तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

शुक्रवार, मार्च 30, 2012

पश्यंति वाणी सुन कर गीता पर लिखी अनूठी पुस्तक

सूफी संत मिश्राजी द्वारा गीता के एक श्लोक की 110 पेज में व्याख्या
अजमेर। गत दिनों अजमेर से एक यादगार पुस्तक प्रकाशित हुई है। इस पुस्तक में सूफी संत हजरत हरप्रसाद मिश्रा उवैसी ने गीता के एक श्लोक की 110 पेज में व्याख्या कराई है। प्राचीन ऋषि-मुनियों वाली मनोसंवाद विधि से कराए गए इस कार्य के लिए आपने अपने मुरीद अजमेर के जाने-माने इतिहासविद व पत्रकार श्री शिव शर्मा को माध्यम बनाया।
गीता शास्त्र में दूसरे अध्याय के सर्वाधित चर्चित श्लोक है-
कर्मण्येवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफल हेतुर्भूमा, ते संगोस्तव कर्मणि।
इस एक ही श्लोक में गीता के कर्मयोग का सार निहित है। इसका अर्थ समझने के लिए कर्म के उनतीस रूपों की विवेचना की गई है-स्वकर्म, स्वधर्म, नियतकर्म, अकर्म, विकर्म, निषिद्ध कर्म आदि। आपने स्पष्ट किया है कि कर्म के शास्त्रीय, प्रासंगिक, मनोवैज्ञानिक और परिस्थितिगत व्यावहारिक पक्षों को ज्ञात लेने के बाद ही इस श्लोक के वास्तविक अर्थ को समझा जा सकता है। गुरुदेव ने 22 नवंबर 2008 को महासमाधि ले ली थी और यह कार्य आपने 2011 में करवाया। आपकी रूहानी चेतना के माध्यम बने आपके शिष्य श्री शिव शर्मा ने बताया कि शक्तिपात के द्वारा आपने नाम दीक्षा के वक्त ही मेरी कुंडलिनी शक्ति को आज्ञाचक्र पर स्थित कर दिया था। फिर मेरी आंतरिक चेतना को देह से समेट कर आप इसी जगह चैतन्य कर देते थे। उसी अवस्था में आप इस श्लोक की व्याख्या समझाते थे। यह कार्य पश्यन्ती वाणी के सहारे होता था। वाणी के चार रूप होते हैं-परा यानि जिसे आकाश व्यापी ब्रह वाणी जो केवल सिद्ध संत महात्मा सुनते हैं, पश्यन्ति यानि नाभी चक्र में धड़कने वाला शब्द जो आज्ञा चक्र पर आत्मा की शक्ति से सुना जाता है और देखा भी जाता है, मध्यमा यानि हृदय क्षेत्र में स्पंदित शब्द और बैखरी यानि कंड से निकलने वाली वाणी जिसके सहारे में हम सब बोलते हैं। कामिल पूर्ण गुरू हमारे अंतर्मन में पश्यन्ती के रूप में बोलते हैं। गुरुदेव ने मुझ पर इतनी बड़ी कृपा क्यों की, मैं नहीं जानता, किंतु जिन दिनों आप मुझसे यह कार्य करवा रहे थे, उन दिनों ध्यान की खुमारी चढ़ी रहती थी। ध्यान में गीता, मौन में गीता, इबादत में गीता, सत्संग में गीता, अध्ययन में गीता और चिंतन में भी गीता ही व्याप्त रहती थी। बाहरी स्तर पर जीवन सामान्य रूप से चलता रहता था, लेकिन अंतर्मन में गुरु चेतना, गीता शास्त्र और भगवान वासुदेव श्री कृष्ण की परा चेतना धड़कती रहती थी।
हजरत मिश्रा जी ने भगवान श्री कृष्ण के दो बार दर्शन किए थे। उनके दीक्षा गुरू सूफी कलंदर बाबा बादामशाह की भी श्रीकृष्ण में अटूट निष्ठा थी। संभवत: इसीलिए पर्दा फरमाने के बाद भी आपने गीता के इस एक ही श्लोक की विराट व्याख्या वाला लोककल्याणकारी कार्य कराया है। इस पुस्तक में गुरुदेव ने कहा है कि मनुष्य मन का गुलाम है और गीता इस गुलामी से छूटने की बात करती है। आप कामनाओं के वश में हैं और गीमा इनसे मुक्त होने की राह दिखाती है। आप पर अहंकार हावी है, जबकि गीता इस अहंकार को जड़मूल से उखाड़ फैंकने की बात समझाती है। आप भोग की तरफ भागते हैं, गीता कर्मपथ पर दौड़ाती है। आप स्वर्ग के लिए ललचाते हैं और गीता आपको जन्म-मरण से छुटकारा दिलाने वाले परमधाम तक पहुंचाना चाहती है। इसलिए गीता से भागो मत, उसे अपनाओ, कर्मयोग से घबराओ मत, उसे स्वीकार करो। तुम मोक्षदायी कर्मयोग के पथ पर कदम तो रखो, भगवान स्वयं तुम्हें चलाना सिखा देंगे।
पुस्तक में गुरू महाराज ने कहा है कि मनुष्य को केवल कर्तव्य कर्म करने का अधिकार है। स्वैच्छाचारी कर्म उसका पतन करते हैं। यह पुस्तक अजमेर के अभिनव प्रकाशन ने प्रकाशित की है। इसके बाद नारी मुक्ति से संबंधित अगली पुस्तक में गुरूदेव गीता के ही आधे श्लोक की व्याख्या करा रहे हैं।
लेखक शिव शर्मा स्वभाव से दार्शनिक हैं और अजमेर के इतिहास के अच्छे जानकार हैं। इससे पहले वे अनेक पुस्तकें लिख चुके हैं। उनमें प्रमुख हैं-भाषा विज्ञान, हिंदी साहित्य का इतिहास, ऊषा हिंदी निबंध, केशव कृत रामचन्द्रिका, कनुप्रिया, चंद्रगुप्त, रस प्रक्रिया, भारतीय दर्शन, राजस्थान सामान्य ज्ञान, हमारे पूज्य गुरुदेव, पुष्कर: अध्यात्म और इतिहास, अपना अजमेर, अजमेर : इतिहास व पर्यटन, दशानन चरित, सदगुरू शरणम, मोक्ष का सत्य, गुरू भक्ति की कहानियां।
उनका संपर्क सूत्र है:-
101-सी-25, गली संख्या 29, नई बस्ती, रामगंज, अजमेर
मोबाइल नंबर- 9252270562

मंगलवार, मार्च 27, 2012

...इसलिए नहीं निभा पा रही भाजपा सशक्त विपक्ष की भूमिका


बहुदलीय प्रणाली और छोटे व क्षेत्रीय दलों का राष्ट्रीय राजनीति में दखल के चलते एक ओर जहां देश में कमजोर गठबंधन सरकारों का दौर चल रहा है, वहीं पार्टी विथ द डिफ्रेंस का विशेषण खोती भाजपा भी कमजोर विपक्ष साबित होती जा रही है। भले ही उसने कई मुद्दों पर कांग्रेस नीत सरकार को घेरने की कोशिश की हो और कुछ कामयाब भी रही हो, मगर यह उसकी कमजोरी का ही प्रमाण है कि काला धन, भ्रष्टाचार और लोकपाल बिल जैसे मुद्दों पर उसकी पकड़ नहीं होने के कारण ही बाबा रामदेव व अन्ना हजारे यकायक उभर कर आ गए हैं।
असल में परिवारवाद और भ्रष्टाचार की मिसाल बनी कांग्रेस की तुलना में भाजपा की अहमियत थी ही इस कारण कि उसमें आम लोगों को चरित्र व शुचिता नजर आती थी। संसद में भले ही वह संख्या बल में कमजोर रही, मगर उसके प्रति एक अलग ही सम्मान हुआ करता था। उसकी यह विशिष्ट पहचान तभी तक रही, जब तक कि वह लगातार विपक्ष में ही रही। जैसे ही उसने सत्ता का मजा चखा, उसी प्रकार के दुर्गुण उसमें भी आते गए, जैसे कि कांग्रेस में कूट-कूट कर भरे हुए थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के दौर में जिस प्रकार भाजपा ने अपने असली ऐजेंडे को साइड में रख कर ममता, जयललिता व माया से समझौते दर समझौते कर सरकार चलाई, उसकी अपनी मौलिक पहचान खोती चली गई। आज भले ही मनमोहन सिंह की सरकार गठबंधन की मजबूरी के लिए रेखांकित हो कर जानी जाने लगी है, मगर वाजपेयी भी कम मजबूर नहीं थे। अगर यह कहा जाए कि भाजपा सत्ता के साथ जुड़ी जरूरी बुराइयों का पता ही तब लगा, धरातल की राजनीति के आटे-दाल का भाव ही तब पता चला, जबकि उसने सत्ता को पाया तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। हिंदुत्व, स्वदेश व देश प्रेम की ऊंची व आदर्शपूर्ण बातें उसने विपक्ष में रहते तो बड़े जोर शोर से की और वह लोगों को अच्छी भी लगती थी, मगर जैसे ही भारतीय विमान यात्रियों को अपहरणकर्ताओं के चंगुल से छुड़ाने के लिए आतंवादियों को सौंपने जैसी हालत से गुजरना पड़ा, सबको पता लग गया कि उसे भी सत्ता में आने के बाद पूरा विश्व और उसकी व्यवस्था समझ में आ गई है। कदाचित इसी कारण उसे कट्टर हिंदूवाद से हट कर राजनीति करनी पड़ी और वही उसके लिए घातक हो गई। इंडिया शाइनिंग के नारे और मजबूत बनाम सशक्त प्रधानमंत्री के नारे के बाद भी जब सत्ता नहीं मिली तो उसके थिंक टैंकों को यह सोचने को मजबूर होना पड़ गया कि कहीं न कहीं मौलिक भूल हो रही है। एक ओर तो सत्ता के लिए धर्मनिरपेक्षता का लबादा ओढऩे की मजबूरी तो दूसरी ओर मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कान मरोडऩे के बीच उसे समझ में नहीं आ रहा कि वह आखिर कौन सा रास्ता अख्तियार करे। हालांकि अब भी वह संघ से ही संचालित होती है, मगर उसके भीतर दो वर्ग पैदा हो गए हैं। एक वे जो कट्टर हिंदूवादी हैं तो दूसरे वे जो नरमपंथी हैं। इन्हीं के बीच संघर्ष मचा हुआ है। यह ठीक वैसी स्थिति है, जैसी जनता पार्टी के दौर में थी, जब एक मौलिक वर्ग को अलग हो कर भारतीय जनता पार्टी बनानी पड़ी थी। आज दिल्ली से ले कर ठेठ नीचे तक असली और दूसरे दर्जे के नेता व कार्यकर्ता का संघर्ष चल रहा है।
इतना ही नहीं, एक और समस्या भी उसके लिए सिरदर्द बन गई है। कांग्रेस के परिवारवाद की आलोचना कर अपने अपने भीतर आंतरिक लोकतंत्र की दुहाई देने वाली भाजपा में राज्य स्तर पर व्यक्तिवाद उभर आया है। उसका सबसे ज्वलंत उदाहरण है कर्नाटक, जहां पार्टी को खड़ा करने वाले निवर्तमान मुख्यमंत्री येदियुरप्पा का कद पार्टी से भी बड़ा हो गया है। वो तो लोकायुक्त की रिपोर्ट का भारी दबाव था, वरना पार्टी के आदेश को तो वे साफ नकार ही चुके थे। हालांकि पार्टी की सर्वोच्च नीति निर्धारक इकाई संसदीय बोर्ड के एकमत से इस्तीफा देने के फैसले को मानने के लिए मजबूर हुए, मगर एक बार फिर सिर उठाने लगे हैं।
इसी प्रकार राजस्थान का मामला भी सर्वाधिक चर्चित रहा, जिसकी वजह से पार्टी की प्रदेश इकाई खूंटी पर लटकी नजर आई। यहां पार्टी आलाकमान के फैसले के बावजूद पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे ने नेता प्रतिपक्ष के पद से इस्तीफा देने से इंकार कर दिया था। बड़ी मुश्किल से उन्होंने पद छोड़ा, वह भी राष्ट्रीय महासचिव बनाने पर। उनके प्रभाव का आलम ये था कि तकरीबन एक साल तक नेता प्रतिपक्ष का पद खाली ही पड़ा रहा। आखिरकार पार्टी को झुकना पड़ा और फिर से उन्हें फिर से इस पद से नवाजा गया। ऐसे में भाजपा के इस मूलमंत्र कि 'व्यक्ति नहीं, संगठन बड़ा होता है, की धज्जियां उड़ गईं।
गुजरात, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, झारखण्ड, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और जम्मू-कश्मीर जैसे कई राज्य हैं, जहां के क्षत्रपों ने न सिर्फ पार्टी आलाकमान की आंख से आंख मिलाई, अपितु अपनी शर्तें भी मनवाईं। अफसोसनाक बात है कि उसके बाद भी पार्टी सर्वाधिक अनुशासित कहलाना चाहती है। आपको याद होगा कि दिल्ली में मदन लाल खुराना की जगह मुख्यमंत्री बने साहिब सिंह वर्मा ने हवाला मामले से खुराना के बरी होने के बाद उनके लिए मुख्यमंत्री पद की कुर्सी को छोडऩे से साफ इंकार कर दिया था। उत्तर प्रदेश में तो बगावत तक हुई। कल्याण सिंह से जब मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा लिया गया तो वे पार्टी से अलग हो गए और नई पार्टी बना कर भाजपा को भारी नुकसान पहुंचाया। मध्यप्रदेश में उमा भारती का मामला भी छिपा हुआ नहीं है। वे राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक में तत्कालीन अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी को खुद पर कार्रवाई की चुनौती देकर बैठक से बाहर निकल गई थीं। शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री बनाए जाने पर उन्होंने अलग पार्टी ही गठित कर ली। एक लंबे अरसे बाद उन्हें पार्टी में शामिल कर थूक कर चाटने का मुहावना चरितार्थ किया गया।
इसी प्रकार गुजरात में मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का कद आज इतना बड़ा हो चुका है कि पार्टी पर सांप्रदायिक होने का आरोप लगने के बाद भी हाईकमान में इतनी ताकत नहीं कि उन्हें कुछ कह सके। इसी प्रकार झारखण्ड में शिबू सोरेन की पार्टी से गठबंधन इच्छा नहीं होने के बावजदू अर्जुन मुण्डा की जिद के आगे भाजपा झुकी। इसी प्रकार जम्मू-कश्मीर में वरिष्ठ नेता चमन लाल गुप्ता का विधान परिषद चुनाव में कथित रूप से क्रास वोटिंग करना और महाराष्ट्र के वरिष्ठ भाजपा नेता गोपीनाथ मुंडे का दूसरी पार्टी में जाने की अफवाहें फैलाना भी पार्टी के लिए गंभीर विषय रहे हैं।
स्पष्ट है कि सिद्धांतों की दुहाई दे कर च्पार्टी विथ दि डिफ्रेंसज् का तमगा लगाए हुए भाजपा समझौता दर समझौता करने को मजबूर है। पार्टी की विचारधारा को धत्ता बताने वाले जसवंत सिंह व राम जेठमलानी को छिटक कर फिर से गले लगाना इसका साक्षात उदाहरण है।
पार्टी के मौजूदा अध्यक्ष नितिन गडकरी पर हालांकि संघ का पूरा वरदहस्त है, मगर वे भी बड़बोलेपन की वजह से पद की गरिमा कायम नहीं रख पाए हैं। गडकरी ने अपने बेटे की शादी को जिस शाही अंदाज से अंजाम दिया है, उससे यह साबित हो गया है कि पार्टी अब तथाकथित दकियानूसी आदर्शवाद के मार्ग का परित्याग कर चुकी है। गडकरी ने ही क्यों इससे पहले भाजपा नेता बलबीर पुंज व राजीव प्रताप रूड़ी भी इसी प्रकार के आलीशान भोज आयोजित कर पार्टी कल्चर के हो रहे रिनोवेशन का प्रदर्शन कर चुके हैं। राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के ठाठ कीकानाफूसी भी कम नहीं होती है।
कुल मिला कर ये सब कारण हैं, जिसकी वजह से भाजपा कमजोर हुई है और उसी कारण सशक्त विपक्ष की भूमिका नहीं निभा पा रही। भाजपा शासित राज्यों में हुए भ्रष्टाचार का परिणाम ये है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर वह कांग्रेस को घेरने में जब कामयाब नहीं हुई तो बाबा रामदेव व अन्ना के हाथ में ये मुद्दे आ गए। विपक्ष की सच्ची भूमिका नहीं निभा पाने का यह सबसे बड़ा उदाहरण है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

शनिवार, मार्च 24, 2012

अलग-अलग हैं शाहबाज लाल कलंदर व झूलेलाल?


जिस गीत दमा दम मस्त कलंदर को गा और सुन कर सिंधी ही नहीं, अन्य समुदाय के लोग भी झूम उठते है, उस पर यह सवाल आज भी मौजूं है उसका सिंधी समुदाय से कोई ताल्लुक है भी या नहीं? पाकिस्तान की मशहूर गायिका रेश्मा व बांग्लादेश की रूना लैला की जुबान से थिरक कर लोकप्रिय हुआ यह गीत किसकी महिमा या स्मृति में बना हुआ है, इसको लेकर विवाद है।
यह सच है कि आम तौर सिंधी समुदाय के लोग अपने विभिन्न धार्मिक व सामाजिक समारोहों में इसे अपने इष्ट देश झूलेलाल की प्रार्थना के रूप में गाते हैं, लेकिन भारतीय सिंधू सभा ने खोज-खबर कर दावा किया है कि यह गीत असल में हजरत कलंदर लाल शाहबाज की तारीफ में बना हुआ है, जिसका झूलेलाल से कोई ताल्लुक नहीं है। सभा ने एक पर्चा छाप कर भी इसका खुलासा किया है।
पर्चे में लिखा है कि यह गीत सिंधी समुदाय के लोग चेटीचंड व अन्य उत्सवों पर गाते हैं। आम धारणा है कि यह अमरलाल, उडेरालाल या झूलेलाल अवतार की प्रशंसा या प्रार्थना के लिए बना है। उल्लेखनीय बात है कि पूरे गीत में झूलेलाल से संदर्भित प्रसंगों का कोई जिक्र नहीं है, जैसा कि आम तौर पर किसी भी देवी-देवता की स्तुतियों, चालीसाओं व प्रार्थनाओं में हुआ करता है। सिर्फ झूलेलालण शब्द ही भ्रम पैदा करता है कि यह झूलेलाल पर बना हुआ है। असल में यह तराना पाकिस्तान स्थित सेहवण कस्बे के हजरत कलंदर लाल शाहबाज की करामात बताने के लिए बना है।
पर्चे में बताया गया है कि काफी कोशिशों के बाद भी कलंदर शाहबाज की जीवनी के बारे में कोई लिखित साहित्य नहीं मिलता। पाकिस्तान में छपी कुछ किताबों में कुछ जानकारियां मिली हैं। उनके अनुसार कलंदर लाल शाहबाज का असली नाम सैयद उस्मान मरुदी था। उनका निवास स्थान अफगानिस्तान के मरुद में था। उनका
जन्म 573 हिजरी यानि 1175 ईस्वी में हुआ। उनका बचपन मरुद में ही बीता। युवा अवस्था में वे हिंदुस्तान चले आए। सबसे पहले उन्होंने मंसूर की खिदमत की। उसके बाद बहाउवलदीन जकरिया मुल्तानी के पास गए। इसके बाद हिजरी 644 यानि 1246 ईस्वी में सेवहण पहुंचे। हिजरी 650 यानि 1252 ईस्वी में उनका इंतकाल हो गया। इस हिसाब से वे कुल छह साल तक सिंध में रहे।
कुछ किताओं के अनुसार आतताइयों के हमलों से तंग आ कर मुजाहिदीन की एक जमान तैयार हुई, जो तबलीगी इस्लाम का फर्ज अदा करती थी। उसमें कलंदरों का जिक्र आता था। आतताइयों में से विशेष रूप से चंगेज खान, हलाकु, तले और अन्य इस्लामी सुल्तानों पर चढ़ाई कर तबाही मचाई थी। इसमें मरिवि शहर का जिक्र भी है, जो शाहबाज कलंदर का शहर है। कलंदर शाह हमलों के कारण वहां से निकल कर हिंदुस्तान आए। वे मुल्तान से होते हुए 662 हिजरी में सेवहण आए और 673 में उनका वफात हुआ। यानि वे सेवहण में 11 साल से ज्यादा नहीं रहे। इस प्रकार उनके सेहवण में रहने की अवधि और वफात को लेकर मत भिन्नता है। पर्चे के अनुसार सेवहण शहर पुराना है। कई संस्कृतियों का संगम रहा। वहीं से सेवहाणी कल्चर निकल कर आया, जिसकी पहचान बेफिक्रों का कल्चर के रूप में थी। यह शहर धर्म परिवर्तन का भी खास मरकज रहा। इसी सिलसिले में बताया जाता है कि वहां एक सबसे बड़े शेख हुए उस्मान मरुंदी थे, जिन्हें लाल शाहबाज कलंदर के नाम से भी याद किया जाता है।
पर्चे में बताया गया है कि शाह कलंदर का आस्ताना सेवहण में जिस जगह है, वहां पहले शिव मंदिर था। वहां पर हर वक्त अलाव जलता रहता था, जिसे मुसलमान अली साईं का मच कहते थे। यह शहर जब सेवहण में शाह कलंदर का वफात हुआ तो हिंदुओं ने उनको अपने मुख्य मंदिर में दफन करने की इजाजत दी। बाद में वहां के पुजारी भी उनके मलंग हो गए। इस पर्चे के जरिए यह साबित करने की कोशिश की गई है कि कलंदर शाहबाज इस्लाम के प्रचारक थे। इसी को आधार बना कर सिंधी समुदाय को आगाह किया गया है कि भला इस्लाम के प्रचारक और धर्म परिवर्तन की खिलाफत करने वाले झूलेलाल एक कैसे हो सकते हैं। एक और शंका ये है कि यदि दोनों एक हैं तो इस गीत को केवल सिंधी ही क्यों गाते हैं, मुस्लिम क्यों नहीं? क्या इसकी वजह केवल इतनी है कि यह सिंधी भाषा में है?
अलबत्ता परचे में इसे जरूर स्वीकार किया गया है कि दमा दम मस्त कलंदर अकीदत से गाने से मुरादें पूरी होती हैं। आम धारणा है कि सात वर्ष की उम्र में उन्होंने कुरआन को जुबानी याद कर लिया था। यह भी पक्का है कि उनको अरबी व फारसी के साथ उर्दू जीनत जुबान भी बोलते थे। पूरी उम्र उन्होंने शादी नहीं की। उनके मन को जर और जमीन भी मैला नहीं कर पाए। अन्य दरवेश तो बादशाहों के नजराने कबूल कर लेते थे, मगर शाह कलंदर उस ओर आंख उठा कर भी नहीं देखते थे।
पर्चे में यह स्पष्ट नहीं है कि दमा दम मस्त कलंदर गीत में झूलेलालण शब्द कैसे शामिल हो गया, जिसकी वजह से सिंधी समुदाय के लोग इसे श्रद्धा के साथ गाते हैं। बहरहाल यह इतिहासविदों की खोज का विषय है कि शाहबाज कलंदर को झूलेलाल क्यों कहा गया है।
अजमेर में भी शाह कलंदर व झूलेलाल को लेकर असमंजस उभर चुका है। मौलाई कमेटी के कन्वीनर सैयद अब्दुल गनी गुर्देजी की ओर से पिछले तकरीबन 32 साल से हर साल चेटीचंड के मौके पर सिंधी समुदाय का हार्दिक अभिनंदन करने के लिए एक पर्चा जारी किया जाता है। इसमें वे लिखते हैं कि सिंधी समाज के आराध्यदेव झूलेलाल जी को ही मुसलमान सखी शाहबाज कलंदर या लाल शाहबाज कलंदर कहते हैं। गत 23 नवंबर 2004 को दैनिक भास्कर में छपी खबर के अनुसार जब इस सिलसिले में उनसे पूछा गया कि वे किस आधार पर दोनों को एक बताते हैं तो उनका कहना था कि उन्हें कोई जानकारी नहीं है कि दोनों में कोई फर्क है या गाने को लेकर कोई विवाद है। न ही किसी सिंधी भाई ने कभी ऐतराज किया। वे तो महज भाईचारे के लिए पर्चा छपवाते हैं। इसके बावजूद अगर वे पता कर पाए कि दोनों अलग-अलग हैं तो एक होने का जिक्र हटवा देंगे।

-तेजवानी गिरधर
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tejwanig@gmail.com

गुरुवार, मार्च 22, 2012

श्रीश्री इतने तो समझदार हैं ही कि कौन सी बात कहां कहनी है


आध्यात्मिक गुरू श्रीश्री रविशंकर लाखों श्रद्धालुओं की आस्था के केन्द्र हैं। बेवजह उनके प्रति असम्मान का भाव होने का सवाल ही नहीं उठता। मगर हाल ही उन्होंने एक ऐसा बयान दे दिया कि यकायक विवादास्पद हो गए। जब शिक्षक और सामाजिक संगठनों के अलावा जनप्रतिनिधियों ने उनके बयान को दुर्भाग्यपूर्ण करार दिया है, राजस्थान भर में में कई जगह श्रीश्री के पुतले फूंके गए और जयपुर में सांगानेर न्यायिक मजिस्ट्रेट कोर्ट में उनके खिलाफ इस्तगासा भी दायर किया गया, तो उन्हें सफाई देनी पड़ गई कि हम इतने मूर्ख भी नहीं जो ऐसा बयान दें। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने तो उनके बयान पर हैरानी जताते हुए कहा कि मुझे नहीं लगता कि कोई भी व्यक्ति संतुलित मस्तिष्क से ऐसी कोई बात कह सकता है। इस पर श्रीश्री ने दी सफाई मानसिक संतुलन बिगडऩे की बात कहने वाले मेरे बयान को दोबारा पढ़ें। हमने ये नक्सली क्षेत्रों के लिए कहा था। वहां कुछ रुग्ण विद्यालय हैं। उन विद्यालयों के निजीकरण पर मैंने जोर दिया है। मैं बहुत सोच-समझ कर बोलता हूं। हम इतने मूर्ख नहीं जो यह कहें कि सारे सरकारी स्कूलों में नक्सलवाद पैदा हो रहा है। श्रीश्री ने कहा कि जो क्षेत्र नक्सलवाद से ग्रस्त हैं, वहां सरकारी स्कूलों में पढ़े बच्चे अक्सर हिंसा से ग्रस्त पाए गए हैं। पूर्वांचल और यूपी के क्षेत्रों में ऐसा पाया गया। अच्छा है राजस्थान में नक्सली प्रभाव नहीं है।
श्रीश्री की सफाई से यह स्पष्ट है कि वे सही बात गलत जगह कह गए। राजस्थान में जब नक्सलवाद नाम की कोई चिडिय़ा है ही नहीं तो यहां नक्सल प्रभावित इलाकों की समस्या का जिक्र सार्वदेशिक रूप से करने पर तो हंगामा होना ही था। इतना पक्का है कि वे इतने भी मूर्ख नहीं कि देश की सारी सरकारी स्कूलों के बारे में ऐसा कह दें, मगर इतने समझदार तो हैं ही कि कौन सी बात कहां पर कहनी है। माना कि वे दीन दुनिया से दूर हैं और यह संतों की मौज है कि वे समाज के भले के लिए कुछ भी कह दें, मगर उन्हें अब तो समझ में आ ही गया होगा कि संदर्भहीन बात करना कितना भारी पड़ जाता है। बात न बात, बेबात का बतंगड़ हो गया।
वैसे एक बात है श्रीश्री का बयान में कुछ ज्यादा की अतिरेक हो गया, मगर यह भी कम सच नहीं कि सरकारी स्कूलों की पढ़ाई इतनी लचर हो गई है कि औरों की छोडिय़े खुद सरकारी स्कूलों के अध्यापकों तक के बच्चे महंगी प्राइवेट स्कूलों में पढ़ रहे हैं। उन्हें पता है कि उनके हमपेशा शिक्षक क्या पढ़ा रहे हैं। हालत ये है कि सरकारी स्कूल में बच्चे को वही पढ़ाता है, जो या तो गरीब है और या फिर जिसे अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा की कोई फिक्र नहीं। श्रीश्री रविशंकर के बयान पर तुरंत प्रतिक्रिया कर बवाल मचाने वाले शिक्षा कर्मियों के पास क्या इस बात का जवाब है कि बोर्ड परीक्षाओं व प्रतियोगी परीक्षाओं में सरकारी स्कूलों में पढ़े बच्चे फिसड्डी क्यों रह जाते हैं? हम भले की सरकारी स्कूलों के इन्फ्रास्ट्रक्चर की महत्ता जताने के लिए यह कह दें कि इनसे कई नेता, विद्वान, बड़े व्यापारी भी निकलते हैं, मगर सच यही है कि जब कभी किसी सरकारी स्कूल का बच्चा बोर्ड की मेरिट में स्थान पाता है तो वह उल्लेखनीय खबर बन जाती है। स्पष्ट है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ाई पर ठीक से ध्यान नहीं दिया जाता। चूंकि सरकार स्कूलों के शिक्षक संगठित हैं, इस कारण उन्होंने तौहीन होने पर तुरंत बवाल खड़ा कर दिया, मगर तब तौहीन नहीं लगती, जब अपने बच्चों को हरसंभव प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने की कोशिश करते हैं।
बहरहाल, जब सरकारी स्कूलों की बात चलती है तो वहां के हालात यकायक स्मृति में आ ही जाते हैं। स्कूलों की ही क्यों सरकारी नौकरी के कुछ और ही मजे हैं। इस बात पर एक एसएमएस याद आ गया। हमारे यहां सरकारी नौकरी का अजीबोगरीब हाल है। लोग अपने बच्चों को पढ़ाएंगे प्राइवेट स्कूल में, इलाज करवाएंगे प्राइवेट अस्पताल में, मगर नौकरी करेंगे सरकारी। सवाल उठता है क्यों? जवाब आपको पता ही है।

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

बुधवार, मार्च 21, 2012

ममता की दीदीगिरी से उठे क्षेत्रीय दलों के वजूद पर सवाल


हाल ही रेल बजट पेश करने के बाद उस पर बहस से पहले ही रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी को इस्तीफा देने पर मजबूर करने वाली ममता की दीदीगिरी लोकतंत्र में एक काले अध्याय के रूप में अंकित हो गया है। साथ ही इसने एक बड़ी बहस को जन्म दिया है कि देशभर में छोटे-छोटे उद्देश्यों के गठित छोटे-छोटे दलों के कुकुरमुत्तों की तरह उग आने के बाद हो रही लोकतांत्रिक दादागिरी का अंत कैसे हो पाएगा?
ऐसा नहीं है कि गठबंधन सरकार की मजबूरी को केवल मौजूदा मनमोहन सिंह की सरकार ने भोगा हो। पूर्व में अटल बिहारी वाजपेयी भी लगभग ऐसी ही मजबूर सरकार चला चुके हैं। तब वे भी आए दिन ममता बनर्जी, मायावती व जयललिता की दादागिरी के आगे झुक जाने को मजबूर हुए थे। बस फर्क इतना है कि मनमोहन सिंह सरकार कुछ ज्यादा की रेखांकित हो गई। उसमें भी ताजा प्रकरण ने पुख्ता तौर पर साबित कर दिया है छोटे अथवा क्षेत्रीय उद्देश्यों के लिए गठित दल किस प्रकार देश की सरकार की दिशा और दशा तय करने की भूमिका में आ गए हैं। उत्तर प्रदेश का चुनाव भी इसी की मिसाल है। वहां दो राष्ट्रीय दलों कांग्रेस व भाजपा को नकार कर जनता ने जातीय व क्षेत्रीय उद्देश्यों की खातिर एक क्षेत्रीय दल को नकार कर दूसरे क्षेत्रीय दल को चुन लिया, जिसे कि वह पहले गुंडाराज के कारण नकार चुकी थी। और अफसोसनाक बात ये है कि इन्हीं दो क्षेत्रीय दलों की बैसाखियों पर केन्द्र की सरकार चल रही है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की यह कैसी विडंबना है।
हम आज भले ही गठबंधन सरकारों की मजबूरियों को समझने के आदी हो गए हैं, मगर क्या यह दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है कि देश का रेल मंत्री कौन होगा, यह देश का प्रधानमंत्री नहीं बल्कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की तानाशाह तय करती है। यह केवल प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लिए शर्मनाक नहीं, बल्कि हम सबके लिए भी है। और अफसोस कि इसके बाद भी यदि हम अपने देश को सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश कह कर गौरवान्वित महसूस करते हैं। यह छद्म लोकतंत्र है। एक किस्म की तानाशाही ही है। इसे तानाशाही कहना इसलिए अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं कहेंगे क्योंकि ममता ने रेल बजट में संशोधन करवाने की लोकतांत्रिक प्रक्रिया अपनाने की बजाय उस रेल मंत्री को ही हटवा दिया, जिन्हें कि अब बहस में जवाब देने का मौका नहीं ही मिलेगा, जब कि बजट उन्होंने ही पेश किया है। त्रिया हठ देखिए कि उन्हें लोकतांत्रिक मर्यादाओं को कूड़े में डाल कर अपनी जिद पूरा करना ही ज्यादा जरूरी लगा। त्रिवेदी भले ही यह कह कर अपनी शाब्दिक जीत मान रहे हों कि देश का रेल बजट कोलकाता से नहीं बनता है, मगर कोलकाता ने साबित कर दिया कि रेल बजट क्या, देश की सरकार ही कोलकाता के इशारे पर चलती है।
तस्वीर कर दूसरा रुख ये है कि ममता भले ही अपनी जिद पूरी करवाने में कामयाब हो गई हों, मगर इससे यकीनन उनकी छवि खराब हुई है। कैसा विचित्र खेल हुआ कि आम आदमी सबसे बड़ी पैराकार ममता के विरोध और त्रिवेदी के इस्तीफे के बाद भी आम जनता में यह संदेश चला गया कि त्रिवेदी ने जो कुछ किया, देश हित के लिए किया, जबकि ममता ने जो कुछ किया, मनमानी की खातिर किया। इससे बड़ी बात क्या होगी कि रेलवे कर्मचारी तक ममता के खिलाफ खड़े हो गए। एक अर्थ में त्रिवेदी की यह शहादत उनके कद को और ऊंचा कर गई। आज उनके प्रति सहानुभूति को साफ तौर देखा जा सकता है, जब कि ममता जैसों को सबक सिखाने के लिए क्षेत्रीय दलों की भूमिका पर बड़ी बहस छिड़ चुकी है।
इस मौके पर कुछ राजनीतिज्ञ यह कह कर मनमोहन सिंह को ज्ञान पिला रहे हैं कि उन्हें इस मौके पर तो गठबंधन धर्म की जगह राजधर्म निभाना चाहिए था, चाहे ममता समर्थन वापस ले लेतीं। सरकार तो मुलायम सिंह की सपा को शामिल करके भी बचाई जा सकती थी। मगर उसका क्या जब सपा भी बाद में उसी तरह दादागिरी करती। फर्क क्या है? ये तो मनमोहन या कांग्रेस ही बेहतर जानते हैं कि सपा को सरकार में शामिल करने के लिए उन्हें अपनी आत्मा पर कितने पत्थर और रखने पड़ते।
लब्बोलुआब मनमोहन सिंह की अनेक मजबूरियों को देख चुके देश के सामने अब यक्ष सवाल उठ खड़ा हुआ है कि क्या अब भी हम इसी प्रकार क्षेत्रीय दलों के हाथों की कठपुतली बने रहना चाहते हैं? क्या देश की सरकान चुनते वक्त भी हम क्षेत्रीय जरूरतों के लिए बने संगठनों को ही तरजीह देते रहेंगे? क्या चुनाव आयोग प्रांतीय हितों के लिए गठित अथवा प्रांतों तक ही सीमित दलों की लोकसभा चुनाव में भागीदारी पर पुनर्विचार करने पर मंथन करेगा?

-तेजवानी गिरधर
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tejwanig@gmail.com

सोमवार, मार्च 19, 2012

उमा की विफलता के बाद भी संघ गडकरी के पक्ष में


हालांकि उत्तर प्रदेश में भाजपा की ओर से चुनावी कमान उमा भारती को सौंपने का राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी का निर्णय कारगर नहीं रहा, उसके बावजूद संघ अब भी यही चाहता है कि आगामी लोकसभा चुनाव उनके अध्यक्ष रहते ही हो। संघ इसी साल दिसंबर में उनका कार्यकाल समाप्त होने के बाद पुन: कमान सौंपने के मूड में है। हालांकि संघ की यह मंशा दिल्ली में बैठे कुछ दिग्गजों को रास नहीं आ रही, क्योंकि उन्हें अंदेशा है कि गडकरी ऐन वक्त पर प्रधानमंत्री पद की दावेदारी कर सकते हैं। इन दिग्गजों ने संगठन महामंत्री संजय जोशी को फिर से मौका दिए जाने पर भी ऐतराज जताया है।
अपन ने इसी कॉलम में लिख दिया था कि भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने उत्तरप्रदेश में कई दिग्गजों को हाशिये पर रख कर चुनाव की कमान उमा भारती को सौंप कर न केवल उनकी, अपितु अपनी भी प्रतिष्ठा दाव लगा दी है, फिर भी माना जा रहा है कि यदि उमा के प्रयासों से भाजपा को कोई खास सफलता नहीं मिली तो भी गडकरी का कुछ नहीं बिगड़ेगा।
असल में उमा को तरजीह दिए जाने से खफा नेता इसी बात का इंतजार कर रहे थे कि उत्तरप्रदेश का चुनाव परिणाम आने पर गडकरी को घेरा जाए। हाल ही जब नागपुर में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक में गडकरी को ही रिपीट करने की मंशा जताई गई तो दिग्गज भाजपा नेताओं अपनी असहमति जता दी। यही वजह रही कि इस मामले में फैसला सभी से चर्चा के बाद करने का निर्णय किया गया है।
वस्तुत: संघ यह नहीं मानता कि उत्तरप्रदेश में सफलता न मिलने की वजह उमा है। वह मानता है कि वहां आज भी जातीय समीकरणों की वजह से मतदाता केवल बसपा व सपा की पकड़ में है। हालांकि उमा को भी जातीय समीकरण के तहत कमान सौंपी गई, मगर मतदाता बसपा से सपा की ओर शिफ्ट हो गया है। यहां कि कांग्रेस के युवराज राहुल की धुंआधार सभाएं भी कुछ चमत्कार नहीं दिखा पाईं।
संघ आज भी गडकरी की कार्यशैली से संतुष्ठ है। हिन्दुत्व के लिए समर्पित संजय जोशी को तरजीह देने से हालांकि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी खफा हुए, इसके बावजूद संघ के कहने पर गडकरी ने उनको नजरअंदाज कर अपनी बहादुरी का प्रदर्शन किया है। संघ उनकी इसी कार्यशैली से खुश है। उनके पक्ष में ये बात जाती है कि उनके नेतृत्व में भाजपा ने बिहार में अच्छा प्रदर्शन किया। झारखंड में भाजपा की गठबंधन सरकार बनाने में कामयाबी हासिल की। भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा को हटाने जैसा साहसिक कदम उठाया। जम्मू-कश्मीर विधानसभा में क्रॉस वोटिंग करने वाले विधायकों को बाहर का रास्ता दिखाया।
संघ की सोच है कि आगामी लोकसभा चुनाव लड़ाने के लिए गडकरी के अतिरिक्त किसी और पर आम सहमति बनाना कठिन है। उन बनी हुई आम सहमति को न तो संघ छेडऩा चाहता है और न ही किसी नए को बनवा कर रिस्क लेना चाहता है। सच तो ये है कि आगामी चुनाव के लिए गडकरी ने पूरी तैयारी शुरू कर दी है। सर्वे सहित प्रचार अभियान को हाईटैक तरीके से अंजाम देने की तैयारी है। यह सब संघ के इशारे पर हो रहा है।
वस्तुत: संघ को यह समझ में आ गया है कि भाजपा को हिंदूवादी पार्टी के रूप में ही आगे रखने से लाभ होगा। लचीला रुख अपनाने की वजह से वह न तो मुसलमानों को ठीक से आकर्षित कर पाई और न ही जातिवाद में फंसे हिंदू को ही लामबंद कर पाई। बहरहाल, अब देखना ये है कि दिग्गज नेताओं का विरोध गडकरी को रिपीट करने पर संघ को रोक पाता है या नहीं।

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

शुक्रवार, मार्च 16, 2012

मैथ्यू साहब, केवल खबरों का खंडन ही होगा, कार्यवाही कौन करेगा?


मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के निर्देश पर हाल ही राजस्थान सरकार के मुख्य सचिव सी. के. मैथ्यू ने अब सभी विभागों को नकारात्मक खबरों का नियमित रूप से खंडन जारी करने के निर्देश दिए हैं। इसके लिए सभी विभागों में विभागाध्यक्ष अथवा वरिष्ठतम उप शासन सचिव को नोडल अधिकारी बनाया जा रहा है। सरकार का मानना है कि राज्य सरकार की रीति-नीति और कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के संबंध में नकारात्मक समाचार छपने से जनता में सरकार के बारे में गलत संदेश जाता है। साथ ही लोगों में भ्रम की स्थिति भी बनती है।
निश्चित रूप से यह जायज है कि यदि कोई समाचार गलत छपा है तो संबंधित पक्ष को उसका खंडन करना चाहिए अथवा अपना पक्ष रखना चाहिए। इससे कम से कम आम जनता दोनों पक्षों के तथ्य जानकार निर्णय तो कर सकेगी कि क्या सही है और क्या गलत। सरकार ने भले ही इसे अपनी छवि को सुधारने की गरज से लागू किया हो, मगर है यह स्वागत योग्य कदम। मगर अहम सवाल ये है कि सरकार को यदि अपने खिलाफ छप रही गलत या नकारात्मक खबरों से परेशानी है तो इस बात की चिंता क्यों नहीं कि आम जनता की समस्याओं से जुड़ी खबरों पर भी कार्यवाही उतनी ही मुस्तैदी से की जानी चाहिए। उसकी नजर इस बात पर तो है कि नकारात्मक खबर का खंडन करना है, मगर इस पर नहीं कि आखिर वह क्यों छपी है और उसका समाधान भी किया जाना चाहिए। सरकार ने नकारात्मक खबरों से निपटने के लिए जो कदम उठाया है, उसकी उसने कितनी पुख्ता व्यवस्था की है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मुख्य सचिव मैथ्यू ने जो परिपत्र जारी किया है, उसके तहत सभी विभागों को नकारात्मक समाचार के बारे में वस्तुस्थिति (खंडन) सीधे ही सूचना एवं जन संपर्क विभाग की वेबसाइट पर अपलोड करने होंगे। खबरों की जानकारी रोजाना सुबह 11 बजे तक सीएमओ, मुख्य सचिव अथवा डीपीआर की ओर से मोबाइल, एसएमएस अथवा टेलीफोन से संबंधित अतिरिक्त मुख्य सचिव, प्रमुख सचिव, विभागाध्यक्ष को दी जाएगी। दोपहर 12 बजे तक संबंधित विभागों को खबरों की कटिंग फैक्स अथवा ई-मेल से भेजी जाएंगी। संबंधित विभाग को शाम 4 बजे तक उस खबर से संबंधित वस्तुस्थिति और तथ्यात्मक टिप्पणी से ऑनलाइन न्यूज मॉनिटरिंग सिस्टम पर अपलोड करनी होगी। है न तगड़ी व्यवस्था। मगर अफसोस कि मुख्य सचिव को इस बात का ख्याल नहीं आया कि जो भी समाचार सरकार या सरकारी विभाग के खिलाफ छपते हैं, वे कोई हवाई तो होते नहीं हैं। यदि वाकई वे हवाई हैं तो उनका खंडन जायज है। मगर अमूमन समाचार वास्तविक समस्याओं से संबंधित होते हैं। वे छापे ही इस कारण जाते हैं कि सरकार का ध्यान उस ओर जाए, मगर उन पर कार्यवाही में सरकार कितनी गंभीरता दिखाती है, सब जानते हैं। बेहतर होता कि मैथ्यू साहब यह आदेश भी साथ ही जारी करते कि जनता की समस्याओं से संबंधित समाचार पर तुरंत कार्यवाही की जानी चाहिए और उससे उच्चाधिकारी को अवगत भी कराना चाहिए।
आपको ख्याल होगा कि एक जमाना था, जब किसी समाचार पत्र में कोई छोटी सी खबर भी छपती थी तो तुरंत कार्यवाही होती थी, मगर आज अखबार वाले पूरा पेज का पेज भी छाप देते हैं, मगर प्रशासन के कान पर जूं तक नहीं रेंगती। यह आम रवैया सा बन गया कि किसी भी खबर पर अधिकारी वर्ग की यही प्रतिक्रिया होती है कि खबरें तो यूं ही छपती ही रहती हैं। और यही वजह है कि समाचारों का अवलोकन करने के लिए सूचना केन्द्र से कटिंग का पुलिंदा जिला कलेक्टर के पास नियमित रूप से जाता है, मगर वह या तो खुलता ही नहीं और खुलता भी तो उस पर कोई कार्यवाही नहीं की जाती। कई बार तो अधिकारी किसी सरकारी खबर पर अपनी प्रतिक्रिया मांगने पर भी नहीं देते। मोबाइल फोन स्विच ऑफ कर देते हैं या फिर नो कमेंट कह कर फोन रख देते हैं। इसी कारण एक पक्षीय समाचार छप जाता है। हकीकत तो यह है कि पत्रकार दूसरे पक्ष को भी पूरा तवज्जो देते हैं। उन्हें इसी की शिक्षा दी गई है कि एकपक्षीय समाचार न छापे जाएं। फिर भी दोष अखबार वालों को दिया जाता है कि सरकार के खिलाफ खबरें छापते हैं। मैथ्यू साहब को इस पर भी गौर करना चाहिए कि अखबार वाले तो चला कर सरकार का पक्ष जानना चाहते हैं, आपके अधिकारी ही तवज्जो नहीं देते। अगर वे ऐसा करते तो इस प्रकार के आदेश ही जारी नहीं करने पड़ते कि खबर छपने के बाद उसका खंडन किया जाए। नकारात्मक खबर के साथ ही सरकार का भी पक्ष छप जाता। मगर चूंकि सरकार ने इस पर कभी गौर नहीं किया, इस कारण नौबत यहां तक आ गई है कि उसे खंडन करने की व्यवस्था कायम करनी पड़ रही है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

शनिवार, मार्च 10, 2012

छह दिन हफ्ता क्यों नहीं कर दिया जाए?

होली की छुट्टी के बाद सरकारी दफ्तर खुले और जिला कलेक्टर श्रीमती मंजू राजपाल ने आकस्मिक निरीक्षण किया तो पाया कि एडीएम व एसीएम समेत 67 कर्मचारी नदारद हैं। यह तो उस दफ्तर की हालत है, जहां स्वयं जिला कलेक्टर व अन्य बड़े प्रशासनिक अधिकारी बैठते हैं। उसके बावजूद कर्मचारी अपनी ड्यूटी के प्रति लापरवाह हैं। लापरवाही की पराकाष्ठा का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि मुख्य सचिव ने हाल ही में वीडियो कॉन्फ्रेंसिग में कार्मिकों के ऑफिस में समय पर पहुंचना सुनिश्चित करने के निर्देश देते हुए आकस्मिक निरीक्षण शुरू करने का अभियान शुरू करने को कहा था। उसकी भी कर्मचारियों को कोई चिंता नहीं थी। जिला कलेक्टर इस बात से भली भांति वाकिफ थीं, इस कारण सर्वप्रथम कलेक्टर परिसर के दफ्तरों पर ही कार्यवाही को अंजाम दिया और पाया कि राजपत्रित अधिकारीअतिरिक्त कलेक्टर मोहम्मद हनीफ, सहायक कलेक्टर भगवत सिंह राठौड़, प्रोटोकाल अधिकारी सुनीता डागा, लेखाधिकारी लालचंद मूंदड़ा व सहायक विधि परामर्शी हरीश कुमार शर्मा सहित 67 कर्मचारी सीट पर नहीं हैं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि अन्य सरकारी दफ्तरों का क्या हाल होगा।
असल में तीन साल से ज्यादा बीतने के बाद भी राज्य कर्मचारी पांच दिन के हफ्ते के साथ ड्यूटी समय बढ़ाए जाने के आदी नहीं हुए हैं। अधिसंख्य कर्मचारी पुराने ढर्रे पर ही दफ्तर आते हैं और शाम को भी जल्द ही बस्ता बांध लेते हैं। इससे आम लोगों को परेशानी होती है। यह परेशानी इस कारण भी बढ़ जाती है कि कई कर्मचारी छुट्टी के इन दो दिनों के साथ अन्य किसी सरकारी छुट्टी को मिला कर आगे-पीछे एक-दो दिन की छुट्टी ले लेते हैं और नतीजा ये रहता है कि उनके पास जिस सीट का चार्ज होता है, उसका काम ठप हो जाता है। अन्य कर्मचारी यह कह कर जनता को टरका देते हंै कि इस सीट का कर्मचारी जब आए तो उससे मिल लेना। यानि कि काम की रफ्तार काफी प्रभावित होती है।
कलेक्ट्रेट को छोड़ कर अधिकतर विभागों में पुराना ढर्रा चल रहा है। कलेक्ट्रेट में जरूर कुछ समय की पाबंदी नजर आती है, क्योंकि वहां पर राजनीतिज्ञों, सामाजिक संगठनों व मीडिया की नजर रहती है। आम जनता के मानस में भी आज तक सुबह दस से पांच बजे का समय ही अंकित है और वह दफ्तरों में इसी दौरान पहुंचती है। कोई इक्का-दुक्का ही होता है, जो कि सुबह साढ़े नौ बजे या शाम पांच के बाद छह बजे के दरम्यान पहुंचता है। यानि कि काम के जो घंटे बढ़ाए गए, उसका तो कोई मतलब ही नहीं निकला। बहुत जल्द ही उच्च अधिकारियों को यह समझ में आ गया कि छह दिन का हफ्ता ही ठीक था। इस बात को जानते हुए उच्च स्तर पर कवायद शुरू तो हुई और कर्मचारी नेताओं से भी चर्चा की गई, मगर यह सब अंदर ही अंदर चलता रहा। चर्चा कब अंजाम तक पहुंचेगी, कुछ कहा नहीं जा सकता।
ज्ञातव्य है कि पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे सरकार के जाते-जाते कर्मचारियों के वोट हासिल करने के लिए पांच दिन का हफ्ता कर गई थीं। चंद दिन बाद ही आम लोगों को अहसास हो गया कि यह निर्णय काफी तकलीफदेह है। लोगों को उम्मीद थी कि कांगे्रस सरकार इस फैसले को बदलेगी। उच्च स्तर पर बैठे अफसरों का भी यह अनुभव था कि पांच दिन का हफ्ता भले ही कर्मचारियों के लिए कुछ सुखद प्रतीत होता हो, मगर आम जनता के लिए यह असुविधाजन व कष्टकारक ही है। हालांकि अधिकारी वर्ग छह दिन का हफ्ता करने पर सहमत है, लेकिन इसे लागू करने पर कर्मचारियों के विरोध का सामना करना पड़ सकता है। वस्तुत: यह फैसला न तो आम जन की राय ले कर किया गया और न ही इस तरह की मांग कर्मचारी कर रहे थे। बिना किसी मांग के निर्णय को लागू करने से ही स्पष्ट था कि यह एक राजनीतिक फैसला था, जिसका फायदा तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे जल्द ही होने जा रहे विधानसभा चुनाव में उठाना चाहती थीं। उन्हें इल्म था कि कर्मचारियों की नाराजगी की वजह से ही पिछली गहलोत सरकार बेहतरीन काम करने के बावजूद धराशायी हो गई थी, इस कारण कर्मचारियों को खुश करके भारी मतों से जीता जा सकता है। हालांकि दुर्भाग्य से ऐसा हो नहीं पाया।
असल बात तो ये है कि जब वसुंधरा ने यह फैसला किया, तब खुद कर्मचारी वर्ग भी अचंभित था, क्योंकि उसकी मांग तो थी नहीं। वह समझ ही नहीं पाया कि यह फैसला अच्छा है या बुरा। हालांकि अधिकतर कर्मचारी सैद्धांतिक रूप से इस फैसले से कोई खास प्रसन्न नहीं हुए, मगर कोई भी कर्मचारी संगठन इसका विरोध नहीं कर पाया। रहा सवाल राजनीतिक दलों का तो भाजपाई इस कारण नहीं बोले क्योंकि उनकी ही सरकार थी और कांग्रेसी इसलिए नहीं बोले कि चलते रस्ते कर्मचारियों को नाराज क्यों किया जाए।
ऐसा नहीं कि लोग परेशान नहीं हैं, बेहद परेशान हैं, मगर बोल कोई नहीं रहा। कर्मचारी संगठनों के तो बोलने का सवाल ही नहीं उठता। राजनीतिक संगठन ऐसे पचड़ों में पड़ते नहीं हैं और सामाजिक व स्वयंसेवी संगठनों को क्या पड़ी है कि इस मामले में अपनी शक्ति जाया करें। ऐसे में जनता की आवाज दबी हुई पड़ी है। देखना ये है कि कांग्रेस सरकार आम लोगों के हित में फैसले को पलट पाती है या नहीं।
-tejwanig@gmail.com

शुक्रवार, मार्च 02, 2012

...यानि अब ट्रेफिक पुलिस की जेब ज्यादा गरम होगी


तकरीबन बाईस पुराने सेंट्रल मोटर वीइकल एक्ट में संशोधन के प्रस्तावित बिल को केंद्रीय कैबिनेट से मंजूरी मिलने के बाद एक ओर जहां यह उम्मीद की जा रही है कि इससे भारी अर्थ दंड से डर कर चालक ट्रेफिक नियमों की पालना के प्रति सजग होंगे, वहीं इस बात की भी आशंका है कि इससे ट्रेफिक पुलिस में पहले से व्याप्त भ्रष्टाचार और बढ़ जाएगा। दरअसल सरकार का सोच यह है कि जुर्माना कम होने के कारण चालक सुधरने का नाम ही नहीं ले रहे। वे ले दे कर छूटने कोशिश में रहते हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार करीब दो करोड़ लोगों ने पिछले साल ट्रैफिक नियमों को तोड़ा और जुर्माना भी चुकाया। अफसरों का कहना है कि जुर्माना राशि कम है। लोग नियम तोडऩे से नहीं डरते। ऐसे में सवाल यह है कि क्या वाकई में जुर्माना बढऩे के बाद लोग सुधर जाएंगे या हालात जस के तस बने रहेंगे। अक्सर यह देखने में आता है कि जिन नियमों के उल्लंघन में जुर्माने की राशि 100, 200 या 500 रुपये से ज्यादा है, उनमें जुर्माना भरने के बजाय मामला मौके पर ही निपटा लेने की कोशिशें की जाती हैं। यद्यपि आमतौर पर ये कोशिशें उल्लंघन करने वालों की तरफ से ही ज्यादा होती हैं, लेकिन कई ट्रैफिक पुलिसकर्मी भी मौके का फायदा उठाने से नहीं चूकते। ऐसे में जब जुर्माना बढ़ जाएगा, तो मामला मौके पर ही निपटा लेने की कोशिशें भी बढ़ जाएंगी। यह सही है कि ट्रेफिक पुलिस को यातायात सप्ताह के दौरान अपेक्षित लक्ष्य हासिल करने होते हैं, मगर लक्ष्य की पूर्ति के अतिरिक्त आम तौर पर घूसखोरी ही चलन में है। इसकी वजह ये है कि जहां नियम का उल्लंघन करने वाला नियमानुसार चुकाए जाने वाली राशि से कम दे कर छूट जाता है, इस कारण वह संतुष्ट रहता है, वहीं ट्रेफिक कर्मचारी को जेब गरम होने के कारण संतुष्ट होना ही है। यानि मियां बीवी राजी तो क्या करेगा काजी? चूना तो सरकार को ही लगता है। जब जुर्माना राशि बढ़ जाएगी तो स्वाभाविक रूप से घूसखोरी बढ़ जाएगी। यद्यपि इस आशंका भरी सोच को नकारात्मक माना जा सकता है, मगर जब तक घूसखोरी पर प्रभावी नियंत्रण नहीं लगाया जाएगा, जुर्माना बढ़ाए जाने मात्र से हालत सुधरने वाले नहीं हैं। सौ बात की एक बात। जुर्माना बढ़ाने का सीधा सा मतलब है कि चालक सुधर नहीं रहा है। सुधर नहीं रहा है, इसका मतलब ये नहीं कि वह गंवार है, अपितु वह अधिक चतुर है। चालक इसके प्रति इतने जागरूक नहीं है कि सारे नियम उनके हित की खातिर ही बने हैं, बल्कि वह इसके प्रति अधिक जागरूक है कि ट्रेफिक पुलिस से कैसे बचा जाए। चालक जानता है कि अमुक-अमुक जगह पर ट्रेफिक पुलिस वाला नहीं होगा, उन-उन जगहों पर वह हेलमेट उतार देता है, सीट बैल्ट खोल देता है। एक महत्वपूर्ण तथ्य ये है कि केवल नियम कड़े करने और दंड बढ़ाने से तब तक सकारत्मक परिणाम नहीं आएंगे, जब तक कि ट्रेफिक पुलिस के पास पर्याप्त संसाधन नहीं होंगे। हकीकत यही है कि संसाधनों की कमी के कारण ही नियमों का उल्लंघन होता है और दुर्घटनाएं होती हैं। रहा सवाल दुर्घटना में किसी की मृत्यु होने पर मुआवजा राशि चार गुना बढ़ाकर एक लाख रुपए करने की तो इसकी वजह से चालक दुर्घटना कारित कर किसी को मारेगा नहीं, ऐसा नहीं है, बल्कि महंगाई बढ़ जाने के कारण मौजूदा मुआवजा राशि ऊंट के मुंह में जीरे के समान है, इस कारण उसमें वृद्धि की गई है। लब्बोलुआब, दंड बढ़ाए जाने से कुछ तो फर्क की उम्मीद की जा सकती है, मगर इससे चालक जागरूक हो जाएगा, इसकी संभावना कुछ कम ही है। उलटे भ्रष्टाचार बढ़ जाएगा। इस सिलसिले में ओशो रजनीश की ओर से दिए गए उदाहरण को लीजिए- हमारे देश के एक मंत्री इंग्लैंड के दौरे पर गए। कड़ाके की ठंड थी। वे रात को करीब एक बजे किसी कार्यक्रम से होटल को लौट रहे थे। अचानक ड्राइवर ने कार रोक दी। मंत्री जी ने देखा कि चौराहे पर लाल बत्ती हो जाने के कारण कार रुकी है। उन्होंने जब यह देखा कि चौराहा पूरी तरह से सुनसान है तो ड्राइवर से बोले कि जब कोई वाहन व राहगीर नहीं है और उससे भी बढ़ कर ट्रेफिक पुलिस भी नहीं है तो कार रोकने का क्या मतलब है? इस पर ड्राइवर ने चौराहे पर एक ओर खड़ी ठंड में ठिठुर रही एक बुढिय़ा की ओर इशारा किया कि जो हरी लाइट होने का इंतजार कर रही थी तो मंत्री जी को समझ में आ गया कि हम भारतीय भले ही देशभक्ति की ऊंची ऊंची ढीगें हाकें, मगर राष्ट्रीयता और नियमों का पालन करने के मामले में अंग्रेज हमसे कई गुना बेहतर हैं। अफसोस कि अंग्रेज हमें अंग्रेजी तो सिखा गए, मगर एटीकेट्स और मैनर्स अपने साथ ले गए।
-tejwanig@gmail.com