तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

रविवार, जुलाई 29, 2012

टीम अन्ना : मीठा मीठा गप, कड़वा-कड़वा थू


मीडिया हकीकत दिखाए तो टीम अन्ना को बर्दाश्त नहीं
अब तक तो माना जाता था कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भाजपा की घोर प्रतिक्रियावादी संगठन हैं और उन्हें अपने प्रतिकूल कोई प्रतिक्रिया बर्दाश्त नहीं होती, मगर टीम अन्ना उनसे एक कदम आगे निकल गई प्रतीत होती है। मीडिया और खासकर इलैक्ट्रॉनिक मीडिया पर उसकी तारीफ की जाए अथवा उसकी गतिविधियों को पूरा कवरेज दिया जाए तो वह खुश रहती है और जैसे ही कवरेज में संयोगवश अथवा घटना के अनुरूप कवरेज में कमी हो अथवा कवरेज में उनके प्रतिकूल दृश्य उभर कर आए तो उसे कत्तई बर्दाश्त नहीं होता।
विभिन्न विवादों की वजह से दिन-ब-दिन घट रही लोकप्रियता के चलते जब इन दिनों दिल्ली में चल रहे टीम अन्ना के धरने व अनशन में भीड़ कम आई और उसे इलैक्ट्रॉनिक मीडिया ने दिखाया तो अन्ना समर्थक बौखला गए। उन्हें तब मिर्ची और ज्यादा लगी, जब यह दिखाया गया कि बाबा रामदेव के आने पर भीड़ जुटी और उनके जाते ही भीड़ भी गायब हो गई। शनिवार को हालात ये थी कि जब खुद अन्ना संबोधित कर रहे थे तो मात्र तीस सौ लोग ही मौजूद थे। इतनी कम भीड़ को जब टीवी पर दिखाए जाने लगा तो अन्ना समर्थकों ने मीडिया वालों को कवरेज करने से रोकने की कोशिश तक की।
टीम अन्ना की सदस्य किरण बेदी तो इतनी बौखलाई कि उन्होंने यह आरोप लगाने में जरा भी देरी नहीं की कि यूपीए सरकार ने मीडिया को आंदोलन को अंडरप्ले करने को कहा है। उन्होंने कहा कि इसके लिए केंद्र सरकार ने बाकायदा चि_ी लिखी है। उसे आंदोलन से खतरा महसूस हो रहा है।  ऐसा कह कर उन्होंने यह साबित कर दिया कि टीम अन्ना आंदोलन धरातल पर कम, जबकि टीवी और सोशल मीडिया पर ही ज्यादा चल रहा है। यह कहना ज्यादा उपयुक्त होगा कि टीवी और सोशल मीडिया के सहारे ही आंदोलन को बड़ा करके दिखाया जा रहा है। इससे भी गंभीर बात ये कि जैसे ही खुद के विवादों व कमजोरियों के चलते आंदोलन का बुखार कम होने लगा तो उसके लिए आत्मविश्लेषण करने की बजाया पूरा दोष ही मीडिया पर जड़ दिया। ऐसा कह कर उन्होंने सरकार को घेरा या नहीं, पर मीडिया को गाली जरूर दे दी। उसी मीडिया को, जिसकी बदौलत आंदोलन शिखर पर पहुंचा। यह दीगर बात है कि खुद अपनी घटिया हरकतों के चलते आंदोलन की हवा निकलती जा रही है। ऐसे में एक सवाल ये उठता है कि क्या वाकई मीडिया सरकार के कहने पर चलता है? यदि यह सही है तो क्या वजह थी कि अन्ना आंदोलन के पहले चरण में तमाम मीडिया अन्ना हजारे को दूसरा गांधी बताने को तुला था और सरकार की जम की बखिया उधेड़ रहा था? हकीकत तो ये है कि मीडिया पर तब ये आरोप तक लगने लगा था कि वह सुनियोजित तरीके से अन्ना आंदोलन को सौ गुणा बढ़ा-चढ़ा कर दिखा रहा है।
मीडिया ने जब अन्ना समर्थकों को उनका आइना दिखाया तो सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर बौखलाते हुए मीडिया को जम कर गालियां दी गईं। एक कार्टून में कुत्तों की शक्ल में तमाम न्यूज चैनलों के लोगो लगा कर दर्शाया गया कि उनको कटोरों में सोनिया गांधी टुकड़े डाल रही है। मीडिया को इससे बड़ी कोई गाली नहीं हो सकती।
एक बानगी और देखिए। एक अन्ना समर्थक ने एक न्यूज पोर्टल पर इस तरह की प्रतिक्रिया दी है:-
क्या इसलिए हो प्रेस की आजादी? अरे ऐसी आजादी से तो प्रेस की आजादी पर प्रतिबन्ध ही सही होगा । ऐसी मीडिया से सडऩे की बू आने लगी है। सड़ चुकी है ये मीडिया। ये वही मीडिया थी, जब पिछली बार अन्ना के आन्दोलन को दिन-रात एक कर कवर किया था। आज ये वही मीडिया जिसे सांप सूंघ गया है। ये इस देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा की कुछ लोग इस देश की भलाई के लिए अपना सब कुछ छोड़ कर लगे है, वही हमारी मीडिया पता नहीं क्यों सच्चाई को नजरंदाज कर रही है। इससे लोगों का भ्रम विश्वास में बदलने लगा है। कहीं हमारी मीडिया मैनेज तो नहीं हो गई है? अगर मीडिया आम लोगों से जुडी सच्चाई, इस देश की भलाई से जुड़ी खबरों को छापने के बजाय छुपाने लगे तो ऐसी मीडिया का कोई औचित्य नहीं। आज की मीडिया सिर्फ पैसे के ही बारे में ज्यादा सोचने लगी है। देश और देश के लोगों से इनका कोई लेना-देना नहीं। आज की मीडिया प्रायोजित समाचार को ज्यादा प्राथमिकता देने लगी है।
रविवार को जब छुट्टी के कारण भीड़ बढ़ी और उसे भी दिखाया तो एक महिला ने खुशी जाहिर करते हुए तमाम टीवी चैनलों से शिकायत की वह आंदोलन का लगातार लाइट प्रसारण क्यों नहीं करता? गनीमत है कि मीडिया ने संयम बरतते हुए दूसरे दिन भीड़ बढऩे पर उसे भी उल्लेखित किया। यदि वह भी प्रतिक्रिया में कवरेज दिखाना बंद कर देता तो आंदोलन का क्या हश्र होता, इसकी कल्पना की जा सकती है।
कुल मिला कर ऐसा प्रतीत होता है कि टीम अन्ना व उनके समर्थक घोर प्रतिक्रियावादी हैं। उन्हें अपनी बुराई सुनना कत्तई बर्दाश्त नहीं है। यदि यकीन न हो तो सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर जरा टीम अन्ना की थोड़ी सी वास्तविक बुराई करके देखिए, पूरे दिन इसी काम के लिए लगे उनके समर्थक आपको फाड़ कर खा जाने तो उतारु हो जाएंगे।
वस्तुत: टीम अन्ना व उनके समर्थक हताश हैं। उन्हें समझ नहीं आ रहा कि जिस आंदोलन ने पूरे देश को एक साथ खड़ा कर दिया था, आज उसी आंदोलन में लोगों की भागीदारी कम क्यों हो रही है।

-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, जुलाई 26, 2012

गुटके पर पाबंदी : जम कर मची है लूट

एक आधुनिक कहावत है कि दूध के फटने पर वे ही दुखी होते हैं, जिन्हें फटे दूध से पनीर बनाना नहीं आता। अर्थात दुखी वे ही होते हैं, जिन्हें विपरीत परिस्थिति में भी अपने अनुकूल रास्ता निकालना नहीं आता। प्रदेशभर में गुटके पर एक झटके में लगाई गई पाबंदी के संदर्भ यह एकदम फिट बैठती है।
जैसे ही सरकार ने बिना किसी पूर्व सूचना के गुटके पर पाबंदी लगाई थी तो जहां इसका स्वागत हुआ, वहीं कच्चे माल व तैयार माल की खपत करने से पहले रोक एक तानाशाहीपूर्ण कदम प्रतीत हो रहा था। बात थी भी तर्क संगत। यदि सरकार को यह निर्णय करना था तो पहले गुटखा बनाने वाली फैक्ट्रियों को उत्पादन बंद करने का समय देती, स्टाकिस्टों को माल खत्म करने की मोहलत देती तो बात न्यायपूर्ण होती, मगर सरकार ने ऐसा नहीं किया। सवाल ये था कि तम्बाकू मिश्रित गुटका बनाने वाली फैक्ट्रियों में जमा सुपारी, कत्था व तंबाकू का क्या होगा? इन फैक्ट्रियों में काम करने वाल मजदूरों का क्या होगा? स्टाकिस्टों और होल सेलर्स के पास जमा माल का क्या होगा? रिटेलर्स के पास रखे माल को कहां छिपाया जाएगा?
यही वजह रही कि पाबंदी लगने पर जैसे ही छापामारी हुई तो व्यापारी तबका उद्वेलित हो उठा। उसने विरोध प्रदर्शन भी किया और सरकार से अपना माल निकालने की मोहलत भी मांगी। मगर दूसरे ही दिन व्यापारी शांत हो गया। संभावना ये थी कि इस निर्णय को चुनौती देने के लिए व्यापारी तबका कोर्ट में जाएगा, इसी कारण सरकार की ओर से हाईकोर्ट में केवीएट भी लगाई, ताकि स्थगनादेश से पहले उनके पक्ष को भी सुना जाए। मगर हुआ कुछ नहीं। व्यापारी चुप हो गया।
सवाल ये उठता है कि आखिर व्यापारी अचानक शांत क्यों हो गया? जो व्यापारी माल निकालने की मोहलत मांग रहा था, उसने माल का क्या किया? साफ है कि उसने अपने लिए हुए अभिशाप स्वरूप निर्णय को वरदान में तब्दील करने की युक्ति अपना ली। अपना माल निकालने की मोहलत उसने इस कारण मांगी थी कि वह इंस्पैक्टर राज को दिए जाने वाले हिस्से से बचना चाहता था। वह जानता था कि पाबंदी के चलते सरकारी अधिकारी उसे परेशान करेंगे। जहां सख्त अधिकारी माल नष्ट करेंगे, वहीं व्यावहारि अधिकारी माल नष्ट न करने की एवज में हिस्सा मांगेगे। जब उसे लगा कि सरकार मानने वाली नहीं है तो उसने तुरंत पैंतरा बदला। उसे अधिकारियों से समझौता करने में ही भलाई दिखाई दी। आज हालत ये है कि वह बेहद खुश है। खुशी का पैमाना गोदाम में रखे माल के अनुपात से जुड़ा है। जिसके पास जितना ज्यादा माल है, वह उतना ही खुश है। अधिकारियों से सैटिंग करने भर की परेशानी है, बाकी मजे ही मजे हैं। इस वक्त बाजार में गुटका कहीं नजर नहीं आ रहा, मगर वह धड़ल्ले से बिक भी रहा है। डेढ़ या दोगुने भाव से। यानि कि व्यापारी के तो मजे हो गए। जो व्यापारी पाबंदी लगते ही मुख्यमंत्री अशोक गहलोत मुर्दाबाद के नारे लगा रहा था, वह अब मन ही मन गहलोत को दुआ दे रहा होगा। उस पर कुछ इसी तरह की खुशी चंद माह पहले तब भी बरसी थी, जब पोलीथिन पैक वाला गुटका बंद हुआ था। तब भी जम कर ब्लैक हुई। छोटे से बड़े हर व्यापारी ने अपनी अपनी हैसियत के हिसाब से कमाया। जाहिर सी बात है कि अधिकारियों ने भी जम कर लूटा। ताजा प्रकरण को एक अर्थ में देखा जाए तो खुद सरकार ने ही एक झटके में रोक लगा कर ब्लैक मार्केटिंग को बढ़ावा देने का कदम उठाया है। मजे की बात ये है कि व्यापारी के लिए दाम बढ़ाने के पीछे गले उतरने वाला तर्क भी है। उसका कहना है कि जब वह छापे की कार्यवाही के खतरे को मोल ले रहा है तो कमाने का मौका क्यों छोड़ेगा।
ताजा जानकारी ये है कि अब बाजार में सादा पान मसाला और उसके साथ तंबाकू के पाउच का इंतजार किया जा रहा है, चूंकि उस पर कोई रोक नहीं है। हालांकि सादा पान मसाला पर भी रोक की आवाज उठ रही है, जैसे झारखंड सरकार ने हाल ही निर्णय किया है। फैक्ट्री वाले पता लगा रहे हैं कि कहीं सरकार सादा पान मसाले पर भी तो रोक नहीं लगा देगी। जैसे ही उन्हें यकीन हो जाएगा कि सरकार रोक नहीं लगाएगी, वे सादा पान मसाला के साथ तंबाकू का पाउच बाजार में ले आएंगे। फिलहाल तो पुराने माल से ही ज्यादा से ज्यादा चांदी काटने में लगे हुए हैं।
-तेजवानी गिरधर

बुधवार, जुलाई 25, 2012

बैंसला की खिलाफत के चलते नहीं होगी एकजुटता


गुर्जर समाज को आरक्षण दिलाने की मांग को लेकर गुर्जर संयुक्त आरक्षण संचालन समिति के बैनर तले समाज को एकजुट करने का प्रयास यूं तो बड़ा साफ सुथरा प्रतीत होता है, क्योंकि इसमें व्यक्ति विशेष की बजाय सामूहिक नेतृत्व पर जोर दिया जा रहा है, मगर साथ ही अब तक आंदोलन का नेतृत्व कर रहे कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला की खिलाफत के चलते एकजुटता होती नजर नहीं आ रही है।
इसका नजारा हाल ही पुष्कर सरोवर के तट पर स्थित वीर गुर्जर घाट पर आयोजित जिला स्तरीय बैठक में ही नजर आ गया। एक तो इसमें पर्याप्त संख्या में समाज बंधु उपस्थित नहीं हुए, दूसरा बैंसला के खिलाफत किए जाने से बैठक में मौजूद आधे से अधिक बैंसला समर्थक समाज बंधु बैठक का बहिष्कार कर लौट गए।
ज्ञातव्य है कि गुर्जर समाज को आरक्षण दिलाने की मांग को लेकर गुर्जर संयुक्त आरक्षण संचालन समिति के बैनर पर किए जाने वाले आंदोलन से पूर्व समाज बंधुओं को संगठित करने के मुख्य उद्देश्य से प्रदेश के सभी जिलों में 21 जुलाई से 22 अगस्त तक जिलास्तरीय बैठक आयोजित की जा रही है। इसी क्रम में अजमेर जिले के समाज बंधुओं की दूसरी बैठक पूर्व विधायक अतर सिंह भड़ाना की अगुवाई में पुष्कर में आयोजित की गई। वक्ताओं ने आरक्षण की मांग को लेकर पूर्व में किए गए आंदोलन की विफलता के लिए सीधे तौर पर किरोड़ी सिंह बैंसला को जिम्मेदार ठहराया तथा उन पर जमकर बरसे। वक्ताओं ने बैंसला को कठघरे में खड़ा करते हुए कहा कि बैंसला सिर्फ सरकार से समझौता करते आ रहे हैं। अब समझौता नहीं फैसला होगा। यही नहीं वक्ताओं ने कहा कि आंदोलन किसी एक नेता का नहीं है, बल्कि पूरे समाज का है। पूर्व विधायक भडाना का कहना रहा कि पूर्व में गुर्जरों के आरक्षण दिलाने के लिए बड़े आंदोलन हुए, लेकिन एक व्यक्ति विशेष के फैसले की वजह से हम हार गए। मगर अब पूरे देश में उग्र आंदोलन होगा। जिसका आगामी 5 सितंबर को सिकंदरा में होने वाली समाज की महापंचायत में आगाज किया जाएगा।
भडाना की बात कहने-सुनने में तो सही लगती है, मगर यदि ऐसा बैंसला को निशाने पर रख कर किया जाता है तो एकजुटता की उम्मीद उतनी ही कम हो जाती है। उलटा इससे फूट और बढ़ेगी। भले ही यह बात सही हो कि बैंसला के कुछ गलत निर्णयों के कारण समाज को सफलता हासिल नहीं हुई, मगर साथ ही यह भी सच है कि आंदोलन को परवान चढ़ाने में उनकी अहम भूमिका रही है और उसे एक झटके में नकारा नहीं जा सकता। आज भी बैंसला में यकीन करने वालों की बड़ी भारी तादात है। अगर बैंसला से बात करके उन्हें शामिल करते हुए सामूहिक नेतृत्व की बात की जाती है तो संभव है समाज अपने लक्ष्य को हासिल कर ले।
समाज के ताजा हालात पर गहरी नजर डालें तो बेशक इसके पीछे राजनीतिक महत्वाकांक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका है, मगर कहीं न कहीं इसके लिए खुद बैंसला भी जिम्मेदार हैं। शुरू में वे एक सशक्त सामाजिक नेता के रूप में उभर कर आए थे, जिससे समाज को भारी उम्मीदें थीं। उनका अक्खड़ और अडियल रुख भी समाज को बहुत रास आ रहा था। समाज को लग रहा था कि वे कोई राजनीति नहीं कर रहे हैं, इस कारण समाज को आरक्षण का लाभ मिल जाएगा। मगर चूंकि वे राजनीतिक चालबाजियों से अनभिज्ञ थे, इस कारण जल्द ही राजनीति की दलदल में फंस गए। पहले पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने गुर्जरों को वोट बैंक हासिल करने के लिए उन्हें अपना मोहरा बनाया। वे भी चक्कर में आ गए। अपने जवानों को शहीद करवाया और ऐसा आरक्षण हासिल किया, जो प्रत्यक्षत: तो ऐसा दिखता था कि कोई बहुत बड़ा गढ़ जीत लिया हो, मगर उसमें अनेक प्रकार की कानूनी अड़चनें थीं। वहां तक भी बात ठीक थी, लेकिन जैसे ही उन्होंने जाट नेता ज्ञानप्रकाश पिलानिया का इतिहास दोहराते हुए भाजपा में शामिल होने का कदम उठाया, उनका कद छोटा हो गया। आमतौर पर कांग्रेस विचारधारा के साथ चलने वाले गुर्जर उनसे नजदीकी रखने से कतराने लगे।
पिछले दिनों जब बैंसला ने दुबारा आंदोलन शुरू किया तो उन पर पूर्व में किए गए आंदोलन को सिरे तक पहुंचाने का सामाजिक दबाव बना हुआ था। इधर सरकार की मजबूरी ये है थी कि वह हाईकोर्ट की ओर से सीमा से अधिक आरक्षण पर उठाए गए सवाल की वजह से किंकर्तव्यविमूढ़ थी, जबकि गुर्जर समाज को किसी भी हालत में आरक्षण चाहिए था। बैंसला इन दोनों स्थितियों के बीच फंसे हुए थे।
चूंकि बैंसला भाजपा में शामिल हो चुके थे, इस कारण कांग्रेसियों को भारी परेशानी थी, मगर सामाजिक दबाव की मजबूरी के चलते कांगे्रस विचारधारा के गुर्जरों को भी समर्थन देना पड़ा। इधर कुआं, उधर खाई वाली स्थिति थी। वे जानते थे कि यदि कर्नल बैंसला को सफल होने से रोकते हैं तो समाज खिलाफ हो जाएगा, मगर दूसरी ओर बैंसला का साथ देकर अपनी राजनीति भी खत्म नहीं करना चाहते थे। उधर सरकार हाईकोर्ट की आड़ लेकर आंदोलन को लंबा खिंचवाने लगी। उसका आकलन था कि जैसे ही आंदोलन लंबा खिंचेगा, उसके कमजोर होने की संभावना बढ़ जाएगी। बैंसला को भी लग रहा था कि और अधिक समय गंवाया तो आंदोलन बिखर जाएगा। इस बीच गृह मंत्री शांति धारीवाल ने भी पैंतरा चला। कि सरकार की ओर से दिया जा रहा पैकेज मंजूर करने पर ही अन्य मांगें पूरी की जाएंगी। विशेष रूप से पूर्व में हुए आंदोलन के दौरान दर्ज मुकदमों को वापस लेने की मांग की आड़ में  सरकार दबाव बनाना चाह रही थी। जाहिर तौर पर कर्नल बैंसला पर यह दबाव रहा कि वे आरक्षण दिलवाने के साथ पूर्व के मुकदमों से भी मुक्ति दिलवाएं। यदि सरकारी पैकेज को मंजूर करते हैं तो आंदोलन का रुख सरकार के बताए तरीके की ओर मुड़ जाता है। हुआ भी यही। उन्हें एक प्रतिशत आरक्षण पर हां भरनी पड़ी। इसी के साथ उनका भाजपा से इस्तीफा देना भी चौंकाने वाला रहा। जाहिर तौर पर यह किसी गुप्त समझौते का ही प्रतिफल माना जा सकता है।
हालांकि बैंसला ने यह समझौता अपनी खाल बचाने के लिए किया और कानूनी बाध्यताओं में इससे ज्यादा मिल भी नहीं सकता था, मगर एक प्रतिशत आरक्षण से नाराज गुर्जर नेताओं ने बैंसला पर आरोप जड़ दिया है कि उन्होंने स्वार्थ की खातिर ऐसा किया है। उनका कहना है कि बैंसला ने दोनों सरकारों से किए तीन समझौतों में से एक में अपनी गरीबी दूर की, दूसरे में भाजपा में शामिल  हो कर लोकसभा चुनाव का टिकट लिया, समधी को देवनारायण बोर्ड में और एक रिश्तेदार ब्रह्मसिंह गुर्जर को राजस्थान लोक सेवा आयोग में नियुक्ति दिलवाई और तीसरे में अपनी बेटी सुनीता को कांग्रेस की ओर से राज्यसभा का टिकट दिलवाना तय किया है। बैंसला पर समाज का लाखों रुपया हजम करने का भी आरोप लगाया गया।  कुल मिला कर ताजा गुर्जर आंदोलन की परिणति ये रही है कि बैंसला ने अपनी साख पर बट्टा लगवा लिया है, भले ही कोई निजी लाभ हासिल कर लिया हो। दूसरा ये कि आंदोलन दो फाड़ हो गया है। समाज का दूसरा धड़ा आंदोलन को सामूहिक नेतृत्व में जारी रखने पर आमादा है। देखना ये है कि बैंसला का विरोध करने के चलते इस सामूहिक नेतृत्व के प्रति समाज अपना विश्वास जाहिर करता है अथवा नहीं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

ये वही संगमा हैं, जो सोनिया से माफी मांग चुके हैं


देश के इतिहास में कदाचित पहली बार राष्ट्रपति जैसे गरिमापूर्ण पद के चुनाव में इतनी छीछालेदर हुई है। हालांकि चुनाव की सीधी टक्कर में पी ए संगमा को स्वाभाविक रूप से चुनाव प्रचार के दौरान बयानबाजी करने का अधिकार था, मगर उन्होंने जिस तरह स्तर से नीचे जा कर प्रतिद्वंद्वी प्रत्याशी प्रणब मुखर्जी पर हमले किए, उससे दुनिया का यह सबसे बड़ा लोकतंत्र शर्मसार हुआ है। अफसोसनाक बात है कि लोकतंत्र के तहत मिले अधिकारों का उपयोग करते हुए वे अब भी इस चुनाव को लेकर सियापा जारी रखे हुए हैं। वे जानते हैं कि होना जाना कुछ नहीं है, मगर कम से कम मीडिया की हैड लाइंस में तो बने ही रहेंगे।
 असल में वे जानते थे कि नंबर गेम में वे कहीं नहीं ठहरते, बावजूद इसके मैदान में उतरे और वास्तविकता के धरातल को नजरअंदाज कर किसी चमत्कार से जीतने का दावा करते रहे। न वह चमत्कार होना था और न हुआ, मगर राष्ट्रपति पद जैसे अहम चुनाव को जिस तरह से नौटंकी करते हुए उन्होंने लड़ा, उससे न केवल इस पद की गरिमा पर आंच आई, संगमा का घटियापन भी उभर आया। कभी घटिया बयानबाजी तो कभी ढ़ोल बजाते हुए चुनाव प्रचार के लिए निकल कर उन्होंने इस चुनाव को पार्षद के चुनाव सरीखा कर दिया। माना कि भारत की राजनीति में जातिवाद का बोलबाला है और जाति समूह को संतुष्ट करने की कोशिशें की जाती रहीं हैं, मगर संगमा ने इसे एक आदिवासी को राष्ट्रपति पद पर पहुंचाने की मुहिम बना कर नए पैमाने बनाने की कुत्सित कोशिश की। और यही वजह रही कि विपक्षी गठबंधन एनडीए के कई घटकों तक ने उन्हें समर्थन देना मुनासिब नहीं समझा।
असल में संगमा इससे पहले भी अपनी स्वार्थपरक और घटिया सोच का प्रदर्शन कर चुके हैं। स्वार्थ की खातिर राजनीति में लोग किस कदर गिर जाते हैं, इसका नमूना वे पहले भी पेश कर चुके हैं। कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा बना कर लंबी-चौड़ी बहस करने वाले और फिर सिर्फ इसी मुद्दे पर कांग्रेस से अलग हो कर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बनाने में अहम भूमिका निभाने वाले संगमा ने सोनिया से बाद में जिस तरह से माफी मांगी, कदाचित उन्हीं जैसों के लिए थूक कर चाटने वाली कहावत बनी है। उन्होंने न केवल माफी मांगी, अपितु साथ में निर्लज्जता से यह और कह दिया कि विदेशी मूल का अब कोई मुद्दा ही नहीं है। संगमा के बदले हुए रवैये को सब समझ रहे थे कि यकायक उनका हृदय परिवर्तन कैसे हो गया था। उन्हें अचानक माफी मांगने की क्या सूझी थी? जाहिर है वे अपनी बेटी अगाथा संगमा को केन्द्र सरकार में मंत्री बनाए जाने से बेहद अभिभूत थे। यानि जैसे ही आपका स्वार्थ पूरा हुआ और आपके सारे सिद्धांत हवा हो गए।
संगमा के बयान से सवाल उठता है कि क्या कभी इस तरह मुद्दे समाप्त होते हैं। मुद्दा समाप्त कैसे हो गया, वह तो मौजूद है ही न। चलो एक बार सोनिया प्रधानमंत्री नहीं बनीं, कल कोई और विदेशी मूल का व्यक्ति बन सकता है। तब भी तो आपकी विचारधारा वाले सवाल उठाएंगे। यानि कि मुद्दा समाप्त नहीं होगा। मुद्दा तो जारी ही है, तभी तो केवल सोनिया का विरोध करके कांग्रेस से अलग होने के बाद अब भी कांग्रेस से अलग ही बने हुए हैं। लौटे नहीं हैं। इस यूं भी समझा जा सकता है कि सोनिया के प्रधानमंत्री नहीं बनने के साथ यदि मुद्दा समाप्त हो गया है तो कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में अब कोई फर्क नहीं रह गया है। केवल सोनिया को प्रधानमंत्री न बनाने की मांग को लेकर ही तो आप अलग हुए थे। जब आपकी मंशा पूरी हो गई तो आपको कांग्रेस के चले जाना चाहिए। और यह मंशा तो तभी पूरी हो गई थी। क्या बेटी के मंत्री बनने पर अक्ल आई?
वैसे अकेले संगमा ने ही नहीं, टीम अन्ना के सेनापति अरविंद केजरीवाल ने भी राष्ट्रपति चुनाव को लेकर मर्यादा की सारी सीमाएं लांघ कर बयानबाजी जारी रखी है। भले ही टीम अन्ना से जुड़े लोग तर्क के आधार पर जायज ठहराएं, मगर इससे राष्ट्रपति के गरिमापूर्ण पद पर तो आंच आई ही है। केजरीवाल आज राजनीति की गंदगी की वजह से लोकतंत्र के स्वरूप को घटिया करार दे रहे हैं, मगर ये उसी लोकतंत्र की विशालता ही है कि आप सबसे बड़े संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति को गाली बक कर रहे हैं और आपका कुछ नहीं बिगड़ रहा। उलटे इतने बड़े पद हमला करके अपने आप को महान समझ रहे होंगे। और कोई तंत्र होता तो आपको गोली से उड़ा दिया जाता। अफसोस, लोकतंत्र में अभिव्यक्ति का अधिकार हमें न जाने और क्या दिखाएगा?
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

सोमवार, जुलाई 23, 2012

बच कर रहिये, बड़े धोखे हैं इंटरनेट पर


सूचना प्राद्यौगिकी और बढ़ते संचार माध्यमों के बीच एक ओर जहां पूरा विश्व एक ग्लोबल विलेज की शक्ल अख्तियार करता जा रहा है और इंटरनेट पर ज्ञान-विज्ञान और मनोरंजन हर शख्स के लिए उपलब्ध है, वहीं दुनियाभर की बुराइयां भी उसी के साथ हमारे जीवन में प्रवेश करती जा रही हैं। यह एक सार्वभौमिक सत्य है कि मनुष्य बुराई की ओर ज्यादा आकर्षित होता। यही सत्य इंटरनेट पर भी लागू होता है। इंटरनेट पर जहां इक्कीसवीं सदी तक की हर फील्ड की अपडेट जानकारी मौजूद है, वहीं दुनियाभर में सैक्स और आर्थिक अपराध की पराकाष्टा इसी पर लुभा रही है। हमारे देश की ऊर्जा से लबरेज युवा पीढ़ी को जहां दुनिया से कदम से कदम मिला कर चलने की दरकार है, वह भ्रमित हो कर इंटरनेट पर हो रही चैटिंग और कुंठित सैक्स के मार्ग पर फिसल रही है। युवा ही नहीं अधेड़ तक पथभ्रष्ट हो कर अपना समय और पैसा बर्बाद कर रहे हैं।
असल में इंटरनेट के सर्वत्र उपलब्ध होने और बढ़ते नए प्रयोगों के कारण चालाक व अपराधी किस्म के लोगों को अपनी जालसाजी फैलाने और उसमें शिकार को फंसाना आसान हो गया है। यही वजह है कि इंटरनेट पर छल-कपट दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है। यदि वक्त रहते हम सचेत नहीं हुए और इंटरनेट पर व्याप्त फरेब से बचने का इंतजाम नहीं किया तो बाद में हमें बहुत पछताना होगा।
इंटरनेट पर सबसे बड़ी समस्या यह है कि कोई भी साइट खोलिये, उसमें विज्ञापनों की शक्ल में चैटिंग, खुले सैक्स और कम समय में ज्यादा कमाने के आमंत्रण मिल ही जाएंगे। उनका प्रदर्शन भी ऐसा होता है कि कोई यूजर उसकी ओर आकर्षित हुए बिना नहीं रहता। ऐसे विज्ञापन पर उसने क्लिक किया नहीं कि वह उसमें फंसता ही चला जाता है। नेट पर धोखा देने वाले अनगिनत प्रोग्राम मौजूद हैं, जो कम्प्यूटर उपभोक्ताओं को बेवकूफ बना कर पैसा वसूलने का काम करते हैं। इन विज्ञापनों में कहा तो यही जाता है कि आप अपने बारे में, पासवर्ड और क्रेडिट कार्ड नंबर की जो जानकारी दे रहे हैं, वह सुरक्षित है, मगर वस्तुस्थिति ये है कि वे सब जानकारियां चालाक प्रोग्रामरों तक पहुंचा दी जाती हैं, जो कि बाद में आपको नुकसान पहुंचाते हैं।
धोखा देने वाले प्रोग्राम तैयार ही इस प्रकार किए जाते हैं कि सामान्य उपभोक्ता उसके चक्कर में आ ही जाता है। मान लीजिए आपने जिज्ञासा के चलते किसी साइट का लिंक खोला तो उसमें एक पॉप-अप विंडो प्रकट हो जाता है, जो आपके कम्प्यूटर को वायरस के लिए ऑनलाइन स्कैन करता है। वह आपको बताएगा कि आपके कम्प्यूटर में वायरस हैं और आपको उन्हें हटाने के लिए एंटी वायरस की जरूरत है। और तो और वह एनीमेटेड जिप फाइल के जरिए यह भी बता देगा कि आपके सिस्टम में कितने प्रकार के वायरस हैं। जबकि वस्तुस्थिति ये होती है कि आपके सिस्टम पर कोई वासरस नहीं है। धोखे में आ कर आप एंटी वायरस को के्रडिट कार्ड के जरिए खरीद लेंगे। बाद में पता लगेगा कि वह एंटी वायरस तो पूरी तरह से फर्जी है। कुछ चालाक प्रोग्रामर आपको फ्रीवेयर प्रोग्रामों की लोकप्रियता की आड़ में यूजर्स को फंसाते हैं।
 इसी प्रकार दुनियाभर में मित्रता बढ़ाने वाले नेट वर्किंग प्रोग्रामों पर भी सैक्स रेकेट ने कब्जा कर रखा है। एक बार केवल उनको आपके ईमेल का पता लग जाए तो वे बार-बार आपको मित्रता के लिए प्रेरित करेंगे और आपको फंसा कर ही रहेंगे। वे इसके लिए मानवीय संवेदनाओं को भुनाने के लिए योजनाबद्ध तरीके से जाल बुनते हैं। वे खूबसूरत लड़कियों के फोटो दिखा कर उनकी किसी परेशानी का जिक्र कर मदद करने का आग्रह करते हैं। यहां तक कि लाइफ पार्टनर बनने तक पेशकश करते हैं। विशेष रूप से सेनगल के रिफ्यूजी कैंप के जरिए अनेक लड़कियों के नाम से गोरखधंधा खूब पनप रहा है। इसमें लड़कियों के नाम से बताया जाता है कि वे एक बड़े सैन्य अधिकारी की बेटी है और युद्ध अथवा आतंकवादियों से मुठभेड़ में उनके पिता की मृत्यु हो चुकी है। उनके पिता के नाम पर अमुक बैंक में इतने करोड़ रुपए जमा हैं, जिसकी उत्तराधिकारी वे अकेली हैं। मगर जब तक कोई उनका लाइफ पार्टनर न हो वह पैसा बैंक से नहीं निकाला जा सकता। ऐसा करके वे ऑफर करती हैं कि यदि वे कहने भर को भी लाइफ पार्टनर बन जाएं तो उन्हें बैंक से पैसा निकलने के बाद इतना प्रतिशत का भुगतान कर देंगी। बाकायदा संबंधित बैंक से इंटरनेट पर ही उसका वेरिफिकेशन कराया जाता है। लड़की के प्रति सहज आकर्षण और पैसे की लालच में आ कर यूजर फंस जाता है। वह लाइफ पार्टनर बन कर बैंक से संपर्क करता है। बैंक उसे किसी वकील से संपर्क करने और उसकी फीस व बैंक से विड्रॉल की फीस पहले भेजने की ऑफर देता है। फीस की राशि कम से पांच-दस लाख रुपए तक होती है, मगर यूजर उसके एवज में एक-दो करोड़ रुपए कमाने की लालच में वह पैसा नेट के जरिए अपनी बैंक से भेज देता है। बाद में पता लगता है कि न तो लड़की असली थी, न उसका सर्टिफिकेट असली था और न ही बैंक असली था। बाद में पछतावे के सिवाय कुछ नहीं बचता।
इसी प्रकार कई कॉल गल्र्स ने इंटरनेट के जरिए अपना कारोबार फैला रखा है। वे अमूमन सभी फ्रेंड नेटवर्किंग साइट्स पर मौजूद हैं और पहले चैटिंग करती हैं और उसके बाद डेटिंग तय कर आपको लूट लेती हैं। सर्वाधिक लोकप्रिय साइट फेसबुक पर भी यही हाल है। यदि आपका उसमें अकाउंट है तो खूबसूरत चेहरों वाली महिलाएं आपको फें्रड रिक्वेस्ट भेजेंगी और बाद में आपसे दोस्ती बढ़ा कर आपको लूटने की कोशिश करेंगी। इनमें कई तो फर्जी अकाउंट होते हैं, जो कि संचालित तो पुरुष करते हैं और नाम फोटो महिला का होता है। इनमें अधिकतर इंडोनेशिया व चीन के हैं। इसके अतिरिक्त कई साइट्स ऐसी हैं, जहां फ्री सैक्स से संबंधित वीडियो मौजूद हैं, जिन्हें देख कर युवा पीढ़ी बर्बाद हो रही है।
अहम सवाल ये है कि इंटरनेट पर इस प्रकार की गतिविधियों पर अंकुश के लिए क्या किया गया है। सच्चाई तो ये है कि धोखाधड़ी से निपटने के लिए अभी तक कोई पुख्ता कानून बना हुआ नहीं है। विशेष रूप से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भिन्न देशों के बीच कानूनों की भिन्नता का चालाक प्रोग्रामर फायदा उठा रहे हैं। मान लीजिए कोई धोखेबाज भारत में बैठ कर अंग्रेजी में कोई साइट बना कर उससे इंग्लैंड के लोगों को फंसाए तो इंग्लैंड में उसके खिलाफ कार्यवाही करने में अनेक कानूनी अड़चनें आ जाएंगी। ऐसी ही दिक्कते वहां भी आती हैं, जहां प्रत्यर्पण संधि नहीं है। अत: बेहतर यही है कि हम स्वयं सचेत रहें और इंटरनेट पर मौजूद फरेब के जाल से अपने आपको बचा कर रखें।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

शुक्रवार, जुलाई 20, 2012

जब प्रणब पर हमला हो रहा था, तब वसुंधरा चुप क्यों थीं?


राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति जैसे महत्वपूर्ण संवैधानिक पदों के लिए चुनाव लड़ रहे प्रत्याशियों को लेकर की जा रही टीका टिप्पणी के चलते एक बार फिर राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत व पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे के बीच जुबानी युद्ध हो गया। असल में दोनों एक दूसरे पर जुबानी हमला करने का कोई मौका नहीं चूकते, ताकि प्रदेश का राजनीतक माहौल ठंडा न पड़ जाए।
हुआ यूं कि गहलोत ने मीडिया से कहा था कि भाजपा की ऐसी दुर्गति कभी नहीं हुई कि राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति के लिए भी उम्मीदवार नहीं मिल रहे हैं, तो प्रधानमंत्री पद के लिए कहां से लाएंगे। राष्ट्रपति पद के लिए ऐसे व्यक्ति का साथ दे रही है जो जीवनभर कांग्रेस में रहा और उसे कांग्रेस से निकाला गया हो। इसी तरह जिन जसवंत सिंह को भाजपा ने 6 साल के लिए पार्टी से निष्कासित किया हो, उन्हें उप राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बनाया है।
इस पर पलटवार करते हुए पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने कड़ा ऐतराज किया। वसुंधराराजे ने कहा कि वे लोग अब उम्मीदवार बन चुके हैं। राजनीतिक पार्टियों से अब उनका कोई संबंध नहीं रहा है। अच्छा नहीं लगता कि हम उनके बारे में इस तरह की बातें करें। विशेषकर मुख्यमंत्री जैसे जिम्मेदार लोगों को उनके बारे में बोलना ही नहीं चाहिए। नहीं तो हम लोग भी फाइनेंस मिनिस्टर के बारे में बोलने लगेंगे तो बात कहां तक जाएगी। जिन पदों के लिए वे लोग चुनाव लड़ रहे हैं, उनका हमें सम्मान करना चाहिए। इस तरह टीका-टिप्पणी करना ठीक नहीं है।
ऐसे में भला गहलोत कहां चुप रहने वाले थे। गहलोत ने इसके जवाब में कहा कि मैंने न तो किसी पर कोई आरोप लगाया और न ही किसी का चरित्र हनन किया है। अगर मैं कहूं कि उनकी पार्टी को उम्मीदवार नहीं मिल रहे हैं। राष्ट्रीय पार्टी होकर भी राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति पद के लिए कोई मेटेरियल नहीं है कि खुद अपना उम्मीदवार खड़ा कर सके। जसवंत सिंह को भाजपा ने 6 साल के लिए निष्कासित किया था, तो उन लोगों ने सोच समझकर ही निष्कासित किया होगा। मैंने तो निष्कासित किया नहीं था। निष्कासन रद्द करना अलग बात है, लेकिन उन्हें सीधे ही उप राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बना दिया। तो क्या मेरा हक नहीं है कि मैं यह कह सकूं कि उनकी पार्टी को उम्मीदवार नहीं मिल रहा है।
बेशक, संवैधानिक पदों के लिए चुनाव लडऩे वाले उम्मीदवारों के बारे में टीका-टिप्पणी करते वक्त मर्यादा का ख्याल रखा जाना चाहिए, मगर यह आचार संहिता सभी पर लागू होती है। सवाल ये उठता है कि अगर वसुंधरा को मर्यादा का इतना ही ख्याल है तो जब राष्ट्रपति पद के यूपीए उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी पर एनडीए समर्थित उम्मीदवार पी ए संगमा और टीम अन्ना के सेनापति अरविंद केजरीवाल हमला कर रहे थे, तब वे चुप क्यों रहीं? उन्होंने संगमा से ये क्यों नहीं कहा कि आप इस तरह के आरोप मुखर्जी पर न लगाएं? अच्छा नहीं लगता? केजरीवाल तो चिल्ला-चिल्ला कर मुखर्जी पर ताबड़तोड़ हमले कर रहे थे, उन्हें वसुंधरा ने नसीहत क्यों नहीं दी? सीधी-सीधी बात है, वसुंधरा गहलोत पर हमला करने का कोई भी मौका नहीं चूकतीं। आखिर जिस शख्स ने उनकी छोटी सी राजनीतिक चूक की वजह से कुर्सी छीन ली, वह और उसका बयान कैसे बर्दाश्त हो सकता है।
गौरतलब है कि खासकर जिन जसवंत सिंह को लेकर यह वाक युद्ध हुआ है, वे वही हैं जिन्हें कभी पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की तारीफ में पुस्तक लिखने पर भाजपा ने पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया था। बाद में जातीय राजनीति की मजबूरी के चलते उन्हें वापस लिया गया था।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

गुरुवार, जुलाई 19, 2012

गुटखे पर पाबंदी : सरकार का तुगलकी आदेश


राज्य सरकार ने गुटखे पर रोक लगा कर यूं तो साधुवाद का काम किया है, जिसकी जितनी सराहना की जाए, कम है, मगर जिस तरीके से एक झटके में रोक लगाई, उसे यदि तुगलकी आदेश कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
सीधी सीधी बात है, यदि सरकार को यह निर्णय करना था तो पहले गुटखा बनाने वाली फैक्ट्रियों को उत्पादन बंद करने का समय देती, स्टाकिस्टों को माल खत्म करने की मोहलत देती तो बात न्यायपूर्ण होती, मगर सरकार ने ऐसा नहीं किया। अब सवाल ये है कि तम्बाकू मिश्रित गुटका बनाने वाली फैक्ट्रियों में जमा सुपारी, कत्था व तंबाकू का क्या होगा? इन फैक्ट्रियों में काम करने वाल मजदूरों का क्या होगा? स्टाकिस्टों और होल सेलर्स के पास जमा माल का क्या होगा? रिटेलर्स के पास रखे माल को कहां छिपाया जाएगा? इनका सरकार के पास कोई जवाब नहीं है। यानि की यह तुगलकी फरमान ही है। मजे की बात देखिए कि सरकार जानती थी कि गुटखा बनाने वाले कोर्ट में जा कर स्थगनादेश लगाने की कोशिश करेंगे, लिहाजा केवियेट लगाने की बात भी कह दी।
अब बात जरा इस यकायक लागू किए गए आदेश के परिणाम की। माना कि तम्बाकू मिश्रित गुटखा बनाने वाली फैक्ट्रियां अब आगे और उत्पादन नहीं करेंगी, मगर वह उनके पास मौजूद माल को दबा लेंगी। मांग बढऩे के चलते स्टाकिस्ट व होलसेलर्स को अधिक दाम मांगेंगी। होलसेलर्स भी इस मौके का फायदा उठाएंगे और बढ़ी दरों पर रिटेलर्स को माल देंगे। कुल मिला कर गुटके की जम कर ब्लैक होगी। एक अर्थ में देखा जाए तो खुद सरकार ने ही एक झटके में रोक लगा कर ब्लैक मार्केटिंग को बढ़ावा देने का कदम उठाया है। सरकार को निर्णय लागू करने की इतनी जल्दी क्या थी, यह समझ से परे है। यदि दैनिक भास्कर की मानें तो यह उसके दबाव की वजह से हुआ है, मगर ऐसा लगता नहीं है। पाबंदी लागू करने की तैयारी पहले से चल रही होगी। या तो उसे एक्सरसाइज की भनक भास्कर को लग गई होगी अथवा सरकार ने उसे क्रेडिट देने के लिए यह जानकारी लीक की होगी। सरकार ने ऐसा इस लिए किया होगा ताकि वह कह सके कि प्रदेश की जनता यही चाहती थी।
अब सवाल ये भी कि क्या यह पाबंदी असरकारक होगी? अव्वल तो गुटका चोरी-छुपे बनेगा और बिकेगा भी। जो टैक्स बढ़ाए जाने पर अथवा पोली पैक बंद होने पर महंगा होने के बाद भी खाते थे, वे ऊंचे दाम में भी खरीदने को तैयार रहेंगे। उलटा तस्करी और चालू हो जाएगी। खुद मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का कहना है कि अभी आधा काम हुआ है, आधा करने की जिम्मेदारी आम लोगों की है। मगर लगता ये है कि न तो यह आधा काम हुआ है और न इसके पूरा होने की संभावना है। असल में पाबंदी तंबाकू मिश्रित गुटखे पर लगी है। अब भी पान मसाला अलग से मिलेगा और तंबाकू भी। लोग दोनों को खरीद कर उसका गुटका बना कर खाएंगे। यदि सादा मसाले वाले गुटके पर भी रोक लगाई गई तो लोग वापस उसी गुटके पर आ जाएंगे, जहां से यह कहानी शुरू हुई थी। पहले पान की दुकान वाले सुपारी, कत्था, चूना व तम्बाकू रगड़ कर गुटका बनाया करते थे। अब भी वह गुटका चलता है। कुल मिला कर सरकार का जो मकसद है कि तम्बाकू के सेवन अंकुश लगे, वह पूरा होना नहीं है।
रहा सवाल कानूनी पाबंदी का तो वह कितनी कारगर होगी, इसकी कल्पना गुजरात में शराब पर लगी रोक से की जा सकती है। वहां भले ही दुकानों पर शराब नहीं मिलती, मगर होम डिलीवरी तो चालू है ही। कहने वाले तो कहते हैं कि गुजरात में शराब उलटे आसानी से उपलब्ध हो जाती है। ये शराबबंदी छद्म है और शराब पर कोई रोक नहीं लगाई जा सकी है। ठीक इसी प्रकार राजस्थान में भी होगा। गुटका चोरी छिपे मिला करेगा। अलबत्ता ज्यादा दामों पर। हकीकत तो ये है कि मार सिर्फ आम आदमी पर पड़ेगी। सस्ता गुटका मिलना बंद हो जाएगा। अमीर को तो कोई फर्क नहीं पडऩा। वह तो वैसे भी सस्ता गुटका नहीं खाता। वह तो रजनीगंधा और डबल जीरो मिला कर ही खा रहा है।
कुल मिला कर गहलोत का बयान इस अर्थ में जरूर सही है कि अगर लोगों ने गुटके की आदत नहीं छोड़ी तो उनके आदेश का कोई मतलब ही नहीं रह जाएगा। जब तक गुटके खिलाफ माहौल नहीं बनेगा, तब तक नतीजा सिफर ही रहने वाला है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

बुधवार, जुलाई 18, 2012

ये वही जसवंत सिंह हैं, जिन्हें भाजपा ने थूक पर चाटा था


राजनीति भी अजीब चीज है। इसमें कुछ भी संभव है। कैसा भी उतार और कैसा भी चढ़ाव। हाल ही उपराष्ट्रपति पद के लिए भाजपा व एनडीए के उम्मीदवार जसवंत सिंह पर तो यह पूरी तरह से फिट है। ये वही जसवंत सिंह हैं, जिन्हें कभी पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की तारीफ में पुस्तक लिखने पर भाजपा ने पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया था। ज्ञातव्य है कि खुद को सर्वाधिक राष्ट्रवादी बताने वाली भाजपा ने जब जसवंत सिंह को छिटकने के चंद माह बाद ही फिर से गले लगाया तो उसकी इस राजनीति मजबूरी को थूक कर चाटने की संज्ञा दी गई थी।
विशेष रूप से इस कारण कि लोकसभा चुनाव में पराजित होने के बाद अपनी हिंदूवादी पहचान को बरकरार रखने की खातिर अपने रूपांतरण और परिमार्जन का संदेश देने पार्टी को एक ऐसा कदम उठाना पड़ा, जिसे थूक कर चाटना ही नहीं अपितु निगलने की संज्ञा दी जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। तब पार्टी को तकलीफ तो बहुत थी, लेकिन कोई चारा ही नहीं था। एक वजह ये भी थी कि दूसरी पंक्ति के नेता पुरानी पीढ़ी को धकेलने को आतुर थे ताकि उनकी जगह आरक्षित हो जाए। जिस नितिन गडकरी को पार्टी को नयी राह दिखाने की जिम्मेदारी दी गई थी, उन्हें ही चंद माह बाद जसवंत की छुट्टी का तात्कालिक निर्णय पलटने को मजबूर होना पड़ा। और अब उन्हें उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार तक बनाना पड़ा।
हकीकत ये है कि मतों की संख्या लिहाज से भाजपा नीत एनडीए कांग्रेस को वाक ओवर न देने के नाम पर उप-राष्ट्रपति पद का चुनाव भी हारने के लिए ही लड़ रही है। हालांकि नाम तो एनडीए के संयोजक और जनता दल एकीकृत के अध्यक्ष शरद यादव का नाम भी चला, मगर वे शहीद होने को तैयार नहीं हुए। आखिरकार जसवंत सिंह के नाम पर ठप्पा लगा दिया गया। ऐसे में सवाल ये उठ रहा है कि आखिर क्या वजह है कि खुद जसवंत सिंह शहीद होने को तैयार गए? सवाल यह भी कि जिन जसवंत सिंह को वोटों की राजनीति के चलते मजबूरी में निगलने की जलालत झेलनी पड़ी, उन्हें शहीद करवा कर राजनीति की मुख्य धारा से दूर करने का निर्णय क्यों करना पड़ा? हालांकि यह सही है कि उपराष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ कर हारने के बाद वापस मुख्य धारा में न आने की कोई परंपरा नहीं है, मगर फिर भी फिलवक्त तो हारने का ठप्पा लगवाना पड़ेगा। जहां तक जानकारी है, इस निर्णय के पीछे लाल कृष्ण आडवाणी का हाथ है। वे लगभग हाशिये पर हैं। हो सकता है यह कोई चाल हो।
जहां तक भाजपा की थूक कर निगलने की प्रवृति का सवाल है, यह अकेला उदाहरण नहीं है। इससे पहले आडवाणी से किनारा करने का पक्का मानस बना चुकी भाजपा को अपने भीतर उन्हीं के कद के अनुरूप जगह बनानी पड़ी है। कुछ ऐसा ही वसुंधरा के मामले में हुआ। विधायकों का बहुमत साथ होने के बावजूद  विधानसभा में विपक्ष के नेता पद से हटाए जाने के बाद भारी दबाव के चलते पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे को फिर से विपक्ष का नेता बनाना पड़ा। वरिष्ठ वकील व भाजपा सांसद राम जेठमलानी का मामला भी थूक कर चाटने वाला ही है। भाजपाईयों के आदर्श वीर सावरकर की तुलना पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना से करने, जिन्ना को इंच-इंच धर्मनिरपेक्ष तक करार देने, पार्टी की मनाही के बाद इंदिरा गांधी के हत्यारों का केस लडऩे, संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी नहीं देने की वकालत करने और पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतरने वाले जेठमलानी को पार्टी का प्रत्याशी बनाना क्या थूक कर चाटने से कम था। इसी प्रकार पार्टी के शीर्ष नेता आडवाणी को पितातुल्य बता चुकी मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती को उनके बारे में अशिष्ट भाषा का इस्तेमाल करने और बाद में पार्टी से बगावत कर नई पार्टी बनाने को भी नजरअंदाज कर फिर पार्टी में लेने और उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव की कमान सौंपना भी थूक कर चाटना कहलाएगा।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

अन्ना हजारे से तो बेहतर निकले बाबा रामदेव


योग गुरु बाबा रामदेव ने इशारा किया कि वे 2014 का लोकसभा चुनाव लड़ सकते हैं। अर्थात उनका संगठन भारत स्वाभिमान चुनाव मैदान में उतर सकता है। वे पूर्व में भी इस आशय का इशारा कर चुके हैं। बाबा रामदेव अगर ऐसा करते हैं तो यह उन अन्ना हजारे व उनकी से बेहतर होगा, जो कि सक्रिय राजनीति में आने से घबराते हैं, मगर बाहर रह कर उसका मजा भी लेना चाहते हैं।
ज्ञातव्य है कि जब भी अन्ना हजारे से यह पूछा गया कि अगर देश की एक सौ करोड़ जनता आपके साथ है और वाकई आपका मकसद व्यवस्था परिवर्तन करना है तो क्यों नहीं चुनाव जीत कर ऐसा करते हैं, तो वे उसका कोई गंभीर उत्तर देने की बजाय मजाक में यह कह कर पल्लू झाड़ते रहे हैं कि वे अगर चुनाव लड़े तो उनकी जमानत जब्त हो जाएगी। मगर अफसोस की उनसे आज तक किसी पत्रकार ने यह नहीं पूछा कि यदि आप वाकई जनता के प्रतिनिधि हैं और चुने हुए प्रतिनिधि फर्जी हैं तो जमानत आपकी क्यों सामने वाले ही जब्त होनी चाहिए।
इस सिलसिले में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का एक सभा में कहा गया एक कथन याद आता है। उन दिनों अभी जनता पार्टी का राज नहीं आया था। नागौर शहर की एक सभा में उन्होंने कहा कि कांग्रेस उन पर आरोप लगा रही है कि वे सत्ता हासिल करना चाहते हैं। हम कहते हैं कि इसमें बुराई भी क्या है? क्या केवल कांग्रेस ही राज करेगी, हम नहीं करेंगे? हम भी राजनीति में सत्ता के लिए आए हैं, कोई कपास कातने या कीर्तन थोड़े ही करने आए हैं। वाजपेयी जी ने तो जो सच था कह दिया, मगर अन्ना एंड कंपनी में शायद ये साहस नहीं है। वे जनता के प्रतिनिधि होने के नाते राजनीति और सत्ता को अपने हाथ में रखना भी चाहते हैं और उसमें सक्रिय रूप से शामिल भी नहीं होना चाहते। हरियाण के हिसार उपचुनाव के दौरान जब उनका आंदोलन उरोज पर था, तब भी वे चुनाव मैदान में उतरने का साहस नहीं जुटा पाए। तब अकेले कांग्रेस का विरोध करने की वजह से आंदोलन विवादित भी हुआ था। अन्ना और उनकी टीम ने सफाई में भले ही शब्दों के कितने ही जाल फैलाए, मगर खुद उनकी ही टीम के प्रमुख सहयोगी जस्टिस संतोष हेगडे एक पार्टी विशेष की खिलाफत को लेकर मतभिन्ना जाहिर की थी। खुद अन्ना ने भी स्वीकार किया कि एक का विरोध करने पर दूसरे को फायदा होता है, मगर आश्चर्य है कि वे इसे दूसरे का समर्थन करार दिए जाने को गलत करार देते रहे। क्या यह आला दर्जे की चतुराई नहीं है कि वे राजनीति के मैदान को गंदा बताते हुए उसमें आ भी नहीं रहे और उसमें टांग भी अड़ा रहे हैं? यानि राजनीति से दूर रह कर अपने आपको महान भी कहला रहे हैं और उसके मजे भी ले रहे हैं। गुड़ से परहेज दिखा रहे हैं और गुलगुले बड़े चाव से खा रहे हैं। यह ठीक उसी प्रकार है जैसे कोई शादी को झंझट बता कर गृहस्थी न बसाए व उसकी परेशानियों से दूर भी बना रहे और शादी से मिलने वाले सुखों को भी भोगने की कामना भी करे। आपको याद होगा कि तब अन्ना ने कहा था कि वे ऐसे स्वच्छ लोगों की तलाश में हैं जो आगामी लोकसभा चुनाव में उतारे जा सकें। वे ऐसे लोगों को पूरा समर्थन देंगे। अर्थात खुद की टीम को तो परे ही रखना चाहते हैं और दूसरों को समर्थन देकर चुनाव लड़वाना चाहते हैं। इसे कहते है कि सांप की बांबी में हाथ तू डाल, मंत्री मैं पढ़ता हूं। दुर्भाग्य से ऐसे स्वच्छ प्रत्याशी वे पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के दौरान भी नहीं तलाश पाए थे।
 खैर, अब बाबा रामदेव ने चुनाव लडऩे पर विचार करने की बात कह कर यह जता दिया है कि वे वाकई सिस्टम बदलना चाहते हैं और उसके लिए सिस्टम से परहेज न रख कर उसमें प्रवेश भी कर सकते हैं। उन्होंने साफ तौर पर कहा कि इस समय मैं काले धन को देश में वापस लाने और लोकपाल कानून बनने पर जोर दे रहा हूं। समाज, तंत्र और सत्ता में बदलाव लाना जरूरी है। यह कैसे होगा, इसके बारे में फैसला हमारे प्रदर्शन के दौरान लिया जाएगा। अभी मैं सिर्फ संकेतों में बात करना चाहूंगा। हालांकि, भारत स्वाभिमान संगठन के लिए समर्थन जुटा तो मैं मुख्य धारा की राजनीति में आने पर विचार कर सकता हूं। इतना ही नहीं जब उनसे पूछा गया कि अन्ना हजारे हमेशा कहते हैं कि अच्छे लोग चुनाव इसलिए नहीं जीत सकते हैं क्योंकि उनके पास पैसे नहीं होते हैं। इस पर योग गुरु ने कहा कि हमने बड़े बदलाव देखे हैं। हम ऐसा कर सकते हैं। मतलब सीधा सा है कि चुनाव में होने वाले जरूरी खर्च के लिए वे तैयार हैं। चुनाव लडऩे पर क्या परिणाम होगा, ये तो भविष्य के गर्भ में छिपा है, मगर बाबा इस मामले में अन्ना से बेहतर ही हैं कि वे चुनाव लडऩे की साहस दिखाने की तो सोच तो रहे हैं।
-तेजवानी गिरधर
संपर्क सूत्र:-मोबाइल नंबर7742067000,
ईमेल आईडी-tejwanig@gmail.com

मंगलवार, जुलाई 10, 2012

आखिर वसुंधरा का तोड़ नहीं निकाल पाया भाजपा हाईकमान


विधानसभा चुनाव में प्रदेश अध्यक्ष बना कर फीहैंड देने की तैयारी
अपने आपको सर्वाधिक अनुशासित बता कर पार्टी विद द डिफ्रेंस का नारा बुलंद करने और व्यक्ति से बड़ी पार्टी होने का दावा करने वाली भाजपा का शीर्ष नेतृत्व आखिरकार पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे के आगे नतमस्तक हो गया प्रतीत होता है। जैसी की पूरी संभावना है उन्हें न केवल राजस्थान में पार्टी की कमान सौंपे जाने की तैयारी चल रही है, अपितु आगामी विधानसभा चुनाव भी उन्हीं के नेतृत्व में लड़ा जाना तय है। पिछले दिनों जिस तरह उन्होंने कोटा में दिग्गज नेताओं से मंत्रणा की उससे भी इस बात के संकेत मिले हैं कि पार्टी हाईकमान ने उन्हें चुनावी जाजम बिछाने का संकेत दे दिया है।
दरअसल राजस्थान में पार्टी दो धड़ों में बंटी हुई है। एक बड़ा धड़ा वसुंधरा के साथ है, जिनमें कि अधिंसख्य विधायक हैं तो दूसरा धड़ा संघ पृष्ठभूमि का है, जिसमें प्रमुख रूप से प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी, पूर्व मंत्री ललित किशोर चतुर्वेदी व गुलाब चंद कटारिया शामिल हैं। पिछले दिनों जब पूर्व प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने घोषणा की कि राजस्थान में अगल चुनाव वसुंधरा के नेतृत्व में लड़ा जाएगा तो ललित किशोर चतुर्वेदी व गुलाब चंद कटारिया ने उसे सिरे से नकार दिया। इसके बाद जब कटारिया ने मेवाड़ में रथ यात्रा निकालने ऐलान किया तो वसुंधरा ने इसे चुनौती समझते हुए विधायक किरण माहेश्वरी के जरिए रोड़ा अटकाया। नतीजे में विवाद इतना बढ़ा कि वसुंधरा ने विधायकों के इस्तीफे एकत्रित कर हाईकमान पर भारी दबाव बनाया। वह अस्त्र काम आ गया और आखिरकार अब हाईकमान उन्हें राजस्थान में पार्टी का नेतृत्व सौंपने की तैयारी कर रही है। ऐसा इसलिए क्योंकि अगर कोई और अध्यक्ष होगा तो वह रोड़े अटकाएगा। कुल मिला कर टिकट वितरण में वसुंधरा को फ्री हैंड देने की योजना है, हालांकि कुछ सीटें संघ लाबी के लिए भी छोड़ी जाएंगी।
वसुंधरा को कमान सौंपने के संकेत इस बात से भी मिले कि उन्होंने पिछले दिनों भाजपा व कांग्रेस के पुराने नेताओं की खैर खबर ली। कुशलक्षेम पूछने के बहाने कोटा में उन्होंने भाजपा के वरिष्ठ नेता पूर्व मंत्री के के गोयल और पूर्व सांसद रघुवीरसिंह कौशल समेत कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पूर्व केंद्रीय मंत्री भुवनेश चतुर्वेदी, जुझारसिंह और रामकिशन वर्मा के घर पहुंच कर मंत्रणा की। साहित्यकार व वयोवृद्ध भाजपा नेता गजेंद्रसिंह सोलंकी से भी उन्होंने मुलाकात की। इसके बाद उन्होंने जयपुर में वरिष्ठ नेता हरिशंकर भाभड़ा की भी खैर खबर ली। यह सारी कवायद रूठों को मनाने और शतरंज की बिसात बिछाने के रूप में देखी जा रही है।
राजस्थान में वसुंधरा राजे पार्टी से कितनी बड़ी हैं और उनका कोई विकल्प ही नहीं है, इसका अंदाजा इसी बात से हो जाता है कि हाईकमान को पूर्व में भी उन्हें विधानसभा में विपक्ष के नेता पद से हटाने में एडी चोटी का जोर लगाना पड़ गया था। सच तो ये है कि उन्होंने पद छोडऩे से यह कह कर साफ इंकार कर था दिया कि जब सारे विधायक उनके साथ हैं तो उन्हें कैसे हटाया जा सकता है। हालात यहां तक आ गए थे कि उनके नई पार्टी का गठन तक की चर्चाएं होने लगीं थीं। बाद में बमुश्किल पद छोड़ा भी तो ऐसा कि उस पर करीब साल भर तक किसी को नहीं बैठाने दिया। आखिर पार्टी को मजबूर हो कर दुबारा उन्हें पद संभालने को कहना पड़ा, पर वे साफ मुकर गईं। हालांकि बाद में वे मान गईं, मगर आखिर तक यही कहती रहीं कि यदि विपक्ष का नेता बनाना ही था तो फिर हटाया क्यों? असल में उन्हें फिर बनाने की नौबत इसलिए आई कि अंकुश लगाने के जिन अरुण चतुर्वेदी को प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बनाया गया, वे ही फिसड्डी साबित हो गए। पार्टी का एक बड़ा धड़ा अनुशासन की परवाह किए बिना वसुंधरा खेमे में ही बना रहा। वस्तुत: राजस्थान में वसु मैडम की पार्टी विधायकों पर इतनी गहरी पकड़ है कि वे न केवल संगठन के समानांतर खड़ी हैं, अपितु संगठन पर पूरी तरह से हावी हो गई हैं। उसी के दम पर राज्यसभा चुनाव में दौरान वे पार्टी की राह से अलग चलने वाले राम जेठमलानी को न केवल पार्टी का अधिकृत प्रत्याशी बनवा लाईं, अपितु अपनी कूटनीतिक चालों से उन्हें जितवा भी दिया।
प्रसंगवश बता दें कि ये वही जेठमलानी हैं, जिन्होंने भाजपाइयों के आदर्श वीर सावरकर की तुलना पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना से की, जिन्ना को इंच-इंच धर्मनिरपेक्ष तक करार दिया, पार्टी की मनाही के बाद इंदिरा गांधी के हत्यारों का केस लड़ा, संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी नहीं देने की वकालत की और पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतर गए।
खैर जेठमलानी को जितवा कर लाने से ही साफ हो गया था कि प्रदेश में दिखाने भर को अरुण चतुर्वेदी के पास पार्टी की फं्रैचाइजी है, मगर असली मालिक श्रीमती वसुंधरा ही हैं। कुल मिला कर ताजा घटनाक्रम से तो यह पूरी तरह से स्थापित हो गया है के वे प्रदेश भाजपा में ऐसी क्षत्रप बन कर स्थापित हो चुकी हैं, जिसका पार्टी हाईकमान के पास कोई तोड़ नहीं है। उनकी टक्कर का एक भी ग्लेमरस नेता पार्टी में नहीं है, जो जननेता कहलाने योग्य हो। अब यह भी स्पष्ट हो गया है कि आगामी विधानसभा चुनाव में केवल वे ही पार्टी की नैया पार कर सकती हैं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

शनिवार, जुलाई 07, 2012

येदियुरप्पा से एक बार फिर ब्लैकमेल हुई भाजपा

बेंगलुरु व दिल्ली में हुई लम्बी जद्दोजहद के आखिरकार भाजपा एक बार फिर कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री बी एस येदियुरप्पा से ब्लैकमेल हो गई। येदियुरप्पा की जिद के आगे भाजपा आलाकमान को सदानंद गौड़ा के स्थान पर पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री जगदीश शेट्टार को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला करना पड़ा। इससे पहले भी पार्टी को ब्लैकेमेल करते हुए उन्होंने सदानंद गौड़ा को मुख्यमंत्री बनवाया था। ज्ञातव्य है कि येदियुरप्पा ने केंद्रीय नेतृत्व को पांच जुलाई तक का समय दिया था। दबाव बढ़ाने के लिए नौ करीबी मंत्रियों ने पिछले दिनों इस्तीफा भी दे दिया था। कर्नाटक में पार्टी के हालात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि चार साल की सरकार में शेट्टार राज्य के तीसरे मुख्यमंत्री होंगे। पिछले 11 महीने में यह दूसरा बदलाव है।
हालांकि सदानंद गौड़ा को भी येदियुरप्पा ने ही मुख्यमंत्री बनवाया था, मगर जब उन्हें लगा कि वे कुर्सी पर जमना चाहते हैं तो उन्होंने उन्हें उखाड़ फैंकने का निर्णय किया और जिद करके उनकी जगह शेट्टार को मुख्यमंत्री बनवाने का फैसल करवा लिया। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि कर्नाटक भाजपा में वे कितने ताकतवर हैं। इतने कि पार्टी आलाकमान भी उनके आगे नतमस्तक है। जहां तक येदियुरप्पा के ताकतवर होने का सवाल है, असल में उन्हें कर्नाटक के सर्वाधिक प्रभावी लिंगायत समाज और ब्राह्मणों का समर्थन हासिल है। ऐसे में भाजपा की यह मजबूरी है कि वे उनको नाराज न करे। कई सालों की कड़ी मेहनत के बाद दक्षिण में कर्नाटक के बहाने पांव जमाने का मौका मिला है। पार्टी नीतियों की खातिर आखिर कैसे उन्हें उखडऩे दिया जा सकता है।
असल में येदियुरप्पा के समर्थक मंत्रियों की तो इच्छा यही थी कि येदियुरप्पा को ही फिर से मुख्यमंत्री बनाया जाए, मगर उनके ऊपर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते पार्टी उन्हें फिर पद सौंप कर परेशानी में नहीं पडऩा चाहती थी। इससे बचने के लिए उन्हें येदियुरप्पा की जिद माननी पड़ी। ऐसा करके भले ही वह भ्रष्टाचारी को सत्ता पर काबिज न करने का श्रेय लेने की कोशिश करे, मगर एक भ्रष्टाचारी से ब्लैकमेल होने के दाग से तो नहीं बच पाएगी। जानकारी के मुताबिक वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी तो सदानंद गौड़ा को हटा कर शेट्टार को मुख्यमंत्री बनाने की बजाय मध्यावधि चुनाव के पक्ष में थे, मगर पार्टी यह रिस्क लेने की स्थिति में नहीं थी, क्योंकि भाजपा को दक्षिण भारत में अपना इकलौता राज्य गंवाने की आशंका सता रही है।
कुल मिला कर सर्वाधिक अनुशासित और पार्टी विद द डिफ्रेंस का नारा बुलंद करने वाली भाजपा में येदियुरप्पा ने न केवल बगावत की, अपितु राजनीति में सुचिता की झंडाबरदार पार्टी को ब्लैकमेल भी किया। और सियासत के मौजूदा दौर में वक्त के साथ कदम दर कदम मिला कर चलने की गरज से भाजपा ने भी सिद्धांतों से समझौता कर कड़वा घूंट पी ही लिया। ताजा प्रकरण ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि कीचड़ में कमल की तरह निर्मल रहने का दावा करने वाली भाजपा और अन्य राजनीतिक दलों में कोई भेद नहीं रह गया है। भाजपा को भी अब समझ में आ गया होगा कि आर्दशपूर्ण बातें करना और उन पर अमल करना वाकई कठिन है।
इससे यह भी साबित हो गया है कि भाजपा हाईकमान अब कमजोर हो चुका है और क्षेत्रीय क्षत्रप उसकी पकड़ से बाहर होने लगे हैं। इसी सिलसिले में राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे का नाम लिया जा सकता है, जिन्होंने विधायकों पर पकड़ की आड़ में पार्टी हाईकमान को इस बात के लिए लगभग राजी कर लिया है कि आगामी चुनाव उन्हीं के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा। बस घोषणा की औपचारिकता बाकी है।
असल में पार्टी में आतंरिक लोकतंत्र के ढांचे पर खड़ी भाजपा में इस किस्म की बगावत की संभावनाएं पहले कम ही हुआ करती थीं। केडर बेस होने के कारण हर नेता का वजूद खुद की लोकप्रियता की बजाय पार्टी कार्यकर्ताओं की ताकत से जुड़ा होता था। केवल अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की लोकप्रियता ही ऐसी रही कि उन पर पार्टी का शिंकजा कसना कठिन हुआ करता था। वे भी आखिरकार पार्टी की आत्मा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के आदेश के आगे नतमस्तक हो गए। मगर वक्त बदलने के साथ हालात भी बदले हैं। अब क्षेत्रीय स्तर पर क्षत्रप पनपने लगे हैं। हालांकि वे टिके तो पार्टी की ताकत पर ही हैं, मगर उन्होंने अपनी खुद की ताकत भी पैदा कर ली है।
भाजपा के राजनीतिक इतिहास में जरा पीछे मुड़ कर देखे तो बगावत का सिलसिला पहले ही शुरू हो चुका है। पार्टी में इतिहास का नई इबारत लिखने की शुरुआत करने वाले खुद ताजा अध्यक्ष नितिन गडकरी के सामने ही कई ऐसी समस्याएं आईं, जिनके सामने उन्हें समझौता करना ही पड़ा।
क्या यह सच नहीं है कि खुद को राष्ट्रवादी बताने वाली भाजपा को अपने वजूद की खातिर ही सही, पाक संस्थापक जिन्ना की तारीफ में पुस्तक लिखने वाले जसवंत सिंह को हटाने के कुछ दिन बाद फिर से शामिल करना पड़ा? क्या यह सच नहीं है कि भाजपाइयों के आदर्श वीर सावरकर की तुलना पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना से करने, जिन्ना को इंच-इंच धर्मनिरपेक्ष तक करार देने, पार्टी की मनाही के बाद इंदिरा गांधी के हत्यारों का केस लडऩे, संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी नहीं देने की वकालत करने और पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतरने वाले जेठमलानी को इसी कारण राज्यसभा चुनाव में पार्टी का प्रत्याशी बनाना पड़ा, क्यों उसे एक सीट की दरकार थी?
कुल मिला कर अब भाजपा को पार्टी विथ द डिफ्रेंस का तमगा लगा कर घूमने से पहले दस बार सोचना होगा। 

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

रविवार, जुलाई 01, 2012

कलाम को स्वामी के सवाल का जवाब देना ही होगा


पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री न बनने के सिलसिले में अपनी पुस्तक में जो रहस्योद्घाटन किया है, उससे एक नई बहस की शुरुआत हो गई है। विशेष रूप से सोनिया के विदेशी मूल का मुद्दा सर्वाधिक उठाने वाले सुब्रह्मण्यम स्वामी ने कलाम को जो चुनौती दी है, वह कलाम के सामने एक ऐसा सवाल बन कर खड़ी हो गई है, जिसका जवाब उन्हें देना ही होगा, देना ही चाहिए।
ज्ञातव्य है कि कलाम ने अपनी नई किताब टर्निंग पाइंट्स में सोनिया के प्रधानमंत्री न बनने बाबत जो तथ्या उजागर किया है, उससे अब तक की उन सभी धारणाओं को भंग कर दिया है कि जिनके अनुसार कलाम ने 2004 में सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने पर ऐतराज जताया था। कलाम तो राजनीतिक पार्टियों के भारी दबाव के बावजूद उन्हें प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाने के लिए पूरी तरह तैयार थे। कलाम के मुताबिक सोनिया ही उनके सामने संवैधानिक रूप से मान्य एकमात्र विकल्प थीं। उन्होंने किताब में लिखा है कि मई 2004 में हुए चुनाव के नतीजों के बाद सोनिया गांधी उनसे मिलने आई थीं। राष्ट्रपति भवन की ओर से उन्हें प्रधानमंत्री बनाए जाने को लेकर चि_ी तैयार कर ली गई थी। उन्होंने कहा है कि यदि सोनिया गांधी ने खुद प्रधानमंत्री बनने का दावा पेश किया होता, तो उनके पास उन्हें नियुक्त करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। उन्होंने किताब में आगे लिखा है, 18 मई 2004 को जब सोनिया गांधी मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने के लिए लेकर आईं, तो उन्हे आश्चर्य हुआ। राष्ट्रपति भवन के सचिवालय को चि_ियां फिर से तैयार करनी पड़ीं।
जाहिर सी बात है कि कलाम के इस खुलासे से भाजपा सहित अन्य सभी विरोधी पार्टियों के उस दावे की हवा निकल गई है, जिसमें कहा जाता था कि सोनिया गांधी प्रधानमंत्री तो बनना चाहतीं थीं, लेकिन राष्ट्रपति कलाम ने उनके विदेशी मूल का मुद्दा उठाकर कह दिया था कि उन्हें संवैधानिक मशविरा करना होगा, इसके बाद सोनिया गांधी ने संवैधानिक बाधा को महसूस करते हुए मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनवाया था।
जहां तक इस विषय में सर्वाधिक मुखर रहे स्वामी का सवाल है, उनकी प्रतिक्रिया आनी ही थी, क्यों कि इससे उनकी अब तक की सभी दलीलों की पोल खुल रही है। स्वामी का कहना है कि कलाम इतिहास के साथ अन्याय कर रहे हैं। उन्होंने यह चुनौती भी दी है कि वे वह चिट्ठी भी सार्वजनिक करें, जो उन्होंने 17 मई को शाम 3.30 बजे सोनिया गांधी को लिखी थी। अब जब कि कलाम की पुस्तक प्रकाशित होने से पहले ही उनकी बात को स्वामी ने चुनौती दे दी है, कलाम को जवाब देना ही होगा कि वे क्यों तथ्य को छिपा रहे हैं? उस कथित चिट्ठी में क्या लिखा था?
आपको याद होगा कि जब 2004 के आम चुनाव में कांग्रेस सबसे बड़ा राजनीतिक दल बनकर उभरा तो स्वाभाविक रूप से उसे ही सरकार बनाने के लिए सबसे पहला मौका मिलना था। चूंकि सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष थीं इस कारण उन्होंने प्रधानमंत्री बनने का दावा पेश कर दिया था। शाइनिंग इंडिया का नारा देकर चुनाव में पस्त हो चुकी भाजपा के लिए यह बड़ा झटका था। विशेष रूप से कथित राष्ट्रवादियों के लिए यह डूब मरने जैसा था कि विदेशी मूल की एक महिला देश की प्रधानमंत्री बनने जा रही थीं। उनके सबसे पहले आगे आए गोविन्दाचार्य, जिन्होंने स्वाभिमान आंदोलन खड़ा करने की चेतावनी दे दी थी। यकायक माहौल ऐसा बन गया कि यदि सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बन जातीं तो देश में गृह युद्ध जैसे हालात पैदा कर दिए जाते। ऐसे में स्वाभाविक रूप से तत्कालीन राष्ट्रपति कलाम ने सोनिया को सरकार बनाने का न्यौता देने से पहले कानूनविदों से सलाह मशविरा किया होगा। मशविरा देने वालों में सुब्रह्मण्यम स्वामी भी थे। स्वामी ने कलाम से कहा था कि सोनिया गांधी को राष्ट्रपति बनाने में कानूनी बाधा है। स्वामी के मुताबिक उनकी दलीलों के बाद कलाम ने शाम को पांच बजे सोनिया गांधी से मिलने कार्यक्रम बदल दिया और जो चिट्ठी तैयार की गई थी, उसे रोक दिया। इसके बाद 3.30 बजे सोनिया गांधी को एक पत्र लिखा गया, जिसमें उन्हें यह सूचित किया गया कि उनके प्रधानमंत्री बनने में कानूनी अड़चने हैं।
जाहिर सी बात है कि कलाम कोई संविधान विशेषज्ञ तो हैं नहीं। वे तो राजनीतिक व्यक्ति तक नहीं हैं। उन्होंने संविधान के जानकारों से राय ली ही होगी। उसके बाद भी यदि वे कहते हैं कि सोनिया के प्रधानमंत्री बनने में कोई अड़चन नहीं थी तो उसमें कुछ तो दम होगा ही। रहा सवाल उस चिट्ठी का, जिसे कि स्वामी आन रिकार्ड बता रहे हैं, तो सवाल ये उठता है कि उन्हें यह कैसे पता कि उस चिट्ठी में क्या लिखा था? क्या वह चिट्ठी उन्होंने डिटेक्ट करवाई थी? क्या उसकी कापी उन्हें भी दी गई थी। हालांकि सच तो चिट्ठी के सामने पर ही आ पाएगा, लेकिन यह भी तो हो सकता है कि उसमें यह लिखा गया हो कि हालांकि संविधान के मुताबिक शपथ दिलवाने में कोई अड़चन नहीं है, मगर उनके प्रधानमंत्री बनने पर देश में बड़ा जनआंदोलन हो सकता है। अत: बेहतर ये होगा कि वे किसी और को प्रधानमंत्री बनवा दें। इस चिट्ठी के अतिरिक्त भी अब तक गुप्त जो भी सच्चाई है, उसी की बिना पर एक पक्ष जहां ये मान रहा है कि कलाम ने संविधान का हवाला देते हुए सोनिया को प्रधानमंत्री बनने से रोका था तो दूसरा पक्ष यह कह कर सोनिया को बहुत बड़ी बलिदानी बताते हुए कहते हैं कि उन्होंने अंतरात्मा की आवाज पर प्रधानमंत्री बनने से इंकार कर दिया था। स्वाभाविक रूप से सोनिया को त्याग की देवी बनाए जाने की कांग्रेसी कोशिश विरोधियों को नागवार गुजरती है।
कुल मिला कर आठ साल बाद विदेशी मूल के व्यक्ति के प्रधानमंत्री नहीं बन सकने का मुद्दा एक बार फिर उठा खड़ा हुआ है। ऐसे में कलाम पर यह दायित्व आ गया है कि वे अपनी बात को सही साबित करने के लिए सबूत पेश करें। स्वामी के मुताबिक वह चिट्ठी ही सबसे बड़ा सबूत है, जिसकी वजह से सोनिया ने शपथ नहीं ली। यदि वह चिट्ठी आन रिकार्ड है तो वह सोनिया गांधी के पास तो है ही और उसकी कापी राष्ट्रपति कार्यालय में भी होगी। कलाम अब तो उसे सार्वजनिक कर नहीं सकते। हां, जरूर कर सकते हैं कि उस चिट्ठी का मजमून उजागर कर कर दें। अब देखना ये है कि कलाम क्या करते हैं? एक हिसाब से तो उस चिट्ठी को उजागर करने की जिम्मेदारी सोनिया पर भी आ गई है, क्योंकि अगर वे वाकई त्याग की मूर्ति के रूप में स्थापित हो गई हैं तो साफ करें कि वे वाकई त्याग की मूर्ति हैं। उनके प्रधानमंत्री बनने में कोई बाधा नहीं थी।

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com