तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

सोमवार, जून 16, 2014

वन मैन शो की तरह काम करेंगे मोदी?

जैसी कि आशंका थी, वही होने जा रहा प्रतीत होता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी मंत्रियों को काम करने की सीमित छूट देंगे और सारे फैसलों पर खुद ही नजर रखेंगे, इसका आभास तब हुआ था, जब उन्होंने प्रधानमंत्री बनने के कुछ दिन बाद ही सारे मंत्रालयों के सचिवों की संयुक्त बैठक बुला ली। बेशक उनके इस कदम को इस अर्थ में लिया गया कि वे स्वयं बहुत मेहनत कर रहे हैं, ताकि कहीं कोई गड़बड़ न हो, मगर दूसरी ओर इसे इस अर्थ में लिया गया कि क्या वे मंत्रियों को ठीक से काम करने भी देंगे या नहीं। उनका अब तक का ट्रेक रिकार्ड भी यही बताया जाता है कि गुजरात में भी उन्होंने सरकार को अपने में ही अंतर्निहित कर रखा था। सारे मंत्री को नाम मात्र के थे, बाकी सरकार तो वे खुद ही चला रहे थे। इस कारण उनके व्यक्तित्व में मौजूद डिक्टेटरशिप के तत्व को जानने वाले यही मान रहे थे कि वे केन्द्र में कुछ ऐसा ही करने वाले हैं।
मोदी की इस प्रवृत्ति की पुष्टि हाल ही तब हो गई, जब उन्होंने केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह सहित आठ मंत्रियों के निजी सचिवों की नियुक्ति पर कार्मिक मंत्रालय के एक सर्कूलर के माध्यम से अड़ंगा लगा दिया। इस सर्कूलर में कहा गया है कि मंत्रियों के निजी स्टाफ में नियुक्ति के लिए कैबिनेट की नियुक्ति समिति से मंजूरी जरूरी है। इसमें नियुक्ति में तय प्रक्रिया का सख्ती से पालन करने को कहा गया। ज्ञातव्य है कि राजनाथ सिंह के निजी सचिव के लिए 1995 बैच के आईपीएस अफसर आलोक सिंह का नाम भेजा गया है। इसी प्रकार गृह राज्यमंत्री किरेन रिजीजू के निजी सचिव अभिनव कुमार की नियुक्ति को भी हरी झंडी नहीं मिली। विदेश राज्य मंत्री वी के सिंह के निजी सचिव राजेश कुमार की नियुक्ति भी अटकी है। कुछ अन्य मंत्रियों के निजी स्टाफ की नियुक्ति भी रुकी हुई है। यानि कि उन्होंने अपने मंत्रियों के फैसलों पर भी लगाम लगा कर रखने की ठान रखी है। उनकी तानाशाही प्रवृत्ति की सीमा इस हद तक है कि खुद उनकी पार्टी के अध्यक्ष और केंद्र में नंबर दो की हैसियत रखने वाले राजनाथ सिंह को भी राहत नहीं दी गई।
गुड गवर्नेंस के लिहाज से मोदी की यह कार्यशैली बेहतर जरूर मानी जा सकती है, मगर समझा जाता है कि इससे कुछ दिन बाद मंत्रियों में असंतोष पनपेगा। जब वे कोई भी निर्णय करने के लिए स्वतंत्र नहीं होंगे और हर फैसले पर अंतिम मुहर के लिए पीएमओ का मुंह ताकेंगे तो उनके मंत्री होने - न होने के कोई मायने ही नहीं रह जाएंगे। असल में यह स्थिति इस कारण उत्पन्न हुई है क्योंकि इस बार भाजपा ने मोदी को बाकायदा प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किया और उसमें सफलता भी हाथ लगी। यानि कि भाजपा को मिले बहुमत का सारा श्रेय मोदी के खाते में दर्ज है। ऐसे में अगर वे तानाशाह की तरह काम करते हैं तो उसमें कोई अचरज नहीं होना चाहिए।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

रविवार, जून 08, 2014

मोदी के ही कब्जे में ही रहेगा भाजपा संगठन भी

हालांकि जल्द ही भाजपा को नया राष्ट्रीय अध्यक्ष मिल जाएगा, मगर पार्टी के अंदर चर्चा ही है कि उस पर भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हावी रहेंगे। इस बात की सुगबुगाहट पहले से ही है कि नए अध्यक्ष की नियुक्ति मोदी की सहमति से ही होगी। यानि अध्यक्ष कहने मात्र का होगा, जबकि सारे निर्णयों पर मोदी ही मुहर लगवानी होगी। इस मुद्दे पर राष्ट्रीय न्यूज चैनलों पर भी बहस छिड़ी हुई है।
असल में यह मुद्दा इस कारण उठा क्योंकि मोदी ने प्रधानमंत्री आवास में पार्टी महासचिवों की बैठक बुला ली। उन्होंने महासचिवों से विमर्श किया और उन्हें भी सांगठनिक निर्देश दिए। इसमें भी पेच ये रहा कि इसके बारे में अध्यक्ष राजनाथ सिंह को कोई सूचना नहीं थी। राजनाथ सिंह ने तो बाद में बैठक में मौजूद महासचिवों से फोन करके जानकारी ली। जाहिर तौर पर वे सकते में आ गए होंगे। हालांकि वे अब मंत्री बन चुके हैं, मगर जब तक नया अध्यक्ष मनोनीत नहीं हो जाता, तब तक वे ही अध्यक्ष हैं। इस घटना को इस रूप में लिया गया कि मोदी यह साफ कर देना चाहते थे कि उनके नाम से मिले जनसमर्थन को वे कमजोर नहीं होने देंगे। मोदी ने एक और हरकत भी की। वो यह कि पार्टी आफिस जाकर वहां काम करने वाले कर्मचारियों से मिले और उन्हें बोनस दिया।
ऐसे में सवाल उठने लगे कि क्या पार्टी का पृथक अध्यक्ष होने के बावजूद उनका इस प्रकार संगठन में दखल देना उचित है। इस बारे में कुछ का कहना रहा कि चूंकि संगठन को दिशा देने की जिम्मा अध्यक्ष का है, तो प्रधानमंत्री को संगठन के मामले में सीधे हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। कोई बात करनी भी तो पार्टी अध्यक्ष की जानकारी में ला कर संयुक्त बैठक करनी चाहिए। अगर इस प्रकार अध्यक्ष को जानकारी में लाए बिना पार्टी पदाधिकारियों की बैठक लेंगे तो अध्यक्ष का औचित्य ही समाप्त हो जाएगा। उसकी सुनेगा भी कौन? या फिर असमंजस में पड़ेगा कि मोदी को राजी करे या अध्यक्ष को? किसकी मानें? यदि अध्यक्ष किसी मुद्दे पर पृथक राय रखता होगा तो टकराव होगा, जो कि संगठन के लिए ठीक नहीं होगा। इससे तो बेहतर है कि पार्टी और संघ बैठ कर तय कर लें कि पार्टी के एजेंडे को ठीक से लागू करने के लिए प्रधानमंत्री व अध्यक्ष दोनों ही पद मोदी के पास रहेंगे।
दूसरी ओर एक तबका ऐसा भी है जो कि यह मानता है कि मोदी को पार्टी पदाधिकारियों को दिशा निर्देश देने का पूरा अधिकार है क्योंकि उन्हीं के बलबूते पर ही पार्टी सरकार में आई है। अगर मोदी का चेहरा न होता तो भाजपा को कभी इतना प्रचंड बहुमत नहीं मिलता। पार्टी मोदी के नेतृत्व में ही तो इस मुकाम पर पहुंची है, इस कारण उन्हें पूरा अधिकार है कि वे सरकार चलाने के साथ-साथ संगठन को भी मजबूत करें। उनका तर्क ये है कि चूंकि देश में अच्छे दिन लाने के लिए मोदी के नाम पर भाजपा को सत्ता में आने का मौका मिला है, इस कारण जनता की अपेक्षाएं सीधे तौर पर मोदी से हैं। वे तभी अच्छी सरकार चला पाएंगे जबकि संगठन भी उनके कहे अनुसार चले। वैसे भी सरकार को बेहतर चलाने के लिए बेहतर ये है कि सत्ता के दो केन्द्र न हों।
वस्तुत: देश के राजनीतिक इतिहास में पहली बार पूर्ण बहुमत से सत्ता में पहुंची भारतीय जनता पार्टी के हौसले सातवें आसमान पर हैं। मोदी के करिश्माई नाम पर भाजपा ने वह हासिल कर लिया है, जो इसके संस्थापक अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भी हासिल न हो सका था। पार्टी के दूसर शीर्ष पुरुष लाल कृष्ण आडवाणी को भी रथयात्रा के जरिए सफलता मिली, मगर वे भाजपा को सत्ता के नजदीक भी नहीं ला सके। यहां तक कि आडवाणी को ही प्रधानमंत्री पद के लिए प्रोजेक्ट करने पर भी सफलता हाथ नहीं आई। ऐसे में पूर्ण बहुमत दिलाने वाले मोदी की हैसियत पार्टी अध्यक्ष से भी ऊंची हो गई है।
हालांकि मोदी समर्थकों का कहना है कि मोदी का संगठन में सीधे दखल देना गलत अर्थों में नहीं लिया जाना चाहिए क्योंकि वे प्रधानमंत्री बनने के बाद भी पार्टी को मां के समान मानते हैं। उसे मजबूत बनाए रखना चाहते हैं। दूसरे पक्ष को इस पर संदेह है। वो यह कि कहीं मां की सेवा के बहाने कहीं ये पूरी पार्टी पर कब्जा करने की नियत तो नहीं है।
कुल मिला कर मोदी की वर्किंग स्टाइल और ताजा हालत से तो यही लगता है कि पार्टी अध्यक्ष नाम मात्र का होगा और वह मोदी के कहे अनुसार ही चलेगा। वजह साफ है। मोदी का कद इतना बड़ा हो गया है कि अब उनक सामने खड़ा बराबर के दर्जे से कोई भी बात नहीं कर पाएगा। मोदी की हैसियत कितनी बड़ी हो गई है, इसका अनुमान इसी बात से लग जाता है कि जिन नेताओं पर अध्यक्ष का भार था, वे ही अब मोदी के मंत्रीमंडल में शामिल हैं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

बुधवार, जून 04, 2014

मोदी व वसुंधरा के बीच सब कुछ ठीकठाक नहीं

इसमें कोई दोराय नहीं कि लोकसभा चुनाव में मिशन 25 को पूरा करने के लिए राजस्थान की मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे ने पार्टी की ओर से नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित किए जाने के निर्णय को पूरा सम्मान दिया, अपितु अपनी ओर से भी एडी-चोटी का जोर लगा दिया। भाजपा की इस ऐतिहासिक जीत में जितनी भूमिका मोदी लहर की रही, उतनी ही वसुंधरा की रणनीति भी रही। चतुराई से टिकट वितरण के साथ ही कुछ कमजोर सीटों पर जिस प्रकार उन्होंने कांग्रेस की घेराबंदी की,  उसके अपेक्षित परिणाम भी आए। यानि कि मोदी-वसुंधरा के तालमेल ने चमत्कार कर दिखाया, मगर जैसे ही मोदी ने अपने मंत्रीमंडल का गठन किया तो इस बात का अनुमान साफ-साफ लगने लगा कि दोनों के बीच सबकुछ ठीकठाक नहीं है।
जानकार सूत्रों के अनुसार मंत्रीमंडल की सूची फाइनल होने के आखिरी क्षण तक राजस्थान के एक भी सांसद का नाम मंत्री के रूप में नहीं था। कुछ न्यूज चैनलों पर तो यह खबर ब्रेकिंग न्यूज की तरह चल भी गई। और ये भी कि वसुंधरा ने सभी सांसदों की बैठक में तसल्ली रखने को कहा। दूसरी ओर उन्होंने मोदी पर दबाव भी बनाया और उसी के बाद श्रीगंगानगर के सांसद निहाल चंद का नाम सूची में जोड़ा गया। बताया जाता है कि निहाल चंद का नाम वसुंधरा की पहली पसंद के रूप में नहीं था, यानि कि इसमें भी मोदी ने वसुंधरा को कोई खास भाव नहीं दिया। मतलब साफ है। मोदी व वसुंधरा के बीच ट्यूनिंग में कहीं न कहीं गड़बड़ है। इस बात की पुष्टि कुछ चर्चाओं से हो रही है।
आपको याद होगा कि वसुंधरा ने अपनी पंसद से कर्नल सोनाराम को कांग्रेस से ला कर भाजपा का टिकट दिलवाया और पूर्व केन्द्रीय विदेश मंत्री जसवंत नाराज हो बागी हो गए, तो उन्हें हराने के लिए पूरी ताकत झोंक दी, उन्हीं का आशीर्वाद लेने के लिए मोदी ने पत्र लिख दिया। मीडिया में चर्चा यहां तक है कि उन्हें तमिलनाडू का राज्यपाल बनाया जा सकता है। इसी प्रकार चर्चा है कि वसुंधरा राजे के धुर विरोधी घनश्याम तिवाड़ी को मोदी अहम जिम्मेदारी दिलवाना चाहते हैं। इसी प्रकार राजे दरबार से निकाले गए ओम प्रकाश माथुर की चर्चा तो भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए जाने वाली सूची में है। अध्यक्ष वे बनवा पाएं, अथवा नहीं, मगर यह तय है कि उन्हें भी खास जिम्मेदारी दी जा सकती है। कुल मिला कर यह साफ है कि मोदी सोची समझी रणनीति के तहत वसुंधरा विरोधियों पर हाथ रखना चाहते हैं। ताकि... ताकि वसुंधरा अपने सूबे में स्वतंत्र क्षत्रप की तरह व्यवहार न करने लगें। रहा सवाल वसुंधरा के मिजाज का तो सब जानते हैं कि जब वे विपक्ष में थीं, तब भी भाजपा हाईकमान के नियंत्रण में नहीं आ रही थीं। अधिसंख्य विधायक उनके कब्जे में थे। हाईकमान का दबाव था कि वे विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष पद छोड़े, मगर उन्होंने साफ इंकार कर दिया। काफी जद्दोजहद के बाद तब जा कर पद छोड़ा, जब उन्हें राष्ट्रीय महासचिव बनाया गया। उस पर भी तुर्रा ये कि तकरीबन एक साल तक किसी और को नेता प्रतिपक्ष नहीं बनने दिया। अपने पक्ष में विधायकों के इस्तीफे का नाटक सबने देखा। आखिरकार हाईकमान को मजबूर हो कर उन्हें फिर से नेता प्रतिपक्ष बनाना पड़ा। इससे समझा जा सकता है कि उन्होंने हाईकमान व संघ को कितना गांठा। हाईकमान उनके सामने इतना बौना हो गया था कि उन्हें ही विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री प्रत्याशी के रूप में प्रोजेक्ट करना पड़ा। उन्होंने पूरे प्रदेश में सुराज संकल्प यात्रा निकाल कर भाजपा के पक्ष में अलख जगाई। हालांकि तब तक नरेन्द्र मोदी भी प्रधानमंत्री पद के दावेदार घोषित हो चुके थे, इस कारण उनकी भी हवा चली और भाजपा को प्रचंड बहुमत हासिल हो गया। लोकसभा चुनाव में भी उन्होंने मिशन पच्चीस पूरा कर दिया। भला ऐसे में वे कैसे हाईकमान से दबने वाली हैं। उनका मिजाज भी इसकी इजाजत नहीं देता। स्वाभाविक है कि वे राजस्थान में स्वतंत्र रूप से काम करना चाहती हैं, मगर कुछ घटनाओं से ऐसा प्रतीत होता है कि मोदी की राजस्थान में टांग फंसा कर रखने की मंशा है। मोदी आज भाजपा की सुपर पावर हैं। यदि ये कहें कि वे पूरी भाजपा पर हावी हो गए हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। वे वसुंधरा को पहले की तरह छुट्टा छोडऩे वाले नहीं हैं। ठीक उसी तरह जैसे पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्रियों को कब्जे में रखती थीं। एक वरिष्ठ लेखक डॉ. जुगल किशोर गर्ग ने तो व्यक्तिगत चर्चा में उन्हें इंदिरा गांधी का भाजपाई संस्करण करार दिया है। उधर महारानी वसुंधरा भी कम नहीं हैं। ऐसे में टकराव अवश्यम्भावी नजर आता है।
-तेजवानी गिरधर