ऐसी मान्यता है कि अंत्येष्टि के दौरान मृत आत्मा देह में ही कपाल के भीतर ब्रह्मरंद्र में होती है। कपाल की हड्डी चूंकि बहुत मजबूत होती है, इस कारण उस पर घी डाल कर उसे तोड़ा जाता है। बताते हैं कि कपाल क्रिया करने पर ही आत्मा की देह से मुक्ति होती है। देह से मुक्त उसे इसलिए किया जाता है, ताकि वह आगे की यात्रा को प्रस्थान करे। कपाल क्रिया से पहले तक उसका अटैचमेंट न केवल अपने जलते शरीर से अपितु आसपास के दृश्य भी होता है। उस अटैचमेंट को समाप्त करने के लिए श्मशान में मौजूद सभी लोग कपाल क्रिया होते ही अपनी-अपनी जगह छोड़ कर दूसरी जगह पर बैठते हैं और नया दृश्य बन जाता है। एक झटके में जब पुराना दृश्य आत्मा को नहीं दिखाई देता तो स्वाभाविक रूप से उसका श्मशान स्थल से डिटेचमेंट हो जाता है। यानि कि यदि दृश्य नहीं बदला जाए तो आत्मा का पुराने दृश्य से संबंध बना रहेगा और वह श्मशान स्थल से मुक्त नहीं हो पएगी। हम समझ सकते हैं कि वर्षों तक भौतिक शरीर व दुनिया में रहते हुए हमारा कितना गहरा संबंध हो जाता है। शरीर जलने के बाद आत्मा यहीं अटकी रहना चाहती है। उसे जबरन कपाल से मुक्त कराना होता है। इतना ही अंत्येष्टि के दौरान मौजूद दृश्य से भी उसका संबंध विच्छेद कराने का प्रयास करना होता है। यह मेरी नजर में बैठा तथ्य है, हो सकता है वास्तविकता कुछ और हो। मेरा यह दावा नहीं कि मैं ही सही हूं।
आपने देखा होगा कि अंत्येष्टि के बाद जब परिजन घर लौटते हैं तो कपाल क्रिया करने वाला देहलीज पर मृत आत्मा से अपने संबंधी का षब्द जोर से उच्चारण करता है। जैसे पिताजी, बाबोसा, दादाजी इत्यादि। इस का कारण जानने की मैंने बहुत कोशिश की है, मगर अभी तक जानकारी नहीं मिल पाई है। हो सकता है, ऐसा मृत आत्मा का आह्वान करने के लिए किया जाता हो ताकि वह श्मशान के बाद घर पर आ जाए। शास्त्रों में बताया गया है कि तेरह दिन पर आत्मा का वास घर में ही रहता है। उसके बाद की यात्राओं का वर्णन गरुण पुराण सहित अन्य शास्त्रों में मौजूद है।
https://www.youtube.com/watch?v=6V_ouuh_gf0&t=3s
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