तीसरी आंख
मंगलवार, फ़रवरी 28, 2012
मीडिया में छाने को ले रहे हैं आयोग से पंगा
उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव के दौरान चुनाव आयोग को नाराज करने के एक के बाद एक मामले सामने आने से दो ही बातें समझ में आती हैं, या तो कांग्रेस के नेता वाकई आचार संहिता को नहीं जानते और मासूम हैं अथवा संयोग से गलती कर रहे हैं और या फिर जानबूझ कर ऐसी बयानबाजी कर रहे हैं, ताकि आयोग नाराज हो और कांग्रेस मीडिया में चर्चा में बनी रहे। संभव है कि कानून मंत्री सलमान खुर्शीद, गृह राज्य मंत्री प्रकाश जायसवाल व बेनीप्रसाद शर्मा के पास बयान देने का ठोस तार्किक आधार हो अथवा अपने बयान को अलग संदर्भ में कह कर बचने की कोशिश करें, मगर उनका जो रवैया दिखाई दे रहा था, वह साफ तौर पर आयोग को चिढ़ाने जैसा ही था। वे आयोग पर ऐसे गुर्रा रहे थे मानो उन्हें उसका कोई डर ही नहीं है। असल बात तो यह नजर आती है कि उन्होंने इतनी अधिक सीमा लांघी कि आयोग को नोटिस देना ही पड़ा। उनके बयानों से यह कहीं से भी नहीं दिखाई देता कि उन्हें इस बात का अहसास ही नहीं था कि उनके बयान पर आयोग ऐतराज जाहिर करते हुए नोटिस दे देगा। कम से कम ऐसा तो कत्तई नहीं लगा कि उनसे गलती हो गई अथवा जुबान फिसल गई थी, ठोक बजा कर जो बयान दे रहे थे। बयान आचार संहिता का उल्लंघन कर रहे थे या नहीं, इस में नहीं पड़ें, तब भी होना जाना क्या है? फांसी तो होनी नहीं है। हद से हद यही कहना है कि उनका मकसद आचार संहिता का उल्लंघन करना नहीं था, वे आयोग का सम्मान करते हैं अथवा आयोग के सामने पेश हो कर खेद प्रकट कर देने से मामला रफा-दफा हो जाएगा। वैसे भी इस प्रकार की विवादास्पद बयानबाजी का मतलब चुनाव पूरे होने तक है। उसके बाद पूछता कौन है कि आपने ऐसा कैसे कह दिया? असल में ऐसा प्रतीत होता कि कांग्रेस की यह सोची समझी चाल है। वह चुनाव की सरगरमी के दौरान मीडिया को अपनी ओर आकर्षित करने की फिराक में है, ताकि वहीं छायी रहे। वह असल मुद्दों से जनता का ध्यान हटाना चाहती है साथ ही अपने मकसद में कामयाब भी होना चाहती है। मुस्लिम आरक्षण का ही मामला लीजिए। माना कि इस पर बाद में माफीनामे अथवा खेद प्रकट करने की स्थिति आती है, मगर जिस मकसद से बयान दिया वह तो मुसलमानों को कम्युनिकेट हो ही गया। आयोग लाख माफी मंगवा ले, मगर उसे डीकम्युनिकेट कैसे करवा पाएगा। तब तक तो वोट ही पड़ चुके होंगे। मुस्लिम आरक्षण के मुद्दे पर कांग्रेस के आला मंत्रियों ने चुनाव आयोग पर वार पर वार करने की योजना चल ही रही थी कि कांग्रेस युवराज राहुल गांधी ने कानपुर में जानबूझ कर रोड शो किया और पूरे 24 घंटे तक वे मीडिया की सुर्खियां बने रहे। इतना ही नहीं, राहुल का सपा का घोषणा पत्र फाडऩे वाला नाटक भी साफ तौर पर मीडिया में सुर्खी पाने के लिए था। इससे मीडिया ही नहीं, बल्कि राजनीतिक दल भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। जाहिर तौर पर इससे भाजपा को बड़ी तकलीफ हुई होगी। मीडिया में छाये रहने के गुर तो भाजपाइयों को ही आते हैं। इस मामले में उनका कोई सानी नहीं। मगर पहली बार कांग्रेस के इस प्रकार मीडिया पर बने रहने से भाजपाई सकते में हैं। इसी बीच आयोग को कमजोर करने का मुद्दा उभर आया। आयोग ने जब इस प्रकार की किसी भी कोशिश का नाकाम करने की बात कही तो सरकार की ओर से कहा गया कि ऐसा कोई विचार ही नहीं था। ऐसे में भाजपा के दिग्गज अरुण जेटली ने मोर्चा संभाला और कांग्रेस को सीरियल अपराधी करार दे दिया, मगर मीडिया ने उसे कोई खास तवज्जो नहीं दी। पूरा प्रकरण मीडिया मैनेजमेंट से जुड़ा हुआ नजर आया।
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रविवार, फ़रवरी 26, 2012
केजरीवाल ने की बुझते शोलों को हवा देने की कोशिश
टीम अन्ना के बुझते आंदोलन को हवा देने की खातिर अन्ना हजारे के खासमखास सिपहसालार अथवा यूं कहें कि अन्ना को कथित रूप से चाबी भरने वाले अरविंद केजरीवाल ने एक बार फिर गरमागरम बयान दे दिया है। यूपी विधानसभा चुनावों में स्वच्छ छवि वाले उम्मीदवारों को चुनने के लिए चलाए जा रहे जन जागृति अभियान के सिलसिले में केजरीवाल ने कहा कि संसद में हत्यारे और बलात्कारी बैठे हैं। लालू, मुलायम और राजा जैसे लोग संसद में बैठ कर देश का कानून बना रहे हैं। धन इकठ्ठा कर रहे हैं। इन लोगों से संसद को निजात दिलाने की जरूरत है। उन्होंने यहां तक कहा कि लुटेरे और बलात्कारी सहित सभी प्रकार के बुरे तत्व संसद पर कब्जा जमाए हुए हैं। पहली बार क्रीज से बाहर आ कर उन्होंने कहा कि भाजपा भी भ्रष्टाचार करने वालों में शामिल है। उसने मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक में भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के लिए कुछ भी नहीं किया।
असल में केजरीवाल को लग रहा है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ पूरे देश को खड़ा व एकजुट करने के तुरंत बाद भी यूपी विधानसभा चुनाव में उनकी टीम अप्रासंगिक सी हो गई है। वहां जातिवाद व संप्रदायवाद पूरी तरह से हावी हैं। हर पार्टी ने इसी आधार पर प्रत्याशियों का चयन किया है और जनता का रुख भी जातिवाद पर केन्द्रित हो गया है। ऐसे में चुनाव के बाद आंदोलन को फिर से जिंदा करने में काफी जोर आएगा। इसी कारण चुनावी सरगरमी के बीच आखिरी दौर में जानबूझ कर ऐसा बयान दिया है, ताकि राजनेताओं को मिर्ची लगे और वे प्रतिक्रिया में कुछ बोलें व फिर बहस की शुरुआत हो जाए। उनका पैंतरा काम भी आया। उनका गरमागरम बयान आते ही राजनीति भी गरम हुई। कांग्रेस ने केजरीवाल के इस बयान पर कड़ी आपत्ति दर्ज कराई है। कांग्रेस प्रवक्ता संजय निरूपम ने कहा कि हम मानते हैं कि संसद में आपराधिक पृष्ठभूमि के लोग हैं। इसका मतलब ये नहीं कि कोई भी संसद की गरिमा के खिलाफ जा कर बोले। यह संसद के विशेषाधिकार का हनन है। सपा के प्रदेश प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी ने कहा है कि उनका यह बयान अमर्यादित है। टीम अन्ना लगातार संसद के मर्यादा को चोट पहुंचा रही है। मुलायम सिंह का नाम इस संदर्भ में घसीटना बेतुका है। पार्टी इस संदर्भ में चर्चा के बाद कार्रवाई तय की करेगी। भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता ह्रदय नारायण दीक्षित ने कहा है कि केजरीवाल को इस तरह का बयान नहीं देना चाहिए था। संसद एक गरिमामयी स्थान है। सांसदों को जनता चुनकर भेजती है। ऐसे में उनको इस तरह की बात कहने का कोई अधिकार नहीं है। संसद की विशेषाधिकार समिति इस बात का संज्ञान लेकर कार्रवाई करेगी।
निरूपम के इस बयान से जाहिर तौर पर एक बार फिर यह बहस शुरू होगी कि टीम अन्ना संसद की गरिमा पर हमला कर रही है या फिर सांसदों पर। देखना ये होगा कि केजरीवाल की ओर से शांत से हो गए आंदोलन में डाले गए कंकड़ से कितने दिन तक तरंगें उठती हैं।
ममता शर्मा के बयान पर इतना बवाल क्यों?
राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष ममता शर्मा के बयान पर बवाल हो गया है। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए उन्होंने थूक कर चाटना ही बेहतर समझा, लिहाजा तुरंत बयान वापस भी ले लिया। ज्ञातव्य है कि ममता ने यह कहा था कि युवतियां युवकों की टिप्पणियों से न डरें, बल्कि सकारात्मक रूप में लें। लड़कों द्वारा कहे जाने वाले सेक्सी शब्द को नकारात्मक सोच लेकर बुरा नहीं माने। इसका मतलब सुंदरता है, आकर्षण है और एक्साइटमेंट है।
भारतीय संस्कृति की दृष्टि से मोटे तौर पर निरपेक्ष रूप में उनका बयान निहायत ही आपत्तिजनक प्रतीत होता है और इस बयान की जरूरत भी नहीं थी दिखती, मगर सवाल ये उठता है आखिर उन्होंने गलत क्या कह दिया? सीधी सी बात है कि उन्होंने उन्हीं लड़कियों को यह सीख देने की कोशिश की होगी, जिन्हें सेक्सी शब्द बाण झेलना पड़ता है। वे वही लड़कियां हैं, जो कि जानते-बूझते हुए भी इस प्रकार के वस्त्र पहनती हैं, ताकि वे सुंदर व सेक्सी दिखाई दें। जो पारंपरिक परिधान पहनती हैं या जिनके सिर पर पल्लू ढ़का होता है, उन लड़कियों को वैसे भी कोई लड़का सेक्सी कहने की हिमाकत नहीं कर पाता। अमूमन उन्हीं लड़कियों को ऐसी टिप्पणी का सामना करना पड़ता है, जो कि शरीर के अंगों को उभारने वाले वस्त्र पहनती हैं। अव्वल तो उन लड़कियों को ऐसी टिप्पणी से ऐतराज होना ही नहीं चाहिए, क्योंकि वे जानबूझ कर ऐसे वस्त्र पहनती हैं। सच तो ये है कि लड़कों को ऐसी टिप्पणी के लिए प्रेरित करने के लिए वे ही जिम्मेदार हैं। गर संस्कारित लड़की अपनी सहेलियों की देखादेखी में ऐसे वस्त्र पहन लेती है तो उसे जरूर अटपटा लगता होगा। संभव है ऐसी लड़कियों को ही ममता ने सीख देने की कोशिश की होगी। यदि ममता के मुंह से निकले बयान को जुबान फिसलना मानें तो यह साफ दिखता है कि उन्होंने लड़कियों को बिंदास बनने की प्रेरणा देने की कोशिश की, जैसी कि वे खुद हैं। बस गलती ये हो गई कि उन्होंने बयान गलत तरीके से दे दिया।
रहा सवाल ममता के बयान का विरोध होने का तो वह स्वाभाविक ही है। जिस देश में नारी की पूजा की परंपरा हो, वहां ऐसे बयान से बवाल होना ही है। जैसे ही बवाल हुआ तो ममता को अपना बयान वापस भी लेना पड़ गया, क्योंकि वे एक ऐसे पद पर बैठी हैं, जिस पर रह कर ऐसा निम्नस्तरीय बयान कत्तई शोभाजनक नहीं माना जा सकता। वे इस पद पर नहीं होतीं तो कदाचित यह उनका निजी विचार मान लिया जाता।
खैर, इन सवालों के बीच एक सवाल ये भी उठता है कि जिन प्रबुद्ध महिलाओं, सामाजिक संगठनों व राजनीतिक संगठनों को ममता के बयान पर घोर आपत्ति है और उनका खून खौल उठा है, उन्हें सेक्सी कपड़े पहनने वाली लड़कियों को देख कर भी ऐतराज होता है या नहीं? जिन्हें ममता के इस बयान में लड़कियों को पाश्चात्य संस्कृति की ओर ले जाने का आभास होता है, उन्हें क्या सच में पाश्चात्य संस्कृति की ओर भाग रही लड़कियों पर भी तनिक अफसोस होता है। चारों ओर से शोर मचा कर उन्होंने भले ही ममता को बयान वापस लेने को मजबूर कर दिया हो, मगर क्या कभी अंगों को उभारने वाले वस्त्र पहनने वाली बहन-बेटियों को भी वे सादगी के वस्त्र पहनने को मजबूर कर पाएंगे। बयान तो बयान है, वापस हो गया, मगर क्या अंग प्रदर्शन करने वाले कपड़े पहनने वाली लड़कियों व पुरुषों के वस्त्र जींस व टी शर्ट पहनने वाली युवतियों को हम वापस भारतीय परिवेश में ला पाएंगे? अगर नहीं तो हम कोरी बयानबाजी ही करते रहेंगे, आरोप-प्रत्यारोप ही लगाते रहेंगे और हमारी लड़कियां पाश्चात्य संस्कृति की ओर सरपट दौड़ती चली जाएंगी।
शुक्रवार, फ़रवरी 24, 2012
वसुंधरा जी, आप ही बता दीजिए वे दिग्गज कांग्रेसी कौन हैं?
प्रतिपक्ष की नेता श्रीमती वसुन्धरा राजे ने बाड़मेर जिले के कोलू (बायतू) में जसनाथ महाराज के भव्य मन्दिर के प्राण प्रतिष्ठा समारोह में मुख्य अतिथि पद से बोलते हुए फिर हुंकार भरी कि भंवरी मामले में सीबीआई छोटे नेताओं की तो जांच कर रही है, मगर कांग्रेस के बड़े-बड़े दिग्गजों पर हाथ नहीं डाल रही। सीबीआई का इस्तेमाल कांग्रेस लोगों को डराने, धमकाने और परेशान करने में कर रही है, ताकि वे सहम कर कांग्रेस के नेताओं का आधिपत्य स्वीकार कर लें, लेकिन उनका ये सपना कभी साकार नहीं होगा। उन्होंने यहां तक पूछा कि भंवरी मामले में सीबीआई की जांच मारवाड़ के इर्द-गिर्द ही क्यों हो रही है, बाकी के कांग्रेसी दिग्गजों को क्यों जांच से बाहर रखा गया है, जबकि उनके नाम चर्चाओं में हैं। सवाल ये उठता है कि अगर सीबीआई को दिग्गजों के नाम पता नहीं हैं या फिर वह जानबूझ कर उन पर हाथ नहीं डाल रही तो खुद वसुंधरा दिग्गजों नाम क्यों नहीं उजागर कर देतीं। जब से यह मामला उजागर हुआ है, वे लगातार पिटा हुआ रिकार्ड प्लेयर चला रही हैं। बीच-बीच में गायब हो जाती हैं और जब भी आती हैं तो वही राग अलापने लगती हैं। यदि यह मान भी लिया जाए कि सीबीआई तो कांग्रेस सरकार के हाथों में खेल रही है, मगर वसुंधरा जी पर तो किसी का दबाव नहीं है। वे तो पूरी तरह से स्वतंत्र हैं। माना कि सरकार चलाने की जिम्मेदारी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की है, मगर नेता प्रतिपक्ष होने के नाते उनकी भी आखिरकार बड़ी जिम्मेदारी है। वह भी तब जब कि वे आगामी संभावित भाजपा सरकार की मुख्यमंत्री बनने जा रही हैं। असल में नेता प्रतिपक्ष होने के नाते उनकी जिम्मेदारी ज्यादा की बनती है कि यदि सरकार किसी मामले को दबा रही है तो वे उसे उजागर करें। मात्र कुछ अज्ञात दिग्गजों का जिक्र कर सरकार पर हमला करने की बजाय उन्हें बाकायदा नाम लेकर बताना चाहिए कि भंवरी मामले में और कौन शामिल हैं। केवल शोशेबाजी करने से क्या लाभ? ऐसी शोशेबाजी कर जनता को उद्वेलित करना जन भावनाओं से खेलने की संज्ञा में आता है। यदि उन्हें पता है और उनके पास सबूत हैं तो एक अर्थ में जानकारी छिपाने का कानूनी अपराध वे भी कर रही हैं। इस मामले में एक दिलचस्प बात ये भी है कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भी कह चुके हैं कि वे तो नियमानुसार कार्यवाही कर रहे हैं, मगर वसुंधरा ज्यादा नहीं बोलें, उनकी पार्टी के लोगों पर भी आंच आ सकती है। इसका मतलब ये निकलता है कि उन्हें पता है कि कौन-कौन से भाजपा नेता इस मामले में लिप्त हैं। यह दीगर बात है कि पुख्ता सबूत के अभाव में सरकार उन पर हाथ नहीं डाल पा रही। वैसे बताते ये हैं कि सीबीआई को जो सीडियां मिली हैं, उनमें अनेक नेता व बड़े अधिकारी भी संदिग्ध अवस्था में दिखाई दे रहे हैं। इसके बावजूद आरोप कुछ ही नेताओं पर मढ़े गए हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि मुख्यमंत्री गहलोत व वसुंधरा नूरा कुश्ती खेल रहे हैं। अपने गिरेबां में भी झांकें श्रीमती वसुंधरा ने मन्दिर के प्राण प्रतिष्ठा समारोह में यह भी कहा कि सरकार 3 साल तो जनता के बीच से गायब रही, अब जब उसे पता चला कि चुनाव आने वाले हैं और हमारा लोगों के दु:ख-दर्द सुनने का सिलसिला जारी है तो सरकार की नींद खुल गई और उसने फरमान जारी कर दिया कि सभी मंत्री 3 दिन दौरा करें। तीनों दिन मुख्यमंत्री का विरोध हुआ। जनता ने पूछ लिया 3 साल गायब थे, अचानक जनता की कैसे याद आ गई। सवाल ये उठता है क्या वे खुद पूरे तीन साल जनता के बीच रहीं। पूरा प्रदेश जानता है कि वे यदा-कदा अचानक गायब हो जाती हैं। कई बार तो उनके निजी समर्थकों तक को पता नहीं लग पाता कि वे कहां हैं। राजनीति पर नजर रखने वाले दिग्गज पत्रकार तक ये कहते हैं कि पिछले तीन साल में राज्य की राजनीति में ज्यादा सक्रिय नहीं रही हैं। विधानसभा में भी वे सिर्फ उपस्थिति दर्ज करवाती हैं। ऐसे में उन्हें सरकार से तीन साल गायब रहने पर सवाल करने का अधिकार है या नहीं, यह जनता पर ही छोड़ दिया जाना चाहिए। ऐसा प्रतीत होता है कि वे अगली मुख्यमंत्री बनने की खुशफहमी में जी रही हैं। खुद उनके पार्टी संगठन व संघ से संबंध कुछ खास अच्छे नहीं हैं फिर भी प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष चंद्रभान के हवाले से मान रही हैं कि कांग्रेस 50 सीटों पर ही सिमट जायेगी। यानि कि भाजपा अपने दम पर सरकार में नहीं आ रही, वे तो कांग्रेस का रायता ढुलने का इंतजार कर रही हैं। हो सकता है बिल्ली के भाग्य का छींका टूट ही जाए।
बुधवार, फ़रवरी 15, 2012
अन्ना के जमाने में भी यूपी चुनाव पर हावी है जातिवाद
चंद रोज पहले पूरा देश अन्ना हजारे के साथ ऐसा खड़ा था, मानों वह अब देश की तस्वीर बदल कर ही दम लेगा। युवा बाहुओं में बड़ा जोश-खरोश था। पिज्जा-बर्गर संस्कृति में डूबी युवा पीढ़ी की मु_ियां देश को एक नई आजादी के लिए तनी हुई थीं। मगर जैसे ही चुनावी बुखार आया, अन्ना का बुखार उतर गया। चाहे चौपाल पर हो या टीवी पर, जातिवाद व तुष्टिकरण जैसे मुद्दे ही हावी हो गए हैं।
इसमें कोई दोराय नहीं कि पिछले दिनों अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार के मुद्दे को इतना उभार दिया था कि कुछ और दिखाई ही नहीं दे रहा था। अन्ना को भी लग रहा था कि वे राजनीतिक दलों विशेष रूप से कांग्रेस को उत्तरप्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य के विधानसभा चुनाव में प्रचार की चेतावनी दे कर अपनी पसंद का लोकपाल बिल पारित करवा लेंगे। इसी कारण उन्होंने बार-बार धमकी भरे लहजे में हुंकार भरी। मगर हुआ ये कि दिल्ली के जंतर-मंतर की तुलना में मुंबई का धरना टांय-टांय फिस्स हो गया और उन्हें स्वास्थ्य कारणों अथवा अथवा अन्य वजहों से अपना आंदोलन वापस लेना पड़ा। ऐसा नहीं है कि आमजन में मन में भ्रष्टाचार के खिलाफ आग नहीं है अथवा बुझ गई है या धीमी पड़ गई है, मगर अन्ना आंदोलन के तुरंत बाद आए उत्तर प्रदेश के चुनाव में अन्ना फैक्टर कहीं नजर नहीं आ रहा है। राजनीतिक दलों की ओर से भ्रष्टाचार एक हथियार के रूप में जरूर इस्तेमाल किया जा रहा है। विकास का मुद्दा भी जुबानी जमा-खर्च में खूब काम आ रहा है, मगर धरातल का सच ये है कि वहां संप्रदायवाद व जातिवाद पूरी तरह से हावी है। मीडिया के लाख चिल्लाने के बाद भी माफिया व बाहुबलियों का आत्मविश्वास डगमगाया नहीं है। प्रिंट और इलैक्ट्रॉनिक मीडिया पर यह बात आती तो है कि जब बिहार जैसा पिछड़ा राज्य विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ सकता है तो राजनीति में सबसे अग्रणी राज्य उत्तरप्रदेश क्यों नहीं, मगर सच्चाई ये है कि आज भी पूरी राजनीति केवल जातिवाद पर केन्द्रित हो गई है। हालत ये है कि जातिवाद में भी अनुसूचित जातियों के बीच वर्ग भेद खुल कर सामने आने लगा है। हर दल येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतने के लिए साम-दाम-दंड-भेद की नीति अपना रहा है। सभी दलों ने प्रत्याशियों का चयन जातिवाद के आधार पर ही किया है और खींचतान भी हिंदू-मुस्लिम व अगड़े-पिछड़े पर हो रही है। तुष्टिकरण की नीति के आरोप अपने कांधे पर लेकर चल रही कांग्रेस तो मुस्लिमों के वोट खींचने के लिए एडी चोटी का जोर लगा ही रही है, राष्ट्रवाद का तमगा लिए घूमती भाजपा भी जातीय समीकरणों के खेल में उमा भारती पर दाव खेल रही है। वे उनके उग्र हिंदूवादी चेहरे का भी जम कर इस्तेमाल कर रही है। सपा-बसपा के अपने-अपने वोट बैंक हैं और मूल प्रतिस्पद्र्धा भी उन दोनों में ही है, मगर कांग्रेस व भाजपा में दोनों से आगे निकलने की छटपटाहट कुछ ज्यादा ही है। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी पूरे प्रदेश में घूम-घूम कर भले ही विकास करवाने व उत्तरप्रदेश की तस्वीर बदलने के नाम पर वोट मांग रहे हैं, मगर कानून मंत्री सलमान खुर्शीद का उदाहरण सबसे ज्वलंत है, जो यह साबित करता है कि चुनाव में लोकपाल, काला धन, सुशासन और विकास से कहीं अधिक महत्व रखता है धर्म व जाति का वोट बैंक। कांग्रेस के परंपरागत अनुसूचित जाति वोट पर सपा व बसपा का कब्जा होने के कारण कांग्रेस को ज्यादा उम्मीद मुस्लिम वोट बैंक से है। यदि विकास की बात हो भी रही तो राज्य के समग्र विकास की बजाय विभिन्न पिछड़ी जातियों व मुसलमानों के उत्थान पर केन्द्रित है।
लब्बोलुआब, सवाल ये है कि आज का दौर जब अन्ना का दौर कहला रहा है और उन्हें दूसरी आजादी के लिए महात्मा गांधी के रूप में स्थापित करने की कोशिश की जा रही है तो आखिर वजह क्या है कि चुनाव आते ही हम हम सब कुछ भूल कर जातिवाद पर आ गए हैं? ऐसा प्रतीत होता है कि विकास, भ्रष्टाचार व सुशासन जैसे हमारे दिमाग में आंदोलन जरूर पैदा कर रहे हैं, मगर हमारे दिलों में अब भी जातिवाद का ही बोलबाला है। और हम जज्बाती हिंदुस्तानी अपनी फितरत के मुताबिक दिमाग की बजाय दिल की ज्यादा सुनते हैं। अन्ना जैसे आंदोलन हमें प्रभावित तो करते हैं, मगर उनकी पैठ दिल तक नहीं हो पाती।
इसके विपरीत अन्ना की आग में अब भी तपिश महसूस करने वालों का तर्क है कि उन्हीं की वजह से आज राजनीतिक वर्ग में भय की भावना उत्पन्न हुई है। वे कहते हैं कि ये अन्ना के आंदोलन का ही असर था कि मायावती को अपनी छवि सुधारने की खातिर अनेक मंत्रियों को रुखसत करना पड़ा। कुछ इसी तरह मुलायम सिंह के बेटे अखिलेश यादव ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के डॉन डी पी यादव को समाजवादी पार्टी में शामिल करने से इनकार कर दिया। कांग्रेस ने भी आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों से कुछ बचने की कोशिश की है। कुछ इसी प्रकार भाजपा को भी बाबूसिंह कुशवाहा को निगलने के बाद फिर उगलना पड़ा। अन्ना वादियों का मानना है कि अन्ना फैक्टर के कारण ही छह माह पूर्व भाजपा को उत्तराखंड में चुनाव से पहले अपना मुख्यमंत्री बदलने को बाध्य होना पड़ा।
कुल मिला कर उत्तरप्रदेश का चुनाव पूरी तरह से असमंजस से भरा है। सारे मुद्दे गड्ड मड्ड हो चुके हैं। ऊपर कुछ और नजर आता है और अंडर करंट कुछ और माना जा रहा है। ऐसे में इतना तय है कि भले ही अन्ना फैक्टर को गिनाने के लिए आंका जाए, मगर प्रभावित करने वाले मुद्दे जातिवाद, धन बल व बाहुबल साबित होंगे।
सोमवार, फ़रवरी 06, 2012
उमा की बदजुबानी : कभी अभिशाप तो कभी वरदान
राजनीति के भी अजीबोगरीब रंग हैं। नेताओं का जो गुण-अवगुण कभी संकट उत्पन्न करता है, वहीं कभी सुविधा भी बन जाता है। मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री सुश्री उमा भारती को ही लीजिए। उनके लिए जो बदजुबानी कभी अभिशाप बन गई थी, वही आज उनके लिए वरदान साबित हो रही है। सर्वविदित है कि बदजुबान मिजाज के चलते अनुशासन की सीमा लांघने पर उन्हें भाजपा से बाहर होना पड़ रहा था, मगर उसी बदजुबानी को अस्त्र के रूप में इस्तेमाल करते हुए भाजपा ने उन्हें उत्तरप्रदेश में सुश्री मायावती से भिडऩे के लिए भेज दिया है। जब उन्हें पार्टी ने वापस लिया था तो थूक कर काटने की संज्ञा दी गई थी, मगर आज वही बेहद उपयोगी लग रही हैं। पार्टी को उम्मीद है कि उसका यह प्रयोग कामयाब होगा।
ऐसा नहीं है कि पार्टी के पास उत्तरप्रदेश में नेताओं की कमी रही है या कमी है। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का राजनीतिक कार्यक्षेत्र उत्तरप्रदेश ही रहा है। हालांकि अब वे वृद्धावस्था के कारण अस्वस्थ हैं। इसी प्रकार पूर्व भाजपा अध्यक्ष व पूर्व केंद्रीय मंत्री मुरली मनोहर जोशी भी उत्तरप्रदेश से ही हैं। इसी राज्य से सांसद पूर्व भाजपा अध्यक्ष राजनाथसिंह कोई कमजोर नेता नहीं हैं। इसी प्रकार लाल जी टंडन तथा कलराज मिश्र का नाम भी कोई छोटा नहीं है। फेहरिश्त और भी लंबी है। केसरी नाथ त्रिपाठी, महंत अवैधनाथ, स्वामी चिन्मयानंद, आदित्यनाथ योगी, विनय कटियार जैसे नेताओं का भी दबदबा रहा है। यहां तक कि भाजपा के धुर विरोधी नेहरु खानदान के एक वश्ंाज वरुण गांधी भी वहीं फुफकारते हैं। इतना ही नहीं, पार्टी के मातृ संगठन आरएसएस से जुड़े रज्जू भैया व अशोक सिंघल भी यहीं से निकल कर आए हैं। इतने सारे नेताओं के बावजूद आखिर क्या वजह है कि पार्टी को उमा भारती को बाहर से मैदान में लाना पड़ा।
ये वही उमा भारती हैं, जिन्होंने अपने पिता तुल्य लालकृष्ण आडवाणी के बारे में अशिष्ट भाषा का इस्तेमाल किया और पार्टी से बाहर हो गर्इं। मजे की बात है कि उन्हीं आडवाणी ने उनको पार्टी में लाने की पैरवी की। उमा वही बागी नेता है, जिसने भारतीय जन शक्ति पार्टी बनाई और मध्यप्रदेश में सभी सीटों पर टक्कर देने की कोशिश की, मगर खुद ही धराशायी हो गईं। उमा के लिए भी राजनीति में जिंदा रहने का कोई रास्ता नहीं बचा था और भाजपा को भी उनके जातीय आधार का उपयोग करने की जरूरत महसूस हुई। ऐसे में उनकी वापसी हो गई। जब उन्हें उत्तरप्रदेश भेजे जाने का निर्णय हुआ तो किसी के समझ में नहीं आया कि ऐसा क्यों किया गया। सभी यही सोच रहे थे कि यह एक सजा है। पार्टी अपना मध्यप्रदेश का सेटअप खराब करना नहीं चाहती। साथ ही लोधी जाति से होने के कारण कदाचित कुछ काम भी आ गईं तो ठीक, वरना वहीं खप जाएंगी। मगर आज स्थिति ये है कि वे भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री पद की दावेदार मानी जा रही हैं।
सवाल ये उठता है कि आखिर क्या वजह है कि बदमिजाज, अनुशासनहीन, बेकाबू और बगावत कर चुकी नेता को मध्यप्रदेश से ला कर यहां तैनात किय गया। उसकी एक वजह भले ही जातीय आधार हो मगर कुछ विश्लेषकों का मानना है कि उन्हें मुंहफट मायावती से मुकाबला करने के लिहाज से ही वहां लगाया गया है। भाजपा के पास इकलौती वे ही नेता हैं जो मायावती को उन्हीं के अंदाज में जवाब देने की सामथ्र्य रखती हैं। बाकी के सब नेता आजमाए जा चुके हैं और लगभग पिटे हुए से हैं। उनसे सानी रखने वाला फायर ब्रांड नेता कोई नहीं है। उनका घोर भगवा स्वरूप हिंदू वोटों को लामबंद रखने में उपयोगी है। भाजपा का प्रयोग तनिक सफल भी होता नजर आ रहा है। माना जाता है कि उनका उपयोग कल्याण सिंह का मुकाबला करने के लिए भी किया गया है।
कुल मिला कर स्थिति अब ये है कि धीरे-धीरे उन्होंने अच्छी पकड़ बना ली है। उन्हें मुख्यमंत्री पद की दावेदार तक माना जाने लगा है। समझा जा सकता है मुख्यमंत्री पद की लालसा लिए अन्य नेताओं पर क्या गुजर रही होगी, मगर उमा अब काफी आगे निकल चुकी हैं। भारी उतार-चढ़ाव देख चुकीं उमा को देख कर तो यही समझ में आता है कि राजनीति में कब क्या हो जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। और साथ ही वही अवगुण जो कि परेशानी पैदा करता है, कभी काम में भी आ जाता है। पार्टी के लिहाज से देखा जाए तो सभी किस्म के नेता उपयोगी होते हैं। इसका दूसरा उदाहरण हैं मध्यप्रदेश के ही पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह, जो मुंहफट होने के कारण कई बार कांग्रेस हाईकमान के लिए परेशानी पैदा करते हैं, तो वही बड़बोलापन संघ, अन्ना हजारे व बाबा रामदेव के खिलाफ अभियान में काम में लिया जाता है।
शनिवार, फ़रवरी 04, 2012
चलते रस्ते पंगा ले लिया अमीन खां ने
राजस्थान के वक्फ एवं अल्पसंख्यक मामलात के मंत्री अमीन खां ने गत दिवस अजमेर में चलते रस्ते पंगा मोल ले लिया। उनका मकसद और मंशा जो भी रही हो, जिसकी कि वे दुहाई देते नहीं थक रहे, मगर वह आम मुसलमान को तो नागवार गुजर रहा है। एक के बाद एक मुस्लिम संगठन उनके पीछे हाथ धो कर खड़े हो गए हैं।
असल में उन्होंने बयान दिया था कि जहां नमाज नहीं, वो मस्जिद नहीं। यह बयान देते ही तुरंत विरोध शुरू हो गया। कुछ लोग इस्लाम विरोधी एवं विवादित बयान पर अमीन खां के खिलाफ आलीमे दीन से शरिअत की रोशनी में फतवा मंगवाने की तैयारी कर रहे हैं। उनके बारे में राय बन रही है कि ऐसे नेता लोग मुसलमान तो होते हैं और उसी हैसियत से सियासत भी करते हैं, लैकिन मजहबी मालूमात की तंगदस्ती की वजह से इस तरह के बयान देकर मजहबी जज्बात को ठेस पहुंचा कर सियासत करते हैं। कांग्रेस विचारधारा के मुसलमानों ने इसे इस रूप में लिया है कि कांग्रेस से मुसलमानों के भटकने की वजह है, अमीन खां जैसे मुस्लिमों को तरजीह, जो मजहबी मामलात में जो मुहं में आता है बक देते हैं। महज चुनाव जीत लेना इस बात की जमानत नहीं है कि वे समाज में सर्वोपरि हैं।
इस मसले पर इस्लाम को जानने वाले मानते हैं कि मुसलमानों का मजहबी निजाम कानूने शरिअत, हदीसे नबवी, और मुकद्दस कुरआन के मुताबिक चलता है और इन मुकद्दस किताबों के हवाले से यह स्पष्ट है कि जो इमारत एक बार मस्जिद बन गई वो कयामत तक मस्जिद ही रहेगी, उसकी हैसियत कोई नही मिटा सकता। अल्लाह कुरआन में फरमाता है कि कुरआन और इबादतगाहों की हिफाजत ताकयामत हम करेंगे।
आम मुसलमान की तकलीफ ये है भी कि मस्जिदों के बारे में इस तरह की बयानबाजी से उन साम्प्रदायिक लोगों को बल मिलेगा, जिनका वजूद मस्जिद और मंदिर की राजनीति पर टिका हुआ है, जो हर लम्हा इसी जद्दोजहद में रहते हैं कि कैसे इन विवादित मुद्दों को छेड़ कर माहौल गर्माया जाए। वे इस तरह के बयानों को वह अन्य स्थानों पर नजीर के रूप में पेश करते हैं।
यहां उल्लेखनीय है कि इससे पूर्व अमीन खां राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटील के बारे में ऊलजलूल टिप्पणी के कारण मंत्री पद गंवा चुके हैं। तब उनकी कुर्सी जाने का मुस्लिम जमात को काफी मलाल था। उसी को खुश करने के लिए उन्हें फिर से मंत्री बनाया गया। आज वही मुस्मिम जमात उनसे खफा नजर आती है।
बहरहाल, अमीन खां की भले ही जुबान फिसली हो और उनका असल मकसद वो न हो, जो कि उनके बयान में दिखा रहा है, मगर अजमेर जैसे सांप्रदायिक सद्भाव वाले स्थल के साथ-साथ अति संवेदनशील शहर में ऐसी बयानबाजी करके उन्होंने एक नई बहस को जन्म दे दिया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह और तीर्थराज पुष्कर की बदौलत दुनियाभर में सांप्रदायिक सौहाद्र्र की मिसाल के रूप में जानी जानी वाली यह ऐतिहासिक नगरी विचलित नहीं होगी।
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