तीसरी आंख

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मंगलवार, जून 17, 2025

भारत ने तो बहुत पहले ही बना लिया था मानव क्लोन

दोस्तो, नमस्कार। जिस मानव क्लोन को बनाने की वर्तमान में चर्चाएं हैं, ऐसे मानव क्लोन का इतिहास त्रेता युग से भी अधिक पुराना है। यह दावा रहा है प्रज्ञा ज्योतिष शोध संस्थान के संचालक पं. पंतराम शर्मा का। कुछ साल पहले उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा था कि ऐसे विस्मयकारी प्रयोग हमें वैदिक वांगमय में अनेकं बार सुनने अथवा पढ़ने को मिलते हैं। 

प्रज्ञा ज्योतिष शोध संस्थान के संचालक पं. पंतराम शर्मा का मानना है कि स्मरण विज्ञान व श्रुति परम्परा (ओरल ट्रेडिशन) के धीरे-धीरे निष्प्रभावी होने के कारण हम भूल गए कि क्लोनिंग और अंतरिक्ष युद्ध जैसे चौंकाने वाले विषय कभी भारतीय वेद, पुराण और इतिहास में व्यवहारिक प्रयोग में थे। क्लोनिंग (रक्त बीज) से उत्पन्न सैनिक पूर्ण कुशलता से युद्ध लड़ा करते थे। यहां तक की उनके पराक्रम और शौर्य का देवगण भी लोहा मानते

थे। श्री शर्मा के अनुसार मानव क्लोनिंग के विषय में वेद, पुराण व इतिहास में बहुत कुछ कहा गया है। हां, स्मरण विज्ञान के लुप्त प्रायः हो जाने और वर्तमान भौतिक विज्ञान की प्रचण्ड आंधी ने स्मृतियों के सारांश पर धूल की अनेक परतें अवश्य जमा दी है। दुर्गा सप्तसती में वर्णित रक्त बीज वध नामक अध्याय का विवरण युद्ध क्षेत्र में क्लोनिंग से असुर सैनिकों की उत्पत्ति पर प्रकाश डालता है। हरिवंश पुराण के पंचम अध्याय में भी मानव क्लोनिंग का रोचक प्रसंग है, जिसमें राजा वेन के अनाचार से कुद्ध होकर महर्षियों ने वेन की दाहिनी भुजा का मंथन कर महान् सदाचारी महिपाल राजा पृथु को उत्पन्न किया। हरिवंश पुराणा में ही एक और उदाहरण देखने को मिलता है जिसमें एक अविवाहित ऋषि ने अपनी वंशवृद्धि की इच्छा से जंघा को चीरकर रक्त निकाला और स्वगुण स्वरूप पुत्र की उत्पत्ति की। ब्रह्मचारी हनुमान के पसीने से मकरध्वज की उत्पत्ति भी विचारणीय है। इन धारणाओं के चलते वर्तमान जैव वैज्ञानिकों द्वारा प्रचारित चिकित्सकीय क्लोनिंग प्रौद्योगिकी पर दृष्टिपात करें तो डॉली नामक भेड़ को क्लोनिंग के जरिए पैदा करने वाले ब्रिटिश वैज्ञानिक प्रो. ईयन विल्मट ने दावा किया कि वे कुछ अनुसंधान के बाद पूर्णतः विकसित मानव कोशिका से दूसरा मानव बना सकते हैं। इसी प्रकार जैव नीति शास्त्र विषय पर इन्डो-जर्मन कार्य शिविर में नीतिपरक चर्चा के दौरान बाखूम विश्वविद्यालय के आणविक जीव विज्ञानी प्रो. स्ट्रेफेर ने जैव नीति शास्त्र पर दार्शनिकों के साथ मिलकर निरंतर विचार- विनिमय की बात पर बल दिया। उन्होंने कहा कि रक्तबीज (क्लोनिंग) क उपयोग ठीक उसी तरह है, जिस प्रकार शूरवीर यौद्धा शस्त्रों का उपयोग आतंकवाद को नष्ट करने के लिए करता है तथा तमोगुणी असुर अपने शस्त्र बल का प्रयोग जन समूह को आतंकित करने के लिए करता है। भारतीय चिंतन में नीति और ज्ञान-विज्ञान की कहीं कमी नहीं है। कमी है सिर्फ स्मरण शास्त्र को लुप्त होने से बचाने की। वर्तमान सरकार द्वारा शिक्षा में स्थापित किए गए नये आयाम यदि निरंतर क्रमोन्नत होते रहे तो हमारे प्राचीन ज्ञान-विज्ञान की पश्चिमी वैज्ञानिकों का मुंह नहीं ताकना पड़ेगा।

इस मसले का एक पहुल यह है कि मानव क्लोनिंग तकनीकी रूप से सिद्धांत में संभव मानी जाती है, लेकिन वर्तमान में यह कानूनी, नैतिक और वैज्ञानिक सीमाओं के कारण व्यवहार में नहीं की जाती। क्लोनिंग का मतलब है किसी जीव का सटीक आनुवंशिक प्रतिरूप बनाना। 1996 में डॉली नाम की भेड़ को क्लोन किया गया था, जिससे यह साबित हुआ कि स्तनधारियों की क्लोनिंग संभव है। उसी तकनीक से, मानव कोशिकाओं की क्लोनिंग (जैसे स्टेम सेल थेरपी के लिए) प्रयोगशालाओं में की गई है, लेकिन पूरा मानव नहीं। क्लोनिंग से जन्मे जानवरों में अक्सर बीमारियां, असामान्यताएं, और कम जीवनकाल देखा गया है। तो इंसानों में ये खतरे और भी गंभीर हो सकते हैं।

ज्ञातव्य है कि लगभग हर देश में मानव क्लोनिंग पर रोक है, जैसे भारत, अमेरिका, यूरोप आदि में। संयुक्त राष्ट्र ने भी 2005 में इसके विरोध में प्रस्ताव पारित किया।

ज्ञातव्य है कि थेरेप्यूटिक क्लोनिंग को कुछ सीमित रूप से स्वीकार किया गया है, ताकि कैंसर, अल्जाइमर, पार्किंसंस जैसी बीमारियों का इलाज खोजा जा सके। लेकिन प्रजनन के लिए मानव क्लोनिंग पर सख्त प्रतिबंध है।

सैद्धांतिक रूप से मानव क्लोनिंग संभव हो सकती है, लेकिन आज की स्थिति में यह व्यावहारिक, नैतिक और कानूनी रूप से अस्वीकार्य है। भविष्य में विज्ञान और समाज की सोच में बदलाव के अनुसार इसमें परिवर्तन हो सकता है, लेकिन फिलहाल यह केवल विज्ञान कथा जैसा ही है।


https://youtu.be/nSF12IxYApE

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क्या बृहस्पति देव और वीरल पीर एक ही हैं?

दोस्तो, नमस्कार। आमतौर पर लोग बृहस्पति देव और वीरल पीर को एक ही मानते हैं, लेकिन जानकार लोग बताते हैं कि दोनो एक ही नहीं हैं, लेकिन कुछ सांस्कृतिक और लोक आस्थाओं में लोगों ने इन दोनों में समानता या संबंध देखा है। 

वस्तुतः हिंदू धर्म में बृहस्पति देव को देवताओं के गुरु के रूप में जाना जाता है। वे ज्ञान, धर्म, सत्य और ज्योतिष में निपुण माने जाते हैं। बृहस्पति ग्रह को ज्योतिष में सबसे शुभ माना गया है और गुरु के रूप में पूजा जाता है। गुरुवार यानि (बृहस्पतिवार) को इनकी विशेष पूजा होती है, पीले वस्त्र, चना दाल, पीले फूल आदि चढ़ाए जाते हैं।

दूसरी ओर लोकदेवता स्वरूप वीरल पीर या वीर पीर को संन्यासी, योगी या संत के रूप में पूजा जाता है। इनका संबंध कई बार इस्लाम और हिंदू लोक परंपरा दोनों से जुड़ता है। राजस्थान, गुजरात और सिंध क्षेत्र में इनकी लोकपूजा होती है। इन्हें रोग निवारण, रक्षा और चमत्कारों के लिए जाना जाता है। कई बार मुस्लिम संतों को भी पीर कहा जाता है, जो चमत्कारी और मार्गदर्शक होते हैं। कई बार ग्रामीण क्षेत्रों में हिंदू और मुस्लिम मान्यताओं का मेल हो जाता है। इसलिए किसी संत या पीर को बृहस्पति देव का अवतार या प्रतिनिधि मान लिया जाता है। अगर वीरल पीर की पूजा गुरुवार को होती है, तो लोग उन्हें बृहस्पति से जोड़ सकते हैं। शास्त्रीय दृष्टिकोण से बृहस्पति देव और वीरल पीर अलग हैं, लेकिन लोक मान्यताओं और भक्ति परंपरा में उन्हें एक जैसा आस्था का प्रतीक माना जा सकता है।

राजस्थान और सिंध क्षेत्र में बृहस्पति देव और वीरल पीर को जोड़ने की परंपरा लोकविश्वास, सांस्कृतिक समन्वय और धार्मिक सह-अस्तित्व की भावना से उत्पन्न हुई है। 


https://youtu.be/bacfjSLkzHE