तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

मंगलवार, अगस्त 14, 2012

वसुंधरा के नेतृत्व में चुनाव लडऩे पर असमंजस

राजस्थान में आगामी विधानसभा चुनाव पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा के नेतृत्व में घोषित रूप से लड़े जाने पर अभी असमंजस बना हुआ है। भाजपा का संघनिष्ठ धड़ा हालांकि भाजपा की सरकार बनने पर श्रीमती वसुंधरा को ही मुख्यमंत्री बनाने पर सहमत है, मगर उन्हें पहले से मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट न करने पर जोर डाल रहा है। इस संबंध में उसका तर्क ये है कि जिस प्रकार गुजरात में मुख्यमंत्री नरेद्र मोदी के कहीं न कहीं पार्टी लाइन से ऊपर होने के कारण वहां हालात दिन ब दिन खराब होते जा रहे हैं, ठीक उसी प्रकार की स्थिति राजस्थान में भी होती जा रही है। ऐसे में बेहतर ये होगा कि उन्हें पहले से मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित न किया जाए, बाद में भले ही भाजपा को बहुमत मिलने पर उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया जाए।
इसी के साथ एक महत्वपूर्ण जानकारी ये भी है कि संघ का धड़ा वसुंधरा को फ्रीहैंड दिए जाने के पक्ष में भी नहीं है। उसका कहना है कि ऐसा करने पर वे अपने समानांतर धड़े को निपटाने की कोशिश कर सकती हैं, जैसा कि वे पहले भी कर चुकी हैं। कई पुराने नेता हाशिये पर धकेल दिए गए। और यदि ऐसा हुआ तो चुनाव में पार्टी को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी। असल में उनका इशारा इस संभावना की ओर है, जिसके तहत यह माना जा रहा है कि चुनाव से पहले वसुंधरा राजे को प्रदेश भाजपा अध्यक्ष का जिम्मा सौंपा जा सकता है। संघ का यह धड़ा मौजूदा अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी को हटाए जाने के पक्ष में भी नहीं है। चतुर्वेदी को हटाए जाने को वह अपनी हार के रूप में देख रहा है।
वस्तुत: श्रीमती राजे को प्रदेश अध्यक्ष बनाने के लिए दबाव बनाने वालों का कहना है कि अगर पार्टी को चुनाव में जीत हासिल करनी है तो वसुंधरा को टिकट वितरण अपने हिसाब से करने की छूट देनी होगी। इसके पीछे उनका तर्क ये है कि यदि प्रदेश अध्यक्ष कोई और होता है तो वह टिकट वितरण के समय रोड़ा अटका सकता है, जिसकी वजह से गलत प्रत्याशियों को टिकट मिल जाने की आशंका रहेगी। अपनी इस बात पर जोर डालने के लिए वे पिछले चुनाव का जिक्र करते हैं कि तब प्रदेश अध्यक्ष ओम माथुर के कुछ टिकटों के लिए अड़ जाने के कारण ऐसे प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतारने पड़े, जो कि हार गए और भाजपा जीती हुई बाजी हार गई। हालांकि वे इस बात पर सहमत हैं कि संघ लॉबी को भी पूरी तवज्जो दी जानी चाहिए और उनके सुझाये हुए प्रत्याशियों को भी टिकट दिए जाएं, मगर कमान केवल वसुंधरा के हाथ में दी जाए। वसुंधरा खेमा इस बात पर भी नजर रखे हुए है कि कहीं संघ लॉबी कुछ ज्यादा हावी न हो जाए। अगर ऐसा होता है तो वे पहले की ही तरह फिर से इस्तीफा हस्ताक्षर अभियान जैसी किसी मुहिम की रणनीति अपना सकते हैं।
समझा जाता है कि फिलहाल पार्टी हाई कमान इस बात को लेकर असमंजस में है कि वसुंधरा को प्रदेश अध्यक्ष बनाया जाए अथवा नहीं। इस बात की संभावना भी तलाशी जा रही है कि वसुंधरा विरोधी लॉबी को संतुष्ट करने के लिए किसी ऐसे नेता को प्रदेश अध्यक्ष का दायित्व सौंपा जाए, जो कि संघ और वसुंधरा दोनों को स्वीकार्य हो। इस सिलसिले में पूर्व गृह मंत्री गुलाब चंद कटारिया का नाम सामने आ रहा है। हालांकि पिछले दिनों कटारिया की प्रस्तावित मेवाड़ यात्रा को लेकर जो बवाल हुआ, उससे ऐसा प्रतीत हुआ कि वे वसुंधरा को चुनाती देने जा रहे हैं और दोनों के बीच संबंध काफी कटु हो चुके हैं, जबकि वस्तुस्थिति ये है कि वह विवाद केवल मेवाड़ अंचल में व्याप्त धड़ेबाजी की वजह से उत्पन्न हुआ। वहां वर्चस्व को लेकर कटारिया व किरण में जबरस्त खींचतान है और उसी वजह से इतना बड़ा नाटक हो गया। उस झगड़े की जड़ किरण माहेश्वरी थीं। अर्थात वसुंधरा व कटारिया के संबंध उतने कटु नहीं हैं, जितने कि समझे जा रहे हैं। कटारिया के अतिरिक्त पूर्व अध्यक्ष ओम माथुर का नाम भी सामने आ रहा है।
कुल मिला कर ताजा स्थिति ये है कि हाईकमान इस मुद्दे पर और विचार कर लेना चाहता है। विशेष रूप से दिसंबर में राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी का कार्यकाल बढ़ाए जाने अथवा स्थितियां बदलने की संभावना के बीच राजस्थान के मसले को एक तरफ ही रखने के पक्ष में है। वैसे उसका एक मात्र मकसद राजस्थान पर फिर काबिज होना है। इसके लिए वह दोनों धड़ों के बीच तालमेल बनाए रखने पर ही पूरी ताकत लगाएगा। वजह ये है  कि एक ओर जहां वसुंधरा खेमा ताकतवर होने के कारण आक्रामक है, वहीं संघ के हार्डकोर नेताओं की मंशा ये है कि इस बार येन केन प्रकारेण वसुंधरा को राजस्थान से रुखसत कर दिया जाए। यह स्थिति पार्टी के लिए बेहद घातक साबित हो सकती है। लब्बोलुआब राजस्थान भाजपा का मसला बेहद नाजुक है और उसे बड़ी सावधानी से निपटाए जाने की कोशिश की जा रही है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com