपने आप को बड़ी आदर्शवादी, साफ-सुथरी और अनुशासन में सिरमौर मानने वाली भाजपा भी अंदर ही अंदर किसी न किसी चक्रव्यूह में फंसी हुई है।
-तेजवानी गिरधर

इतनी जल्दी हवा कैसे निकल गई खेमका की?


कांग्रेस सुप्रीमो श्रीमती सोनिया गांधी के दामाद राबर्ट वाड्रा के मामले में मीडिया के केमरों की चकाचौंध से चुंधियाए वरिष्ठ आईएएस डॉ. अशोक खेमका अपने एक दुस्साहस और बेबाक बयान की वजह से रातों-रात हीरो तो बन गए, मगर जैसे ही उन्होंने धरातल को देखा तो उनकी हवा निकल गई। मुख्यमंत्री की घुड़की और अपने खिलाफ तीन सीनियर अफसरों की जांच कमेटी बैठने के बाद वे घबरा गए और मुख्य सचिव पी.के.चौधरी से मिलने के बाद उन्होंने कहा है कि उन्हें बीस साल की नौकरी में हुए चालीसवें तबादले पर अब कोई ऐतराज नहीं है। सवाल ये उठता है कि जिन खेमका पर अरविंद केजरीवाल की छाया आ जाने का आभार हुआ था, वे यकायक पलटी कैसे खा गए?
कानाफूसी है कि तबादला आदेश मिलने के बाद जोश में आ कर उन्होंने वाड्रा-डीएलएफ डील को रद्द तो कर दिया, मगर बाद में उन्हें ख्याल आया कि वे ऐसा नहीं कर सकते थे। तबादला आदेश मिलने के बाद व रिलीव होने से ठीक पहले इतना महत्वपूर्ण आदेश जारी करना जाहिर करता है कि उन्होंने ऐसा दुर्भावना से किया, जिसकी जांच पर वे फंस जाते, सो बेकफुट पर आना ही मुनासिब समझा।
लोग समझ रहे थे कि खेमका बड़े दिलेर अफसर हैं, पर वे असल में थे डरपोक। इस बारे जर्नलिस्ट कम्युनिटी डॉट कॉम में पत्रकार सतीश त्यागी के हवाले से छपा है कि कई साल पहले वे विश्वविद्यालय में रजिस्ट्रार पद पर तैनात थे और तब कुलपति ओ पी कौशिक थे, जिन्होंने खेमका के सारे खम निकल कर सीधा कर दिया था। घायल खेमका ने किसी मित्र के माध्यम से मुझसे संपर्क साधा। उन दिनों मैं अमर उजाला अखबार में था और विश्वविद्यालय मेरी बीट में था। खेमका ने दो घंटे मुझसे कौशिक के खिलाफ जहर उगला लेकिन जब अगले दिन खबर पढ़ी तो शेर से गीदड़ हो गए। कहने लगे कि आखिरकार वीसी मेरे बॉस हैं। उन्होंने मेरे खिलाफ संपादक को पत्र भी लिखा था। इस बार मुझे लगा था कि शायद खेमका शेर हो गए होंगे लेकिन मैं गलत निकला।
मान के चलिए कि खेमका के खिलाफ अब सरकार की जांच कमेटी कुछ नहीं करेगी और वाड्रा के जमीन की जमाबंदी खारिज करने वाला उनका आर्डर पलटता है तो वे भी खामोश रहेंगे। कोर्ट वोर्ट कतई नहीं जाएंगे। उन्हें उनके ताबड़तोड़ तबादलों से सहानुभूति रखने वाली इंडिया अगेंस्ट करप्शन से जुड़ी एक्टिविस्ट डा. नूतन ठाकुर की हाईकोर्ट में उस याचिका या उस के निर्णय से भी कोई लेना देना नहीं है, जिस में प्रशासनिक अधिकारियों के तबादलों बारे कोई नियमावली व मर्यादाएं तय करने का अनुरोध किया गया है। ये तो वही बात हुई न कि मुद्दई सुस्त, गवाह चुस्त।

सोमवार, अक्टूबर 15, 2012

संघ ने बना रखा है वसुंधरा पर दबाव


पिछले दिनों जिस तरह पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे लॉबी व संघ लॉबी के बीच घमासान हुआ और फिर लंबी चुप्पी छा गई तो चाहे वसुंधरा लॉबी ने चाहे मीडिया ने, यह बात फैला कर रखी कि आगामी विधानसभा चुनाव तो वसुंधरा के नेतृत्व में ही होगा, मगर भीतर सुलग रही आग पर किसी की नजर नहीं गई। हाल ही जब विधानसभा चुनाव की तैयारियों को लेकर भाजपा ने कमर कसना शुरू कर दिया है, एक बार फिर यह मसला उठ खड़ा हुआ है। संघ लॉबी के पूर्व मंत्री ललित किशोर चतुर्वेदी व गुलाब चंद कटारिया ने फिर से यह सुर अलापना शुरू कर दिया है कि अभी यह तय नहीं है कि किसके नेतृत्व में चुनाव लड़ा जाएगा। नेतृत्व का मसला पार्टी का संसदीय बोर्ड तय करेगा। इसके विपरीत भाजपा की राष्ट्रीय महासचिव किरण माहेश्वरी का साफ कहना है कि चुनाव तो वसुंंधरा के नेतृत्व में ही होंगे। इस पर कटारिया की प्रतिक्रिया ये है कि कोई नेता अपनी व्यक्तिगत राय दे तो बात अलग है।
ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों पक्ष वस्तुस्थिति जानते हैं, मगर जानबूझ कर नूरा कुश्ती लड़ रहे हैं। चतुर्वेदी व कटारिया भी जानते हैं कि आखिरकार वसुंधरा के नाम पर सहमति देनी ही होगी, मगर अपनी लॉबी के कार्यकर्ताओं का मनोबल न गिरे, इस कारण जानबूझ कर ठहरे पानी में कंकड़ फैंक रहे हैं ताकि विवाद की लहरें उठती रहें। समझा जाता है कि संघ लॉबी आखिर तक वसुंधरा पर दबाव बनाए रखना चाहती है, ताकि टिकटों के बंटवारे में ज्यादा से ज्यादा टिकटें झटकी जा सकें। उधर किरण का बयान इस बात का द्योतक है कि वह बार-बार संघ लॉबी को आइना दिखाना चाहती हैं, ताकि वे ज्यादा न उछलें। जहां तक वसुंधरा का सवाल है, वे भी जानती हैं कि चुनाव तो संघ को साथ ले कर लडऩा होगा, वरना पिछली बार जैसा हाल हो जाएगा। बस उनकी कोशिश ये है कि अपना दबदबा बनाए रख कर अपनी लॉबी के अधिक से अधिक नेताओं को टिकट दिलवाएं जाएं, ताकि चुनाव के बाद संख्या बल के आधार पर वे आसानी से सरकार चला सकें।
अगर हाल ही किरण व कटारिया के परस्पर विरोधी बयानों पर नजर डालें तो लगता है कि इसमें कहीं न कहीं उदयपुर संभाग की राजनीति का भी असर है। दोनों नेताओं की आपसी खींचतान जगजाहिर है। इनमें मनमुटाव का नतीजा पिछले दिनों उस समय देखने को मिला था, जब कटारिया ने मेवाड़ में पार्टी को मजबूत करने के लिए यात्रा निकालने की घोषणा की थी। माहेश्वरी ने पार्टी प्रदेश कार्यालय में कार्यकर्ताओं के माध्यम से यात्रा का विरोध जताया था। इसी यात्रा को लेकर वसुंधरा राजे ने इस्तीफा देने तक की घोषणा कर दी थी। हालांकि दोनों नेता इस मसले पर आपसी विवाद से इंकार कर रहे हैं, मगर धरातल का सच ये है कि दोनों खेमों के कार्यकर्ताओं के बीच तलवारें खिंची हुई हैं। यदि इस ओर हाईकमान ने ध्यान नहीं दिया तो यह भाजपा के लिए घातक साबित हो सकता है।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, अक्टूबर 07, 2012

गुजरात में हिंदूवाद और देश में राष्ट्रवाद, भई वाह


चुनावी सरगरमी की शुरुआत में भारतीय जनता पार्टी एक बार फिर दो राहे पर खड़ी है। पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी के बयान से तो यही साबित होता है। उन्होंने दिल्ली में पार्टी के महिला मोर्चो के एक कार्यक्रम में बोलते हुए कहा है कि उनका दल न तो मुस्लिम विरोधी है और न ही दलितों के खिलाफ, लेकिन उसके विरुद्ध इस मामले पर बहुत दुष्प्रचार हुआ है। उनके इस बयान से साफ जाहिर है कि एक ओर जहां वह गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी जैसे चेहरों के नाम पर हिंदुओं के वोट बटोरना चाहती है, वहीं अपने धर्म और जाति निरपेक्ष स्वरूप की दुहाई देकर मुसलमानों व दलितों के वोटों की अपेक्षा भी रखती है। अपना हिंदूवादी एजेंडा भी साथ रखना चाहती है और मुसलमानों को रिझाना भी। ये दोनों परस्पर विरोधी अपेक्षाएं ही उसे दो राहे पर खड़ा करती हैं।
गडकरी ने जिस प्रकार पार्टी की छवि खराब किए जाने को पार्टी का दुर्भाग्य करार दिया है, उससे जाहिर होता कि उन्हें मुसलमानों व दलितों के वोट न मिलने की बड़ी भारी पीड़ा है। ऐसे में सवाल ये उठता है कि अगर उसे मुसलमानों के वोटों की इतनी ही चिंता है तो क्यों कर मोदी जैसों को फ्रंट फुट पर खड़ा करती है। क्यों कट्टरवादी चेहरे के नाम पर गुजरात में हैट्रिक  बनाना चाहती है। यानि कि गुजरात जीतना है तो पार्टी का चेहरा हिंदूवादी रहेगा और देश जीतना है तो चेहरा धर्म व जाति निरपेक्ष रहेगा। पार्टी जानती है कि अगर प्रधानमंत्री पर काबिज होना है तो उसे अपना हिंदूवादी एजेंडा साइड में रखना होगा। भारतीयता की संकीर्ण परिभाषा वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से अपने जुड़ाव और हिंदुत्व की विचारधारा की वजह से बीजेपी के समर्थकों की संख्या एक वर्ग विशेष से आगे नहीं जा पा रही है और पार्टी को मालूम है कि सिर्फ उनके बल वो सत्ता में नहीं पहुंच सकती है। अकेले अपने दम पर सरकार बना नहीं सकती और सहयोगी दलों का पूरा साथ चाहिए तो कट्टरवाद छोडऩे की जरूरत है। बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने तो साफ तौर पर ही कह दिया कि उन्हें उदार चेहरा की स्वीकार्य है। समझा जाता है कि सहयोगी दलों के दबाव की वजह से ही भाजपा को अपनी छवि सुधारने की चिंता लगी है। लेकिन जानकारों का मानना है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी जैसे लोगों के प्रधानमंत्री की रेस में शामिल होने और पार्टी द्वारा बार-बार उनका बचाव करने जैसे मुद्दों की वजह से बीजेपी के लिए अपनी छवि में बदलाव लाने की कोशिश किसी कारगर मोड़ पर नहीं पहुंचेगी।
जहां तक उसके दलित विरोधी होने का सवाल है, असल में ऐसा इस वजह से हुआ है क्योंकि भाजपा को ब्राह्मण-बनियों की पार्टी माना जाता है। संघ व भाजपा में ऊंची जातियों का वर्चस्व रहा है। इन ऊंची जातियों ने सैकड़ों साल तक दलितों का दमन किया है। इसी कारण दलित कांग्रेस के साथ जुड़े रहे। बाद में वे जातिवाद व अंबेकरवाद के नाम पर बसपा, सपा जैसी पार्टियों की ओर चले गए। अगर संघ व जनसंघ शुरू से दलितों पर ध्यान देते तो भाजपा का हिंदूवादी नारा कामयाब हो जाता, मगर ऐसा हो न सका। दलित हिंदूवाद की ओर आकर्षित नहीं किए जा सके। और यही वजह है कि अस्सी फीसदी हिंदूवादी आबादी वाले देश में भाजपा का हिंदूवादी कार्ड आज तक कामयाब नहीं हो पाया है। ऐसे में भाजपा को धर्मनिरपेक्षता की याद आ रही है। मगर जानकार मानते हैं कि इससे कुछ खास फायदा होने वाला नहीं है, क्योंकि अधिसंख्य भाजपा कार्यकर्ताओं को मोदी जैसा नेतृत्व पसंद है और इसका इजहार खुल कर हो रहा है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स मोदी के फोटो व नाम से अटी पड़ी हैं। ऐसे में भला मुसलमान कैसे आकर्षित किए जा सकेंगे। जो मुसलमान भाजपा से जुड़ रहे हैं, वे सच्चे मन से भाजपा के साथ नहीं होते, ऐसा खुद हिंदूवादी भाजपा कार्यकर्ता मानते हैं। कुछ मुसलमान शॉर्टकट से नेतागिरी चमकाने के लिए भाजपा के साथ आ रहे हैं, मगर धरातल पर मुसलमान उनके साथ नहीं हैं। वे मुसलमान नेता हाथी के दिखाने वाले दांतों के रूप में दिखाने के काम आते हैं।
कुल मिला कर भाजपा दो राहे पर खड़ी है और समाधान निकलता दिखाई नहीं देता।
-तेजवानी गिरधर

मारवाड़ में तो शौचालय की बड़ी महिमा है


शौचालय को मंदिर से भी ज्यादा पवित्र बताने पर भले ही केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश विवादों में आ गए हों, मगर मारवाड़ में तो शौचालय की उतनी ही अहमियत है, जितनी रमेश ने बखान ही है। इस बात पर आप चौंक गए होंगे कि ऐसा कैसे हो सकता है। मगर ये सच है।
आपको बता दें कि मारवाड़ में एक कहावत है कि सौ ने खुवाया अर एक ने हंगाया को पुन बराबर है। अर्थात सौ भूखे लोगों को खिलाने से जो पुण्य हासिल होता है, उतना ही पुण्य एक आदमी को दीर्घ शंका की सुविधा उपलब्ध करवाने पर मिलता है। ऐसा इसलिए कि आदमी एक वक्त, दो वक्त बिना खाये तो रह सकता है, मगर दीर्घ शंका आने पर आधा घंटा भी नहीं रुक सकता। दीर्घ शंका के बाद मिलने वाली संतुष्टि खाने खाने के बाद की संतुष्टि से भी ज्यादा होती है। भूखे को तो फिर भी कहीं पर भी बैठा कर खिलाया जा सकता है, मगर जिसे दीर्घ शंका करनी हो, उसे तो उपयुक्त स्थान ही उपलब्ध करवाना ही होगा।
इस संदर्भ में अगर रमेश को बयान को लिया जाए तो वह ठीक ही प्रतीत होता है। मंदिर भी तो तभी स्वच्छ रहेंगे न कि जब उपयुक्त व पर्याप्त शौचालय होंगे, जो कि गंदगी को अपने में समेट लेंगे। कदाचित रमेश इसी तरह की बात कहना चाहते हों, मगर मुंह से ऐसा बयान निकल गया, जिसकी मजम्मत होनी ही थी। उनसे गलती ये हो गई कि उन्होंने सीधे सीधे मंदिर की तुलना शौचालय से कर दी, इस पर आपत्ति होना स्वाभाविक ही है। मंदिर के तथाकथित रक्षकों को ये बयान नागवार गुजरना ही था। भला आप मंदिर का अपमान कैसे कर सकते हैं, उसे कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है, यूं भले ही सैकड़ों मंदिर सूने पड़े हों, उनमें पुजारी न हों, तब थोड़े ही मंदिर का अपमान होता है।
-तेजवानी गिरधर