तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

शुक्रवार, दिसंबर 28, 2012

कटारिया फिर कैसे आ गए फ्रंट फुट पर?

राजस्थान में भाजपा के जिन दिग्गज गुलाब चंद कटारिया की मेवाड़ यात्रा को लेकर पार्टी में बड़ा भूचाल आ चुका है, जिसकी प्रतिध्वनि आज तक गूंज रही है, वे ही अपनी स्थगित यात्रा को फिर से आरंभ कर चुके हैं तो सभी का चौंकना स्वाभाविक ही है। जो भाजपा कार्यकर्ता यह मान कर चल चुके हैं कि भारी विरोध के बाद भी चुनाव की कमान वसुंधरा के हाथों में होगी, इस नए पैंतरे को देख कर समझ ही नहीं पा रहे हैं कि पार्टी में आखिर ये हो क्या रहा है?
ज्ञातव्य है कि पिछली बार जब उन्होंने यात्रा निकालने का ऐलान किया था तो राजसमंद की विधायक श्रीमती किरण माहेश्वरी ने क्षेत्रीय वर्चस्व को लेकर उसका कड़ा विरोध किया और मामला इतना गरमाया कि उसे पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे ने अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ लिया। अपने बहुसंख्यक विधायकों के इस्तीफे एकत्रित कर उन्होंने हाईकमान को सकते में ला दिया था। इस पर पार्टी हित की दुहाई देते हुए कटारिया ने यात्रा स्थगित करने की घोषणा कर दी, तब जा कर मामला कुछ ठंडा पड़ा। अब जब कि वे फिर से पार्टी हित के नाम पर निजी स्तर पर यात्रा पर निकल चुके हैं तो इसका अर्थ यही लगाया जा रहा है कि पार्टी का एक धड़ा वसुंधरा के एकछत्र प्रभुत्व को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। यह वही धड़ा है, जो बार-बार यह कह कर वसुंधरा खेमे के साथ छेडख़ानी करता है कि अगला चुनाव किसी एक व्यक्ति के नेतृत्व में नहीं लड़ा जाएगा। दूसरी ओर वसुंधरा खेमे का पूरा जोर इसी बात पर है कि वसुंधरा को ही भावी मुख्यमंत्री घोषित करके चुनाव लड़ा जाएगा। वसुंधरा के खासमखास सिपहसालार राजेन्द्र सिंह राठौड़ ने तो यहां तक कह दिया कि राजस्थान में वसुंधरा ही भाजपा हैं और भाजपा ही वसुंधरा है। इसको लेकर बड़ी बहस छिड़ गई थी। इसी टकराव के बीच कटारिया की यात्रा सीधे-सीधे वसुंधरा को मुंह चिढ़ाने जैसा है। अजमेर के भाजपा विधायक व पूर्व शिक्षा राज्य मंत्री प्रो.वासुदेव देवनानी ने भी उनकी यात्रा को सही ठहरा कर संकेत दे दिया कि वसुंधरा खेमा आगामी चुनाव के मद्देनजर लामबंद होने लगा है। उसी का परिणाम है कि पिछले दिनों इस बात पर बड़ा विवाद हुआ था कि वसुंधरा अपने महल में टिकट के दावेदारों का फीड बैक कैसे ले रही हैं। यह काम तो पार्टी के स्तर पर होना चाहिए। कटारिया ने तो चलो सीधी टक्कर सी ली है, मगर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी व ललित किशोर चतुर्वेदी तक भी कई बार दुहरा चुके हैं कि आगामी चुनाव सामूहिक नेतृत्व में लड़ा जाएगा। उन्हीं के सुर में सुर मिलाते हुए हाल ही वरिष्ठ नेता रामदास अग्रवाल ने भी वी से वी तक का जुमला इस्तेमाल कर साफ किया था कि कोई भी व्यक्ति पार्टी से ऊपर नहीं है। इन सारी गतिविधियों से यह जाहिर होता कि कि संघपृष्ठभूमि के नेता वसुंधरा को फ्री हैंड नहीं लेने देंगे। वे पूरा दबाव बना कर अपने धड़े के लिए अधिक से अधिक टिकटें झटकना चाहते हैं। कदाचित वे अपने खेमे के एक नेता को उपमुख्यमंत्री बनाने की शर्त रख दें।
-तेजवानी गिरधर

बुधवार, दिसंबर 26, 2012

अराजकता फैलाना चाहता है इलैक्ट्रॉनिक मीडिया?

दिल्ली गैंग रेप की जघन्य घटना के बाद दिल्ली सहित पूरे देश में जगह-जगह जो आक्रोश फूटा, वह स्वाभाविक और वाजिब है। इतना तो हमें संवेदनशील होना ही चाहिए। संयोग से यह मामला देश की राजधानी का था, इस कारण हाई प्रोफाइल हो गया, वरना ऐसे सामूहिक बलात्कार तो न जाने कितने हो चुके हैं। इलैक्ट्रॉनिक मीडिया ने इसे मुद्दा बनाया, वहां तक तो ठीक था, मगर जब यह अराजकता की ओर बढऩे लगा और बेकाबू हो गया, तब भी मात्र और मात्र सनसनी फैलाने की खातिर उसे हवा देने का जो काम किया गया, वह पूरा देश देख रहा था। सबके जेहन में एक ही सवाल था कि क्या इलैक्ट्रॉनिक मीडिया देश में अराजकता फैलाना चाहता है? मगर... मगर चूंकि इस आंदोलन में युवा वर्ग का गुस्सा फूट रहा था, इस कारण किसी की भी हिम्मत नहीं हुई कि वह इस पर प्रतिक्रिया दे सके। सब जानते थे कि कुछ बोले नहीं कि मीडिया तो उसके पीछे हाथ धो कर पड़ ही ही जाएगा, युवा वर्ग का गुस्सा भी उसकी ओर डाइवर्ट हो जाएगा।
अव्वल तो इस मामले में पुलिस ने अधिसंख्य आरोपियों को पकड़ लिया और पीडि़त युवती को भी बेहतरीन चिकित्सा मिलने लगी। इसके बाद आरोपियों को जो सजा होनी है, वह तो कानून के मुताबिक न्यायालय को ही देनी है। चाहे सरकारी तंत्र कहे या विपक्ष या फिर आंदोलनकारी, कि कड़ी से कड़ी सजा दी जानी चाहिए, मगर सजा देने का काम तो केवल कोर्ट का ही है। उसकी मांग के लिए इतना बवाल करना और कड़ी से कड़ी सजा देने का आश्वासन देना ही बेमानी है। अलबत्ता, बलात्कार के मामले में फांसी की सजा का प्रावधान करने का मांग अपनी जगह ठीक है, मगर उसकी एक प्रक्रिया है। यह बात मीडिया भी अच्छी तरह से जानता है, मगर बावजूद इसके उसने आंदोलन को और हवा दे कर उसने खूब मजा लिया।
जैसा कि मीडिया इस बात पर बार-बार जोर दे रहा था कि आंदोलन स्वत:स्फूर्त है, वह कुछ कम ही समझ में आया। साफ दिख रहा था कि इसके लिए पूरा मीडिया उकसा रहा था। मीडिया लगातार पूरे-पूरे दिन एक ही घटना दिखा-दिखा कर, पुलिस को दोषी व निकम्मा ठहरा-ठहरा कर, सरकार को पूरी तरह से नकारा बता-बता कर उकसा रहा था। भले ही इसके लिए यह तर्क दिया जाए कि हमारी सरकार आंदोलन के उग्र होने की हद पर जा कर सुनती है, इस कारण मुद्दे को इतना जोर-शोर से उठाना जरूरी था, मगर एक सीमा के बाद यह साफ लगने लगा कि मीडिया की वजह से ही हिंसा की नौबत आई। सब जानते हैं कि केमरा सामने होता है तो कोई भी आंदोलनकारी कैसा बर्ताव करने लग जाता है?
एक सामान्य बुद्धि भी समझ सकता है कि कोई भी आंदोलन बिना किसी सूत्रधार के नहीं हो सकता। ऐसा कत्तई संभव नहीं है कि गैंगरेप से छात्रों में इतना गुस्सा था कि वे खुद ब खुद घरों से निकल कर सड़क पर आ गए। एक दिन नहीं, पूरे पांच दिन तक। जानकारी तो ये है कि शुरू में कैमरा टीमों द्वारा प्रदर्शन की जगह और समय छात्रों एवं अन्य संगठनों से तय करके जमावड़ा किया गया। हर वक्त सनसनी की तलाश में रहने वाले इलैक्ट्रॉनिक मीडिया ने अपनी टीआरपी बढ़ाने की खातिर का जो ये खेल खेला, उसमें वाकई समस्याओं से तनाव में आये बुद्धिजीवी वर्ग और छात्रों को समाधान नजर आया। आंदोलन को कितना भी पवित्र और सच्चा मानें, मगर जिस तरह से मीडिया पुलिस व सरकार को कोसते हुए आंदोलनकारियों को हवा दे रहा था, उससे यकायक लगने लगा कि क्या हमारा मीडिया अराजकता को बढ़ाने की ओर बढ़ रहा है? यह सवाल इसलिए भी उठता है कि एक-दो चैनलों ने तो इंडिया गेट को तहरीर चौक तक की संज्ञा दे दी। यानि कि यह आंदोलन ठीक वैसा ही था, जैसा कि मिश्र में हुआ और तख्ता पलट दिया गया।
मीडिया की बदमाशी तब साफ नजर आई, जब एक वरिष्ठतम पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने एक ओछी हरकत की। उन्होंने आंदोलनकारियों में अपनी ओर से जबरन शब्द ठूंसे। रेप कांड के विरोध में प्रदर्शन के दौरान आंदोलनकारियों से मिलने को कोई भी जिम्मेदार मंत्री मिलने को नहीं आ रहा था तो उन्होंने खुद चला कर एक आंदोलनकारी से सवाल किया कि आपको नहीं लगता कि युवा सम्राट कहलाने वाले राहुल गांधी को आपसे मिलने को आना चाहिए। स्वाभाविक सी बात है कि इसका उत्तर हां में आना था। इसके बाद उसने पलट कर एंकर की ओर मुखातिब हो कर दर्शकों से कहा कि लोगों में बहुत गुस्सा है और वे कह रहे हैं कि राहुल गांधी को उनसे मिलने को आना चाहिए। उनकी इस हरकत ने यह प्रमाणित कर दिया कि मीडिया आंदोलन को जायज, जो कि जायज ही था, मानते हुए एकपक्षीय रिपोर्टिंग करना शुरू कर दिया। एक और उदाहरण देखिए। एक चैनल की एंकर ने आंदोलन के पांचवें दिन आंदोलन स्थल को दिखाते हुए कहा कि बड़ी तादात में आंदोलनकारी इकत्रित हो रहे हैं और उनकी संख्या लगातार बढ़ती जा रही है और फिर जैसे ही उसने रिपोर्टर से बात की तो उसने कहा कि फिलहाल बीस-पच्चीस लोग जमा हुए हैं और यह संख्या बढऩे की संभावना है। कैसा विरोधाभास है। स्पष्ट है कि एंकरिंग पर ऐसे अनुभवहीन युवक-युवतियां लगी हुई हैं, जिन्हें न तो पत्रकारिता का पूरा ज्ञान है और न ही उसकी गरिमा-गंभीरता-जिम्मेदारी व नैतिकता का ख्याल है। उन्हें बस बेहतर से बेहतर डायलॉग बनाना और बोलना आता है, फिर चाहे उससे अर्थ का अनर्थ होता रहे।
सवाल ये उठता है कि जायज मांग की खातिर आंदोलन का साथ देने वाला ये वही मीडिया वही नहीं है, जो कि धंधे की खातिर जापानी तेल और लिंगवर्धक यंत्र का विज्ञापन दिखाता है? क्या ये वही नहीं है जो कमाई की खातिर विज्ञापनों में महिलाओं के फूहड़ चित्र दिखाता है? क्या ये वही नहीं है जो कतिपय लड़कियों के अश्लील पहनावे पर रोक लगाने वाली संस्थाओं को तालीबानी करार देता है? तब उसे इस संस्कारित देश में आ रही पाश्चात्य संस्कृति पर जरा भी ऐतराज नहीं होता। स्पष्ट है कि जितना यह महान बनने का ढ़ोंग करता है, उसके विपरीत इसका एक मात्र मकसद है कि सनसनी फैलाओ, टीआपी बढ़ाओ, फिर चाहे भारत के मिश्र जैसी क्रांति की नौबत आ जाए।
-तेजवानी गिरधर

नीतीश के छोड़ पूरा एनडीए मोदी के साथ?


गुजरात के मुख्यमंत्री पद की शपथ ग्रहण समारोह में मौजूद विभिन्न पार्टियों के दिग्गज नेताओं को देख कर मीडिया को लग रहा है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जेडीयू को छोड का पूरा एनडीए मोदी के साथ है और उसे मोदी के भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद की दावेदारी किए जाने पर ऐतराज नहीं करेगा। हालांकि इस प्रकार के कार्यक्रमों में आने को औपचारिकता ही माना जाता है, मगर समारोह में मौजूद नेताओं की लिस्ट पर नजर डालने के बाद मीडिया को उसमें 2014 के एनडीए की तस्वीर नजर आ रही है। नीतीश कुमार की गैर मौजूदगी का यह अर्थ निकाला गया है कि एनडीए की ओर से मोदी को प्रधानमंत्री के संभावित उम्मीदवार के रूप में प्रॉजेक्ट करने को लेकर उनके रुख में कोई बदलाव नहीं आया है।
उल्लेखनीय है कि समारोह में लालकृष्ण आडवाणी समेत बीजेपी के सभी दिग्गज नेता नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज, राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली, बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकरी, राजनाथ सिंह और वैंकेया नायडू, पार्टी शासित सभी राज्यों के मुख्यमंत्री मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमण सिंह, गोवा के सीएम मनोहर पार्रिकर, कर्नाटक के मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टार और झारखंड के मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा के अलावा पंजाब के सीएम प्रकाश सिंह बादल तो मौजूद थे ही, आईएनएलडी के सुप्रीमो ओमप्रकाश चौटाल, तमिलनाडु की मुख्यमंत्री और एआईएडीएमके की नेता जे. जयललिता और एमएनएस नेता राज ठाकरे ने भी पहुंचकर भविष्य की राजनीति के संकेत दे दिए। सबसे चौंकाने वाली रही शिवसेना के कार्यकारी अध्यक्ष उद्धव ठाकरे, आरपीआई नेता रामदास अठावले और एमएनएस के मुखिया राज ठाकरे की एक साथ मौजूदगी। बुलाए गए लोगों में उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटानयक नहीं पहुंचे, पर जानकारी ये है कि वे मोदी के विरोध में नहीं हैं क्योंकि उन्होंने गुजरात की जीत के बाद मोदी को सबसे पहले बधाई दी थी। अलबत्ता मोदी के साथ खड़े होने से पहले नफा-नुकसान आकलन कर लेना चाहते हैं।
जहां पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का सवाल है, माना ये जा रहा है कि अपने मुस्लिम वोटों के जनाधार को ध्यान में रखते हुए उन्होंने आना मुनासिब नहीं समझा। वैसे अभी ये भी पता नहीं लग पाया है कि मोदी ने उन्हें निमंत्रण दिया भी था कि नहीं। हां, नीतीश के बारे में यही कहा जा रहा है कि उनके पूर्व के रवैये और जीत पर बधाई न देने के रुख को देखते हुए उन्हें शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने का आमंत्रण ही नहीं भेजा था।
कुल मिला कर मीडिया का आकलन है कि मोदी के इस शपथग्रहण समारोह ने उन्हें प्रधानमंत्री पद की दावेदारी करने की दिशा में कदम रखने का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। अब भाजपा पर निर्भर है कि वह मोदी पर एकमत होती या नहीं।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, दिसंबर 23, 2012

मोदी को डर व लालच में दिया मुसलमानों ने वोट


गुजरात विधानसभा चुनाव में मुसलमानों को रिझाने का प्रहसन करने के बावजूद एक भी मुसलमान को टिकट नहीं दिए पर सभी राजनीति जानकार चक्कर में पड़ गए। और मजे की बात ये रही कि मोदी को मुस्लिम बहुल सीटों पर वोट भी भरपूर मिले। इससे विश्लेषकों की माथापच्ची और बढ़ गई। वे यह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि आखिर इसकी वजह क्या है। इस बीच खुद भाजपा के ही राष्ट्रीय उपाध्यक्ष कलराज मिश्र ने यह कह कर सभी को चौंका दिया है कि गुजरात में मुसलमानों ने भी नरेंद्र मोदी को वोट दिया, क्योंकि इसके पीछे उनका डर व लालच था। डर इस बात का कि वे मोदी के खिलाफ जाकर उनकी आंखों की किरकिरी नहीं बनना चाहते थे और लालच था विकास का।
इंडो-एशियन न्यूज सर्विस को दिए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि मुसलमानों ने मोदी को ही वोट दिया, क्योंकि उन्हें लगा कि मोदी की ही सरकार बननी है तो फिर काहे को उनसे दुश्मनी मोल ली जाए। उनकी इस बात में काफ दम नजर आता है। इसके पीछे एक तर्क भी समझ में आता है। वो यह कि मोदी के राज में गिनती के कट्टरपंथी मुसलमानों को उन्होंने कुचल दिया, इस कारण टकराव मोल लेने वाला कोई रहा ही नहीं। रहा सवाल शांतिप्रिय व व्यापार करने वाले अधिकतर मुसलमान का तो उसे तो अमन की जिंदगी चाहिए, फिर भले ही सरकार मोदी ही क्यों न हो। वह यह भी जानता है कि मोदी रहे तो कट्टरपंथी कभी उठ ही नहीं पाएगा, ऐसे में टकराव कौन मोल लेगा। यही सोच कर उन्होंने मोदी को वोट दिया। कदाचित वे यह समझते थे कि अगर कांग्रेस आई तो एक बार फिर तुष्टिकरण के चलते कट्टरपंथी ताकतवर होगा कि उनकी शांतिप्रिय जिंदगी के लिए परेशानी का सबब ही बनेगा। ऐसे में बेहतर यही है कि मोद को वोट दे दिया जाए, ताकि मोदी खुश भी हो जाएं ओर तंग नहीं करें।
मुसलमानों के दमन का आरोप झेल रहे मोदी के लिए यह राहत की बात रही कि एक भी मुसलमान को टिकट नहीं देने के बाद भी मुसलमानों ने उनका समर्थन किया। शायद इसी वजह से उन्होंने अपनी जीत के बाद आयोजित सबसे पहली सभा में इशारों ही इशारों में मुसलमानों से उन्हें हुई किसी भी प्रकार की तकलीफ के लिए माफी मांग ली।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, दिसंबर 20, 2012

बसपा फिर कर रही है राजस्थान में चुनाव की तैयारी

हालांकि पिछले विधानसभा चुनाव के बाद राजस्थान के सभी बसपा विधायकों के कांग्रेस में शामिल होने से बसपा को बड़ा भारी झटका लगा था, मगर अपने वोट बैंक के दम पर बसपा ने फिर से चुनाव मैदान में आने की तैयारियां शुरू कर दी हैं। बसपा सुप्रीमो मायावती को उम्मीद है कि पदोन्नति में आरक्षण के लिए सतत प्रयत्नशील रहने के कारण बसपा के वोट बैंक में और इजाफा होगा, जिसे वे किसी भी सूरत में गंवाना नहीं चाहेंगी।
असल में बसपा ने अपना जनाधार तो बसपा के संस्थापक कांशीराम के जमाने में ही बना लिया था और कांगे्रेस से नाराज अनुसूचित जाति अनेक मतदाता बसपा के साथ जुड़ गए थे। स्वयं कांशीराम ने भी भरपूर कोशिश की, मगर अच्छे व प्रभावशाली प्रत्याशी नहीं मिल पाने के कारण उन्हें कुछ खास सफलता हासिल नहीं हो पाई। इसके बाद भी बसपा सक्रिय बनी रही और उसे पिछले चुनाव में छह विधायक चुने जाने पर उल्लेखनीय सफलता हासिल हुई। मगर मायावती के उत्तरप्रदेश में व्यस्त होने के कारण वे राजस्थान में ध्यान नहीं दे पाईं। नतीजतन पार्टी के सभी छहों विधायक कांग्रेस में शामिल हो गए और पार्टी को एक बड़ा झटका लग गया। असल में बसपा का मतदाता आज भी मौजूद है, मगर पार्टी को कोई दमदार राज्यस्तरीय चेहरा नहीं मिल पाने के कारण संगठनात्मक ढ़ांचा बन नहीं पा रहा। समझा जाता है कि उत्तरप्रदेश में सत्ता गंवाने के बाद मायावती ने राजस्थान पर भी ध्यान देना शुरू कर दिया है। इस बार उन्हें कोई दमदार चेहरा यहां मिल पाता है या नहीं, ये तो वक्त ही बताएगा, मगर इतना जरूर तय है कि पार्टी पूरे जोश-खरोश से एक बार फिर चुनाव मैदान में जरूर उतरेगी। लक्ष्य यही है कि किसी भी प्रकार दस-बीस सीटें हासिल कर ली जाएं, ताकि बाद में सरकार के गठन के वक्त नेगासिएशन किया जा सके।
हालांकि अभी राजस्थान में बसपा की कोई गतिविधियां नहीं हैं, मगर उसका जनाधार तो है ही। वस्तुत: बसपा अपनी वोट बैंक की फसल को ठीक से काट नहीं पा रही है। बसपा का राजस्थान में कितना जनाधार है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले चुनाव में बसपा ने 199 प्रत्याशी मैदान में उतारे थे, जिनमें से 53 सीटें ऐसी थीं, जिनमें बसपा ने 10 हजार से अधिक वोट हासिल किए थे। छह पर तो बाकायदा जीत दर्ज की और बाकी 47 सीटों पर परिणामों में काफी उलट-फेर कर दिया।
बेशक बसपा राजस्थान में अभी तीसरा विकल्प नहीं बन पाई है, मगर उसका ग्राफ धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है। आपको ख्याल होगा कि बसपा ने राजस्थान में 1998 में खाता खोला था। तब पार्टी के 110 में से 2 प्रत्याशी बानसूर से जगत सिंह दायमा और नगर से मोहम्मद माहिर आजाद जीते थे। इसके बाद 2003 में 124 प्रत्याशी मैदान में उतरे थे, उनमें से बांदीकुई से मुरारीलाल मीणा और करौली से सुरेश मीणा विधानसभा पहुंचे। इसी प्राकर 2008 में 199 प्रत्याशियों में से 6 ने जीत दर्ज कर जता दिया कि बसपा धीरे-धीरे ही सही, तीसरे विकल्प की ओर बढ़ रही है। हालांकि उसके सभी विधायक कांग्रेस में चले गए, मगर इससे उसके वोट बैंक पर कोई असर पड़ा होगा, ऐसा समझा जाता है। प्रसंगवश बता दें कि 2008 में नवलगढ़ से राजकुमार शर्मा, उदयपुरवाटी से राजेन्द्र सिंह गुढ़ा, बाडी से गिर्राज सिंह मलिंगा, सपोटरा से रमेश, दौसा से मुरारीलाल मीणा और गंगापुर से रामकेश ने जीत दर्ज की थी। इसके अतिरिक्त दस सीटों सादुलपुर, तिजारा, भरतपुर, नदबई, वैर, बयाना, करौली, महवा, खींवसर और सिवाना पर कड़ा संघर्ष करते हुए दूसरा स्थान हासिल किया था। वोटों के लिहाज से देखें तो पार्टी को सादुलपुर व करौली में चालीस हजार से ज्यादा वोट मिले। इसी प्रकार नदबई, खींवसर, हनुमानगढ़ व लूणी में तीस हजार से ज्यादा वोट मिले। तिजारा, भरतपुर, वैर, बयाना, महवा, सिवाना, करनपुर, रतनगढ़, सूरजगढ़, मंडावा, अलवर ग्रामीण, धौलपुर, मकराना, पीपलदा सूरतगढ़, संगरिया व हिंडौन में बीस हजार से ज्यादा वोट हासिल किए। कुल मिला आंकड़े यह साफ जाहिर करते हैं कि यहां बसपा का उल्लेखनीय जनाधार तो है, बस उसे ठीक मैनेज कर सीटों में तब्दील करने के लिए रणनीति बनाई जाए। जानकारी के अनुसार इस बार खुद मायावती इस ओर ध्यान दे रही हैं। उनकी रणनीति क्या होगी, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा।
-तेजवानी गिरधर

सोमवार, दिसंबर 17, 2012

यानि कि हेडली मामले से सबक नहीं लिया


ब्रह्मा मंदिर
अजमेर में सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह की जियारत के नाम पर बिना वीजा के पाकिस्तानियों के आने का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। हाल ही दो पाकिस्तानी नागरिकों का पुष्कर आ कर लौट जाना और उसके बाद उनके आने का खुलासा होना यह साबित करता है कि अजमेर की पुलिस व खुफिया एजेंसियों ने मुंबई ब्लास्ट के मास्टर माइंड डेविड कॉलमेन हेडली के पुष्कर की रेकी करके चले जाने वाली सनसनीखेज घटना से कोई सबक नहीं लिया है। इस ताजा घटना से पुलिस तंत्र की नाकामी साफ साबित हो रही है। अब जिस होटल में वे पाक नागरिक ठहरे थे, उसके प्रबंधन व पुलिस एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं।
ज्ञातव्य है कि 10 दिसम्बर को मुम्बई पहुंचे करांची निवासी इम्तियाज हुसैन और लाहौर निवासी जमशेख बशीर भाटी के पास 7 दिन का वैध वीजा था। इसके तहत वे मुम्बई, आगरा और अजमेर घूम सकते थे, लेकिन ये लोग भारतीय नियमों को धत्ता बताते हुए पुष्कर के अनन्ता होटल में आकर वापस चले गये। गौरतलब है कि विश्व का एक मात्र ब्रह्मा मंदिर और इजरायलियों का धर्म स्थल बेद खबाद आतंकियों के निशाने पर हैं। इसके बावजूद सुरक्षा को लेकर ना तो पुलिस गंभीर है न ही गुप्तचर एजेंसियां।
यहां उल्लेखनीय है कि इससे पूर्व भी बिना वीजा के अजमेर व पुष्कर में पाक नागरिकों के आने की अनेक घटनाएं हो चुकी हैं। कितने अफसोस की बात है कि एक ओर बम विस्फोट के बाद दरगाह को और अधिक संवेदनशील माना जा रहा है और सुरक्षा के कड़े इंतजाम करने के दावे किए जाते हैं, दूसरी ओर पाकिस्तानी नागरिक बिना वीजा के बड़ी आसानी से यहां चले आते हैं। दावे चाहे जो किए जाएं, मगर न तो हमने दरगाह बम विस्फोट से सबक लिया है और न ही मुंबई ब्लास्ट के मास्टर माइंड व देश में आतंकी हमले करने का षड्यंत्र रचने के आरोप में अमेरिका में गिरफ्तार डेविड कॉलमेन हेडली के सीआईडी की आंख में सुरमा डालने से कुछ सीखा है। हेडली मामले में तो पुलिस तंत्र की बड़ी किरकिरी हुई थी।
बेद खबाद
बिना वीजा-पासपोर्ट के अजमेर आने वालों का सिलसिला काफी लंबा है। अब तक अनेक पाकिस्तानी व बांग्लादेशी पकड़े जा चुके हैं, मगर इस समस्या का कोई समाधान नहीं निकाला जा सका है। पकड़े गए घुसपैठिये तो रिकार्ड पर हैं, पर जो नहीं पकड़े जा सके हैं, उनका तो अनुमान ही लगाना कठिन है। ज्यादा चौंकाने वाली बात तो ये है कि अपराधी किस्म के या मकसद विशेष के लिए अजमेर आने वाले तो चलो शातिर हैं, मगर केवल जियारत के मकसद से भी यहां बड़ी आसानी से पहुंच रहे हैं। स्पष्ट है कि न तो सीमा पर पूरी चौकसी बरती जा रही है और न ही अजमेर जैसे संवेदनशील स्थान के बारे में पुलिस गंभीर है। रहा सवाल सरकार का तो वह भी सख्त नजर नहीं आती है। जरूर इस प्रकार बिना वीजा-पासपोर्ट के पाकिस्तान या बांग्लादेश से आने वालों पर अंकुश लगाने के लिए प्रावधान लचीले हैं, तभी तो घुसपैठियों में कोई खौफ नहीं है।
बहरहाल, इस प्रकार लगातार बढ़ती जा रही धुसपैठ की घटनाओं से अंदेशा यही है कि अजमेर में कभी भी कोई बड़ा हादसा हो सकता है। कोई आतंकी भी इस प्रकार बिना पासपोर्ट व वीजा के अजमेर या पुष्कर पहुंच जाएगा और वह कोई हरकत कर गायब हो जाएगा और पुलिस हाथ ही मलती रह जाएगी।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, दिसंबर 13, 2012

पकड़े रहो नए जिले बनने का झुनझुना

राजस्थान में नए जिले बनाने को लेकर सरकार कितनी गंभीर है, इसका अंदाजा इसी बात से लग रहा है कि इसके लिए गठित समिति ने अपनी रिपोर्ट देने के लिए तीन माह का और समय मांग लिया है। यानि कि फिलहाल सब्र करना होगा और आगामी विधानसभा चुनाव से पहले होने वाले बजट सत्र तक आशा को मन में संजो कर रखना होगा।
इस मुद्दे पर एचबीसी न्यूज चैनल के डीडवाना संवाददाता हनु तंवर निशब्द ने फेसबुक पर लिखा है कि राज्य सरकार नए जिलों की घोषणा के लिए श्री जीएस संधू की अध्यक्षता में बनाई गई विशेष समिति ने जिलों की घोषणा से सम्बंधित रिपोर्ट के लिए तीन माह का समय और मांगा है । अभी तक इस समिति के पास 31 दिसंबर तक का समय था जिसमें समिति को नए जिलों के प्रस्ताव सरकार को देने थे । गत बजट में राज्य सरकार ने नए जिले बनाने के लिए एक समिति गठन करने की घोषणा की थी बजट में इस समिति को सितम्बर में रिपोर्ट देनी थी लेकिन इस अवधि को बढाकर बाद में दिसंबर कर दिया गया लेकिन दिसंबर में भी समिति अपनी रिपोर्ट नहीं दे पायेगी । एक तरफ जहाँ राज्य सरकार ने नए जिलों की मांग कर रहे कस्बो को और आम नागरिकों को इस घोषणा के बाद बड़े बड़े आयोजन करके शक्ति प्रदर्शनों के लिए मजबूर कर दिया वहीँ अब सरकार इन घोषणाओं को रोक कर जनता की भावनाओं के साथ कुठारघात कर रही है । मिडिया के जरिये बार बार सरकार जनता को भ्रमित भी करने की कोशिश कर रही है । जिले बनाने की क़तार में खड़े शहरों की आम जनता सरकार के चार वर्ष पूर्ण करने के समारोह को बड़ी आशा की नज़रों से देख रहे थे लेकिन 13 तारिख निकलते ही इन शहरों की जनता की भावनाओ के साथ एक बार और कुठारघात हुआ और जिलों की घोषणा नहीं हुई । लेकिन लोगों को आशा अभी भी है की चुनाव से पूर्व आने वाले बजट में सरकार इन जिलों की घोषणा अवश्य करेगी । लेकिन अगर ऐसा नहीं हुआ तो यह अवश्य ही जनता की भावनाओ के साथ खिलवाड़ होगा और इसमे कोई अतिस्योक्ति नहीं होगी की जनता इसका हिसाब चुनावों में अवश्य चुकाएगी।
निशब्द की इस टिप्पणी पर प्रतिटिप्पणी करते हुए केकड़ी के पत्रकार पीयूष राठी ये विचार जाहिर किए हैं:- चाहे ये शहर जिले बने न बने मगर जनता को तो क्षेत्रीय राजनेताओ और सरकार ने एक झुनझुना पकड़ा ही दिया है और इस झुनझुने को पत्रकारों द्वारा भी बड़े जोश फरोश के साथ हिलाया जा रहा है...और जैसे एक मदारी अपना खेल दिखाने से पूर्व झुनझुना हिला कर लोगो का आकर्षण प्राप्त करता है ठीक वैसे ही हालात इन शहरों में निवास कर रही जनता के है...जिला बने न बने मगर ये अपनी डफली बजा कर एक मांग जर्रूर कर लेंगे की भाई इस बार तो तकनीकी खामिया रह गयी एक बार और जीता दो तो जिला बनने से इस क्षेत्र को कोई नहीं रोक सकता...मगर ये पब्लिक है सब जानती है....
एक समाचार पत्र के सर्वे के अनुसार राजस्थान में मौजूदा क्षेत्रीय विधायकों से उनकी क्षेत्रीय जनता काफी नाखुश है....अब देखो आखिर क्या होता है जिलों का....या फिर ये जिल्जिला ही रह जाता है....
कुल मिला कर यह माना जा सकता है कि सरकार कभी अपना स्टैंड साफ नहीं करती और लोगों को झुनझुना पकड़ा देती है। ब्यावर को जिला बनाने की मांग को ही लीजिए। यह मांग पिछले बीस साल से हो रही है। कांग्रेस व भाजपा, दोनों के ही नेताओं स्वर्गीय भैरोंसिंह शेखावत व अशोक गहलोत ने आश्वासन दे कर वोट हासिल किए और बाद में चुप्पी साध ली। ब्यावर अभी जिला बना नहीं और उससे पहले ही केकड़ी के विधायक व सरकारी मुख्य सचेतक डॉ. रघु शर्मा ने अगला चुनाव जीतने के लिए केकड़ी को जिला बनवाने का वादा कर दिया। अब देखना ये है कि क्या आगामी बजट सत्र में इस पर कुछ होता है या नहीं।
-तेजवानी गिरधर

शनिवार, दिसंबर 08, 2012

यूपीए की नहीं असल जीत तो मायावती की हुई


बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष सुश्री मायावती ने एफडीआई के मामले में राज्यसभा में सरकार के पक्ष में मतदान करके एक तीर से कई शिकार कर लिए। हालांकि इस मामले में भाजपा की करारी हार हुई और कांग्रेस की तिकड़मी जीत, मगर मायावती ने जो जीत हासिल की है, उसके गहरे राजनीतिक मायने हैं।
बेशक मायावती पर भाजपा नेता सुषमा स्वराज ने दोहरी भूमिका का जो सवाल उठाया, उसका सीधा सपाट जवाब मायावती के पास नहीं है, मगर पलट कर उन्होंने जो कटाक्ष किए, उससे भाजपा की बोलती बंद हो गई। उनका साफ मतलब था कि वे कब क्या करेंगी, कुछ नहीं कहा जा सकता और अपनी पार्टी के हित के लिये वे जो कुछ उचित समझेंगी, करेंगी। ऐसा नहीं कि मायावती ने ऐसा पहली बार किया है, इससे पहले भी इसी तरह की चालें चल चुकी हैं। ये वही मायावती हैं, जिन्होंने सत्ता की खातिर कथित सांप्रदायिक पार्टी भाजपा से हाथ मिला कर उत्तरप्रदेश में समझौते की सरकार ढ़ाई साल चलाई, पूरा मजा लिया और जैसे ही भाजपा का नंबर आया, समझौता तोड़ दिया। ऐसा प्रतीत होता है कि मायावतीवाद यही है कि साम, दाम, दंड, भेद के जरिए येन केन प्रकारेण दलित को सत्ता में लाया जाए। उसमें फिर कोई भी आदर्श आड़े नहीं आता। असल में यह उन सैकड़ों वर्षों का प्रतिकार है, जिनमें सवर्ण वर्ग ने दलितों का सारे आदर्श और मानवता ताक पर रख कर दमन किया। इसी प्रतिकार की जद में उन्होंने अपने धुर विरोधी मुलायम सिंह को भी नहीं छोड़ा। उन्होंने कांग्रेस को जो समर्थन दिया, उसके पीछे एक कारण ये भी है कि वे दूसरे पलड़े में बैठ कर मुलायम का वजन कम करना चाहती हैं। ज्ञातव्य है कि उत्तर प्रदेश की सत्ता से माया को बेदखल करने वाले मुलायम लगातार कोशिश कर रहे हैं कि लोकसभा चुनाव जल्दी हो जाएं। विधानसभा चुनावों में जो अप्रत्याशित बहुमत एसपी को मिला था वह लोकसभा में भी मिले। ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतकर वह दिल्ली में ताकत बढ़ाना चाहते हैं ताकि दिल्ली पर राज करने का सपना पूरा कर सकें। इसके लिए उन्होंने तैयारी भी कर ली है। मगर मायावती चाहती हैं कि केन्द्र सरकार स्थिर बनी रहे और कुछ समय और निकाले, ताकि विधानसभा चुनावों के समय जो माहौल एसपी के पक्ष में बना था, वह धीरे-धीरे कम हो जाए। जो फायदा एसपी को अभी मिल सकता है वह 2014 में नहीं मिलेगा। इसके अतिरिक्त वे मुलायम की बार्गेनिंग पावर को भी कम करना चाहती हैं और सरकार को स्पष्ट समर्थन देकर यह संदेश दे दिया है कि सरकार का आंकड़ा पूरा है और समय से पहले चुनाव की कोई संभावना नहीं है। यह भी साफ हो चुका है कि मुलायम केंद्र का साथ छोड़ दें तो भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा। माया का समर्थन उसके लिए काफी होगा।
कुल मिला कर मायावती की कार्यशैली की चाहे जितनी आलोचना की जाए, मगर राजनीतिक हथकंडों में उनका कोई सानी नहीं है। यूं कुछ इसी प्रकार की फितरत मुलायम भी रखते हैं। जब मीडिया ने उनसे पूछा कि आप संसद में एफडीआई का विरोध करते हैं ओर उसे लागू करने के लिए अपरोक्ष रूप से कांग्रेस को संबल प्रदान करते हैं, इस पर वे बोले कि ये तो राजनीति है, हम कोई साधु-संन्यासी थोड़े ही हैं। यानि कि भले ही भाजपा लोकतंत्र और मर्यादा की लाख दुहाई दे, मगर जातिवाद के जरिए राजनीति पर हावी मायावती व मुलायम वही करेंगे, जो कि उन्हें करना है।
 -तेजवानी गिरधर

रविवार, दिसंबर 02, 2012

सुषमा ने कब कहा कि मोदी पीएम इन वेटिंग हैं?

इन दिनों जैसे ही किसी नेता के मुंह से कुछ निकलता है, मीडिया तुरंत उसका पोस्ट मार्टम करने लग जाता है। सच कहें तो मुंह से निकलता नहीं, बल्कि जबरन मुंह में ठूंस दिया जाता है। मीडिया सवाल ही ऐसे करता है कि नेता को जवाब देना पड़ जाता है। फिर उसकी हां या ना के अपने हिसाब से मायने निकाल लिए जाते हैं।
लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज को ही लीजिए। उन्होंने अपनी ओर से कहीं नहीं कहा कि मोदी पीएम इन वेंटिंग हैं, अथवा पार्टी की ओर दावेदारी कर रहे हैं। उनसे पूछा गया था कि क्या मोदी प्रधानमंत्री पद के दावेदार हो सकते हैं, इस पर उन्होंने सिर्फ इतना ही कहा कि मोदी हर दृष्टि से प्रधानमंत्री पद के लायक हैं। इसका अर्थ ये कत्तई नहीं होता कि वे भाजपा की ओर से पेश किए जा रहे हैं अथवा वे दावेदारी कर रहे हैं। मगर अर्थ ये ही निकाला गया कि वे मोदी को प्रधानमंत्री बनाए जाने के पक्ष में हैं। न केवल अर्थ निकाला गया अपितु उस पर बड़ी बड़ी स्टोरीज तक चलाई जाने लगी।
कल्पना की कीजिए कि अगर वे कहतीं कि मोदी दावेदार नहीं हो सकते तो उसके कितने खतरनाक मायने होते। सीधी से बात है कि वे ये तो किसी भी सूरत में नहीं कह सकती थीं कि वे दावेदार नहीं हो सकते। उन्हें तो कहना ही था कि हां, दावेदार हो सकते हैं, जो कि एक सच भी है। इसी सच को जैसे ही उन्होंने स्वीकारोक्ति दी, मीडिया ने तो भाजपा की ओर से मोदी को प्रधानमंत्री ही बना दिया।
मीडिया का अगर यही हाल रहा तो एक दिन ऐसा आएगा कि नेता लोग मीडिया के सामने आना ही बंद कर देंगे कि वे कुछ का कुछ अर्थ निकाल लेते हैं। इसके अतिरिक्त वे मीडिया की इस आदत का फायदा भी उठा सकते है और जो बात उन्हें राजनीति के बाजार फैंकनी होगी, उसका हल्का का इशारा कर देंगे।
-तेजवानी गिरधर

बुधवार, नवंबर 28, 2012

केजरीवाल पर हेगड़े की आशंका में दम है


सामाजिक आंदोलन के गर्भ से राजनेता के रूप में पैदा हुए अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को बने जुम्मा जुम्मा आठ दिन भी नहीं हुए हैं कि उसकी सफलता पर आशंकाओं के बादल मंडराने लगे हैं। यूं तो जब वे टीम अन्ना से अलग हट कर राजनीति में आने की घोषणा कर रहे थे, तब भी अनेक समझदार लोगों ने यही कहा था कि राजनीतिक पार्टियों व नेताओं को गालियां देना आसान काम है, मगर खुद अपनी राजनीतिक पार्टी चलना बेहद मुश्किल। अब जब कि पार्टी बना ही ली है तो सबसे पहले टीम अन्ना के सदस्य कर्नाटक के पूर्व लोकायुक्त संतोष हेगड़े ने ही प्रतिक्रिया दी है कि उसकी सफलता संदिग्ध है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक 546 सदस्यों को चुनने के लिए एक बड़ी रकम की जरूरत पड़ती है। यह कार्य इतना आसान नहीं है। आज के समय में किसी भी राजनीतिक पार्टी को चलाने के लिए काफी चीजों की जरूरत पड़ रही है।
हेगड़े की इस बात में दम है कि आम आदमी पार्टी के विचार तो बड़े ही खूबसूरत हैं, मगर सवाल ये है कि क्या वे सफल हो पाएंगे? यह ठीक वैसे ही है, जैसे एक फिल्मी गाने में कहा गया है किताबों में छपते हैं चाहत के किस्से, हकीकत की दुनिया में चाहत नहीं है। केजरीवाल की बातें बेशक लुभावनी और रुचिकर हैं, मगर देश के ताजा हालात में उन्हें अमल में लाना नितांत असंभव है। यानि कि केजरवाल की हालत ऐसी होगी कि चले तो बहुत, मगर पहुंचे कहीं नहीं। उनकी सफलता का दरवाजा वहीं से शुरू होगा, जहां से व्यावहारिक राजनीति के फंडे अमल में लाना शुरू करेंगे।
अव्वल तो केजरीवाल उसी सिस्टम में दाखिल हो गए हैं, जिसमें नेताओं पर जरा भी यकीन नहीं रहा है। ऐसे में अगर वे सोचते हैं कि भाजपा की तरह वे भी पार्टी विथ द डिफ्रेंस का तमगा हासिल कर लेंगे तो ये उनकी कल्पना मात्र ही रहने वाली है। यह एक कड़वा सच है कि जब तक भाजपा विपक्ष में रही, सत्ता को गालियां देती रही, तब तक ही उसका पार्टी विथ द डिफ्रेंस का दावा कायम रहा, जैसे ही उसने सत्ता का स्वाद चखा, उसमें वे भी वे अपरिहार्य बुराइयां आ गईं, जो कांग्रेस में थीं। आज हालत ये है कि हिंदूवाद को छोड़ कर हर मामले में भाजपा को कांग्रेस जैसा ही मानते हैं। किसी पार्टी की इससे ज्यादा दुर्गति क्या होगी कि जिसे बड़ी शान से अनुशासित पार्टी माना जाता था, उसी में सबसे ज्यादा अनुशासनहीनता आ गई है। आपको ख्याल होगा कि भाजपा सदैव कांग्रेस के परिवारवाद का विरोध करते हुए अपने यहां आतंरिक लोकतंत्र की दुहाई देती रहती थी, मगर उसी की वजह से आज उसकी क्या हालत है। कुछ राज्यों में तो क्षेत्रीय क्षत्रप तक उभर आए हैं, जो कि आए दिन पार्टी हाईकमान को मुंह चिढ़ाते रहते हैं। राम जेठमलानी जैसे तो यह चैलेंज तब दे देते हैं उन्हें पार्टी से निकालने का किसी में दम नहीं। इस सिलसिले में एक लेखक की वह उक्ति याद आती है, जिसमें उन्होंने कहा था कि दुनिया में लोकतंत्र की चाहे जितनी महिमा हो, मगर परिवार तो मुखियाओं से ही चलते हैं। पार्टियां भी एक किस्म के परिवार हैं। जैसे कि कांग्रेस। उसमें भी लाख उठापटक होती है, मगर सोनिया जैसा कोई एक तो है, जो कि अल्टीमेट है। कांग्रेस ही क्यों, एकजुटता के मामले में व्यक्तिवादी पार्टियां यथा राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाजवादी पार्टी, अन्नाद्रमुक, द्रमुक, शिवसेना आदि आदि भाजपा से कहीं बेहतर है। ऐसे में केजरीवाल का वह आम आदमी वाला कोरा आंतरिक लोकतंत्र कितना सफल होगा, समझा जा सकता है।
चलो, भाजपा में तो फिर भी राजनीति के अनुभवी खिलाड़ी मौजूद हैं, पार्टी कहीं न कहीं राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जैसे सशक्त संगठन की डोर से बंधा है, मगर केजरीवाल और उनके साथियों को एक सूत्र में बांधने वाला न तो कोई तंत्र है और न ही उनमें राजनीति का जरा भी शऊर है। उनकी अधिकांश बातें हवाई हैं, जो कि धरातल पर आ कर फुस्स हो जाने वाली हैं।
वे लाख दोहराएं कि उनकी पार्टी आम आदमी की है, नेताओं की नहीं, मगर सच ये है कि संगठन और वह भी राजनीति का होने के बाद वह सब कुछ होने वाला है, जो कि राजनीति में होता है। नेतागिरी में आगे बढऩे की खातिर वैसी ही प्रतिस्पद्र्धा होने वाली है, जैसी कि और पार्टियों में होती है।  राजनीति की बात छोडिय़े, सामाजिक और यहां तक कि धार्मिक संगठनों तक में पावर गेम होता है। दरअसल मनुष्य, या यो कहें कि जीव मात्र में ज्यादा से ज्यादा शक्ति अर्जित करने का स्वभाव इनबिल्ट है। क्या इसका संकेत उसी दिन नहीं मिल गया था, जब पार्टी की घोषणा होते ही कुछ लोगों ने इस कारण विरोध दर्ज करवाया था कि वे शुरू से आंदोलन के साथ जुड़े रहे, मगर अब चुनिंदा लोगों को ही पार्टी में शामिल किया जा रहा है। इसका सीधा सा अर्थ है कि जो भी पार्टी में ज्यादा भागीदारी निभाएगा, वही अधिक अधिकार जमाना चाहेगा। इस सिलसिले में भाजपा की हालत पर नजर डाली जा सकती है। वहां यह संघर्ष अमतौर पर रहता है कि संघ पृष्ठभूमि वाला नेता अपने आपको देशी घी और बिना नेकर पहने नेता डालडा घी माना जाता है। ऐसे में क्या यह बात आसानी से हलक में उतर सकती है कि जो प्रशांत भूषण पार्टी को एक करोड़ रुपए का चंदा देंगे, वे पार्टी का डोमिनेट नहीं करेंगे?
सवाल इतने ही नहीं हैं, और भी हैं। वर्तमान भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था से तंग जनता जिस जोश के साथ अन्ना आंदोलन से जुड़ी थी, क्या उसी उत्साह के साथ आम आदमी पार्टी से जुड़ेगी? और वह भी तब जब कि वे अन्ना को पिता तुल्य बताते हुए भी अपना अलग चूल्हा जला चुके हैं? शंका ये है कि जो अपने पिता का सगा नहीं हुआ, वह अपने साथियों व आम आदमी का क्या होगा? राजनीति को पानी पी-पी कर गालियां देने वाले केजरीवाल क्या राजनीति की काली कोठरी के काजल से खुद को बचा पाएंगे? क्या वे उसी किस्म के सारे हथकंडे नहीं अपनाएंगे, जो कि राजनीतिक पार्टियां अपनाती रही हैं? क्या उनके पास जमीन तक राजनीति की बारीकियां समझने वाले लोगों की फौज है? क्या उन्हें इस बात का भान नहीं है कि लोकतंत्र में सफल होने के लिए भीड़ से ज्यादा जरूरत वोट की होती है? ये वोट उस देश की जनता से लेना है, जो कि धर्म, भाषा, जातिवाद और क्षेत्रवाद में उलझा हुआ है। क्या केजरीवाल को जरा भी पता है कि आज जो तबका देश की खातिर बहस को उतारु है और कथित रूप से बुद्धिजीवी कहलाता है, उससे कहीं अधिक अनपढ़ लोगों का मतदान प्रतिशत रहता है? ऐसे ही अनेकानेक सवाल हैं, जो ये शंका उत्पन्न करते हैं आम आदमी पार्टी का भविष्य अंधकारमय प्रतीत होता है। हां, अगर केजरीवाल सोचते हैं वे चले हैं एक राह पर, सफलता मिले मिले, चाहे जब मिले, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता तो ठीक है, चलते रहें।
-तेजवानी गिरधर

सोमवार, नवंबर 26, 2012

यानि कि जेठमलानी से घबराती है भाजपा

भाजपा ने अध्यक्ष नितिन गडकरी से इस्तीफे की मांग सार्वजनिक रूप से करके अनुशासन तोडऩे को लेकर निलंबित किए गए राज्यसभा सांसद और जाने-माने वकील राम जेठमलानी को निष्कासित करने की बजाय फिलहाल कारण बताओ नोटिस ही जारी किया है। ऐसा तब हुआ है, जबकि जेठमलानी खुल कर कह चुके हैं कि उन्हें पार्टी से निकालने का दम किसी में नहीं है। हालांकि माना यही जा रहा था कि संसदीय बोर्ड की बैठक में उन्हें पार्टी से बाहर करने का निर्णय किया जाएगा, मगर समझा जाता है कि पार्टी इसकी हिम्मत नहीं जुटा पाई। कदाचित ऐसा कानूनी पेचीदगी से बचने के लिए भी किया गया है। कहने की जरूरत नहीं है कि जेठमलानी कानून के कीड़े हैं।
गौरतलब है कि जेठमलानी एक ओर जहां पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी के इस्तीफे की मांग पर अड़े हुए हैं, वहीं सीबीआई के नए डायरेक्टर की नियुक्ति पर पार्टी से अलग राय जाहिर करके पार्टी नेताओं की किरकिरी कर चुके हैं। इतना ही नहीं जब उनसे पूछा गया कि उनके इस रवैये पर पार्टी उन्हें बाहर का रास्ता दिखा सकती है तो उन्होंने अपने तेवर और तीखे करते हुए पार्टी हाईकमान को चुनौती देते हुए कहा था कि उन्हें पार्टी से निकालने का दम किसी में नहीं है। इस चुनौती के बाद भी यदि पार्टी का रुख कुछ नरम दिखा तो यही माना गया कि जरूर उनके पास पार्टी के नेताओं की कोई नस दबी हुई है। गडकरी के खिलाफ तो वे कह भी चुके हैं कि उनके पास सबूत हैं।
ऐसा नहीं है कि जेठमलानी ने पहली बार पार्टी को मुसीबत में डाला है। इससे पहले भी वे कई बार पार्टी के खिलाफ मोर्चा खोल चुके हैं। उन्होंने भाजपाइयों के आदर्श वीर सावरकर की तुलना पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना से की थी। इतना ही नहीं उन्होंने उन्हीं जिन्ना को इंच-इंच धर्मनिरपेक्ष तक करार दे दिया था, जिनकी मजार शरीफ पर उन्हें धर्मनिरपेक्ष कहने पर लाल कृष्ण आडवाणी को अध्यक्ष पद छोडऩा पड़ गया था। असल में जेठमलानी पार्टी के अनुशासन में कभी नहीं बंधे। पार्टी की मनाही के बाद भी उन्होंने इंदिरा गांधी के हत्यारों का केस लड़ा। इतना ही नहीं उन्होंने संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी नहीं देने की वकालत की, जबकि भाजपा अफजल को फांसी देने के लिए आंदोलन चला रही है। वे भाजपा के खिलाफ किस सीमा तक चले गए, इसका सबसे बड़ा उदाहरण ये रहा कि वे पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतर गए। ऐसा व्यक्ति जब राज्यसभा चुनाव में भाजपा के बैनर पर राजस्थान से जितवा कर भेजा गया तो सभी अचंभे में थे। अब जब कि वे फिर से बगावती तेवर दिखा रहे हैं तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि उनके पास जरूर कोई न कोई तगड़ा हथियार है, जिसका मुकाबला करने में पार्टी को जोर आ रहा है।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, नवंबर 25, 2012

वसुंधरा जी, ऐसे जेठमलानी को आपने जितवाया ही क्यों?


अंतत: जब पानी सिर पर से ही गुजरने लगा तो भारतीय जनता पार्टी को अपने राज्यसभा सांसद और जाने-माने वकील राम जेठमलानी को पार्टी से बाहर करने का फैसला करने की नौबत आ गई। गौरतलब है कि जेठमलानी जहां पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी के इस्तीफे की मांग पर अड़े हुए थे, वहीं सीबीआई के नए डायरेक्टर की नियुक्ति पर पार्टी से अलग रुख दिखाने से पार्टी की आंख की किरकिरी बने हुए थे। वे खुल कर पार्टी के खिलाफ मोर्चाबंदी करने लगे थे। ऐसे समय में जब कि पार्टी अपने अध्यक्ष नितिन गडकरी पर लग रहे आरोपों के चलते परेशानी में थी, जेठमलानी ने लगातार आग में घी डालने का काम किया। और तो और जेठमलानी ने पार्टी हाईकमान को चुनौती देते हुए कहा था कि उन्हें पार्टी से निकालने का दम किसी में नहीं है। हालांकि पार्टी को निर्णय करने से पहले दस बार सोचना पड़ा क्योंकि वे पार्टी से बाहर होने के बाद और ज्यादा नुकसान पहुंचाने का माद्दा रखते हैं, मगर वे इससे भी ज्यादा किरकिरी पार्टी में रहते हुए कर रहे थे। ऐसे में आखिर पार्टी ने उस अंग को काटना ही बेहतर समझा, जिसका जहर पूरे शरीर में फैलने का खतरा था। ज्ञातव्य है कि उनकी पहल के बाद वरिष्ठ भाजपा नेता यशवंत सिन्हा व शत्रुघ्न सिन्हा भी खुल कर सामने आ गए थे।
बहरहाल, राम जेठमलानी की आगे की राम कहानी क्या होगी, ये तो आगे आने वाला वक्त ही बताएगा, मगर कम से कम राजस्थान के भाजपाइयों में यह चर्चा उठने लगी है कि आखिर ऐसे पार्टी कंटक को यहां से राज्यसभा सदस्य का चुनाव काहे को जितवाया?
वस्तुत: जेठमलानी की फितरत शुरू से ही खुरापात की रही है। पहले भी वे कई बार पार्टी के खिलाफ मोर्चा खोल चुके हैं। ऐसे में अब वे भाजपा नेता ये सवाल खड़ा करने की स्थिति में आ गए हैं कि आखिर ऐसी क्या वजह रही कि उनके बगावती तेवर के बाद भी राजस्थान के किसी और नेता का हक मार पर पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा के दबाव में राज्यसभा बनवाया गया?
आपको याद होगा कि जब वसुंधरा जेठमलानी को राज्यसभा चुनाव के दौरान पार्टी प्रत्याशी बनवा कर आईं तो भारी अंतर्विरोध हुआ, मगर वसुंधरा ने किसी की न चलने दी। सभी अचंभित थे, मगर छिटपुट विरोध के अलावा कुछ न कर पाए। विशेष रूप से संगठन के नेता तो जेठमलानी पर कत्तई सहमत नहीं थे, मगर विधायकों पर अपनी पकड़ के दम पर वसुंधरा उन्हें जितवाने में भी कामयाब हो गईं।
यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि जेठमलानी के विचार भाजपा की विचारधारा से कत्तई मेल नहीं खाते। उन्होंने बेबाक हो कर भाजपाइयों के आदर्श वीर सावरकर की तुलना पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना से की थी। इतना ही नहीं उन्होंने जिन्ना को इंच-इंच धर्मनिरपेक्ष तक करार दे दिया था। पार्टी के अनुशासन में वे कभी नहीं बंधे। पार्टी की मनाही के बाद भी उन्होंने इंदिरा गांधी के हत्यारों का केस लड़ा। इतना ही नहीं उन्होंने संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी नहीं देने की वकालत की, जबकि भाजपा अफजल को फांसी देने के लिए आंदोलन चला रही है। वे भाजपा के खिलाफ किस सीमा तक चले गए, इसका सबसे बड़ा उदाहरण ये रहा कि वे पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतर गए।
आपको बता दें कि जब वे पार्टी के बैनर पर राज्यसभा सदस्य बने तो मीडिया में ये सवाल उठे थे कि क्या बाद में पार्टी के सगे बने रहेंगे? क्या वे पहले की तरह मनमर्जी की नहीं करेंगे? आज वे आशंकाएं सच साबित हो गई। जाहिर सी बात है कि उन्हें जबरन जितवा कर ले जानी वाली वसुंधरा पर भी सवाल तो उठ ही रहे हैं।
-तेजवानी गिरधर

मंगलवार, नवंबर 20, 2012

गडकरी का दूसरा कार्यकाल नामुमकिन


पहले भाजपा सांसद व वरिष्ठ वकील राम जेठमलानी व उनके पुत्र महेश जेठमलानी और अब भाजपा नेता यशवंत सिंहा ने गडकरी के इस्तीफे की मांग कर पार्टी को परेशानी में डाल दिया है। भले ही अधिसंख्य नेता गडकरी के इस्तीफे पर फिलहाल इस कारण राजी नहीं हैं क्योंकि इससे पार्टी की किरकिरी होगी, मगर वे यह भी समझ रहे हैं कि गडकरी को कम से कम दूसरा मौका देना तो संभव नहीं होगा। ज्ञातव्य है कि गडकरी का मौजूदा कार्यकाल आगामी दिसंबर में पूरा हो रहा है।
उल्लेखनीय है कि जब जेठमलानी ने इस्तीफे का दबाव बनाया था, तब उन्होंने इशारा किया था कि यशवंत सिंहा और जसवंत सिंह भी उनका समर्थन कर रहे हैं। उस समय तो यशवंत खुलकर सामने नहीं आए, लेकिन इस बार उन्होंने साफ तौर पर गडकरी का इस्तीफा मांग लिया है। जेठमलानी की बात को तो पार्टी ने हवा में उड़ा दिया क्योंकि उनकी छवि कुछ खास नहीं रही है। पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच भी उन्हें सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता। उन्हें गंभीरता से नहीं लिया जाता। इसकी कुछ खास वजहें भी हैं। वो ये कि उनके विचार भाजपा की विचारधारा से कत्तई मेल नहीं खाते। उन्होंने बेबाक हो कर भाजपाइयों के आदर्श वीर सावरकर की तुलना पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना से की थी। इतना ही नहीं उन्होंने जिन्ना को इंच-इंच धर्मनिरपेक्ष तक करार दे दिया था। पार्टी के अनुशासन में वे कभी नहीं बंधे। पार्टी की मनाही के बाद भी उन्होंने इंदिरा गांधी के हत्यारों का केस लड़ा। इतना ही नहीं उन्होंने संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी नहीं देने की वकालत की, जबकि भाजपा अफजल को फांसी देने के लिए आंदोलन चला रही है। वे भाजपा के खिलाफ किस सीमा तक चले गए, इसका सबसे बड़ा उदाहरण ये रहा कि वे पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतर गए। इन्हीं कारणों वे जेठमलानी की मांग तो हवा में उड़ाना आसान रहा, मगर अब यशवंत सिन्हा जैसे संजीदा नेता की ओर उठी इस्तीफे की मांग को दरकिनार करना कठिन हो रहा है। यशवंत सिन्हा ने खुल कर कह दिया है कि मसला गडकरी के दोषी होने या न होने का नहीं है। जो लोग सार्वजनिक जीवन जीते हैं, उनकी छवि बेदाग होनी चाहिए। गडकरी का इस्तीफा मांगते हुए कहा कि मुझे काफी दुख और अफसोस है, लेकिन मुझे पूरा विश्वास है कि जो मुद्दा मैं उठा रहा हूं, वह सही है। उन्होंने इस बात का अफसोस भी जताया है कि पार्टी गडकरी के संबंध में कोई निर्णय नहीं ले पा रही है।
गौरतलब है कि कुछ दिनों पहले ही गुरुमूर्ति के क्लीन चिट पर भाजपा नेतृत्व ने गडकरी को पाक-साफ घोषित किया था और अपने सभी नेताओं और कार्यकर्ताओं को संकेत दे दिए थे कि गडकरी के विषय में अब कोई बयानबाजी नहीं होगी। मगर जब गुरुमूर्ति ने ट्वीट के जरिए पलटी खाई तो पार्टी सकते में आ गई। मौका पा कर यशवंत सिन्हा ने भी हमला बोल दिया है। समझा जाता है कि सिन्हा भी अच्छी तरह से जानते हैं कि अभी गडकरी का इस्तीफा नहीं होगा क्योंकि पार्टी शीतकालीन सत्र में कांग्रेस को कई मुद्दों पर घेरने की तैयारी कर रही है। इसके अतिरिक्त हल्ला बोल रैलियों की भी शुरुआत हो चुकी है। मगर कम से कम उनकी मांग से इतना तो होगा कि जो नेता गडकरी को दुबारा मौका देने की रणनीति बना रहे हैं, उन्हें झटका जरूर लगेगा।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, नवंबर 18, 2012

भाभड़ा का हो गया भाजपा से मोहभंग?


भाजपा के प्रमुख नेता हरिशंकर भाभड़ा ने दैनिक भास्कर के वरिष्ठ पत्रकार त्रिभुवन से की खुली बात में अपने आकलन में एक सच को उद्घाटित करते हुए भले ही यह कह दिया हो कि जनता का कांग्रेस व भाजपा से मोहभंग हो गया है और वह अब नेगेटिव वोटिंग करने लगी है, मगर उनके इस साक्षात्कार से ये भी इशारा मिलता है कि भाजपा में ऊंचाई छूने के बाद हाशिये पर जाने पर खुद उनका भी भाजपा से मोहभंग हो गया है। उन्होंने भाजपा के अंदरूनी स्थिति पर जिस प्रकार बेबाक बयानी की है, उससे यह साफ है कि पार्टी में बहुत कुछ खो चुकने के बाद उन्हें अब और कुछ खोने का डर नहीं रहा।
सबसे बड़ी बात ये है कि उन्होंने अपनी पूरी बात में कांग्रेस व भाजपा को बराबर ला कर खड़ा कर दिया है, तभी तो बोले कि लोग अब भाजपा को भी कांग्रेस की तरह समझने लगे हैं। दोनों का अंतर कम हो गया। लोग भ्रमित हैं कि किसे वोट दें! अर्थात भाजपा की ताजा स्थिति से पूरी तरह से असंतुष्ठ हैं और इसके लिए कहीं न कहीं पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के प्रभाव वाली भाजपा को जिम्मेदार मान रहे हैं। अपनी ही पार्टी से वितृष्णा का आलम देखिए कि वे इस हद तक कह गए कि जनता अपराधियों और भ्रष्टाचारियों को जिता रही है। वहीं से कांग्रेस में लोग आते हैं और वहीं से भाजपा में। पहले राजाओं का वर्चस्व था। अब पैसे और सत्ता के बल पर नए जागीरदार पैदा हो गए। उन्हीं की घणी-खम्मां हो रही है। अघोषित राजतंत्र है। अपने कुटुंब को आगे बढ़ाते हैं। टिकट भी उनको, पद भी उनको। सब पार्टियों में यही हाल है।
जिस वसुंधरा के कारण आज वे खंडहर की माफिक हो गए हैं, उनके बारे में उनकी क्या धारणा है, इसका खुलासा होता है उनके इस बयान से कि जनता ने राजा-रानियों को एक मौका तो दिया, लेकिन कुछ नहीं किया तो दूसरा मौका नहीं दिया। उनकी धारणा का अंदाजा उनके इस जवाब से भी मिलता है कि वसुंधरा बहुत काबिल हैं। उनकी हर विषय पर पकड़ है। उन्हें भाषा की कठिनाई नहीं है। वसुंधरा की प्रशासन पर पकड़ अच्छी थी, लेकिन कुछ एलीमेंट तो ऐसे होते ही हैं, जिन पर कोई कंट्रोल नहीं कर सकता!
जिस भाजपा के इस बार सत्ता पर काबिज होने की आम धारणा है, उसी पार्टी का एक वरिष्ठ नेता अगर ये कहे कि भाजपा और कांग्रेस को खतरा एक-दूसरे से नहीं, अपने आपके भीतर पैदा हो चुके विरोधियों से है, तो समझा जा सकता है कि भाजपा की अंदरूनी स्थिति क्या है। जाहिर है वे गुटबाजी से बेहद त्रस्त हैं। इसी कारण बोलते हैं कि भाजपा के दोनों गुटों की अपनी महत्वाकांक्षाएं हैं। एक गुटबाजी करेगा तो दूसरा भी करेगा। एक गुटबाजी के लिए जिम्मेदार होता है, दूसरा तो प्रतिक्रिया करता है। जब उनसे पूछा गया  कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है तो यह कह कर मन की बात छिपाने की कोशिश करते हैं कि जिसने गुटबाजी शुरू की। जब पूछा जाता है कि किसने शुरुआत की तो यह कह कर बचने की कोशिश भी करते हैं कि यह खोज का विषय है।
पार्टी में मर्यादा कम होने से हुई पीड़ा का ही नतीजा है कि वे यह कहने से नहीं चूकते कि हम मर्यादा रखते थे। शेखावत को नेता माना तो माना। उनसे हम आपत्ति रखते थे तो वे जायज चीजें तुरंत मान लेते थे। वे जिद्दी नहीं थे। इससे झगड़ा नहीं होता था।
वसुंधरा राजे को मुख्यमंत्री पद का दावेदार मान कर चुनाव लडऩे के मुद्दे पर उनके क्या विचार हैं, ये उनके इस जवाब से स्पष्ट हो जाता है:-जरूरी नहीं कि किसी को लोकतंत्र में चुनाव से पहले नेता घोषित किया जाए। किसी एक आदमी को नेता तब घोषित किया जाता है, जब उसका नाम घोषित होने से लाभ होता हो। यह गंभीर प्रश्न है कि नेता घोषित हो कि नहीं! यह विषय केंद्रीय चुनाव समिति तय करती है। वह फायदे और नुकसान देखे। . .भैरोसिंह शेखावत मुख्यमंत्री रहे, लेकिन उन्हें कभी मुख्यमंत्री घोषित थोड़े किया गया था। आज यह तो तय है कि मुख्यमंत्री कौन बनेगा?
इससे भी एक कदम आगे बढ़ कर बोलते हैं कि आप बात तो लोकतंत्र की करते हैं तो किसी को मुख्यमंत्री पहले कैसे घोषित कर सकते हैं! आप चुने हुए विधायकों के अधिकार की अवहेलना कैसे कर सकते हैं! कई बार नेता घोषित करने के दुष्परिणाम भी होते हैं। महत्वाकांक्षाएं जब सीमा पार कर जाती हैं तो वे पार्टी के लिए घातक होती हैं।
जब वसुंधरा की लोकप्रियता का पार्टी को लाभ मिलने का सवाल किया गया तो बोलते हैं कि भाजपा में टीम वर्क रहा है। कभी उन्होंने किसी व्यक्ति पर अपने आपको आश्रित नहीं किया।
कुल मिला कर भाभड़ा के इस साक्षात्कार से चुके हुए भाजपा नेताओं की धारणा का खुल कर आभास होता है।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, नवंबर 11, 2012

गडकरी की विदाई तय, जोशी-जेटली का नाम उभरा


हालांकि पूर्ति कंपनी विवाद के बाद भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी को हटाए जाने की चर्चाओं पर पार्टी ने विराम लगा दिया है, मगर यह तय माना जा रहा है कि उन्हें दुबारा अध्यक्ष बनाए जाने की संभावना पूरी तरह से समाप्त हो गई है। इसका संकेत इस बात से भी मिलता है कि भाजपा की आधिकारिक वेबसाइट बीजेपी.ओआरजी में जहां उनके दूसरी बार अध्यक्ष बनने से पहले ही अगले कार्यकाल में अध्यक्ष के रूप में उनका नाम डाल दिया गया था, लेकिन विवाद होने पर उनके दूसरे कार्यकाल वाला कालम हटा ही दिया गया। रहा सवाल नए अध्यक्ष का तो उस पर मंथन शुरू हो गया है। चर्चा में यूं तो कई नाम हैं, जिनमें पूर्व अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी, अरुण जेटली आदि की चर्चा है, मगर समझा जाता है कि संघ को डॉ. मुरली मनोहर जोशी का नाम ज्यादा रुचता है। उसकी सबसे बड़ी वजह ये है कि उन पर अब तक कोई दाग नहीं लगा है और दूसरा ये कि वे सीनियर होने के नाते डिजर्व भी करते हैं।
यूं तो पार्टी का एक धड़ा फिर से आडवाणी की ताजपोशी करने के पक्ष में है, मगर संघ इसके लिए राजी नहीं हो रहा, क्योंकि जिन्ना संबंधी बयान की वजह से संघ के दबाव में उन्हें पद छोडऩा पड़ा था। अब अगर संघ उनके नाम पर सहमति देता है तो इसका ये ही अर्थ निकाला जाएगा कि संघ समझौते को मजबूर हुआ है। बावजूद इसके आडवाणी के नाम को पूरी तरह से नकारा नहीं गया है। इस बीच दूसरा नाम राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली का उभरा है, जिनको नरेन्द्र मोदी व आडवाणी का समर्थन हासिल माना जा रहा है। मंथन के दौरान चंद दिन बाद ही मुरली मनोहर जोशी का नाम भी उभरा है, जिनको कि संघ का समर्थन हासिल होने की संभावना जताई जा रही है। बताया जाता है कि वाराणसी से सांसद जोशी के इलाके में अरसे संघ प्रचारक का काम देखते रहे व मौजूदा सरकार्यवाह डॉ. कृष्णगोपाल ने उनका नाम सुझाया है और उसके लिए संघ के अन्य प्रमुख नीति निर्धारकों को लामबंद भी किया जा रहा है।
यहां यह बताना प्रासंगिक ही होगा कि जोशी पार्टी में कितनी दमदार  स्थिति में रहे हैं। पिछली बार वे लोकसभा में विपक्ष का नेता बनते बनते रह गए थे। वे संघ की पहली पसंद थे, मगर हुआ यूं कि ऐन वक्त पर आडवाणी व संघ के बीच एक समझौता हुआ, वो यह कि संघ आडवाणी की ओर से सुझाए गए सुषमा स्वराज के नाम पर आपत्ति नहीं करेगा और संघ की ओर से अध्यक्ष के रूप में पेश नितिन गडकरी के नाम पर ऐतराज नहीं जताएंगे। नतीजतन जोशी नेता प्रतिपक्ष बनते बनते रह गए। ताजा हालत में जहां सुषमा स्वराज पूरी तरह से गडकरी का साथ दे रही हैं तो आडवाणी ने अरुण जेटली पर हाथ धर दिया है। अब देखना ये है कि संघ आडवाणी और मोदी के दबाव में आता है या फिर अपनी पसंद के जोशी को अध्यक्ष बनवाने मे कामयाब रहता है।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, नवंबर 08, 2012

मजम्मत के काबिल है सरवर चिश्ती का बयान



महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह की रजिस्टर्ड  संस्था अंजुमन सैयद जादगान के पूर्व सचिव सरवर चिश्ती ने अगर वाकई ये कहा है कि मोदी प्रधानमंत्री बन गए तो कोई ताज्जुब नहीं कि सारे मुसलमान आतंकवादी बन जाएं, तो वह बयान मजम्मत के काबिल है।
यह बयान दो मायनों में गैर वाजिब माना जा सकता है। एक तो वे दुनिया में सांप्रदायिक सौहार्द्र की मिसाल दरगाह शरीफ से जुड़े हुए एक जिम्मेदार खादिम हैं, जिनके मुंह से शांति का संदेश मिलने की उम्मीद की जानी चाहिए। दूसरा ये कि अगर वे ऐसा सोचते हैं तो यह उनकी निजी राय हो सकती है, मगर पूरी मुस्लिम कौम की तरफ से इस तरह के बयान का वे हक नहीं रखते।
जानकारी के मुताबिक उनके विवादित बयान पर मंगलूर शहर की पांडेश्वर पुलिस ने मामला दर्ज किया है। गत दो नवंबर को पॉपूलर फ्रंट ऑफ इंडिया की सार्वजनिक बैठक में दिए गए इस बयान पर वहां के नागरिक सुनील कुमार ने शिकायत दर्ज करवाई है कि यह भड़काऊ भाषण लोंगों को दंगे उकसाने प्रयास है।
हालांकि अब अजमेर आ कर उन्होंने एक तरफ तो यह कहा है कि उन्होंने साफ सुथरी बात कही है और उन्हें अपने कहे का मलाल नहीं है, मगर दूसरी ओर बयान में सुधार कर यह भी कहा है कि यदि मोदी देश के प्रधानमंत्री बनते हैं तो देश में सेक्युलरिज्म कहां रह पाएगा? उनका पहला बयान जहां वाकई आपत्तिजनक है, वहीं दूसरा बयान ऐसा है, जिसकी चिंता   कांग्रेस सहित अन्य धर्मनिरपेक्ष ताकतों को भी है। उसकी वजह ये है कि मोदी अपनी छवि विकास पुरुष के रूप में स्थापित करने की लाख कोशिशों के बाद भी सांप्रदायिकता की छाप से तो मुक्त नहीं हो पाए हैं। विशेष रूप से मुसलमानों में तो मोदी की छवि कत्तई अच्छी नहीं कही जा सकती। इस रोशनी में चिश्ती का बाद वाला बयान कुछ-कुछ ठीक प्रतीत होता है। और कुछ नहीं तो इससे कम से कम मुसलमानों के बीच मोदी की छवि कैसी है, उसका अनुमान तो होता ही है। अपनी बात को बल प्रदान करने के लिए चिश्ती का यह कहना समझ में आता है कि गुजरात दंगों के बाद पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी कहा था सीएम को राजधर्म निभाना चाहिए। अमेरिका ने भी वीजा पर रोक लगा दी थी। पूरे देश और दुनिया में गुजरात दंगों और विशेष तौर पर अल्पसंख्यकों के नरसंहार की कड़ी भत्र्सना हुई है। वे कहते हैं कि ऐसे में मेरा कहा एक रिएक्शन है। बेशक उनका कहा एक रिएक्शन है, मगर यदि उन्हें आशंका है कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर ताज्जुब नहीं कि सारे मुसलमान आतंकवादी हो जाएं, तो यह अतिवादी नजरिया है। भले ही उन्होंने ऐसा भाववेश में आ कर कहा हो या उनकी जुबान फिसली हो, मगर उनका वह बयान मजम्मत के काबिल ही है। वो इसलिए कि ऐसा कह कर वे सारे मुसलमानों को कट्टरपंथी करार दिए दे रहे हैं। ऐसे में मुसलमानों और विशेष रूप से खादिमों की जमात को उनके बयान की मजम्मत करनी चाहिए। खादिमों को इसलिए कि दरगाह से जुड़ा कोई जिम्मेदार शख्स अगर ऐसा कहता है तो इससे न केवल खादिम कौम पर संदेह उत्पन्न हो सकता है, अपितु दरगाह शरीफ पर अकीदा रखने वाले लाखों हिंदुओं की आस्था पर भी असर पड़ सकता है। अब देखना ये होगा कि चिश्ती अपने बयान में घोषित रूप से संशोधन करते हैं या उन पर संशोधन का दबाव बनता है। और या फिर बात आई गई हो जाती है। जहां तक चिश्ती को निजी तौर पर जानने वालों का सवाल है, उन्हें एक प्रगतिशील खादिम के तौर पर जाना जाता है और खादिमों में नई सोच लाने की उनकी कोशिशों को सब जानते हैं। यही कारण है कि उन्हें यकीन ही नहीं हो रहा कि क्या वे ऐसा बयान भी दे सकते हैं, या फिर बयान में कुछ हेरफेर है।

-तेजवानी गिरधर

मंगलवार, नवंबर 06, 2012

गडकरी के बयान पर इतना बवाल क्यों?


भाजपा के अध्यक्ष नितिन गडकरी के हालिया बयान पर बड़ा बवाल हो रहा है। कांग्रेसी तो उन पर हमला बोल ही रहे हैं, भाजपा में भी आग लग गई है। हालत ये हो गई कि गडकरी को खेद जताना पड़ा।
असल में उन्होंने कहा ये था कि स्वामी विवेकानंद और दाऊद इब्राहिम का आईक्यू लेवल एक जैसा है। एक ने उसका उपयोग समाज के लिए किया तो दूसरे गुनाह के लिए। सबसे पहले इसे लपका इलैक्ट्रॉनिक मीडिया ने। जैसी कि उसकी आदत है, किसी के भी बयान को सनसनीखेज बना कर पेश करने की, वैसा ही उसने किया। ऐसे में भला कांग्रेस पीछे क्यों रहती। उसने मौका पा कर बयानबाजी शुरू कर दी। इस बीच गडकरी से पहले से तपे हुए भाजपा सांसद राम जेठमलानी ने भी फायदा उठाया। उनके बेटे महेश जेठमलानी ने पार्टी की राष्ट्रीय कार्यसमिति से इस्तीफा दे दिया। दोनो पिता-पुत्र ये चाहते हैं कि गडकरी इस्तीफा दें। जेठमलानी तो पहले भी मांग कर चुके हैं, जब गडकरी पर आर्थिक गडबड़ी करने का आरोप लगा। वे यहां तक बोले थे कि उनके पास भी गडकरी के खिलाफ सबूत हैं। सबको पता है कि जेठमलानी जिसके पीछे पड़ जाते हैं तो हाथ धो कर। ऐसे में भला वे ताजा बयान को क्यों नहीं लपकते। मगर असल सवाल ये है कि गडकरी ने आखिर इतना गलत क्या कह दिया।
बेशक उन्होंने विवेकानंद व दाऊद की तुलना की, मगर मात्र इस मामले में कि दोनों दिमागी तौर पर तेज हैं। भला इसमें गलत क्या है? दाऊद का दिमाग तेज है, तभी तो माफिया डॉन बना हुआ है। उन्होंने ये तो नहीं कहा कि दाऊद विवेकानंद की तरह ही महान है। या दाऊद को भी विवेकानंद की तरह सम्मान से देखा जाना चाहिए। असल में हमारी मानसिकता ये है कि किसी भी मामले में ही सही, दोनों की तुलना कैसे की जा सकती है। सारा जोर इस पर है कि सर्वथा विपरीत ध्रुवों की एक दूसरे से तुलना कैसे की जा सकती है, इसी कारण बवाल मचा हुआ है। रहा सवाल गडकरी की मंशा का तो वह बयान के दूसरे हिस्से से ही स्पष्ट है कि एक ने समाज के लिए आईक्यू का इस्तेमाल किया तो दूसरे ने गुनाह की खातिर। इसमें गलत क्या है? यह ठीक इसी तरह से है, जैसे हम मर्यादा पुरुषोत्तम राम को भगवान का अवतार मानते हैं, मगर साथ ही रावण को प्रकांड विद्वान भी मानते हैं, जिसने कि अपनी विद्वता का दुरुपयोग किया। मगर हमारे यहां इलैक्ट्रॉनिक मीडिया में तथ्यों तो अलग ढ़ंग से उभारने की प्रवृत्ति बढ़ी हुई है। थोड़ी सी भी गुंजाइश हो तो बाल की खाल उतारना शुरू कर दिया जाता है, भावनाएं भड़काना शुरू कर दिया जाता है, जिसका कि गडकरी को ख्याल नहीं रहा। एक जिम्मेदार राजनीतिक पार्टी के अध्यक्ष के नाते उन्हें अंदाजा होना चाहिए था कि उनके बयान से विवाद हो सकता है। भले ही उनकी मंशा पूरी तरह से साफ हो, मगर इतना तो उन्हें पता होना ही चाहिए कि हमारे यहां मीडिया किसी प्रकार काम करता है और आम लोगों की मानसिकता कैसी है, जिसे कि आसानी से भुना लिया जाता है।
सच ये भी है कि गडकरी इससे पहले भी इस तरह के बयान दे चुके हैं, जो कि उनकी मर्यादा के सर्वथा विपरीत थे। ऐसा प्रतीत होता है कि जब वे बोलते हैं तो कुछ का कुछ निकल जाता है, जो कि उनके लिए परेशानी का सबब बन जाता है। ताजा मामले में भी ऐसा ही हुआ। मगर निष्पक्ष विवेचना की जाए तो उन्होंने कुछ भी गलत नहीं कहा, मगर लोकतंत्र में अगर सही को गलत कहने वालों की संख्या ज्यादा हो तो उसे मानना ही पड़ता है। गडकरी ने भी ऐसा ही किया। उन्होंने खेद जता दिया, हालांकि उन्होंने अपने बयान का खंडन नहीं किया है।
-तेजवानी गिरधर

सोमवार, नवंबर 05, 2012

रघुवेन्द्र मिर्धा पर टिकी हैं निगाहें


संयुक्त संसदीय समिति के भूतपूर्व अध्यक्ष स्वर्गीय रामनिवास मिर्धा के पौत्र व राजस्थान में केबिनेट मंत्री रहे हरेन्द्र मिर्धा के पुत्र रघुवेन्द्र मिर्धा क्या चुनावी राजनीति में आगे आएंगे या आने का मानस है, इसकी चर्चा इन दिनों नागौर जिले में काफी है। हालांकि स्वयं रघुवेन्द्र ने अपनी ओर से इस प्रकार की रुचि जाहिर नहीं की है, मगर नागौर के युवाओं में वे जिस प्रकार लोकप्रिय होते जा रहे हैं, उससे इस चर्चा को बल मिला है। हालांकि यह पूरी तरह से कांग्रेस और मिर्धा परिवार पर निर्भर करता है कि रघुवेन्द्र मिर्धा को चुनावी संग्राम में उतारा जाएगा या नहीं, मगर क्षेत्र के युवाओं में वे आशा की किरण बनते जा रहे हैं। वे माइनिंग एंड मिनरल इंडस्ट्रीज मिर्धा ग्रुप के सीईओ हैं। यहां यह बताना अप्रासंगिक नहीं होगा कि हरेन्द्र मिर्धा पिछले विधानसभा चुनाव में हार गए थे, वरना मुख्यमंत्री पद के दावेदार होते।
ऐसा नहीं है कि केवल जाटों की नई पीढ़ी ही उनमें रुचि ले रही है, अन्य समाजों में भी उनके समर्थक हैं। और इसकी वजह ये है कि एक तो वे अजमेर के प्रतिष्ठित मेयो कॉलेज सहित दिल्ली विश्वविद्यालय व डिप्लोमेटिक एकेडमी आफॅ लंदन से पढ़े-लिखे हैं और दूसरा जातिवाद उनमें कहीं नहीं झलकता। स्वभाव से सौम्य व शांत होने की वजह सहज ही युवकों को आकर्षित कर लेते हैं। इसके अतिरिक्त उनमें बुद्धिजीवी होने का गुण फेसबुक पर उनके अकाउंट पर आने वाली पोस्ट व उन पर होने वाली टिप्पणियों से झलकता है। फेसबुक पर उनकी अच्छी मित्र मंडल व फॉलोइंग है। उनके एक फेसबुक फॉलोअर डेगाना निवासी व फिलवक्त दिल्ली में काम कर रहे योगेन्द्र चौधरी ने तो उन्हीं के एक समर्थक दिलीप सरावग की रघुवेन्द्र मिर्धा के व्यक्तित्व पर बाकायदा एक छोटी सी कविता भी पोस्ट की है, जो यह झलकाती है कि उनमें अपना भावी नेता तलाशा जा रहा है। देखिए कविता कुछ इस प्रकार है:-

रघुवेन्द्र मिर्धा
यह सौम्य युवा
सागर सा शांत सहृदय है
मगर उमड़ता इसमें ज्वार है
ज्वार!
नागौर सेवा का
ज्वार!
उन ख्वाबों का
जो कभी पाले
रामनिवास जी ने
आमजन हितार्थ
पर........
आङ़े आ गये वो
जिनके बड़े थे स्वार्थ
लेकिन
शांत सागर में आता जब ज्वार है
बह जाते हैं वो कमजोर जिनका आधार है
मुझे उस ज्वार का इन्तजार है
मुझे उस ज्वार का भरोसा है, विश्वास है।

-तेजवानी गिरधर

सोमवार, अक्तूबर 29, 2012

शर्म नहीं आई पूर्व थल सेना अध्यक्ष सिंह को बयान देते?


पूर्व थल सेना अध्यक्ष जनरल वी के सिंह ने मुम्बई में टीम अन्ना शामिल होते हुए अन्ना हजारे के साथ संयुक्त बयान दिया कि यूपीए सरकार असंवैधानिक है और संसद को तुरंत भंग किया जाए। इतना ही नहीं उन्होंने यहां तक कहा कि जितना ब्रिटिश सरकार ने नहीं लूटा, उससे कहीं अधिक पिछले पैंसठ साल में सरकार ने देश को लूटा है। कदाचित बहुत ज्यादा नहीं पढ़े-लिखे अन्ना हजारे को सेना की नौकरी करते हुए सरकार की हकीकत समझ में न आई हो, मगर पूरी जिंदगी थल सेना अध्यक्ष जैसे गरिमापूर्ण पद की सुविधाओं और सम्मान को भोग चुका व्यक्ति अगर सेवा निवृत्त हो कर इस प्रकार का बयान देता है तो वह सरकार से कहीं ज्यादा खुद उसके लिए शर्मनाक है। यदि वाकई देश का इतना दर्द था, देशभक्ति इतना ही उछाल मार रही थी तो नौकरी छोड़ कर देते ये बयान देते। कैसी विडंबना है कि इसी सरकार के सर्वाधिक महत्वपूर्ण पदों में एक पर रह कर पूरी जिंदगी सुख भोगने वाले व्यक्ति की जुबान अभिव्यक्ति की आजादी का उपयोग करते हुए लडख़ड़ाई तक नहीं। वाकई यह बेशर्मी की इंतहा है।
होना तो यह चाहिए था कि जब भी सिंह की समझदानी में यह बात आई कि यह सरकार लुटेरी है और देशभक्ति इतनी ही कूट-कूट कर भरी थी तो नौकरी छोड़ देते और सरकार के खिलाफ बिगुल बजा देते, तो उनकी महानता समझ में आती। कहने की जरूरत नहीं है कि ये वही सिंह हैं, जो कुर्सी की पूरा सुख भोगने की खातिर उम्र विवाद को सेवानिवृत्ति तक खींचते रहे। उन्हें इस संदेह का लाभ कत्तई नहीं दिया जा सकता कि उन्हें नौकरी पर रहते सरकार की असलियत का पता नहीं था और नौकरी पूरी होते ही पता लगा है कि सरकार लुटेरी है। स्पष्ट है कि वे सरकार के बारे में अपनी धारणा को दिल में कायम रखते हुए नौकरी के अनुशासन में बंध कर चुप थे और साथ ही उसका पूरा ऐश्वर्य भी भोग रहे थे। अब जब कि नौकरी नहीं रही तो खुल कर मैदान में आ गए हैं। पता है कि अब उनका कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता, चाहे जो बयान जारी करें।
एक बात और। ये वही वी के सिंह हैं, जिनके उम्र विवाद के चलते सेना व सरकार के बीच टकराव की नौबत आ गई थी। बीते साल 4 अप्रैल को इंडियन एक्सप्रेस में खबर छपी कि 16 जनवरी को सेना की दो टुकडिय़ां हिसार और आगरा से दिल्ली की ओर कूच कर चुकी थीं, जिसका सीधा सा अर्थ था कि सिंह तख्ता पटल जैसी हरकत करने का मानस बना चुके थे। यह वही दिन था, जिस दिन सेना प्रमुख की याचिका सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट में आ रही थी। मीडिया में यहां तक छपा कि क्या जनरल सिंह ने 16 जनवरी की रात को भारत का परवेज मुशर्रफ बनने की ठान ली थी? वे लोकतंत्र का अपहरण कर सैन्य शासन लाने का ताना-बाना बुन चुके थे? हालांकि भारत सरकार और भारतीय सेना, दोनों ने इन आरोपों का खंडन किया और कहा गया कि वह सेना की टुकडिय़ों का रूटीन अभ्यास था, मगर शक की सुई तो सिंह पर घूम चुकी थी। इस खबर को लेकर यह बात भी आई कि सिंह को बदनाम करने के लिए यह प्रायोजित की गई थी। इस बारे में सैन्य मामलों को जानकार सेवानिवृत्त मेजर जनरल अशोक मेहता का कहना था कि भारत में इस तरह तख्ता पलट करना अथवा तख्ता पलट की धमकी देना संभव नहीं है, लेकिन इस खबर में शक तो गुंजाइश है है। शक इसलिए माना गया चूंकि आम तौर पर सेना की टुकडिय़ों के अभ्यास की खबर सरकार को पहले से ही दी जाती है, लेकिन इस मामले में ऐसा नहीं हुआ था।
एक बात और गौर करने लायक है। वो यह कि आज अगर सिंह को अन्ना हजारे गले लगा रहे हैं तो वह इसी कारण न कि सिंह के नाम के साथ पूर्व थल सेना अध्यक्ष का तमगा लगा है। उनका बयान असर डालेगा कि एक पूर्व थल सेना अध्यक्ष यदि सरकार के बारे में कुछ कह रहे हैं तो, जरूर सही ही कह रहे होंगे। यानि कि उसी पद का लाभ उठा रहे हैं। उससे भी गंभीर बात, जिस पर किसी की नजर नहीं गई है, वो यह कि एक पूर्व सेना अध्यक्ष का यह रवैया सैनिकों में बगावत का भाव भी तो पैदा कर सकता है। इस सिलसिले में अन्ना का सेवानिवृत्त सेनाधिकारियों को लामबंद करना कई प्रकार की आशंकाओं को जन्म देता है।
ऐसा नहीं कि सिंह अकेले ऐसे अफसर हैं, जो सेवानिवृत्ति के बाद खुल कर सरकार के खिलाफ खड़े हैं। पहले भी कई अफसर इस प्रकार की हरकतें कर चुके हैं। खैरनार जैसे कम ही अफसर रहे हैं जो ईमानदारी को जिंदा रखने के लिए नौकरी पर रहते हुए सरकारों से टकराव ले चुके हैं। इस सिलसिले में अरविंद केजरीवाल जरूर समर्थन के हकदार हैं, जिन्होंने समाजसेवा व देश सेवा की खातिर अच्छी खासी नौकरी छोड़ दी, यह बात दीगर है कि उसमें भी उन्होंने नियम-कायदों को ताक पर रख दिया। बाद में कलई खुली तो बड़ा अहसान जताते हुए बकाया चुकाने को राजी हुए।
लब्बोलुआब, देश हित की खातिर लोकतांत्रिक तरीके से आंदोलन करना भले ही हमारा जन्मसिद्ध अधिकार हो, मगर पूरी जिंदगी सरकारी नौकरी का आनंद उठा कर सेवानिवृत्त होने पर सरकार के खिलाफ बकवास करना कत्तई जायज नहीं ठहराया जा सकता।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, अक्तूबर 25, 2012

किरण ने भी जताई गडकरी के प्रति वफादारी


भाजपा की राष्ट्रीय महासचिव एवं विधायक श्रीमती किरण माहेश्वरी ने भी अपने अध्यक्ष नितिन गडकरी के प्रति वफादारी जाहिर कर दी है। इससे पहले जहां पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने गडकरी को संबल प्रदान किया, वहीं लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज भी खुल कर साथ खड़ी हो चुकी हैं। प्रवक्ता बलबीर पुंज व मुख्तार अब्बास नकवी भी औपचारिक रूप से निष्पक्ष जांच की मांग करते हुए औपचारिकता निभा चुके हैं। ये बात दीगर है कि शतरंज में ढ़ाई घर की चाल चलने वाले भाजपा सांसद राम जेठमलानी ने जरूर विभीषण वाला काम कर दिया है।
खैर, अपुन बात कर रहे थे, किरण माहेश्वरी की। उन्होंने अपने लिखित बयान में गडकरी को इस बात के लिए बधाई दी है कि उन्होंने उन पर लगाए जा रहे भ्रष्टाचार के आरोपों की किसी भी एजेन्सी से जांच करवाने को कहा है। अब इसमें बधाई वाली बात कहां से आ गई, ये तो खुद किरण माहेश्वरी ही जानें। किरण के बयान में विरोधाभास देखिए। एक ओर वे कहती हैं कि सारी एजेंसियां कांग्रेस सरकार के नियत्रंण में है, इसलिए यह भी नहीं कहा जा सकता कि जांच में शिथिलता एवं पक्षपात की संभावना है। दूसरी ओर वे यह अपेक्षा भी रख रही हैं कि केन्द्रीय सरकार के अधिकरण कांग्रेस के दबाव में विद्वेष पूर्वक कार्यवाही नहीं करेंगे। सवाल ये उठता है कि यदि आपको सरकार पर भरोसा ही नहीं है तो जांच की मांग काहे को कर रहे हैं। अर्थात जांच की मांग इस कारण कर रहे हैं ताकि फिलहाल कहीं कमजोरी साबित न हो जाए और शक इस कारण कर रहे हैं ताकि अगर बाद में सच में गड़बड़ी उजागर हो जाए तो कम से कम यह कहने की गुंंजाइश तो रहे कि सरकार ने बदले की भावना से काम किया है।
एक और दिलचस्प बात देखिए। किरण ने कहा है कि नितिन गडकरी पर भ्रष्टाचार के आरोप कांग्रेस की एक गहरी चाल है। जबकि सच ये है कि उनके खिलाफ पहले अरविंद केजरीवाल ने मामला उठाया और बाद में एक अखबार ने अपनी खोज खबर के आधार पर।
किरण का कहना है कि देश की सत्ता संभालने के बाद से ही कांग्रेस की रणनीति है, विरोधियों की प्रतिष्ठा गिराना और चरित्र हनन। वाकई कांग्रेस की बड़ी दुर्गति है। विरोधी कहते हैं कि कांग्रेस बदमाशी कर रही है, उधर केजरीवाल ने चिल्ला चिल्ला कर आसमान सिर पर उठा रखा है कि कांग्रेस व भाजपा मिलीभगत कर एक दूसरे के निजी मामलात दबा रहे हैं।
किरण का कहना है कि भाजपा कांग्रेस के षड्यंत्रों से विचलित नहीं है। सवाल उठता है कि कौन कह रहा है कि भाजपा विचलित है? ये तो खुद भाजपा नेताओं को ही पता है कि वे सकते में हैं या नहीं कि जिनके नेतृत्व में आगामी लोकसभा चुनाव लडऩा है, वहीं निशाने पर आ गया है।
प्रसंगवश बता दें कि जब केजरीवाल ने हमला बोला था तब तो गडकरी खुल कर सामने आए थे, मगर अखबार के खुलासे के बाद से वे स्वयं छिप कर अपने अन्य साथियों से बयान जारी करवा रहे हैं। सुषमा स्वराज ने तो गडकरी को पाक साफ बताने के लिए बड़ा ही लचर तर्क दिया। वे बोलीं कि गडकरी स्वयं रजत शर्मा के कार्यक्रम आपकी अदालत में तीखे सवालों के जवाब दे चुके हैं, जबकि एक आम आदमी भी जानता है कि रजत शर्मा का यह कार्यक्रम नूरा कुश्ती से ज्यादा कुछ नहीं होता। इसमें लगता तो ये है कि सवाल तीखे हैं, मगर सच ये है कि यह सब मैच फिक्सिंग होती है और इसके जरिए कटघरे में बैठे नेता को उसको पूरा पक्ष उभारने का मौका दिया जाता है। दर्शक तक भाड़े के लाए हुए नजर आते हैं, जो कि नेता के बयानों पर तालियों की गडगड़ाहट से स्टूडियो को गुंजा देते हैं।
खैर, फिलहाल सरकार ने जांच शुरू करवा दी है, जिसमें कि अभी वक्त लगेगा, तब तक तो गडकरी की जान सांसत में ही है।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, अक्तूबर 21, 2012

दिग्विजय के सवालों पर अरविंद की बोलती बंद


इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के सुनियोजित सहयोग से राजनीतिक हस्तियों पर सीधे हमले कर हंगामाश्री बने अरविंद केजरीवाल की बोलती बंद है। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने जैसे ही उनके व्यक्तिगत व सार्वजनिक जीवन से संबंधित सवाल उठाए हैं, उनका जवाब देते उनसे नहीं बन रहा। अपनी पादर्शिता की ढिंढोरा पीटने वाली टीम केजरीवाल दिग्विजय के सवालों पर लीपापोती करती नजर आ रही है। केजरीवाल जानते हैं कि अगर जवाब दिया तो उनके आदर्शों की पूरी पोल खुल जाएगी और सवाल दर सवाल उठेंगे तो सारी छकड़ी भूल जाएंगे, सो बहाना ये बना रहे हैं कि पहले दिग्विजय अपने आकाओं सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह व राहुल में से किसी को उनसे खुली बहस के लिए राजी करें, तब वे जवाब देंगे।
असल में वे जानते हैं कि दिग्विजय सिंह बिना अध्ययन के हवा में सवाल नहीं उठाते। उनके सवालों पर भले ही लोग खिल्ली उड़ाते हुए अपशब्दों का इस्तेमाल करते हैं, पागल करार देते हैं, मगर बाद में खुलासा हो जाता है कि उनके सवाल में दम था। केजरीवाल जानते हैं कि वे दिग्विजय सिंह से अटके तो उनके सवालों के जवाब देते खुद की चाल ही भूल बैठेंगे। हालांकि उनका तर्क ये है कि दिग्विजय के सावलों में से एक भी सवाल देश से जुड़ा नहीं है, इसलिए जवाब देने की कोई जरूरत नहीं, मगर सच ये है कि कई सवाल उनके आंदोलन व उनके एनजीओ की पोल खोलने वाले हैं। हालांकि वे कहते हैं कि दिग्विजय सिंह जनता के करप्शन के मुद्दे से ध्यान हटाना चाहते हैं, मगर सच ये भी है कि खुद केजरीवाल भी देश के अन्य सभी जरूरी मुद्दों से ध्यान हटा कर केवल अपनी भावी राजनीतिक पार्टी को चमकाने में ही जुटे हुए हैं।
टीम केजरीवाल के अहम सदस्य संजय सिंह कह रहे हैं कि हमने 15 मंत्रियों से सवाल पूछे, लेकिन हमें एक भी सवाल का जवाब नहीं मिला। सरकार की जवाबदेही जनता के प्रति है तो उसे सामने आकर खुली बहस करना चाहिए। मगर उनके इस तर्क से केजरीवाल पर उठे सवालों के जवाब न देने का कोई ठोस आधार नहीं बनता। चलो, वे 15 मंत्री तो चोर हैं, भ्रष्ट हैं, मगर केजरीवाल तो ईमानदारी की मिसाल हैं, वे क्यों मंत्रियों जैसा रवैया अपना रहे हैं?
दरअसल व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर लोगों को सब्ज बाग दिखा कर चर्चित हुए अरविंद केजरीवाल जब अपने राजनीतिक एजेंडे पर आए, तब तक तो ठीक था, मगर खुद को महान व ईमानदारी का पुतला साबित करने के लिए जैसे ही राजनीतिक शख्सियतों पर सीधे हमले पर उतारु हुए, उनका घटियापन खुल कर सामने आ गया। अगर ये मान भी लिया जाए कि दिग्विजय सिंह घटिया व अविश्वसनीय हैं, तो वे तो हैं ही इसी रूप में चर्चित, मगर इससे केजरीवाल की महानता तो स्थापित नहीं हो जाती। लब्बोलुआब, केजरीवाल को पहली बार सेर को सवा सेर मिला है। अब आया है ऊंट पहाड़ के नीचे।
-तेजवानी गिरधर

शुक्रवार, अक्तूबर 19, 2012

क्या वसुंधरा राजस्थान में नई पार्टी बनाने जा रही हैं?


राजस्थान में पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे और संघ लॉबी में बंटी भाजपा में फिलवक्त सुलह होती नहीं दिख रही, सो एक बार इस प्रकार की खबरें आ रही हैं कि यदि भाजपा हाईकमान ने श्रीमती राजे को आगामी विधानसभा चुनाव में टिकट वितरण में फ्री हैंड नहीं दिया तो वे अपनी अलग क्षेत्रीय पार्टी बना सकती हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया, दिल्ली के शुक्रवार के अंक में फ्रंट पेज पर लीड स्टोरी शाया करते हुए इस बात की संभावना जताई गई है। हालांकि श्रीमती राजे ने तुरंत इसका खंडन पुरजोर शब्दों में किया है, लेकिन इससे इस आशय के संकेत मिलते हैं कि कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ है। संभव है वसुंधरा विरोधियों ने उन्हें बदनाम करने के लिए इस प्रकार की खबर छपवाई हो, जिसकी की आशंका स्वयं वसुंधरा राजे भी व्यक्त कर रही हैं। कयास ये भी लगाया जा सकता है कि यह स्टोरी वसुंधरा खेमे की उपज हो, ताकि हाईकमान स्थिति की गंभीरता को समझे।
यहां उल्लेखनीय है कि पिछली बार जब वसुंधरा राजे को विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया गया था, तब भी इस बात की आशंकाएं जाहिर की गई थीं कि विधायकों का पूर्ण बहुमत साथ होने पर भी हाईकमान की दादागिरी से तंग आ कर वे नई पार्टी का गठन कर सकती हैं। वे इतनी सक्षम भी हैं। मगर एक साल तक नेता प्रतिपक्ष का पद खाली रहने के बाद जब उन्हें फिर से इस पद से नवाजा गया तो बात आई गई हो गई। पिछले दिनों जब पूर्व मंत्री गुलाब चंद कटारिया मेवाड़ में रथयात्रा निकालना चाहते थे, तब भी बड़ा भारी बवाल हुआ और वसुंधरा ने विधायकों के इस्तीफे मंगवा कर हाईकमान पर दबाव बनाया था। वह विवाद आज भी नहीं थमा है। अब भी कटारिया व पूर्व मंत्री ललित किशोर चतुर्वेदी आए दिन यही बयान दे रहे हैं कि पार्टी ने किसी नेता को मुख्यमंत्री पद के रूप में प्रोजेक्ट करके चुनाव लडऩे का निर्णय नहीं किया है, जबकि पार्टी की राष्ट्रीय महामंत्री श्रीमती किरण माहेश्वरी सहित अन्य नेता बार-बार कह रहे हैं कि राजस्थान की भावी मुख्यमंत्री वसुंधरा ही होंगी। इन्हीं बयानबाजियों के बीच टाइम्स ऑफ इंडिया की ताजा खबर ने एक बार फिर भाजपा में हलचल पैदा कर दी है। जयपुर में दिनभर चली सरगरमी के बाद आखिरकार वसुंधरा राजे को इस खबर का खंडन जारी करना पड़ा।
आइये, देखिए टाइम्स ऑफ इंडिया की स्टोरी में क्या-क्या कहा गया है। पेश है हूबहू रिपोर्ट:-
Raje to break away from BJP to form own party?
Miffed Over High Command Not Giving Free Hand
Akhilesh Kumar Singh TNN

Jaipur: Even as BJP battles instability in its Karnataka unit along with former CM B S Yeddyurappa threatening to walk out, a bombshell seems to be waiting to explode for the party in Rajasthan, with Vasundhara Raje on the verge of revolting against party’s central leadership. Raje, former Rajasthan CM and currently the leader of opposition in the state assembly, is considering walking away with a big chunk of “loyalists” to float her own regional party before assembly polls in the state — due in December next year — if the leadership does not recognize her pre-eminence in the state unit. Raje has demanded a say in the appointment of state chief, and an upper hand in the distribution of party tickets for the assembly polls.
    Raje is widely acknowledged to be the only leader in the BJP with a pan-state appeal: Something which defies Rajasthan’s reputation as a conservative state and has baffled political observers and sociologists alike.
    It is also recognized that sabotage was the chief reason why she failed to pull off a win in the last assembly election despite coming close to pulling off one in the face of anti-incumbency.
    The grouse of Raje and her supporters is that the appreciation of her being the best bet for the party is not reflected in way central leadership has been conducting its affairs, insisting on parity in the party between her and the “leaders who have no influence outside their assembly constituencies”.
    The indulgence of indiscipline has encouraged disproportionate ambitions, dealing a blow to the authority of the leadership. “Devi Singh Bhati (Kolayat MLA) has launched an independent campaign and challenged the party leadership to stop his campaign. Gulab Chand Kataria is already moving places. There is no discipline in the party and senior leaders are shy of projecting Vasundharaj ias a party leader. That leaves her with no option but to think about options beyond BJP,” said a Raje loyalist.
ROYAL REBEL
Vasundhara Raje was chief minister of Rajasthan from December 8, 2003 to December 11, 2008
First woman chief minister of the state
Initiated into politics by her mother Vijay Raje Scindia in 1982
Won 4 consecutive Lok Sabha polls from Jhalwar from 1989 onwards
Then BJP party president Rajnath Singh forced her to resign as leader of opposition in Rajasthan in Oct 2009
    Reinstated as leader of opposition in state after Gadkari took over as BJP's national president
    Recently threatened to quit party over Gulab Chand Kataria's anti-corruption campaign, forcing Kataraia to shelve his plan
    Sources in Raje camp claim 70 of 79 BJP MLAs have expressed their support for her 70 out of 79 MLAs may be backing Raje
Jaipur: Former chief minister Vasundhara Raje is planning to break away from the BJP and float her own regional party before the assembly polls. “Madam (Raje) was aghast at the national leaders’ indifference towards her repeated demand for a free hand in the run-up to assembly polls in the state,” BJP MLAs aligned with Raje told TOI.
    A leader from the Raje camp claimed that 70 out of the 79 MLAs have expressed their support to Raje, and several other party leaders are also willing to follow suit. While efforts to contact Raje proved futile, her trusted lieutenant and party chief whip in the state assembly, Rajendra Singh Rathore also refused to comment on the issue. “I have no information in this regard,” he said.
    Raje camp insiders said that they were in touch with a few independent legislators, including the six “turncoat” MLAs elected from the BSP who went on to join the Congress, providing a majority to the Ashok Gehlot government.
    Raje is also said to be mulling over an alliance with the BSP as that will not only strengthen them in eastern Rajasthan but also fetch a sizeable number of Muslim votes.
    The BSP did well in eastern Rajasthan during the 2008 assembly polls in the state as six MLAs were elected and several of its candidates finished runners-up.
    The trouble in Rajasthan unit spells serious concern for the party. BJP is hoping for a good tally of Lok Sabha seats from the state, but the prospect could suffer a setback if Raje heeds her supporters to go her separate way.
    Raje could be the latest addition to a long list of regional satraps of the BJP, who have had a falling out with the national leadership. Yeddyurappa is also toying with the idea of floating a regional party as the high command has refused to reinstate him as chief minister of Karnataka. The party has still not recovered from the loss caused by the exit of Kalyan Singh in Uttar Pradesh and Babulal Marandi has emerged a strong regional force in Jharkhand after parting ways with the BJP.
    The trend of satraps launching their own outfits is also seen as fallout of the vanishing Hindutva fervour and BJP’s failure to find a replacement for the charismatic Atal Bihari Vajpayee.
    After attending the recent assembly session in the state, Raje is camping in New Delhi. She met with several senior party leaders in the national capital to convince them about giving her a free hand to take final calls about the assembly polls. It was learnt that Raje also asked for state party chief Arun Chaturvedi to be substituted by a colleague of her choice, and rejection of the candidature of Gulab Chand Kataria, her detractor for the post.
    Senior leaders have rejected her demands and suggested that they will let her lead the party but no “free hand” will be encouraged as unanimity ought to be maintained among senior state leaders on all major issues.
    Kataria is a known Raje baiter and has already tried to open a parallel front as he planned a “rath yatra” against corruption in the beginning of this year. Raje vehemently opposed Kataria’s proposed campaign and that latter had to cancel the plan.
    Reports suggest that Kataria, this time around, has got support of other senior state leaders including Ghanshyam Tiwadi (deputy leader of opposition), Arun Chaturvedi (current state president), Lalit Chaturvedi and Narpat Singh Rajvi (son-in-law of Bhairon Singh Shekhawat). These leaders have reportedly maintained a concerted pressure on the BJP top brass to make sure that Raje was not allowed to “dictate” her will and that other leaders are also given the due consideration on party matters.
अब देखिए, श्रीमती राजे की ओर से जारी खंडन का हूबहू मजमून:-
नेता प्रतिपक्ष श्रीमती वसुन्धरा राजे का बयान
पार्टी के साथ मेरे और मेरे परिवार के रिश्तों पर मुझे कोई स्पष्टीकरण देने की आवश्यकता नहीं है। ये तो विरोधी दलों और कुछ स्वार्थी लोगों का राजनीतिक षडय़ंत्र है जो मेरे खिलाफ मीडिया में असत्य, भ्रामक और आधारहीन खबरें छपवाकर मेरी छवि को नुकसान पहुंचाना चाहते हैं। राजस्थान की जनता का प्यार और आशीर्वाद मेरे साथ है। इसलिये ऐसी खबरों से मैं विचलित होने वाली नहीं हूं और न ही ऐसी खबरों से भाजपा जैसी मजबूत पार्टी टूटने वाली है।
यह भी दुर्भाग्य की बात है कि टाइम्स ऑफ इण्डिया जैसे प्रतिष्ठित समाचार पत्र ने ऐसे लोगों के साथ मिलकर यह खबर प्रकाशित की है जो कि अवमाननापूर्ण है।
( वसुन्धरा राजे )

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

खुद अंजलि का घर शीशे का, पत्थर मारने चली


एक कहावत है कि जिनके खुद के घर शीशे के होते हैं, वे दूसरों के शीशे के घरों पर पत्थर नहीं मारा करते। लगता है ये कहावत बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकरी पर किसानों की जमीन हड़पने का आरोप लगाने वाली अंजलि दमानिया ने नहीं सुनी है। तभी तो केजरीवाल को बेवकूफ बना कर किए गए हवन उनके हाथों पर भी आंच आने लगी है। ये बात दीगर है कि अंजलि ये कह कर अपना पिंड छुड़वा रही हैं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद करने की वजह से उन्हें निशाना बनाया जा रहा है।
आपको याद होगा कि जब केजरवाली व दमानिया प्रेस कांफ्रेंस कर रहे थे तो टीम अन्ना की एक महिला कार्यकर्ता ने दमानिया पर सवाल उठाया था, मगर शोरगुल में वह खो गया। उस वक्त भले ही मामला दब गया हो, मगर बात चली तो दूर तक जाएगी। केजरीवाल भी सोच रहे होंगे कि बिना मामले की जांच किए दमानिया के चक्कर में अपनी क्रेडिट खराब करवा ली।
बताते हैं कि दमानिया ने खेती की जमीन खरीदने के लिए खुद को गलत तरीके से किसान साबित किया और बाद में जमीन का लैंड यूज बदलवा कर उसे प्लॉट में तब्दील कर बेच दिया। रायगढ़ प्रशासन ने जांच में पाया कि अंजलि दमानिया का किसान होने का दाव गलत है। बताते हैं कि दमानिया एसवीवी डेवलपर्स की डायरेक्टर भी हैं। जिस जगह उन्होंने गडकरी पर जमीन हड़पने का आरोप लगाया है, उसी के आसपास दमानिया की भी 30 एकड़ जमीन है। दमानिया ने 2007 में करजत तालुका के कोंडिवाडे गांव में आदिवासी किसानों से उल्हास नदी के पास जमीनें खरीदीं। आदिवासियों से जमीन खरीदने की शर्त पूरी करने के लिए उन्होंने नजदीक के कलसे गांव में पहले से किसानी करने का सर्टिफिकेट जमा किया। अपनी 30 एकड़ की जमीन के पास ही दमानिया ने 2007 में खेती की 7 एकड़ जमीन और खरीदी थी, जिसका लैंड यूज बदल कर उन्होंने बेच दिया। करजत के दो किसानों से उन्होंने जमीन लेते वक्त खेती करने का वादा किया था, लेकिन बाद में उस जमीन पर प्लॉट काटकर बेच दिए। बताते हैं कि पहले दमानिया और गडकरी के बीच अच्छे ताल्लुकात थे, लेकिन प्रस्तावित कोंधवाने डैम में पड़ रही 30 एकड़ जमीन बचाने में गडकरी से भरपूर मदद न मिलने की वजह से वह बीजेपी अध्यक्ष के खिलाफ मोर्चा खोल बैठीं। सवाल ये है कि जो दमानिया गडकरी के विकिट उड़ाने तक तो उतारू हो गई, लेकिन उनकी नैतिकता उस समय कहां थी जब उन्होंने अपनी जमीन बचाने के लिए आदिवासियों की जमीनें अधिग्रहित करने की मांग की।