तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

सोमवार, जनवरी 26, 2015

सोशल मीडिया पर हुई हामिद अंसारी की जम कर मजम्मत

गणतंत्र दिवस पर राजधानी दिल्ली में आयोजित मुख्य समारोह में गार्ड ऑफ ऑनर के दौरान सैल्यूट नहीं करने को लेकर उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी की सोशल मीडिया पर जम कर मजम्मत हुई। कई हिंदूवादियों ने तो बाकायदा निशाना बना कर उनकी राष्ट्र भक्ति पर सवाल उठाए। कुछ लोगों ने गंदे अल्फाज का प्रयोग किया, जिनमें सांप्रदायिकता की बू आ रही थी। इससे पूर्व एक समारोह में आरती की थाली न लेने का मसला भी फिर से प्रकाश में ला गया। मामले ने राजनीतिक रंग भी लिया। जहां भाजपाई अंसारी की निंदा कर रहे थे, वहीं कांग्रेसी उनका बचाव करते नजर आए। दिन भर फेसबुक व वाट्स ऐप पर बहस होती रही। एक मुस्लिम होने के नाते कीजा रही मजम्मत से कुछ मुस्लिम आहत हुए और प्रतिक्रिया दी तो उन्हें हिंदूवादियों ने घेर लिया। वायरल हुए एक फोटो में तो बाकायदा सेना के कुत्तों को सलामी की मुद्रा में दिखाते हुए मूल फोटो जोड़ा गया, ताकि यह जाहिर हो कि सैल्यूट न करने वालों से तो कुत्ते ही बेहतर, जिनमें कि देशभक्ति मौजूद है। हालांकि सैल्यूट न करने वाले अमरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा की भी आलोचना की गई, पर अंसारी की छीछालेदर बहुत ज्यादा हुई। जाहिर तौर पर बात सरकार तक भी गई। इस पर उपराष्ट्रपति की ओर से सफाई पेश की गई कि उन्होंने सैल्यूट न दे कर कुछ गलत नहीं किया है।
असल में अंसारी के खिलाफ जो कुछ लिखा गया, वह इतना गंदा है कि उसे यहां उल्लेखित करना संभव नहीं है। सोशल मीडिया पर चूंकि किसी का नियंत्रण नहीं है, इस कारण वहां घटिया से घटिया तरीके से भड़ास निकाली गई, मगर यहां उसका हूबहू उल्लेख किया जाना संभव नहीं है। बस इतना ही कहा जा सकता है कि सैल्यूट न करने के कृत्य को उनके मुसलमान होने से जोड़ा गया, जो स्वाभाविक रूप से यह जाहिर करता है कि अब हिंदूवाद पूरी उफान पर है। अहम सवाल सिर्फ ये कि अगर संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति को भी हम हिंदू या मुसलमान की नजर से देखते हैं तो इससे घटिया सांप्रदायिकता कोई हो नहीं सकती।
बहरहाल, अब अंसारी को निर्दोष बताने वाला एक बयान यहां पेश है, जो कितना सही है, वह तो फैसला आप ही कर सकते हैं:-
सोशल मीडिया पर गणतंत्र दिवस के अवसर पर एक फोटो काफी चर्चा में है, उस फोटो में यह दिखाया गया है कि परेड के दौरान गार्ड आफ ऑनर के दौरान उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने सैल्यूट क्यों नहीं किया? आरएसएस ने यह फोटो ट्वीट किया है और उपराष्ट्रपति ने राष्ट्रध्वज को सलाम क्यों नहीं किया? इस बात को यहां साफ करना बहुत जरूरी है कि सच्चाई क्या है और सलामी के नियम क्या कहते हैं। क्योंकि जिन्हें सलामी के नियम नहीं मालूम हैं, वे सोशल मीडिया में उपराष्ट्रपति की बेईज्जती करने से नहीं हिचकेंगे।
सैल्यूट के नियम के अनुसार झंडा फहराने, झंडा झुकाने या परेड के दौरान सलामी लेने के दौरान, वहां मौजूद सभी लोग झंडे की तरफ मुंह किए रहेंगे और सावधान की मुद्रा में खड़े होंगे तथा राष्ट्रपति (तीनों सेना के प्रमुख) और वर्दी में मौजूद लोग सलामी देंगे। जब परेड के दौरान आपके सामने से झंडा गुजर रहा हो तो वहां मौजूद सभी लोग सावधान की मुद्रा में खड़े रह सकते हैं या सलामी भी दे सकते हैं। यानि ये अनिवार्य नहीं है। कोई भी गणमान्य व्यक्ति सलामी दे सकता है, भले ही उसके सिर ढका न हो..। तो ये है सलामी का नियम।
मगर, सोशल मीडिया पर एक फोटो को लेकर किसी की भी धज्जियां उड़ा सकते हैं, लेकिन एक बात नहीं भूलनी चाहिए कि उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी कोई नए नहीं है। उपराष्ट्रपति के तौर पर यह उनका दूसरा कार्यकाल है और वे इन नियमों को अच्छी तरह जानते हैं। इसके पहले भी वो डिप्लोमेट रहे हैं, कई देशों में राजदूत रह चुके हैं और यह उनका गणतंत्र दिवस की परेड में उपराष्ट्रपति के तौर पर आठवां साल है। यानि किसी पर भी इल्जाम लगाने के पहले यह तय कर लेना चाहिए कि नियम क्या कहता है।
उधर विवाद के बाद उनके कार्यालय ने बयान जारी कर स्पष्ट किया कि प्रोटोकॉल के मुताबिक इसकी आवश्यकता नहीं है। संयुक्त सचिव और उपराष्ट्रपति के ओएसडी गुरदीप सप्पल ने बयान जारी कर कहा कि गणतंत्र दिवस परेड के दौरान भारत के राष्ट्रपति सर्वोच्च कमांडर के नाते सलामी लेते हैं। प्रोटोकॉल के मुताबिक उपराष्ट्रपति को सावधान की मुद्रा में खड़ा होने की जरूरत होती है। सप्पल ने कहा कि जब उपराष्ट्रपति प्रधान हस्ती होते हैं तो वे राष्ट्रगान के दौरान पगड़ी पहन कर सैल्यूट देते हैं जैसा कि इस वर्ष एनसीसी शिविर में हुआ।
एक दिलचस्प वाकया ये भी हुआ कि जब कांग्रेसियों से न रहा गया तो उन्होंने भी एक फोटो वायरल किया, जिसमें दिखाया गया था कि एक समारोह में अन्य सभी तो ताली बजा रहे हैं, जबकि मोदी नहीं। हालांकि ये खिसयाना सा ही लगा।

-तेजवानी गिरधर

मंगलवार, जनवरी 20, 2015

मोदी व केजरीवाल, दोनों की अग्नि परीक्षा है दिल्ली विधानसभा का चुनाव

हालांकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल एक-एक बार अपनी-अपनी चमक दिखा चुके हैं, मगर दिल्ली विधानसभा के दुबारा होने जा रहे चुनाव में दोनों को ही एक अग्रि परीक्षा से गुजरना है। एक ओर जहां मोदी को यह साबित करना है कि जो लहर उन्होंने पूरे देश में चला कर सत्ता हासिल की और उसके बाद हुए चुनावों में भी लहर की मौजूदगी का अहसास कराया, क्या वह देश की राजधानी दिल्ली में भी मौजूद है, वहीं केजरीवाल को एक बार फिर उस कसौटी से गुजरना है, जिसमें उन्होंने साबित किया था कि देश को सत्ता परिवर्तन ही नहीं बल्कि व्यवस्था परिवर्तन की जरूरत है।
हालांकि सीधे तौर पर दिल्ली में होने जा रहे चुनाव से मोदी का लेना-देना नहीं है, क्योंकि वहां उन्हें या तो अपनी पार्टी व उसकी नीतियों के आधार पर या फिर किसी व्यक्ति को मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करके चुनावी रणनीति बनानी है, बावजूद इसके इस चुनाव के परिणाम उनकी छवि व लहर का आकलन करने वाले हैं। यूं भी दिल्ली का चुनाव कोई मात्र विधानसभा का ही चुनाव नहीं है, बल्कि वह एक तरह से राष्ट्रीय मुद्दों से प्रभावित रहने वाला है। इसी चुनाव से पता लगेगा कि आम जनता मोदी व उनकी नीतियों का समर्थन करती है या फिर केजरीवाल की कल्पित नई व साफ सुथरी व्यवस्था में अपनी आस्था जताती है।
जैसा नजर आता है, उसके अनुसार भाजपा को मोदी की छवि, उनकी लहर और देश में उसकी सत्ता का लाभ मिलने ही वाला है। दिल्ली विधानसभा के पिछले चुनाव में भाजपा इतनी मजबूत स्थिति में नहीं थी। दूसरा ये कि जो लहर पूरे देश में अन्य विधानसभा चुनावों में दिखाई दी थी, उसका असर दिल्ली में नजर नहीं आया था। वहां चूंकि जनता सीधे तौर पर अन्ना हजारे के आंदोलन व केजरीवाल की मुहिम से सीधे जुड़ी हुई थी, इस कारण मोदी के नाम का कोई खास चमत्कार नहीं हो पाया था। मगर अब स्थितियां भिन्न हैं। मोदी एक बड़ा पावर सेंटर बन चुके हैं, जबकि केजरीवाल मुख्यमंत्री पद से स्तीफा देकर लोकसभा चुनाव में खराब परफोरमेंस की वजह से पहले जितने लोकप्रिय नहीं रह गए हैं। उनकी दिल्ली की राजनीतिक गणित पर पकड़ तो है, मगर सवाल ये उठता है क्या दिल्ली की जनता केन्द्र में भाजपा की सरकार के रहते केजरीवाल को दुबारा मुख्यमंत्री बनने का मौका देगी? क्या जिन मुद्दों से आकर्षित हो कर जनता ने केजरीवाल का साथ दिया था, वे अब बदली परिस्थितियों में भी उसे जरूरी नजर आते हैं?
कुल मिला कर मोदी व केजरीवाल के लिए ये चुनाव बेहद प्रतिष्ठापूर्ण हैं। अगर भाजपा यह चुनाव हारती है तो इसी के साथ मोदी लहर के अवसान की शुरुआत हो जाएगी। और अगर जीतती है तो मोदी और अधिक ताकतवर हो जाएंगे। उधर केजरीवाल के लिए बड़ी परेशानी है। अगर वे जीतते हैं तो फिर से अपनी पार्टी को संवारने और उसे राष्ट्रीय स्तर पर ले जाने का मौका पाएंगे और अगर हारते हैं तो इसी के साथ उनके राजनीतिक अवसान का खतरा उत्पन्न हो जाएगा।
-तेजवानी गिरधर