तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

शुक्रवार, नवंबर 18, 2016

क्या मोदी अकेले पड़ रहे हैं?

क्या नोटबंदी के मामले में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अकेले पडऩे वाले हैं? यह सवाल चौंकाने वाला है। निहायत काल्पनिक और हास्यास्पद भी। इसे बेतुका व तुक्का भी कहा जा सकता है। सोशल मीडिया पर गंदी गालियों  और बेशर्म दलीलों के बीच जब मैने भी इससे संबंधित पोस्ट पढ़ी तो चौंक उठा। जहां तक मेरी जानकारी है, इस आशय का विचार पहली बार नजर आया है। मगर विचार तो विचार है। चाहे किसी एक के मन में आया हो। जरूर उसका भी कोई दर्द होगा। उसकी भी कोई सोच होगी। यह विचार शेयर करने वाले शख्स का नाम लेना व्यर्थ है, मगर इतना जरूर तय है कि वे हैं मोदी के परम भक्त। फेसबुक पर उसकी अब तक की सभी पोस्ट नोटबंदी के पक्ष में और सवाल उठाने वालों पर तंज कसने वाली ही नजर आई हैं। कॉपी-पेस्ट के जमाने में हो सकता है कि ये उन्होंने भी कहीं से चुरा कर पोस्ट की हो, मगर है दिलचस्प।
आइये, पहले उनकी पोस्ट पढ़ लें, फिर उस पर थोड़ी चर्चा:-
कोई मुगालते में मत रहिये... मोदी ने संघ और बीजेपी से भी पंगा ले लिया है। शीर्ष पर ये आदमी बहुत अकेला है। कल उनके भाषण में ये बात बहुत उभर कर सामने आई है। ये शख्स बहुत जिद्दी भी है। भले ये बर्बाद हो जायेगा, लेकिन अब यहां से ये लौटेगा नहीं। अब मोदी आर-पार की लड़ाई में है। अब इनको सिर्फ देशवासियों का ही सहारा है। व्यवस्था के खिलाफ एक लड़ाई राजीव गांधी ने भी लड़ी थी, लेकिन वो अभिमन्यु साबित हुये। मारे गये। पहले उनकी ईमानदार छवि को मारा गया, फिर उनके शरीर को।
प्रधानमंत्री तो देश को लगभग सभी अच्छे ही मिले हैं। लेकिन जहां तक विजनरी लीडर का सवाल है, मोदी नेहरू और राजीव गांधी को कड़ी टक्कर दे रहे हैं। जमीनी नेता होने की वजह से इनमें एक खास किस्म का साहस भी है, जो कभी-कभी दुस्साहस की सीमा को भी छू आता है।
अगर मोदी इन 50 दिनों में फेल होते हैं तो ये खुद तो खत्म हो ही जायेंगे लेकिन देश भी मुसीबत में फंस जायेगा। निजी स्वार्थ में ही सही, लेकिन अगले 50 दिन हमें इस आदमी का साथ देना ही पड़ेगा। अब देश दाव पर है।
आप भी साथ दें, क्योंकि बात अब हमारे वर्तमान की नहीं है, बल्कि हमारे बच्चों के भविष्य की है और हमारे जमीर की है कि क्या हम नये बनते हुये भारत के निर्माण में अपना योगदान देना चाहते हैं या नहीं।
है न बिलकुल अजीब पोस्ट। ऐसा प्रतीत होता है कि लाइनों में खड़े लोगों की गालियों और सोशल मीडिया पर चल रही फोकटी जंग के बीच उन्हें लगा हो कि मामला वाकई गंभीर है। कदाचित भाजपा विधायक भवानी सिंह राजावत के नोटबंदी के प्रतिकूल वायरल हुए वीडियो, जिसका कि राजावत खंडन कर चुके हैं, को सुन कर उन्हें लगा हो कि अब तो भाजपाई भी दबे स्वर में आलोचना करने लगे। संभव है ऐसे और भी हों, जो पार्टी अनुशासन के कारण ही चुप हों। यदि ऐसा है तो फिर धीरे-धीरे मोदी अकेले पड़ते जाएंगे। उनकी सोच कुछ कुछ उचित जान पड़ती है। वो इसलिए कि मुख्य आलोचना नोटबंदी की नहीं है, बल्कि बिना मजबूत योजना के लागू करने से आम जनता को हो रही परेशानी की है। विपक्ष भी मोटे तौर पर निर्णय के खिलाफ नहीं, बल्कि जनता में मची अफरा तफरी को मुद्दा बना कर मोर्चा संभाले हुए है। भाजपाइयों का बैंकों के बाहर जनसेवा करने का भी मतलब ये है कि सरकार की नाकामी की भरपाई उन्हें करनी पड़ रही है। यानि कि वे भी कहीं न कहीं मन ही मन यह तो स्वीकार कर ही रहे होंगे कि मोदी के इस देशहितकारी कड़े कदम के साइड इफैक्ट पार्टी को नुकसान न पहुंचा दें।
खैर, हो सकता है कि लेखक को लग रहा हो कि विपक्ष के हमलों का बरबस मुकाबला कर रही भाजपा कहीं कमजोर न पड़ जाए। उन्हें लग रहा है कि पचास दिन का वादा पूरा नहीं हो पाएगा। ऐसे में मोदी को पुरजोर समर्थन करना जरूरी है।
हो सकता है कि राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा में भी कोई अंतर्विरोध चल रहा हो, जिसकी अब तक कोई भनक नहीं पड़ी है, मगर यदि एक सच्चे मोदी भक्त को पूर्वाभास युक्त चिंता सता रही है तो उसे तनिक गंभीरता से लिया जाना चाहिए।
आगे क्या होगा, अभी से कुछ कहना व्यर्थ है, मगर अपुन को केवल एक बात समझ में आती है कि नोटबंदी का निर्णय भले ही देशहितकारी राजनीतिक कदम हो, मगर मोदी के आर्थिक मामलों के सलाहकारों ने जाने-अनजाने चूक की है। या तो उन्हें खुद ही अंदाजा नहीं था कि हालात इतने खराब हो सकते हैं या फिर अंदाजा होने के बाद भी मोदी के इच्छित फैसले पर चुपचाप सहमति दे दी। और उनकी चूक का खामियाजा आज पूरा देश भुगत रहा है।
-तेजवानी गिरधर
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