भाजपा के नाराज नेता घनश्याम तिवाड़ी ने प्रदेश भाजपा अध्यक्ष श्रीमती वसुंधरा राजे की नादिरशाही और विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष गुलाब चंद कटारिया की बेबसी से दु:खी हो कर नई राजनीतिक पार्टी बना ली है। इसका नाम उन्होंने राजस्थान देशम रखा है। पार्टी के नाम का ऐलान करने के बाद उन्होंने कहा कि वे पहले देवदर्शन यात्रा करके वसुंधरा के खिलाफ माहौल बनाएंगे, ताकि भाजपा सहित राजस्थान को उनके चंगुल से बचाया जा सके। उनका कहना है कि वसुंधरा की वजह से ही शुचिता वाली पार्टी का हालत खराब हुई है। विभिन्न क्षेत्रों में मिलने वाले जनसमर्थन के आधार पर वे यह तय करेंगे, कहां-कहां से उनकी पार्टी के प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतारे जाएंगे। वे इस बात का विशेष ध्यान रखेंगे कि जिन सीटों पर वसुंधरा ने अपने गैर संघी शागिर्दों को मैदान में उतारा है, उनके सामने सशक्त उम्मीदवार उतारे जाएं, ताकि वे पराजित हो जाएं। दूसरी ओर वे संघ पृष्ठभूमि के प्रत्याशियों के सामने कोई प्रत्याशी नहीं उतारेंगे। ऐसे प्रत्याशियों को उनकी पार्टी अंदर से समर्थन करेगी, ताकि ज्यादा से ज्यादा संघी विधायक चुन कर आएं और सरकार बनने पर वसुंधरा का पाटिया गोल किया जा सके। संभव हुआ तो वे खुद वसुंधरा के खिलाफ चुनाव मैदान में उतरेंगे और जनता को बताएंगे कि जो नेता पूरे चार साल जनता से दूर रह कर लंदन जा कर बैठ गया हो और चुनाव के मौके पर भाजपा व राजस्थान पर कब्जा करना चाहता हो, उसे कत्तई नहीं जीतने देना है। परिणाम आने के बाद उनकी पार्टी राजस्थान देशम भाजपा के संघनिष्ठ नेता को मुख्यमंत्री बनाने के लिए समर्थन देगी। बुरा न मानो होली है।
तीसरी आंख
मंगलवार, मार्च 26, 2013
शुक्रवार, मार्च 15, 2013
आरएसएस के संग क्यों नहीं जुड़ रही युवा पीढ़ी?
आगामी लोकसभा और विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की ओर से हिंदू आतंकवाद का मुद्दा उठाकर भाजपा को घेरने की आशंका को ध्यान में रखते हुए जयपुर के जामडोली केशव विद्यापीठ में हो रही आरएसएस की प्रतिनिधि सभा में एक ओर जहां विशेष रणनीति बनाई जा रही है, मगर यह तभी कामयाब होगी, जबकि ताजा परिवेश में पल-बढ़ रही युवा पीढ़ी भी उसे आत्मसात करे। मगर यह एक नग्न सत्य है कि पिछले कुछ वर्षों से संघ के प्रति आकर्षण कम होने से संघ की शाखाओं में युवाओं की संख्या कम होने से शिथिलता आती जा रही है, जो कि सांप्रदायिकता के आरोप से कहीं ज्यादा चिंताजनक है।
वस्तुत: संघ के प्रति युवकों के आकर्षण कम होने का सिलसिला हाल ही में शुरू नहीं हुआ है अथवा अचानक कोई कारण नहीं उत्पन्न हुआ है, जो कि आकर्षण कम होने के लिए उत्तरदायी हो। पिछले करीब 15 साल के दरम्यान संघ की शाखाओं में युवाओं की संख्या में गिरावट महसूस की गई है। यह गिरावट इस कारण भी संघ के नीति निर्धारकों को ज्यादा महसूस होती है, क्योंकि जितनी तेजी से जनसंख्या में वृद्धि हुई है, उसी अनुपात में युवा जुड़ नहीं पाया है। भले ही यह सही हो कि जो स्वयंसेवक आज से 10-15 साल पहले अथवा उससे भी पहले जुड़ा, वह टूटा नहीं है, लेकिन नया युवा उतने उत्साह के साथ नहीं जुड़ रहा, जिस प्रकार पहले जुड़ा करता था। इसके अनेक कारण हैं।
मोटे तौर पर देखा जाए तो इसकी मुख्य वजह है टीवी और संचार माध्यमों का विस्तार, जिसकी वजह से पाश्चात्य संस्कृति का हमला बढ़ता ही जा रहा है। यौवन की दहलीज पर पैर रखने वाली हमारी पीढ़ी उसके ग्लैमर से सर्वाधिक प्रभावित है। गांव कस्बे की ओर, कस्बे शहर की तरफ और शहर महानगर की दिशा में बढ़ रहे हैं। सच तो यह है कि भौतिकतावादी और उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण शहरी स्वच्छंदता गांवों में भी प्रवेश करने लगी है। युवा पीढ़ी का खाना-पीना व रहन-सहन तेजी से बदल रहा है। बदलाव की बयार में बह रहे युवाओं को किसी भी दृष्टि से संघ की संस्कृति अपने अनुकूल नहीं नजर आती। संघ के स्वयंसेवकों में आपस का जो लोक व्यवहार है, वह किसी भी युवा को आम जिंदगी में कहीं नजर नहीं आता। व्यवहार तो दूर की बात है, संघ का अकेला डे्रस कोड ही युवकों को दूर किए दे रहा है।
जब से संघ की स्थापना हुई है, तब से लेकर अब तक समय बदलने के साथ डे्रस कोड में कोई परिवर्तन नहीं किया गया है। सच्चाई तो ये है कि चौड़े पांयचे वाली हाफ पैंट ही मजाक की कारक बन गई है। यह कम दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है कि अपने आप को सबसे बड़ा राष्ट्रवादी मानने वालों के प्रति आम लोगों में श्रद्धा की बजाय उपहास का भाव है और वे स्वयंसेवकों को चड्ढा कह कर संबोधित करते हैं। स्वयं सेवकों को भले ही यह सिखाया जाता हो कि वे संघ की डे्रस पहन कर और हाथ में दंड लेकर गर्व के साथ गलियों से गुजरें, लेकिन स्वयं सेवक ही जानता है कि वह हंसी का पात्र बन कर कैसा महसूस करता है। हालत ये है कि संघ के ही सियासी चेहरे भाजपा से जुड़े नेता तक संघ के कार्यक्रम में हाफ पैंट पहन कर जाने में अटपटा महसूस करते हैं, लेकिन अपने नंबर बढ़ाने की गरज से मजबूरी में हाफ पैंट पहनते हैं। हालांकि कुछ वर्ष पहले संघ में ड्रेस कोड में कुछ बदलाव करने पर चर्चा हो चुकी है, लेकिन अभी तक कोर गु्रप ने ऐसा करने का साहस नहीं जुटाया है। उसे डर है कि कहीं ऐसा करने से स्वयंसेवक की पहचान न खो जाए। ऐसा नहीं है कि डे्रस कोड की वजह से दूर होती युवा पीढ़ी की समस्या से केवल संघ ही जूझ रहा है, कांग्रेस का अग्रिम संगठन सेवादल तक परेशान है। वहां भी ड्रेस कोड बदलने पर चर्चा हो चुकी है।
जहां तक संघ पर सांप्रदायिक आरोप होने का सवाल है, उसकी वजह से भी युवा पीढ़ी को संघ में जाने में झिझक महसूस होती है, चूंकि व्यवहार में धर्मनिरपेक्षता का माहौल ज्यादा बन गया है। भले ही भावनाओं के ज्वार में हिंदू-मुस्लिम दंगे होने के कारण ऐसा प्रतीत होता हो कि दोनों संप्रदाय एक दूसरे के विपरीत हैं, लेकिन व्यवहार में हर हिंदू व मुसलमान आपस में प्रेम से घुल-मिल कर ही रहना चाहता है। देश भले ही धार्मिक कट्टरवाद की घटनाओं से पीडि़त हो, मगर आम जनजीवन में कट्टरवाद पूरी तरह अप्रासंगिक है। युवकों को इस बात का भी डर रहता है कि यदि उन पर सांप्रदायिक संगठन से जुड़े होने का आरोप लगा तो उनका कैरियर प्रभावित होगा। आज बढ़ती बेरोजगारी के युग में युवकों को ज्यादा चिंता रोजगार की है, न कि हिंदू राष्ट के लक्ष्य को हासिल करने की और न ही राष्ट्रवाद और राष्ट्र की। असल में राष्ट्रीयता की भावना और जीवन मूल्य जितनी तेजी से गिरे हैं, वह भी एक बड़ा कारण हैं। युवा पीढ़ी को लगता है कि संघ में सिखाए जाने वाले जीवन मूल्य कहने मात्र को तो अच्छे नजर आते हैं, जब कि व्यवहार में भ्रष्टाचार का ही बोलबाला है। सुखी वह नजर आता जो कि शिष्टाचार बन चुके भ्रष्टाचार पर चल रहा है, ईमानदार तो कष्ट ही कष्ट ही झेलता है।
जरा, राजनीति के पहलु को भी देख लें। जब तक संघ के राजनीतिक मुखौटे भाजपा से जुड़े लोगों ने सत्ता नहीं भोगी थी, तब तक उन्हें सत्ता के साथ आने वाले अवगुण छू तक नहीं पाए थे, लेकिन जैसे ही सत्ता का स्वाद चख लिया, उनके चरित्र में ही बदलाव आ गया है। इसकी वजह से संघ व भाजपा में ही दूरियां बनने लगी हैं। संघर्षपूर्ण व यायावर जिंदगी जीने वाले संघ के प्रचारकों को भाजपा के नेताओं से ईष्र्या होती है। हिंदूवादी मानसिकता वाले युवा, जो कि राजनीति में आना चाहते हैं, वे संघ से केवल इस कारण थोड़ी नजदीकी रखते हैं, ताकि उन्हें चुनाव के वक्त टिकट आसानी से मिल जाए। बाकी संघ की संस्कृति से उनका दूर-दूर तक वास्ता नहीं होता। अनेक भाजपा नेता अपना वजूद बनाए रखने के लिए संघ के प्रचारकों की सेवा-चाकरी करते हैं। कुछ भाजपा नेताओं की केवल इसी कारण चलती है, क्योंकि उन पर किसी संघ प्रचारक व महानगर प्रमुख का आशीर्वाद बना हुआ है। प्रचारकों की सेवा-चाकरी का परिणाम ये है कि प्रचारकों में ही भाजपा नेताओं के प्रति मतभेद हो गए हैं। संघ व पार्टी की आर्थिक बेगारियां झेलने वाले भाजपा नेता दिखाने भर को प्रचारक को सम्मान देते हैं, लेकिन टिकट व पद हासिल करते समय अपने योगदान को गिना देते हैं। भीतर ही भीतर यह माहौल संघ के नए-नए स्वयंसेवक को खिन्न कर देता है। जब स्वयं स्वयंसेवक ही कुंठित होगा तो वह और नए युवाओं को संघ में लाने में क्यों रुचि लेगा। ऐसा नहीं है कि संघ के कर्ताधर्ता इन हालात से वाकिफ न हों, मगर समस्या इतनी बढ़ गई है कि अब इससे निजात कठिन ही प्रतीत होता है।
एक और अदृश्य सी समस्या है, महिलाओं की आधी दुनिया से संघ की दूरी। भले ही संघ के अनेक प्रकल्पों से महिलाएं जुड़ी हुई हों, मगर मूल संगठन में उन्हें कोई स्थान नहीं है। इस लिहाज से संघ को यदि पुरुष प्रधान कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। संघ ने महिलाओं की भी शाखाएं गठित करने पर कभी विचार नहीं किया। आज जब कि महिला सशक्तिकरण पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है, महिलाएं हर क्षेत्र में आगे आ रही हैं, संघ का महिलाओं को न जोडऩे की वजह से संघ उतना मजबूत नहीं हो पा रहा, जितना कि होना चाहिए।
बहरहाल, देखना ये है कि देश के बदलते हालात में भगवा आतंकवाद के आरोप से तिलमिलाया संघ शाखाओं के विस्तार व युवा स्वयंसेवकों की संख्या बढ़ाने के लिए क्या कारगर उपाय करता है।
-गिरधर तेजवानी
वस्तुत: संघ के प्रति युवकों के आकर्षण कम होने का सिलसिला हाल ही में शुरू नहीं हुआ है अथवा अचानक कोई कारण नहीं उत्पन्न हुआ है, जो कि आकर्षण कम होने के लिए उत्तरदायी हो। पिछले करीब 15 साल के दरम्यान संघ की शाखाओं में युवाओं की संख्या में गिरावट महसूस की गई है। यह गिरावट इस कारण भी संघ के नीति निर्धारकों को ज्यादा महसूस होती है, क्योंकि जितनी तेजी से जनसंख्या में वृद्धि हुई है, उसी अनुपात में युवा जुड़ नहीं पाया है। भले ही यह सही हो कि जो स्वयंसेवक आज से 10-15 साल पहले अथवा उससे भी पहले जुड़ा, वह टूटा नहीं है, लेकिन नया युवा उतने उत्साह के साथ नहीं जुड़ रहा, जिस प्रकार पहले जुड़ा करता था। इसके अनेक कारण हैं।
मोटे तौर पर देखा जाए तो इसकी मुख्य वजह है टीवी और संचार माध्यमों का विस्तार, जिसकी वजह से पाश्चात्य संस्कृति का हमला बढ़ता ही जा रहा है। यौवन की दहलीज पर पैर रखने वाली हमारी पीढ़ी उसके ग्लैमर से सर्वाधिक प्रभावित है। गांव कस्बे की ओर, कस्बे शहर की तरफ और शहर महानगर की दिशा में बढ़ रहे हैं। सच तो यह है कि भौतिकतावादी और उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण शहरी स्वच्छंदता गांवों में भी प्रवेश करने लगी है। युवा पीढ़ी का खाना-पीना व रहन-सहन तेजी से बदल रहा है। बदलाव की बयार में बह रहे युवाओं को किसी भी दृष्टि से संघ की संस्कृति अपने अनुकूल नहीं नजर आती। संघ के स्वयंसेवकों में आपस का जो लोक व्यवहार है, वह किसी भी युवा को आम जिंदगी में कहीं नजर नहीं आता। व्यवहार तो दूर की बात है, संघ का अकेला डे्रस कोड ही युवकों को दूर किए दे रहा है।
जब से संघ की स्थापना हुई है, तब से लेकर अब तक समय बदलने के साथ डे्रस कोड में कोई परिवर्तन नहीं किया गया है। सच्चाई तो ये है कि चौड़े पांयचे वाली हाफ पैंट ही मजाक की कारक बन गई है। यह कम दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है कि अपने आप को सबसे बड़ा राष्ट्रवादी मानने वालों के प्रति आम लोगों में श्रद्धा की बजाय उपहास का भाव है और वे स्वयंसेवकों को चड्ढा कह कर संबोधित करते हैं। स्वयं सेवकों को भले ही यह सिखाया जाता हो कि वे संघ की डे्रस पहन कर और हाथ में दंड लेकर गर्व के साथ गलियों से गुजरें, लेकिन स्वयं सेवक ही जानता है कि वह हंसी का पात्र बन कर कैसा महसूस करता है। हालत ये है कि संघ के ही सियासी चेहरे भाजपा से जुड़े नेता तक संघ के कार्यक्रम में हाफ पैंट पहन कर जाने में अटपटा महसूस करते हैं, लेकिन अपने नंबर बढ़ाने की गरज से मजबूरी में हाफ पैंट पहनते हैं। हालांकि कुछ वर्ष पहले संघ में ड्रेस कोड में कुछ बदलाव करने पर चर्चा हो चुकी है, लेकिन अभी तक कोर गु्रप ने ऐसा करने का साहस नहीं जुटाया है। उसे डर है कि कहीं ऐसा करने से स्वयंसेवक की पहचान न खो जाए। ऐसा नहीं है कि डे्रस कोड की वजह से दूर होती युवा पीढ़ी की समस्या से केवल संघ ही जूझ रहा है, कांग्रेस का अग्रिम संगठन सेवादल तक परेशान है। वहां भी ड्रेस कोड बदलने पर चर्चा हो चुकी है।
जहां तक संघ पर सांप्रदायिक आरोप होने का सवाल है, उसकी वजह से भी युवा पीढ़ी को संघ में जाने में झिझक महसूस होती है, चूंकि व्यवहार में धर्मनिरपेक्षता का माहौल ज्यादा बन गया है। भले ही भावनाओं के ज्वार में हिंदू-मुस्लिम दंगे होने के कारण ऐसा प्रतीत होता हो कि दोनों संप्रदाय एक दूसरे के विपरीत हैं, लेकिन व्यवहार में हर हिंदू व मुसलमान आपस में प्रेम से घुल-मिल कर ही रहना चाहता है। देश भले ही धार्मिक कट्टरवाद की घटनाओं से पीडि़त हो, मगर आम जनजीवन में कट्टरवाद पूरी तरह अप्रासंगिक है। युवकों को इस बात का भी डर रहता है कि यदि उन पर सांप्रदायिक संगठन से जुड़े होने का आरोप लगा तो उनका कैरियर प्रभावित होगा। आज बढ़ती बेरोजगारी के युग में युवकों को ज्यादा चिंता रोजगार की है, न कि हिंदू राष्ट के लक्ष्य को हासिल करने की और न ही राष्ट्रवाद और राष्ट्र की। असल में राष्ट्रीयता की भावना और जीवन मूल्य जितनी तेजी से गिरे हैं, वह भी एक बड़ा कारण हैं। युवा पीढ़ी को लगता है कि संघ में सिखाए जाने वाले जीवन मूल्य कहने मात्र को तो अच्छे नजर आते हैं, जब कि व्यवहार में भ्रष्टाचार का ही बोलबाला है। सुखी वह नजर आता जो कि शिष्टाचार बन चुके भ्रष्टाचार पर चल रहा है, ईमानदार तो कष्ट ही कष्ट ही झेलता है।
जरा, राजनीति के पहलु को भी देख लें। जब तक संघ के राजनीतिक मुखौटे भाजपा से जुड़े लोगों ने सत्ता नहीं भोगी थी, तब तक उन्हें सत्ता के साथ आने वाले अवगुण छू तक नहीं पाए थे, लेकिन जैसे ही सत्ता का स्वाद चख लिया, उनके चरित्र में ही बदलाव आ गया है। इसकी वजह से संघ व भाजपा में ही दूरियां बनने लगी हैं। संघर्षपूर्ण व यायावर जिंदगी जीने वाले संघ के प्रचारकों को भाजपा के नेताओं से ईष्र्या होती है। हिंदूवादी मानसिकता वाले युवा, जो कि राजनीति में आना चाहते हैं, वे संघ से केवल इस कारण थोड़ी नजदीकी रखते हैं, ताकि उन्हें चुनाव के वक्त टिकट आसानी से मिल जाए। बाकी संघ की संस्कृति से उनका दूर-दूर तक वास्ता नहीं होता। अनेक भाजपा नेता अपना वजूद बनाए रखने के लिए संघ के प्रचारकों की सेवा-चाकरी करते हैं। कुछ भाजपा नेताओं की केवल इसी कारण चलती है, क्योंकि उन पर किसी संघ प्रचारक व महानगर प्रमुख का आशीर्वाद बना हुआ है। प्रचारकों की सेवा-चाकरी का परिणाम ये है कि प्रचारकों में ही भाजपा नेताओं के प्रति मतभेद हो गए हैं। संघ व पार्टी की आर्थिक बेगारियां झेलने वाले भाजपा नेता दिखाने भर को प्रचारक को सम्मान देते हैं, लेकिन टिकट व पद हासिल करते समय अपने योगदान को गिना देते हैं। भीतर ही भीतर यह माहौल संघ के नए-नए स्वयंसेवक को खिन्न कर देता है। जब स्वयं स्वयंसेवक ही कुंठित होगा तो वह और नए युवाओं को संघ में लाने में क्यों रुचि लेगा। ऐसा नहीं है कि संघ के कर्ताधर्ता इन हालात से वाकिफ न हों, मगर समस्या इतनी बढ़ गई है कि अब इससे निजात कठिन ही प्रतीत होता है।
एक और अदृश्य सी समस्या है, महिलाओं की आधी दुनिया से संघ की दूरी। भले ही संघ के अनेक प्रकल्पों से महिलाएं जुड़ी हुई हों, मगर मूल संगठन में उन्हें कोई स्थान नहीं है। इस लिहाज से संघ को यदि पुरुष प्रधान कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। संघ ने महिलाओं की भी शाखाएं गठित करने पर कभी विचार नहीं किया। आज जब कि महिला सशक्तिकरण पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है, महिलाएं हर क्षेत्र में आगे आ रही हैं, संघ का महिलाओं को न जोडऩे की वजह से संघ उतना मजबूत नहीं हो पा रहा, जितना कि होना चाहिए।
बहरहाल, देखना ये है कि देश के बदलते हालात में भगवा आतंकवाद के आरोप से तिलमिलाया संघ शाखाओं के विस्तार व युवा स्वयंसेवकों की संख्या बढ़ाने के लिए क्या कारगर उपाय करता है।
-गिरधर तेजवानी
रविवार, मार्च 10, 2013
वसुंधरा से ज्यादा अपनों की बेवफाई से दुखी हैं तिवाड़ी
बुरी तरह से रूठे भाजपा नेता घनश्याम तिवाड़ी ने देव दर्शन यात्रा की शुरुआत के दौरान जिस प्रकार नाम लिए बिना अपनी ही पार्टी के कई नेताओं पर निशाना साधा, उससे साफ है कि वे नई प्रदेश अध्यक्ष श्रीमती वसुंधरा राजे से तो पीडि़त हैं ही, वसुंधरा के खिलाफ बिगुल बजाने वालों के साथ छोड़ जाने से भी दुखी हैं।
वसुंधरा का नाम लिए बिना उन पर हमला बोलते हुए जब वे बोले कि राजस्थान को चरागाह समझ रखा है तो उनका इशारा साफ था कि उन जैसे अनेक स्थानीय नेता तो बर्फ में लगे पड़े हैं और बाहर से आर्इं वसुंधरा उनकी छाती पर मूंग दल रही हैं। वसुंधरा और पार्टी हाईकमान की बेरुखी को वे कुछ इन शब्दों में बयान कर गए-लोग कहते हैं कि घनश्यामजी देव दर्शन यात्रा क्यों कर रहे हैं? घनश्यामजी किसके पास जाएं? सबने कानों में रुई भर रखी है। न कोई दिल्ली में सुनता है, न यहां। सारी दुनिया बोलती है उस बात को भी भी नहीं सुनते।
अब तक वसुंधरा राजे खिलाफ मुहिम चलाने वाले साथियों पर निशाना साधते हुए वे बोले कि जिन लोगों ने गंगा जल हाथ में लेकर न्याय के लिए संघर्ष करने की बात कही थी, वे भी छोटे से पद के लिए छोड़ कर चले गए। उनका सीधा-सीधा इशारा वसुंधरा राजे की कार्यकारिणी में उपाध्यक्ष बने अरुण चतुर्वेदी व औंकार सिंह लखावत और नेता प्रतिपक्ष बने गुलाब चंद कटारिया की ओर था। इसकी पुष्टि उनके इस बयान से होती है कि मेरे पास भी बहुत प्रलोभन आए हैं, पारिवारिक रूप से भी आए हैं, अरे यार क्यों लड़ते हो, आपके बेटे को भी एक टिकट दे देंगे। आप राष्ट्रीय में बन जाओ, उसे प्रदेश में बना दो। हमारी पारिवारिक लड़ाई नहीं है, हजारों कार्यकर्ताओं की लड़ाई है, जो सत्य के लिए लड़ रहे हैं। वे कार्यकर्ताओं की हमदर्दी भुनाने के लिए यह भी बोले कि जो बेईमान, चापलूस, भ्रष्ट हैं वो ऊपर हैं, जो कार्यकर्ता हैं वो नीचे हैं।
खुद को मानते हैं संस्कृति का पोषक
तिवाड़ी ने खुद को और नेताओं से ऊपर बैठाते हुए कहा कि हम विधायक दल की बैठक में बैठे थे, हमें सूचना दी गई कि राज्यपाल विधानसभा में अंग्रेजी में भाषण करेगी, अपने को विरोध नहीं करना है। तब मैंने उसी समय खड़े होकर कहा था, कि 199 एमएलए भी पक्ष लेंगे तो तिवाड़ी हिंदी में भाषण कराएगा। समर्थन करेंगे तो भी तिवाड़ी हिंदी में भाषण की मांग करेगा। हम भाजपा में हैं, भाजपा में रहेंगे लेकिन कोई हिंदी और संस्कृति को समाप्त करने का कोई प्रयास करेगा, वह बर्दाश्त नहीं होगा। तब मैंने कहा था कि जिसको न निज देश का अभिमान है वह नर नहीं निरा पशु समान। अंग्रेजी पढ़ के सब गुण होत प्रवीण, निज भाषा ज्ञान के रहत हीन के हीन। हीन बनकर नहीं रहना चाहते। अर्थात भाजपा में अकेले वे ही बचे हैं, जिन्हें अपनी संस्कृति की पीड़ा है।
कांग्रेस के बराबर ला खड़ा किया
उन्होंने अपने उद्बोधन में भाजपा को कांग्रेस के बराबर ला खड़ा किया। शुचिता और सिद्धांतों की राजनीति करने वाली मौजूदा भाजपा पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा कि कोई कहे दाल में काला है, मैं तो कहता हूं इस राजनीति में तो पूरी दाल ही काली है। किसी भी पार्टी में जाकर देख लीजिए। जो बेईमान, चापलूस, भ्रष्ट हैं वो ऊपर हैं, जो कार्यकर्ता हैं वो नीचे हैं। जातिवाद का जहर फैलाया जा रहा है। यह सब क्यों किया जा रहा है?
एक पाटी के नेता ने कहा कि आप राजस्थान में कैसे हो, वो बोले एक घर राजस्थान में है, एक हिमाचल में। दोनों पार्टियों में यही स्थिति है। आजकल दोनों पार्टियों के नेताओं से पूछते हैं कि कितनी सीटें आएंगी तो कहते हैं 215 सीटें। 200 तो राजस्थान की है, बाकी प्रांतों से आने वाले 15 तो लाएंगे, यह स्थिति हो रही है राजस्थान की।
तब खुद भी तो चर रहे थे
उनके इस बयान पर खासा चर्चा हो रही है कि देव दर्शन में सबसे पहले जाकर भगवान के यहां अर्जी लगाऊंगा कि हे भगवान, हिंदुस्तान की राजनीति में जितने भी भ्रष्ट नेता हैं उनकी जमानत जब्त करा दे, यह प्रार्थना पत्र दूंगा। भगवान को ही नहीं उनके दर्शन करने आने वाले भक्तों से भी कहूंगा कि राजस्थान को बचाओ। राजस्थान को चारागाह समझ रखा है। सवाल उठता है कि जब वे राजस्थान को चरागाह समझने वालों के साथ चर रहे थे, तब उन्हें यह ख्याल क्यों नहीं आया कि राजस्थान लुटा जा रहा है?
-तेजवानी गिरधर
वसुंधरा का नाम लिए बिना उन पर हमला बोलते हुए जब वे बोले कि राजस्थान को चरागाह समझ रखा है तो उनका इशारा साफ था कि उन जैसे अनेक स्थानीय नेता तो बर्फ में लगे पड़े हैं और बाहर से आर्इं वसुंधरा उनकी छाती पर मूंग दल रही हैं। वसुंधरा और पार्टी हाईकमान की बेरुखी को वे कुछ इन शब्दों में बयान कर गए-लोग कहते हैं कि घनश्यामजी देव दर्शन यात्रा क्यों कर रहे हैं? घनश्यामजी किसके पास जाएं? सबने कानों में रुई भर रखी है। न कोई दिल्ली में सुनता है, न यहां। सारी दुनिया बोलती है उस बात को भी भी नहीं सुनते।
अब तक वसुंधरा राजे खिलाफ मुहिम चलाने वाले साथियों पर निशाना साधते हुए वे बोले कि जिन लोगों ने गंगा जल हाथ में लेकर न्याय के लिए संघर्ष करने की बात कही थी, वे भी छोटे से पद के लिए छोड़ कर चले गए। उनका सीधा-सीधा इशारा वसुंधरा राजे की कार्यकारिणी में उपाध्यक्ष बने अरुण चतुर्वेदी व औंकार सिंह लखावत और नेता प्रतिपक्ष बने गुलाब चंद कटारिया की ओर था। इसकी पुष्टि उनके इस बयान से होती है कि मेरे पास भी बहुत प्रलोभन आए हैं, पारिवारिक रूप से भी आए हैं, अरे यार क्यों लड़ते हो, आपके बेटे को भी एक टिकट दे देंगे। आप राष्ट्रीय में बन जाओ, उसे प्रदेश में बना दो। हमारी पारिवारिक लड़ाई नहीं है, हजारों कार्यकर्ताओं की लड़ाई है, जो सत्य के लिए लड़ रहे हैं। वे कार्यकर्ताओं की हमदर्दी भुनाने के लिए यह भी बोले कि जो बेईमान, चापलूस, भ्रष्ट हैं वो ऊपर हैं, जो कार्यकर्ता हैं वो नीचे हैं।
खुद को मानते हैं संस्कृति का पोषक
तिवाड़ी ने खुद को और नेताओं से ऊपर बैठाते हुए कहा कि हम विधायक दल की बैठक में बैठे थे, हमें सूचना दी गई कि राज्यपाल विधानसभा में अंग्रेजी में भाषण करेगी, अपने को विरोध नहीं करना है। तब मैंने उसी समय खड़े होकर कहा था, कि 199 एमएलए भी पक्ष लेंगे तो तिवाड़ी हिंदी में भाषण कराएगा। समर्थन करेंगे तो भी तिवाड़ी हिंदी में भाषण की मांग करेगा। हम भाजपा में हैं, भाजपा में रहेंगे लेकिन कोई हिंदी और संस्कृति को समाप्त करने का कोई प्रयास करेगा, वह बर्दाश्त नहीं होगा। तब मैंने कहा था कि जिसको न निज देश का अभिमान है वह नर नहीं निरा पशु समान। अंग्रेजी पढ़ के सब गुण होत प्रवीण, निज भाषा ज्ञान के रहत हीन के हीन। हीन बनकर नहीं रहना चाहते। अर्थात भाजपा में अकेले वे ही बचे हैं, जिन्हें अपनी संस्कृति की पीड़ा है।
कांग्रेस के बराबर ला खड़ा किया
उन्होंने अपने उद्बोधन में भाजपा को कांग्रेस के बराबर ला खड़ा किया। शुचिता और सिद्धांतों की राजनीति करने वाली मौजूदा भाजपा पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा कि कोई कहे दाल में काला है, मैं तो कहता हूं इस राजनीति में तो पूरी दाल ही काली है। किसी भी पार्टी में जाकर देख लीजिए। जो बेईमान, चापलूस, भ्रष्ट हैं वो ऊपर हैं, जो कार्यकर्ता हैं वो नीचे हैं। जातिवाद का जहर फैलाया जा रहा है। यह सब क्यों किया जा रहा है?
एक पाटी के नेता ने कहा कि आप राजस्थान में कैसे हो, वो बोले एक घर राजस्थान में है, एक हिमाचल में। दोनों पार्टियों में यही स्थिति है। आजकल दोनों पार्टियों के नेताओं से पूछते हैं कि कितनी सीटें आएंगी तो कहते हैं 215 सीटें। 200 तो राजस्थान की है, बाकी प्रांतों से आने वाले 15 तो लाएंगे, यह स्थिति हो रही है राजस्थान की।
तब खुद भी तो चर रहे थे
उनके इस बयान पर खासा चर्चा हो रही है कि देव दर्शन में सबसे पहले जाकर भगवान के यहां अर्जी लगाऊंगा कि हे भगवान, हिंदुस्तान की राजनीति में जितने भी भ्रष्ट नेता हैं उनकी जमानत जब्त करा दे, यह प्रार्थना पत्र दूंगा। भगवान को ही नहीं उनके दर्शन करने आने वाले भक्तों से भी कहूंगा कि राजस्थान को बचाओ। राजस्थान को चारागाह समझ रखा है। सवाल उठता है कि जब वे राजस्थान को चरागाह समझने वालों के साथ चर रहे थे, तब उन्हें यह ख्याल क्यों नहीं आया कि राजस्थान लुटा जा रहा है?
-तेजवानी गिरधर
मंगलवार, मार्च 05, 2013
चतुर्वेदी लायक ही नहीं थे अध्यक्ष पद के
राजस्थान प्रदेश भाजपा अध्यक्ष वसुंधरा राजे की कार्यकारिणी में उपाध्यक्ष का पद स्वीकार कर निवर्तमान अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी ने सभी को चौंकाया है। पार्टी कार्यकर्ताओं व नेताओं को समझ में ही नहीं आ रहा है कि ऐसा उन्होंने कैसे किया? क्या वे हाईकमान की किसी रणनीति का शिकार हुए हैं? क्या वे स्वयं वसुंधरा की टीम के शामिल होना चाहते थे? या वसुंधरा उन्हें अपनी छतरी के नीचे लाना चाहती थीं? अगर उनको टीम में शामिल होने का ऑफर था तो भी उन्होंने उसे स्वीकार करने से पहले सौ बार सोचा क्यों नहीं? क्या उन्हें अपने पूर्व पद की मर्यादा व गौरव का जरा भी भान नहीं रहा? अपनी पहले ही प्रतिष्ठा का जरा भी ख्याल नहीं किया? क्या वे इतने पदलोलुप हैं कि अध्यक्ष के बाद उपाध्यक्ष बनने को उतारू थे? ये सारे सवाल भाजपाइयों के जेहन में रह-रह कर उभर रहे हैं।
स्वाभाविक सी बात है कि जो खुद अभी हाल तक अध्यक्ष पद पर रहा हो, वह भला किसी और की अध्यक्षता वाली कार्यकारिणी में उपाध्यक्ष पद के लिए राजी होगा तो ये सवाल पैदा होंगे? इससे एक शक और होता है, वो ये कि शायद वे अध्यक्ष पद के लायक थे ही नहीं। गलती से उन्हें अध्यक्ष बना दिया गया, जिसे उन्होंने संघ के दबाव में ढ़ोया। वे थे तो उपाध्यक्ष पद का टैग लगाने योग्य, मगर गलती से पार्टी ने उन पर अध्यक्ष का टैग लगा रखा था। असल में उन्होंने संस्कृत की स्वजाति द्रुतिक्रमा वाली कहानी को चरितार्थ कर लिया, जैसे एक चूहा विभिन्न योनियों के बाद आखिर चूहा पर बन कर ही संतुष्ट हुआ। अध्यक्ष रह चुकने के बाद भी उन्हें उपाध्यक्ष बन कर ही संतुष्टि हुई। और वह भी उसके नीचे, जिसे टक्कर देने के लिए उन्हें खड़ा किए रखा गया। आत्म समर्पण की इससे बड़ी मिसाल कहीं नहीं मिल सकती। धरातल का सच भी ये है कि उन्हें वसुंधरा की जिस दादागिरी को समाप्त करने और उन पर नियंत्रण करने का जिम्मा दिया गया था, उसमें वे कत्तई कामयाब नहीं हो पाए। वे कहने भर को पार्टी के अध्यक्ष थे, मगर प्रदेश में वसुंधरा की ही तूती बोलती रही। वह भी तब जब कि अधिकतर समय वसुंधरा ने जयपुर से बाहर ही बिताया। चाहे दिल्ली रहीं या लंदन में, पार्टी नेताओं का रिमोट वसुंधरा के हाथ में ही रहा। अधिसंख्य विधायक वसुंधरा के कब्जे में ही रहे। यहां तक कि संगठन के पदाधिकारी भी वसुंधरा से खौफ खाते रहे। परिणाम ये हुआ कि वसुंधरा ने जिस विधायक दल के पद से बमुश्किल इस्तीफा दिया, वह एक साल तक खाली ही रहा। आखिरकार अनुनय-विनय करने पर ही फिर से वसुंधरा ने पद ग्रहण करने को राजी हुई। जब-जब वसुंधरा को दबाने की कोशिश की गई, वे बिफर कर इस्तीफों की राजनीति पर उतर आईं, मगर पार्टी हाईकमान उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाया।
कुल मिला कर चतुर्वेदी का उपाध्यक्ष बनना स्वीकार करना पार्टी कार्यकर्ताओं गले नहीं उतर रहा, चतुर्वेदी भले ही संतुष्ट हों।
-तेजवानी गिरधर
स्वाभाविक सी बात है कि जो खुद अभी हाल तक अध्यक्ष पद पर रहा हो, वह भला किसी और की अध्यक्षता वाली कार्यकारिणी में उपाध्यक्ष पद के लिए राजी होगा तो ये सवाल पैदा होंगे? इससे एक शक और होता है, वो ये कि शायद वे अध्यक्ष पद के लायक थे ही नहीं। गलती से उन्हें अध्यक्ष बना दिया गया, जिसे उन्होंने संघ के दबाव में ढ़ोया। वे थे तो उपाध्यक्ष पद का टैग लगाने योग्य, मगर गलती से पार्टी ने उन पर अध्यक्ष का टैग लगा रखा था। असल में उन्होंने संस्कृत की स्वजाति द्रुतिक्रमा वाली कहानी को चरितार्थ कर लिया, जैसे एक चूहा विभिन्न योनियों के बाद आखिर चूहा पर बन कर ही संतुष्ट हुआ। अध्यक्ष रह चुकने के बाद भी उन्हें उपाध्यक्ष बन कर ही संतुष्टि हुई। और वह भी उसके नीचे, जिसे टक्कर देने के लिए उन्हें खड़ा किए रखा गया। आत्म समर्पण की इससे बड़ी मिसाल कहीं नहीं मिल सकती। धरातल का सच भी ये है कि उन्हें वसुंधरा की जिस दादागिरी को समाप्त करने और उन पर नियंत्रण करने का जिम्मा दिया गया था, उसमें वे कत्तई कामयाब नहीं हो पाए। वे कहने भर को पार्टी के अध्यक्ष थे, मगर प्रदेश में वसुंधरा की ही तूती बोलती रही। वह भी तब जब कि अधिकतर समय वसुंधरा ने जयपुर से बाहर ही बिताया। चाहे दिल्ली रहीं या लंदन में, पार्टी नेताओं का रिमोट वसुंधरा के हाथ में ही रहा। अधिसंख्य विधायक वसुंधरा के कब्जे में ही रहे। यहां तक कि संगठन के पदाधिकारी भी वसुंधरा से खौफ खाते रहे। परिणाम ये हुआ कि वसुंधरा ने जिस विधायक दल के पद से बमुश्किल इस्तीफा दिया, वह एक साल तक खाली ही रहा। आखिरकार अनुनय-विनय करने पर ही फिर से वसुंधरा ने पद ग्रहण करने को राजी हुई। जब-जब वसुंधरा को दबाने की कोशिश की गई, वे बिफर कर इस्तीफों की राजनीति पर उतर आईं, मगर पार्टी हाईकमान उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाया।
कुल मिला कर चतुर्वेदी का उपाध्यक्ष बनना स्वीकार करना पार्टी कार्यकर्ताओं गले नहीं उतर रहा, चतुर्वेदी भले ही संतुष्ट हों।
-तेजवानी गिरधर
रविवार, मार्च 03, 2013
भैरोंसिंह शेखावत को ठेंगा, उनकी पत्नी को सलाम
कहते हैं राजनीति में सब कुछ जायज है। साम, दाम, दंड, भेद सब कुछ। वाकई सही है। स्वार्थ की खातिर आदमी उन्हीं कंधों को ठोकर मार देता है, जिनके सहारे वह ऊपर चढ़ा है और हर उस को भी अपना माई-बाप बना लेता है, जिससे स्वार्थ पूरा हो रहा हो। कुछ ऐसा ही वाकया पेश किया प्रदेश भाजपा अध्यक्ष श्रीमती वसुंधरा राजे ने। उन्होंने उन्हीं स्वर्गीय भैरोंसिंह शेखावत जी की धर्मपत्नी श्रीमती सूरज कंवर के घर जा कर उनका आशीर्वाद लिया, जिनको जीत-जी राजनीति की बर्फ में लगाने का काम उन्होंने किया था।
कहने की जरूरत नहीं है ये वही वसुंधरा हैं, जिनकी वजह से राजस्थान के सिंह कहलाने वाले स्वर्गीय शेखावत जी अपने प्रदेश में ही बेगाने से हो गए थे। दरअसल स्वर्गीय श्री शेखावत के उपराष्ट्रपति पद का कार्यकाल समाप्त करने के बाद राजस्थान लौटते ही दोनों के बीच छत्तीस का आंकड़ा हो गया था। असल वे तब नहीं चाहतीं थीं कि शेखावत फिर से राजस्थान में पकड़ बनाएं। यूं तो शेखावत के पुत्र नहीं था, इस कारण खतरा नहीं था कि उनका कोई उत्तराधिकारी प्रतिस्पद्र्धा में आ जाएगा, मगर उनके जवांई नरपत सिंह राजवी उभर रहे थे। वसुंधरा इस खतरे को भांप गई थीं। इसी कारण शेखावत राजवी को भी उन्होंने पीछे धकेलने की उन्होंने भरसक कोशिश की। इस प्रसंग में यह बताना अत्यंत प्रासंगिक है कि शेखावत ने वसुंधरा राजे के कार्यकाल में ही भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम की शुरुआत की थी। यही वसुंधरा को नागवार गुजरी। सब जानते हैं कि शेखावत की इसी मुहिम का उदाहरण दे कर कांग्रेस ने वसुंधरा के कार्यकाल पर सवाल उठाने शुरू कर दिए थे।
वसुंधरा अपने कार्यकाल में इतनी आक्रामक थीं कि भाजपाई शेखावत की परछाई से भी परहेज करने लगे थे। कई दिन तक तो वे सार्वजनिक जीवन में दिखाई ही नहीं दिए। इसी संदर्भ में अजमेर की बात करें तो लोग भलीभांति जानते हैं कि जब वे दिल्ली से लौट कर दो बार अजमेर आए तो उनकी अगुवानी करने को चंद दिलेर भाजपा नेता ही साहस जुटा पाए थे। शेखावत जी की भतीजी संतोष कंवर शेखावत, युवा भाजपा नेता भंवर सिंह पलाड़ा और पूर्व मनोनीत पार्षद सत्यनारायण गर्ग सहित चंद नेता ही उनका स्वागत करने पहुंचे। अधिसंख्य भाजपा नेता और दोनों तत्कालीन विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी व श्रीमती अनिता भदेल ने उनसे दूरी ही बनाए रखी। वजह थी मात्र ये कि अगर वे शेखावत से मिलने गए तो मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया नाराज हो जाएंगी। पूरे प्रदेश के भाजपाइयों में खौफ था कि वर्षों तक पार्टी की सेवा करने वाले वरिष्ठ नेताओं को खंडहर करार दे कर हाशिये पर धकेल देने वाली वसु मैडम अगर खफा हो गईं तो वे कहीं के नहीं रहेंगे।
वस्तुत: श्रीमती राजे ने एक बार मुख्यमंत्री बनने के बाद तय कर लिया था कि अब राजस्थान को अपने कब्जे में ही रखेंगी। शेखावत ही क्यों, उनके समकक्ष या यूं कहना चाहिए कि उनके वरिष्ठ अनेक नेताओं को उन्होंने खंडहर बता कर हाशिये पर खड़ा कर दिया। मगर अब जब वसुंधरा पर आगामी चुनाव जीतने की चुनौती है तो उन्हीं खंडहरों के यहां धोक दे रही हैं। इसी सिलसिले में वे हरिशंकर भाभड़ा व ललित किशोर चतुर्वेदी सरीखे दिग्गजों के घर जा कर उनका दिल जीतने की कोशिश कर रही हैं।
-तेजवानी गिरधर
कहने की जरूरत नहीं है ये वही वसुंधरा हैं, जिनकी वजह से राजस्थान के सिंह कहलाने वाले स्वर्गीय शेखावत जी अपने प्रदेश में ही बेगाने से हो गए थे। दरअसल स्वर्गीय श्री शेखावत के उपराष्ट्रपति पद का कार्यकाल समाप्त करने के बाद राजस्थान लौटते ही दोनों के बीच छत्तीस का आंकड़ा हो गया था। असल वे तब नहीं चाहतीं थीं कि शेखावत फिर से राजस्थान में पकड़ बनाएं। यूं तो शेखावत के पुत्र नहीं था, इस कारण खतरा नहीं था कि उनका कोई उत्तराधिकारी प्रतिस्पद्र्धा में आ जाएगा, मगर उनके जवांई नरपत सिंह राजवी उभर रहे थे। वसुंधरा इस खतरे को भांप गई थीं। इसी कारण शेखावत राजवी को भी उन्होंने पीछे धकेलने की उन्होंने भरसक कोशिश की। इस प्रसंग में यह बताना अत्यंत प्रासंगिक है कि शेखावत ने वसुंधरा राजे के कार्यकाल में ही भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम की शुरुआत की थी। यही वसुंधरा को नागवार गुजरी। सब जानते हैं कि शेखावत की इसी मुहिम का उदाहरण दे कर कांग्रेस ने वसुंधरा के कार्यकाल पर सवाल उठाने शुरू कर दिए थे।
वसुंधरा अपने कार्यकाल में इतनी आक्रामक थीं कि भाजपाई शेखावत की परछाई से भी परहेज करने लगे थे। कई दिन तक तो वे सार्वजनिक जीवन में दिखाई ही नहीं दिए। इसी संदर्भ में अजमेर की बात करें तो लोग भलीभांति जानते हैं कि जब वे दिल्ली से लौट कर दो बार अजमेर आए तो उनकी अगुवानी करने को चंद दिलेर भाजपा नेता ही साहस जुटा पाए थे। शेखावत जी की भतीजी संतोष कंवर शेखावत, युवा भाजपा नेता भंवर सिंह पलाड़ा और पूर्व मनोनीत पार्षद सत्यनारायण गर्ग सहित चंद नेता ही उनका स्वागत करने पहुंचे। अधिसंख्य भाजपा नेता और दोनों तत्कालीन विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी व श्रीमती अनिता भदेल ने उनसे दूरी ही बनाए रखी। वजह थी मात्र ये कि अगर वे शेखावत से मिलने गए तो मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया नाराज हो जाएंगी। पूरे प्रदेश के भाजपाइयों में खौफ था कि वर्षों तक पार्टी की सेवा करने वाले वरिष्ठ नेताओं को खंडहर करार दे कर हाशिये पर धकेल देने वाली वसु मैडम अगर खफा हो गईं तो वे कहीं के नहीं रहेंगे।
वस्तुत: श्रीमती राजे ने एक बार मुख्यमंत्री बनने के बाद तय कर लिया था कि अब राजस्थान को अपने कब्जे में ही रखेंगी। शेखावत ही क्यों, उनके समकक्ष या यूं कहना चाहिए कि उनके वरिष्ठ अनेक नेताओं को उन्होंने खंडहर बता कर हाशिये पर खड़ा कर दिया। मगर अब जब वसुंधरा पर आगामी चुनाव जीतने की चुनौती है तो उन्हीं खंडहरों के यहां धोक दे रही हैं। इसी सिलसिले में वे हरिशंकर भाभड़ा व ललित किशोर चतुर्वेदी सरीखे दिग्गजों के घर जा कर उनका दिल जीतने की कोशिश कर रही हैं।
-तेजवानी गिरधर
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