यह सच है कि भारत में समलैंगिकता को एक अत्यंत निंदित, घृणित सामाजिक अपराध के रूप में देखा जाता रहा है, परंतु धरातल सच है कि सामाजिक भय से भले ही छिप कर, लेकिन यह प्रवृत्ति बढ़ रही है। विशेष रूप से इस सिलसिले में आए कोर्ट के फैसले के दौरान पिछले दिनों जब इस पर बड़ी भारी बहस छिड़ी तो पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित लोग खुल कर सामने आ गए। यहां तक कि कई गैर-सरकारी संगठन और कथित उदार वादी इसके पक्ष में खड़े हो गए।
यहां उल्लेखनीय है कि समलैंगिकों के हित केलिए काम करने वाली संस्था नाज फाउंडेशन ने तो समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर करवाने के लिए कानूनी लड़ाई लड़ी और उसे कुछ सफलता भी मिली। पहले दिल्ली हाईकोर्ट ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के उन अंशों को अवैध करार दिया, जो दो वयस्कों के बीच पारस्परिक सहमति पर आधारित यौन संबंधों को अपराध की श्रेणी में रखते आए हैं। अदालत ने इसे भारतीय संविधान की धाराओं 21 (निजी स्वतंत्रता), 14 (समानता का अधिकार) और 15 (पक्षपात के विरुद्ध संरक्षण) का उल्लंघन माना। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने उस पर ठप्पा लगा दिया। हालांकि अब भी समलैंगिक विवाहों या विवाहेत्तर समलैंगिक संबंधों को विधिमान्यता पर निर्णय होना बाकी है। हालांकि यह सही है कि दंड संहिता की जिस धारा के अंशों को अदालत ने असंवैधानिक करार दिया है, उनमें पिछले डेढ़ सौ साल में डेढ़ सौ लोगों को भी सजा नहीं दी गई, फिर भी अदालती फैसले का गहरा सांकेतिक महत्व है। इससे सामाजिक भय के कारण छिप कर समलैंगिक संबंध कायम रखने वाले लोगों को उन्मुक्त होने का मौका दे दिया। इस मसले का सबसे घिनौना रूप ये रहा कि जैसे ही कोर्ट का ठप्पा लगा समलैंगिक बेशर्म हो कर सड़कों पर आ गए।
ऐसे में चिंता का विषय ये है कि क्या जिस कृत्य को सामाजिक मान्यता नहीं और जिसे समाज निंदनीय मानता है, उसे केवल कानून के दम पर इतना प्रचारित किया जाना चाहिए। दिल्ली में गे, लेस्बियन, बाईसेक्सुअल एंड ट्रांसजेंडर (जीएलबीटी) लोगों ने रैली निकाली थी। उनमें से एक कार्यकर्ता के हाथ में ली हुई तख्ती पर लिखा था- हेट्रोसेक्सुअल रिलेशनशिप्स आर नॉट नैचुरल, दे आर ओन्ली कॉमन। यानी पुरुष-महिला संबंध प्राकृतिक नहीं हैं, अधिक प्रचलित भर है। एक अर्थ में देखा जाए तो यह महज नारा नहीं था, बल्कि सामाजिक प्रतिबंधों के कारण चुप बैठे लोगों का उस समाज के प्रति मौन प्रत्युत्तर था, जिसने उन्हें लंबे समय से उन्हें हाशिए पर डाला हुआ है। ऐसे में जाहिर तौर पर समाज आज समलैंगिक संबंधों को परोक्ष वैधता प्रदान करने वाले दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले से ठगा सा रह गया है।
मसले का एक पहलु ये है कि लैंगिक विभाजनों के संदर्भ में भारत में आए ये कुछ फैसले वास्तव में एक वैश्विक प्रक्रिया का हिस्सा हैं। पिछले एक दशक में अमेरिका, ब्रिटेन और अन्य विकसित देशों में महिला-पुरुष संबंधों के दायरे में फिट न होने वाले लोगों के प्रति नजरिए में बदलाव की प्रक्रिया चल रही है। चर्च के भारी विरोध के बावजूद अमेरिका के अनेक प्रांतों में समलैंगिक जोड़ों के विवाह को मान्यता दे दी गई है। लिंजी लोहान जैसे हॉलीवुड के कलाकारों, एल्टन जॉन जैसे संगीत के दिग्गजों और अन्य क्षेत्रों की समलैंगिक हस्तियों ने खुले आम अपने संबंधों को स्वीकार कर इस वर्ग के लोगों का खुल कर सामने आने को प्रेरित किया। विश्व के अनेक देशों में नियमित अंतराल पर गे परेड होने लगी हैं। कुछ देशों में तो हॉटेस्ट गे कपल और हॉटेस्ट लेस्बियन कपल जैसी प्रतियोगिताएं भी हो रही हैं। पश्चिमी दुनिया का यह संदेश धीरे-धीरे विकासमान देशों तक भी पहुंच रहा है। अब वह हमें चौंकाता नहीं। एक सौ पंद्रह देशों ने इन्हें मान्यता दे दी है और 80 देश अब भी इसके लिए तैयार नहीं हैं और सऊदी अरब, ईरान, यमन, सूडान तथा मॉरीतानिया में ऐसे संबंध बनाने वालों को फांसी पर चढ़ाने की व्यवस्था है।
सच्चाई तो ये है कि समलैंगिता तो दूर, भारत में अभी तक विरपरीत लिंगियों के प्रेम को ही पूर्ण मान्यता प्राप्त नहीं है। बहुत से इलाकों में प्रेमी-प्रेमिका को फांसी पर लटकाने जैसी वीभत्स घटनाएं होती रहती हैं। ऑनर किलिंग भी एक बड़ी समस्या के रूप में उभर कर आ रही है। ऐसे लोगों का समान लिंगी व्यक्तियों के प्रेम को स्वीकार करना कम से कम भारतीय समाज के लिए तो बेहद कठिन है। भले ही इसे कानूनी मान्यता मिल जाए और समलैंगिता में रुचि रखने वाले निडर हो जाएं, मगर समाज तो उन्हें हेय दृष्टि से ही देखेगा।
वस्तुत: समलैंगिता मूल रूप से मानसिक विकृति है। जब प्राकृतिक और सहज तरीकों से किसी के काम की पूर्ति नहीं होती तो वह उसके विकृत रूप की ओर उन्मुख हो जाता है। अत: यह समाज का ही दायित्व है कि वह इस समस्या के समाधान की दिशा में काम करे। समलैंगिकता को बीमारी व मानसिक विकृति मान कर उपचारात्मक कार्यवाही की जानी चाहिए।
-तेजवानी गिरधर, अजमेर
७७४२०६७०००
यहां उल्लेखनीय है कि समलैंगिकों के हित केलिए काम करने वाली संस्था नाज फाउंडेशन ने तो समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर करवाने के लिए कानूनी लड़ाई लड़ी और उसे कुछ सफलता भी मिली। पहले दिल्ली हाईकोर्ट ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के उन अंशों को अवैध करार दिया, जो दो वयस्कों के बीच पारस्परिक सहमति पर आधारित यौन संबंधों को अपराध की श्रेणी में रखते आए हैं। अदालत ने इसे भारतीय संविधान की धाराओं 21 (निजी स्वतंत्रता), 14 (समानता का अधिकार) और 15 (पक्षपात के विरुद्ध संरक्षण) का उल्लंघन माना। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने उस पर ठप्पा लगा दिया। हालांकि अब भी समलैंगिक विवाहों या विवाहेत्तर समलैंगिक संबंधों को विधिमान्यता पर निर्णय होना बाकी है। हालांकि यह सही है कि दंड संहिता की जिस धारा के अंशों को अदालत ने असंवैधानिक करार दिया है, उनमें पिछले डेढ़ सौ साल में डेढ़ सौ लोगों को भी सजा नहीं दी गई, फिर भी अदालती फैसले का गहरा सांकेतिक महत्व है। इससे सामाजिक भय के कारण छिप कर समलैंगिक संबंध कायम रखने वाले लोगों को उन्मुक्त होने का मौका दे दिया। इस मसले का सबसे घिनौना रूप ये रहा कि जैसे ही कोर्ट का ठप्पा लगा समलैंगिक बेशर्म हो कर सड़कों पर आ गए।
ऐसे में चिंता का विषय ये है कि क्या जिस कृत्य को सामाजिक मान्यता नहीं और जिसे समाज निंदनीय मानता है, उसे केवल कानून के दम पर इतना प्रचारित किया जाना चाहिए। दिल्ली में गे, लेस्बियन, बाईसेक्सुअल एंड ट्रांसजेंडर (जीएलबीटी) लोगों ने रैली निकाली थी। उनमें से एक कार्यकर्ता के हाथ में ली हुई तख्ती पर लिखा था- हेट्रोसेक्सुअल रिलेशनशिप्स आर नॉट नैचुरल, दे आर ओन्ली कॉमन। यानी पुरुष-महिला संबंध प्राकृतिक नहीं हैं, अधिक प्रचलित भर है। एक अर्थ में देखा जाए तो यह महज नारा नहीं था, बल्कि सामाजिक प्रतिबंधों के कारण चुप बैठे लोगों का उस समाज के प्रति मौन प्रत्युत्तर था, जिसने उन्हें लंबे समय से उन्हें हाशिए पर डाला हुआ है। ऐसे में जाहिर तौर पर समाज आज समलैंगिक संबंधों को परोक्ष वैधता प्रदान करने वाले दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले से ठगा सा रह गया है।
मसले का एक पहलु ये है कि लैंगिक विभाजनों के संदर्भ में भारत में आए ये कुछ फैसले वास्तव में एक वैश्विक प्रक्रिया का हिस्सा हैं। पिछले एक दशक में अमेरिका, ब्रिटेन और अन्य विकसित देशों में महिला-पुरुष संबंधों के दायरे में फिट न होने वाले लोगों के प्रति नजरिए में बदलाव की प्रक्रिया चल रही है। चर्च के भारी विरोध के बावजूद अमेरिका के अनेक प्रांतों में समलैंगिक जोड़ों के विवाह को मान्यता दे दी गई है। लिंजी लोहान जैसे हॉलीवुड के कलाकारों, एल्टन जॉन जैसे संगीत के दिग्गजों और अन्य क्षेत्रों की समलैंगिक हस्तियों ने खुले आम अपने संबंधों को स्वीकार कर इस वर्ग के लोगों का खुल कर सामने आने को प्रेरित किया। विश्व के अनेक देशों में नियमित अंतराल पर गे परेड होने लगी हैं। कुछ देशों में तो हॉटेस्ट गे कपल और हॉटेस्ट लेस्बियन कपल जैसी प्रतियोगिताएं भी हो रही हैं। पश्चिमी दुनिया का यह संदेश धीरे-धीरे विकासमान देशों तक भी पहुंच रहा है। अब वह हमें चौंकाता नहीं। एक सौ पंद्रह देशों ने इन्हें मान्यता दे दी है और 80 देश अब भी इसके लिए तैयार नहीं हैं और सऊदी अरब, ईरान, यमन, सूडान तथा मॉरीतानिया में ऐसे संबंध बनाने वालों को फांसी पर चढ़ाने की व्यवस्था है।
सच्चाई तो ये है कि समलैंगिता तो दूर, भारत में अभी तक विरपरीत लिंगियों के प्रेम को ही पूर्ण मान्यता प्राप्त नहीं है। बहुत से इलाकों में प्रेमी-प्रेमिका को फांसी पर लटकाने जैसी वीभत्स घटनाएं होती रहती हैं। ऑनर किलिंग भी एक बड़ी समस्या के रूप में उभर कर आ रही है। ऐसे लोगों का समान लिंगी व्यक्तियों के प्रेम को स्वीकार करना कम से कम भारतीय समाज के लिए तो बेहद कठिन है। भले ही इसे कानूनी मान्यता मिल जाए और समलैंगिता में रुचि रखने वाले निडर हो जाएं, मगर समाज तो उन्हें हेय दृष्टि से ही देखेगा।
वस्तुत: समलैंगिता मूल रूप से मानसिक विकृति है। जब प्राकृतिक और सहज तरीकों से किसी के काम की पूर्ति नहीं होती तो वह उसके विकृत रूप की ओर उन्मुख हो जाता है। अत: यह समाज का ही दायित्व है कि वह इस समस्या के समाधान की दिशा में काम करे। समलैंगिकता को बीमारी व मानसिक विकृति मान कर उपचारात्मक कार्यवाही की जानी चाहिए।
-तेजवानी गिरधर, अजमेर
७७४२०६७०००