चाहे हिमाचल प्रदेश के साथ गुजरात में जीत को लेकर भाजपा प्रसन्न दिखाई दे, मगर सच ये है कि उसे अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सिमटते तिलिस्म का अहसास हो गया होगा। बेशक गुजरात में भाजपा केवल और केवल मोदी के दम पर ही जीती है, मगर सच ये भी है कि इन चुनावों ने यह साफ कर दिया है कि, जो मोदी लहर पिछले लोकसभा चुनाव व उसके बाद हुए विधानसभा चुनावों के वक्त चली थी, या चलाई गई थी, वह अब नदारद हो गई है। बेशक कांग्रेस हार गई, मगर चुनाव में भाजपा व कांग्रेस के बीच हुई कांटे की टक्कर ने यह साबित कर दिया है कि भाजपा का कांग्रेस मुक्त का नारा बेमानी है। वस्तुत: भाजपा का जीतना कोई आश्चर्यजनक घटना नहीं है और न ही कांग्रेस का हारना। सबसे बड़ा सवाल ये कि जिस गुजरात मॉडल के नाम पर भाजपा ने पूरा देश जीता, जिस गुजरात में मोदी की डंका बोलता है, वहीं पर कथित रूप से खत्म होती कांग्रेस ने दो-दो हाथ कर लिए। अब भाजपा के लिए कई तरह की चुनौतियां उठ खड़ी हुई हैं तो कई राहतें कांग्रेस को मिल गई हैं।
यह सर्वविदित ही है कि भाजपा आरंभ से मुद्दा आधारित राजनीति करती रही है। जिस मुद्दे पर उसे एक बार सफलता मिलती है, वह दूसरी बार में समाप्त प्राय: हो जाता है और उसे फिर नया मुद्दा तलाशना पड़ता है। पिछले लोकसभा चुनाव तक भाजपा सारे मुद्दे आजमा चुकी थी और उसके पास कोई नया मुद्दा नहीं था। यहां तक कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर भी विपक्ष के नाते वह नकारा साबित हुई। एक मात्र यही वजह रही कि अन्ना हजारे को जन आंदोलन करना पड़ा। चूंकि उनके पास कोई राजनीतिक विजन नहीं था, इस कारण वे आंदोलन करके अलग हो गए, यह दीगर बात है कि उन्हीं के अनुयायी अरविंद केजरीवाल ने आंदोलन की वजह से कांग्रेस के खिलाफ बने माहौल का लाभ उठा कर दिल्ली विधानसभा पर कब्जा कर लिया। चूंकि उनके पास राष्ट्रीय स्तर पर न तो कोई सांगठनिक ढ़ांचा था और न ही संसाधन, इस कारण भाजपा खड़ी फसल को काटने में कामयाब हो गई। रहा सवाल मुद्दे का तो उसने करोड़ों-अरबों रुपए खर्च कर मोदी को ब्रांड बनाया और उसी ब्रांड पर अभूतपूर्व सफलता भी हासिल की। माहौल ऐसा बनाया गया कि मोदी आगामी बीस साल तक इस देश पर शासन करने को पैदा हुए हैं। यानि कि पार्टी गौण हो गई और व्यक्ति प्रमुख हो गया। बेशक पार्टी की अपनी रीति-नीति है, सिद्धांत हैं, मगर उसके खेवनहार केवल मोदी और उनके हनुमान अमित शाह हैं। इस जोड़ी ने बाद के विधानसभा चुनावों में रणनीतिक जीत हासिल की, मगर बिहार व पंजाब के परिणामों ने इशारा कर दिया था कि मोदी नाम की लहर धीमी पडऩे लगी है। वह अब इतनी धीमी पड़ गई है कि खुद अपने ही गुजरात में मोदी को पसीने आ गए। चुनावी जानकार तो यहां तक कहने लगे हैं कि अगर मोदी धुंआधार रैलियां नहीं करते तो गुजरात हाथ से निकला हुआ ही था। ऐसे में भाजपा को आगामी विधानसभा चुनावों व लोकसभा चुनाव को लेकर चिंताएं पैदा हो गई हैं। परेशानी ये है कि भाजपा के पास मोदी का कोई विकल्प नहीं है। मोदी ही एक मात्र नेता बचे हैं, जिनके नाम पर चुनाव लडऩा मजबूरी है।
गुजरात चुनाव ने मोदी के अहम पर चोट मारी है। जीत के बाद वे जब बोल रहे थे, तो उनमें जीते हुए नेता का भाव नहीं था। जीता हुआ नेता तर्क नहीं करता, जीत तो अपने आप में भाजपा और मोदी के तर्कों का परिणाम है। नए सिरे से तर्कशास्त्र खड़े करके मोदी ने अहंकार और अपने गुजरात से बढ़ते हुए अलगाव को ही व्यक्त किया है। जब आदमी अलगाव में रहता है तो उसे ढंकने के लिए सबसे ज्यादा तर्क गढ़ता है। बहाने बनाता है।
बात अगर कांग्रेस की करें तो यह स्वयं सिद्ध तथ्य है कि वह हारी, मगर उसकी हार में भी जीत का भाव है। वो इसलिए कि उसने मोदी को उनके घर में ही बुरी तरह घेरने में कामयाबी हासिल कर ली।
गुजरात चुनाव का असर आगामी लोकसभा चुनाव तक कितना रहेगा, यह कहना अभी ठीक नहीं, मगर सीधे-सीधे तौर पर यह राजस्थान विधानसभा चुनाव को प्रभावित करेगा। अगर भाजपा गुजरात में प्रचंड बहुमत से जीतती तो राजस्थान भी उसके लिए आसान प्रतीत होता, मगर अब वह गंभीर चिंता से घिर गई है। उसकी एक मात्र वजह ये है कि भाजपा की क्षत्रप मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का आभा मंडल फीका पड़ चुका है। उनके नाम पर चुनाव लडऩा हार को न्यौता देना है। दूसरा ये कि मोदी लहर भी समाप्त हो चुकी है। हालांकि अब भी उसे मोदी नामक ब्रह्मास्त्र काम में ही लेना होगा, मगर टक्कर कांटे की होगी। उसे एक-एक टिकट बहुत ठोक बजा कर फाइनल करनी होगी। उधर हार के बावजूद कांग्रेस में आये उत्साह से भी उसका पाला पडऩे वाला है। कांग्रेसियों में यह आत्मबल जाग गया है कि जब भाजपा के भगवान मोदी के घर में सेंध मारी जा सकती है तो वसुंधरा के जर्जर हो चुके किले को ढ़हाना कोई कठिन काम नहीं है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
यह सर्वविदित ही है कि भाजपा आरंभ से मुद्दा आधारित राजनीति करती रही है। जिस मुद्दे पर उसे एक बार सफलता मिलती है, वह दूसरी बार में समाप्त प्राय: हो जाता है और उसे फिर नया मुद्दा तलाशना पड़ता है। पिछले लोकसभा चुनाव तक भाजपा सारे मुद्दे आजमा चुकी थी और उसके पास कोई नया मुद्दा नहीं था। यहां तक कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर भी विपक्ष के नाते वह नकारा साबित हुई। एक मात्र यही वजह रही कि अन्ना हजारे को जन आंदोलन करना पड़ा। चूंकि उनके पास कोई राजनीतिक विजन नहीं था, इस कारण वे आंदोलन करके अलग हो गए, यह दीगर बात है कि उन्हीं के अनुयायी अरविंद केजरीवाल ने आंदोलन की वजह से कांग्रेस के खिलाफ बने माहौल का लाभ उठा कर दिल्ली विधानसभा पर कब्जा कर लिया। चूंकि उनके पास राष्ट्रीय स्तर पर न तो कोई सांगठनिक ढ़ांचा था और न ही संसाधन, इस कारण भाजपा खड़ी फसल को काटने में कामयाब हो गई। रहा सवाल मुद्दे का तो उसने करोड़ों-अरबों रुपए खर्च कर मोदी को ब्रांड बनाया और उसी ब्रांड पर अभूतपूर्व सफलता भी हासिल की। माहौल ऐसा बनाया गया कि मोदी आगामी बीस साल तक इस देश पर शासन करने को पैदा हुए हैं। यानि कि पार्टी गौण हो गई और व्यक्ति प्रमुख हो गया। बेशक पार्टी की अपनी रीति-नीति है, सिद्धांत हैं, मगर उसके खेवनहार केवल मोदी और उनके हनुमान अमित शाह हैं। इस जोड़ी ने बाद के विधानसभा चुनावों में रणनीतिक जीत हासिल की, मगर बिहार व पंजाब के परिणामों ने इशारा कर दिया था कि मोदी नाम की लहर धीमी पडऩे लगी है। वह अब इतनी धीमी पड़ गई है कि खुद अपने ही गुजरात में मोदी को पसीने आ गए। चुनावी जानकार तो यहां तक कहने लगे हैं कि अगर मोदी धुंआधार रैलियां नहीं करते तो गुजरात हाथ से निकला हुआ ही था। ऐसे में भाजपा को आगामी विधानसभा चुनावों व लोकसभा चुनाव को लेकर चिंताएं पैदा हो गई हैं। परेशानी ये है कि भाजपा के पास मोदी का कोई विकल्प नहीं है। मोदी ही एक मात्र नेता बचे हैं, जिनके नाम पर चुनाव लडऩा मजबूरी है।
गुजरात चुनाव ने मोदी के अहम पर चोट मारी है। जीत के बाद वे जब बोल रहे थे, तो उनमें जीते हुए नेता का भाव नहीं था। जीता हुआ नेता तर्क नहीं करता, जीत तो अपने आप में भाजपा और मोदी के तर्कों का परिणाम है। नए सिरे से तर्कशास्त्र खड़े करके मोदी ने अहंकार और अपने गुजरात से बढ़ते हुए अलगाव को ही व्यक्त किया है। जब आदमी अलगाव में रहता है तो उसे ढंकने के लिए सबसे ज्यादा तर्क गढ़ता है। बहाने बनाता है।
बात अगर कांग्रेस की करें तो यह स्वयं सिद्ध तथ्य है कि वह हारी, मगर उसकी हार में भी जीत का भाव है। वो इसलिए कि उसने मोदी को उनके घर में ही बुरी तरह घेरने में कामयाबी हासिल कर ली।
गुजरात चुनाव का असर आगामी लोकसभा चुनाव तक कितना रहेगा, यह कहना अभी ठीक नहीं, मगर सीधे-सीधे तौर पर यह राजस्थान विधानसभा चुनाव को प्रभावित करेगा। अगर भाजपा गुजरात में प्रचंड बहुमत से जीतती तो राजस्थान भी उसके लिए आसान प्रतीत होता, मगर अब वह गंभीर चिंता से घिर गई है। उसकी एक मात्र वजह ये है कि भाजपा की क्षत्रप मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का आभा मंडल फीका पड़ चुका है। उनके नाम पर चुनाव लडऩा हार को न्यौता देना है। दूसरा ये कि मोदी लहर भी समाप्त हो चुकी है। हालांकि अब भी उसे मोदी नामक ब्रह्मास्त्र काम में ही लेना होगा, मगर टक्कर कांटे की होगी। उसे एक-एक टिकट बहुत ठोक बजा कर फाइनल करनी होगी। उधर हार के बावजूद कांग्रेस में आये उत्साह से भी उसका पाला पडऩे वाला है। कांग्रेसियों में यह आत्मबल जाग गया है कि जब भाजपा के भगवान मोदी के घर में सेंध मारी जा सकती है तो वसुंधरा के जर्जर हो चुके किले को ढ़हाना कोई कठिन काम नहीं है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
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