राजनीति में समझौते तो करने ही होते हैं, मगर जब से भाजपा की कमान नितिन गडकरी को सौंपी गई है, उसे ऐसे-ऐसे समझौते करने पड़े हैं, जिनकी कल्पना तक नहीं की जा सकती थी। असल में जब से अटल बिहारी वाजपेयी व लाल कृष्ण आडवाणी कुछ कमजोर हुए हैं, पार्टी में अनेक क्षत्रप उभर कर आ गए हैं, दूसरी पंक्ति के कई नेता भावी प्रधानमंत्री के रूप में दावेदारी करने लगे हैं। और सभी के बीच तालमेल बैठाना गडकरी के लिए मुश्किल हो गया है। हालत ये हो गई कि उन्हें ऐसे नेताओं के आगे भी घुटने टेकने पड़ रहे हैं, जिनके कृत्य पार्टी की नीति व मर्यादा के सर्वथा विपरीत रहे हैं।
ज्यादा दिन नहीं बीते हैं। पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की तारीफ में पुस्तक लिखने वाले जसवंत सिंह को बाहर का रास्ता दिखाने के चंद माह बाद ही फिर से गले लगा लिया था। कितने अफसोस की बात है कि अपने आपको सर्वाधिक राष्ट्रवादी पार्टी बताने वाली भाजपा को ही हिंदुस्तान को मजहब के नाम पर दो फाड़ करने वाले जिन्ना के मुरीद जसवंत सिंह को फिर से अपने पाले में लेना पड़ा।
वरिष्ठ एडवोकेट राम जेठमलानी का मामला भी थूक कर चाटने के समान है। भाजपाइयों के आदर्श वीर सावरकर की तुलना पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना से करने, जिन्ना को इंच-इंच धर्मनिरपेक्ष तक करार देने, पार्टी की मनाही के बाद इंदिरा गांधी के हत्यारों का केस लडऩे, संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी नहीं देने की वकालत करने और पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतरने वाले जेठमलानी को पार्टी का प्रत्याशी बनाना क्या थूक कर चाटने से कम है।
पार्टी में क्षेत्रीय क्षत्रपों के उभर आने के कारण पार्टी को लगातार समझौते करने पड़ रहे हैं। विधायकों का बहुमत साथ होने के बावजूद विधानसभा में विपक्ष के नेता पद से हटाए जाने के आदेश की अवहेलना करने पर पार्टी वसुंधरा के खिलाफ कठोर निर्णय करने से कतराती रही। वजह साफ थी वे राजस्थान में नई पार्टी बनाने का मूड बना चुकी थीं, जो कि भाजपा के लिए बेहद कष्टप्रद हो सकता था। संघ लॉबी चाह कर भी वसुंधरा के कद को नहीं घटा पाई। उन्हें केन्द्रीय कार्यकारिणी में सम्मानजनक पद देना पड़ा। पार्टी ने सोचा कि ऐसा करने से वसुंधरा को राजस्थान से कट जाएंगी, मगर वह मंशा पूरी नहीं हो पाई। प्रदेश अध्यक्ष भले ही उसकी पसंद का है, मगर आज भी राज्य में पार्टी की धुरी वसुंधरा ही हैं। इसका सबसे बड़ा सबूत ये है कि वे पार्टी की राह से अलग चलने वाले राम जेठमलानी को न केवल पार्टी का अधिकृत प्रत्याशी बनवा लाई, अपितु अपनी कूटनीतिक चालों से उन्हें जितवा भी दिया। वसुंधरा के मामले में पार्टी की स्थिति कितनी किंकर्तव्यविमूढ़ है, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब से उन्होंने विपक्ष के नेता का पद छोड़ा है, आज तक दूसरे किसी को उस पद पर आसीन नहीं किया जा सका है।
हाल ही कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा के मामले में भी पार्टी को दक्षिण में जनाधार खोने के खौफ में उन्हें पद से हटाने का निर्णय वापस लेना पड़ा। असल में उन्होंने तो साफ तौर पर मुख्यमंत्री पद छोडऩे से ही इंकार कर दिया था। उसके आगे गडकरी को सिर झुकाना पड़ गया।
उमा भारती के मामले में भी पार्टी की मजबूरी साफ दिखाई दे रही है। जिन आडवाणी को पहले पितातुल्य मानने वाली मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती ने उनके ही बारे में अशिष्ट भाषा का इस्तेमाल किया, वे ही उसे वापस लाने की कोशिश में जुटे हुए हैं। पार्टी से बगावत कर नई पार्टी बनाने को भी नजरअंदाज करने की नौबत यह साफ जाहिर करती है कि भाजपा अंतद्र्वंद में जी रही है।
थोड़ा पीछे मुड़ कर देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि पिछले लोकसभा चुनाव के बाद ही भाजपा का ढांचा चरमराया हुआ है। कांग्रेसनीत सरकार लाख बुराइयों के बावजूद सत्ता पर फिर काबिज हो गई। मूलत: हिंदुत्व की पक्षधर, मगर राजनीतिक मजबूरी के चलते मुसलमानों को भी गले लगाने का नाटक करते हुए दोहरी मानसिकता में जी रही भाजपा की तो चूलें ही हिल गईं। पार्टी में इतना घमासान हुआ कि एक बारगी तो नाव के खिवैया बन कर डूबने से बचाने वाले शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी ही पार्टी के भीतर अप्रांसगिक महसूस होने लगे। यहां तक कि कट्टर हिंदुत्व के पक्षधरों को ही हार की मूल वजह माना जाने लगा। पार्टी के दिग्गजों को अपनी मौलिक विचारधारा की दुबारा समीक्षा करने नौबत आ गई। उन्हें यही समझ में नहीं आ रहा था कि पार्टी को प्रतिबद्ध हिंदुत्व की राह पर चलाया जाए अथवा लचीले हिंदुत्व का रास्ता चुना जाए। आखिरकार सभी संघ की ओर ही मुंह ताकने लगे। संघ ने कमान संभाली और नए सिरे से शतरंज की बिसात बिछा दी। उसी का ही परिणाम था कि पार्टी को लोकसभा में विपक्ष का नेता बदलना पड़ा। बदले समीकरणों में गडकरी अध्यक्ष पद तो काबिज हो गए, मगर उन्हें लगातार समझौते करने पड़ रहे हैं।