तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

गुरुवार, मई 31, 2012

आडवाणी के ब्लाग में इस आलेख पर हो रहा है विवाद

भाजपा के वरिष्ठ नेता व पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने अपने ब्लाग में बीजेपी : एक हब आफ होप शीर्षक से लिखे आलेख अपनी ही पार्टी की आलोचना की है। आडवाणी ने कहा है कि पार्टी में उत्साह नहीं है और पार्टी को अपने भीतर झांकना होगा। ब्लाग में आडवाणी ने कहा है, पार्टी में आजकल जीत का मूड नहीं है। उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजे, मायावती द्वारा हटाए गए मंत्री को पार्टी में लिए जाने, झारखंड और कर्नाटक के मामले में पार्टी के रवैये के चलते पार्टी के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान को धक्का लगा है। इन मुद्दों पर आडवाणी और पार्टी के अध्यक्ष नितिन गडकरी के बीच मतभेद खुलकर सामने आ गया है। माना जा रहा है कि आडवाणी से नाराज हैं। समझा जाता है कि एक तो आडवाणी गडकरी को दुबारा अध्यक्ष बनाने के खिलाफ हैं और दूसरा नरेंद्र मोदी द्वारा दबाव बना कर संजय जोशी का इस्तीफा दिलवाए जाने से नाराज हैं। कांग्रेस की नेता व मंत्री अंबिका सोनी ने इस ब्लाग पर चुटकी लेते हुए कहा है कि हम लोग तो पहले से ही कह रहे हैं कि बीजेपी को पहले अपना घर दुरुस्त करना चाहिए। मुझे उम्मीद है कि बीजेपी आडवाणी की बात सुनेगी।
बहरहाल, बतौर आपकी जानकारी अंग्रेजी भाषा में लिखे गए इस आलेख को यहां प्रस्तुत किया जा रहा है:-
BJP : A HUB OF HOPE
Politicians are generally critical of media persons. It is, however, rare that media men themselves ridicule their own fraternity for indulging in political criticism not because it is justified but because even while realizing that the criticism is uninformed and superficial, the write ups do add up to �lazy copy�.
swapan-dasguptaSwapan Dasgupta is an eminent journalist who commands great respect in the capital. His page one piece every Sunday in the Pioneer is read with great interest. His latest column (May 27, 2012) is a severe comment on the media which he holds �shapes the tone and tenor of the chattering class discourse�.
Under caption �Media creates its own realities�, Dasgupta wrote last Sunday: �Given the fact that the media thrives on stereotypes, caricatures�. it was not very surprising that the bite brigade that descended on Mumbai last week for the BJP National Executive was looking for reaffirmations of set conclusions.�
Swapan added a perceptive summing up :
�That everyone in the BJP is not on the same page is a truism. No political party in India, not even the CPI(M), possesses an army where every member of the officer corps think alike. This is democratic normalcy and it is only in India that the media projects the ideal of politics crafted on the North Korean model.�(A Marxist uniformity !)
However, when these days media-persons attack the UPA Government for its string of scams, but at the same time regret that the BJP led NDA is not rising to the occasion, I as a former pressman myself, feel they are reflecting public opinion correctly.
At a meeting of the BJP�s Core Committee some weeks back, a meeting attended by several senior RSS leaders I had reminisced about my sixty years� political journey since the launching of the Bharatiya Jana Sangh in 1951 by Dr. Syama Prasad Mookerji. I had said that thinking of the party�s successes and failures during these sixty years, I cannot think of a more depressing year than 1984, when in the Eighth Lok Sabha Elections that took place that year, our party had put up 229 candidates. Our score in the Lok Sabha was a miserable two, one from Gujarat and the other from Andhra. In all the other states of the country, including U.P., Bihar, Rajasthan, Madhya Pradesh, Maharashtra, we had drawn a blank. Even in the first General Elections to the Lok Sabha in 1952, our party had captured three seats, more than in 1984 !
In 1984 I was Party President and so felt extremely downcast. But I also remember that the party had set up a Committee headed by Krishan Lal Sharma to analyse the poll results objectively. The Committee had reported that in the rank and file of the party as also in our support base, there was no demoralization because of the electoral setback, which was being attributed to the dastardly assassination of Smt. Gandhi by terrorists and a powerful sympathy wave for young Rajiv Gandhi.
The mood within the party these days is not upbeat. The results in Uttar Pradesh, the manner in which the party welcomed BSP Ministers who were removed by Mayawati ji on charges of corruption, the party�s handling of Jharkhand and Karnataka � all these events have undermined the party�s campaign against corruption.
The fact that we have a sizable contingent of MPs in Parliament today as against the niggardly two seats in 1984, that our performance in the two Houses under Sushmaji and Jaitleyji has been excellent, that the party is in power in as many as nine states today is no compensation for the lapses committed. I had said at the Core Group meeting that if people are today angry with the U.P.A. Government, they are also disappointed with us. The situation, I said, calls for introspection.
यह आलेख इंटरनेट पर निम्नलिखित लिंक पर मौजूद है।
http://blog.lkadvani.in/blog-in-english/bjp-a-hub-of-hope

-तेजवानी गिरधर
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tejwanig@gmail.com

शुक्रवार, मई 25, 2012

नितिन गडकरी पर हावी हैं वसुंधरा व मोदी

कांग्रेस कमजोर, मगर खुद अपने में उलझी है भाजपा
एक ओर जहां केंद्र की यूपीए सरकार भ्रष्टाचार, घोटाले और महंगाई जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों की वजह से बुरी तरह घिरी हुई है और उसके दुबारा सत्ता में आने की संभावना क्षीण होने लगी है, वहीं भाजपा मौके का फायदा उठाने की बजाय खुद अपने में ही उलझी हुई है। एक ओर जहां उसे मुंबई में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की दो दिवसीय बैठक शुरू होने से ठीक पहले नरेंद्र मोदी को राजी करने के लिए संजय जोशी का राष्ट्रीय कार्यकारिणी से इस्तीफा दे कर शहीद करना पड़ा, वहीं राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा की दादागिरी के आगे झुक कर संघ लाबी को फिलहाल चुप रहने का अनुनय करना पड़ रहा है। उधर कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा ने भी हाईकमान की नींद हराम कर रखी है।
जहां तक मोदी का सवाल है, वे मीडिया द्वारा योजनाबद्ध तरीके से प्रोजेक्ट किए जाने के कारण केन्द्रीय नेताओं के बराबर आ खड़े हुए हैं। उन्हें भाजपा की ओर भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखा जा रहा है। जाहिर सी बात है कि वे अब इतने मजबूत हो गए हैं कि हाईकमान उन्हें चाह कर नजरअंदाज नहीं कर सकता। नजरअंदाज करना तो दूर उसे तो उनके लिए पलक पांवड़े बिछाने की नौबत आ गई है। और उसके एवज में संघ पृष्ठभूमि के संजय जोशी का कार्यसमिति से इस्तीफा लेना पड़ गया।
यहां उल्लेखनीय है कि संघ के जाने-माने चेहरे संजय जोशी नितिन गडकरी के करीबी माने जाते हैं। यूपी विधानसभा चुनाव से पहले पार्टी में उनकी पार्टी में वापसी हुई थी और चुनाव अभियान का सह-संयोजक बना दिया गया था। इससे नाराज मोदी ने यूपी में चुनाव प्रचार करने से इनकार कर दिया था। मोदी, संजय जोशी को लेकर इतने नाराज थे कि उन्होंने राष्ट्रीय कार्यकारिणी में भी नहीं आने के संकेत दिए थे। वे तभी आए जब कि गडकरी ने संजय जोशी को इस्तीफे के लिए राजी कर लिया।
यह ऐसी शख्सियत का इस्तीफा है जो संघ से बीजेपी में भेजे गए और पार्टी के ताकतवर संगठन मंत्री हुआ करते थे। जिन्ना विवाद के बाद उन्होंने ही लालकृष्ण आडवाणी को बीजेपी अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के लिए बाध्य किया था। वो तो उनकी एक अश्लील सीडी आने के कारण उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था। बाद में जांच में क्लीन चिट मिलने पर वापस लिया गया। हाल ही इस्तीफा देते वक्त जोशी का यह बयान कि वे नहीं चाहते कि पार्टी में उनकी वजह से मनमुटाव हो, उनकी मजबूरी को साफ जाहिर करता है। इसी कारण जोशी के इस्तीफे को गडकरी और मोदी के बीच चल रहे विवाद में मोदी की जीत के रूप में भी देखा जा रहा है।
देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के अध्यक्ष गडकरी की हालत देखिये कि मोदी के बैठक में शामिल होने की पुष्टि का बयान देते हुए उन्हें अपनी ही पार्टी के नेता मोदी के लिए यह कहना पड़ रहा है कि उन्होंने विश्वास दिलाया है कि वे कंघे से कंघा मिला कर काम करेंगे। कैसी विडंबना है? आखिरकार मोदी पार्टी के ही नेता हैं, उन्हें तो पार्टी के लिए काम करना ही है, करना ही चाहिए, मगर चूंकि उनका कद बड़ा हो गया है, इस कारण वे पार्टी के लिए काम करेंगे, इसे रेखांकित करते हुए कहना पड़ रहा है। बहरहाल, मोदी को भले ही उन्होंने राजी कर लिया हो, मगर गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री केशूभाई पटेल को भी पटा कर रखना टेढ़ी खीर होगा।
राजस्थान की बात करें तो यहां भी वसुंधरा पार्टी से इतनी बड़ी हो गईं कि उनके गुस्से को देखते हुए दिग्गज नेता गुलाब चंद कटारिया को मजबूरी में अपनी रथ यात्रा को रद्द करने की घोषणा करनी पड़ी। यह भी तब जब कि संघ लाबी उनके साथ है और गडकरी ने ही उन्हें यात्रा का अनुमति दी थी। अंदाजा लगाया जा सकता है कि वसुंधरा की ताकत के आगे झुकते हुए संघ लाबी को राजी करने में गडकरी को कितना जोर आ रहा होगा। जैसी कि संभावना है कि वसुंधरा को राजस्थान में फ्रीहैंड देना ही होगा।
इन दोनों प्रकरणों में एक समानता ये है कि दोनों ही नेता मोदी व वसुंधरा अपने अपने राज्य में पार्टी से इतर खुद अपना वजूद खड़ा किए हुए हैं और दोनों के ही मामले में संघ समझौता करने को मजबूर है। हालांकि आज संघ के पास हालात के मद्देनजर समझौता करने के सिवाय कोई चारा नहीं है, मगर यह अंनद्र्वद्व पार्टी को दोनों राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में भारी पड़ सकता है। सीधी सी बात है कि उसका असर लोकसभा चुनाव पर भी होगा। ऐसे में पार्टी के कार्यकर्ताओं को कितना मलाल होगा कि एक धक्का मारने पर गिर जाने वाली कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने पर ध्यान देने की बजाय गडकरी को अपनी पार्टी के नेताओं से ही जूझना पड़ रहा है। एक और महत्वपूर्ण बात ये भी कि संघ जैसे सशक्त मातृ संगठन के राजनीति मंच भाजपा पर गैर संघी हावी होते जा रहे हैं, जो कि संघ के लिए गहरी चिंता का विषय है। 

-तेजवानी गिरधर
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tejwanig@gmail.com

गुरुवार, मई 24, 2012

क्या हैं राजवी पर गडकरी व आडवाणी की कृपा के मायने?

आडवाणी व गडकरी की चादर चढाने जाते राजवी
सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह में पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवानी तथा भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी की चादर पूर्व उपराष्ट्रपति स्व. भैरोसिंह शेखावत के नाती अभिमन्यु सिंह द्वारा चढ़ाए जाने से सभी भाजपा नेता व कार्यकर्ता चौंक गए हैं। राजवी को भाजपा के दोनों नेताओं की ओर से यह अहम जिम्मेदारी दिए जाने के मायने निकाले जा रहे हैं।
असल में इस घटना को वर्तमान में भाजपा अध्यक्ष गडकरी व पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के बीच हुए विवाद से जोड़ कर देखा जा रहा है। गडकरी के भाजपा नेता गुलाब चंद कटारिया की यात्रा को हरी झंडी दिए जाने से ही तो वसुंधरा राजे खफा हुई थीं और अपनी ताकत दिखाने के लिए विधायकों के इस्तीफे जमा किए थे। हालांकि विवाद बढऩे पर कटारिया ने यात्रा को स्थगित करने की घोषणा कर दी, मगर विवाद सीधा गडकरी से हो गया। दूसरी ओर सब जानते हैं कि वसुंधरा व राजवी के नाना पूर्व उप राष्ट्रपति स्वर्गीय भैरोंसिंह शेखावत के बीच छत्तीस आंकड़ा था। उस वक्त वसुंधरा मुख्यमंत्री थीं और शेखावत के इतना खिलाफ थीं कि प्रदेश के भाजपा नेता शेखावत से मिलने से भी घबराने व कतराने लगे थे। उसी का परिणाम रहा कि किसी समय में राजस्थान के एक ही सिंह के नाम से प्रसिद्ध शेखावत अपने प्रदेश में ही बेगाने से हो गए थे। दरअसल उपराष्ट्रपति पद से निवृत्त होने के बाद जब शेखावत जयपुर लौटे तो वसुंधरा को लगा कि कहीं वे फिर से पावरफुल न हो जाएं, सो वे उन्हें कमजोर करने में लग गईं। हालांकि उपराष्ट्रपति पद पर रहने के बाद शेखावत के फिर मुख्यमंत्री पद की दावेदारी करने की संभावना न के बराबर थी, मगर उनके दामाद नरपत सिंह राजवी तेजी से उभर रहे थे। वसुंधरा जानती थीं कि राजवी ताकतवर हुए तो उनकी मुख्यमंत्री पद की दावेदारी को चुनौती दे सकते हैं, सो उन्होंने शेखावत व राजवी दोनों को कमजोर करना शुरू कर दिया।
आप जानते होंगे कि राजवी के पुत्र अभिमन्यु सिंह हाल ही सक्रिय हुए हैं। उन्होंने अपने नाना की प्रतिमा खाचरियावास में स्थापित करने के सिलसिले में अग्रणी भूमिका निभा कर अपनी उपस्थिति दर्शायी थी। उस कार्यक्रम में आडवाणी व वसुंधरा सहित अनेक बड़े भाजपा नेताओं ने शिरकत की थी। अजमेर में भी उन्होंने एक प्रेस कान्फे्रंस आयोजित की थी। तभी लग गया था कि वे राजनीति में सक्रिय रूप से आने की तैयारी कर रहे हैं। इस कयास पर मौजूदा चादर प्रकरण ने मुहर लगा दी है। इससे एक तो यह स्थापित हो गया है कि उनकी आडवाणी व गडकरी से कितनी नजदीकी है। दूसरा चादर चढ़ाने के लिए पूरे राजस्थान में कई दिग्गज नेताओं को छोड़ कर अभिमन्यु सिंह को यह जिम्मेदारी दिए जाने से यह संदेश जाता है कि वे उन्हें पूरी तवज्जो देना चाहते हैं। आडवाणी की छोडि़ए, मगर गडकरी चाहते तो पार्टी संगठन के प्रदेश अध्यक्ष अथवा किसी जिम्मेदार पदाधिकारी को यह काम सौंप सकते थे, मगर उन्होंने राजवी को ही चुना, जिसका बेशक खास महत्व है।
समझा जाता है कि ऐसा करके आडवाणी व गडकरी अथवा यूं कहिए भाजपा हाईकमान राजस्थान में पूरी तरह से हाशिये पर लाए गए राजवी परिवार पर हाथ रख रहा है। इस प्रकार वह राजस्थान में नए राजपूत नेतृत्व को आगे लाना चाहता है, ताकि वसुंधरा की एकतरफा दादागिरी पर अंकुश लगाया जा सके। इसके अतिरिक्त इससे अमूमन भाजपा मानसिकता के राजपूत समाज और शेखावत के निजी समर्थकों को भी अच्छा संदेश जाएगा। हालांकि यह कहना बेवकूफी ही कहलाएगी कि वह राजवी को वसुंधरा के बराबर ला कर खड़ा करना चाहता है, मगर इतना तो तय है कि राजवी परिवार का मजबूत होना वसुंधरा के लिए चिंता का कारण तो बन ही सकता है। जिस परिवार के शेखावत व नरपत सिंह राजवी को उन्होंने निपटाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी, उसी परिवार का सूरज उदय होता है तो ये परेशानी वाली ही बात होगी। अब ये तो वक्त ही बताएगा कि अभिमन्यु सिंह अपने नाना व पिता के साथ हुए व्यवहार का बदला चुका पाते हैं या नहीं। 

-तेजवानी गिरधर
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tejwanig@gmail.com

बुधवार, मई 16, 2012

जिन्होंने पीठ थपथपाई, क्या उन्हीं पीठ में खंजर नहीं भोंका वसुंधरा ने?

भैरोंसिंह शेखावत
जीते जी जो शख्स दुश्मन होता है, वहीं दिवंगत हो जाने के बाद कैसे महान दिखाई देने लग जाता है, इसका ताजा उदाहरण पेश किया है पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा सिंधिया ने। सीकर जिले के खाचरियावास गांव में पूर्व उपराष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत की पुण्यतिथि पर आयोजित आदमकद मूर्ति अनावरण समारोह में उन्होंने इतना भावभीना भाषण दिया, मानो वे वाकई उनका आजीवन सम्मान करती रही थीं। तस्वीर का दूसरा रुख ये है कि ये वे ही वसुंधरा हैं, जिनकी वजह से राजस्थान के सिंह कहलाने वाले स्वर्गीय शेखावत जी अपने प्रदेश में ही बेगाने से हो गए थे। अगर ये कहें कि आज भी बेगाने हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। पार्टी के स्तर पर अब भी उनकी जयंती या पुण्यतिथि पर कोई बड़ा कार्यक्रम नहीं होता। यह कार्यक्रम भी राजवी परिवार की पहल पर आयोजित किया गया था।
आइये, देखते हैं कि मूर्ति अनावरण समारोह में वसुंधरा ने क्या-क्या कहा। शेखावत जी की महानता का बखान करते हुए उन्होंने कहा कि स्वर्गीय भैरोंसिंह शेखावत ने राजस्थान में भाजपा का झंडा हमेशा बुलंद रखा। वे हमेशा रोशनी की पहली किरण उस जगह पहुंचाने की तरफदारी करते थे, जहां कभी उजाला पहुंचा ही न हो। सवाल ये उठता है कि अगर ऐसी ही उनकी मान्यता रही है तो आखिर क्या वजह थी कि उपराष्ट्रपति पद से निवृत्त हो कर जब शेखावत राजस्थान में आए तो भाजपाई उनसे कतराते थे?
वसुंधरा ने कहा कि 1996 में शेखावत अपना इलाज कराने अमेरिका गये थे, तब एक ओर से तो वे मौत से संघर्ष कर रहे थे और दूसरी ओर उनकी सरकार गिराने का राजस्थान में षडय़ंत्र चल रहा था। लेकिन जिसकी भगवान रक्षा करता है उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाता। इसीलिये विदेश में उनका आपरेशन सफल हुआ और यहां राजस्थान में उनके खिलाफ रचा गया षडय़ंत्र असफल। उनके इस कथन से क्या यह सवाल उठता है कि क्या खुद वसुंधरा ने शेखावत का वजूद को समाप्त करने का षडयंत्र नहीं रचा था?
उन्होंने कहा कि अटल जी, आडवाणी जी, राजमाता विजयाराजे सिंधिया साहब और भैरोंसिंह जी शेखावत भाजपा की वो मजबूत शाखाएं थीं, जिन्होंने भाजपा को न केवल सींचा, बल्कि भाजपा के कमल को गांव-गांव, ढाणी-ढाणी और घर-घर खिलाया। सवाल उठता है कि क्या उसी मजबूत शाखा की जड़ों में छाछ डालने का काम वसुंधरा ने नहीं किया?
वसुंधरा ने कहा कि उनके जीवन में दो महत्वपूर्ण अवसर आए, जब उन्होंने मेरी पीठ थपथपाई। पहला अवसर था, जब वे पहली बार 1985 में विधायक बनीं। शेखावत जी ने फरमान जारी कर दिया कि हिन्दी में बोलना है। हिन्दी में स्पीच देना बहुत कठिन था, पर डर था शेखावत जी का। तैयारी करके बोली तो मेरी पीठ थपथपाई और लड्डू बंटवाए। सवाल से उठता है कि क्या उसी महान शख्स की पीठ में वसुंधरा ने राजनीतिक खंजर भोंकने की कोशिश नहीं की?
वसुंधरा ने कहा कि 83 वर्ष की उम्र में उन्होंने पैरिस के एफिल टावर पर चढ़ कर बता दिया कि अभी भी उनमें दम है। सवाल ये उठता है कि ऐसे दमदार शख्स का दम निकालने की कोशिश वसुंधरा ने नहीं तो किसने की थी?
दरअसल शेखावत के राजस्थान लौटते ही दोनों के बीच छत्तीस का आंकड़ा हो गया था। वसुंधरा अपने कार्यकाल में इतनी आक्रामक थीं कि भाजपाई शेखावत की परछाई से भी परहेज करने लगे थे। कई दिन तक तो वे सार्वजनिक जीवन में दिखाई ही नहीं दिए। इसी संदर्भ में अजमेर की बात करें तो लोग भलीभांति जानते हैं कि जब वे दिल्ली से लौट कर दो बार अजमेर आए तो उनकी अगुवानी करने को चंद दिलेर भाजपा नेता ही साहस जुटा पाए थे। शेखावत जी की भतीजी संतोष कंवर शेखावत, युवा भाजपा नेता भंवर सिंह पलाड़ा और पूर्व मनोनीत पार्षद सत्यनारायण गर्ग सहित चंद नेता ही उनका स्वागत करने पहुंचे। अधिसंख्य भाजपा नेता और दोनों तत्कालीन विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी व श्रीमती अनिता भदेल ने उनसे दूरी ही बनाए रखी। वजह थी मात्र ये कि अगर वे शेखावत से मिलने गए तो मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया नाराज हो जाएंगी। पूरे प्रदेश के भाजपाइयों में खौफ था कि वर्षों तक पार्टी की सेवा करने वाले वरिष्ठ नेताओं को खंडहर करार दे कर हाशिये पर धकेल देने वाली वसु मैडम अगर खफा हो गईं तो वे कहीं के नहीं रहेंगे।
असल में एक बार मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने तय कर लिया था कि अब राजस्थान को अपने कब्जे में ही रखेंगी। शेखावत ही क्यों, उनके समकक्ष या यूं कहना चाहिए कि उनके वरिष्ठ अनेक नेताओं को उन्होंने खंडहर बता कर हाशिये पर खड़ा कर दिया। कहने की आवश्यकता नहीं है कि उसी कब्जे को शिद्दत से अपने पास रखने की जिद में ही उन्होंने हाल में हाईकमान की नाक में दम कर रखा है। वे तब नहीं चाहतीं थीं कि शेखावत फिर से राजस्थान में पकड़ बनाएं। यूं तो शेखावत के पुत्र नहीं था, इस कारण खतरा नहीं था कि उनका कोई उत्तराधिकारी प्रतिस्पद्र्धा में आ जाएगा, मगर उनके जवांई नरपत सिंह राजवी उभर रहे थे। वसुंधरा इस खतरे को भांप गई थीं। इसी कारण शेखावत राजवी को भी उन्होंने पीछे धकेलने की उन्होंने भरसक कोशिश की। इस प्रसंग में यह बताना अत्यंत प्रासंगिक है कि शेखावत ने वसुंधरा राजे के कार्यकाल में ही भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम की शुरुआत की थी। यही वसुंधरा को नागवार गुजरी। सब जानते हैं कि शेखावत की इसी मुहिम का उदाहरण दे कर कांग्रेस ने वसुंधरा के कार्यकाल पर सवाल उठाने शुरू कर दिए थे।
बहरहाल, प्यार और जंग में सब जायज बताया जाता है। उस लिहाज से वसुंधरा ने जो कुछ किया व कर रही हैं, उनके लिहाज से वह जायज ही है। पार्टी के लिहाज से वह आज भी तकलीफदेह है। पार्टी आज भी दो धड़ों में बंटी हुई है।

-तेजवानी गिरधर
7742067000

मंगलवार, मई 15, 2012

वसुंधरा के मामले में आडवाणी ने दी अपनी जुबान को लगाम

खाचरियावास में वसुंधरा छायी रहीं, चौटाला ने कहा भावी मुख्यमंत्री
सीकर जिले के खाचरियावास गांव में पूर्व उप राष्ट्रपति स्व. भैरोंसिंह शेखावत की मूर्ति के अनावरण कार्यक्रम में प्रतिपक्ष की नेता श्रीमती वसुन्धरा राजे छाई रहीं। कई नेताओं ने उनकी तारीफ में जम कर कशीदे काढ़े। विशेष बात ये रही कि श्रीमती राजे के भाषण के दौरान सबसे ज्यादा तालियां बजीं। पांडाल में या तो भैरोंसिंह शेखावत अमर रहे के नारे लगे, या फिर वसुन्धरा राजे जिन्दाबाद-जिन्दाबाद। हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला ने तो श्रीमती राजे को राजस्थान का भावी मुख्यमंत्री ही बता दिया। हां, अलबत्ता पूर्व उपप्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने जरूर अपनी जुबान को लगाम दी। उन्होंने वसुंधरा की तारीफ में तो कोई कसर बाकी नहीं रखी, मगर उन्हें भावी मुख्यमंत्री बताने के मामले में कंजूसी बरत गए। वे सिर्फ यह बोल कर रह गए कि वसुन्धरा लोकप्रिय जन नेता हैं। वे आज भी उतनी ही लोकप्रिय हैं, जितनी वे मुख्यमंत्री के समय थी। उनकी लोकप्रियता बढ़ती ही जा रही है। वसुन्धरा ने अटल जी की सरकार में विदेश मंत्री के रूप में बहुत अच्छा काम किया था। इसलिये वे उस वक्त भी लोकप्रिय थीं और आज भी हैं।
उनकी यह कंजूसी इस कारण उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों जब वे रथयात्रा ले कर अजमेर आए थे तो उन्होंने साफ तौर पर कहा था कि वसुंधरा राजे ही भावी मुख्यमंत्री होंगी। उनके इसी बयान पर बाद में विवाद हुआ और भाजपा के दो दिग्गजों गुलाब चंद कटारिया व ललित किशोर चतुर्वेदी ने साफ कहा कि पार्टी ने इस प्रकार का कोई निर्णय नहीं किया है। अर्थात वे उन्हें सर्वसम्मत नेता मानने को तैयार नहीं हैं। इस मसले को लेकर पार्टी के अंदर आग सुलगती रही और जैसे ही गुलाब चंद कटारिया ने मेवाड़ अंचल में यात्रा निकालने की घोषणा की तो भाजपा महासचिव श्रीमती किरण माहेश्वरी ने उसका विरोध कर दिया। यह विवाद इतना तूल पकड़ गया कि वसुंधरा राजे ने यात्रा के सिलसिले में जयपुर में आयोजित कोर कमेटी में कटारिया का पलड़ा भारी देख कर बहिष्कार कर दिया और प्रदेश के अधिसंख्य भाजपा विधायकों व कई भाजपा नेताओं के इस्तीफे इक_े कर हाईकमान पर दबाव बना रखा है कि यह स्पष्ट रूप से घोषित किया जाए कि उन्हीं के नेतृत्व में राजस्थान में भाजपा चुनाव लड़ेगी और सरकार बनने पर मुख्यमंत्री भी वे ही होंगी। इस मसले पर हाईकमान अभी विचार कर रहा है और इस प्रकार की घोषणा करने से पहले फूंक फूंक कर कदम रख रहा है। हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला ने जरूर श्रीमती राजे को राजस्थान का भावी मुख्यमंत्री बताया और कहा कि उनके रास्ते में अब कोई रुकावट नहीं है। पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने श्रीमती राजे को करिश्माई नेता बताते हुए कहा कि उन्होंने राजस्थान में बहुत अच्छा काम किया। वे राजमाता साहब की बेटी है, इसलिये मेरे लिये भी वे बेटी के समान हैं। वसुन्धरा जी ने मुझे हमेशा सम्मान दिया। पंजाब में जब-जब भी हमें जरूरत पड़ी लड़ाई में वसुन्धरा जी हमारे साथ रहीं।
बहरहाल, गौर करने लायक बात ये है कि समारोह स्वर्गीय शेखावत जी को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए आयोजित किया गया था, उन्हें तो स्वाभाविक रूप से श्रद्धा सुमन अर्पित किए ही गए, मगर इस प्रसंग में आए नेता वसुंधरा की वंदना करने से नहीं चूके। 

-तेजवानी गिरधर
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tejwanig@gmail.com

सोमवार, मई 14, 2012

असली हीरो आप तो फास्ट ट्रेक कोर्ट आमिर के कहने पर क्यों?


 डा. राजकुमार शर्मा

राजस्थान के चिकित्सा राज्य मंत्री डा. राजकुमार शर्मा को तकलीफ है कि भूण हत्या के मामले में जागरूकता की क्रेडिट फिल्म अभिनेता आमिर खान कैसे ले गए, जबकि चिकित्सा महकमे की जिम्मेदारी उनके पास है। इतना ही नहीं, वे कहते हैं कि आमिर तो पर्दे के हीरो हैं, जबकि रीयल हीरो वे हैं। खान केवल पर्दे पर जागरूकता पैदा कर रहे हैं, जब कि वे तो गांव-गांव जाकर लोगों को बेटी बचाने के लिए कह रहे हैं। सवाल ये उठता है कि अगर डा. शर्मा असली हीरो हैं तो पर्दे के तथाकथित हीरो आमिर की पहल पर ही सरकार क्यों जागी? आमिर की सलाह पर ही मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भूण हत्या के मामलों को निपटाने के लिए मुख्य न्यायाधीश से बात कर फास्ट ट्रेक कोर्ट खोलने की कवायद क्यों की? यह काम असली हीरो होते हुए खुद क्यों नहीं करवा पाए?
असल में लगता ये है कि डा. शर्मा को आमिर की पहल के बाद लगा होगा कि करने वाले तो हम हैं, आमिर ने तो केवल सुझाव दिया था, फिर भी फोकट में ही क्रेडिट ले गए। अर्थ ये निकाला गया कि सरकार को खुद को तो सूझा नहीं, आमिर आ कर जगा गए। और वो भी ऐसे कार्यक्रम के जरिए, जिसका वे भारी मेहनताना लेते हैं। तभी तो यह बयान दे दिया कि आमिर कन्या भूूण हत्या जैसे संवेदनशील मामले को लेकर टीवी शो सत्यमेव जयते के जरिये राजस्थान को बदनाम कर रहे हैं, जबकि प्रदेश में अन्य राज्यों की तुलना में काफी बेहतर हालात हैं। यहां की संवेदनशील सरकार पहले से ही इस दिशा में काफी काम कर रही है। शर्मा ने कहा कि आमिर भू्रण हत्या जैसे गंभीर मुद्दे को भी मनोरंजन का साधन बना रहे हैं, जो ठीक नहीं है। कार्यक्रम में वे एक शो के 3 करोड़ रुपए लेते हैं। समाचारों के मुताबिक वे इससे 20 करोड़ रुपए कमा चुके हैं। मीडिया को लगता है कि आमिर खान के इस शो के बाद ही सरकार हरकत में आई है, जबकि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत इस मामले में पहले ही काफी चिंतित हैं। उन्होंने बेटी बचाने के लिए हमारी बेटी, मुखबिर स्कीम जैसी कई योजनाएं पहले से चला रखी हैं। उन्होंने कहा कि मीडिया को लगता है कि सरकार ने टास्क फोर्स आमिर खान के राजस्थान में आने के बाद बनाई है, जबकि हकीकत यह है कि इसकी घोषणा तो बजट में ही की जा चुकी थी। डा. शर्मा की दलीलों में कितना दम है, ये तो पता नहीं, मगर इसमें कोई दो राय नहीं कि आमिर की पहल के बाद ही सरकार जागी और मुख्यमंत्री गहलोत ने आमिर की पहल को सार्थक बताते हुए कन्या भू्रण हत्या के मामलों के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट खोलने पर हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से बात की। मुख्य न्यायाधीश ने भी इस पर सहमत दे दी। यानि कि जो काम वर्षों तक सरकारें नहीं कर पाईं, वह आमिर खान के एक शो ने कर दिया।
इतना ही नहीं मुख्य न्यायाधीश अरुण मिश्रा व न्यायाधीश एन.के. जैन की खंडपीठ ने एडवोकेट एस.के. गुप्ता की याचिका पर संबंधित अदालतों को निर्देश दिए हैं कि पीसीपीएनडीटी एक्ट के तहत भू्रण परीक्षण से संबंधित मुकदमों में दो माह में निर्णय करें। कोर्ट ने राज्य सरकार से कहा है कि आरोप तय होने के स्तर पर लंबित मुकदमों में आरोप तय कराए और आरोपियों को वारंटों की तामील कराए। अदालत ने सोनोग्राफी मशीनों में साइलेंट आब्जर्वर नहीं लगाने और विवाह पंजीयन के समय उपहारों की सूची संलग्न नहीं करने पर भी सरकार से जवाब मांगा है।
असल में डा. शर्मा की पीड़ा भी कम जायज नहीं है। मानव जाति को कलंकित करते कन्या भू्रण हत्या के मसले को जैसे ही फिल्म स्टार आमिर खान अपने पहले टेलीविजन शो सत्यमेव जयते को उठाया, वह इतना बड़ा मुद्दा बन गया अथवा नजर आने लगा है कि मानो देश में उससे बड़ी कोई समस्या ही नहीं हो। मानो इससे पहले कभी इस मसले पर किसी ने कुछ बोला ही नहीं, किया ही नहीं या इसके समाधान के लिए कोई कानून ही नहीं बना हुआ है। ऐसा स्थापित किया जा रहा है कि जैसे आमिर एक ऐसे रहनुमा पैदा हुए हैं, जो कि इस समस्या को जनआंदोलन ही बना डालेंगे।
दरअसल इस कार्यक्रम का इतना अधिक प्रचार किया गया सभी इस शो को देखने के लिए उत्सुक हो गए और जाहिर तौर पर मुद्दा सही था, इस कारण कार्यक्रम को देखने के बाद हर कोई आमिर खान का गुणगान करने लगा। मीडिया की तो बस पूछो ही मत। वह तो रट ही लगाने लग गया। खास तौर पर इलैक्ट्रॉनिक मीडिया। बेशक यह मुद्दा हमारी सबसे बड़ी सामाजिक बुराई से जुड़ा हुआ है और इस बुराई से निजात पाने के लिए सरकारें अपने स्तर कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रहीं, मगर जैसे ही एक प्रसिद्ध फिल्म स्टार ने इस मुद्दे को उठाया, योजनाबद्ध तरीके से प्रचारित किया, मीडिया ने उसे आसमान पर पहुंचा दिया। अब हर कहीं उसी की चर्चा हो रही है। यानि कि हमारी हालत ये हो गई है कि हम हमारे जीवन व समाज के जरूरी विषयों के मामले में भी मीडिया की बाजारवादी संस्कृति पर निर्भर हो गए हैं। इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण है जिंदगी लाइव नामक कार्यक्रम, जिसमें समाज के ऐसे ही चेहरों को उजागर किया जाता है, मगर चूंकि उसे ठीक से मीडिया ने प्रचारित नहीं किया, इस कारण उसकी चर्चा ही नहीं होती। बाबा रामदेव को ही लीजिए। उन्होंने कोई नया योग ईजाद नहीं किया है। वह हमारी संस्कृति की हजारों साल पुरानी जीवन पद्धति का हिस्सा रहा है। बाबा रामदेव के बेहतर योगी इस देश में हुए हैं और अब भी हैं तथा अपने-अपने आश्रमों में योग सिखा रहे हैं, मगर चूंकि बाबा रामदेव ने इलैक्ट्रोनिक मीडिया का सहारा लिया तो ऐसा लगने लगा कि वे दुनिया के पहले योग गुरू हैं। प्राकृतिक चिकित्सा, ज्योतिष, वास्तु आदि बहुत से ऐसे विषय हैं, जो कि हमारी जीवन पद्यति में समाए हुए हैं, मगर अब चूंकि उन्हें मीडिया फोकस कर रहा है, इस कारण ऐसे नजर आने लगे हैं मानो हम तो उनके बारे में जानते ही नहीं थे। इसका सीधा अर्थ है कि हम जीवन के जरूरी मसलों पर भी तब तक नहीं जागते हैं, जबकि उसमें कोई ग्लैमर नहीं होता या मीडिया उसे बूम नहीं बना देता।
बेशक आमिर की मुहिम सराहनीय है, मगर हमारे जागने का जो तरीका है, वह तो कत्तई ठीक नहीं है। एक बात और। हम वास्तव में जाग भी रहे हैं या नहीं, यह भी गौर करने लायक होगा। इसी कारण ये सवाल उठाया जा रहा है कि क्या ऐसे कार्यक्रम के जरिए कन्या भू्रण हत्या जैसी गंभीर समस्याओं को सुलझाया जा सकता है? यह वाकई चिंतनीय है। हमारा जागना तभी सार्थक होगा, जबकि चर्चा भर न करके उस अमल भी करें।

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

गुरुवार, मई 10, 2012

वसुंधरा राजे के चक्कर में किरण का घर लपटों में

पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे की खातिर पूर्व गृह मंत्री व वरिष्ठ भाजपा नेता गुलाब चंद कटारिया की यात्रा के विरोध की आग लगाने वाली पार्टी की राष्ट्रीय महासचिव व राजसमंद विधायक श्रीमती किरण माहेश्वरी के खुद के घर राजसमन्द और आसपास में ही आग लग गई है।
हालांकि किरण का कटारिया से छत्तीस का आंकड़ा काफी पुराना है और उनके यात्रा निकालने का मेवाड़ अंचल पर किरण के वर्चस्व पर भी स्वाभाविक रूप से असर पडऩे वाला था, मगर यह सीधे तौर पर वसुंधरा को चुनौती थी, न कि किरण को। यह संघर्ष आगामी विधानसभा चुनाव को लेकर संघ और वसुंधरा के बीच का था। कटारिया ने यात्रा का ऐलान कर एक तरह से वसुंधरा को चुनौती दी थी क्योंकि वे अपने आप को मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने के लिए यात्रा निकालने की तैयारी कर रही थीं। इस झगड़े के बीच सीधे तौर पर किरण का तो कोई लेना देना ही नहीं था। ये पता नहीं कि किरण ने वसुंधरा के कहने पर अथवा खुद ही वसुंधरा का वफादार साबित होने के चक्कर में राजसमंद में आयोजित यात्रा तैयारी बैठक में जा कर हंगामा कर दिया। इतना ही नहीं बाद में दिल्ली जा कर शिकायत और कर दी। इसका परिणाम ये हुआ कि राजसमंद से उठी लपटें पहले दिल्ली पहुंची और बाद में जयपुर सहित पूरे राज्य में फैल गईं। हुआ वही जो होना था। झगड़ा संघ और वसुंधरा के बीच हो गया। इसमें राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी भी लपेटे में आ गए क्योंकि उन्होंने ही कटारिया की यात्रा का समर्थन कर अनुमति दी थी।
ज्ञातव्य है कि जब वसुंधरा गुस्से में कोर कमेटी की बैठक से बाहर आ कर बिफरीं तो कटारिया ने यात्रा वापस लेने की घोषणा कर दी। मामला यहीं समाप्त हो सकता था, मगर वसुंधरा को लगा कि यही सही मौका है कि एक बार फिर हाईकमान को अपनी ताकत का अहसास कराया जाए, ताकि रोजाना की किलकिलबाजी खत्म हो, सो इस्तीफों का नाटक शुरू करवा दिया। इस प्रकरण में कटारिया ने पार्टी हित में यात्रा वापस लेने का ऐलान कर अपने आप को सच्चा कार्यकर्ता स्थापित कर लिया और उदयपुर जा कर बैठ गए। कदाचित वहीं बैठे-बैठे उन्होंने सोचा कि वसुंधरा का तो जो होगा, हो जाएगा, मगर कम से कम किरण को तो मजा चखा ही दिया जाए, जिसने कि मुखाग्नि दी थी। समझा जाता है कि उन्हीं के इशारे पर राजसमंद की घटना के दस दिन बाद यकायक वहां के पदाधिकारियों व कार्यकर्ताओं ने नए सिरे से किरण के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। किरण माहेश्वरी के लिए यह बेहद शर्मनाक है कि एक राष्ट्रीय महासचिव, जिसकी हैसियत ताजा प्रकरण में दिल्ली में वसुंधरा के दूत के रूप में रही, उन्हें उन्हीं के विधानसभा क्षेत्र की जिला भाजपा इकाई ललकार रही है। कहां राष्ट्रीय महासचिव और कहां जिले के पदाधिकारी। जिलाध्यक्ष नन्दलाल सिंघवी, पूर्व जिला प्रमुख हरिओम सिंह राठौड़, नाथद्वारा विधायक कल्याण सिंह, कुम्भलगढ़ के पूर्व विधायक सुरेन्द्र सिंह राठौड़, राजसमन्द के पूर्व विधायक बंशीलाल खटीक ने गडकरी को पत्र फैक्स कर राजसमंद बैठक में हंगामा कराने के आरोप में किरण को तुरंत प्रभाव से पद से हटा कर अनुशासनात्मक कार्यवाही की मांग कर दी है। पत्र पर 41 पदाधिकारियों और नेताओं के हस्ताक्षर हैं। इसमें 5 मई को कार्यकर्ताओं को जयपुर ले जाकर प्रदेश के बड़े नेताओं के खिलाफ नारेबाजी एवं गलत बयानबाजी का भी आरोप लगाया गया है। इसमें लिखा है कि किरण ने जयपुर के सारे घटनाक्रम के बाद अपने विधायक एवं महासचिव पद से त्यागपत्र की पेशकश की व बाद में इस सारे घटनाक्रम से केन्द्रीय नेतृत्व के सामने मुकर गईं। पत्र में माहेश्वरी पर राष्ट्रीय महासचिव होने के बावजूद ऐसी अनुशासनहीनता करना, गुटबाजी पैदा करना, समानांतर संगठन चलाना, अपने आप को पार्टी से ऊपर समझना तथा निष्काषित कार्यकर्ताओं को साथ लेकर पार्टी विरोधी गतिविधियों को प्रोत्साहित करने के आरोप भी लगाए गए हैं।
किरण के खिलाफ अपने ही घर में माहौल कितना खराब हो गया है, इसका अंदाजा इस पत्र पर हस्ताक्षर करने वालों के कद से ही हो जाता है। पत्र पर जिला महामंत्री महेश पालीवाल, श्रीकृष्ण पालीवाल, भीमसिंह चौहान, जिला उपाध्यक्ष नवल सिंह सुराना, मोहन सिंह चौहान, राजेंद्र लोहार, शंकर लाल सुथार, पूर्व जिलाध्यक्ष प्रताप सिंह मेहता, प्रदेश कार्यसमिति सदस्य वीरेन्द्र पुरोहित, जिला मंत्री बबर सिंह, जिला कोषाध्यक्ष देवीलाल प्रजापत , भीम मंडल अध्यक्ष मोती सिंह, महामंत्री लक्ष्मण सिंह, आमेट नगर मंडल अध्यक्ष यशवंत चोर्डिय़ा, भाजपा मीडिया जिला संयोजक मधुप्रकाश लड्ढा, राजसमन्द नगर मंडल अध्यक्ष प्रवीण नंदवाना, महामंत्री सत्यदेव सिंह, ग्रामीण मंडल अध्यक्ष गोपाल कृष्ण पालीवाल, महामंत्री जवाहर जाट, नाथद्वारा नगर मंडल अध्यक्ष शिव पुरोहित, नगर महामंत्री परेश सोनी, ग्रामीण मंडल अध्यक्ष रमेश दवे, महामंत्री संजय मांडोत, आमेट ग्रामीण मंडल अध्यक्ष हजारी गुर्जर, महामंत्री हरीसिंह राव, बाबूलाल कुमावत, चन्द्रशेखर पालीवाल, रेलमगरा मंडल अध्यक्ष गोविन्द सोनी, महामंत्री प्रकाश खेरोदिया, रतन सिंह, कुम्भलगढ़ मंडल अध्यक्ष भेरू सिंह खरवड़, महामंत्री चन्द्रकान्त आमेटा, भाजयुमो जिला अध्यक्ष सुनील जोशी, महिला मोर्चा जिलाध्यक्ष संगीता कुंवर चौहान के हस्ताक्षर बताए गए हैं।
बहरहाल, वसुंधरा राजे का तो जो होगा, हो जाएगा, मगर किरण ने उनके चक्कर में अपने घर में जरूर आग लगा ली है। अब देखना ये है कि वे इससे कैसे निपटती हैं। इसकी प्रतिक्रिया में उन्होंने राजस्थान पत्रिका को जो बयान दिया है, उसमें कहा है कि मेरे विरोध में पत्र लिखा है, लिखने दो। इस बारे में किसी को जवाब नहीं देना चाहती। जवाब जनता के बीच दूंगी। समझ में ये नहीं आता कि जब पत्र राष्ट्रीय अध्यक्ष को लिखा गया है तो उसका जवाब जनता के बीच जा कर क्यों देंगी?

-तेजवानी गिरधर
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tejwanig@gmail.com

रविवार, मई 06, 2012

संघ को आखिर तकलीफ क्या है वसुंधरा मेडम से?

प्रदेश भाजपा में मचा ताजा घमासान कोई नया नहीं है। इससे पहले भी पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे को नेता प्रतिपक्ष पद से हटाने व फिर मजबूरी में बनाने के दौरान भी विवाद यही था कि भाजपा का मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उन्हें नापसंद करता है और वह उन्हें दुबारा मुख्यमंत्री बनने नहीं देना चाहता। आज भी स्थिति जस की तस है। ताजा विवाद तो बासी कढ़ी में उबाल मात्र है।
प्रदेश के संघनिष्ठ नेताओं को श्रीमती वसुंधरा राजे से कितनी एलर्जी है, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले दिनों भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी और पूर्व उप प्रधानमंत्री व वरिष्ठ भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी के यह साफ कर देने पर कि आगामी विधानसभा चुनाव वसुंधरा राजे के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा, गुलाब चंद कटारिया व ललित किशोर चतुर्वेदी ने यह कह विवाद पैदा किया कि ऐसा पार्टी में तय नहीं किया गया है। उसी कड़ी में जब संघ के नेताओं को पता लगा कि वसुंधरा जल्द ही प्रदेश में अपने आपको स्थापित करने के लिए रथ यात्रा निकालने की तैयारी कर रही हैं, कटारिया ने खुद मेवाड़ अंचल में यात्रा निकालने की घोषणा कर दी। इस पर जैसे ही वसुंधरा के इशारे पर कटारिया से व्यक्तिगत रंजिश रखने वाली पार्टी महासचिव व राजसमंद विधायक श्रीमती किरण माहेश्वरी ने विरोध किया तो बवाल हो गया। उसी का परिणाम है ताजा जलजला, जिसमें वसुंधरा ने एक बार फिर इस्तीफों का हथकंडा अपना कर केन्द्रीय नेतृत्व को मुश्किल में डाल दिया है। हालांकि विवाद बढऩे पर कटारिया अपनी यात्रा स्थगित करने की घोषणा कर चुके हैं, अर्थात अपनी ओर से विवाद समाप्त कर चुके हैं, मगर इस बार वसुंधरा ने भी तय कर लिया है कि बार-बार की रामायण को समाप्त ही कर दिया जाए। इस कारण उनके समर्थक मांग कर रहे हैं कि पार्टी स्तर पर घोषणा की जाए कि आगामी चुनाव वसुंधरा के नेतृत्व में लड़ा जाएगा और भाजपा सत्ता में आई तो मुख्यमंत्री भी वसुंधरा ही होंगी।
सवाल ये उठता है कि आखिर संघ के एक बड़े वर्ग को वसुंधरा से तकलीफ क्या है? जैसा कि संघ का मिजाज है, वह खुले में कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करता, मगर भीतर ही भीतर पर इस बात पर निरंतर मंथन चलता रहा है कि वसुंधरा को किस प्रकार कमजोर किया जाए।
इसमें कोई दो राय नहीं कि राजस्थान में भाजपा के पास वसुंधरा राजे के मुकाबले का कोई दूसरा आकर्षक व्यक्तित्व नहीं है। अधिसंख्य विधायक व कार्यकर्ता भी उनसे प्रभावित हैं। उनमें जैसी चुम्बकीय शक्ति और ऊर्जा है, वैसी किसी और में नहीं दिखाई देती। उनके जितना साधन संपन्न भी कोई नहीं है। उनकी संपन्नता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब भाजपा हाईकमान उनके विधानसभा में विपक्ष के नेता पद पर नहीं रहने पर अड़ गया था, तब उन्होंने एकबारगी तो नई पार्टी के गठन पर विचार ही शुरू कर दिया था। राजनीति के जानकार समझ सकते हैं कि नई पार्टी का गठन कितना धन साध्य और श्रम साध्य है। वस्तुत: साधन संपन्नता और शाही ठाठ की दृष्टि से वसुंधरा के लिए मुख्यमंत्री का पद कुछ खास नहीं है। उन्हें रुचि है तो सिर्फ पद की गरिमा में, उसके साथ जुड़े सत्ता सुख में। वे उस विजया राजे सिंधिया की बेटी हैं, जो तब पार्टी की सबसे बड़ी फाइनेंसर हुआ करती थीं, जब पार्टी अपने शैशवकाल में थी। मुख्यमंत्री रहने के दौरान भी वसुंधरा ने पार्टी को बेहिसाब आर्थिक मदद की। जाहिर तौर पर ऐसे में जब उन पर ही अंगुली उठाई गई थीं तो बिफर गईं, जैसे कि हाल ही बिफरीं हैं। वे अपने और अपने परिवार के योगदान को बाकायदा गिना चुकी हैं। बहरहाल, कुल मिला कर उनके मुकाबले का कोई नेता भाजपा में नहीं है। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि भाजपा में एक मात्र वे ही जिताऊ हैं, जो पार्टी को फिर से सत्ता में लाने का माद्दा रखती हैं। पिछली बार भी हारीं तो उसकी वजुआत में संघ की नाराजगी भी शामिल है।
यह सही है कि भाजपा केडर बेस पार्टी है और उसका अपना नेटवर्क है। कोई भी व्यक्ति पार्टी से बड़ा नहीं माना जाता। कोई भी नेता पार्टी से अलग हट कर कुछ भी नहीं है, मगर वसुंधरा के साथ ऐसा नहीं है। उनका अपना व्यक्तित्व और कद है। और यही वजह है कि सिर्फ उनके चेहरे को आगे रख कर ही पार्टी चुनावी वैतरणी पार सकती है। ऐसा नहीं है कि संघ इस बात को नहीं समझता। वह भलीभांति जानता है। मगर उसे उनके तौर तरीकों पर ऐतराज है। वसुंधरा की जो कार्य शैली है, वह संघ के तौर-तरीकों से मेल नहीं खाती।
संघ का मानना है कि राजस्थान में आज जो पार्टी की संस्कृति है, वह वसुंधरा की ही देन है। वसुंधरा की कार्यशैली के कारण भाजपा की पार्टी विथ द डिफ्रंस की छवि समाप्त हो गई। इससे पहले पार्टी साफ-सुथरी हुआ करती थी। अब पार्टी में पहले जैसे अनुशासित और समर्पित कार्यकर्ताओं का अभाव है। निचले स्तर पर भले ही कार्यकर्ता आज भी समर्पित हैं, मगर मध्यम स्तर की नेतागिरी में कांग्रेसियों जैसे अवगुण आ गए हैं। आम जनता को भी कांग्रेस व भाजपा में कोई खास अंतर नहीं दिखाई देता। इसके अतिरिक्त संघ की एक पीड़ा ये भी है कि पिछले मुख्यमंत्रित्व काल के दौरान वसुंधरा ने पार्टी की वर्षों से सेवा करने वाले नेताओं को हाशिये पर खड़ा कर दिया, उन्हें खंडहर तक की संज्ञा देने लगीं, जिससे कर्मठ कार्यकर्ता का मनोबल टूट गया। प्रदेश भाजपा अध्यक्षों को जिस प्रकार उन्होंने दबा कर रखा, उसे भी संघ नहीं भूल सकता। वे तो हर दम पावर में बनी रहीं, मगर एक के बाद एक तीन प्रदेश अध्यक्ष ललित किशोर चतुर्वेदी, डा. महेश शर्मा व ओमप्रकाश माथुर शहीद हो गए। वसुंधरा पर नकेल कसने के लिए अरुण चतुर्वेदी को अध्यक्ष बनाया गया, मगर वे भी वसुंधरा के आभा मंडल के आगे फीके ही साबित हुए हैं। हालांकि संघ भी अब समझने लगा है कि केवल चरित्र के दम पर ही पार्टी को जिंदा नहीं रखा जा सकता। उसके लिए पैसे की जरूरत भी होती है। राजनीति अब बहुत खर्चीला काम है। और पैसे के लिए जाहिर तौर पर वह सब कुछ करना होता है, जिससे अलग रह कर पार्टी अपने आप को पार्टी विथ द डिफ्रेंस कहाती रही है। वसुंधरा की कूटनीति का संघ भी कायल है, मगर सोच ये है कि उनकी कूटनीति की वजह से पार्टी को जितना फायदा होता है, उससे कहीं अधिक पार्टी की छवि को धक्का लगता है। चलो उसे भी स्वीकार कर लिया जाए, मगर उसे ज्यादा तकलीफ इस बात से है कि वसुंधरा उसके सामने उतनी नतमस्तक नहीं होतीं, जितना अब तक भाजपा नेता होते रहे हैं।
यह सर्वविदित है कि संघ के नेता लोकप्रियता और सत्ता सुख के चक्कर में नहीं पड़ते, सादा जीवन उच्च विचार में जीते हैं, मगर चाबी तो अपने हाथ में ही रखना चाहते हैं। और उसकी एक मात्र वजह ये है कि संघ भाजपा का मातृ संगठन है। भाजपा की अंदरूनी ताकत तो संघ ही है। वह अपनी अहमियत किसी भी सूरत में खत्म नहीं होने देना चाहता। वह चाहता है कि पार्टी संगठन पर संघ की ही पकड़ रहनी चाहिए।
वैसे संघ की वास्तविक मंशा तो वसुंधरा को निपटाने की ही है, या उनसे पार्टी को मुक्त कराने की है, यह बात दीगर है कि अब ऐसा करना संभव नहीं। ऐसे में संघ की कोशिश यही रहेगी कि आगामी विधानसभा के मद्देनजर ऐसा रास्ता निकाला जाए, जिससे वसुंधरा को भले ही कुछ फ्रीहैंड दिया जाए, मगर संघ की भी अहमियत बनी रहे।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

बेकाबू सोशल मीडिया चाहता है भड़ास निकालने की स्वच्छंदता


जानकारी है कि केंद्र सरकार ने सोशल मीडिया पर सख्ती करने की तैयारी कर ली है। केंद्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने संकेत दिए हैं कि इस पर विचार-विमर्श चल रहा है और इसके तकनीकी पहलुओं पर गंभीरता से फोकस किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि देश में ज्यादातर सोशल नेटवर्किंग साइट्स का इस्तेमाल दूसरे की साख पर हमला करने के लिए हो रहा है। उनका कहना है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का कुछ लोग गलत फायदा उठा रहे हैं। सोशल मीडिया का इस्तेमाल प्रोपेगेंडा करने के लिए अधिक हो रहा है।
उनकी बात में कुछ तो सच्चाई है। बेशक अभिव्यक्ति की आजादी पर किसी भी सूरत में अंकुश नहीं होना चाहिए, मगर सोशल मीडिया को इतना तो ख्याल रखना ही होगा कि स्वतंत्रता की सीमाएं लांघते हुए उसका उपयोग स्वच्छंदता व भड़ास के लिए न होने लगे।
ज्ञातव्य है कि हाल ही में पूर्व कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी की कथित सैक्स सीडी सोशल मीडिया के माध्यम से सार्वजनिक कर दी गई। सीडी पर विवाद इतना अधिक गहरा गया कि अभिषेक मनु सिंघवी को अपने सभी राजनीतिक पदों से इस्तीफा तक देना पड़ा। हालांकि सिंघवी के इस प्रकार बेनकाब होने को बड़ी उपलब्धि बता कर कई लोग सोशल मीडिया को स्वतंत्र रखने की पैरवी कर रहे हैं, मगर यदि यह स्वच्छंदता की पराकाष्ठा तक पहुंचने लगे तो यह देश के लिए घातक हो सकता है। जिस सीडी के प्रसारण पर कोर्ट ने रोक लगा दी, उसे पिं्रट मीडिया व इलैक्ट्रोनिक मीडिया प्रकाशित-प्रसारित नहीं कर पाया। दूसरी ओर सोशल मीडिया ने उसे जारी कर के यह संदेश दिया कि सोशल मीडिया की वजह से ही सीडी प्रकाश में आई। यह सच भी है, मगर क्या ऐसा करके कोर्ट के आदेश को धत्ता नहीं बता दिया गया है? सवाल ये है कि जब कोर्ट ने सीडी पर पाबंदी लगा दी थी तो उसे कैसे दिखाया जाता रहा? क्या सोशल मीडिया देश की न्यायपालिका से ऊपर है? एक ब्लोगर ने तो बाकायदा पिं्रट व इलैक्ट्रोनिक मीडिया को कायर बताते हुए कोर्ट को ओवरटेक करने पर सोशल मीडिया को उसकी बहादुरी के लिए शाबाशी दी। सोशल मीडिया ने नैतिकता, मर्यादा और कानून की धज्जियां उड़ाते हुए उस सीडी को न सिर्फ दिखाया है बल्कि उस पर टीका टिप्पणियां भी कीं। यदि सोशल मीडिया इस प्रकार कोर्ट को अंगूठा दिखा कर मदमस्त हो कर इठलाता है तो यह कभी हमारे देश की अखंडता व संप्रभुता के लिए घातक भी हो सकता है।
सवाल ये उठता है अभिव्यक्ति की आजादी की पैरवी करते हुए एक सीडी को उजागर करने की सफलता की आड़ में लोगों को बेहूदा टिप्पणियां करने अथवा भड़ास निकालने छूट कैसे दी जा सकती है?
लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की दुहाई देते हुए जहां कई लोग इसे संविधान की मूल भावना के विपरीत और तानाशाही की संज्ञा दे रहे हैं, वहीं कुछ लोग अभिव्यक्ति की आजादी के बहाने चाहे जिस का चरित्र हनन करने और अश्लीलता की हदें पार किए जाने पर नियंत्रण पर जोर दे रहे हैं।
यह सर्वविदित ही है कि इन दिनों हमारे देश में इंटरनेट व सोशल नेटवर्किंग साइट्स का चलन बढ़ रहा है। आम तौर पर प्रिंट और इलैक्ट्रॉनिक मीडिया पर जो सामग्री प्रतिबंधित है अथवा शिष्टाचार के नाते नहीं दिखाई जाती, वह इन साइट्स पर धड़ल्ले से उजागर हो रही है। किसी भी प्रकार का नियंत्रण न होने के कारण जायज-नाजायज आईडी के जरिए जिसके मन जो कुछ आता है, वह इन साइट्स पर जारी कर अपनी कुंठा शांत कर रहा है। अश्लील चित्र और वीडियो तो चलन में हैं ही, धार्मिक उन्माद फैलाने वाली सामग्री भी पसरती जा रही है। सोशल मीडिया पर आने वाले कमेंट देखिए, आप हैरान रह जायेंगे कि उनसे किसी का खून भी खौल सकता है। असामाजिक तत्त्व किसी भी शहर में धार्मिक उन्माद फैला कर दंगा करवा सकते हैं। पिछले दिनों राजस्थान के भीलवाड़ा में तो ऐसी ही टिप्पणी के कारण दंगे जैसी उत्पन्न हो गई थी। यानि कि साफ है कि हम अभिव्यक्ति की आजादी की पैरवी करते वक्त उसके दुरुपयोग की ओर आंखें मूंद लेना चाहते हैं। ऐसा करके हम असामाजिक तत्त्वों को गुंडागर्दी करने का लाइसेंस देना चाहते हैं।
राजनीति और नेताओं के प्रति उपजती नफरत के चलते सोनिया गांधी, राजीव गांधी, मनमोहन सिंह, कपिल सिब्बल, दिग्विजय सिंह सहित अनेक नेताओं के बारे में शिष्टाचार की सारी सीमाएं पार करने वाली टिप्पणियां और चित्र भी धड़ल्ले से डाले जा रहे हैं। प्रतिस्पद्र्धात्मक छींटाकशी का शौक इस कदर बढ़ गया है कि कुछ लोग अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के बारे में भी टिप्पणियां करने से नहीं चूक रहे। ऐसे में पिछले दिनों केन्द्रीय दूरसंचार और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री कपिल सिब्बल ने जैसे ही यह कहा कि उनका मंत्रालय इंटरनेट में लोगों की छवि खराब करने वाली सामग्री पर रोक लगाने की व्यवस्था विकसित कर रहा है और सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स से आपत्तिजनक सामग्री को हटाने के लिए एक नियामक व्यवस्था बना रहा है तो बवाल हो गया। सिब्बल के इस कदम की देशभर में आलोचना शुरू हो गई। बुद्धिजीवी इसे अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश के रूप में परिभाषित करने लगे, वहीं मौके का फायदा उठा कर विपक्ष ने इसे आपातकाल का आगाज बताना शुरू कर दिया।
जहां तक अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल है, मोटे तौर पर यह सही है कि ऐसे नियंत्रण से लोकतंत्र प्रभावित होगा। इसकी आड़ में सरकार अपने खिलाफ चला जा रहे अभियान को कुचलने की कोशिश कर सकती है, जो कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए घातक होगा। लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या अभिव्यक्ति की आजादी के मायने यह हैं कि फेसबुक, ट्विटर, गूगल, याहू और यू-ट्यूब जैसी वेबसाइट्स पर लोगों की धार्मिक भावनाओं, विचारों और व्यक्तिगत भावना से खेलने तथा अश्लील तस्वीरें पोस्ट करने की छूट दे दी जाए? व्यक्ति विशेष के प्रति अमर्यादित टिप्पणियां और अश्लील फोटो जारी करने दिए जाएं? किसी के खिलाफ भड़ास निकालने की खुली आजादी दे दी जाए? सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर इन दिनों जो कुछ हो रहा है, क्या उसे अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर स्वीकार कर लिया जाये?
चूंकि ऐसी स्वच्छंदता पर काबू पाने का काम सरकार के ही जिम्मे है, इस कारण जैसे ही नियंत्रण की बात आई, उसने राजनीतिक लबादा ओढ लिया। राजनीतिक दृष्टिकोण से हट कर भी बात करें तो यह सवाल तो उठता ही है कि क्या हमारा सामाजिक परिवेश और संस्कृति ऐसी अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर आ रही अपसंस्कृति को स्वीकार करने को राजी है? माना कि इंटरनेट के जरिए सोशल नेटवर्किंग के फैलते जाल में दुनिया सिमटती जा रही है और इसके अनेक फायदे भी हैं, मगर यह भी कम सच नहीं है कि इसका नशा बच्चे, बूढ़े और खासकर युवाओं के ऊपर इस कदर चढ़ चुका है कि वह मर्यादाओं की सीमाएं लांघने लगा है। अश्लीलता व अपराध का बढ़ता मायाजाल अपसंस्कृति को खुलेआम बढ़ावा दे रहा है। जवान तो क्या, बूढ़े भी पोर्न मसाले के दीवाने होने लगे हैं। इतना ही नहीं फर्जी आर्थिक आकर्षण के जरिए धोखाधड़ी का गोरखधंधा भी खूब फल-फूल रहा है। साइबर क्राइम होने की खबरें हम आए दिन देख-सुन रहे हैं। जिन देशों के लोग इंटरनेट का उपयोग अरसे से कर रहे हैं, वे तो अलबत्ता सावधान हैं, मगर हम भारतीय मानसिक रूप से इतने सशक्त नहीं हैं। ऐसे में हमें सतर्क रहना होगा। सोशल नेटवर्किंग की  सकारात्मकता के बीच ज्यादा प्रतिशत में बढ़ रही नकारात्मकता से कैसे निपटा जाए, इस पर गौर करना होगा। हमें इस बात को समझना होगा कि जिम्मेदारी और प्रतिबंधों के बिना मिला कोई भी अधिकार निरंकुशता की ओर ले कर जाता है और निरंकुशता अराजकता की ओर।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

शनिवार, मई 05, 2012

किरण और कटारिया की जंग काफी पुरानी है

लोकसभा चुनाव में किरण को निपटाने के लिए आया था एक परचा
हाल ही सुर्खियों में आई भाजपा की राष्ट्रीय महासचिव व राजसमंद विधायक श्रीमती किरण माहेश्वरी व पूर्व गृह मंत्री गुलाब चंद कटारिया की जंग काफी पुरानी है। जब किरण माहेश्वरी अजमेर से लोकसभा का चुनाव लडऩे आई थीं, तब एक पर्चा किरण को निपटाने को अजमेर में बंटा था। जिले के गिने-चुने भाजपा नेताओं और कार्यकर्ताओं को ही बारे में पता था। हालांकि यह परचा दबा दिया गया, लेकिन यह दैनिक न्याय सबके लिए के हाथ आ गया था। चर्चा ये थी कि इस परचे के पीछे पूर्व गृह मंत्री गुलाब चंद कटारिया का हाथ था। तब भी यही बताया गया था कि उदयपुर में भाजपा कटारिया व किरण की लॉबियों में बंटी हुई है। दोनों नेताओं में छत्तीस का आंकड़ा है। ऐसे में किरण के चुनाव लडऩे को अजमेर आने पर कटारिया अथवा उनकी लॉबी के कोई नेता स्थानीय भाजपा नेताओं को यह बताना चाहते थे कि किरण की असलियत क्या है।
आइये, देखते हैं कि उस परचे में लिखा क्या था-छह माह पहले ही किरण माहेश्वरी ने राजसमंद विधानसभा क्षेत्र के मतदाताओं के सामने पांच साल तक नेक सेवा करने की वचनबद्धता के साथ सौगंध खाकर व करोड़ों रुपए खर्च कर चुनाव जीता था, लेकिन छह माह बाद ही उन्हें धोखा दे दिया।
इसमें अजमेर के भाजपा नेताओं को ललकारते हुए लिखा गया है कि क्या अजमेर में लोकसभा सदस्य बनने की क्षमता किसी भी भाजपा कार्यकर्ता में नहीं है, लेकिन केन्द्र की नजर तो आप पर है, यानि किरण पर है, सब कार्यकर्ताओं का हक मार दिया। अजमेर का मतदाता शिक्षित है। वह पैसे से नहीं बिकेगा। पैसा हजम-वोट नहीं। चलो बेईमानी से एकत्र बीस-पच्चीस करोड़ जनता तक तो पहुंचेंगे।
परचे में लिखा है कि विधायक बनने के बाद राजसमंद से किरण ने जिला परिषद के प्रमुख के उपचुनाव में जीवनभर जनसंघ व भाजपा के लिए खपने वाले नंदलाल सिंघली को अनदेखा करके आपने विश्वस्त वोटों को कांग्रेस के उम्मीदवार को दिला कर कांगे्रसी जिला प्रमुख बना दिया और भाजपा के साथ गद्दारी की। इसमें लिखा है कि जब किरण माहेश्वरी तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष गुलाबचंद कटारिया की मेहरबानी से भाजपा के महिला मोर्चे की अध्यक्ष बनीं तो जयपुर के स्विन एंड स्माइल रेस्टोरेंट की मालकिन मिन्नी सिद्धू उनकी खास महामंत्री थी। किरण का अधिकांश समय रेस्टोरेंट पर ही बीतता था। यहां महिलाओं को राजनीति में आगे बढ़ाने की पाठशाला चलाई गई थी। इस पाठशाला के प्रमोटर एस.एन. गुप्ता थे। परचे में लिखा है कि तरणताल में जल क्रीड़ा की जाती थी। मिन्नी सिद्धू पर दलाली के आरोप में मुकदमा चल रहा है। उसने उस पाठशाला में आने वाले स्त्री-पुरुषों के नाम उजागर किए हैं, यहां लिखेंगे तो भाजपा में भूचाल आ जाएगा। उदयपुर में कार्यकर्ता जानते हैं कि किरण नई-नई सखियां बना कर रखती हैं। इसमें लिखा था कि पिछले चार साल में किरण ने फर्जी दस्तखतों से भाई साहब कटारिया जी की छवि बिगाडऩे के लिए मनगढ़ंत आक्षेप वाले पत्र प्रदेश व देश के नेताओं को भेजने का रिकार्ड बनाया है। उसी शैली में यह पत्र आपको भिजवाया जा रहा है, ताकि आपकी बॉडी लैंग्वेज के पीछे छिपे निहायत खतरनाक षड्यंत्रकारी फेस की वास्तविकता सब जान सकें।
इसमें लिखा है कि किरण को राजनीति में जमीन मुहैया कराने की भूल तो भाई साहब ने ही किया था। उन्होंने जनसंघ काल से ही सक्रिय रही सारी महिलाओं की वरिष्ठता दरकिनार कर आपकी खूबसूरती की योग्यता को पैमाना बना कर नगर परिषद का सभापति बनवाया था। सभापति बनने से पहले आपकी माली हालत खस्ता थी और सभापति बनते ही माली हालत ठीक करने के एजेंडे पर चलना चालू कर दिया। सभापति बनने से पहले आपके पति एक उद्योगपति के यहां नौकरी करते थे और आर्थिक अभावों में गबन कर बैठे, उसका पुलिस केस भी बना। यह तो अच्छा हुआ कि आप सभापति बन गईं और अपने प्रभाव से उस केस का रफा-दफा करवा दिया, नहीं जेल जाने की नौबत आ जाती। उसके बाद भी आपके पति ने सीए के रूप में व्यावसायिक बेईमानी की, उसका भी केस बना ओर हिरासत में जाना पड़ा।
आपके सभापति काल में भ्रष्टाचारों की फेहरिस्त बहुत लंबी है। आपने निर्माण कार्यों हेतु परंपरागत रूप से सभापति को मिलने वाले डेढ़ प्रतिशत को बढ़ा कर दो से तीन प्रतिशत कर दिया। परिषद में खड़े दर्जनों जंगी पेड़ों कटवा कर वन कानून का उल्लंघन किया। देबारी द्वार के निर्माण हेतु आबंटित कुलियां राशि आठ लाख छासठ हजार रुपयों को नींव भरने में खर्च करवा कर बहुत भारी कमीशन खाया। इस मामले की जांच हुई, लेकिन आपने दबवा दिया। हिरण मगरी स्थिति विद्या निकेतन परिसर में गड्ढों को भरवाने के लिए मलबा डलवाया। उसमें ट्रक के 175 ट्रिप्स अध्यापक गिने, आपने रिश्वत खा कर 230 ट्रिप्स का चुकारा करवा दिया। आपने अपनी मां के नाम पर बंपर खरीद कर परिषद में ही ठेके पर लगा दिए। जांच में गड़बडिय़ां सामने आर्इं। स्वायत्त शासन विभाग के एक सेवानिवृत्त भ्रष्ट अधिकारी गुलाबसिंह को विभाग की स्वीकृति के बिना ही विशेष अधिकारी बना दिया। उस पर कई आरोप लगे तो उसको भगा दिया। आपके भ्रष्टाचार के विरुद्ध पार्षद अजय कुशवाहा आमरण अनशन पर बैठे। इस फाइलें जयपुर मंगवा ली गर्इं। आप सौभाग्यशाली रहीं कि इसके बाद कांग्रेस शासन में स्वायत्त शासन मंत्री शांति धारीवाल बने, जो स्वभाव से महिलाओं के प्रति बड़े उदार हैं। आपकी बॉडी लैंग्वेज से सभी फाइलों को निपटारा हो गया।
आपने विदेश यात्रा के लाखों रुपए नगर परिषद से उठाए, जबकि सारी यात्रा का खर्च अमरीका में आमंत्रित करने वाले मेजबानों ने उठाया था। जांच में मेजबानों का सहयोग न मिलने पर जांच बंद कर दी गई। दी महिला समृद्धि अरबन को-ऑपरेटिव बैंक की आप अध्यक्ष थीं। उसमें गड़बडिय़ों की जांच अपने ही पति को ऑडिट की जिम्मेदारी दे दी। आपके पांच साल के सभापति कार्यकाल में दौरान किए कारनामों से उदयपुर के अखबार भरे रहे। इस पर आपको पद से हटाने पर विचार भी हुआ। शहर भाजपा अध्यक्ष मदनलाल मूंदड़ा की ओर बुलाई गई बैठक में बाईस पार्षदों ने आपकी कड़ी आलोचना की। केवल पांच पार्षद ही आपके पक्ष में रहे। इस पर बड़े नेताओं ने आपको फटकार लगाई। आप फूट-फूट कर रो पड़ीं। आपके खिलाफ पच्चीस पार्षदों ने प्रदेश अध्यक्ष रघुवीर सिंह कौशल को ज्ञापन दिया था। विधायक शिवकिशोर सनाढ्य ने आपका बचाव किया। उद्योगपतियों ने भी आपके खिलाफ उप मुख्यमंत्री हरिशंकर भाभड़ा को ज्ञापन दिया था।
आपका असली रूप तो पिछले चुनाव में ही सामने आ गया था। विधानसभा टिकट वितरण के दौर में आपने स्व. प्रमोद महाजन के जरिए सभी तौर तरीकों से कोशिश की कि भाई साहब बड़ी सादड़ी से चुनाव लड़ें। आप उदयपुर से चुनाव लडऩा चाहती थीं। आपने वसुंधरा राजे की परिवर्तन यात्रा के दौरान समय व स्थान के अनुरूप वस्त्र भी तैयार करवाए, ताकि बाद में आपको मंत्री पद मिल जाए, लेकिन भई साहब की संघ में मजबूत पकड़ के कारण आपकी पार नहीं पड़ी।
इस परचे से ही स्पष्ट है कि यह किरण के विरोधी और कटारिया के चहेते ने लिखा है। कानाफूसी है कि भिजवाया कटारिया जी ने ही था। कटारिया जी के ही किसी चेले ने यह करतूत की थी, क्योंकि इसमें साफ तौर पर कटारिया जी की पैरवी की गई है और किरण को निपटाया गया है।

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

शुक्रवार, मई 04, 2012

क्या ये किरण का कटारिया पर पलटवार नहीं है?

मेवाड़ अंचल में भाजपा के दो दिग्गजों पूर्व गृहमंत्री गुलाब चंद कटारिया और पार्टी की राष्ट्रीय महासचिव व राजसमंद विधायक श्रीमती किरण माहेश्वरी के बीच जंग तेज हो गई है। एक ओर जहां कटारिया ने दैनिक भास्कर को दिए साक्षात्कार में किरण पर खुल कर हमला बोला तो दूसरे ही दिन किरण ने भी अपनी एक संस्था की गोष्ठी में कटारिया का नाम लिए बिना वह सब कह दिया, जो कि उन्हें कहना था। हालांकि किरण यह कह सकती हैं कि उन्होंने कटारिया के बारे में कुछ नहीं कहा या कटारिया का नाम नहीं लिया, मगर उन्होंने जो कुछ कहा है, उससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि वह सब कुछ कटारिया के ही बारे में है। ऐसा इस कारण कि इन दिनों वहीं प्रसंग चर्चित है।
आइये देखते हैं, किरण ने क्या कहा है मृगेन्द्र भारती द्वारा राजनीतिक दलों में अन्तर्कलह का प्रभाव विषयक गोष्ठी में-
अनुशासन एवं मर्यादा की लक्ष्मण रेखा के सम्मान से ही संगठन सशक्त बनता है। जब किसी संगठन के अग्रणी व्यक्ति निजी महत्वाकांक्षा को सर्वोपरि मानें एवं संगठन के उद्देश्यों को गौण, उस संगठन का विनाश अवश्यंभावी है। ऐसे व्यक्तियों को मुक्त करके ही संगठन को बचाया जा सकता है। राजनीतिक दलों में अन्तर्कलह से वे अपने मूल लक्ष्यों से भटक जाते हैं। अन्तर्कलह का मुख्य कारण निजी महत्वकांक्षा को संगठन हितों से ऊपर रखना है। महत्वाकांक्षा के विवेकहीन होने पर क्रोध एवं अंहकार उत्पन्न होता है। इससे बुद्धि का विनाश हो जाता है। व्यक्ति हताशा एवं कुंठा से ग्रस्त हो जाता है। हताश एवं कुंठित व्यक्ति प्रमादी के समान व्यवहार करते हैं। वे सहयोगियों को तुच्छ एवं स्वयं को ही संगठन की मूल धूरि मानने की भयंकर भूल करते हैं।
यहां उल्लेखनीय है कि कटारिया ने पार्टी से अनुमति लिए बिना ही रथ यात्रा निकालने की फैसला किया, जो कि निजी महत्वाकांक्षा की श्रेणी में आता है। जहां तक सहयोगियों को तुच्छ मानने की बात है, वह भी कटारिया के इस बयान से मेल खाती है कि जिन्हें उंगली पकड़ कर चलना सिखाया, वे ही आंख दिखा रहे हैं। स्वयं को संगठन की मूल धूरि मानने की बात का संबंध सीधे तौर पर प्रदेश अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी के उस बयान से मेल खाता है, जिसमें उन्होंने कहा था कि यात्रा को लेकर कुछ अंतर्विरोध हो सकते हैं, लेकिन गुलाब चंद कटारिया संगठन की धुरी हैं। कुल मिला कर इसमें तनिक भी संदेह नहीं रह जाता कि किरण का बिना नाम लिए की गई तकरीन कटारिया के संदर्भ में ही है।
ज्ञातव्य है कि कटारिया ने दैनिक भास्कर में किरण के बारे में कहा था कि जिन्हें उंगली पकड़ कर चलना सिखाया, वे ही आंख दिखा रहे हैं। इसका खुलासा करते हुए उन्होंने कहा कि 1989 में मैंने लोकसभा का चुनाव लड़ा तो मैं कांकरोली गया था। वे तब कांकरोली की मीटिंग में महिलाओं के बीच बैठी एक श्रोता मात्र थीं। 1993 का पालिका चुनाव हुआ तो मैंने उन्हें वार्ड से चुनाव लडऩे को कहा। वे जीतीं। उन्हें चेयरमैन मैंने बनाया। मैं जब प्रदेश अध्यक्ष बना 1998-99 में तो उन्हें मैंने महिला मोर्चा का प्रदेश अध्यक्ष बनाया। जैसे ही वे लोकसभा में गईं। केंद्रीय नेतृत्व के नजदीक आ गईं। मैं तो अपनी जगह काम कर रहा था। वे ऑल इंडिया सेक्रेटरी बन गईं। महिला मोर्चा की अध्यक्ष बन गईं। अब वे महामंत्री हैं। उन्हें लगने लगा कि वे बड़ी हो गईं। वे जिन्होंने उन्हें उंगली पकड़ कर चलना सिखाया, छोटे हो गए हैं।
यह पूछे जाने पर कि 27 अप्रैल को जो राजसमंद में हुआ वह क्या था, वे बोले कि वह सब प्रायोजित था। जैसे ही किरण बोलने लगीं जिंदाबाद-जिंदाबाद के नारे लगने लगे। जिन लोगों से कहा गया कि जो आमंत्रित नहीं हैं, वे चले जाएं तो बावेला शुरू हो गया। हा-हू करके कहने लगे। यात्रा वापस लो। किरण भी उनके बीच जाकर जद्दोजहद करने लगीं। मीडिया भी उन्हीं की गाडियों में बैठ कर आया था। सुबह सवा नौ बजे तो इसकी विज्ञप्ति जारी हो गई थी कि वे यात्रा का विरोध करने के लिए जाने वाले हैं। वे 20-22 लोग थे, लेकिन वे मीडिया को लेकर आए थे, इसलिए मीडिया में उन्हीं के लोगों की बात ज्यादा छपी थी। वो सब प्रायोजित कार्यक्रम था।
इस पर किरण ने मीडिया ने जो बयान दिया, उसे देखिए-
ये रबिश थिंग है। हवा में बिना प्रूफ किसी के बारे में कुछ भी कैसे कहा जा सकता है। इन चीजों के कोई मायने हैं क्या! अगर किसी को कोई पसंद नहीं है, तो ऐसे एलीगेशन लगाना ठीक नहीं हैं। इस परिवार में बहुत सी स्टेजेज हैं। हर स्टेज पर आप शिकायत कर सकते हैं।
इस बयान से स्पष्ट है कि किरण ने सार्वजनिक तौर पर कुछ भी कहने से परहेज किया, मगर दूसरे दिन ही अपनी संस्था की संगोष्ठी में जो बोला वह सब पूरी तरह से कटारिया पर ही कहा गया प्रतीत होता है। चाहे इसे किरण स्वीकार करें या नहीं।

-तेजवानी गिरधर
7742067000
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