तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

बुधवार, फ़रवरी 27, 2013

ब्राह्मणों के वर्चस्व वाली भाजपा में तिवाड़ी बेगाने क्यों?

ghanshyam tiwariपूर्व मुख्यमंत्री एवं भाजपा की प्रदेशाध्यक्ष श्रीमती वसुन्धरा राजे ने अपने सरकारी निवास पर राजस्थान ब्राह्मण महासभा द्वारा आयोजित सम्मान समारोह में प्रदेश के ब्राह्मण वोटों को आकर्षित करने के लिए एक दिलचस्प बात कह दी। वो ये कि भाजपा के संस्थापक पंडित दीनदयाल उपाध्याय ब्राह्मण थे और भाजपा के शीर्षस्थ नेता पूर्व प्रधानमंत्री अटल वाजपेयी भी ब्राह्मण ही हैं। लोकसभा और राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष भी ब्राह्मण ही हैं। भाजपा के केन्द्रीय संसदीय बोर्ड में भी अधिकांश ब्राह्मण ही हैं। देश के अधिकांश राज्यों में भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष भी ब्राह्मण ही हैं। इसलिये हम तो पंडितों के आशीर्वाद के बिना आगे बढ़ ही नहीं सकते।
सवाल ये उठता है कि अगर वे ब्राह्मणों का इतना ही सम्मान करती हैं और उनके आशीर्वाद के बिना आगे बढ़ ही नहीं सकतीं तो फिर अपने ही साथी घनश्याम तिवाड़ी को रूठा हुआ कैसे छोड़ रही हैं? इतना वरिष्ठ ब्राह्मण नेता ही पार्टी में बेगाना और अलग-थलग क्यों है? जब से वसुंधरा व संघ लॉबी में सुलह हुई है तिवाड़ी नाराज चल रहे हैं। उन्हें मनाने की कोशिशें निचले स्तर पर जरूर हुई हैं, मगर खुद वसुंधरा ने अब तक कोई गंभीर कोशिश नहीं की है। क्या तिवाड़ी ब्राह्मण नहीं हैं? अगर हैं तो इसका मतलब ये है कि उनके वचन और कर्म में तालमेल नहीं हैं। ब्राह्मणों के सम्मान में भले ही कुछ कहें, मगर धरातल पर कितना सम्मान है, इसका जीता जागता उदाहरण हैं वरिष्ठ भाजपा नेता तिवाड़ी की नाराजगी। होना तो यह चाहिए था कि ब्राह्मण महासभा के आयोजन में ही उनका ठीक से सम्मान किया जाता। उससे भी ज्यादा अफसोसनाक है ब्राह्मण महासभा का कृत्य, जिसने अपनी समाज के वरिष्ठ नेता को हाशिये डाले जाने के बाद भी कोई ऐतराज नहीं किया। उलटे वसुंधरा का स्वागत करने पहुंच गई। ऐसा प्रतीत होता है कि तिवाड़ी को आइना दिखाने के लिए ही यह आयोजन हुआ, ताकि उन्हें संदेश दिया जाए कि वे भले ही नाराज हों, मगर उनकी समाज तो वसुंधरा के साथ है।
ज्ञातव्य है कि प्रदेश भाजपा में नए तालमेल के प्रति तिवाड़ी की असहमति तभी पता लग गई थी, जबकि दिल्ली में सुलह वाले दिन वे तुरंत वहां से निजी काम के लिए चले गए। इसके बाद वसुंधरा के राजस्थान आगमन पर स्वागत करने भी नहीं गए। श्रीमती वसुंधरा के पद भार संभालने वाले दिन सहित कटारिया के नेता प्रतिपक्ष चुने जाने पर मौजूद तो रहे, मगर कटे-कटे से। कटारिया के स्वागत समारोह में उन्हें बार-बार मंच पर बुलाया गया लेकिन वे अपनी जगह से नहीं हिले और हाथ का इशारा कर इनकार कर दिया। बताते हैं कि इससे पहले तिवाड़ी बैठक में ही नहीं आ रहे थे, लेकिन कटारिया और भूपेंद्र यादव उन्हें घर मनाने गए। इसके बाद ही तिवाड़ी यहां आने के लिए राजी हुए। उन्होंने दुबारा उप नेता बनने का प्रस्ताव भी ठुकरा दिया।
ब्राह्मण के मुद्दे पर एक बात और याद आती है। हाल ही एक बयान में तिवाड़ी की पीड़ा उभर आई थी, वो ये कि मैं ब्राह्मण के घर जन्मा हूं। ब्राह्मण का तो मास बेस हो ही नहीं सकता। मैं राजनीति में जरूर हूं, लेकिन स्वाभिमान से समझौता करना अपनी शान के खिलाफ समझता हूं। मैं उपनेता का पद स्वीकार नहीं करूंगा। पता नहीं ब्राह्मण महासभा को उनकी ब्राह्मण होने की इस पीड़ा का अहसास है या नहीं।
एक बात और। अगर बकौल वसुंधरा भाजपा में ब्राह्मणों का इतना ही वर्चस्व है तो अन्य जातियों का क्या होगा? जिस जाति की वे बेटी हैं, जिस जाति में वे ब्याही हैं व जिस जाति की वे समधन हैं और इन संबंधों की बिना पर जिन जातियों से वोट मांगती हैं, उनका क्या होगा? तब उनके बार-बार दोहराये जाने वाले इस बयान के क्या मायने रह जाते हैं कि भाजपा छत्तीसों कौम की पार्टी है? ऐसे में अगर लोग ये कहते हैं कि भाजपा ब्राह्मण-बनियों की पार्टी है तो क्या गलत कहते हैं? सच तो ये है कि ऊंची जातियों के वर्चस्व की वजह से ही भाजपा अनुसूचित जातियों में अपनी पकड़ नहीं बना पाई है। अस्सी फीसदी हिंदुओं के इस देश में हिंदूवाद के नाम पर भाजपा को तीन-चौथाई बहुमत नहीं मिल पाता। अनुसूचित जाति के लोग भाजपा के इस कथित हिंदूवाद की वजह से ही कांग्रेस, सपा, बसपा, जनता दल आदि का रास्ता तलाशते हैं।
-तेजवानी गिरधर

सोमवार, फ़रवरी 25, 2013

लो अब भाभड़ा ने भी बदला अपना सुर

vasu-bhabhadaअब जब कि प्रदेश के सारे वसुंधरा विरोधी भाजपा नेताओं को यह साफ दिख गया है कि वे ही पार्टी की वर्तमान और भविष्य हैं तो वे मौके की नजाकत देख कर अपना सुर बदलने लगे हैं। पहले वसुंधरा के धुर विरोधी वरिष्ठ नेता कैलाश मेघवार ने अपना मूड, माइंड व सुर बदल कर उन्हें भावी मुख्यमंत्री स्वीकार किया और अब पुराने दिग्गज हरिशंकर भाभड़ा ने भी अपना सुर बदल कर न केवल उन्हें जीतने का आशीर्वाद दिया, अपितु यह भी कहा कि वे पहले भी वसुंधरा राजे के साथ थे, आज भी हैं और आगे भी साथ रहेंगे। 2008 के चुनाव के बाद हमारी वसुंधरा राजे से कभी कोई शिकायत नहीं रही। हमारी शिकायत तो पार्टी हाईकमान से थी। ज्ञातव्य है कि पार्टी में अपने राजनीतिक विरोधियों को मनाने की कवायद के तहत प्रदेश भाजपा अध्यक्ष वसुंधरा राजे ने हाल ही जयपुर के मालवीय नगर में पूर्व उप मुख्यमंत्री हरिशंकर भाभड़ा से मिलने उनके आवास पर गईं। यहां वसुंधराराजे की भाभड़ा से पौने घंटे बातचीत हुई।
आपको याद दिला दें कि इससे पहले भास्कर के वरिष्ठ संवाददाता त्रिभुवन को एक साक्षात्कार में भाभड़ा ने कहा था कि अब भाजपा को भी कांग्रेस की तरह समझने लगे हैं। दोनों का अंतर कम हो गया। लोग भ्रमित हैं कि किसे वोट दें। पहले राजाओं का वर्चस्व था। अब पैसे और सत्ता के बल पर नए जागीरदार पैदा हो गए। उन्हीं की घणी-खम्मां हो रही है। अघोषित राजतंत्र है। अपने कुटुंब को आगे बढ़ाते हैं। टिकट भी उनको, पद भी उनको। सब पार्टियों में यही हाल है। जिस वसुंधरा के कारण आज वे खंडहर की माफिक हो गए हैं, उनके बारे में उनकी क्या धारणा रही, इसका खुलासा होता है उनके तब दिए इस बयान से हो जाता है कि जनता ने राजा-रानियों को एक मौका तो दिया, लेकिन कुछ नहीं किया तो दूसरा मौका नहीं दिया। साथ ही कहा था कि वसुंधरा बहुत काबिल हैं। उनकी हर विषय पर पकड़ है। उन्हें भाषा की कठिनाई नहीं है। वसुंधरा की प्रशासन पर पकड़ अच्छी थी, लेकिन कुछ एलीमेंट तो ऐसे होते ही हैं, जिन पर कोई कंट्रोल नहीं कर सकता! उन्होंने ये भी कहा था कि भाजपा और कांग्रेस को खतरा एक-दूसरे से नहीं, अपने आपके भीतर पैदा हो चुके विरोधियों से है। भाजपा के दोनों गुटों की अपनी महत्वाकांक्षाएं हैं। एक गुटबाजी करेगा तो दूसरा भी करेगा। एक गुटबाजी के लिए जिम्मेदार होता है, दूसरा तो प्रतिक्रिया करता है। जब उनसे पूछा गया कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है तो यह कह कर मन की बात छिपाने की कोशिश करते हैं कि जिसने गुटबाजी शुरू की। जब पूछा गया कि किसने शुरुआत की तो यह कह कर बचने की कोशिश भी करते हैं कि यह खोज का विषय है। वसुंधरा के परिपेक्ष्य में उन्होंने कहा था कि हम मर्यादा रखते थे। शेखावत को नेता माना तो माना। उनसे हम आपत्ति रखते थे तो वे जायज चीजें तुरंत मान लेते थे। वे जिद्दी नहीं थे। इससे झगड़ा नहीं होता था।
जब ये पूछा गया था कि वसुंधरा राजे को मुख्यमंत्री पद का दावेदार मान कर चुनाव लडने के मुद्दे पर उनके क्या विचार हैं तो बोले थे कि जरूरी नहीं कि किसी को लोकतंत्र में चुनाव से पहले नेता घोषित किया जाए। किसी एक आदमी को नेता तब घोषित किया जाता है, जब उसका नाम घोषित होने से लाभ होता हो। यह गंभीर प्रश्न है कि नेता घोषित हो कि नहीं! यह विषय केंद्रीय चुनाव समिति तय करती है। वह फायदे और नुकसान देखे। . .भैरोसिंह शेखावत मुख्यमंत्री रहे, लेकिन उन्हें कभी मुख्यमंत्री घोषित थोड़े किया गया था। आज यह तो तय है कि मुख्यमंत्री कौन बनेगा? साथ ही जोड़ा कि आप बात तो लोकतंत्र की करते हैं तो किसी को मुख्यमंत्री पहले कैसे घोषित कर सकते हैं। आप चुने हुए विधायकों के अधिकार की अवहेलना कैसे कर सकते हैं। कई बार नेता घोषित करने के दुष्परिणाम भी होते हैं। महत्वाकांक्षाएं जब सीमा पार कर जाती हैं तो वे पार्टी के लिए घातक होती हैं। जब वसुंधरा की लोकप्रियता का पार्टी को लाभ मिलने का सवाल किया गया तो बोले कि भाजपा में टीम वर्क रहा है। कभी उन्होंने किसी व्यक्ति पर अपने आपको आश्रित नहीं किया।
कुल मिला कर भाभड़ा के हृदय परिवर्तन से यह साफ हो गया है कि वे धरातल के सच और हालात को समझ चुके हैं और वसुंधरा के आगे नतमस्तक हैं।
-तेजवानी गिरधर

वसुंधरा ने फिर शुरू की खंडहरों को सलामी की कवायद

vasu-kailashvasu-bhabhadaहालांकि प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बनने और मुख्यमंत्री पद की दावेदार के रूप में स्थापित हो चुकी श्रीमती वसुंधरा जानती हैं कि अब अधिसंख्य पुराने नेता भी उनका नेतृत्व स्वीकार कर रहे हैं, फिर भी उनका सम्मान रखने की खातिर अब उनसे मिल कर नाराजगी को सदा के लिए समाप्त करने की कवायद में फिर जुट गई हैं। हालांकि इससे पहले भी उन्होंने यह अभियान चलाया था और पुराने नेताओं से मिल कर उनका दिल जीतने की कोशिश की थी, मगर राष्ट्रीय अध्यक्ष का मसला नहीं सुलझ पाने के कारण उसे स्थगित कर दिया था। अब जब कि उन्हें लगभग फ्री हैंड सा मिल गया है, वे पूरे जोश-खरोश के साथ अपने अभियान में फिर जुट गई हैं। इसका एक बड़ा फायदा ये हो रहा है कि एक ओर जहां नेताओं की नाराजगी दूर हो रही है, वहीं उनके वसुंधरा को भावी मुख्यमंत्री स्वीकार करने के बयानों से पार्टी स्तर पर मजबूती भी मिल रही है। इससे यह संदेश जा रहा है कि अब वसुंधरा की दावेदारी में कोई कसर बाकी नहीं रह गई है।
सबसे पहले उन्होंने अपने धुर विरोधी दिग्गज कैलाश मेघवाल को अपने निवास पर आमंत्रित कर गिले-शिकवे दूर किए तो मेघवाल ने भी उनको भावी मुख्यमंत्री के रूप में स्वीकार करने की ऐलान कर दिया। इसके बाद उन्होंने पूर्व उपमुख्यमंत्री हरिशंकर भाभड़ा के निवास स्थान पर जा कर उनकी आशीर्वाद लिया। इसके एवज में भाभड़ा ने पुरानी सारी बातें भूलते हुए कहा कि वे पहले भी वसुंधरा राजे के साथ थे, आज भी हैं और आगे भी साथ रहेंगे। जानकारी है कि वे जल्द ही कटे-कटे से चल रहे घनश्याम तिवाड़ी को भी मनाने की कोशिश करने वाली हैं।
vs1vs2ज्ञातव्य है प्रदेश भाजपा में सुलह से पहले भी वसुंधरा ने कुशलक्षेम पूछने के बहाने कोटा में बुजुर्ग नेताओं से मुलाकात की और इन नेताओं के अगले विधानसभा चुनाव में कामयाबी का आशीर्वाद मांगा था। उन्होंने वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं तक से भेंट की थी। तब पत्रकारों ने जब यह सवाल किया था कि इस दौरे के क्या मायने हैं तो उन्होंने कहा था कि राज को राज रहने दो। तब उन्होंने वरिष्ठ नेता पूर्व मंत्री के के गोयल, पूर्व सांसद रघुवीरसिंह कौशल, पूर्व केंद्रीय मंत्री भुवनेश चतुर्वेदी, जुझारसिंह और रामकिशन वर्मा के घर पहुंच कर उनकी कुशलक्षेम पूछी। वे साहित्यकार वयोवृद्ध भाजपा नेता गजेंद्रसिंह सोलंकी की कुशलक्षेम पूछने भी गई थीं। वरिष्ठ नेता भाभडा की कुशलक्षेम उन्होंने अपने इस दौरे में भी पूछी थी। वसुंधरा के इस दौरे को अगले विधानसभा चुनाव की तैयारी के लिए कूटनीति की जाजम बिछाने के रूप में भी देखा जा गया था।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, फ़रवरी 24, 2013

असल में मेघवाल का मूड व माइंड बदला है

vasu-kailashकभी पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुधंरा राजे के धुर विरोधी रहे वरिष्ठ भाजपा नेता कैलाश मेघवाल ने दैनिक भास्कर के वरिष्ठ संवाददाता त्रिभुवन को एक साक्षात्कार में कहा है कि वसुंधरा राजे का मूड और माइंड अब बदल गया है, उन्होंने अनुभवों से बहुत कुछ सीखा है, जबकि असलियत ये है कि मूड व मांइड तो मेघवाल का बदला है, सुर भी बदला है, अपना वजूद बचाने की खातिर। आपको याद होगा, ये वही मेघवाल हैं, जिन्होंने सर्वाधिक मुखर हो कर श्रीमती राजे का विरोध किया और अगर ये कहा जाए कि वसुंधरा विरोधी मुहिम के सूत्रधार ही मेघवाल ही थे तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को अगर वसुंधरा पर हमले का मौका मिला तो असल में वह मेघवाल ने ही दिया था। उन्होंने उन्हीं के आरोपों को आधार बना कर वसुंधरा पर हमले किए थे और आज भी करते रहते हैं।
असल में मेघवाल उन चंद नेताओं में शुमार रहे हैं, जिनकी कोशिश थी कि वसुंधरा राजस्थान में पैर नहीं जमा पाएं। और इसके लिए उन्होंने पार्टी लाइन से हट कर नागाई की। पूर्व उपराष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत ने भी अपने दामाद नरपत सिंह राजवी की खातिर वसुंधरा विरोधी रुख अख्तियार किया था, यह बात अलग है कि उन्हें इसमें कामयाबी हासिल नहीं हो पाई। वसुंधरा का इतना खौफ हुआ करता था कि भाजपा के अधिसंख्य नेता उन दिनों शेखावत से मिलने तक से डरते थे। नतीजतन राजस्थान का एक ही सिंह अपने राज्य में ही बेगाना सा हो गया था। लगभग यही स्थिति मेघवाल की भी हुई। वे हाशिये पर चले गए। अपना अस्तित्व समाप्त होता देख शातिर दिमाग खांटी नेता मेघवाल ने अपना मूड, माइंड व सुर बदल लिया है। उन्होंने भी अनुभव से सीख लिया है कि वसुंधरा को नेता माने बिना कोई चारा नहीं है। कुछ समय पहले सीएम इन वेटिंग के सवाल पर न सूत, न कपास और जुलाहों में ल_म ल_ा कहने वाले मेघवाल के श्रीमुख से ही निकल रहा है कि आगामी चुनाव में वसुंधरा के चेहरे और नाम का भरपूर फायदा पार्टी को मिलेगा। बड़ी दिलचस्प बात ये है कि वे खुद ही कह रहे हैं कि वसुंधरा अपने विरोधियों को परास्त करने और अपने आपको मुख्यमंत्री पद का स्वाभाविक दावेदार बनाने में सबल और सक्षम साबित हुई हैं। वसुंधरा ही मुख्यमंत्री होंगी। यानि राजनीति में जिंदा रहने के लिए वे साफ तौर पर सरंडर कर चुके हैं। उन्हें कपासन से टिकट चाहिए, इसी कारण वसुंधरा के यहां धोक देने पहुंच गए।
रहा सवाल हाशिये पर जा चुके मेघवाल की वर्तमान में प्रासंगिकता का तो इसमें कोई दोराय नहीं कि पार्टी को आज भी उनकी जरूरत महसूस हो रही है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब वे वसुंधरा से मिले तो इस मुलाकात की बाकायदा विज्ञप्ति जारी की गई, जिसमें बताया गया कि आगामी विधानसभा चुनाव वसुन्धरा के नेतृत्व में लड़ेंगे। वसुन्धरा ही भाजपा की सरकार में मुख्यमंत्री होंगी। असल में मेघवाल को इतनी तवज्जो इस कारण दी गई क्योंकि वे अनुसूचित जाति के उन पुराने नेताओं में शुमार हैं, जिनकी कि आज भी जमीन पर पकड़ है। वैसे भी वे उस जमाने के भाजपा नेता हैं, जब अनुसूचित जाति पर भाजपा की कुछ खास पकड़ नहीं हुआ करती थी। अब तो भाजपा में अनुसूचित जाति के अनेक नेता पैदा हो चुके हैं।
समझा जाता है कि समीकरणों में आए बदलाव के बाद मेघवाल टिकट भी हासिल करने में कामयाब होंगे और अपना स्थान फिर बनाने में भी।
-तेजवानी गिरधर

शनिवार, फ़रवरी 23, 2013

भाजपा समर्थित भारतीय मजदूर संघ हुआ खंड-खंड

bmsप्रदेश की कथित अनुशासित पार्टी भाजपा समर्थित भारतीय मजदूर संघ अब तीन खंडों में विभाजित हो गया हैै। कहा जाता है कि यह वह संघ है, जो सरकारी कर्मचारियों को राष्ट्रीय विचारधारा से जोडऩे का काम करता है। धरातल का सच ये है कि राजनीतिक मायनों में यह भाजपा समर्थित है। यह सबसे पुराना एवं एक मात्र कर्मचारी संगठन है। प्रदेश के सरकारी विभाग, निगम और बोर्ड की कर्मचारी राजनीति में उक्त संगठन का रोल तो रहता ही है, वहीं विधानसभा और लोकसभा चुनावों में भी उक्त संघ भाजपा की लाइफ लाइन का काम करता आया है। मौजूदा समय में यह शक्ति तीन खंडों में खंड -खंड हो रही है। इसके पीछे कुछ नए तो कुछ पुराने कारण उभर कर आए हैं।
वस्तुत: 2008 के चुनावों में भारतीय मजदूर संघ ने भाजपा राजनीति में अपना दखल देते हुए 25 टिकट मांगे। उस वक्त टिकट नहीं दिए गए। कहीं न कहीं भाजपा की हार में यह स्थिति भी कारण बनी। भारतीय मजदूर संघ के प्रदेश उपाध्यक्ष एवं राजस्थान राज्य कर्मचारी महासंघ भामसं के प्रदेश अध्यक्ष महेश व्यास से इस्तीफा तक मांग लिया गया। व्यास भामसं के कद्दावर नेता तो थे ही साथ ही यह कर्मचारी हितों की मांगों के जरिए कांग्रेस सरकार पर हमला बोलने वाले अचूक बाण भी माने जाते थे। सचिवालय में पदस्थापित होने के कारण व्यास ने पूरे प्रदेश में अपना नेटवर्क पहले से ही जमा रखा था, इसी नेटवर्क के बूते पर उन्होंने जनवरी 2010 में अखिल राजस्थान कर्मचारी एवं मजदूर महासंघ का गठन कर लिया। यह संघ अब भामसं को प्रदेश के हर जिले में बराबर की टक्कर दे रहा है। इससे बीएमएस टूटने लगा है।
कुछ महीने पहले ही भाजपा ने एक और संगठन की नींव डाल दी। कर्मचारी राजनीति के जानकारों के मुताबिक यह संगठन जाने-अनजाने में भारतीय मजदूर संघ को ही क्षीण करने का काम कर रहा है। गैर सरकारी मजदूरों एवं कर्मचारियों के लिए भारतीय जनता मजदूर महासंघ की स्थापना की गई है, ताकि भाजपा के संस्कारों का प्रसार हो। अजमेर में इस संघ के अध्यक्ष सुरेंद्र गोयल है। सुरेंद्र गोयल यूआईटी ट्स्टी और भारतीय मजदूर संघ के अध्यक्ष रह चुके हैं। अब तक भारतीय मजदूर संघ से कई प्राइवेट कर्मचारी और अन्य यूनियनें नाता बनाकर चलती थीं, मगर नए मजदूर महासंघ ने सभी को तोडऩा आरंभ कर दिया है। ऐसे में प्रदेश स्तर पर सरकारी विभागों से भामसं का वर्चस्व कमजोर होता जा रहा है। कर्मचारी भामसं और व्यास गुट में तो बंटे ही थे, अब मजदूर महासंघ के प्रवेश ने कर्मचारी और मजदूर वर्ग की शक्ति को बांट दिया है। भाजपा की यह शक्ति त्रिशंकु हो चली है। यदि इसे संतुलित नहीं किया गया तो, इसका परिणाम आने वाले विधानसभा चुनावों में भाजपा पर पडऩा लगभग तय है।
-तेजवानी गिरधर

राज्यपाल की रस्म अदायगी पर इतनी परेशानी क्यों?

margret alvaराजस्थान विधानसभा में बजट सत्र शुरू होने पर राज्यपाल मारगे्रट अल्वा ने परंपरागत रूप से अभिभाषण प्रस्तुत किया और उसके चार पैरे पढ़ कर पढ़ा हुआ मानने का आदेश दिया तो बुद्धिजीवियों ने भी इसे अनुचित ठहराया। इस संदर्भ में राजस्थानियों के दिल की धड़कन बन चुके दैनिक भास्कर के अग्र लेख की ही चर्चा करें तो उसमें राज्यपाल को संबोधित करते हुए कहा गया कि राजस्थान के साढ़े छह करोड़ लोगों की भावनाओं को रस्म अदायगी मत समझिए।
अव्वल तो यह पहला मौका नहीं है कि अभिभाषण का कुछ अंश पढ़ कर बाकी का पढ़ा हुआ मान लेने को कहा गया। ऐसा कई बार हो चुका है, विशेष रूप से व्यवघान होने पर। इसकी वजह ये है कि भले ही राज्यपाल ने अपने श्रीमुख से पूरा अभिभाषण पढ़ा हो या नहीं, मगर वह लिखित रूप में सभी विधायकों को उपलब्ध कराया जाता है, ताकि वे आराम से उसका अध्ययन कर सकें। बेशक अभिभाषण को पूरा नहीं पढऩा एक विवाद का विषय हो सकता है, मगर सवाल उठता है कि वैसे भी अभिभाषण में सरकार की ओर से अपनी बढ़ाई के अलावा होता क्या है? ऐसा कितनी बार हुआ है कि किसी राज्यपाल ने सरकार की ओर लिख दिया गया अभिभाषण छोड़ कर अपनी ओर से कुछ नई बात रखी हो? क्या अभिभाषण परंपरा मात्र का हिस्सा मात्र नहीं रह गया है? पढऩे को जरूर वह पढ़ा जाता है, मगर उसे वास्तव में कितने विधायक सुनते हैं? क्या उसमें सरकार की उपब्धियों व भावी योजनाओं का बखान के अलावा कुछ होता भी है, जिसे कि विधायकगण गौर से सुनते हों? क्या ऐसे ऊबाऊ अभिभाषण को सुनते-सुनते अमूमन विधायको को ऊंग नहीं आ जाती? भले ही अभिभाषण के बहाने राज्यपाल को विधानसभा में गरिमामय उपस्थिति दर्ज करवाने का मौका मिलता हो, इस कारण यह परंपरा ठीक लगती है, मगर अपना तो मानना है कि राज्यपाल की उपस्थिति में ही अभिभाषण सदन के पटल पर मात्र रख दिया जाना चाहिए। उसे पढऩे में जो वक्त जाया होता है, उसका बेहतर उपयोग किया जाना चाहिए।
भास्कर के अग्र लेख में कहा गया है कि आखिर करोड़ों राजस्थानियों के साथ इस तरह भावनात्मक मजाक क्यों किया जा रहा है? समझ में नहीं आता कि इससे आखिर किस प्रकार भावनात्मक मजाक हुआ है? आम आदमी की हालत तो ये है कि वह इसे सुनना ही पसंद नहीं करता। दूसरे दिन अखबारों में छप जाए तो भी उसे पढऩे में अपना वक्त जाया नहीं करता। वह सिर्फ महत्वपूर्ण हाईलाइट्स पर ही नजर डालता है। यदि अभिभाषण इतना ही भावनात्मक है तो उसे सभी अखबारों को पूरा का पूरा छापना चाहिए, ताकि राज्य के साढ़े छह करोड़ लोगों की भावनाओं का सम्मान हो सके।
बड़े मजे की बात है कि लेखक ने यह भी स्वीकार किया है कि सही है अभिभाषण में रुचि कम हो रही है। लेकिन ऐसा क्यों हो रहा है? अगर अभिभाषण में मौलिकता बची होती। सवाल उठता है कि क्या अब तक कितने राज्यपालों ने खुद का लिखा हुआ अभिभाषण पढ़ा है।
लेख के आखिर में लिखा है कि इस पर बहस तो होनी ही चाहिए कि पढ़े हुए मान लिए जाने का मतलब क्या है? क्या यह होना चाहिए या नए सिरे से इस पर चर्चा होनी चाहिए-क्यों पढ़ा हुआ मान लिया जाए। अपन ने लेखक की ओर से बहस की अपेक्षा को पूरा करने का प्रयास किया है। आखिर में अपना मानना है कि यह इतना बड़ा मुद्दा था नहीं, जिस पर कि दैनिक भास्कर जैसे अखबार को अग्र लेख लिखने की जरूरत पड़ गई।
-तेजवानी गिरधर

शुक्रवार, फ़रवरी 22, 2013

तिवाड़ी ने खोली भाजपाई एकता की पोल

ghanshyam tiwariलंबी जद्दोजहद के बाद भले ही पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे व संघ लॉबी के बीच सुलह हो गई हो और इस एकता से कथित अनुशासित पार्टी भाजपा के कार्यकर्ता उत्साहित हों, मगर वरिष्ठ भाजपा नेता घनश्याम तिवाड़ी इस एकता की पोल खोलने को उतारु हैं। वे अपनी नाराजगी सार्वजनिक रूप से जताने की जिद पर अड़े हैं, भले ही इससे पार्टी एकता की छीछालेदर हो जाए। उन्होंने इसका इसका ताजा नमूना पेश किया राजस्थान विधानसभा सत्र के पहले दिन राज्यपाल के अभिभाषण के दौरान। उन्होंने पार्टी लाइन से हट कर राज्यपाल के अंग्रेजी में पढ़े जाने वाले अभिभाषण पर व्यवस्था का सवाल उठाते हुए ऐतराज किया। यह बात दीगर है कि राज्यपाल ने उनके विरोध को देखते हुए अभिभाषण के कुछ पैरे हिंदी में पढ़े, मगर इससे भाजपाई रणनीति की कमजोरी तो उजागर हो ही गई।
अव्वल तो वे भाजपा विधायक दल की बैठक में गए ही नहीं, जिसमें कि रणनीति तैयार की गई थी। इसी से अंदाजा लग जाता है कि उन्हें पार्टी गाइड लाइन की कोई परवाह ही नहीं है। इतना ही नहीं, उन्होंने जो कहा था वह करके दिखाया। ज्ञातव्य है कि जब यह बात सामने आई कि राज्यपाल मारग्रेट अल्वा अंग्रेजी में अभिभाषण पढ़ेंगी तो भाजपा का रुख स्पष्ट नहीं था कि वह इसका विरोध करेगी या नहीं, जबकि तिवाड़ी ने पहले ही कह दिया कि वे तो इसका विरोध करेंगे, चाहे कोई उनका साथ दे या नहीं। वे अकेले ही इस मुद्दे को उठाने का ऐलान कर चुके थे। और ठीक इसके अनुरूप किया। हालांकि भाजपा विधायक दल की बैठक में यह तय हुआ था कि राज्यपाल के अभिभाषण की भाषा को लेकर नेता प्रतिपक्ष गुलाबचंद कटारिया विरोध दर्ज करवाएंगे, लेकिन तिवाड़ी ने इस फैसले की परवाह किए बिना ही विधानसभा में अभिभाषण शुरू होने से पहले ही हिंदी-अंग्रेजी का मुद्दा उठा लिया। बाद में कटारिया को यह कह सफाई देनी पड़ी कि उन्होंने विधायक दल की बैठक खत्म होने के बाद तिवाड़ी को बता दिया था कि क्या रणनीति तय हुई है। इस प्रकार भले ही कटारिया ने पार्टी में एकजुटता होने का संकेत दिया हो, मगर यह साफ है कि तिवाड़ी बेहद नाराज हैं। उनके तल्खी भले जवाब को दिखिए-मुझे विधायक दल की बैठक की सूचना नहीं थी। मैंने कोई मुद्दा हाईजेक नहीं किया। मैंने सदन में व्यवस्था का प्रश्न उठाया था कि राज्यपाल अंग्रेजी में अभिभाषण नहीं पढ़ सकतीं। ये बात जो जानता होगा वही तो बोलेगा! मैंने कोई पार्टी लाइन नहीं तोड़ी। ये विधानसभा के स्वाभिमान और राष्ट्रभाषा की रक्षा का मसला था। कुल मिला कर यह स्पष्ट है कि तिवाड़ी को अभी राजी नहीं किया जा सका है और वे आगे भी फटे में टांग फंसाते रहेंगे।
ज्ञातव्य है कि प्रदेश भाजपा में नए तालमेल के प्रति उनकी असहमति तभी पता लग गई थी, जबकि दिल्ली में सुलह वाले दिन वे तुरंत वहां से निजी काम के लिए चले गए। इसके बाद वसुंधरा के राजस्थान आगमन पर स्वागत करने भी नहीं गए। श्रीमती वसुंधरा के पद भार संभालने वाले दिन सहित कटारिया के नेता प्रतिपक्ष चुने जाने पर मौजूद तो रहे, मगर कटे-कटे से। कटारिया के स्वागत समारोह में उन्हें बार-बार मंच पर बुलाया गया लेकिन वे अपनी जगह से नहीं हिले और हाथ का इशारा कर इनकार कर दिया। बताते हैं कि इससे पहले तिवाड़ी बैठक में ही नहीं आ रहे थे, लेकिन कटारिया और भूपेंद्र यादव उन्हें घर मनाने गए। इसके बाद ही तिवाड़ी यहां आने के लिए राजी हुए। उन्होंने दुबारा उप नेता बनने का प्रस्ताव भी ठुकरा दिया। उनके मन में पीड़ा कितनी गहरी है, इसका अंदाजा इसी बयान से लगा जा सकता है कि मैं ब्राह्मण के घर जन्मा हूं। ब्राह्मण का तो मास बेस हो ही नहीं सकता। मैं राजनीति में जरूर हूं, लेकिन स्वाभिमान से समझौता करना अपनी शान के खिलाफ समझता हूं। मैं उपनेता का पद स्वीकार नहीं करूंगा।
-तेजवानी गिरधर

हवाई है राजस्थानी बिन गूंगो राजस्थान अभियान

rajasthani 1न्यूयॉर्क में अखिल भारतीय राजस्थानी मान्यता संघर्ष समिति ने विश्व भाषा दिवस पर गत दिवस गोष्ठी कर राजस्थानी भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने की मांग करते हुए कहा कि ऐसा नहीं होने तक समिति चुप नहीं बैठेगी। समिति के अंतरराष्ट्रीय संयोजक प्रेम भंडारी, न्यूयॉर्क में समिति के संयोजक सुशील गोयल तथा सह संयोजक चंद्र प्रकाश सुखवाल ने अपने मुंह पर राजस्थानी बिना गूंगो राजस्थान लिखी पट्टी बांधकर अपनी मांग रखी। इस मौके पर न्यूयॉर्क के काउंसिल जनरल ऑफ इंडिया प्रभु दयाल के सम्मान में भंडारी ने भोज भी दिया। इस कार्यक्रम से साफ नजर आ रहा था कि यह मात्र एक रस्म थी, जिसे हर साल भाषा दिवस अथवा अन्य मौकों पर गाहे-बगाहे निभाया जाता है, बाकी इस मांग को वाकई मनवाने के प्रति न तो जज्बा है और न ही समर्पण। आज जब किसी भी मांग के लिए लंबा और तेज आंदोलन देखे बिना उसे पूरा करने की सरकारों की प्रवृत्ति सी बन गई है, भला इस प्रकार के रस्मी आयोजनों से क्या होने वाला है?
rajasthani 2कुछ इसी तरह की रस्म अजमेर में राजस्थानी भाषा मोट्यार परिषद के बैनर तले निभाई गई, जिसमें राजस्थानी भाषा में उच्च योग्यता हासिल कर चुके छात्रों ने कलेक्टर को मुख्यमंत्री के नाम ज्ञापन दिया। इस मौके पर अखिल भारतीय राजस्थानी भाषा मान्यता संघर्ष समिति अजमेर संभाग के संभागीय अध्यक्ष नवीन सोगानी के नेतृत्व में कलेक्ट्रेट कार्यालय पर रस्मी धरना दिया गया, जिस में चंद लोगों ने शिरकत की।
कुछ इसी तरह का प्रहसन राजस्थान लोक सेवा आयोग की प्रतियोगी परीक्षाओं में राजस्थानी भाषा का अलग प्रश्न पत्र रखने की मांग करने वाली अखिल भारतीय राजस्थानी भाषा मान्यता संघर्ष समिति ने आरटेट में भी राजस्थानी भाषा को शामिल करने की अलख तो जगाने की कोशिश की थी, मगर उसका असर कहीं नजर नहीं आया। समिति ने परीक्षा वाले दिन को दिन काला दिवस के रूप में मनाया। इस मौके पर पदाधिकारियों ने आरटेट अभ्यर्थियों व शहरवासियों को पेम्फलेट्स वितरित कर अभ्यर्थियों से काली पट्टी बांध कर परीक्षा देने का आग्रह किया, मगर एक भी अभ्यर्थी ने काली पट्टी बांध कर परीक्षा नहीं दी। अनेक केंद्रों पर तो अभ्यर्थियों को यह भी नहीं पता था कि आज कोई काला दिवस मनाया गया है। अजमेर ही नहीं, राज्य स्तर पर यह मुहिम चलाई गई। यहां तक कि न्यूयॉर्क से अखिल भारतीय राजस्थानी भाषा मान्यता संघर्ष समिति के अंतरराष्ट्रीय संयोजक तथा राना के मीडिया चेयरमैन प्रेम भंडारी ने भी राज्य सरकार का ध्यान आकर्षित करने के लिए काली पट्टी नत्थी कर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को पत्र प्रेषित किया।
rajasthaniसवाल ये उठता है कि आखिर क्या वजह है कि राजस्थानी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने का प्रस्ताव केन्द्र सरकार के पास पिछले दस साल से पड़ा है और उस पर कोई कार्यवाही नहीं हो रही? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम राजनेताओं में इस मांग को पूरा करवाने के लिए इच्छा शक्ति ही नहीं जगा पाए? राजनेताओं की छोडिय़े क्या वजह है किराजस्थानी संस्कृति की अस्मिता से जुड़ा यह विषय आम राजस्थानी को आंदोलित क्यों नहीं कर रहा? कहीं ऐसा तो नहीं कि समिति की ओर उठाई गई मांग केवल चंद राजस्थानी भाषा प्रेमियों की मांग है, आम राजस्थानी को उससे कोई सरोकार नहीं? या आम राजस्थानी को समझ में ही नहीं आ रहा कि उनके हित की बात की जा रही है? कहीं ऐसा तो नहीं कि इस मुहिम को चलाने वाले नेता हवाई हैं, उनकी आम लोगों में न तो कोई खास पकड़ है और न ही उनकी आवाज में दम है? कहीं ऐसा तो नहीं कि ये नेता कहने भर को जाने-पहचाने चेहरे हैं, उनके पीछे आम आदमी नहीं जुड़ा हुआ है? कहीं ऐसा तो नहीं कि समिति लाख कोशिश के बाद भी राजनीतिक नेताओं का समर्थन हासिल नहीं कर पाई है? कहीं ऐसा तो नहीं कि यह पूरी मुहिम केवल मीडिया के सहयोग की देन है, इस कारण धरातल पर इसका कोई असर नहीं नजर आता? जरूर कहीं न कहीं गड़बड़ है। इस पर समिति के सभी पदाधिकारियों को गंभीर चिंतन करना होगा। उन्हें इस पर विचार करना होगा कि जनजागृति लाने के लिए कौन सा तरीका अपनाया जाए। आम राजस्थानी को भी समझना होगा कि ये मुहिम उसकी मातृभाषा की अस्मिता की खातिर है, अत: इसे सहयोग देना उसका परम कर्तव्य है।
-तेजवानी गिरधर

बुधवार, फ़रवरी 20, 2013

तिवाड़ी को हाशिये पर चले जाने का मलाल

ghanshyam tiwariराजस्थान भाजपा में लंबे समय चल रही खींचतान को भले ही श्रीमती वसुंधरा राजे को प्रदेश अध्यक्ष व गुलाब चंद कटारिया को नेता प्रतिपक्ष बना कर समाप्त मान लिया गया हो, मगर भाजपा के दिग्गज नेता घनश्याम तिवाड़ी अब भी नाराज हैं। उन्हें मनाने की लाख कोशिश की गई, उनकी नाराजगी अब भी खत्म नहीं हो पा रही। प्रदेश भाजपा में नए तालमेल के प्रति उनकी असहमति तभी पता लग गई थी, जबकि दिल्ली में सुलह वाले दिन वे तुरंत वहां से निजी काम के लिए चले गए। इसके बाद वसुंधरा के राजस्थान आगमन पर स्वागत करने भी नहीं गए। श्रीमती वसुंधरा के पद भार संभालने वाले दिन सहित कटारिया के नेता प्रतिपक्ष चुने जाने पर मौजूद तो रहे, मगर कटे-कटे से। कटारिया के स्वागत समारोह में उन्हें बार-बार मंच पर बुलाया गया लेकिन वे अपनी जगह से नहीं हिले और हाथ का इशारा कर इनकार कर दिया। बताते हैं कि इससे पहले तिवाड़ी बैठक में ही नहीं आ रहे थे, लेकिन कटारिया और भूपेंद्र यादव उन्हें घर मनाने गए। इसके बाद ही तिवाड़ी यहां आने के लिए राजी हुए। उन्होंने दुबारा उप नेता बनने का प्रस्ताव भी ठुकरा दिया। उनके मन में पीड़ा कितनी गहरी है, इसका अंदाजा इसी बयान से लगा जा सकता है कि मैं ब्राह्मण के घर जन्मा हूं। ब्राह्मण का तो मास बेस हो ही नहीं सकता। मैं राजनीति में जरूर हूं, लेकिन स्वाभिमान से समझौता करना अपनी शान के खिलाफ समझता हूं। मैं उपनेता का पद स्वीकार नहीं करूंगा।
कानाफूसी है कि तिवाड़ी को अपने हाशिये पल चले जाने का मलाल है। अफसोसनाक बात ये है कि वर्षों तक पार्टी की सेवा करने के बाद आज इस मुकाम पर वे अकेले पड़ गए हैं। अन्य सभी वसुंधरा या कटारिया की छत्रछाया में अपना मुकाम बना रहे हैं। राजनीति के जानकार मानते हैं कि अगर खुद ही खुद को अकेला जाहिर करेंगे तो खंडहर हो जाएंगे।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, फ़रवरी 17, 2013

मदनी के बयान में मुस्लिमों के मोदी प्रेम की तलाश

mehamood madaniगुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर प्रमुख मुस्लिम संगठन जमीयत उलेमा-ए-हिंद के महासचिव महमूद मदनी ने जैसे यह बयान दिया है कि मोदी को लेकर मुसलमानों के रुख में बदलाव आया है, एक ओर जहां अन्य मुस्लिम संगठनों ने ऐतराज जताया है, वहीं हिंदूवादी उसमें मुसलमानों के मोदी के प्रति उपजे नए प्रेम को तलाश रहे हैं। ज्ञातव्य है कि हाल ही न्यूज चैनल आज तक के एक कार्यक्रम में जब मदनी से पूछा गया कि मोदी को लेकर मुसलमानों के रुख में बदलाव आया है, तो उन्होंने कहा, गुजरात चुनाव में मोदी को मुसलमानों के वोट मिले हैं। हालात बदले हैं। जमाना बदला है। बहरहाल कुछ तो बात है उनमें, तभी वोट मिला है।
असल में मदनी के बयान में जो मर्म छिपा हुआ है वह गुजरात विधानसभा चुनाव के परिणाम में सामने आ चुका है। मुसलमानों को रिझाने का प्रहसन करने के बावजूद एक भी मुसलमान को टिकट नहीं दिए जाने और उसके बाद भी मुस्लिम बहुल इलाकों में मोदी को पर्याप्त वोट मिलने पर एक ओर जहां राजनीतिज्ञ चक्कर में पड़ गए, वहीं दूसरी ओर यह संदेश गया कि मुसलमानों में मोदी के प्रति स्वीकार्यता कायम हुई है।
n modi 5तभी से यह बहस छिड़ी हुई है कि क्या देशभर के मुसलमानों को भी अब मोदी से कोई ऐतराज नहीं। ऐसे में जैसे ही मदनी का बयान आया तो बवाल होना ही था। हालांकि जैसे ही मदनी को लगा कि उनके बयान को राष्ट्रीय संदर्भ में लिया जा रहा है तो उन्होंने अपने बयान में संशोधन करते हुए कहा कि उन्होंने यह बात केवल गुजरात के संदर्भ में कही थी। उन्होंने कांग्रेस का नाम लिए बगैर कहा कि गुजरात में लोगों के सामने दो मेहरबान थे। वे भी इसी तरह के हैं, तो लोगों ने मोदी को ही चुन लिया। कोई दूध का धुला नहीं है। मदनी ने कहा कि मेरे बयान को विषय से हटकर पेश किया जा रहा है। मैंने सिर्फ गुजरात को लेकर यह बात कही है। राष्ट्रीय स्तर पर मुसलमानों के रुख में कोई बदलाव नहीं आया है। यह कभी नहीं हो सकता।
इस संदर्भ में खुद भाजपा के ही राष्ट्रीय उपाध्यक्ष कलराज मिश्र ने यह कह कर सभी को चौंका दिया था कि गुजरात में मुसलमानों ने भी नरेंद्र मोदी को वोट दिया, क्योंकि इसके पीछे उनका डर व लालच था। डर इस बात का कि वे मोदी के खिलाफ जाकर उनकी आंखों की किरकिरी नहीं बनना चाहते थे और लालच था विकास का। इंडो-एशियन न्यूज सर्विस को दिए साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि मुसलमानों ने मोदी को ही वोट दिया, क्योंकि उन्हें लगा कि मोदी की ही सरकार बननी है तो फिर काहे को उनसे दुश्मनी मोल ली जाए। हालांकि मदनी ने यह बात साफ तौर पर तो नहीं कही, मगर यह कह इशारा जरूर किया कि कुछ तो बात है उनमें, तभी वोट मिला है। उन्होंने अपने बयान को राष्ट्रीय संदर्भ में न लिए जाने की जो बात कही है, वह पूरी तरह से इस बात पुष्ट करती है कि मुसलमानों ने कारण विशेष से मोदी को समर्थन दिया।
बहरहाल, भले ही हिंदूवादी मदनी के बयान से खुश हो रहे हों, मगर प्रतीत ये होता है कि मिश्र व मदनी दोनों एक ही बात कर रहे हैं। इसके पीछे एक तर्क भी समझ में आता है। वो यह कि मोदी के राज में गिनती के कट्टरपंथी मुसलमानों को उन्होंने कुचल दिया, इस कारण टकराव मोल लेने वाला कोई रहा ही नहीं। रहा सवाल शांतिप्रिय व व्यापार करने वाले अधिकतर मुसलमान का तो उसे तो अमन की जिंदगी चाहिए, फिर भले ही सरकार मोदी ही क्यों न हो। वह यह भी जानता है कि मोदी रहे तो कट्टरपंथी कभी उठ ही नहीं पाएगा, ऐसे में टकराव कौन मोल लेगा? यही सोच कर उन्होंने मोदी को वोट दिया। कदाचित वे यह समझते थे कि अगर कांग्रेस आई तो एक बार फिर तुष्टिकरण के चलते कट्टरपंथी ताकतवर होगा कि उनकी शांतिप्रिय जिंदगी के लिए परेशानी का सबब ही बनेगा। ऐसे में बेहतर यही है कि मोद को वोट दे दिया जाए, ताकि मोदी खुश भी हो जाएं ओर तंग नहीं करें। मुसलमानों के दमन का आरोप झेल रहे मोदी के लिए यह राहत की बात रही कि एक भी मुसलमान को टिकट नहीं देने के बाद भी मुसलमानों ने उनका समर्थन किया। शायद इसी वजह से उन्होंने अपनी जीत के बाद आयोजित सबसे पहली सभा में इशारों ही इशारों में मुसलमानों से उन्हें हुई किसी भी प्रकार की तकलीफ के लिए माफी मांग ली।
लब्बोलुआब, कम से कम आगामी लोकसभा चुनाव होने तक तो राजनीतिज्ञ मोदी बनाम मुसलमान पर पीएचडी करते रहेंगे। 
-तेजवानी गिरधर

रविवार, फ़रवरी 10, 2013

वसुंधरा ने किया सभी खंडहरों को सलाम

vasundhara 14पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे राजस्थान प्रदेश भाजपा में पिछले चार साल से चल रही खींचतान के बाद हुए समझौते बड़ी सावधानी से बनाए रखते हुए पुराने सारे गिले-शिकवे समाप्त कर देना चाहती हैं। वे इरादतन या गैर इरादतन उपेक्षित हुए वरिष्ठ भाजपा नेताओं को मना कर फिर से मुख्यधारा में लाना चाहती हैं, ताकि इस बार मनमुटाव के चलते सत्ता का वरण करने से न चूक जाएं। भाजपा मुख्यालय में प्रदेशाध्यक्ष का पदभार ग्रहण करते समय उन्होंने जो भावपूर्ण भाषण दिया, वह तो इसी बात का इशारा करता है।
पार्टी में सभी का सम्मान करने का भाव दर्शात हुए उन्होंने कहा कि मैं आपको विश्वास दिलाना चाहती हूं कि मैं आपके साथ और मार्गदर्शन के बिना अपना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ाऊंगी। सब को साथ लेकर चलना ही मेरी पहली प्राथमिकता होगी, क्योंकि मैं मानती हूं कार्यकर्ताओं के बगैर, कोई भी संगठन बिन पानी मछली जैसा होता है। बिन प्राण शरीर जैसा होता है। इसलिये आप साथ हैं, तो हर मुश्किल आसान है। सबसे पहले उन्होंने पार्टी के पूर्वजों जनसंघ के प्रदेशाध्यक्ष रहे स्व. श्री मदन सिंह, स्व. श्री गुमानमल लोढ़ा, स्व. सतीशचन्द्र अग्रवाल, स्व. चिरंजीलाल एडवोकेट, स्व. श्री रवि दत्त वैद्य और स्व. अजीत सिंह और जनसंघ के प्रदेशाध्यक्ष रहे कृष्ण कुमार जी गोयल और भानुकमार शास्त्री एवं भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष रहे स्व. श्री जगदीश जी माथुर को भी श्रद्धा के साथ याद किया।
आपको याद होगा कि एक समय में मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने पुराने दिग्गजों को कथित रूप से खंडहर तक की संज्ञा दे दी थी, उन्हीं के बारे में वसुंधरा के रवैये में कितना परिवर्तन आया है, इसका अंदाजा उनकी इन पंक्तियों से हो जाता है-भाजपा को हमारे जिन वरिष्ठ नेताओं ने सींचा है, मैं उनके सम्मान में सदैव नतमस्तक रहूंगी। मैं यहां याद करना चाहूंगी जनसंघ के प्रदेशाध्यक्ष, मुख्यमंत्री और उपराष्ट्रपति रहे स्व. भैरोसिंह जी शेखावत को, जिन्होंने राजस्थान को बहुत कुछ दिया। ज्ञातव्य है कि अकेले वसुंधरा के रवैये के कारण ही उपराष्ट्रपति पद का कार्यकाल समाप्त कर राजस्थान लौटने पर शेखावत अपने ही राज्य में बेगाने हो गए थे। नतीजतन शेखावत ने वसुंधरा के कार्यकाल की बखिया उधेडऩा शुरू कर दिया था। वसुंधरा व शेखावत की इस नाइत्तफाकी का ही परिणाम है कि शेखावत के जवांई नरपत सिंह राजवी हाशिये पर ला दिए गए। राजवी आज तक उस पीड़ा को नहीं भूल पाए होंगे।
इसी कड़ी में तथाकथित खंडहर भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष रहे हरिशंकर भाभड़ा, भंवर लाल शर्मा, ललित किशोर चतुर्वेदी, रामदास अग्रवाल, रघुवीर सिंह कौशल, गुलाबचंद कटारिया, महेशचन्द शर्मा और ओमप्रकाश माथुर आदि के नाम के साथ भी बड़ी श्रद्धा के साथ श्री व जी जोड़ते हुए उन्होंने कहा इन सबको भी मेरा अभिवादन, जिनसे मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला है। निवर्तमान प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी के साथ उनके कैसे संबंध रहे, ये किसी से छिपे हुए नहीं हैं, उनके बारे में उन्होंने कहा-अरुण जी और उनकी पूरी टीम की भी आभारी हूं, जिन्होंने मेरे साथ काम किया। संगठन को मजबूत करने में अरूण जी का भी कम योगदान नहीं है। वे अपना दायित्व भले ही आज मुझे औपचारिक रूप से सौंप रहे हैं, लेकिन मेरे साथ काम उन्हें भी करना है। उनका दायित्व कम नहीं हुआ है, बल्कि और बढ़ा है।
वसुंधरा 14 नवम्बर 2002 के उस दिन को भी नहीं भूलीं, जब कि उन्होंने पहली बार प्रदेश भाजपा अध्यक्ष का पद संभाला था और कहा-यही स्थान था, करीब-करीब यही चेहरे थे, ऐसे ही ऊर्जावान कार्यकर्ताओं की फौज थी, जिनकी पवित्र उपस्थिति में मैंने प्रदेशाध्यक्ष पद ग्रहण किया था। उस दिन यहां बैठे सभी कार्यकर्ताओं ने मुझे आशीर्वाद दिया था और विश्वास दिलाया था कि मजबूती और पूरे दमखम के साथ वे मेरे साथ खड़े रहेंगे और कंधे से कंधा मिलाकर मेरा साथ देंगे। मुझे फख्र है सब कार्यकर्ताओं ने जी-जान से एकजुट होकर मेहनत की तो हम दिसम्बर 2003 में ऐतिहासिक बहुमत के साथ सरकार बनाने में सफल हुए। उनके इस कथन से यह आभास साफ नजर आया कि अपनी गलतियों के चलते उन्होंने बहुत कुछ खो दिया।
कहते हैं न कि इंसान ठोकर खा कर ही संभलता है, कुछ इसी तरह का भाव नजर आया इन पंक्तियों में-पता भी नहीं चला और 10 साल का समय पलक झपकते हुए निकल गया। इन 10 सालों में मैंने हमारी सरकार को आते भी देखा, तो जाते भी देखा और अब आते हुए देख रही हूं। ये तीनों अनुभव अलग-अलग किस्म के हैं। इस दौरान चुनौतियों के कई पड़ाव भी देखे, तो कई उतार-चढ़ाव भी देखे, जिनसे बहुत कुछ सीखने को मिला। आज फिर वही घड़ी आ गई है। आज भी आप सबके आदेशों की अनुपालना में 14 नवम्बर, 2002 जैसा ही दृश्य यहां दोहराया जा रहा है। उस वक्त भी नेता प्रतिपक्ष गुलाब जी भाई साहब थे, और आज भी। उस वक्त भी कार्यकर्ताओं में जुनून था और आज भी है। बल्कि मैं तो कहूंगी उस समय से कई गुना ज्यादा जोश आज आपमें देखने को मिल रहा है।
ताजा सुलह के बाद उनमें उत्पन्न आत्मविश्वास इन पंक्तियों से झलका-मुझे पता है आप सब कार्यकर्ता कमर कसकर तैयार खड़े हैं। आप वो कार्यकर्ता हैं, जो भूखे-प्यासे रहकर भी घर-घर कमल खिलाने में हमेशा जुटे रहते हैं। इसलिये ये तय समझ लो कि जो ऐतिहासिक जीत हमें दिसम्बर 2003 में मिली थी, भाजपा दिसम्बर 2013 में उससे भी बड़ी जीत की कहानी लिखेगी।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, फ़रवरी 07, 2013

कहीं ये वसुंधरा धड़े की जीत का जश्न तो नहीं?


फाइल फोटो
भाजपा की नवनियुक्त प्रदेशाध्यक्ष वसुंधरा राजे का राज्य की शाहजहांपुर सीमा से लेकर जयपुर और उसके बाद जयपुर शहर में जिस प्रकार अद्वितीय व भव्य स्वागत किया गया, उससे एक ओर जहां इस बात का आगाज हो गया कि आगामी विधानसभा चुनाव के लिए वसुंधरा की आंधी ने प्रवेश कर लिया है तो दूसरी ओर इसे भाजपा की अंतरकलह में वसुंधरा धड़े की जीत के जश्न के रूप में भी रेखांकित किया जा रहा है।
असल में तकरीबन अस्सी स्थानों पर स्वागत और पच्चीस स्थानों पर सभा का आयोजन ही इस बात का प्रमाण है कि यह पूरी तरह से योजनाबद्ध तरीके से किया गया, ताकि एक ओर पूरे प्रदेश में यह संदेश जाए कि जिस जलवे का नाम वसुंधरा है, वह आज भी बरकरार है। साथ ही अब तक विरोध कर रहे धड़े को भी आइना दिखा दिया जाए कि वसुंधरा के बिना राजस्थान में भाजपा क्या है। पूरा आयोजन यह साफ दर्शा रहा था मानो वसुंधरा एक बड़ी जंग जीत कर आई हों। प्रदेश अध्यक्ष बन कर जयपुर आने पर वसुंधरा का जितना भव्य स्वागत किया गया, उतना तो उनके मुख्यमंत्री बनने पर भी नहीं हुआ था।
वसुंधरा के जयपुर आगमन पर स्वागत की भव्यता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिस वक्त वे पद संभालेंगी, हैलिकॉप्टर से भाजपा मुख्यालय पर लगातार एक घंटे तक पुष्प वर्षा होगी। गवर्नमेंट हॉस्टल चौराहे पर लगातार चार घंटे आतिशबाजी कर आसमान में वसुंधरा राजे लिखना, 501 थाल दीपों से आरती, स्वागत के लिए रहमान अली सरीखे गायक बुलाना, शहनाई वादन तथा हाथियों की पुष्प वर्षा का कार्यक्रम ऐसा आभास कराता है मानो किसी महारानी का अभिनंदन हो रहा हो।
वसुंधरा की धमक से संघ लॉबी में धुकधुकी
कुल मिला कर वसुंधरा के जयपुर आगमन की धमक से संघ लॉबी के कार्यकर्ताओं व टिकट के दावेदारों में धुकधुकी है कि कहीं वसुंधरा फिर से मनमानी न करने लग जाए। असल में दिल्ली में समझौते के ऐन मौके पर जैसे ही वसुंधरा को प्रदेश भाजपा अध्यक्ष और गुलाब चंद कटारिया को नेता प्रतिपक्ष बनाया गया तो वरिष्ठ भाजपा नेता घनश्याम तिवाड़ी वहां से चले गए। इससे यह संदेह उत्पन्न हुआ है कि कहीं न कहीं पार्टी में असंतोष व्याप्त है। ऐसे मौके पर जब कि राजस्थान भाजपा का फैसला हो रहा था और उस फैसले तक पहुंचने में तिवाड़ी की भी भूमिका थी, तो ऐसी कौन सी जरूरी शादी आ गई कि उन्हें दिल्ली छोड़ कर जाना पड़ा। अपने बेटे-बेटी की शादी होती तो फिर भी समझ में आता, मगर किसी रिश्तेदार की शादी के लिए इतनी महत्वपूर्ण बैठक छोड़ कर चले जाना, साफ जाहिर करता है कि वे समझौते से राजी नहीं थे। हालांकि ये पता नहीं लगा कि उन्हें निजी तौर पर संतुष्टि नहीं हुई या फिर सीटों के बंटवारे पर उन्हें कोई शंका थी, मगर जिस तरह से गए, यह साफ हो गया कि समझौता तो हुआ है, मगर उसमें अब भी गांठ पड़ी हुई है। ऐसे में संघ लॉबी के नेताओं में मन में सशंय उत्पन्न हुआ है कि कहीं वसुंधरा अपने स्वभाव की तरह फिर से मनमानी न करने लग जाएं।
सब जानते हैं कि वसुंधरा एक नेता की बजाय महारानी की तरह व्यवहार करती रही हैं। उनके इस व्यवहार के कारण ही प्रदेश के अनेक वरिष्ठ नेता आहत हुए और पार्टी साफ तौर पर दो धड़ों में बंट गई। इसके बाद भी वसुंधरा के रवैये में अंतर नहीं आया। इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण है कि राजस्थान में वसुंधरा ही भाजपा और भाजपा ही वसुंधरा जैसा बयान आया। इस पर विवाद भी हुआ, मगर लीपापोती कर दी गई।
खैर, अब जब कि समझौता हो चुका है, तब भी संघ लॉबी के नेताओं को आशंका है कि उनका सम्मान बना रहेगा अथवा नहीं। कहने को भले ही वसुंधरा यह कह रही हैं कि सबको साथ लेकर चलेंगे, मगर जैसा उनका मिजाज रहा है, कहीं ऐसा न हो कि वे पूरी तरह से मनमानी न करने लग जाएं। निवर्तमान प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी के एक बयान से भी आशंका उत्पन्न हो रही है कि वसुंधरा कहीं सब पर हावी न हो जाएं। इस बयान में उन्होंने आशा जताई कि वसुंधरा सब को साथ लेकर चलेंगी, यानि कि उन्हें कहीं न कहीं डर तो है ही। उन्हें इस बात का भी अफसोस रहा कि उनके कार्यकाल में संगठन मंत्री का अभाव था, वह अगर होता तो बात ही कुछ और होती।
धरातल पर भी जिस प्रकार वसुंधरा लॉबी के दावेदारों के चेहरों पर रौनक आई है और संघ लॉबी के दावेदारों के चेहरों से साफ झलक रहा है कि वे ठगे गए हैं, उससे स्पष्ट है कि संघ लॉबी के दावेदारों को अपनी टिकटों पर संकट नजर आ रहा है। वैसे बताया ये जा रहा है कि संघ लॉबी को कुल तीस सीटें देने का मोटे तौर पर समझौता हुआ है, मगर संघ लॉबी को डर है कि ऐन वक्त पर वसुंधरा ज्यादा अड़ाअड़ी न करें। अब ये तो वक्त ही बताएगा कि संघर्ष विराम के बाद भी राख की गरमाहट क्या रूप लेती है।
-तेजवानी गिरधर

बुधवार, फ़रवरी 06, 2013

मोदी के नाम पर भाजपा में उहापोह क्यों?


जब से गुजरात चुनाव का प्रचार अभियान शुरू हुआ और उसमें नरेन्द्र मोदी ने हैट्रिक लगाई, एक जुमला सबकी जुबान पर है कि आगामी चुनावी राहुल बनाम मोदी होगा। यहां तक कि विदेशी पत्रिकाओं का भी यही आकलन है कि टक्कर तो इन दोनों के बीच ही होगी। यह आकलन एक अर्थ में तो ठीक था कि मोदी ही अकेले ऐसे नेता के रूप में उभरे हैं, जो कि भाजपा में सबसे ज्यादा चमकदार व आकर्षक हैं, बाकी सारे नेता उनके आगे फीके हैं। यहां तक कि सुषमा स्वराज व अरुण जेटली भी उनके आगे कहीं नहीं ठहरते। वे हैं भले ही दमदार वक्ता और बेदाग, मगर उनके पास मोदी जैसा जनाधार नहीं है। मगर सवाल ये उठता है कि गुजरात के शेर मोदी राष्ट्रीय स्तर पर भी वैसी ही भूमिका अदा कर पाएंगे, जैसी कि उन्होंने गुजरात में बना कर दिखाई है? कहने को भले ही वे विकास के नाम पर जीते हैं, मगर उनकी जीत में हिंदूवाद की भूमिका ही अहम मानी जाती है, ऐसे में क्या राष्ट्रीय स्तर पर धर्म निरपेक्ष दल उन्हें स्वीकार कर पाएंगे? क्या भाजपा मोदी के कारण बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार सहित अन्य के एनडीए का साथ छोडऩे से होने वाले नुकसान को बर्दाश्त करने को तैयार होगी? क्या मोदी के नाम पर हिंदूवादी शिव सेना की इतर राय को नजरअंदाज कर दिया जाए? अव्वल तो क्या भाजपा के और नेता भी उन्हें आगे आने देने को तैयार होंगे? ये ऐसे सवाल हैं जो यह तय करेंगे कि आने वाले लोकसभा चुनाव की तस्वीर कैसी होगी।
दरअसल अधिसंख्य भाजपा कार्यकर्ताओं के लिए मोदी एक सर्वाधिक चमकदार आईकन हैं। हिंदूवादी ताकतों की भी इच्छा है कि मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए प्रोजेक्ट करने का इससे बेहतर मौका फिर नहीं मिलेगा। पूर्व में इंडिया शाइनिंग का सर्वाधिक महत्वाकांक्षी नारा धूल चाट चुका है। इसके बाद मजबूत प्रधानमंत्री के रूप में लाल कृष्ण आडवाणी को प्रोजेक्ट किया गया, मगर उनकी भी कलई खुल गई। यह सवाल तब भी उठा था कि भाजपा क्या करे? खुल कर हिंदूवाद पर कायम रहे या धर्मनिपेक्षता के आवरण में हिंदूवाद का पोषण करे? तकरीबन तीन साल बाद आज फिर यह सवाल उठ खड़ा हुआ है। संयोग से इस बार मोदी जैसा नेता उभर कर आया है, जिसकी पूंछ पकड़ कर वैतरणी पार करने का दबाव संघ व विहिप बना रहे हैं। उनका मानना है कि अब आखिरी विकल्प के रूप में प्रखर हिंदूवाद के चेहरे मोदी सर्वाधिक कारगर साबित होंगे, जिनका सितारा इन दिनों बुलंद है। उनके चेहरे के दम पर भाजपा कार्यकर्ता में जोश आएगा और कम से कम हिंदीभाषी राज्यों में अकेले भाजपा की सीटों में इजाफा होगा। अगर आंकड़ा दो सौ सीटों को भी पार कर गया तो बाद में समान व अर्ध समान विचारधारा के अन्य दल कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने के लिए मजबूरन उनका साथ देंगे। एक तर्क ये भी है कि मोदी की वजह से भले ही एनडीए में टूटन आए अथवा गैर हिंदीभाषी राज्यों में सीटें कम हो, मगर इस नुकसान की भरपाई मोदी के नाम पर हिंदीभाषी राज्यों में मिली बढ़त से कर ली जाएगी। भाजपा हाईकमान भी इसी दिशा में सोच रहा है, मगर वह यह सुनिश्चित नहीं कर पा रहा है, क्या यह प्रयोग कारगर होगा ही? कहीं ऐसा न हो कि भाजपा की सीटें तो कुछ बढ़ जाएं, मगर एनडीए कमजोर हो जाए और सत्ता हासिल करने का सपना फिर धूमिल हो जाए। दूर की सोच रखने वाले कुछ कट्टरवादी हिंदुओं की सोच है कि सत्ता भले ही हासिल न हो, मगर कम से कम भाजपा की अपनी सीटें भी बढ़ीं तो हिंदूवादी विचार पुष्ट होगा, जिसे बाद में और आगे बढ़ाने का प्रयास किया जा सकता है। कई तरह के किंतु-परंतु के चलते भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ को यह फरमान जारी करना पड़ा के प्रधानमंत्री के दावेदार के मामले में बयानबाजी न करें। वे जानते हैं कि इस मुद्दे पर ज्यादा बहस हुई तो पार्टी की दिशा भटक जाएगी। आज जब कि कांग्रेस भ्रष्टाचार व महंगाई के कारण नकारे जाने की स्थिति में आ गई है तो इन्हीं मुद्दों व विकास के नाम पर वोट हासिल किए जा सकते हैं। अगर मोदी के चक्कर में हिंदूवाद बनाम धर्मनिरपेक्षवाद का मुद्दा हावी हो गया तो उसमें कांग्रेस की नाकामी गौण हो जाएगी। कदाचित राजनाथ को भी ये समझ में आता हो कि मोदी को ही आगे करना बेहतर होगा, मगर अभी से इस पर ज्यादा आरोप-प्रत्यारोप हुए तो कहीं मोदी का कचरा ही न हो जाए। उनकी उहापोह इसी से झलकती है कि एक ओर वे कुंभ में हाजिरी भर कर हिंदूवाद का सहारा लेते हैं तो दूसरी ओर हिंदूवाद के नाम पर स्वाभाविक रूप से उभर कर आए मोदी पर बयानबाजी से बचना चाहते हैं।
उधर अगर कांग्रेस की बात करें, तो वह चाहती ही ये है कि मोदी का मुद्दा गरमाया रहे, ताकि उनका भ्रष्टाचार व महंगाई का मुद्दा गायब हो जाए और देश में एक बार फिर हिंदूवाद व धर्मनिरपेक्षता के बीच धु्रवीकरण हो। दिलचस्प बात है कि हिंदूवादी ताकतें अपनी ओर से ही मोदी को सिर पर बैठा कर कांग्रेस का काम आसान कर रही हैं। कांग्रेस भी अपनी ओर से इस मुद्दे को हवा दे रही है। चंद दिग्गज कांग्रेसियों ने आरएसएस व भाजपा पर भगवा आतंकवाद के आरोप इसी कारण लगाए, ताकि वे इसी में उलझी रहें। इसका यह अर्थ भी निकाला जा सकता है कि कांग्रेस को इस बात की कोई चिंता नहीं है कि आगामी चुनाव राहुल बनाम मोदी हो जाएगा।
कुल मिला कर मोदी को लेकर दो तरह की राय सामने आ रही है। एक तो ये कि नरेंद्र मोदी ने गुजरात में हैट्रिक लगा कर राष्ट्रीय राजनीति में मजबूती के साथ कदम रख दिया है। दूसरी से कि मोदी की स्वीकार्यता भाजपा तक ही हो सकती है, सहयोगी दलों की पसंद वे कत्तई न हो सकते। ऐसे में मोदी को भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रायोजित करना भाजपा की एक बड़ी भूल साबित हो सकती है। अगर भाजपा ने अपने कार्यकर्ताओं की जिद मान ली तो उसे मुंह की खानी पड़ सकती है। भाजपा इन दो तरह की मान्यताओं के बीच झूल रही हैं। आगे आगे देखें होता है क्या?
-तेजवानी गिरधर7742067000
tejwanig@gmail.com

रविवार, फ़रवरी 03, 2013

क्या राजनाथ दिलवा पाएंगे भाजपा को राज?

हालांकि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ नितिन गडकरी को ही भाजपा अध्यक्ष बनाए रखना चाहता था। भाजपा ने भी लगातार दूसरा कार्यकाल देने के लिए संशोधन किया, मगर ऐन वक्त पर हालात बदले और गडकरी को इस्तीफा देना पड़ गया। ऐसे में पार्टी को मिशन 2014 में फतह की दिलाने की जिम्मेदारी राजनाथ सिंह पर आ गई। हालांकि अनेक कारणों से कई लोग ये मानते हैं कि नितिन गडकरी के रहते पार्टी के अंदर उथल-पुथल जारी रहती, इस कारण राजनाथ उनसे बेहतर अध्यक्ष साबित हो सकते हैं, मगर सच ये है कि जिन हालात में उन पर पार्टी का भार डाला गया है, उसे देखते हुए तो यही कहा जा सकता है कि उन्होंने कांटों भरा ताज पहन लिया है।
जैसे ही राजनाथ ने पदभार संभाला है, उनके नेतृत्व कौशल, उनके इतिहास और भविष्य के बारे में अपनाई जाने वाली रणनीतियों को लेकर चर्चा शुरू हो चुकी है कि उन्हें बीजेपी अध्यक्ष बनाया जाना किस हद तक एक सही फैसला साबित हो सकता है? जहां तक उनके नेतृत्व कौशल का सवाल है, माना ये जाता है कि वे सब को साथ ले कर चलने में बेहतर साबित होंगे। संघ के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के झंडाबरदार होने के कारण उन्हें संघ का समर्थन हासिल है और पार्टी के अंदर उन्हें ज्यादा तंग नहीं होना पड़ेगा, इस कारण बाहरी मामलों पर बेहतर ध्यान दे पाएंगे, मगर सच ये है कि पार्टी के भीतर भी उनकी कई से नाइत्तफाकी रही है। बाहर की चुनौतियां तो और भी अधिक हैं, जिनसे निपटना आसान काम नहीं है।
राजनाथ के पक्ष में एक दलील ये भी दी जाती है कि उन्हें पूर्व में अध्यक्ष रह चुकने के कारण बेहतर अनुभव है, वे पिछले कार्यकाल को एक सबक के रूप में लेते हुए गलतियां नहीं दोहराएंगे, मगर धरातल का सच ये है कि पिछले कार्यकाल के दौरान उनके जिनसे भी मतभेद हुए, उन्हें विश्वास में लेना आसान नहीं होगा। उन्होंने अपने पिछले कार्यकाल में एनडीए गठबंधन के सहयोगियों सहित पार्टी के कुछ महत्वपूर्ण लोगों को नाराज किया। लालकृष्ण आडवाणी और अरुण जेटली से मतभेद की खबरें तो उन दिनों आम हुआ करती थीं। अरुण शौरी का हम्टी डम्टी वाला बयान आज भी लोग नहीं भूले हैं। राजस्थान की क्षत्रप पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे से भी उनका टकराव हुआ। उनकी जिद के चलते वसुंधरा को नेता प्रतिपक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा। टकराव किस हद तक गया, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि एकबारगी वसुंधरा के दूसरी पार्टी बनाने की सुगबुगाहट तक होने लगी थी। आखिरकार एक साल बाद वसुंधरा को फिर से पद संभालने का अनुनय-विनय करना पड़ा। हालांकि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ हुई उनकी ताजा बैठक को इस रूप में लिया जा रहा है कि उनके बीच सुलह हो गई है, मगर दोनों के रिश्तों की उस खटास को कैसे भूला जा सकता है, जब राजनाथ ने मोदी को संसदीय बोर्ड से हटा दिया था।
जहां तक चुनौतियों का सवाल है, गडकरी के कार्यकाल के दौरान पार्टी की जो हालत हुई है, उसे सुधरना कोई छोटी-मोटी जिम्मेदारी नहीं है। आइये जरा नजर डाल लें कि राजनाथ को विरासत में कैसे हालत मिले हैं। महाराष्ट्र से होने के बाद भी गडकरी वहां के विधानसभा चुनावों में पार्टी को हार से नहीं बचा सके। बेशक बिहार में पार्टी का अच्छी सफलता मिली, मगर उसका श्रेय नीतीश कुमार और सुशील मोदी को जाता है। वहीं नीतीश आज भाजपा के लिए सिरदर्द बने हुए हैं। गोवा और पंजाब को छोड़ दें तो उसके बाद हुए कई विधानसभा चुनावों में पार्टी की दुर्गति हुई। असम में पार्टी की सरकार बनने का दावा था, लेकिन उसकी सीटें मात्र छह रह गईं। उत्तर प्रदेश में भी पिछली बार की अपेक्षा सीटें कम आईं। उत्तराखंड व हिमाचल प्रदेश में तो तख्ता ही पलट गया। हिमाचल के चुनावों के दौरान गडकरी के उद्योग समूह की गड़बडिय़ां उजागर होने पर वहां प्रांतीय इकाई को गडकरी को प्रचार के लिए न आने का आग्रह करना पड़ा। झारखंड में भी भाजपानीत सरकार चली गयी। कर्नाटक में भाजपा सरकार की कैसी हालत है, ये किसी से छिपी हुई नहीं है। वहां दुबारा सत्ता में आना बेहद मुश्किल नजर आता है। विभिन्न राज्यों में संगठन की स्थिति भी अच्छी नहीं है। हां, जसवंत सिंह, कल्याण सिंह व उमा भारती की वापसी सुखद कही जा सकती है, मगर उसका पार्टी को कितना लाभ मिलेगा, यह वक्त ही बताएगा।
पार्टी से इतर बात करें तो राजग के सदस्य दलों को साथ लेकर चलना भी बेहद कठिन है। खुद उनके कार्यकाल में ही सहयोगी दलों से तालमेल बिगडऩे लगा था। ताजा हालात में उनके लिए यह चुनौती कितनी बड़ी है कि एक ओर पार्टी का आम कार्यकर्ता मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित होने का दबाव बना रहा है तो नीतीश कुमार मोदी नाम आते ही गठबंधन से अलग होने की बात करते हैं। शिव सेना ने भी अपनी पहली पसंद सुषमा स्वराज को बता दिया है।
इन सब हालातों को देखते कहा जा सकता है राजनाथ के लिए अध्यक्ष पद कांटों भरा ताज है। इस वर्ष पार्टी को नौ राज्यों में विधानसभा चुनावों से निपटने के बाद अगले साल लोकसभा की महती जिम्मेदारी है। 
-तेजवानी गिरधर

शनिवार, फ़रवरी 02, 2013

वसुंधरा राजे का कोई विकल्प था भी नहीं


अपने आपको सर्वाधिक अनुशासित बता कर पार्टी विद द डिफ्रेंस का नारा बुलंद करने और व्यक्ति से बड़ी पार्टी होने का दावा करने वाली भाजपा का शीर्ष नेतृत्व आखिरकार पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे के आगे नतमस्तक हो गया। उन्हें न केवल राजस्थान में पार्टी की कमान सौंपी गई है, अपितु आगामी विधानसभा चुनाव उन्हीं के नेतृत्व में लड़ा जाएगा। आगामी विधानसभा चुनाव में जीतने के लिए पार्टी के पास इसके अलावा कोई विकल्प था भी नहीं। भले ही समझौते तहत संघ लॉबी के गुलाब चंद कटारिया को विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बनाया गया है, मगर जीतने के लिए पार्टी को वसुंधरा के चेहरे का ही इस्तेमाल करना पड़ रहा है। उनकी नियुक्ति के साथ पिछले कई दिन से उहापोह में जी रहे पार्टी कार्यकर्ता, नेता व विधानसभा चुनाव में टिकट के दावेदारों ने राहत की सांस ली है और उनके चेहरे पर खुशी छलक आई है। पार्टी की अंदरूनी कलह की वजह से मायूस हो चुके कार्यकर्ता में उत्साह का संचार हुआ है। समझा जाता है कि अब पार्टी पूरी ताकत से चुनाव मैदान में ताल ठोकेगी और उसका प्रदर्शन बेहतर होगा।
ज्ञातव्य है कि राजस्थान में पार्टी दो धड़ों में बंटी हुई है। एक बड़ा धड़ा वसुंधरा के साथ है, जिनमें कि अधिसंख्य विधायक हैं तो दूसरा धड़ा संघ पृष्ठभूमि का है, जिसमें प्रमुख रूप से प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी, पूर्व मंत्री ललित किशोर चतुर्वेदी, गुलाब चंद कटारिया आदि शामिल हैं। आपको याद होगा कि जब पूर्व प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने घोषणा की कि राजस्थान में अगला चुनाव वसुंधरा के नेतृत्व में लड़ा जाएगा तो ललित किशोर चतुर्वेदी व गुलाब चंद कटारिया ने उसे सिरे से नकार दिया। प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी भी इस बात से नाइत्तफाकी जाहिर करते रहे। इसके बाद जब कटारिया ने मेवाड़ में रथ यात्रा निकालने ऐलान किया तो वसुंधरा ने इसे चुनौती समझते हुए विधायक किरण माहेश्वरी के जरिए रोड़ा अटकाया। नतीजे में विवाद इतना बढ़ा कि वसुंधरा ने विधायकों के इस्तीफे एकत्रित कर हाईकमान पर भारी दबाव बनाया। हालांकि नई घोषणा से पहले तक संघ लॉबी ने पूरा दबाव बना रखा था, मगर आखिरकार कटारिया को नेता प्रतिपक्ष बनाने की एवज में वसुंधरा का नेतृत्व स्वीकार करना ही पड़ा। हालांकि यह तय है कि टिकट वितरण में वसुंधरा को पूरा फ्रीहैंड तो नहीं मिलेगा और संघ लॉबी तय समझौते के तहत अपने कोटे के टिकट हासिल कर लेगी, मगर पार्टी के जीतने पर मुख्यमंत्री तो वसुंधरा ही बनेंगी।
असल में नितिन गडकरी के अध्यक्षीय काल में ही तय था कि राजस्थान में वसुंधरा के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ा जाएगा, मगर राजनाथ सिंह के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने से समीकरणों में कुछ बदलाव आया। बदलाव सिर्फ इतना कि संघ लॉबी कुछ हावी हो गई। और यही वजह रही कि आखिरी वक्त तक खींचतान मची रही। संघ लॉबी अपने गुट के कटारिया को नेता प्रतिपक्ष  बनाने पर ही राजी हुई। वजह ये कि राजनाथ सिंह व वसुंधरा राजे के संबंध कुछ खास अच्छे नहीं रहे। पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी की पराजय होने की जिम्मेदारी लेते हुए तत्कालीन प्रदेश भाजपा अध्यक्ष ओम प्रकाश माथुर ने तो इस्तीफा दे दिया, लेकिन नेता प्रतिपक्ष पद से इस्तीफे की बात आई तो वसुंधरा ने इससे इंकार कर दिया था। तब राजनाथ सिंह राष्ट्रीय अध्यक्ष थे और उन्होंने कड़ा रुख अख्तियार कर लिया था। आखिरकार वसुंधरा को पद छोडऩा पड़ा था। यह बात दीगर है कि उसके बाद तकरीबन एक साल तक यह पद खाली पड़ा रहा और उसे फिर से वसुंधरा को ही सौंपना पड़ा। आखिर तक भी वसुंधरा का अपर हैंड ही रहा और जीतने के लिए सिंह के लिए यह मजबूरी हो गई कि उन्हें वसुंधरा को ही कमान सौंपनी पड़ी।
राजस्थान में वसुंधरा राजे पार्टी से कितनी बड़ी हैं और उनका कोई विकल्प ही नहीं है, इसका अंदाजा इसी बात से हो जाता है कि हाईकमान को पूर्व में भी उन्हें विधानसभा में विपक्ष के नेता पद से हटाने में एडी चोटी का जोर लगाना पड़ गया था। सच तो ये है कि उन्होंने पद छोडऩे से यह कह कर साफ इंकार कर था दिया कि जब सारे विधायक उनके साथ हैं तो उन्हें कैसे हटाया जा सकता है। हालात यहां तक आ गए थे कि उनके नई पार्टी का गठन तक की चर्चाएं होने लगीं थीं। बाद में बमुश्किल पद छोड़ा भी तो ऐसा कि उस पर करीब साल भर तक किसी को नहीं बैठाने दिया। आखिर पार्टी को मजबूर हो कर दुबारा उन्हें पद संभालने को कहना पड़ा, पर वे साफ मुकर गईं। हालांकि बाद में वे मान गईं, मगर आखिर तक यही कहती रहीं कि यदि विपक्ष का नेता बनाना ही था तो फिर हटाया क्यों? असल में उन्हें फिर बनाने की नौबत इसलिए आई कि अंकुश लगाने के जिन अरुण चतुर्वेदी को प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बनाया गया, वे ही फिसड्डी साबित हो गए। पार्टी का एक बड़ा धड़ा अनुशासन की परवाह किए बिना वसुंधरा खेमे में ही बना रहा। वस्तुत: राजस्थान में वसु मैडम की पार्टी विधायकों पर इतनी गहरी पकड़ है कि वे न केवल संगठन के समानांतर खड़ी हैं, अपितु संगठन पर पूरी तरह से हावी हो गई हैं। उसी के दम पर राज्यसभा चुनाव में दौरान वे पार्टी की राह से अलग चलने वाले राम जेठमलानी को न केवल पार्टी का अधिकृत प्रत्याशी बनवा लाईं, अपितु अपनी कूटनीतिक चालों से उन्हें जितवा भी दिया। जेठमलानी को जितवा कर लाने से ही साफ हो गया था कि प्रदेश में दिखाने भर को अरुण चतुर्वेदी के पास पार्टी की फं्रैचाइजी है, मगर असली मालिक श्रीमती वसुंधरा ही हैं। कुल मिला कर ताजा घटनाक्रम से तो यह पूरी तरह से स्थापित हो गया है के वे प्रदेश भाजपा में ऐसी क्षत्रप बन कर स्थापित हो चुकी हैं, जिसका पार्टी हाईकमान के पास कोई तोड़ नहीं है। उनकी टक्कर का एक भी ग्लेमरस नेता पार्टी में नहीं है, जो जननेता कहलाने योग्य हो। अब यह भी स्पष्ट हो गया है कि आगामी विधानसभा चुनाव में केवल वे ही पार्टी की नैया पार कर सकती हैं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com