तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

बुधवार, जनवरी 12, 2011

क्या विस्फोट से हिंदुओं को दरगाह में जाने से रोका जा सकता है?

सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह में सन् 2007 में हुए बम विस्फोट के आरोप में गिरफ्तार असीमानंद ने खुलासा किया है कि बम विस्फोट किया ही इस मकसद से गया था कि दरगाह में हिंदुओं को जाने से रोका जाए। इकबालिया बयान में दी गई इस जानकारी को अगर सच मान लिया जाए तो यह वाकई एक बचकाना हरकत है। कदाचित वे यह बयान देते कि हिंदू धर्म स्थलों पर बम विस्फोट की प्रतिक्रिया में विस्फोट किया गया था तो बात गले उतर सकती थी, मगर विस्फोट करके हिंदुओं को दरगाह में जाने से रोकने का प्रयास किया गया था, यह नितांत असंभव है। असंभव इसलिए कि उसकी एक खास वजह है, जिसका किसी भी कट्टरपंथी के पास कोई उपाय नहीं है।
अव्वल तो अगर हिंदुओं को डराने के लिए विस्फोट किया था तो विस्फोट करने से पहले या उसके तुरंत बाद हिंदुओं को चेतावनी क्यों नहीं दी गई? इतनी ही हिम्मत थी तो विस्फोट करके उसकी जिम्मेदारी लेते। उनके मकसद का आज जा कर खुलासा हो रहा है। भला हिंदुओं को सपना थोड़े ही आएगा कि असीमानंद जी महाराज ने उन्हें दरगाह में न जाने की हिदायत में तोप दागी है। और अगर हिदायत दी भी है तो कौन सा हिंदू उसको मानने वाला है? दरगाह बम विस्फोट की बात छोड़ भी दें तो आज तक किसी भी कट्टरपंथी हिंदू संगठन ने ऐसे कोई निर्देश जारी करने की हिमाकत नहीं की है कि हिंदू दरगाह में नहीं जाएं। वे जानते हैं कि उनके कहने को कोई हिंदू मानने वाला नहीं है। इसकी एक महत्वपूर्ण वजह भी है। हालांकि यह सच है कि कट्टवादी हिंदुओं की सोच है कि हिंदुओं को दरगाह अथवा मुस्लिम धर्म स्थलों में नहीं जाना चाहिए। कट्टरपंथी तर्क ये देते हैं कि जब मुसलमान हिंदुओं के मंदिरों में नहीं जाते तो हिंदू क्यों मुस्लिम धर्मस्थलों पर मत्था टेकें। हिंदूवादी विचारधारा की पोषक भाजपा से जुड़े कट्टरपंथियों को भी यही तकलीफ है कि हिंदू दरगाह में क्यों जाते हैं, मगर स्वयं को वास्तविक धर्मनिरपेक्ष साबित करने अथवा स्वयं को कट्टरपंथ से दूर रखने और मुस्लिमों के भी वोट चाहने की मजबूरी में भाजपा के नेता दरगाह जियारत करते हैं। वे दरगाह में जाने से परहेज करके अपने आपको कोरा हिंदूवादी कहलाने से बचते हैं। कट्टरपंथी जब भाजपा नेताओं को ही दरगाह में जाने से नहीं रोक पाए तो भला आम हिंदू को दरगाह में जाने से कैसे रोक सकते हैं।
वस्तुत: धर्म और अध्यात्म निजी आस्था का मामला है। किसी को किसी धर्म का पालन करने के लिए जोर जबरदस्ती नहीं की जा सकती। यदि किसी हिंदू की अपने देवी-देवताओं के साथ पीर-फकीरों में भी आस्था है तो इसका कोई इलाज नहीं है। इसकी वजह ये है कि चाहे हिंदू ये कहें कि ईश्वर एक ही है, मगर उनकी आस्था छत्तीस करोड़ देवी-देवताओं में भी है। बहुईश्वरवाद के कारण ही हिंदू धर्म लचीला है। और इसी वजह से हिंदू धर्मावलम्बी कट्टरवादी नहीं हैं। उन्हें शिवजी, हनुमानजी और देवीमाता के आगे सिर झुकाने के साथ पीर-फकीरों की मजरों पर भी मत्था टेकने में कुछ गलत नजर नहीं आता। गलत नजर आने का सवाल भी नहीं है। किसी भी हिंदू धर्म ग्रंथ में भी यह कहीं नहीं लिखा है कि दरगाह, चर्च आदि पर जाना धर्म विरुद्ध है। इस बारे में एक लघु कथा बहुत पुरानी है कि नदी में डूबती नाव में मुस्लिम केवल इसी कारण बच गया कि क्यों कि उसने केवल अल्लाह को याद किया और हिंदू इसलिए डूब गया क्यों कि उसने एक के बाद एक देवी-देवता को पुकारा और सभी देवी-देवता एक दूसरे के भरोसे रहे। यानि ज्यादा मामा वाला भानजा भूखा ही रह गया।
जहां तक हिंदुओं की अपने धर्म के अतिरिक्त इस्लाम के प्रति भी श्रद्धा का सवाल है तो सच्चाई ये है कि अधिसंख्य हिंदू टोने-टोटकों के मामले में हिंदू तांत्रिकों की बजाय मुस्लिम तांत्रिकों के पास ज्यादा जाते हैं। वजह क्या है, ठीक पता नहीं, मगर कदाचित उनकी ये सोच हो सकती है कि मुस्लिम तंत्र विज्ञान ज्यादा प्रभावशाली है।
रहा सवाल मुस्लिमों को तो इस्लाम जिस मूल अवधारणा पर खड़ा है, उसमें जरूर मंदिर में मूर्ति के सामने सिर झुकाने को गलत माना जाता है। वह तो खड़ा ही बुत परस्ती के खिलाफ है। जिस प्रकार हिंदू धर्म का ही एक समुदाय आर्य समाज मूर्ति प्रथा के खिलाफ खड़ा हुआ है। जैसे आर्यसमाजी को मूर्ति के आगे झुकने के लिए प्रेरित नहीं किया जा सकता, वैसे ही मुस्लिम को भी बुतपरस्ती की प्रेरणा नहीं दी जा सकती। ये बात अलग है कि चुनाव में वोट पाने के लिए अजमेर के पांच बार सांसद रहे प्रमुख आर्यसमाजी प्रो. रासासिंह रावत अपने सामज के वोट पाने के लिए जातिसूचक लगाते रहे और राम मंदिर आंदोलन में भी खुल कर भाग लिया। एकेश्वरवाद की नींव पर विकसित हुए इस्लाम में अकेले खुदा को ही सर्वोच्च सत्ता माना गया है। एक जमाना था जब अलग कबीलों के लोग अपने बुजुर्गों को ही अपना खुदा मानते थे, मगर इस्लाम के पैगंबर ने यह अवधारणा स्थापित की कि अल्लाह एक है, उसी को सर्वोच्च मानना चाहिए। सम्मान में भले किसी के आगे झुकने की छूट है, मगर सजदा केवल खुदा के सामने ही करने का विधान है। ऐसे में भला हिंदू कट्टरपंथियों का यह तर्क कहां ठहरता है कि अगर हिंदू मजारों पर हाजिरी देता है तो मुस्लिमों को भी मंदिर में दर्शन करने को जाना चाहिए। सीधी-सीधी बात है मुस्लिम अपने धर्म का पालन करते हुए हिंदू धर्मस्थलों पर नहीं जाता, जब कि हिंदू इसी कारण मुस्लिम धर्म स्थलों पर चला जाता है, क्यों कि उसके धर्म विधान में देवी-देवता अथवा पीर-फकीर को नहीं मानने की कोई हिदायत नहीं है। और यही वजह है कि दरगाह में मुस्लिमों से ज्यादा हिंदू हाजिरी देते हैं। इसका ये मतलब नहीं कि हिंदुओं की आस्था मुस्लिमों से ज्यादा है, अपितु इसलिए कि हिंदू बहुसंख्यक हैं। स्वाभाविक रूप से जियारत करने वालों में हिंदू ज्यादा होते हैं। यह बात दीगर है कि उनमें से कई इस कारण दरगाह जाते हैं कि उनका मकसद सिर झुकाना अथवा आस्था नहीं, बल्कि दरगाह को एक पर्यटन स्थल मानना है।