तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

शनिवार, फ़रवरी 23, 2013

भाजपा समर्थित भारतीय मजदूर संघ हुआ खंड-खंड

bmsप्रदेश की कथित अनुशासित पार्टी भाजपा समर्थित भारतीय मजदूर संघ अब तीन खंडों में विभाजित हो गया हैै। कहा जाता है कि यह वह संघ है, जो सरकारी कर्मचारियों को राष्ट्रीय विचारधारा से जोडऩे का काम करता है। धरातल का सच ये है कि राजनीतिक मायनों में यह भाजपा समर्थित है। यह सबसे पुराना एवं एक मात्र कर्मचारी संगठन है। प्रदेश के सरकारी विभाग, निगम और बोर्ड की कर्मचारी राजनीति में उक्त संगठन का रोल तो रहता ही है, वहीं विधानसभा और लोकसभा चुनावों में भी उक्त संघ भाजपा की लाइफ लाइन का काम करता आया है। मौजूदा समय में यह शक्ति तीन खंडों में खंड -खंड हो रही है। इसके पीछे कुछ नए तो कुछ पुराने कारण उभर कर आए हैं।
वस्तुत: 2008 के चुनावों में भारतीय मजदूर संघ ने भाजपा राजनीति में अपना दखल देते हुए 25 टिकट मांगे। उस वक्त टिकट नहीं दिए गए। कहीं न कहीं भाजपा की हार में यह स्थिति भी कारण बनी। भारतीय मजदूर संघ के प्रदेश उपाध्यक्ष एवं राजस्थान राज्य कर्मचारी महासंघ भामसं के प्रदेश अध्यक्ष महेश व्यास से इस्तीफा तक मांग लिया गया। व्यास भामसं के कद्दावर नेता तो थे ही साथ ही यह कर्मचारी हितों की मांगों के जरिए कांग्रेस सरकार पर हमला बोलने वाले अचूक बाण भी माने जाते थे। सचिवालय में पदस्थापित होने के कारण व्यास ने पूरे प्रदेश में अपना नेटवर्क पहले से ही जमा रखा था, इसी नेटवर्क के बूते पर उन्होंने जनवरी 2010 में अखिल राजस्थान कर्मचारी एवं मजदूर महासंघ का गठन कर लिया। यह संघ अब भामसं को प्रदेश के हर जिले में बराबर की टक्कर दे रहा है। इससे बीएमएस टूटने लगा है।
कुछ महीने पहले ही भाजपा ने एक और संगठन की नींव डाल दी। कर्मचारी राजनीति के जानकारों के मुताबिक यह संगठन जाने-अनजाने में भारतीय मजदूर संघ को ही क्षीण करने का काम कर रहा है। गैर सरकारी मजदूरों एवं कर्मचारियों के लिए भारतीय जनता मजदूर महासंघ की स्थापना की गई है, ताकि भाजपा के संस्कारों का प्रसार हो। अजमेर में इस संघ के अध्यक्ष सुरेंद्र गोयल है। सुरेंद्र गोयल यूआईटी ट्स्टी और भारतीय मजदूर संघ के अध्यक्ष रह चुके हैं। अब तक भारतीय मजदूर संघ से कई प्राइवेट कर्मचारी और अन्य यूनियनें नाता बनाकर चलती थीं, मगर नए मजदूर महासंघ ने सभी को तोडऩा आरंभ कर दिया है। ऐसे में प्रदेश स्तर पर सरकारी विभागों से भामसं का वर्चस्व कमजोर होता जा रहा है। कर्मचारी भामसं और व्यास गुट में तो बंटे ही थे, अब मजदूर महासंघ के प्रवेश ने कर्मचारी और मजदूर वर्ग की शक्ति को बांट दिया है। भाजपा की यह शक्ति त्रिशंकु हो चली है। यदि इसे संतुलित नहीं किया गया तो, इसका परिणाम आने वाले विधानसभा चुनावों में भाजपा पर पडऩा लगभग तय है।
-तेजवानी गिरधर

राज्यपाल की रस्म अदायगी पर इतनी परेशानी क्यों?

margret alvaराजस्थान विधानसभा में बजट सत्र शुरू होने पर राज्यपाल मारगे्रट अल्वा ने परंपरागत रूप से अभिभाषण प्रस्तुत किया और उसके चार पैरे पढ़ कर पढ़ा हुआ मानने का आदेश दिया तो बुद्धिजीवियों ने भी इसे अनुचित ठहराया। इस संदर्भ में राजस्थानियों के दिल की धड़कन बन चुके दैनिक भास्कर के अग्र लेख की ही चर्चा करें तो उसमें राज्यपाल को संबोधित करते हुए कहा गया कि राजस्थान के साढ़े छह करोड़ लोगों की भावनाओं को रस्म अदायगी मत समझिए।
अव्वल तो यह पहला मौका नहीं है कि अभिभाषण का कुछ अंश पढ़ कर बाकी का पढ़ा हुआ मान लेने को कहा गया। ऐसा कई बार हो चुका है, विशेष रूप से व्यवघान होने पर। इसकी वजह ये है कि भले ही राज्यपाल ने अपने श्रीमुख से पूरा अभिभाषण पढ़ा हो या नहीं, मगर वह लिखित रूप में सभी विधायकों को उपलब्ध कराया जाता है, ताकि वे आराम से उसका अध्ययन कर सकें। बेशक अभिभाषण को पूरा नहीं पढऩा एक विवाद का विषय हो सकता है, मगर सवाल उठता है कि वैसे भी अभिभाषण में सरकार की ओर से अपनी बढ़ाई के अलावा होता क्या है? ऐसा कितनी बार हुआ है कि किसी राज्यपाल ने सरकार की ओर लिख दिया गया अभिभाषण छोड़ कर अपनी ओर से कुछ नई बात रखी हो? क्या अभिभाषण परंपरा मात्र का हिस्सा मात्र नहीं रह गया है? पढऩे को जरूर वह पढ़ा जाता है, मगर उसे वास्तव में कितने विधायक सुनते हैं? क्या उसमें सरकार की उपब्धियों व भावी योजनाओं का बखान के अलावा कुछ होता भी है, जिसे कि विधायकगण गौर से सुनते हों? क्या ऐसे ऊबाऊ अभिभाषण को सुनते-सुनते अमूमन विधायको को ऊंग नहीं आ जाती? भले ही अभिभाषण के बहाने राज्यपाल को विधानसभा में गरिमामय उपस्थिति दर्ज करवाने का मौका मिलता हो, इस कारण यह परंपरा ठीक लगती है, मगर अपना तो मानना है कि राज्यपाल की उपस्थिति में ही अभिभाषण सदन के पटल पर मात्र रख दिया जाना चाहिए। उसे पढऩे में जो वक्त जाया होता है, उसका बेहतर उपयोग किया जाना चाहिए।
भास्कर के अग्र लेख में कहा गया है कि आखिर करोड़ों राजस्थानियों के साथ इस तरह भावनात्मक मजाक क्यों किया जा रहा है? समझ में नहीं आता कि इससे आखिर किस प्रकार भावनात्मक मजाक हुआ है? आम आदमी की हालत तो ये है कि वह इसे सुनना ही पसंद नहीं करता। दूसरे दिन अखबारों में छप जाए तो भी उसे पढऩे में अपना वक्त जाया नहीं करता। वह सिर्फ महत्वपूर्ण हाईलाइट्स पर ही नजर डालता है। यदि अभिभाषण इतना ही भावनात्मक है तो उसे सभी अखबारों को पूरा का पूरा छापना चाहिए, ताकि राज्य के साढ़े छह करोड़ लोगों की भावनाओं का सम्मान हो सके।
बड़े मजे की बात है कि लेखक ने यह भी स्वीकार किया है कि सही है अभिभाषण में रुचि कम हो रही है। लेकिन ऐसा क्यों हो रहा है? अगर अभिभाषण में मौलिकता बची होती। सवाल उठता है कि क्या अब तक कितने राज्यपालों ने खुद का लिखा हुआ अभिभाषण पढ़ा है।
लेख के आखिर में लिखा है कि इस पर बहस तो होनी ही चाहिए कि पढ़े हुए मान लिए जाने का मतलब क्या है? क्या यह होना चाहिए या नए सिरे से इस पर चर्चा होनी चाहिए-क्यों पढ़ा हुआ मान लिया जाए। अपन ने लेखक की ओर से बहस की अपेक्षा को पूरा करने का प्रयास किया है। आखिर में अपना मानना है कि यह इतना बड़ा मुद्दा था नहीं, जिस पर कि दैनिक भास्कर जैसे अखबार को अग्र लेख लिखने की जरूरत पड़ गई।
-तेजवानी गिरधर