तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

मंगलवार, दिसंबर 27, 2011

वसुंधरा पर एकमत नहीं भाजपाई

प्रदेश में कांग्रेस सरकार की विफलता की दुहाई दे कर आने वाले चुनाव में सत्ता पर काबिज होने को आतुर भाजपा नेतृतव को लेकर अभी असमंजस में ही प्रतीत होती है। एक ओर जहां भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी और पूर्व उप प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी बिलकुल खुले शब्दों में कह रहे हैं कि आगामी विधानसभा चुनाव में पार्टी वसुंधरा राजे के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ा जाएगए, वहीं दूसरी ओर संघ लॉबी से जुड़े पूर्व मंत्री गुलाब चंद कटारिया इस बात को पूरी तरह से नकार रहे हैं। हाल ही उन्होंने एक सार्वजनिक बयान में कह दिया कि पार्टी ने अब तक यह तय नहीं किया है कि अगर भाजपा सत्ता में आई तो कौन मुख्यमंत्री होगा। उनका कहना था कि भाजपा विधायक दल ही तय करेगा कि किसे नेता के रूप में चुना जाए। इससे यह स्पष्ट हो गया है कि भले ही गडकरी व आडवाणी किसी राष्ट्रीय समीकरण के तहत वसुंधरा के पक्ष में हैं, मगर राज्य स्तर पर अब भी वसुंधरा के प्रति एकराय नहीं है।
ऐसा प्रतीत होता है कि यद्यपि गडकरी व आडवाणी को भलीभांति पता है कि वसुंधरा को लेकर राज्य में पार्टी के नेता एकमत नहीं हैं, बावजूद इसके उन्होंने जानबूझकर वसुंधरा पर हाथ रख दिया, ताकि यह पता लग सके कि उनका विरोध कितना है? अव्वल तो उनके बयान का कोई खुले तौर पर विरोध करने की हिमाकत नहीं करेगा और यदि बवाल होता भी है तो वे यह कह कर पैंतरा बदलने की कोशिश करेंगे कि उनकी नजर में वसुंधरा की लोकप्रियता काफी है, इस कारण उन्होंने उनके बारे में निजी राय दी थी, वैसे पार्टी मंच पर ही तय होगा कि विधायक दल का नेता कौन होगा?
सच्चाई ये है कि भाजपा की भले ही पार्टी स्तर पर वसुंधरा को ही स्वीकार करने की कोई मजबूरी हो, मगर पार्टी के मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को वसुंधरा फूटी आंख नहीं सुहा रही। चूंकि संघ खुले में कोई बयान जारी नहीं करता, इस कारण उसने अपने एक सिपहसालार पूर्व मंत्री गुलाब चंद कटारिया के मुंह से यह कहलवा दिया ताकि यदि गडकरी या आडवाणी को कोई गलतफहमी हो तो वह दूर हो जाए। हालांकि इतना तय है कि दोनों नेताओं को कोई गलतफहमी नहीं होगी, और यह भी तय है कि संघ भी जानता है कि दोनों नेताओं ने गलतफहमी में ऐसा नहीं कहा है, जानबूझकर कहा है, मगर कटारिया के जरिए यह इशारा करवा दिया है कि वसुंधरा के बारे में इस प्रकार के बयान देने से गड़बड़ होगी।
असल में पिछले दिनों जब आडवाणी अजमेर में आम सभा में खुल कर बोल गए तो वसुंधरा विरोधी खेमे को बड़ी भारी तकलीफ हुई, मगर पार्टी अनुशासन के कारण कोई कुछ नहीं बोला। जब बात कुछ ठंडी पड़ी तो कटारिया ने बयान जारी कर वसुंधरा खेमे में खलबली मचा दी है। ऐसा नहीं कि वसुंधरा को इसका अनुमान नहीं कि एक खेमा उन पर सहमत नहीं है। वे जानती हैं। मगर साथ वे इस बात से भी आश्वस्त हैं कि उनके मुकाबले का दूसरा कोई नेता सामने आने वाला नहीं है। वस्तुत: पार्टी में है भी नहीं। पार्टी को उनका चेहरा सामने रख कर ही चुनाव लडऩा होगा। उधर संघ भी जनता है कि चेहरा तो वसुंधरा का ही होगा, मगर उन्हें पूरी स्वच्छंदता नहीं दी जा सकती। इसी कारण कटारिया के जरिये इशारा कर दिया ताकि वे दबाव में रहें और टिकट वितरण के समय संघ को उसका जायज कोटा देने पर आनाकानी न करें। साथ ही मुख्यमंत्री बनने पर संघ खेमे के विधायकों के साथ भेदभाव न बरतें। इसके पीछे सोच यही है कि वसुंधरा भले ही कितनी भी लोकप्रिय क्यों न हों, धरातल पर संघनिष्ठ कार्यकर्ताओं की मेहनत से ही पार्टी को वोट मिलते हैं। इसी के बिना पर अपनी अहमियत किसी भी सूरत में खत्म नहीं होने देना चाहता।
वैसे एक बात है, ताजा घटनाक्रम के चलते विशेष रूप से विधानसभा टिकट के वसुंधरा खेमे के दावेदारों का मनोबल ऊंचा हुआ है। उधर चतुर्वेदी खेमे के दावेदारों को लग रहा है कि चतुर्वेदी के साथ-साथ वसुंधरा का देवरा भी ढोकना पड़ेगा। खुद चतुर्वेदी लॉबी के नेता भी दावेदारों से कहने लगे हैं कि वसुंधरा से भी थोड़ा लाइजनिंग बना कर चलो।
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शुक्रवार, दिसंबर 16, 2011

अभिव्यक्ति के नाम पर भड़ास की छूट दे दी जाए?


इन दिनों सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर लगाम कसे जाने की खबर पर हंगामा मचा हुआ है। खासकर बुद्धिजीवियों में अंतहीन बहस छिड़ी हुई है। लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की दुहाई देते हुए जहां कई लोग इसे संविधान की मूल भावना के विपरीत और तानाशाही की संज्ञा दे रहे हैं, वहीं कुछ लोग अभिव्यक्ति की आजादी के बहाने चाहे जिस का चरित्र हनन करने और अश्लीलता की हदें पार किए जाने पर नियंत्रण पर जोर दे रहे हैं।
यह सर्वविदित ही है कि इन दिनों हमारे देश में इंटरनेट व सोशल नेटवर्किंग साइट्स का चलन बढ़ रहा है। आम तौर पर प्रिंट और इलैक्ट्रॉनिक मीडिया पर जो सामग्री प्रतिबंधित है अथवा शिष्टाचार के नाते नहीं दिखाई जाती, वह इन साइट्स पर धड़ल्ले से उजागर हो रही है। किसी भी प्रकार का नियंत्रण न होने के कारण जायज-नाजायज आईडी के जरिए जिसके मन जो कुछ आता है, वह इन साइट्स पर जारी कर अपनी कुंठा शांत कर रहा है। अश्लील चित्र और वीडियो तो चलन में हैं ही, धार्मिक उन्माद फैलाने वाली सामग्री भी पसरती जा रही है। राजनीति और नेताओं के प्रति उपजती नफरत के चलते सोनिया गांधी, राजीव गांधी, मनमोहन सिंह, कपिल सिब्बल, दिग्विजय सिंह सहित अनेक नेताओं के बारे में शिष्टाचार की सारी सीमाएं पार करने वाली टिप्पणियां और चित्र भी धड़ल्ले से डाले जा रहे हैं। प्रतिस्पद्र्धात्मक छींटाकशी का शौक इस कदर बढ़ गया है कि कुछ लोग अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के बारे में भी टिप्पणियां करने से नहीं चूक रहे। ऐसे में केन्द्रीय दूरसंचार और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री कपिल सिब्बल ने जैसे ही यह कहा कि उनका मंत्रालय इंटरनेट में लोगों की छवि खराब करने वाली सामग्री पर रोक लगाने की व्यवस्था विकसित कर रहा है और सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स से आपत्तिजनक सामग्री को हटाने के लिए एक नियामक व्यवस्था बना रहा है तो बवाल हो गया। इसे तुरंत इसी अर्थ में लिया गया कि वे सोनिया व मनमोहन सिंह के बारे में आपत्तिजनक सामग्री हटाने के मकसद से ऐसा कर रहे हैं। एक न्यूज चैनल ने तो बाकायदा न्यूज फ्लैश में इसे ही हाइलाइट करना शुरू कर दिया, हालांकि दो मिनट बाद ही उसने संशोधन किया कि सिब्बल ने दोनों का नाम लेकर आपत्तिजनक सामग्री हटाने की बात नहीं कही है।
बहरहाल, सिब्बल के इस कदम की देशभर में आलोचना शुरू हो गई। बुद्धिजीवी इसे अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश के रूप में परिभाषित करने लगे, वहीं मौके का फायदा उठा कर विपक्ष ने इसे आपातकाल का आगाज बताना शुरू कर दिया। हालांकि सिब्बल ने स्पष्ट किया कि सरकार का मीडिया पर सेंसर लगाने का कोई इरादा नहीं है। सरकार ने ऐसी वेबसाइट्स से संबंधित सभी पक्षों से बातचीत की है और उनसे इस तरह की सामग्री पर काबू पाने के लिए अपने पर खुद निगरानी रखने का अनुरोध किया, लेकिन सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स के संचालकों ने इस बारे में कोई ठोस जवाब नहीं दिया। उनका तर्क ये था कि साइट्स के यूजर्स के इतने अधिक हैं कि ऐसी सामग्री को हटाना बेहद मुश्किल काम है। अलबत्ता ये आश्वासन जरूर दिया कि जानकारी में आते ही आपत्तिजनक सामग्री को हटा दिया जाएगा।
जहां तक अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल है, मोटे तौर पर यह सही है कि ऐसे नियंत्रण से लोकतंत्र प्रभावित होगा। इसकी आड़ में सरकार अपने खिलाफ चला जा रहे अभियान को कुचलने की कोशिश कर सकती है, जो कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए घातक होगा। लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या अभिव्यक्ति की आजादी के मायने यह हैं कि फेसबुक, ट्विटर, गूगल, याहू और यू-ट्यूब जैसी वेबसाइट्स पर लोगों की धार्मिक भावनाओं, विचारों और व्यक्तिगत भावना से खेलने तथा अश्लील तस्वीरें पोस्ट करने की छूट दे दी जाए? व्यक्ति विशेष के प्रति अमर्यादित टिप्पणियां और अश्लील फोटो जारी करने दिए जाएं? किसी के खिलाफ भड़ास निकालने की खुली आजादी दे दी जाए? सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर इन दिनों जो कुछ हो रहा है, क्या उसे अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर स्वीकार कर लिया जाये?
चूंकि ऐसी स्वच्छंदता पर काबू पाने का काम सरकार के ही जिम्मे है, इस कारण जैसे ही नियंत्रण की बात आई, उसने राजनीतिक लबादा ओढ लिया। राजनीतिक दृष्टिकोण से हट कर भी बात करें तो यह सवाल तो उठता ही है कि क्या हमारा सामाजिक परिवेश और संस्कृति ऐसी अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर आ रही अपसंस्कृति को स्वीकार करने को राजी है? माना कि इंटरनेट के जरिए सोशल नेटवर्किंग के फैलते जाल में दुनिया सिमटती जा रही है और इसके अनेक फायदे भी हैं, मगर यह भी कम सच नहीं है कि इसका नशा बच्चे, बूढ़े और खासकर युवाओं के ऊपर इस कदर चढ़ चुका है कि वह मर्यादाओं की सीमाएं लांघने लगा है। अश्लीलता व अपराध का बढ़ता मायाजाल अपसंस्कृति को खुलेआम बढ़ावा दे रहा है। जवान तो क्या, बूढ़े भी पोर्न मसाले के दीवाने होने लगे हैं। इतना ही नहीं फर्जी आर्थिक आकर्षण के जरिए धोखाधड़ी का गोरखधंधा भी खूब फल-फूल रहा है। साइबर क्राइम होने की खबरें हम आए दिन देख-सुन रहे हैं। जिन देशों के लोग इंटरनेट का उपयोग अरसे से कर रहे हैं, वे तो अलबत्ता सावधान हैं, मगर हम भारतीय मानसिक रूप से इतने सशक्त नहीं हैं। ऐसे में हमें सतर्क रहना होगा। सोशल नेटवर्किंग की  सकारात्मकता के बीच ज्यादा प्रतिशत में बढ़ रही नकारात्मकता से कैसे निपटा जाए, इस पर गौर करना होगा।
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गुरुवार, दिसंबर 08, 2011

खुद के गिरेबां में भी झांके टीम अन्ना

इसमें कोई दोराय नहीं है कि आर्थिक आपाधापी और भ्रष्ट राजनीति के कारण भ्रष्टाचार के तांडव से त्रस्त देशवासियों की टीम अन्ना के प्रति अगाध आस्था और विश्वास उत्पन्न हुआ है और आम आदमी को उनसे बड़ी उम्मीदें हैं, मगर टीम के कुछ सदस्यों को लेकर उठे विवादों से तनिक चिंता की लकीरें भी खिंच गई हैं। हालांकि कहने को यह बेहद आसान है कि सरकार जवाबी हमले के बतौर टीम अन्ना को बदनाम करने के लिए विवाद उत्पन्न कर रही है, और यह बात आसानी से गले उतर भी रही है, मगर मात्र इतना कह कर टीम अन्ना के लिए बेपरवाह होना नुकसानदेह भी हो सकता है। इसमें महत्वपूर्ण ये नहीं है कि किन्हीं विवादों के कारण टीम अन्ना के सदस्य बदनाम हो रहे हैं, बल्कि ये महत्वपूर्ण है कि विवादों के कारण भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़ा हुआ आंदोलन प्रभावित हो सकता है। आंदोलन के नेता भले ही अन्ना हजारे हों, मगर यह आंदोलन अन्ना का नहीं, बल्कि जनता का है। यह वो जनता है, जिसमें भ्रष्टाचार के खिलाफ गुस्सा है और उसे अन्ना जैसा नेता मिल गया है, इस कारण वह उसके साथ जुड़ गई है।
वस्तुत: जब से टीम अन्ना का आंदोलन तेज हुआ है, उसके अनेक सदस्यों को विवादों में उलझाने की कोशिशें हुई हैं। पुराने मामलों को खोद-खोद कर बाहर निकाला जा रहा है। साफ तौर पर यह बदले की भावना से की गई कार्यवाही प्रतीत होती है। लेकिन इसका ये मतलब भी नहीं है कि टीम अन्ना पर लगे आरोप पूरी तरह से निराधार हैं। जरूर कुछ न कुछ तो बात है ही। अरविंद केजरीवाल के मामले को ही लीजिए। यह सवाल जरूर वाजिब है कि उन पर बकाया की याद कई साल बाद और आंदोलन के वक्त की कैसे आई, मगर यह भी सही है कि केजरीवाल कहीं न कहीं गलत तो थे ही। और यही वजह है कि उन्होंने चाहे अपने मित्रों से ही सही, मगर बकाया चुकाया ही है। इसी प्रकार किरण बेदी पर हो आरोप लगा, वह भी आंदोलन में सक्रिय भागीदारी का प्रतिफल है, मगर उससे भी कहीं न कहीं ये बात तो उठी ही है कि किरण बेदी ने कुछ तो चूक की ही है, वरना उन्हें राशि लौटने की बात क्यों कहनी पड़ती। प्रशांत भूषण का विवाद तो साफ तौर पर आ बैल मुझे मार वाली कहावत चरितार्थ करता है। लोकतंत्र में हर व्यक्ति को अपना विचार रखने की आजादी है, मगर एक ओर जब पूरा देश टीम अन्ना को आदर्श मान कर आंदोलनरत थी, तब प्रशांत भूषण का कश्मीर के बारे में निजी विचार जाहिर करना बेमानी था ही, टीम अन्ना को मुश्किल में डालने वाला था। जाहिर तौर पर आज यदि प्रशांत भूषण को पूरा देश जान रहा है तो उसकी वजह है टीम अन्ना का आंदोलन, ऐसे में टीम अन्ना के प्रमुख प्रतिनिधि का निजी विचार अनावश्यक रूप से पूरी टीम के लिए दिक्कत का कारण बन गया। उससे भी बड़ी बात ये है कि यदि किसी एक सदस्य के कारण आंदोलन पर थोड़ा भी असर पड़ता है, तो यह ठीक नहीं है। अत: बेहतर ये ही होगा भी वे पूरा ध्यान आंदोलन पर ही केन्द्रित करें, उसे भटकाने वालों को कोई मौका न दें।
वस्तुत: टीम अन्ना के सदस्यों को यह सोचना होगा कि आज वे पूरे देश के एक आइडल के रूप में देखे जा रहे हैं, उनका व्यक्तित्व सार्वजनिक है, तो उन्हें अपनी निजी जीवन को भी पूरी तरह से साफ-सुथरा रखना होगा। लोग उनकी बारीक से बारीक बात पर भी नजर रख रहे हैं, अत: उन्हें अपने आचरण में पूरी सावधानी बरतनी होगी। जब उनका एक नार पूरे देश को आंदोलित कर देता है तो उनकी निजी बात भी चर्चा की विषय हो जाती है। टीम के मुखिया अन्ना हजारे को ही लीजिए। हालांकि वे मूल रूप से अभी जनलोकपाल बिल के लिए आंदोलन कर रहे हैं, मगर उनके प्रति विश्वास इतना अधिक है कि देश के हर ज्वलंत मुद्दे पर उनकी राय जानने को पूरा देश आतुर रहता है। तभी तो जैसे ही केन्द्रीय मंत्री शरद पवार को एक युवक ने थप्पड़ मारा तो रालेगणसिद्धी में मौजूद मीडिया ने उनकी प्रतिक्रिया भी जानने की कोशिश की। बेहतर तो ये होता कि वे इस पर टिप्पणी ही नहीं करते और टिप्पणी करना जरूरी ही लग रहा था तो इस घटना का निंदा भर कर देते, मगर अति उत्साह और कदाचित सरकार के प्रति नाराजगी के भाव के कारण उनके मुंह से यकायक ये निकल गया कि बस एक ही थप्पड़। हालांकि तुरंत बाद उन्होंने बयान को सुधारा, मगर चंद दिन बाद ही फिर पलटे और उसे जायज ठहराने की कोशिश करते हुए नए गांधीवाद की रचना करने लगे। उन्हें ख्याल में रखना चाहिए कि आज यदि वे पूज्य हो गए हैं तो उसकी वजह ये है कि उन्होंने गांधीवाद का सहारा लिया। विचारणीय है कि आज जब अन्ना हजारे एक आदर्श पुरुष और प्रकाश पुंज की तरह से देखे जा रहे हैं तो उनकी हर छोटी से छोटी बात को आम आदमी बड़े गौर से सुनता है। ऐसे में उनका एक-एक वाक्य सधा हुआ होना ही चाहिए। देखिए न, चंद लफ्जों ने कैसे अन्ना को परेशानी में डाल दिया। अव्वल तो उन्हें पहले केवल लोकपाल बिल पर ही ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। यदि सभी राष्ट्रीय मुद्दों और घटनाओं पर भी अपनी राय थोपने का ठेका लेंगे तो आंदोलन गलत दिशा में भटक सकता है।
बहरहाल, इन सारी बातों के बाद भी जहां तक आंदोलन का सवाल है, वह जिस पवित्र उद्देश्य को लेकर हो रहा है, उसके प्रति जनता पूरी तरह से समर्पित है, मगर टीम अन्ना को अपने व्यक्तिगत आचरण पर पूरा ध्यान रखना चाहिए। इससे विरोधियों को अनावश्यक रूप से हमले करने का मौका मिलता है। आज पूरा देश यही चाहता है कि आंदोलन कामयाब हो, मगर छोटी-छोटी बातों से अगर आंदोलन प्रभावित होता है तो यह जनता के साथ अन्याय ही कहलाएगा, जिसके सामने एक लंबे अरसे बाद आशा की किरण चमक रही है।
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सोमवार, दिसंबर 05, 2011

केन्द्र को हिला कर रख दिया मायावती ने

हाल ही उत्तरप्रदेश विधानसभा में मुख्यमंत्री सुश्री मायावती की बसपा सरकार ने राज्य को चार राज्यों में बांटने का प्रस्ताव पारित कर केन्द्र सरकार को हिला कर रख दिया है। हालांकि छोटे राज्यों का मुद्दा पहले भी गरमाता रहा है और उसकी वजह से कुछ राज्यों के टुकड़े भी किए गए हैं, मगर मायावती ने एक राज्य को चार हिस्सों में बांटने का प्रस्ताव पारित करवा एक नया संकट पैदा कर दिया है।
सर्वविदित ही है कि देश में पहले से कुछ राज्यों में विभाजन को लेकर आंदोलन हो रहे हैं। आन्ध्रप्रदेश से तेलंगाना अलग करने को लेकर लंबे अरसे से टकराव जारी है। वहा उग्र और भारी उठापटक वाला आंदोलन चल रहा है। महाराष्ट्र और कर्नाटक के बीच बेलगांव को लेकर चल रही खींचतान के कारण अनेक जानें जा चुकी हैं। ऐसे में जाहिर है कि मायावती के इस नए पैंतरे से अन्य प्रांतों में भी यह आग भड़क सकती है। हालांकि जैसे ही प्रस्ताव पारित हुआ तो देशभर के बुद्धिजीवी इसी बहस में उलझ गए कि राज्यों के पुनर्गठन व छोटे राज्यों के क्या लाभ-हानि होते हैं, मगर धरातल की सच्चाई ये है कि मायावती यह प्रस्ताव पूरी तरह राजनीति से प्रेरित है।
जहां तक इस मुद्दे के सैद्धांतिक पक्ष की बात है, पक्ष-विपक्ष दोनों के अपने-अपने तर्क हैं, जो अपनी-अपनी जगह सही ही प्रतीत होते हैं।  छोटे राज्यों की पैरवी करने वाले यह तर्क दे रहे हैं कि बड़े राज्य में कानून-व्यवस्था को संभालना बेहद कठिन होता है और सरकारों का ज्यादा समय कानून-व्यवस्था की समस्याओं से जूझने में ही खर्च होता है। और इसकी वजह से सरकारें विकास की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दे पातीं। उनका तर्क है कि छोटे राज्य में विकास करना आसान होता है, क्योंकि वहां सामान्य कामकाज की समस्याएं कम होती हैं, सभी जिलों पर पकड़ अच्छी होती है, इस कारण विकास पर ज्यादा ध्यान दिया जा सकता है। दूसरी ओर छोटे राज्यों के खिलाफ राय रखने वालों की मान्यता है कि छोटे राज्यों के सामने सदैव संसाधनों के अभाव की समस्या रहती है। ऐसे में वे या तो अपने निकटवर्ती राज्य से प्रभावित रहते हैं या केन्द्र सरकार के रहमो-करम पर निर्भर। केन्द्र पर निर्भरता के चलते उसकी अपनी स्वायत्तता प्रभावित होती है। ये तो हुई तर्क-वितर्क की बात, मगर धरातल पर जा कर देखें तो निर्णय करने में भारी असमंजस उत्पन्न होता है। यह सर्वविदित ही है कि छोटे राज्य मणिपुर, मेघालय, त्रिपुरा, मिजोरम राजनीतिक अस्थिरता से गुजरते रहते हैं और वे विकास के मामले में पिछड़ते जा रहे हैं। बिहार को काट कर बनाए गए झारखंड की बात करें तो वहां की हालत काफी खराब है। विकास करना तो दूर हर वक्त राजनीतिक अस्थिरता बनी रहती है। इसके ठीक विपरीत मध्यप्रदेश को काट कर बनाए गए छत्तीसगढ़ में पर्याप्त प्रगति हुई है। हालांकि इसके पीछे वहां की सरकार की कार्यकुशलता की दुहाई दी जाती है। बड़े राज्यों में विकास कठिन है, इस तर्क का समर्थन करने वाले उत्तरप्रदेश और जम्मू-कश्मीर का उदाहरण देते हैं। जम्मू-कश्मीर में अकेले कश्मीर घाटी में व्याप्त आतंकवाद की वजह से पूरे राज्य का विकास ठप पड़ा है। इसी वजह से कुछ लोग सुझाव देते हैं कि राज्य को जम्मू, कश्मीर और लद्दाख में बांट दिया जाए, ताकि कम से कम जम्मू व लद्दाख तो प्रगति करें। उधर गुजरात जैसा बड़ा राज्य प्रगति के ऐसे आयाम छू रहा है, जिसकी देश ही नहीं बल्कि विश्व में भी तारीफ हो रही है। वह एक आदर्श विकास मॉडल के रूप में उभर आया है। 
कुल मिला कर सवाल ये खड़ा होता है कि आखिर सही क्या है? छोटे राज्य का आकार तय करने का फार्मूला क्या हो? और उसका उत्तर ये ही है कि भौगोलिक स्थिति, संसाधनों और जनभावना को ध्यान में रख कर ही निर्णय किया जाना चाहिए। लेरिक सच्चाई इसके ठीक विपरीत है। इस मुद्दे को लेकर लगातार राजनीति होती है। राजनीतिक दल अपने-अपने हित के हिसाब से पैंतरे चलते हैं। उत्तप्रदेश की बात करें तो हालांकि मोटे तौर पर मायावती ने ध्यान तो जनता की मांग का रखा है, मगर उसमें भी इस बात का ध्यान ज्यादा रखा है कि उनकी पार्टी को ज्यादा से ज्यादा लाभ हो। अर्थात चार राज्य होने पर चारों में ही उनकी पार्टी की सरकार बने। और इसी चक्कर में कुछ जिलों के बारे में किया गया निर्णय साफ तौर पर अव्यावहारिक है। कांग्रेस व भाजपा सहित अन्य दल जानते हैं कि मायावती के इस पैंतरे से बसपा को ही ज्यादा फायदा होने वाला है। वे समझ रहे हैं कि चार राज्य तो होंगे जब होंगे, मगर चंद माह बाद ही होने जा रहे विधानसभा चुनाव में मायावती इसका सीधा-सीधा फायदा उठा सकती हैं। इस कारण वे जम कर विरोध कर रहे हैं। हालांकि वे भी छोटे राज्यों के पक्षधर तो हैं, मगर मायावती की चाल के आगे निरुतर हो गए हैं। उनके पास ऐतराज करने को सिर्फ ये है कि अगर मायावती को यह निर्णय करना ही था तो साढ़े चार साल तक क्या करती रहीं, ऐन चुनाव के वक्त ही क्यों निर्णय किया? अर्थात वे केवल राजनीतिक लाभ की खातिर ऐसा कर रही हैं। उनका दूसरा तर्क ये है कि जिस तरह से प्रस्ताव पारित किया गया, वह अलोकतांत्रिक है क्योंकि इस पर न तो जनता के बीच सर्वे कराया गया और न ही अन्य दलों से राय ली गई। आरोप-प्रत्यारोप के बीच तर्क भले ही कुछ भी दिए जाएं, मगर यह बिलकुल साफ है कि राज्यों के पुनर्गठन के मामले में सियासत ज्यादा हावी है और इसी कारण विकास के मौलिक सिद्धांत के नजरअंदाज होने की आशंका अधिक है।
इससे भी अहम पहलु ये है कि भले ही राज्यों का पुनर्गठन करना केन्द्र सरकार के हाथ में है, मगर देश की एकता व अखंडता की जिम्मेदारी के नाते मायावती ने उसके सामने एक संकट तो खड़ा कर ही दिया है। पहले से ही अनेक भागों में पनप रहे अलगाववाद को इससे बल मिलने की आशंका है। देखते हैं कि अब केन्द्र इस मामले में क्या रुख अख्तियार करता है।
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गुरुवार, दिसंबर 01, 2011

राजनीति ज्यादा हो रही है छोटे राज्यों के मुद्दे पर

उत्तरप्रदेश विधानसभा में हाल ही मुख्यमंत्री सुश्री मायावती की पहल पर बहुजन समाज पार्टी की सरकार द्वारा पारित राज्य को चार भागों में बांटने का प्रस्ताव पारित किए जाने का मुद्दा इन दिनों गर्माया हुआ है। हालांकि प्रत्यक्षत: तो यही लग रहा है कि राज्यों के पुनर्गठन और छोटे राज्यों के लाभ-हानि को लेकर बहस हो रही है, मगर वस्तुत: इसके पीछे राजनीति कहीं ज्यादा नजर आती है।
छोटे राज्यों के पक्षधर यह तर्क दे रहे हैं कि बड़े राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था संभालना कठिन काम है और सरकार का अधिकतर समय उस व्यवस्था को कायम रखने में खर्च होता है, इससे विकास की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा सकता। जबकि छोटे राज्य में विकास करना आसान होता है। दूसरी ओर इसके विपरीत राय रखने वालों का कहना है कि छोटे राज्य के सामने संसाधनों का अभाव होने की आशंका रहती है, इस कारण केन्द्र अथवा अन्य राज्य के प्रति उसकी निर्भरता बढ़ जाती है। दोनों पक्षों के तर्क अपने-अपने हिसाब से ठीक ही प्रतीत होते हैं। मगर धरातल की तस्वीर कुछ और ही है। अलग-अलग मामलों में अलग-अलग तर्क सही बैठ रहे हैं।
बानगी देखिए। एक ओर मणिपुर, मेघालय, त्रिपुरा, मिजोरम जैसे छोटे-छोटे राज्य विकास के मामले में पिछड़ रहे हैं, जबकि गुजरात जैसा बड़ा राज्य प्रगति के नए आयाम छू रहा है। इसी प्रकार बिहार को काट कर बनाए गए झारखंड की हालत खराब है और वहां राजनीतिक अस्थिरता साफ देखी जा सकती है। विकास तो दूर की बात है। उधर मध्यप्रदेश को काट कर बनाए गए छत्तीसगढ़ में पर्याप्त प्रगति हुई है। हालांकि इसके पीछे वहां की सरकार की कार्य कुशलता की दुहाई दी जाती है। बड़े राज्यों में विकास कठिन है, इस तर्क का समर्थन करने वाले उत्तरप्रदेश और जम्मू-कश्मीर का उदाहरण देते हैं। जम्मू-कश्मीर में अकेले कश्मीर घाटी में व्याप्त आतंकवाद की वजह से पूरे राज्य का विकास ठप पड़ा है। इसी वजह से कुछ लोग सुझाव देते हैं कि राज्य को जम्मू, कश्मीर और लद्दाख में बांट दिया जाए, ताकि कम से कम जम्मू व लद्दाख तो प्रगति करें।
कुल मिला कर सवाल ये खड़ा होता है कि आखिर छोटे राज्य का आकार तय करने का फार्मूला क्या हो? और उसका उत्तर ये ही है कि दोनों की पक्षों की बातों में सामंजस्य बैठा कर धरातल के तथ्यों को ध्यान में रखते हुए निर्णय किया जाए। बीच का रास्ता निकाला जाए। मगर वस्तुत: ऐसा हो नहीं पा रहा। पुनर्गठन को लेकर होती सियासत के कारण टकराव की नौबत तक आ गई है। महाराष्ट्र और कर्नाटक के बीच बेलगांव को लेकर चल रही खींचतान के कारण अनेक जानें जा चुकी हैं। आन्ध्रप्रदेश से तेलंगाना अलग करने को लेकर लंबे अरसे से टकराव जारी है। अर्थात पुनर्गठन की सारी खींचतान सियासी ज्यादा है। उत्तप्रदेश की बात करें तो हालांकि मोटे तौर पर मायावती ने जनता की मांग का ध्यान रखा है, मगर उसमें भी इस बात का ध्यान ज्यादा रखा है कि उनकी पार्टी को ज्यादा से ज्यादा लाभ हो। अर्थात चार राज्य होने पर चारों में ही उनका वर्चस्व हो। और इसी चक्कर में कुछ जिलों के बारे में किया गया निर्णय साफ तौर पर अव्यावहारिक  हो गया है। अन्य राजनीतिक दलों की परेशानी ये है कि ताजा निर्णय से बसपा को ही ज्यादा फायदा होने वाला है। एक तो जल्द ही होने वाले विधानसभा चुनाव में बसपा जनहित का ध्यान रखे जाने के निर्णय के कारण ज्यादा वोट बटोर सकती है और दूसरा ये कि यदि मायावती के मुताबिक बंटवारा होता है तो उनमें भी बसपा ही ज्यादा फायदे में रहने वाली है। इस कारण वे जम कर विरोध कर रहे हैं। वे छोटे राज्यों के पक्षधर तो हैं, लेकिन उनक ऐतराज ये है कि अगर मायावती को यह निर्णय करना ही था तो साढ़े चार साल तक क्या करती रहीं, ऐन चुनाव के वक्त ही क्यों निर्णय किया? अर्थात वे केवल राजनीतिक लाभ की खातिर ऐसा कर रही हैं। उनका दूसरा तर्क ये है कि जिस तरह से प्रस्ताव पारित किया गया, वह अलोकतांत्रिक है क्योंकि इस पर न तो जनता के बीच सर्वे कराया गया और न ही अन्य दलों से राय ली गई। बसपा ने एकतरफा निर्णय कर बिना बहस कराए ही प्रस्ताव पारित कर दिया। आरोप-प्रत्यारोप के बीच तर्क भले ही कुछ भी दिए जाएं, मगर यह बिलकुल साफ है कि राज्यों के पुनर्गठन के मामले में सियासत ज्यादा हावी है और इसी कारण विकास के मौलिक सिद्धांत के नजरअंदाज होने की आशंका अधिक है।
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