तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

शुक्रवार, दिसंबर 20, 2013

राज्यमंत्री कैसे स्वीकार कर लिया अरुण चतुर्वेदी ने?

राजस्थान की सत्ता पर काबिज भाजपा के मंत्रीमंडल में पूर्व अध्यक्ष व मौजूदा उपाध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी ने एक बार फिर राज्य मंत्री का पद स्वीकार कर सभी को चौंकाया है। इससे पूर्व उनके प्रदेश भाजपा अध्यक्ष वसुंधरा राजे की कार्यकारिणी में उपाध्यक्ष का पद स्वीकार करने पर भी सभी को अचरज हुआ था। पार्टी कार्यकर्ताओं व नेताओं को समझ में ही नहीं आ रहा है कि एक ही किस्म की गलती उन्होंने दुबारा कैसे की? क्या उन्हें अपने पूर्व पद की मर्यादा व गौरव का जरा भी भान नहीं रहा? अपनी पहले ही प्रतिष्ठा का जरा भी ख्याल नहीं किया? क्या वे इतने पदलोलुप हैं कि अध्यक्ष के बाद उपाध्यक्ष बनने और अब मात्र राज्य मंत्री बनने को उतारू थे? ये सारे सवाल भाजपाइयों के जेहन में रह-रह कर उभर रहे हैं।
स्वाभाविक सी बात है कि जो खुद अध्यक्ष पद पर रहा हो, वह राज्य मंत्री पद के लिए राजी होगा तो ये सवाल पैदा होंगे? जब वे पूर्व में उपाध्यक्ष बने थे तो अपुन ने लिखा था कि शायद वे अध्यक्ष पद के लायक थे ही नहीं। गलती से उन्हें अध्यक्ष बना दिया गया, जिसे उन्होंने संघ के दबाव में ढ़ोया, तब उन्होंने व्यक्तिगत रूप से फोन पर जानकारी दी थी कि वे तो पार्टी के एक सिपाही हैं, पार्टी हाईकमान उन्हें जो भी जिम्मेदारी देता है, वह उनको शिरोधार्य है। कदाचित इस बार भी कुछ ऐसा ही हुआ है। 
वैसे आपको बता दें कि पूर्व में उन्हें अध्यक्ष बनाया ही नेता प्रतिपक्ष श्रीमती वसुंधरा को चैक एंड बैलेंस के लिए था, मगर उसमें वे कत्तई कामयाब नहीं हो पाए। वे कहने भर को पार्टी के अध्यक्ष थे, मगर प्रदेश में वसुंधरा की ही तूती बोलती रही। वह भी तब जब कि अधिकतर समय वसुंधरा ने जयपुर से बाहर ही बिताया। चाहे दिल्ली रहीं या लंदन में, पार्टी नेताओं का रिमोट वसुंधरा के हाथ में ही रहा। अधिसंख्य विधायक वसुंधरा के कब्जे में ही रहे। यहां तक कि संगठन के पदाधिकारी भी वसुंधरा से खौफ खाते रहे। परिणाम ये हुआ कि वसुंधरा ने जिस विधायक दल के पद से बमुश्किल इस्तीफा दिया, वह एक साल तक खाली ही रहा। आखिरकार अनुनय-विनय करने पर ही फिर से वसुंधरा ने पद ग्रहण करने को राजी हुई।
कुल मिला कर चतुर्वेदी का राज्य मंत्री बनना स्वीकार करना पार्टी कार्यकर्ताओं गले नहीं उतर रहा, चतुर्वेदी भले ही संतुष्ट हों और उनके पास से तर्क हो कि वे तो पार्टी के सिपाही हैं, पार्टी हाईकमान जहां चाहे उपयोग करे। उनकी इज्जत सिर्फ यह कह बची मानी जा सकती है कि उन्हें स्वतंत्र प्रभार दिया गया है। बहरहाल, जो कुछ भी हो मगर इससे देश की इस दूसरी सबसे बड़ी व पहली सबसे बड़ी कैडर बेस पार्टी में सत्ता की तुलना में संगठन की अहमियत कम होने पर तो सवाल उठते ही हैं।
-तेजवानी गिरधर