तीसरी आंख

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सोमवार, जनवरी 06, 2025

क्या भगवान प्रसाद ग्रहण करते हैं?

स्थूल व तार्किक बुद्धि का एक सवाल है कि हम भगवान की मूर्ति के आगे जो प्रसाद चढ़ाते हैं, क्या वह उसे ग्रहण करती है? अगर ग्रहण करती है तो वह कम क्यों नहीं होता? अगर मूर्ति प्रसाद का अंश मात्र भी ग्रहण नहीं करती तो फिर प्रसाद चढ़ाने का प्रयोजन क्या है? सवाल वाजिब है।

इसी से जुड़ा सवाल है कि जब सब कुछ भगवान का ही दिया हुआ है तो वही उसे अर्पण करने का क्या मतलब है? जिसने संपूर्ण चराचर जगत  बनाया है, सारे भोज्य पदार्थ उसी की देन हैं। उसी का अंश मात्र अर्पित करने से उसे क्या फर्क पड़ता होगा?

भगवान की मूर्ति भोग ग्रहण करती है या नहीं, इस शंका का समाधान करते हुए एक प्रसंग कुछ इस प्रकार व्यक्त किया गया है-

एक शिष्य ने अपने गुरू से यही प्रश्न किया। इस पर उन्होंने पुस्तक में अंकित एक श्लोक कंठस्थ करने को कहा। एक घंटे बाद गुरू ने शिष्य से पूछा कि उसे श्लोक कंठस्थ हुआ कि नहीं। इस पर शिष्य ने शुद्ध उच्चारण के साथ श्लोक सुना दिया। गुरू ने पुस्तक दिखाते हुए कहा कि श्लोक तो पुस्तक में ही है, तो वह तुम्हारी स्मृति में कैसे आ गया? स्वाभाविक रूप से शिष्य निरुत्तर हो गया। गुरू ने समझाया कि पुस्तक में जो श्लोक है, वह स्थूल रूप में है । तुमने जब श्लोक पढ़ा तो वह सूक्ष्म रूप में तुम्हारे अंदर प्रवेश कर गया, लेकिन पुस्तक में स्थूल रूप में अंकित श्लोक में कोई कमी नहीं आई। इसी प्रकार भगवान हमारे प्रसाद को सूक्ष्म रूप में ग्रहण करते हैं और इससे स्थूल रूप के प्रसाद में कोई कमी नहीं आती।

वस्तुतर: प्रसाद चढ़ाना एक भाव है, कृतज्ञता प्रकट करने का। और भाव की ही महिमा है। कहा तो यहां तक जाता है कि अगर हमारे पास पुष्प, फल, मिष्ठान्न आदि नहीं हैं तो भी अगर हम कल्पना करके सच्चे भाव से उसे अर्पित करते हैं तो वह उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना भौतिक रूप से प्रसाद चढ़ाने का। अर्थात महत्व पदार्थ का नहीं, बल्कि भाव का है। उससे भी दिलचस्प बात ये है कि भगवान को चढ़ाया हुआ प्रसाद दिव्य हो जाता है। भले ही उसमें रासायनिक रूप से कोई अंतर न आता हो, तो भी उसके एक-एक कण में दिव्यता आ जाती है। यह भी एक भाव है। तभी तो कहते हैं कि प्रसाद का तो एक कण ही काफी है, जरूरी नहीं कि वह अधिक मात्रा में हो। इसके अतिरिक्त प्रयास ये भी रहता है कि वह अधिक से अधिक के मुख में जाए। यह भी एक भाव है, सबके भले का।

एक आरती में तो बाकायदा एक पंक्ति है कि तेरा तुझ को अर्पण, क्या लागे मेरा। ऐसा इसलिए कहा जाता है ताकि कृतज्ञता प्रकट करते समय यह अहम भाव न आ जाए कि मैने कुछ अर्पित किया है। एक रोचक बात देखिए। भगवान को हम हमारा ही विराट रूप मानते हैं। इसी कारण जैसे मौसम के अनुसार हमारा भोजन परिवर्तित होता है, तो प्रसाद भी हम वैसा ही चढ़ाते हैं। यहां तक कि सर्दी में भगवान की मूर्ति को गरम वस्त्र पहनाते हैं। भला मूर्ति को भी कोई ठंड लगती है? मगर ये हमारा भाव है। और कहते भी हैं कि भगवान भाव के भूखे हैं। तभी तो वे शबरी के झूठे बेर भी ग्रहण कर लेते हैं।

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दीपक से दीपक क्यों नहीं जलाना चाहिए?

हमारे यहां दीप से दीप जले की बड़ी महिमा है। ज्ञान के प्रसार के लिए इस उक्ति का प्रयोग किया जाता है। व्यवहार में यह बिलकुल ठीक भी है। एक व्यक्ति से ही दूसरे में ज्ञान का प्रकाश जाता है और उससे आगे वह अन्य में। इस प्रकार यह सिलसिला चलता रहता है। मगर धर्म के जानकार कहते हैं कि एक दीपक से दूसरा दीपक नहीं जलाना चाहिए। हर दीपक को नई दियासलाई से जलाने की सलाह दी जाती है। सवाल ये उठता है कि यह मान्यता कैसे स्थापित हुई?

सामान्यतरू हमें एक दीपक से दूसरे दीपक को जलाने में कुछ भी गलत प्रतीत नहीं होता। चाहे दीपक से जलाओ या दूसरी दियासलाई से, क्या फर्क पड़ता है? अगर हमें अधिक दीपक जलाने हैं तो यह निरी मूर्खता ही होगी कि हर दीपक को जलाने के लिए नई दियासलाई काम में लें। तो फिर धर्म के जानकार अलग-अलग दीपक को अलग-अलग जलाने की सलाह क्यों देते हैं?

बताया जाता है कि जब हम किसी दीपक को जलाते हैं तो वह अग्नि की एक इकाई होती है। जिस भी देवी-देवता के नाम दीपक जलाया गया है, वह उसी के नाम होता है। उसको शेयर नहीं किया जा सकता। यदि हम उसी दीपक से दूसरा दीपक जलाते हैं तो वह जूठन के समान हो जाता है। जब हम किसी का जूठा नहीं खाते तो एक देवता की जूठी अग्नि दूसरे को कैसे अर्पित कर सकते हैं। मान्यता है कि ऐसी जूठी अग्नि दूसरे दीपक के देवता को स्वीकार्य भी नहीं होती।

कुछ जानकार कहते हैं कि दीपक से दीपक जलाने से ऋण का भार बढ़ता है। इसके पीछे क्या तर्क है, क्या विज्ञान है, पता नहीं। हो सकता है ऐसा इसलिए माना जाता हो एक दीपक की ज्योति दूसरे दीपक के लिए उधार लेने की घटना हमारे जीवन में ऋण लेने के रूप में घटित होती हो।

प्रसंगवश इस जानकारी पर भी चर्चा कर लेते हैं। एक दियासलाई से सिर्फ एक ही सिगरेट जलाने का भी चलन है। हद से हद दो सिगरेटें जलाई जाती हैं। तीसरी सिगरेट तक के लिए दियासलाई बच जाने पर भी उसे बुझा कर नई दियासलाई जलाई जाती है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह चलन तीन तिगाड़ा काम बिगाड़ा की मान्यता के कारण है। कुछ लोग बताते हैं कि इसका चलन सेना से आया। सैनिकों की मान्यता है कि लगातार एक के बाद एक सिगरेट एक ही दियासलाई से जलाने पर एक रेखा निर्मित होती है। दुश्मन को पता चल जाता है कि वहां सैनिक पंक्तिबद्ध खड़े हैं और वह आक्रमण कर सकता है।

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