तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

शुक्रवार, सितंबर 29, 2017

क्या यशवंत सिन्हा का बयान मात्र कुंठा है?

हाल ही जब भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा ने आर्थिक हालात को लेकर एक डरावनी तस्वीर पेश की है, उसको लेकर  सरकार व भाजपा हाईकमान में खलबली मच गई है। विपक्षी अगर आरोप लगाए, जो कि लगाया भी जा रहा है तो उसमें यही माना जाता है कि उसने तो विरोध मात्र के लिए ऐसा किया है, मगर यदि अपनी ही पार्टी का कोई बड़ा नेता सरकार की नीति के खिलाफ बोलता है तो गंभीर होना स्वाभाविक ही है। विशेष रूप से तब जबकि वह आर्थिक मामलों का गहन जानकार हो। निश्चित रूप से सिन्हा के बयान से सरकार दुविधा में आई है, मगर सरकार व भाजपा के पैरोकारों का मानना है कि सिन्हा के बयान में उनकी खीझ और कुंठा अधिक दिख रही है। वे मानते हैं कि उनका इरादा आर्थिक स्थिति की समीक्षा करना कम, वित्त मंत्री अरुण जेटली के खिलाफ भड़ास निकालने का अधिक था।
इस तर्क को मान भी लिया जाए तो सिन्हा ने जो कुछ कहा है, उसे सिरे से भी नहीं नकारा जा सकता। आखिरकार वे भी वित्त मंत्री व आर्थिक मामलों के जानकार रहे हैं। केवल खीज निकालने मात्र के लिए हवाई अथवा अतथ्यात्मक बात नहीं कर सकते। जनता तो सब समझ रही है, क्योंकि वह भोग रही है, मगर वे कुंठा निकालने मात्र के लिए अपनी प्रतिष्ठा को दाव पर नहीं लगा सकते। अगर उनका मकसद केवल वित्त मंत्री को विफल बताना है, तो भी ऐसे ही तर्कों का सहारा लेंगे न, जो कि आसानी से गले उतर जाएं।
यूं भी यह कोई रहस्य नहीं कि जीडीपी में गिरावट दर्ज की गई है और जीएसटी पर अमल के बाद आर्थिक सुस्ती का माहौल बना है। यह पहले से स्पष्ट था भी कि जीएसटी पर अमल के दौरान बाधाएं आएंगी और उसका कुछ न कुछ असर आर्थिक-व्यापारिक गतिविधियों पर पड़ेगा। यह भी पहले से स्पष्ट था कि नोटबंदी का कुछ न कुछ विपरीत असर जीडीपी के आंकड़ों पर दिखेगा। इस परिपेक्ष में भी सिन्हा का बयान उचित प्रतीत होता है।
इसमें कोई दोराय नहीं कि कालेधन की अर्थव्यवस्था पर लगाम लगाने और कर व्यवस्था में सुधार करने की जरूरत के तहत ही नोटबंदी व जीएसटी के प्रयोग किए गए, इसको लेकर सरकार पर सवाल खड़े नहीं किए जा सकते, मगर पुख्ता बंदोबस्त किए बिना ही जल्दबाजी में लागू किए जाने के कारण समस्याएं उत्पन्न हुई है। हुआ ये कि पहले तो बिना सोचे समझे नोटबंदी लागू की, जिससे बाजार का हाल बेहाल हो गया, फिर यकायक जीएसटी भी लागू कर दी, नतीजा ये हुआ कि बाजार संभलता, उससे पहले ही उसे एक और बड़ा झटका लग गया। यह सरकार भी समझ ही रही होगी। विशेष रूप से जीडीपी में गिरावट आने के बाद तो यह स्पष्ट हो ही गया कि त्रुटि हो गई है। हां, भले ही जेटली ने अर्थव्यवस्था को डुबोने के लिए ऐसा सायास नहीं किया हो, जैसा कि सिन्हा के बयान में कहा गया है, मगर इतना तो तय है कि गलत कदम का नुकसान देश भुगत रहा है।
 यदि यह मान भी लिया जाए कि टैक्स देने वालों की संख्या बढ़ी है, सब्सिडी का दुरुपयोग रुका है और वित्तीय समावेशन का दायरा बढ़ा है, मगर दूसरी ओर आर्थिक हालात बिगड़े हैं, इसे नकारा नहीं जा सकता। सिन्हा का बयान कुंठा मान कर यदि सरकार आंख मूंदने की कोशिश करती है तो यह एक और बड़ी गलती होगी।
-तेजवानी गिरधर
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मंगलवार, सितंबर 26, 2017

बंपर बहुमत के साथ सत्ता पर काबिज भाजपा की जमीन खिसकी

किसी भी सरकार के कामकाज की समीक्षा के लिए उसका तीन साल का कार्यकाल पर्याप्त होता है। केन्द्र में स्पष्ट बहुमत व राज्य में बंपर बहुमत के साथ सत्ता पर काबिज भाजपा सरकारों के तीन-तीन साल पर खुफिया व मीडिया में आ रही रिपोर्टों में इस बात के साफ संकेत सामने आ रहे हैं कि  भाजपा का ग्राफ काफी नीचे गिरा है। हालात इतने बदले बताए जा रहे हैं कि दोनों जगह भाजपा का सत्ता में लौटना कठिन हो जाएगा। इतना ही नहीं खुद भाजपा के ही मातृ संगठन आरएसएस के फीडबैक व इंटरनल सर्वे तक में कहा जा रहा है कि 2019 के आम चुनाव में भाजपा की हालत खस्ता हो सकती है।
अंग्रेजी अखबार द टेलीग्राफ में छपी रिपोर्ट के अनुसार संघ ने ज्वलंत मुद्दों पर जो फीडबैक लिया है, उससे जाहिर होता है कि आम लोगों में घोर निराशा है। विशेष रूप से नोटबंदी और उसके बाद जीएसटी की वजह से माहौल खराब हुआ है। यहां तक कि भाजपा मानसिकता का व्यापारी वर्ग भी त्रस्त है और अपनी पीड़ा कानाफूसी के जरिए व्यक्त कर रहा है। जिस काले धन को लेकर नरेन्द्र मोदी ने हल्ला मचा कर सत्ता पर कब्जा किया, उसको लेकर जनता में गहरा रोष है। नोटबंदी के बाद भी जब काला धन सामने नहीं आया तो जनता ठगा सा महसूस कर रही है। सोशल मीडिया पर कांग्रेस के हमले तेज हो गए हैं। जितनी तीखी व तल्ख टिप्पणियां पहले सोनिया गांधी, राहुल गांधी व मनमोहन सिंह के बारे में देखने को मिलती थीं, ठीक वैसी ही अब मोदी के बारे में आ रही हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि कांग्रेस ने भी भाजपा की तरह अपना आईटी सेल काफी मजबूत कर लिया है। ऐसा कोई मुद्दा नहीं होता, जिस पर कांग्रेस हमला करने से चुकती हो। यहां तक कि आम तौर पर भाजपा के पक्ष में लिखने वाले ब्लागरों का सुर भी अब बदलने लगा है। ऐसे में जनता के बीच जाने वाले निचले स्तर के भाजपा नेताओं को बहुत परेशानी होती है। उनसे सवालों के जवाब देते नहीं बनता।
अब तो मीडिया रिपोर्टें भी इस बात की ताईद कर रही हैं कि भाजपा की लोकप्रियता कम हुई है। राजस्थान के संदर्भ में बात करें तो जितनी अपेक्षा के साथ जनता के भाजपा को सत्ता सौंपी, उसके अनुरूप कुछ भी नहीं हुआ है। धरातल पर न तो भ्रष्टाचार कम हुआ है और न ही जनता को कोई राहत मिली है। भाजपा हाईकमान के साये में काम रही मुख्यमंत्री वसुंधरा का चेहरा भी चमक खोने लगा है। उनके खाते में एक भी बड़ी उपलब्धि नहीं है। खुफिया रिपोर्टों के अनुसार भाजपा के 163 विधायकों मेें से करीब एक सौ विधायकों का परफोरमेंस खराब है, जिसका भाजपा को नुकसान उठाना पड़ेगा। कानून-व्यवस्था तो बिगड़ी ही है, मगर जनता पर ज्यादा असर महंगाई का है। मोदी के सत्ता में आने पर जनता को जो उम्मीद थी, वह तो पूरी हुई नहीं, बल्कि उसके विपरीत महंगाई और बढ़ रही है। पेट्रोल के दाम अस्सी रुपए प्रति लीटर तक पहुंचने के बाद तो आम जन की कमर ही टूट गई है। ऐसा माना जा रहा है कि इन सब केलिए जनता केन्द्र सरकार की आर्थिक नीतियों को जिम्मेदार मान रही है।
ऐसा प्रतीत होता है कि जिस प्रकार पिछली बार केन्द्र की कांग्रेस नीत सरकार के खिलाफ अन्ना हजारे द्वारा बनाए गए माहौल के चलते राज्य में कांग्रेस की सरकार गई, ठीक वैसे ही मोदी की नीतियां राज्य में भाजपा के लिए मुश्किल पैदा करने वाली हैं। पहले भाजपा के पास राज्य में वसुंधरा का चेहरा था, मगर अब वह कामयाब होता नहीं दिखाई दे रहा है। अब केवल मोदी ब्रांड पर ही भाजपा की आस टिकी है, वह भी पहले की तुलना काफी फीका हो गया है। जो कुछ भी हो, इतना तो तय है कि पहले की तरह इस बार मोदी लहर की कोई उम्मीद नहीं है।
-तेजवानी गिरधर
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शनिवार, सितंबर 16, 2017

मोदी के साम, दाम, दंड, भेद को जस्टीफाई किया जा रहा है

एक समय में पार्टी विथ द डिफ्रेंस का तमगा लगाने वाली भाजपा जब से अपनी रीति-नीति बदल कर सत्ता में आई है, उसके कार्यकर्ताओं को लग तो ये रहा है कि अब वे उस पार्टी के नहीं रहे हैं, जिसकी वे दुहाई दिया करते थे। वे सब समझ रहे हैं कि जिन बातों को लेकर वे कांग्रेस की आलोचना करते नहीं थकते थे, आज वही बातें खुद की पार्टी में हो रही हैं, मगर उन्हें लगता है कि सत्ता में बने रहने का यही फंडा है। यहां तक कि कांग्रेस मुक्त  भारत का नारा देने वाले अपनी ही पार्टी को कांग्रेस युक्त होता देख रहे हैं तो उन्हें उसमें कुछ भी गलत नजर नहीं आता। स्वभाविक रूप से अब जबकि भाजपा निशाने पर है तो उसके कार्यकर्ताओं को लगता है कि बचाव का एक मात्र तरीका यही है कि मौजूदा रीति-नीति को जस्टीफाई किया जाए। ढ़ीठ हो लिया जाए।
एक बानगी देखिए:-
जब तक भाजपा वाजपेयी जी जैसों की विचारधारा पर चलती रही, वो राम के बताये मार्ग पर चलती रही। मर्यादा, नैतिकता, शुचिता इनके लिए कड़े मापदंड तय किये गये थे, परन्तु आज तक कभी भी पूर्ण बहुमत हासिल नहीं कर सकी। मात्र एक लाख रुपये लेने पर भाजपा ने अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष बंगारू लक्षमण को हटाने में तनिक भी विलंब नहीं किया, परन्तु चुनावों में नतीजा वही ढ़ाक के तीन पात...। ताबूत घोटाले के आरोप पर जार्ज फर्नांडिस का इस्तीफा, परन्तु चुनावों में नतीजा वही ढ़ाक के तीन पात...। कर्नाटक में येदियुरप्पा पर भ्रष्ट्राचार के आरोप लगते ही येदियुरप्पा को भाजपा ने निष्कासित करने में कोई विलंब नहीं किया, परन्तु चुनावों में नतीजा वही ढ़ाक के तीन पात...। आखिरकार मोदी के कार्यकाल वाली भाजपा ने अपनी नीति बदल दी और अब साम, दाम, दंड, भेद वाली नीति अपना कर सत्ता पर काबिज है। काबिज ही नहीं है, तोड़-फोड़ कर लगातार विस्तार करती जा रही है।
जो भाजपा भ्रष्टाचार को लेकर कांग्रेस को पानी पी पी कर कोसती थी,  उसी के कार्यकर्ता अब नई भाजपा को यह कह कर जस्टीफाई कर रहे हैं कि हमारी रंगों में पूर्ववर्ती सरकारों ने ऐसे भ्रष्टाचार के वायरस डाल दिये हैं कि हम स्वयं भ्रष्ट हो गये हैं। हमें जहां मौका मिलता है, हम भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने से नहीं चूकते हैं। पुलिस का चालान हो, या सरकारी विभागों में काम हो, हम कुछ ले देकर अपने काम को निपटाने में ही यकीन रखते हैं।
भाजपा के नए अवतार पर एक कार्यकर्ता ने लिखा है कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम के नक्शे कदम पर चलने वाली भाजपा को मोदी कर्मयोगी कृष्ण के राह पर ले आये हैं। कृष्ण अधर्मी को मारने में किसी भी प्रकार की गलती नहीं करते हैं। छल हो तो छल से, कपट हो तो कपट से, अनीति हो तो अनीति से। अधर्मी को नष्ट करना ही उनका ध्येय होता है। इसलिए वो अर्जुन को सिर्फ मछली की आंखों को ही देखने को कहते हैं।
भाजपा कार्यकर्ता की मानसिकता में आए परिवर्तन की बानगी देखिए:-
येदियुरप्पा को फिर से भाजपा में शामिल किया गया, नतीजा लोकसभा चुनावों में सामने है। पीडीपी से गठबंधन करके कम से कम काश्मीर के अंदरूनी हालात से रूबरू तो हो रहे हैं..। कुल मिलाकर सार यह है कि, अभी देश दुश्मनों से घिरा हुआ है, नाना प्रकार के षडयंत्र रचे जा रहे हैं। अभी भी हम नैतिकता को अपने कंधे पर ढ़ोकर नहीं चल सकते हैं। नैतिकता को रखिये ताक पर, और यदि इस देश के बचाना चाहते हैं तो सत्ता अपने पास ही रखना होगा। वो चाहे किसी भी प्रकार से हो। साम दाम दंड भेद, किसी भी प्रकार से.... । बिना सत्ता के आप कुछ भी नहीं कर सकते हैं। इसलिए भाजपा के कार्यकर्ताओं को चाहिए कि कर्ण के अंत करते समय के विलापों पर ध्यान न दें (येदियुरप्पा, पीडीपी, ललित मोदी), सिर्फ ये देखें कि.......अभिमन्यु की हत्या के समय उनकी नैतिकता कहां चली गई थी?
कुल मिला कर भाजपा कार्यकर्ताओं में एक नई सोच जन्म ले रही है, कि सत्ता में रहना है तो उसके लिए कुछ भी करना जायज है। महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी इत्यादि को लेकर आसमान सिर पर उठाने वाले भाजपा कार्यकर्ता इन समस्याओं के पहले से ज्यादा हो जाने पर भी आंख मूंदने को मजबूर हैं, क्योंकि सत्ता पर सवार हैं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

रविवार, सितंबर 10, 2017

क्या केवल बाबा राम रहीम ही जिम्मेदार है?

अपनी ही शिष्या साध्वी के साथ बलात्कार करने के मामले में दोषी ठहराये जाने के बाद हुई हिंसा, आगजनी, तोडफ़ोड़ को लेकर कोर्ट तो सख्त है ही, पूरा मीडिया भी बाबा राम रहीम की जम कर मजम्मत कर रहा है। यह स्वाभाविक भी है। धर्म व आस्था की आड़ में यौन शोषण कोई निराधम प्राणी ही कर सकता है, जिसकी जितनी निंदा की जाए कम है। इस घटना के कारण एक ओर जहां इसी किस्म के बाबाओं को लानत दी जा रही है, वहीं देश की राजनीति, धर्म और हमारी सामाजिक व्यवस्था पर भी सवाल खड़े किए जा रहे हैं।
सबसे पहले बात राजनीति की। इस घटना के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मन की बात कार्यक्रम में कहा कि आस्था के नाम पर हिंसा को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। इसी पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। यह बात ठीक है कि प्रधानमंत्री को ऐसा ही वक्तव्य देना चाहिए, मगर आस्था के नाम पर राजनीति के सहारे पनपने वाले व बाद में राजनीतिज्ञों को ही सहारा देने वाले ऐसे मठ व डेरे क्यों बर्दाश्त किए जा रहे हैं? क्या ये सही नहीं है कि वोटों की खातिर ऐसे बाबाओं को पनपाने में राजनीतिज्ञों का ही हाथ है? बाबा राम रहीम के मामले में तो जानते बूझते हुए भी राजनीतिक संरक्षण दिया जाता रहा। यह हरियाणा सरकार की की नरमी का ही नतीजा रहा कि राम रहीम के समर्थकों को सिरसा, पंचकूला और अन्य शहरों में एकत्रित होने से रोकने के लिए उपयुक्त कदम नहीं उठा सकी। इसके दुष्परिणाम सबके सामने हैं। यदि हम बाबाओं के प्रति अंध भक्ति रखने वालों को दोषी ठहराते हैं तो बाबाओं के मंचों पर जा कर उनकी ब्रांडिंग करने वाले राजनीतिज्ञों को निर्दोष कैसे मान सकते हैं? सच तो ये है कि बाबाओं का सहारा लेने और उन्हें संरक्षण देने के मामले में भाजपा ही सबसे आगे नजर आती है। डेरा समर्थकों की राजनीति में इतना अहमियत उनके वोट के कारण है, जो हार जीत तय कराती है। सिरसा के अलावा हरियाणा के कई जिलों में डेरा का प्रभाव है, जिसका फायदा 2014 के चुनाव में बीजेपी को कई सीटों पर मिला और जीत हासिल हुई। जीत हासिल होने के बाद गुरमीत रामरहीम को धन्यवाद अदा करने और उनका आशीर्वाद लेने के लिए बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव के साथ बीजेपी के उम्मीदवार सिरसा गए थे। जब सत्ताधारी पार्टी के विधायक और मंत्री किसी संत के आगे माथा टेकता है तो अधिकारियों को क्या सन्देश जाएगा?
वहीं मीडिया जो, आज चिल्ला चिल्ला कर बाबाओं का पोस्टमार्टम कर रहा है, क्या उनका ऐसे बाबाओं को स्थापित करने में मीडिया की भूमिका नहीं है? सोशल मीडिया पर इलैक्ट्रॉनिक मीडिया की जम कर आलोचना हो रही है। एक बानगी देखिए:-
आज हर न्यूज़ चैनल पर दिखाया जा रहा है- बाबा की अय्याशी का अड्डा, गुफा का रहस्य, दत्तक पुत्री का सच इत्यादि। ऐसी कितनी ही कहानियां और गुफा के आभासी वीडियो, जिन्हें दिखा कर लोगों को भ्रमित किया जा रहा है। प्रश्न उठता है कि इतने खोजी मीडिया चैनल अब तक कहां थे? न तो बाबा नया है न ही गुफा रातों-रात बन गई है, फिर ये कैसी पत्रकारिता? जो अब तक सो रही थी, अब बाबा के जेल जाते ही मुखरित होने लगी। इन अवसरवादी चैनलों पर भी जानबूझकर जुर्म छिपाने का आरोप लगना चाहिए।
सोशल मीडिया, जो कि पूरी तरह से स्वच्छंद है, उस पर तो बाबाओं के चक्कर में पडऩे वाली महिलाओं पर भी तंज कसे जा रहे हैं-
बाबा राम रहीम को गालियां दे लो या आशाराम को। उन मूर्ख महिलाओं को भी कुछ बोलो, जो अपने सास, ससुर, घर-परिवार की सेवा को छोड़ कर बाबाओं के चरण दबाती हैं। उन महिलाओं का क्या जो, पति परेमश्वर को छोड़ कर बाबाओं को पूजती हैं, माता-पिता समान सास-ससुर का प्रताडि़त करती हैं? सच तो ये है कि इन बाबाओं की सेवा में लगी महिलाएं अगर दस प्रतिशत भी अपने परिवार की सेवा में मन लगा लें तो उनका जीवन धन्य हो जाए।
बाबाओं के प्रति अंध भक्ति रखने वालों की मूर्खता की भी खूब मजम्मत हो रही है। देखिए- अंधभक्त श्रद्धा से सुनते हैं, वे सोचते नहीं हैं। बाबा जी दौलत के ढ़ेर पर बैठ कर बोलते हैं कि मोह-माया छोड़ दो, लेकिन उत्तराधिकारी अपने बेटे को ही बनायेंगे। भक्तों को लगता है कि उनके सारे मसले बाबा जी हल करते हैं, लेकिन जब बाबा जी मसलों में फंसते हैं, तब बाबा जी बड़े वकीलों की मदद लेते हैं, अंधभक्त बाबा जी के लिये दुखी होते हैं, लेकिन सोचते नहीं हैं। भक्त बीमार होते हैं, डॉक्टर से दवा लेते हैं, मगर बाबाओं के आगे भी सिर झुकाते हैं, जब ठीक हो जाते हैं तो कहते हैं, बाबा जी ने बचा लिया, जबकि बाबा जी बीमार होते हैं तो बड़े डॉक्टरों से महंगे अस्पतालों में इलाज करवाते हैं। अंधभक्त अपने बाबा को भगवान समझते हैं, उनके चमत्कारों की सौ-सौ कहानियां सुनाते हैं, लेकिन जब बाबा किसी अपराध में जेल जाते हैं, तब वे कोई चमत्कार नहीं दिखाते।
एक के बाद एक बाबा के जेल जाने के बाद कुल जमा बात ये सामने आती है कि वे बाबा भले ही सीधे तौर पर जिम्मेदार हैं, मगर हमारी अंध श्रद्धा और राजनीतिक व्यवस्था भी उतनी ही दोषी है। इस पर गंभीर चिंतन की जरूरत है।

-तेजवानी गिरधर
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