तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

बुधवार, नवंबर 28, 2012

केजरीवाल पर हेगड़े की आशंका में दम है


सामाजिक आंदोलन के गर्भ से राजनेता के रूप में पैदा हुए अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को बने जुम्मा जुम्मा आठ दिन भी नहीं हुए हैं कि उसकी सफलता पर आशंकाओं के बादल मंडराने लगे हैं। यूं तो जब वे टीम अन्ना से अलग हट कर राजनीति में आने की घोषणा कर रहे थे, तब भी अनेक समझदार लोगों ने यही कहा था कि राजनीतिक पार्टियों व नेताओं को गालियां देना आसान काम है, मगर खुद अपनी राजनीतिक पार्टी चलना बेहद मुश्किल। अब जब कि पार्टी बना ही ली है तो सबसे पहले टीम अन्ना के सदस्य कर्नाटक के पूर्व लोकायुक्त संतोष हेगड़े ने ही प्रतिक्रिया दी है कि उसकी सफलता संदिग्ध है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक 546 सदस्यों को चुनने के लिए एक बड़ी रकम की जरूरत पड़ती है। यह कार्य इतना आसान नहीं है। आज के समय में किसी भी राजनीतिक पार्टी को चलाने के लिए काफी चीजों की जरूरत पड़ रही है।
हेगड़े की इस बात में दम है कि आम आदमी पार्टी के विचार तो बड़े ही खूबसूरत हैं, मगर सवाल ये है कि क्या वे सफल हो पाएंगे? यह ठीक वैसे ही है, जैसे एक फिल्मी गाने में कहा गया है किताबों में छपते हैं चाहत के किस्से, हकीकत की दुनिया में चाहत नहीं है। केजरीवाल की बातें बेशक लुभावनी और रुचिकर हैं, मगर देश के ताजा हालात में उन्हें अमल में लाना नितांत असंभव है। यानि कि केजरवाल की हालत ऐसी होगी कि चले तो बहुत, मगर पहुंचे कहीं नहीं। उनकी सफलता का दरवाजा वहीं से शुरू होगा, जहां से व्यावहारिक राजनीति के फंडे अमल में लाना शुरू करेंगे।
अव्वल तो केजरीवाल उसी सिस्टम में दाखिल हो गए हैं, जिसमें नेताओं पर जरा भी यकीन नहीं रहा है। ऐसे में अगर वे सोचते हैं कि भाजपा की तरह वे भी पार्टी विथ द डिफ्रेंस का तमगा हासिल कर लेंगे तो ये उनकी कल्पना मात्र ही रहने वाली है। यह एक कड़वा सच है कि जब तक भाजपा विपक्ष में रही, सत्ता को गालियां देती रही, तब तक ही उसका पार्टी विथ द डिफ्रेंस का दावा कायम रहा, जैसे ही उसने सत्ता का स्वाद चखा, उसमें वे भी वे अपरिहार्य बुराइयां आ गईं, जो कांग्रेस में थीं। आज हालत ये है कि हिंदूवाद को छोड़ कर हर मामले में भाजपा को कांग्रेस जैसा ही मानते हैं। किसी पार्टी की इससे ज्यादा दुर्गति क्या होगी कि जिसे बड़ी शान से अनुशासित पार्टी माना जाता था, उसी में सबसे ज्यादा अनुशासनहीनता आ गई है। आपको ख्याल होगा कि भाजपा सदैव कांग्रेस के परिवारवाद का विरोध करते हुए अपने यहां आतंरिक लोकतंत्र की दुहाई देती रहती थी, मगर उसी की वजह से आज उसकी क्या हालत है। कुछ राज्यों में तो क्षेत्रीय क्षत्रप तक उभर आए हैं, जो कि आए दिन पार्टी हाईकमान को मुंह चिढ़ाते रहते हैं। राम जेठमलानी जैसे तो यह चैलेंज तब दे देते हैं उन्हें पार्टी से निकालने का किसी में दम नहीं। इस सिलसिले में एक लेखक की वह उक्ति याद आती है, जिसमें उन्होंने कहा था कि दुनिया में लोकतंत्र की चाहे जितनी महिमा हो, मगर परिवार तो मुखियाओं से ही चलते हैं। पार्टियां भी एक किस्म के परिवार हैं। जैसे कि कांग्रेस। उसमें भी लाख उठापटक होती है, मगर सोनिया जैसा कोई एक तो है, जो कि अल्टीमेट है। कांग्रेस ही क्यों, एकजुटता के मामले में व्यक्तिवादी पार्टियां यथा राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाजवादी पार्टी, अन्नाद्रमुक, द्रमुक, शिवसेना आदि आदि भाजपा से कहीं बेहतर है। ऐसे में केजरीवाल का वह आम आदमी वाला कोरा आंतरिक लोकतंत्र कितना सफल होगा, समझा जा सकता है।
चलो, भाजपा में तो फिर भी राजनीति के अनुभवी खिलाड़ी मौजूद हैं, पार्टी कहीं न कहीं राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जैसे सशक्त संगठन की डोर से बंधा है, मगर केजरीवाल और उनके साथियों को एक सूत्र में बांधने वाला न तो कोई तंत्र है और न ही उनमें राजनीति का जरा भी शऊर है। उनकी अधिकांश बातें हवाई हैं, जो कि धरातल पर आ कर फुस्स हो जाने वाली हैं।
वे लाख दोहराएं कि उनकी पार्टी आम आदमी की है, नेताओं की नहीं, मगर सच ये है कि संगठन और वह भी राजनीति का होने के बाद वह सब कुछ होने वाला है, जो कि राजनीति में होता है। नेतागिरी में आगे बढऩे की खातिर वैसी ही प्रतिस्पद्र्धा होने वाली है, जैसी कि और पार्टियों में होती है।  राजनीति की बात छोडिय़े, सामाजिक और यहां तक कि धार्मिक संगठनों तक में पावर गेम होता है। दरअसल मनुष्य, या यो कहें कि जीव मात्र में ज्यादा से ज्यादा शक्ति अर्जित करने का स्वभाव इनबिल्ट है। क्या इसका संकेत उसी दिन नहीं मिल गया था, जब पार्टी की घोषणा होते ही कुछ लोगों ने इस कारण विरोध दर्ज करवाया था कि वे शुरू से आंदोलन के साथ जुड़े रहे, मगर अब चुनिंदा लोगों को ही पार्टी में शामिल किया जा रहा है। इसका सीधा सा अर्थ है कि जो भी पार्टी में ज्यादा भागीदारी निभाएगा, वही अधिक अधिकार जमाना चाहेगा। इस सिलसिले में भाजपा की हालत पर नजर डाली जा सकती है। वहां यह संघर्ष अमतौर पर रहता है कि संघ पृष्ठभूमि वाला नेता अपने आपको देशी घी और बिना नेकर पहने नेता डालडा घी माना जाता है। ऐसे में क्या यह बात आसानी से हलक में उतर सकती है कि जो प्रशांत भूषण पार्टी को एक करोड़ रुपए का चंदा देंगे, वे पार्टी का डोमिनेट नहीं करेंगे?
सवाल इतने ही नहीं हैं, और भी हैं। वर्तमान भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था से तंग जनता जिस जोश के साथ अन्ना आंदोलन से जुड़ी थी, क्या उसी उत्साह के साथ आम आदमी पार्टी से जुड़ेगी? और वह भी तब जब कि वे अन्ना को पिता तुल्य बताते हुए भी अपना अलग चूल्हा जला चुके हैं? शंका ये है कि जो अपने पिता का सगा नहीं हुआ, वह अपने साथियों व आम आदमी का क्या होगा? राजनीति को पानी पी-पी कर गालियां देने वाले केजरीवाल क्या राजनीति की काली कोठरी के काजल से खुद को बचा पाएंगे? क्या वे उसी किस्म के सारे हथकंडे नहीं अपनाएंगे, जो कि राजनीतिक पार्टियां अपनाती रही हैं? क्या उनके पास जमीन तक राजनीति की बारीकियां समझने वाले लोगों की फौज है? क्या उन्हें इस बात का भान नहीं है कि लोकतंत्र में सफल होने के लिए भीड़ से ज्यादा जरूरत वोट की होती है? ये वोट उस देश की जनता से लेना है, जो कि धर्म, भाषा, जातिवाद और क्षेत्रवाद में उलझा हुआ है। क्या केजरीवाल को जरा भी पता है कि आज जो तबका देश की खातिर बहस को उतारु है और कथित रूप से बुद्धिजीवी कहलाता है, उससे कहीं अधिक अनपढ़ लोगों का मतदान प्रतिशत रहता है? ऐसे ही अनेकानेक सवाल हैं, जो ये शंका उत्पन्न करते हैं आम आदमी पार्टी का भविष्य अंधकारमय प्रतीत होता है। हां, अगर केजरीवाल सोचते हैं वे चले हैं एक राह पर, सफलता मिले मिले, चाहे जब मिले, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता तो ठीक है, चलते रहें।
-तेजवानी गिरधर

सोमवार, नवंबर 26, 2012

यानि कि जेठमलानी से घबराती है भाजपा

भाजपा ने अध्यक्ष नितिन गडकरी से इस्तीफे की मांग सार्वजनिक रूप से करके अनुशासन तोडऩे को लेकर निलंबित किए गए राज्यसभा सांसद और जाने-माने वकील राम जेठमलानी को निष्कासित करने की बजाय फिलहाल कारण बताओ नोटिस ही जारी किया है। ऐसा तब हुआ है, जबकि जेठमलानी खुल कर कह चुके हैं कि उन्हें पार्टी से निकालने का दम किसी में नहीं है। हालांकि माना यही जा रहा था कि संसदीय बोर्ड की बैठक में उन्हें पार्टी से बाहर करने का निर्णय किया जाएगा, मगर समझा जाता है कि पार्टी इसकी हिम्मत नहीं जुटा पाई। कदाचित ऐसा कानूनी पेचीदगी से बचने के लिए भी किया गया है। कहने की जरूरत नहीं है कि जेठमलानी कानून के कीड़े हैं।
गौरतलब है कि जेठमलानी एक ओर जहां पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी के इस्तीफे की मांग पर अड़े हुए हैं, वहीं सीबीआई के नए डायरेक्टर की नियुक्ति पर पार्टी से अलग राय जाहिर करके पार्टी नेताओं की किरकिरी कर चुके हैं। इतना ही नहीं जब उनसे पूछा गया कि उनके इस रवैये पर पार्टी उन्हें बाहर का रास्ता दिखा सकती है तो उन्होंने अपने तेवर और तीखे करते हुए पार्टी हाईकमान को चुनौती देते हुए कहा था कि उन्हें पार्टी से निकालने का दम किसी में नहीं है। इस चुनौती के बाद भी यदि पार्टी का रुख कुछ नरम दिखा तो यही माना गया कि जरूर उनके पास पार्टी के नेताओं की कोई नस दबी हुई है। गडकरी के खिलाफ तो वे कह भी चुके हैं कि उनके पास सबूत हैं।
ऐसा नहीं है कि जेठमलानी ने पहली बार पार्टी को मुसीबत में डाला है। इससे पहले भी वे कई बार पार्टी के खिलाफ मोर्चा खोल चुके हैं। उन्होंने भाजपाइयों के आदर्श वीर सावरकर की तुलना पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना से की थी। इतना ही नहीं उन्होंने उन्हीं जिन्ना को इंच-इंच धर्मनिरपेक्ष तक करार दे दिया था, जिनकी मजार शरीफ पर उन्हें धर्मनिरपेक्ष कहने पर लाल कृष्ण आडवाणी को अध्यक्ष पद छोडऩा पड़ गया था। असल में जेठमलानी पार्टी के अनुशासन में कभी नहीं बंधे। पार्टी की मनाही के बाद भी उन्होंने इंदिरा गांधी के हत्यारों का केस लड़ा। इतना ही नहीं उन्होंने संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी नहीं देने की वकालत की, जबकि भाजपा अफजल को फांसी देने के लिए आंदोलन चला रही है। वे भाजपा के खिलाफ किस सीमा तक चले गए, इसका सबसे बड़ा उदाहरण ये रहा कि वे पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतर गए। ऐसा व्यक्ति जब राज्यसभा चुनाव में भाजपा के बैनर पर राजस्थान से जितवा कर भेजा गया तो सभी अचंभे में थे। अब जब कि वे फिर से बगावती तेवर दिखा रहे हैं तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि उनके पास जरूर कोई न कोई तगड़ा हथियार है, जिसका मुकाबला करने में पार्टी को जोर आ रहा है।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, नवंबर 25, 2012

वसुंधरा जी, ऐसे जेठमलानी को आपने जितवाया ही क्यों?


अंतत: जब पानी सिर पर से ही गुजरने लगा तो भारतीय जनता पार्टी को अपने राज्यसभा सांसद और जाने-माने वकील राम जेठमलानी को पार्टी से बाहर करने का फैसला करने की नौबत आ गई। गौरतलब है कि जेठमलानी जहां पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी के इस्तीफे की मांग पर अड़े हुए थे, वहीं सीबीआई के नए डायरेक्टर की नियुक्ति पर पार्टी से अलग रुख दिखाने से पार्टी की आंख की किरकिरी बने हुए थे। वे खुल कर पार्टी के खिलाफ मोर्चाबंदी करने लगे थे। ऐसे समय में जब कि पार्टी अपने अध्यक्ष नितिन गडकरी पर लग रहे आरोपों के चलते परेशानी में थी, जेठमलानी ने लगातार आग में घी डालने का काम किया। और तो और जेठमलानी ने पार्टी हाईकमान को चुनौती देते हुए कहा था कि उन्हें पार्टी से निकालने का दम किसी में नहीं है। हालांकि पार्टी को निर्णय करने से पहले दस बार सोचना पड़ा क्योंकि वे पार्टी से बाहर होने के बाद और ज्यादा नुकसान पहुंचाने का माद्दा रखते हैं, मगर वे इससे भी ज्यादा किरकिरी पार्टी में रहते हुए कर रहे थे। ऐसे में आखिर पार्टी ने उस अंग को काटना ही बेहतर समझा, जिसका जहर पूरे शरीर में फैलने का खतरा था। ज्ञातव्य है कि उनकी पहल के बाद वरिष्ठ भाजपा नेता यशवंत सिन्हा व शत्रुघ्न सिन्हा भी खुल कर सामने आ गए थे।
बहरहाल, राम जेठमलानी की आगे की राम कहानी क्या होगी, ये तो आगे आने वाला वक्त ही बताएगा, मगर कम से कम राजस्थान के भाजपाइयों में यह चर्चा उठने लगी है कि आखिर ऐसे पार्टी कंटक को यहां से राज्यसभा सदस्य का चुनाव काहे को जितवाया?
वस्तुत: जेठमलानी की फितरत शुरू से ही खुरापात की रही है। पहले भी वे कई बार पार्टी के खिलाफ मोर्चा खोल चुके हैं। ऐसे में अब वे भाजपा नेता ये सवाल खड़ा करने की स्थिति में आ गए हैं कि आखिर ऐसी क्या वजह रही कि उनके बगावती तेवर के बाद भी राजस्थान के किसी और नेता का हक मार पर पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा के दबाव में राज्यसभा बनवाया गया?
आपको याद होगा कि जब वसुंधरा जेठमलानी को राज्यसभा चुनाव के दौरान पार्टी प्रत्याशी बनवा कर आईं तो भारी अंतर्विरोध हुआ, मगर वसुंधरा ने किसी की न चलने दी। सभी अचंभित थे, मगर छिटपुट विरोध के अलावा कुछ न कर पाए। विशेष रूप से संगठन के नेता तो जेठमलानी पर कत्तई सहमत नहीं थे, मगर विधायकों पर अपनी पकड़ के दम पर वसुंधरा उन्हें जितवाने में भी कामयाब हो गईं।
यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि जेठमलानी के विचार भाजपा की विचारधारा से कत्तई मेल नहीं खाते। उन्होंने बेबाक हो कर भाजपाइयों के आदर्श वीर सावरकर की तुलना पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना से की थी। इतना ही नहीं उन्होंने जिन्ना को इंच-इंच धर्मनिरपेक्ष तक करार दे दिया था। पार्टी के अनुशासन में वे कभी नहीं बंधे। पार्टी की मनाही के बाद भी उन्होंने इंदिरा गांधी के हत्यारों का केस लड़ा। इतना ही नहीं उन्होंने संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी नहीं देने की वकालत की, जबकि भाजपा अफजल को फांसी देने के लिए आंदोलन चला रही है। वे भाजपा के खिलाफ किस सीमा तक चले गए, इसका सबसे बड़ा उदाहरण ये रहा कि वे पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतर गए।
आपको बता दें कि जब वे पार्टी के बैनर पर राज्यसभा सदस्य बने तो मीडिया में ये सवाल उठे थे कि क्या बाद में पार्टी के सगे बने रहेंगे? क्या वे पहले की तरह मनमर्जी की नहीं करेंगे? आज वे आशंकाएं सच साबित हो गई। जाहिर सी बात है कि उन्हें जबरन जितवा कर ले जानी वाली वसुंधरा पर भी सवाल तो उठ ही रहे हैं।
-तेजवानी गिरधर

मंगलवार, नवंबर 20, 2012

गडकरी का दूसरा कार्यकाल नामुमकिन


पहले भाजपा सांसद व वरिष्ठ वकील राम जेठमलानी व उनके पुत्र महेश जेठमलानी और अब भाजपा नेता यशवंत सिंहा ने गडकरी के इस्तीफे की मांग कर पार्टी को परेशानी में डाल दिया है। भले ही अधिसंख्य नेता गडकरी के इस्तीफे पर फिलहाल इस कारण राजी नहीं हैं क्योंकि इससे पार्टी की किरकिरी होगी, मगर वे यह भी समझ रहे हैं कि गडकरी को कम से कम दूसरा मौका देना तो संभव नहीं होगा। ज्ञातव्य है कि गडकरी का मौजूदा कार्यकाल आगामी दिसंबर में पूरा हो रहा है।
उल्लेखनीय है कि जब जेठमलानी ने इस्तीफे का दबाव बनाया था, तब उन्होंने इशारा किया था कि यशवंत सिंहा और जसवंत सिंह भी उनका समर्थन कर रहे हैं। उस समय तो यशवंत खुलकर सामने नहीं आए, लेकिन इस बार उन्होंने साफ तौर पर गडकरी का इस्तीफा मांग लिया है। जेठमलानी की बात को तो पार्टी ने हवा में उड़ा दिया क्योंकि उनकी छवि कुछ खास नहीं रही है। पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच भी उन्हें सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता। उन्हें गंभीरता से नहीं लिया जाता। इसकी कुछ खास वजहें भी हैं। वो ये कि उनके विचार भाजपा की विचारधारा से कत्तई मेल नहीं खाते। उन्होंने बेबाक हो कर भाजपाइयों के आदर्श वीर सावरकर की तुलना पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना से की थी। इतना ही नहीं उन्होंने जिन्ना को इंच-इंच धर्मनिरपेक्ष तक करार दे दिया था। पार्टी के अनुशासन में वे कभी नहीं बंधे। पार्टी की मनाही के बाद भी उन्होंने इंदिरा गांधी के हत्यारों का केस लड़ा। इतना ही नहीं उन्होंने संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी नहीं देने की वकालत की, जबकि भाजपा अफजल को फांसी देने के लिए आंदोलन चला रही है। वे भाजपा के खिलाफ किस सीमा तक चले गए, इसका सबसे बड़ा उदाहरण ये रहा कि वे पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतर गए। इन्हीं कारणों वे जेठमलानी की मांग तो हवा में उड़ाना आसान रहा, मगर अब यशवंत सिन्हा जैसे संजीदा नेता की ओर उठी इस्तीफे की मांग को दरकिनार करना कठिन हो रहा है। यशवंत सिन्हा ने खुल कर कह दिया है कि मसला गडकरी के दोषी होने या न होने का नहीं है। जो लोग सार्वजनिक जीवन जीते हैं, उनकी छवि बेदाग होनी चाहिए। गडकरी का इस्तीफा मांगते हुए कहा कि मुझे काफी दुख और अफसोस है, लेकिन मुझे पूरा विश्वास है कि जो मुद्दा मैं उठा रहा हूं, वह सही है। उन्होंने इस बात का अफसोस भी जताया है कि पार्टी गडकरी के संबंध में कोई निर्णय नहीं ले पा रही है।
गौरतलब है कि कुछ दिनों पहले ही गुरुमूर्ति के क्लीन चिट पर भाजपा नेतृत्व ने गडकरी को पाक-साफ घोषित किया था और अपने सभी नेताओं और कार्यकर्ताओं को संकेत दे दिए थे कि गडकरी के विषय में अब कोई बयानबाजी नहीं होगी। मगर जब गुरुमूर्ति ने ट्वीट के जरिए पलटी खाई तो पार्टी सकते में आ गई। मौका पा कर यशवंत सिन्हा ने भी हमला बोल दिया है। समझा जाता है कि सिन्हा भी अच्छी तरह से जानते हैं कि अभी गडकरी का इस्तीफा नहीं होगा क्योंकि पार्टी शीतकालीन सत्र में कांग्रेस को कई मुद्दों पर घेरने की तैयारी कर रही है। इसके अतिरिक्त हल्ला बोल रैलियों की भी शुरुआत हो चुकी है। मगर कम से कम उनकी मांग से इतना तो होगा कि जो नेता गडकरी को दुबारा मौका देने की रणनीति बना रहे हैं, उन्हें झटका जरूर लगेगा।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, नवंबर 18, 2012

भाभड़ा का हो गया भाजपा से मोहभंग?


भाजपा के प्रमुख नेता हरिशंकर भाभड़ा ने दैनिक भास्कर के वरिष्ठ पत्रकार त्रिभुवन से की खुली बात में अपने आकलन में एक सच को उद्घाटित करते हुए भले ही यह कह दिया हो कि जनता का कांग्रेस व भाजपा से मोहभंग हो गया है और वह अब नेगेटिव वोटिंग करने लगी है, मगर उनके इस साक्षात्कार से ये भी इशारा मिलता है कि भाजपा में ऊंचाई छूने के बाद हाशिये पर जाने पर खुद उनका भी भाजपा से मोहभंग हो गया है। उन्होंने भाजपा के अंदरूनी स्थिति पर जिस प्रकार बेबाक बयानी की है, उससे यह साफ है कि पार्टी में बहुत कुछ खो चुकने के बाद उन्हें अब और कुछ खोने का डर नहीं रहा।
सबसे बड़ी बात ये है कि उन्होंने अपनी पूरी बात में कांग्रेस व भाजपा को बराबर ला कर खड़ा कर दिया है, तभी तो बोले कि लोग अब भाजपा को भी कांग्रेस की तरह समझने लगे हैं। दोनों का अंतर कम हो गया। लोग भ्रमित हैं कि किसे वोट दें! अर्थात भाजपा की ताजा स्थिति से पूरी तरह से असंतुष्ठ हैं और इसके लिए कहीं न कहीं पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के प्रभाव वाली भाजपा को जिम्मेदार मान रहे हैं। अपनी ही पार्टी से वितृष्णा का आलम देखिए कि वे इस हद तक कह गए कि जनता अपराधियों और भ्रष्टाचारियों को जिता रही है। वहीं से कांग्रेस में लोग आते हैं और वहीं से भाजपा में। पहले राजाओं का वर्चस्व था। अब पैसे और सत्ता के बल पर नए जागीरदार पैदा हो गए। उन्हीं की घणी-खम्मां हो रही है। अघोषित राजतंत्र है। अपने कुटुंब को आगे बढ़ाते हैं। टिकट भी उनको, पद भी उनको। सब पार्टियों में यही हाल है।
जिस वसुंधरा के कारण आज वे खंडहर की माफिक हो गए हैं, उनके बारे में उनकी क्या धारणा है, इसका खुलासा होता है उनके इस बयान से कि जनता ने राजा-रानियों को एक मौका तो दिया, लेकिन कुछ नहीं किया तो दूसरा मौका नहीं दिया। उनकी धारणा का अंदाजा उनके इस जवाब से भी मिलता है कि वसुंधरा बहुत काबिल हैं। उनकी हर विषय पर पकड़ है। उन्हें भाषा की कठिनाई नहीं है। वसुंधरा की प्रशासन पर पकड़ अच्छी थी, लेकिन कुछ एलीमेंट तो ऐसे होते ही हैं, जिन पर कोई कंट्रोल नहीं कर सकता!
जिस भाजपा के इस बार सत्ता पर काबिज होने की आम धारणा है, उसी पार्टी का एक वरिष्ठ नेता अगर ये कहे कि भाजपा और कांग्रेस को खतरा एक-दूसरे से नहीं, अपने आपके भीतर पैदा हो चुके विरोधियों से है, तो समझा जा सकता है कि भाजपा की अंदरूनी स्थिति क्या है। जाहिर है वे गुटबाजी से बेहद त्रस्त हैं। इसी कारण बोलते हैं कि भाजपा के दोनों गुटों की अपनी महत्वाकांक्षाएं हैं। एक गुटबाजी करेगा तो दूसरा भी करेगा। एक गुटबाजी के लिए जिम्मेदार होता है, दूसरा तो प्रतिक्रिया करता है। जब उनसे पूछा गया  कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है तो यह कह कर मन की बात छिपाने की कोशिश करते हैं कि जिसने गुटबाजी शुरू की। जब पूछा जाता है कि किसने शुरुआत की तो यह कह कर बचने की कोशिश भी करते हैं कि यह खोज का विषय है।
पार्टी में मर्यादा कम होने से हुई पीड़ा का ही नतीजा है कि वे यह कहने से नहीं चूकते कि हम मर्यादा रखते थे। शेखावत को नेता माना तो माना। उनसे हम आपत्ति रखते थे तो वे जायज चीजें तुरंत मान लेते थे। वे जिद्दी नहीं थे। इससे झगड़ा नहीं होता था।
वसुंधरा राजे को मुख्यमंत्री पद का दावेदार मान कर चुनाव लडऩे के मुद्दे पर उनके क्या विचार हैं, ये उनके इस जवाब से स्पष्ट हो जाता है:-जरूरी नहीं कि किसी को लोकतंत्र में चुनाव से पहले नेता घोषित किया जाए। किसी एक आदमी को नेता तब घोषित किया जाता है, जब उसका नाम घोषित होने से लाभ होता हो। यह गंभीर प्रश्न है कि नेता घोषित हो कि नहीं! यह विषय केंद्रीय चुनाव समिति तय करती है। वह फायदे और नुकसान देखे। . .भैरोसिंह शेखावत मुख्यमंत्री रहे, लेकिन उन्हें कभी मुख्यमंत्री घोषित थोड़े किया गया था। आज यह तो तय है कि मुख्यमंत्री कौन बनेगा?
इससे भी एक कदम आगे बढ़ कर बोलते हैं कि आप बात तो लोकतंत्र की करते हैं तो किसी को मुख्यमंत्री पहले कैसे घोषित कर सकते हैं! आप चुने हुए विधायकों के अधिकार की अवहेलना कैसे कर सकते हैं! कई बार नेता घोषित करने के दुष्परिणाम भी होते हैं। महत्वाकांक्षाएं जब सीमा पार कर जाती हैं तो वे पार्टी के लिए घातक होती हैं।
जब वसुंधरा की लोकप्रियता का पार्टी को लाभ मिलने का सवाल किया गया तो बोलते हैं कि भाजपा में टीम वर्क रहा है। कभी उन्होंने किसी व्यक्ति पर अपने आपको आश्रित नहीं किया।
कुल मिला कर भाभड़ा के इस साक्षात्कार से चुके हुए भाजपा नेताओं की धारणा का खुल कर आभास होता है।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, नवंबर 11, 2012

गडकरी की विदाई तय, जोशी-जेटली का नाम उभरा


हालांकि पूर्ति कंपनी विवाद के बाद भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी को हटाए जाने की चर्चाओं पर पार्टी ने विराम लगा दिया है, मगर यह तय माना जा रहा है कि उन्हें दुबारा अध्यक्ष बनाए जाने की संभावना पूरी तरह से समाप्त हो गई है। इसका संकेत इस बात से भी मिलता है कि भाजपा की आधिकारिक वेबसाइट बीजेपी.ओआरजी में जहां उनके दूसरी बार अध्यक्ष बनने से पहले ही अगले कार्यकाल में अध्यक्ष के रूप में उनका नाम डाल दिया गया था, लेकिन विवाद होने पर उनके दूसरे कार्यकाल वाला कालम हटा ही दिया गया। रहा सवाल नए अध्यक्ष का तो उस पर मंथन शुरू हो गया है। चर्चा में यूं तो कई नाम हैं, जिनमें पूर्व अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी, अरुण जेटली आदि की चर्चा है, मगर समझा जाता है कि संघ को डॉ. मुरली मनोहर जोशी का नाम ज्यादा रुचता है। उसकी सबसे बड़ी वजह ये है कि उन पर अब तक कोई दाग नहीं लगा है और दूसरा ये कि वे सीनियर होने के नाते डिजर्व भी करते हैं।
यूं तो पार्टी का एक धड़ा फिर से आडवाणी की ताजपोशी करने के पक्ष में है, मगर संघ इसके लिए राजी नहीं हो रहा, क्योंकि जिन्ना संबंधी बयान की वजह से संघ के दबाव में उन्हें पद छोडऩा पड़ा था। अब अगर संघ उनके नाम पर सहमति देता है तो इसका ये ही अर्थ निकाला जाएगा कि संघ समझौते को मजबूर हुआ है। बावजूद इसके आडवाणी के नाम को पूरी तरह से नकारा नहीं गया है। इस बीच दूसरा नाम राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली का उभरा है, जिनको नरेन्द्र मोदी व आडवाणी का समर्थन हासिल माना जा रहा है। मंथन के दौरान चंद दिन बाद ही मुरली मनोहर जोशी का नाम भी उभरा है, जिनको कि संघ का समर्थन हासिल होने की संभावना जताई जा रही है। बताया जाता है कि वाराणसी से सांसद जोशी के इलाके में अरसे संघ प्रचारक का काम देखते रहे व मौजूदा सरकार्यवाह डॉ. कृष्णगोपाल ने उनका नाम सुझाया है और उसके लिए संघ के अन्य प्रमुख नीति निर्धारकों को लामबंद भी किया जा रहा है।
यहां यह बताना प्रासंगिक ही होगा कि जोशी पार्टी में कितनी दमदार  स्थिति में रहे हैं। पिछली बार वे लोकसभा में विपक्ष का नेता बनते बनते रह गए थे। वे संघ की पहली पसंद थे, मगर हुआ यूं कि ऐन वक्त पर आडवाणी व संघ के बीच एक समझौता हुआ, वो यह कि संघ आडवाणी की ओर से सुझाए गए सुषमा स्वराज के नाम पर आपत्ति नहीं करेगा और संघ की ओर से अध्यक्ष के रूप में पेश नितिन गडकरी के नाम पर ऐतराज नहीं जताएंगे। नतीजतन जोशी नेता प्रतिपक्ष बनते बनते रह गए। ताजा हालत में जहां सुषमा स्वराज पूरी तरह से गडकरी का साथ दे रही हैं तो आडवाणी ने अरुण जेटली पर हाथ धर दिया है। अब देखना ये है कि संघ आडवाणी और मोदी के दबाव में आता है या फिर अपनी पसंद के जोशी को अध्यक्ष बनवाने मे कामयाब रहता है।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, नवंबर 08, 2012

मजम्मत के काबिल है सरवर चिश्ती का बयान



महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह की रजिस्टर्ड  संस्था अंजुमन सैयद जादगान के पूर्व सचिव सरवर चिश्ती ने अगर वाकई ये कहा है कि मोदी प्रधानमंत्री बन गए तो कोई ताज्जुब नहीं कि सारे मुसलमान आतंकवादी बन जाएं, तो वह बयान मजम्मत के काबिल है।
यह बयान दो मायनों में गैर वाजिब माना जा सकता है। एक तो वे दुनिया में सांप्रदायिक सौहार्द्र की मिसाल दरगाह शरीफ से जुड़े हुए एक जिम्मेदार खादिम हैं, जिनके मुंह से शांति का संदेश मिलने की उम्मीद की जानी चाहिए। दूसरा ये कि अगर वे ऐसा सोचते हैं तो यह उनकी निजी राय हो सकती है, मगर पूरी मुस्लिम कौम की तरफ से इस तरह के बयान का वे हक नहीं रखते।
जानकारी के मुताबिक उनके विवादित बयान पर मंगलूर शहर की पांडेश्वर पुलिस ने मामला दर्ज किया है। गत दो नवंबर को पॉपूलर फ्रंट ऑफ इंडिया की सार्वजनिक बैठक में दिए गए इस बयान पर वहां के नागरिक सुनील कुमार ने शिकायत दर्ज करवाई है कि यह भड़काऊ भाषण लोंगों को दंगे उकसाने प्रयास है।
हालांकि अब अजमेर आ कर उन्होंने एक तरफ तो यह कहा है कि उन्होंने साफ सुथरी बात कही है और उन्हें अपने कहे का मलाल नहीं है, मगर दूसरी ओर बयान में सुधार कर यह भी कहा है कि यदि मोदी देश के प्रधानमंत्री बनते हैं तो देश में सेक्युलरिज्म कहां रह पाएगा? उनका पहला बयान जहां वाकई आपत्तिजनक है, वहीं दूसरा बयान ऐसा है, जिसकी चिंता   कांग्रेस सहित अन्य धर्मनिरपेक्ष ताकतों को भी है। उसकी वजह ये है कि मोदी अपनी छवि विकास पुरुष के रूप में स्थापित करने की लाख कोशिशों के बाद भी सांप्रदायिकता की छाप से तो मुक्त नहीं हो पाए हैं। विशेष रूप से मुसलमानों में तो मोदी की छवि कत्तई अच्छी नहीं कही जा सकती। इस रोशनी में चिश्ती का बाद वाला बयान कुछ-कुछ ठीक प्रतीत होता है। और कुछ नहीं तो इससे कम से कम मुसलमानों के बीच मोदी की छवि कैसी है, उसका अनुमान तो होता ही है। अपनी बात को बल प्रदान करने के लिए चिश्ती का यह कहना समझ में आता है कि गुजरात दंगों के बाद पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी कहा था सीएम को राजधर्म निभाना चाहिए। अमेरिका ने भी वीजा पर रोक लगा दी थी। पूरे देश और दुनिया में गुजरात दंगों और विशेष तौर पर अल्पसंख्यकों के नरसंहार की कड़ी भत्र्सना हुई है। वे कहते हैं कि ऐसे में मेरा कहा एक रिएक्शन है। बेशक उनका कहा एक रिएक्शन है, मगर यदि उन्हें आशंका है कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर ताज्जुब नहीं कि सारे मुसलमान आतंकवादी हो जाएं, तो यह अतिवादी नजरिया है। भले ही उन्होंने ऐसा भाववेश में आ कर कहा हो या उनकी जुबान फिसली हो, मगर उनका वह बयान मजम्मत के काबिल ही है। वो इसलिए कि ऐसा कह कर वे सारे मुसलमानों को कट्टरपंथी करार दिए दे रहे हैं। ऐसे में मुसलमानों और विशेष रूप से खादिमों की जमात को उनके बयान की मजम्मत करनी चाहिए। खादिमों को इसलिए कि दरगाह से जुड़ा कोई जिम्मेदार शख्स अगर ऐसा कहता है तो इससे न केवल खादिम कौम पर संदेह उत्पन्न हो सकता है, अपितु दरगाह शरीफ पर अकीदा रखने वाले लाखों हिंदुओं की आस्था पर भी असर पड़ सकता है। अब देखना ये होगा कि चिश्ती अपने बयान में घोषित रूप से संशोधन करते हैं या उन पर संशोधन का दबाव बनता है। और या फिर बात आई गई हो जाती है। जहां तक चिश्ती को निजी तौर पर जानने वालों का सवाल है, उन्हें एक प्रगतिशील खादिम के तौर पर जाना जाता है और खादिमों में नई सोच लाने की उनकी कोशिशों को सब जानते हैं। यही कारण है कि उन्हें यकीन ही नहीं हो रहा कि क्या वे ऐसा बयान भी दे सकते हैं, या फिर बयान में कुछ हेरफेर है।

-तेजवानी गिरधर

मंगलवार, नवंबर 06, 2012

गडकरी के बयान पर इतना बवाल क्यों?


भाजपा के अध्यक्ष नितिन गडकरी के हालिया बयान पर बड़ा बवाल हो रहा है। कांग्रेसी तो उन पर हमला बोल ही रहे हैं, भाजपा में भी आग लग गई है। हालत ये हो गई कि गडकरी को खेद जताना पड़ा।
असल में उन्होंने कहा ये था कि स्वामी विवेकानंद और दाऊद इब्राहिम का आईक्यू लेवल एक जैसा है। एक ने उसका उपयोग समाज के लिए किया तो दूसरे गुनाह के लिए। सबसे पहले इसे लपका इलैक्ट्रॉनिक मीडिया ने। जैसी कि उसकी आदत है, किसी के भी बयान को सनसनीखेज बना कर पेश करने की, वैसा ही उसने किया। ऐसे में भला कांग्रेस पीछे क्यों रहती। उसने मौका पा कर बयानबाजी शुरू कर दी। इस बीच गडकरी से पहले से तपे हुए भाजपा सांसद राम जेठमलानी ने भी फायदा उठाया। उनके बेटे महेश जेठमलानी ने पार्टी की राष्ट्रीय कार्यसमिति से इस्तीफा दे दिया। दोनो पिता-पुत्र ये चाहते हैं कि गडकरी इस्तीफा दें। जेठमलानी तो पहले भी मांग कर चुके हैं, जब गडकरी पर आर्थिक गडबड़ी करने का आरोप लगा। वे यहां तक बोले थे कि उनके पास भी गडकरी के खिलाफ सबूत हैं। सबको पता है कि जेठमलानी जिसके पीछे पड़ जाते हैं तो हाथ धो कर। ऐसे में भला वे ताजा बयान को क्यों नहीं लपकते। मगर असल सवाल ये है कि गडकरी ने आखिर इतना गलत क्या कह दिया।
बेशक उन्होंने विवेकानंद व दाऊद की तुलना की, मगर मात्र इस मामले में कि दोनों दिमागी तौर पर तेज हैं। भला इसमें गलत क्या है? दाऊद का दिमाग तेज है, तभी तो माफिया डॉन बना हुआ है। उन्होंने ये तो नहीं कहा कि दाऊद विवेकानंद की तरह ही महान है। या दाऊद को भी विवेकानंद की तरह सम्मान से देखा जाना चाहिए। असल में हमारी मानसिकता ये है कि किसी भी मामले में ही सही, दोनों की तुलना कैसे की जा सकती है। सारा जोर इस पर है कि सर्वथा विपरीत ध्रुवों की एक दूसरे से तुलना कैसे की जा सकती है, इसी कारण बवाल मचा हुआ है। रहा सवाल गडकरी की मंशा का तो वह बयान के दूसरे हिस्से से ही स्पष्ट है कि एक ने समाज के लिए आईक्यू का इस्तेमाल किया तो दूसरे ने गुनाह की खातिर। इसमें गलत क्या है? यह ठीक इसी तरह से है, जैसे हम मर्यादा पुरुषोत्तम राम को भगवान का अवतार मानते हैं, मगर साथ ही रावण को प्रकांड विद्वान भी मानते हैं, जिसने कि अपनी विद्वता का दुरुपयोग किया। मगर हमारे यहां इलैक्ट्रॉनिक मीडिया में तथ्यों तो अलग ढ़ंग से उभारने की प्रवृत्ति बढ़ी हुई है। थोड़ी सी भी गुंजाइश हो तो बाल की खाल उतारना शुरू कर दिया जाता है, भावनाएं भड़काना शुरू कर दिया जाता है, जिसका कि गडकरी को ख्याल नहीं रहा। एक जिम्मेदार राजनीतिक पार्टी के अध्यक्ष के नाते उन्हें अंदाजा होना चाहिए था कि उनके बयान से विवाद हो सकता है। भले ही उनकी मंशा पूरी तरह से साफ हो, मगर इतना तो उन्हें पता होना ही चाहिए कि हमारे यहां मीडिया किसी प्रकार काम करता है और आम लोगों की मानसिकता कैसी है, जिसे कि आसानी से भुना लिया जाता है।
सच ये भी है कि गडकरी इससे पहले भी इस तरह के बयान दे चुके हैं, जो कि उनकी मर्यादा के सर्वथा विपरीत थे। ऐसा प्रतीत होता है कि जब वे बोलते हैं तो कुछ का कुछ निकल जाता है, जो कि उनके लिए परेशानी का सबब बन जाता है। ताजा मामले में भी ऐसा ही हुआ। मगर निष्पक्ष विवेचना की जाए तो उन्होंने कुछ भी गलत नहीं कहा, मगर लोकतंत्र में अगर सही को गलत कहने वालों की संख्या ज्यादा हो तो उसे मानना ही पड़ता है। गडकरी ने भी ऐसा ही किया। उन्होंने खेद जता दिया, हालांकि उन्होंने अपने बयान का खंडन नहीं किया है।
-तेजवानी गिरधर

सोमवार, नवंबर 05, 2012

रघुवेन्द्र मिर्धा पर टिकी हैं निगाहें


संयुक्त संसदीय समिति के भूतपूर्व अध्यक्ष स्वर्गीय रामनिवास मिर्धा के पौत्र व राजस्थान में केबिनेट मंत्री रहे हरेन्द्र मिर्धा के पुत्र रघुवेन्द्र मिर्धा क्या चुनावी राजनीति में आगे आएंगे या आने का मानस है, इसकी चर्चा इन दिनों नागौर जिले में काफी है। हालांकि स्वयं रघुवेन्द्र ने अपनी ओर से इस प्रकार की रुचि जाहिर नहीं की है, मगर नागौर के युवाओं में वे जिस प्रकार लोकप्रिय होते जा रहे हैं, उससे इस चर्चा को बल मिला है। हालांकि यह पूरी तरह से कांग्रेस और मिर्धा परिवार पर निर्भर करता है कि रघुवेन्द्र मिर्धा को चुनावी संग्राम में उतारा जाएगा या नहीं, मगर क्षेत्र के युवाओं में वे आशा की किरण बनते जा रहे हैं। वे माइनिंग एंड मिनरल इंडस्ट्रीज मिर्धा ग्रुप के सीईओ हैं। यहां यह बताना अप्रासंगिक नहीं होगा कि हरेन्द्र मिर्धा पिछले विधानसभा चुनाव में हार गए थे, वरना मुख्यमंत्री पद के दावेदार होते।
ऐसा नहीं है कि केवल जाटों की नई पीढ़ी ही उनमें रुचि ले रही है, अन्य समाजों में भी उनके समर्थक हैं। और इसकी वजह ये है कि एक तो वे अजमेर के प्रतिष्ठित मेयो कॉलेज सहित दिल्ली विश्वविद्यालय व डिप्लोमेटिक एकेडमी आफॅ लंदन से पढ़े-लिखे हैं और दूसरा जातिवाद उनमें कहीं नहीं झलकता। स्वभाव से सौम्य व शांत होने की वजह सहज ही युवकों को आकर्षित कर लेते हैं। इसके अतिरिक्त उनमें बुद्धिजीवी होने का गुण फेसबुक पर उनके अकाउंट पर आने वाली पोस्ट व उन पर होने वाली टिप्पणियों से झलकता है। फेसबुक पर उनकी अच्छी मित्र मंडल व फॉलोइंग है। उनके एक फेसबुक फॉलोअर डेगाना निवासी व फिलवक्त दिल्ली में काम कर रहे योगेन्द्र चौधरी ने तो उन्हीं के एक समर्थक दिलीप सरावग की रघुवेन्द्र मिर्धा के व्यक्तित्व पर बाकायदा एक छोटी सी कविता भी पोस्ट की है, जो यह झलकाती है कि उनमें अपना भावी नेता तलाशा जा रहा है। देखिए कविता कुछ इस प्रकार है:-

रघुवेन्द्र मिर्धा
यह सौम्य युवा
सागर सा शांत सहृदय है
मगर उमड़ता इसमें ज्वार है
ज्वार!
नागौर सेवा का
ज्वार!
उन ख्वाबों का
जो कभी पाले
रामनिवास जी ने
आमजन हितार्थ
पर........
आङ़े आ गये वो
जिनके बड़े थे स्वार्थ
लेकिन
शांत सागर में आता जब ज्वार है
बह जाते हैं वो कमजोर जिनका आधार है
मुझे उस ज्वार का इन्तजार है
मुझे उस ज्वार का भरोसा है, विश्वास है।

-तेजवानी गिरधर